Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 33-38 (Adhikar 2),39 (Adhikar 2) Param Upashamabhavni Mukhyata,40 (Adhikar 2),41 (Adhikar 2),42 (Adhikar 2),43 (Adhikar 2).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 15 of 29

 

Page 267 of 565
PDF/HTML Page 281 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३३ ]परमात्मप्रकाशः [ २६७
भावयन्तीत्यभिप्रायः ।।३२।।
अथात्मानं गुणस्वरूपं रागादिदोषरहितं ये ध्यायन्ति ते शीघ्रं नियमेन मोक्षं लभन्ते
इति प्रकटयति
१५९) अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति
ते पर णियमेँ परम-मुणि लहु णिव्वाणु लहंति ।।३३।।
आत्मानं गुणमय निर्मले अनुदिनं ये ध्यायन्ति
ते परं नियमेन परममुनयः लघु निर्वाण लभन्ते ।।३३।।
अप्पा इत्यादि अप्पा आत्मानं कर्मतापन्नम् कथंभूतम् गुणमउ गुणमयं
केवलज्ञानाद्यनन्तगुणनिर्वृत्तम् पुनरपि कथंभूतम् णिम्मलउ निर्मलं भावकर्मद्रव्य-
कर्मनोकर्ममलरहितं अणुदिणु दिनं दिनं प्रति अनुदिनमनवरतमित्यर्थः इत्थंभूतमात्मानं जे
निश्चय नयथी ध्यावे छे-भावे छे. एवो अभिप्राय छे. ३२.
हवे, जेओ रागादिदोष रहित, अनंतगुणस्वरूप आत्माने ध्यावे छे तेओ नियमथी शीघ्र
मोक्षने पामे छे, एम प्रगट करे छेः
भावार्थआ कथन सांभळीने अहीं प्रभाकरभट्ट पूछे छे के अहीं आपे कह्युं के
जे शुद्ध आत्मानुं ध्यान करे छे ते ज मोक्ष पामे छे, बीजो कोई नहि; ज्यारे चारित्रसार
निजरूपको ही ध्यावते हैं ।।३२।।
आगे यह व्याख्यान करते हैंजो अनंत गुणरूप रागादि दोष रहित निज आत्माको
ध्यावते हैं, वे निश्चयसे शीघ्र ही मोक्षको पाते हैं
गाथा३३
अन्वयार्थ :[ये ] जो पुरुष [गुणमय ] केवलज्ञानादि अनंत गुणरूप [निर्मले ]
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म मल रहित निर्मल [आत्मानं ] आत्माको [अनुदिनं ] निरंतर
[ध्यायंति ] ध्यावते हैं, [ते परं ] वे ही [परममुनयः ] परममुनि [नियमेन ] निश्चयकर
[निर्वाण ] निर्वाणको [लघु ] शीघ्र [लभंते ] पाते हैं
भावार्थ :यह कथन श्रीगुरुने कहा, तब प्रभाकरभट्टने पूछा कि हे प्रभो; तुमने कहा
कि जो शुद्धात्माका ध्यान करते हैं, वे ही मोक्षको पाते हैं, दूसरा नहीं तथा चारित्रसारादिक

