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[ध्यायंति ] ध्यावते हैं, [ते परं ] वे ही [परममुनयः ] परममुनि [नियमेन ] निश्चयकर
[निर्वाण ] निर्वाणको [लघु ] शीघ्र [लभंते ] पाते हैं
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अस्माकं संदेहोऽस्ति
तो आ विषयमां मने संदेह छे.
सर्वार्थसिद्धिनी टीकामां पण कह्युं छे के ‘द्रव्यपरमाणु’ शब्दथी द्रव्यनी सूक्ष्मता अने ‘भावपरमाणु’
शब्दथी भावनी सूक्ष्मता समजवी. ते आ प्रमाणे
छे.
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परद्रव्यना आलंबनरूप ध्याननो निषेध कर्यो ने निजशुद्धात्माना ध्यानथी ज मोक्ष छे एम कह्युं,
तो आवुं कथन क्यां कहेल छे?
नहीं हैं, इसलिये सूक्ष्म है
कहा है ‘‘आत्मानम्’’ इत्यादि
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निर्विकल्पसमाधिनाराधयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः सर्वज्ञो जात इत्यर्थः
पुनरनीहितवृत्त्या ग्राह्याः
तथात्र शुक्लध्याने चेति
साक्षान्मुक्ति कारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं नास्त्येकान्तः, एवं साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये
सिद्धांतमां जे बेतालीश भेदो कह्या छे ते पण अनीहित वृत्तिथी समजवा. क्या द्रष्टांतथी? एवा
प्रश्नना उत्तरमां तेनुं द्रष्टांत आपवामां आवे छे.
अहीं शुक्लध्यानमां पण समजवुं.
ज्यारे स्थिर थाय त्यारे साक्षात् मुक्तिनुं कारण एवुं स्वशुद्धात्मतत्त्व ज ध्याववा योग्य छे, त्यां
शुक्लध्यानमें निजवस्तु और निजभावका ही सहारा है, परवस्तुका नहीं
जानना
ही शुक्लध्यानमें भी ऐसे ही जानना
आदि पंचपरमेष्ठी ध्यान करने योग्य है, बादमें चित्तके स्थिर होने पर साक्षात् मुक्तिका कारण
जो निज शुद्धात्मतत्त्व है, वही ध्यावने योग्य है
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पण मोक्ष थाय.
सामान्यरूप देखना, [तत् ] वह [निजदर्शनं ] दर्शन है, [पश्य ] उसको तू जान
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तस्य दर्शनमवलोकनं जोइ पश्य जानीहीति
श्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्या
छे अने ते, मिथ्यात्वादि सात प्रकृतिओना उपशम, क्षयोपशम तथा क्षयजनित तत्त्वार्थश्रद्धानरूप
सम्यक्त्वनो अभाव होवाथी ‘शुद्धात्मतत्त्व ज उपादेय छे’ एवी श्रद्धानो अभाव होतां, ते
मिथ्याद्रष्टिओने होतुं नथी, एवो भावार्थ छे. ३४.
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शुद्ध आत्मानी अनुभूतिरूप-रुचिरूप-वीतराग सम्यक्त्व होय छे तेम ज शुद्धात्मानी अनुभूतिमां
स्थिरतारूप वीतराग चारित्र होय छे ते काळे ते चार भेदोमां जे बीजुं मन संबंधी निर्विकल्प
-अचक्षुदर्शन छे ते मन संबंधी पूर्वोक्त सत्तावलोकनरूप निर्विकल्प दर्शन पूर्वोक्त
निश्चयसम्यक्त्व अने निश्चयचारित्रना बळथी निर्विकल्प निज शुद्ध आत्मानुभूतिरूप ध्यान वडे
[वस्तुविशेषं जानन् ] वस्तुकी विस्तीर्णताको जाननेवाला है, उस ज्ञानको [जीव ] हे जीव
[अविचलं ] संशय विमोह विभ्रमसे रहित [मन्यस्व ] तू जान
अवस्थामें प्रशंसा योग्य है, ऐसा भगवानने कहा है
रुचिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है, और शुद्धात्मानुभूतिमें स्थिरतारूप वीतरागचारित्र होता है,
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तथैव च शुद्धात्मानुभूतिस्थिरतालक्षणं वीतरागचारित्रं भवति तदा काले तत्पूर्वोक्तं सत्तावलोक-
लक्षणं मानसं निर्विकल्पदर्शनं कर्तृ पूर्वोक्त निश्चयसम्यक्त्वचारित्रबलेन निर्विकल्पनिजशुद्धात्मा-
नुभूतिध्यानेन सहकारिकारणं भवति
निश्चयसम्यक्त्व अने चारित्रनो अभाव होवाथी सहकारी कारण थतुं नथी. ३५.