Page 268 of 565
PDF/HTML Page 282 of 579
single page version

२६८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३३
झायंति ये केचन ध्यायन्ति ते पर ते एव नान्ये णियमें निश्चयेन किंविशिष्टास्ते परम-मुणि
परममुनयः लहु लघु शीघ्रं लहंति लभन्ते किं लभन्ते णिव्वाणु निर्वाणमिति अत्राह
प्रभाकरभट्टः अत्रोक्तं भवद्भिर्य एव शुद्धात्मध्यानं कुर्वन्ति त एव मोक्षं लभन्ते न चान्ये
चारित्रसारादौ पुनर्भणितं द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं वा ध्यात्वा केवलज्ञानमुत्पादयन्तीत्यत्र विषये
अस्माकं संदेहोऽस्ति
अत्र श्रीयोगीन्द्रदेवाः परिहारमाहः तत्र द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं
भावपरमाणुशब्देन भावसूक्ष्मत्वं ग्राह्यं न च पुद्गलद्रव्यपरमाणुः तथा चोक्तं सर्वार्थ-
सिद्धिटिप्पणिके द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं भावपरमाणुशब्देन भावसूक्ष्मत्वमिति तद्यथा
द्रव्यमात्मद्रव्यं तस्य परमाणुशब्देन सूक्ष्मावस्था ग्राह्या सा च रागादिविकल्पोपाधिरहिता तस्य
सूक्ष्मत्वं कथमिति चेत्, निर्विकल्पसमाधिविषयत्वेनेन्द्रियमनोविकल्पातीतत्वात् भावशब्देन
आदि ग्रंथोमां कह्युं छे के द्रव्यपरमाणु अने भावपरमाणुने ध्यावीने केवळज्ञान उत्पन्न करे छे
तो आ विषयमां मने संदेह छे.
अहीं, श्री योगीन्द्रदेव परिहार करे छेःत्यां ‘द्रव्यपरमाणु’, शब्दथी द्रव्यनुं सूक्ष्मपणुं
अने ‘भावपरमाणु’ शब्दथी भावनुं सूक्ष्मपणुं समजवुं पण पुद्गलद्रव्यपरमाणु न समजवो.
सर्वार्थसिद्धिनी टीकामां पण कह्युं छे के ‘द्रव्यपरमाणु’ शब्दथी द्रव्यनी सूक्ष्मता अने ‘भावपरमाणु’
शब्दथी भावनी सूक्ष्मता समजवी. ते आ प्रमाणे
द्रव्य अर्थात् आत्मद्रव्य समजवुं, तेनी
‘परमाणु’ शब्दथी सूक्ष्म अवस्था समजवी. ते सूक्ष्म अवस्था रागादि विकल्पोनी उपाधिथी रहित
छे.
शंका :ते सूक्ष्म कई रीते छे?
तेनुं समाधाान :निर्विकल्प समाधिनो विषय होवाथी अने इन्द्रिय, मनना विकल्पथी
ग्रंथोंमें ऐसा कहा है, जो द्रव्यपरमाणु और भावपरमाणुका ध्यान करें वे केवलज्ञानको पाते हैं
इस विषयमें मुझको संदेह है तब श्रीयोगीन्द्रदेव समाधान करते हैंद्रव्यपरमाणुसे द्रव्यकी
सूक्ष्मता और भावपरमाणुसे भावकी सूक्ष्मता कही गई है उसमें पुद्गल परमाणुका कथन नहीं
है तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी ऐसा ही कथन है, द्रव्यपरमाणुसे द्रव्यकी सूक्ष्मता
और भावपरमाणुसे भावकी सूक्ष्मता समझना, अन्य द्रव्यका कथन न लेना यहाँ निज द्रव्य
तथा निज गुण पर्यायका ही कथन है, अन्य द्रव्यका प्रयोजन नहीं है द्रव्य अर्थात् आत्मद्रव्य
उसकी सूक्ष्मता वह द्रव्यपरमाणु कहा जाता है वह रागादि विकल्पकी उपाधिसे रहित है,
उसको सूक्ष्मपना कैसे हो सकता है ? ऐसा शिष्यने प्रश्न किया उसका समाधान इस तरह
हैकि मन इन्द्रियोंके अगोचर होनेसे सूक्ष्म कहा जाता है, तथा भाव (स्वसंवेदनपरिणाम)

Page 269 of 565
PDF/HTML Page 283 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३३ ]परमात्मप्रकाशः [ २६९
स्वसंवेदनपरिणामः तस्य भावस्य परमाणुशब्देन सूक्ष्मावस्था ग्राह्या सूक्ष्मा कथमिति चेत्
वीतरागनिर्विकल्पसमरसीभावविषयत्वेन पञ्चेन्द्रियमनोविषयातीतत्वादिति पुनरप्याह इदं
परद्रव्यावलम्बनं ध्यानं निषिद्धं किल भवद्भिः निजशुद्धात्मध्यानेनैव मोक्षः कुत्रापि भणितमास्ते
परिहारमाह‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’ इत्यत्रैव ग्रन्थे निरन्तरं भणितमास्ते, ग्रन्थान्तरे च
समाधिशतकादौ पुनश्चोक्तं तैरेव पूज्यपादस्वामिभिः‘‘आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ
क्षणमुपजनयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः’’ अस्यार्थः आत्मानं कर्मतापन्नं आत्मा कर्ता
अतीत होवाथी तेने सूक्ष्मपणुं होय छे.
‘भाव’ शब्दथी स्वसंवेदनपरिणाम समजवा, ते भावनी ‘परमाणु’ शब्दथी सूक्ष्म अवस्था
समजवी.
शंका :ते (सूक्ष्म अवस्था) सूक्ष्म कई रीते छे?
तेनुं समाधाान :वीतराग निर्विकल्प समरसीभावनो विषय होवाथी अने पंचेन्द्रिय,
मनना विषयथी रहित होवाथी तेने सूक्ष्मपणुं छे. शिष्य फरी पूछे छे के खरेखर आपे आ
परद्रव्यना आलंबनरूप ध्याननो निषेध कर्यो ने निजशुद्धात्माना ध्यानथी ज मोक्ष छे एम कह्युं,
तो आवुं कथन क्यां कहेल छे?
तेनो परिहार कहे छे ‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’
(अर्थनिर्मळ आत्मानुं ध्यान करो) एवुं कथन आ ग्रंथमां ज निरंतर कहेता आव्या
छीए. ते ज पूज्यपादस्वामीए समाधिशतकना प्रारंभमां कह्युं छे के ‘‘आत्मानमात्मा
आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः’’ तेनो अर्थपोते पोताने पोतामां पोताथी
भी परमसूक्ष्म हैं, वीतराग निर्विकल्प परमसमरसीभावरूप हैं, वहाँ मन और इन्द्रियोंको गम्य
नहीं हैं, इसलिये सूक्ष्म है
ऐसा कथन सुनकर फि र शिष्यने पूछा, कि तुमने परद्रव्यके
आलम्बनरूप ध्यानका निषेध किया, और निज शुद्धात्माके ध्यानसे ही मोक्ष कहा ऐसा कथन
किस जगह कहा है ? इसका समाधान यह है‘‘अप्पा झायहि णिम्मलउ’’ निर्मल आत्माको
ध्यावो, ऐसा कथन इस ही ग्रंथमें पहले कहा है, और समाधिशतकमें भी श्रीपूज्यपादस्वामीने
कहा है ‘‘आत्मानम्’’ इत्यादि
अर्थात् जीवपदार्थ अपने स्वरूपको अपनेमें ही अपने करके
पाठान्तरःकुत्रापि=कुत्र
२. आत्मा कर्तापणे आत्मस्वरूप अधिकरणमां आत्मारूप करण वडे (साधन वडे) आत्मारूप कर्मने
क्षणअन्तर्मुहूर्तमात्र उपजावतो थकोनिर्विकल्प समाधि वडे आराधतो थको स्वयमेव ज सर्वज्ञ
थाय छे.