विकल्प रहित निज शुद्धात्मानुभूतिके ध्यानकर सहकारी कारण होता है
क्योंकि अभव्यजीव मुक्तिका पात्र नहीं है
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निर्जराहेतुरुच्यते न केवलं ध्यानपरिणतपुरुषो निर्जराहेतुरुच्यते तउ परद्रव्येच्छानिरोधरूपं
बाह्याभ्यन्तरलक्षणं द्वादशविधं तपश्च
उत्तमसंहनना अभावमां ध्यान केवी रीते होय?
छे. पण अपूर्वकरण गुणस्थानथी नीचेना गुणस्थानोमां ते धर्मध्याननुं निषेधक नथी (धर्मध्याननी
आगममां ना कही नथी) (श्री रामसेन कृत) तत्त्वानुशासन नामना ग्रंथमां (गाथा ८४मां)
हुआ अभेदनयसे [कर्मणः निर्जराहेतुः ] शुभ अशुभ कर्मोंकी निर्जराका कारण है, ऐसा
भगवान्ने [उच्यते ] कहा है, और [संगविहीनः तपः ] बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित परद्रव्यकी
इच्छाके निरोधरूप बाह्य अभ्यंतर अनशनादि बारह प्रकारके तपरूप भी वह ज्ञानी है
ही नहीं है, वहाँ ध्यान किस तरहसे हो सकता है ? उसका समाधान श्रीगुरु कहते हैं
क्षपकश्रेणीवालोंके जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा कहा गया है
पाया है, वे ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे आते हैं, और क्षपकश्रेणी एक वज्रवृषभनाराच
संहननवालेके ही होती है, वे आठवें गुणस्थानमें क्षपकश्रेणी माँड़ते (प्रारंभ करते) हैं, उनके
आठवें गुणस्थानमें शुक्लध्यानका पहला पाया (भेद) होता है, वह आठवें, नववें, दशवें
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तेनाथी नीचेना गुणस्थानमां थता ध्यानने कोईपण संहननमां निषेध करनारुं नथी.
आचरो. श्री तत्त्वानुशासन (गाथा ८६मां) पण तेवुं कह्युं छे के
दूसरा पाया होता है, उसके प्रसादसे केवलज्ञान पाता है, और उसी भवमें मोक्षको जाता
है
नीचे धर्मध्यान ही है, उसका निषेध किसी संहननमें नहीं है
और श्रेणीके नीचे जो धर्मध्यान है, उसका निषेध (न होना) किसी संहननमें नहीं कहा
है, यह निश्चयसे जानना
चारित्रका आचरण करो
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तथादिकत्रिकसंहननलक्षणशुक्लध्यानाभावेऽपि शेषसंहनेनापि शेषचारित्रमाचरन्ति तपस्विनः तथा
त्रिकसंहननलक्षणशुक्लध्यानाभावेऽपि शेषसंहनेनापि संसारस्थितिच्छेदकारणं परंपरया मुक्ति कारणं
च धर्मध्यानमाचरन्तीति
अथवा लोकान्तिकदेव थाय छे अने त्यांथी च्यवी (मनुष्य थईने) मोक्षे जाय छे.
आचरे छे तथा पहेला त्रण संहननवाळा शुक्लध्यानना अभावमां पण बाकीनां संहनन
वडे संसारस्थितिने छेदवानुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण एवुं धर्मध्यान आचरे
छे. ३६.
यह जीव इन्द्र पदको पाता है, अथवा लौकांतिकदेव होता है, और वहाँसे च्युत होकर
मनुष्यभव धारण करके मोक्षको पाता है
छेदोपस्थापनाका आचरण करो, तथा धर्मध्यानको आचरो
उपशमश्रेणीसंबंधी तीनों संहननोंमें है, और दूसरा, तीसरा, चौथा पाया प्रथम संहननवाले ही
के होता है, ऐसा नियम है
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पुण्णहं पावहं पुण्यस्य पापस्य संबन्धी तेण तेन कारणेन जिय हे जीव संवर-हेउ संवरहेतुः
कारणं हवेइ भवतीति
पुण्यकर्म-पापकर्मके संवर (रोकने) के कारण हैं, आनेवाले कर्मोंको रोकते हैं, ऐसा दिखलाते
हैं
[करोति ] धारण करता है, अर्थात् राग, द्वेष, मोह रहित स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप परिणमन
करता है, विभावरूप नहीं परिणमता, [तेन ] इसी कारण [जीव ] हे जीव, वह मुनि [पुण्यस्य
पापस्य संवरहेतुः ] सहजमें ही पुण्य और पाप इन दोनोंके संवरका कारण [भवति ] होता है
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द्रव्यभावरूपपुण्यपापसंवरस्य हेतुः कारणं भवतीति
हेतु थाय छे.