Page 270 of 565
PDF/HTML Page 284 of 579
single page version

२७० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३३
आत्मन्येवाधिकरणभूते असौ पूर्वोक्तात्मा आत्मना करणभूतेन क्षणमन्तर्मुहूर्तमात्रं उपजनयन्
निर्विकल्पसमाधिनाराधयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः सर्वज्ञो जात इत्यर्थः
ये च तत्र
द्रव्यभावपरमाणुध्येयलक्षणे शुक्लध्याने द्वयाधिकचत्वारिंशद्विकल्पा भणितास्तिष्ठन्ति ते
पुनरनीहितवृत्त्या ग्राह्याः
केन द्रष्टान्तेनेति चेत् यथा प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वग्रहणकाले
परमागमप्रसिद्धाधःप्रवृत्तिकरणादिविकल्पान् जीवः करोति न चात्रेहादिपूर्वकत्वेन स्मरणमस्ति
तथात्र शुक्लध्याने चेति
इदमत्र तात्पर्यम् प्राथमिकानां चित्तस्थितिकरणार्थं विषय-
कषायदुर्ध्यानवञ्चनार्थं च परंपरया मुक्ति कारणमर्हदादिपरद्रव्यं ध्येयम्, पश्चात् चित्ते स्थिरीभूते
साक्षान्मुक्ति कारणं स्वशुद्धात्मतत्त्वमेव ध्येयं नास्त्येकान्तः, एवं साध्यसाधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये
अन्तर्मुहूर्तमात्र निर्विकल्प समाधि वडे आराधतो थको स्वयंभू थाय छेसर्वज्ञ थाय छे.
द्रव्यभावपरमाणुं (द्रव्यसूक्ष्मपणुं अने भावसूक्ष्मपणुं) ध्येयस्वरूपे होय छे एवा शुक्लध्यानमां
सिद्धांतमां जे बेतालीश भेदो कह्या छे ते पण अनीहित वृत्तिथी समजवा. क्या द्रष्टांतथी? एवा
प्रश्नना उत्तरमां तेनुं द्रष्टांत आपवामां आवे छे.
जेवी रीते प्रथम औपशमिक सम्यक्त्वना ग्रहण समये परमागममां प्रसिद्ध
अधःप्रवृत्तिकरणादि भेदोने जीव करे छे पण अहीं इहाआदिपूर्वकपणाथी होतुं नथी, तेवी रीते
अहीं शुक्लध्यानमां पण समजवुं.
अहीं, आ तात्पर्य छे के प्राथमिक जीवोने चित्तने स्थिर करवा माटे अने विषयकषायरूप
दुर्ध्याननी वंचनार्थे परंपराए मुक्तिनुं कारण एवुं अर्हंतादि परद्रव्य ध्याववा योग्य छे, पछी चित्त
ज्यारे स्थिर थाय त्यारे साक्षात् मुक्तिनुं कारण एवुं स्वशुद्धात्मतत्त्व ज ध्याववा योग्य छे, त्यां
एक क्षणमात्र भी निर्विकल्प समाधिकर आराधता हुआ वह सर्वज्ञ वीतराग हो जाता है जिस
शुक्लध्यानमें द्रव्यपरमाणुकी सूक्ष्मता और भावपरमाणुकी सूक्ष्मता ध्यान करने योग्य है, ऐसे
शुक्लध्यानमें निजवस्तु और निजभावका ही सहारा है, परवस्तुका नहीं
सिद्धान्तमें
शुक्लध्यानके ब्यालीस भेद कहे हैं, वे अवाँछीक वृत्तिसे गौणरूप जानना, मुख्य वृत्तिसे न
जानना
उसका दृष्टांतजैसे उपशमसम्यक्त्वके ग्रहणके समय परमागममें प्रसिद्ध जो
अधःकरणादि भेद हैं, उनको जीव करता है, वे वाँछापूर्वक नहीं होते, सहज ही होते हैं, वैसे
ही शुक्लध्यानमें भी ऐसे ही जानना
तात्पर्य यह है कि प्रथम अवस्थामें चित्तके थिर करनेके
लिए और विषयकषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये परम्पराय मुक्तिके कारणरूप अरहंत
आदि पंचपरमेष्ठी ध्यान करने योग्य है, बादमें चित्तके स्थिर होने पर साक्षात् मुक्तिका कारण
जो निज शुद्धात्मतत्त्व है, वही ध्यावने योग्य है
इसप्रकार साध्यसाधकभावको जानकर
ध्यावने योग्य वस्तुमें विवाद नहीं करना, पंचपरमेष्ठीका ध्यान साधक है, और आत्मध्यान

Page 271 of 565
PDF/HTML Page 285 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३४ ]परमात्मप्रकाशः [ २७१
विवादो न कर्तव्यः इति ।।३३।।
अथ सामान्यग्राहकं निर्विकल्पं सत्तावलोकदर्शनं कथयति
१६०) सयलपयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ
वत्थुविसेसविवज्जयउ तं णियदंसणु जोइ ।।३४।।
सकलपदार्थानां यद् ग्रहणं जीवानां अग्रिमं भवति
वस्तुविशेषविवर्जितं तत् निजदर्शनं पश्य ।।३४।।
सयल इत्यादि सयल-पयत्थहं सकलपदार्थानां जं गहणु यद् ग्रहणमवलोकनम्
कस्य जीवहं जीवस्य अथवा बहुवचनपक्षे ‘जीवहं’ जीवानाम् कथंभूतमवलोकनम् अग्गिमु
अग्रिमं सविकल्पज्ञानात्पूर्वं होइ भवति पुनरपि कथंभूतम् वत्थु-विसेस-विवज्जियउ
एकांत नथी, ए प्रमाणे साध्यसाधकभाव जाणीने ध्येयना विषयमां विवाद करवो नहि. ३३.
हवे सामान्यनुं ग्राहक, निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप दर्शननुं कथन करे छेः
भावार्थशंका :अही प्रभाकरभट्ट पूछे छे के निज आत्मा तेनुं दर्शन-अवलोकन
ते दर्शन छे एम आपे कह्युं, आ सत्तावलोकनरूपदर्शन तो मिथ्याद्रष्टिओने पण होय छे, तेमनो
पण मोक्ष थाय.
तेनो परिहार :चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवळदर्शनना भेदथी दर्शन चार
साध्य है, यह निःसंदेह जानना ।।३३।।
आगे सामान्य ग्राहक निर्विकल्प सत्तावलोकनरूप दर्शनको कहते हैं
गाथा३४
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [जीवानां ] जीवोंके [अग्रिमं ] ज्ञानके पहले
[सकलपदार्थानां ] सब पदार्थोंका [वस्तुविवर्जितं ] यह सफे द है, इत्यादि भेद रहित [ग्रहणं ]
सामान्यरूप देखना, [तत् ] वह [निजदर्शनं ] दर्शन है, [पश्य ] उसको तू जान
भावार्थ :यहाँ प्रभाकरभट्ट पूछता है, कि आपने जो कहा कि निजात्माका देखना
वह दर्शन है, ऐसा बहुत बार तुमने कहा है, अब सामान्य अवलोकनरूप दर्शन कहते हैं ऐसा
दर्शन तो मिथ्यादृष्टियोंके भी होता है, उनको भी मोक्ष कहनी चाहिये ? इसका समाधान
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये दर्शनके चार भेद हैं इन चारोंमें मनकर

Page 272 of 565
PDF/HTML Page 286 of 579
single page version

२७२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३४
वस्तुविशेषविवर्जितं शुक्लमिदमित्यादिविकल्परहितं तं तत्पूर्वोक्त लक्षणं णिय-दंसणु निज आत्मा
तस्य दर्शनमवलोकनं
जोइ पश्य जानीहीति
अत्राह प्रभाकरभट्टः निजात्मा तस्य
दर्शनमवलोकनं दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्याद्रष्टीनामप्यस्ति
तेषामपि मोक्षो भवतु परिहारमाह चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतुर्धा दर्शनम् अत्र चतुष्टयमध्ये
मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहकं भवति, तच्च मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशम क्षयजनिततत्त्वार्थ-
श्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात् शुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्या
द्रष्टीनां न
भवत्येवेति भावार्थः ।।३४।।
अथ छद्मस्थानां सत्तावलोकदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति प्रतिपादयति
१६१) दंसणपुव्वु हवेइ फु डु जं जीवहँ विण्णाणु
वत्थु - विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ।।३५।।
प्रकारनुं छे. आ चार भेदोमां मानस-अचक्षुदर्शन (मनसंबंधी अचक्षुदर्शन) आत्मग्राहक होय
छे अने ते, मिथ्यात्वादि सात प्रकृतिओना उपशम, क्षयोपशम तथा क्षयजनित तत्त्वार्थश्रद्धानरूप
सम्यक्त्वनो अभाव होवाथी ‘शुद्धात्मतत्त्व ज उपादेय छे’ एवी श्रद्धानो अभाव होतां, ते
मिथ्याद्रष्टिओने होतुं नथी, एवो भावार्थ छे. ३४.
हवे, छद्मस्थ जीवोने सत्तावलोकनदर्शनपूर्वक ज्ञान थाय छे, एम कहे छेः
जो देखना वह अचक्षुदर्शन है, जो आँखोंसे देखना वह चक्षुदर्शन है इन चारोंमेंसे आत्माका
अवलोकन छद्मस्थअवस्थामें मनसे होता है और वह आत्मदर्शन मिथ्यात्व आदि सात
प्रकृतियोंके उपशम, क्षयोपशम तथा क्षयसे होता है सो सम्यग्दृष्टिके तो यह दर्शन
तत्त्वार्थश्रद्धानरूप होनेसे मोक्षका कारण है, जिसमें शुद आत्म - तत्त्व ही उपादेय है, और
मिथ्यादृष्टियोंके तत्त्वश्रद्धान नहीं होनेसे आत्माका दर्शन नहीं होता मिथ्यादृष्टियोंके स्थूलरूप
परद्रव्यका देखनाजानना मन और इन्द्रियोंके द्वारा होता है, वह सम्यग्दर्शन नहीं है, इसलिए
मोक्षका कारण भी नहीं है सारांश यह हैकि तत्त्वार्थश्रद्धानके अभावसे सम्यक्त्वका अभाव
है, और सम्यक्त्वके अभावसे मोक्षका अभाव है ।।३४।।
आगे केवलज्ञानके पहले छद्मस्थोंके पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है,
और केवली भगवान्के दर्शन और ज्ञान एक साथ ही होते हैंआगे-पीछे नहीं होते, यह कहते
हैं