आत्माना संवेदनने छोडतो नथी ते पुरुष ज अभेदनयथी द्रव्यभावरूप पुण्य-पापना संवरनुं
कारण थाय छे. ३७.
द्रव्य भावरूप पुण्य-पापके संवरका कारण है
परिणमता हुआ अपने स्वभावमें तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट; [त्वं ] तू
[सकलविकल्पविहीनम् ] समस्त विकल्प समूहोंसे रहित अर्थात् ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा
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इत्थंभूतपरिणामपरिणतं तपोधनमेवाभेदेन संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ संवरनिर्जरास्वरूपं जानीहि
त्वम्
तुं आवा परिणामरूपे परिणमेला, संकल्प-विकल्पथी रहित ख्यातिपूजालाभआदिना विकल्पनी
जाळावलीथी रहित-तपोधनने संवरनिर्जरास्वरूप जाण.
निर्जरा स्वरूप [जानीहि ] जान
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परमानन्दैकसुखरसास्वादरूपं समभावं करोतीति भावार्थः
वीतराग परमानंदरूप सुखरसना आस्वादरूप समभावने करे छे. कह्युं पण छे के
ददाति ] नहीं होने देता, [यः ] जो कि [सकलं ] सब [संगं ] बाह्य अभ्यंतर परिग्रहको
[मुक्त्वा ] छोड़कर [उपशमभावं ] परम शांतभावको [करोति ] करता है, अर्थात् जीवन,
मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र, तृण, कांचन इत्यादि वस्तुओंमें एकसा परिणाम
रखता है
करता है, और नवीन कर्मोंको रोकता है
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रसस्वादवाळो आ आत्मा छे अने निरंतर आकुळताना उत्पादक होवाथी कटुक-
टीका है
समभाव रहित जीवके [एकं अपि ] तीन रत्नोंमेंसे एक भी [नैव अस्ति ] नहीं है, [एवं ] इस-
प्रकार [जिनवरः ] जिनेन्द्रदेव [भणति ] कहते हैं
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एवं भणतीति
कटुकरसास्वादाः कामक्रोधादय इति भेदज्ञानं तस्यैव भवति स्वरूपे चरणं चारित्रमिति
वीतरागचारित्रं तस्यैव भवति
चारित्र’ एवुं वीतराग चारित्र तेने ज होय छे के जे वीतराग निर्विकल्प परमसामायिकनी
भावनाने अनुकूळ निर्दोष परमात्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
समभाव करे छे. ४०.
नक्की करे छेः
क्रोधादिक हैं, वे महा कटुक रसरूप अत्यंत विरस हैं, ऐसा
जानना, वह सम्यग्ज्ञान और स्वरूपके आचरणरूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावके धारण
करनेवालेके ही होता है, जो मुनीश्वर वीतराग निर्विकल्प परम सामायिकभावकी भावनाके
अनुकूल (सन्मुख) निर्दोष परमात्माके यथार्थ श्रद्धान, यथार्थ ज्ञान और स्वरूपका यथार्थ
आचरणरूप अखंडभाव धारण करता है, उसीके परमसमाधिकी सिद्धि होती है
है
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पुनरसंयतो भवतीति
छे अने तेनाथी विपरीत परमात्मामां आकुळताना उत्पादक कामक्रोधादिमां परिणमेलो होय छे
त्यारे असंयत होय छे. कह्युं पण छे के
[कषायाणां ] क्रोधादि कषायोंके [वशे गतः ] आधीन हुआ [स एव ] वही जीव [असंयतः ]
असंयमी [भवति ] होता है
संयमी कहलाता है, और आत्मभावनामें परम आकुलताके उपजानेवाले काम क्रोधादिक
अशुद्ध भावोंमें परिणमता हुआ जीव असंयमी होता है, इसमें कुछ संदेह नहीं है
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परमात्मतत्त्वना विनाशक एवा क्रोधादि कषायो थाय छे. मोहकषायनो अभाव थतां तुं रागादि
मोह निमित्तक पदार्थको [मुंच ] छोड़, [मोहकषायविवर्जितः ] फि र मोहको छोड़नेसे मोह
कषाय रहित हुआ तू
इसलिये मोह कषायके अभाव होने पर ही रागादि रहित निर्मल ज्ञानको तू पा सकेगा
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भवन्ति पश्चान्मोहकषायाभावे सति रागादिरहितं विशुद्धज्ञानं लभसे त्वमित्यभिप्रायः
पण छे के
जोईए.) ४२.
जिससे कषायें शांत हों
दहकती रहती है
हैं