Page 273 of 565
PDF/HTML Page 287 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३५ ]परमात्मप्रकाशः [ २७३
दर्शनपूर्वं भवति स्फु टं यत् जीवानां विज्ञानम्
वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ।।३५।।
दंसणपुव्वु इत्यादि दंसणपुव्वु सामान्यग्राहकनिर्विकल्पसत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं हवेइ
भवति फु डु स्फु टं जं यत् जीवहं जीवानाम् किं भवति विण्णाणु विज्ञानम् किं कुर्वन्
सन् वत्थु-विसेसु मुणंतु वस्तुविशेषं वर्णसंस्थानादिविकल्पपूर्वकं जानन् जिय हे जीव तं तत्
मुणि मन्यस्व जानीहि किं जानीहि अविचलु णाणु अविचलं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं
ज्ञानमिति तत्रेदं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं व्याख्यातम् यद्यपि शुद्धात्मभावनाव्याख्यानकाले प्रस्तुतं न
भवति तथापि भणितं भगवता कस्मादिति चेत् चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन दर्शनोपयोगश्चतुर्विधो
भावार्थअहीं आ दर्शनपूर्वक ज्ञाननुं व्याख्यान करवामां आव्युं छे जोके आ
व्याख्यान शुद्ध आत्मानी भावनाना व्याख्यानकाळे प्रस्तुत नथी तोपण आपे केम कह्युं?
उत्तर :::::चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवळदर्शनना भेदथी दर्शनोपयोग
चार प्रकारनो छे. भव्य जीवने दर्शनमोह चारित्रमोहना उपशम, क्षयोपशम अने क्षय थतां
शुद्ध आत्मानी अनुभूतिरूप-रुचिरूप-वीतराग सम्यक्त्व होय छे तेम ज शुद्धात्मानी अनुभूतिमां
स्थिरतारूप वीतराग चारित्र होय छे ते काळे ते चार भेदोमां जे बीजुं मन संबंधी निर्विकल्प
-अचक्षुदर्शन छे ते मन संबंधी पूर्वोक्त सत्तावलोकनरूप निर्विकल्प दर्शन पूर्वोक्त
निश्चयसम्यक्त्व अने निश्चयचारित्रना बळथी निर्विकल्प निज शुद्ध आत्मानुभूतिरूप ध्यान वडे
गाथा३५
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [जीवानां ] जीवोंके [विज्ञानम् ] ज्ञान है, वह [स्फु टं ]
निश्चयकरके [दर्शनपूर्वं ] दर्शनके बादमें [भवति ] होता है, [तत् ज्ञानम् ] वह ज्ञान
[वस्तुविशेषं जानन् ] वस्तुकी विस्तीर्णताको जाननेवाला है, उस ज्ञानको [जीव ] हे जीव
[अविचलं ] संशय विमोह विभ्रमसे रहित [मन्यस्व ] तू जान
भावार्थ :जो सामान्यको ग्रहण करे, विशेष न जाने, वह दर्शन है, तथा जो वस्तुका
विशेष वर्णन आकार जाने वह ज्ञान है यह दर्शन ज्ञानका व्याख्यान किया यद्यपि वह
व्यवहारसम्यग्ज्ञान शुद्धात्माकी भावनाके व्याख्यानके समय प्रशंसा योग्य नहीं है, तो भी प्रथम
अवस्थामें प्रशंसा योग्य है, ऐसा भगवानने कहा है
क्योंकि चक्षु-अचक्षु अवधि केवलके
भेदसे दर्शनोपयोग चार तरहका होता है उन चार भेदोंमें दूसरा भेद अचक्षुदर्शन मनसंबंधी
निर्विकल्प भव्यजीवोंके दर्शनमोह, चारित्रमोहके उपशम तथा क्षयके होने पर शुद्धात्मानुभूति
रुचिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है, और शुद्धात्मानुभूतिमें स्थिरतारूप वीतरागचारित्र होता है,

Page 274 of 565
PDF/HTML Page 288 of 579
single page version

२७४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३६
भवति तत्र चतुष्टयमध्ये द्वितीयं यदचक्षुर्दर्शनं मानसरूपं निर्विकल्पं यथा भव्यजीवस्य
दर्शनमोहचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमक्षयलाभे सति शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपं वीतरागसम्यक्त्वं भवति
तथैव च शुद्धात्मानुभूतिस्थिरतालक्षणं वीतरागचारित्रं भवति तदा काले तत्पूर्वोक्तं सत्तावलोक-
लक्षणं मानसं निर्विकल्पदर्शनं कर्तृ पूर्वोक्त निश्चयसम्यक्त्वचारित्रबलेन निर्विकल्पनिजशुद्धात्मा-
नुभूतिध्यानेन सहकारिकारणं भवति
कस्य भवति पूर्वोक्त भव्यजीवस्य न चाभव्यस्य कस्मात्
निश्चयसम्यक्त्वचारित्राभावादिति भावार्थः ।।३५।।
अथ परमध्यानारूढो ज्ञानी समभावेन दुःखं सुखं सहमानः स एवाभेदेन
निर्जराहेतुर्भण्यते इति दर्शयति
१६२) दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाणणिलीणु
कम्महँ णिज्जरहेउ तउ वुच्चइ संगविहीणु ।।३६।।
दुःखमपि सुखं सहमानः जीव ज्ञानी ध्याननिलीनः
कर्मणः निर्जराहेतुः तपः उच्यते संगविहीनः ।।३६।।
पूर्वोक्त भाव जीवने जेवी रीते सहकारी कारण थाय छे तेवी रीते अभव्य जीवने
निश्चयसम्यक्त्व अने चारित्रनो अभाव होवाथी सहकारी कारण थतुं नथी. ३५.
हवे, परमध्यानमां ‘आरूढ’ जे ज्ञानी समभावथी (तपोधन) दुःख अने सुखने सहे छे
ते ज मुनि अभेदनयथी निर्जरानुं कारण छे, एम कहे छेः
उस समय पूर्वोक्त सत्ताके अवलोकनरूप मनसंबंधी निर्विकल्पदर्शन निश्चयचारित्रके बलसे
विकल्प रहित निज शुद्धात्मानुभूतिके ध्यानकर सहकारी कारण होता है
इसलिये
व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान भव्यजीवके ही होता है, अभव्यके सर्वथा नहीं,
क्योंकि अभव्यजीव मुक्तिका पात्र नहीं है
जो मुक्तिका पात्र होता है, उसीके व्यवहाररत्नत्रयकी
प्राप्ति होती है व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मुक्तिका
कारण है, ऐसा तात्पर्य हुआ ।।३५।।
आगे परमध्यानमें आरूढ़ ज्ञानी जीव समभावसे दुःख-सुखको सहता हुआ अभेदनयसे
निर्जराका कारण होता है, ऐसा दिखाते हैं
गाथा३६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [ज्ञानी ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी [ध्याननिलीनः ]

Page 275 of 565
PDF/HTML Page 289 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३६ ]परमात्मप्रकाशः [ २७५
दुक्खु वि इत्यादि दुक्खु वि सुक्खु सहंतु दुःखमपि सुखमपि समभावेन सहमानः
सन् जिय हे जीव कोऽसौ कर्ता णाणिउ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी किंविशिष्टः झाण-णिलीण
वीतरागचिदानन्दैकाग्र्यध्याननिलीनो रतः स एवाभेदेन कम्माहं णिज्जर-हेउ शुभाशुभकर्मणो
निर्जराहेतुरुच्यते न केवलं ध्यानपरिणतपुरुषो निर्जराहेतुरुच्यते
तउ परद्रव्येच्छानिरोधरूपं
बाह्याभ्यन्तरलक्षणं द्वादशविधं तपश्च
किंविशिष्टः स तपोधनस्तत्तपश्च संगविहीनो संग-विहीणु
बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित इति अत्राह प्रभाकरभट्टः ध्यानेन निर्जरा भणिता भवद्भिः
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचित्तनिरोधो ध्यानमिति ध्यानलक्षणं, उत्तमसंहननाभावे कथं ध्यानमिति
भगवानाह उत्तमसंहननेन यद्धयानं भणितं तदपूर्वगुणस्थानादिषूपशमक्षपकश्रेण्योर्यत् शुक्लध्यानं
भावार्थअही प्रभाकरभट्ट पूछे छे के आपे ध्यानथी निर्जरा कही पण
उत्तमसंहननवाळाने एकाग्रचित्तनिरोध ते ध्यान छे, एवुं ध्याननुं लक्षण छे तो पछी (अत्यारे)
उत्तमसंहनना अभावमां ध्यान केवी रीते होय?
भगवान श्रीगुरु कहे छेउत्तमसंहनन वडे जे ध्यान कहेवामां आव्युं छे ते अपूर्व
गुणस्थानादिमां उपशम-क्षपक श्रेणीओमां जे शुक्लध्यान होय छे तेनी अपेक्षाए कहेवामां आव्युं
छे. पण अपूर्वकरण गुणस्थानथी नीचेना गुणस्थानोमां ते धर्मध्याननुं निषेधक नथी (धर्मध्याननी
आगममां ना कही नथी) (श्री रामसेन कृत) तत्त्वानुशासन नामना ग्रंथमां (गाथा ८४मां)
आत्मध्यानमें लीन [दुःखम् अपि सुखं ] दुःख और सुखको [सहमानः ] समभावोंसे सहता
हुआ अभेदनयसे [कर्मणः निर्जराहेतुः ] शुभ अशुभ कर्मोंकी निर्जराका कारण है, ऐसा
भगवान्ने [उच्यते ] कहा है, और [संगविहीनः तपः ] बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित परद्रव्यकी
इच्छाके निरोधरूप बाह्य अभ्यंतर अनशनादि बारह प्रकारके तपरूप भी वह ज्ञानी है
भावार्थ :यहाँ प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे प्रभो; आपने ध्यानसे निर्जरा कही,
वह ध्यान एकाग्र चित्तका निरोधरूप उत्तम संहननवाले मुनिके होता है, जहाँ उत्तमसंहनन
ही नहीं है, वहाँ ध्यान किस तरहसे हो सकता है ? उसका समाधान श्रीगुरु कहते हैं
उत्तम संहननवाले मुनिके जो ध्यान कहा है, वह आठवें गुणस्थानसे लेकर उपशम
क्षपकश्रेणीवालोंके जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा कहा गया है
उपशमश्रेणी
वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच इन तीन संहननवालोंके होती है, उनके शुक्लध्यानका पहला
पाया है, वे ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे आते हैं, और क्षपकश्रेणी एक वज्रवृषभनाराच
संहननवालेके ही होती है, वे आठवें गुणस्थानमें क्षपकश्रेणी माँड़ते (प्रारंभ करते) हैं, उनके
आठवें गुणस्थानमें शुक्लध्यानका पहला पाया (भेद) होता है, वह आठवें, नववें, दशवें

Page 276 of 565
PDF/HTML Page 290 of 579
single page version

२७६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३६
तदपेक्षया भणितम् अपूर्वगुणस्थानादधस्तनगुणस्थानेषु धर्मध्यानस्य निषेधकं न भवति
तथाचोक्तं तत्त्वानुशासने ध्यानग्रन्थे‘‘यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः श्रेण्योर्ध्यानं
प्रतीत्योक्तं तन्नाधस्तान्निषेधकम् ।।’’ किं च रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यदाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं
निश्चयचारित्रं भणन्ति इदानीं तद्भावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः तथा चोक्तं तत्रेदम्
‘‘चरितारो न सन्त्यद्य यथाख्यातस्य संप्रति तत्किमन्ये यथाशक्ति माचरन्तु तपस्विनः ।।’’
ध्यानना विषयमां कह्युं छे के ‘‘यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्तं
तन्नाधस्तान्निषेधकम् ।।’’ अर्थवज्रकायवाळाने ध्यान होय छे एवुं आगमनुं वचन छे ते ते
उपशम अने क्षपक ए बे श्रेणीओमां शुक्लध्यानने लक्षमां राखीने कहेल छे, पण आ कथन
तेनाथी नीचेना गुणस्थानमां थता ध्यानने कोईपण संहननमां निषेध करनारुं नथी.
वळी, राग-द्वेषना अभावस्वरूप परम यथाख्यातरूप स्वरूपमां चरवुं ते
निश्चयचारित्र कहेवाय छे, तेनो आ काळमां अभाव होवाथी तपोधनो अन्य चारित्र
आचरो. श्री तत्त्वानुशासन (गाथा ८६मां) पण तेवुं कह्युं छे के
‘‘चरितारो न सन्त्यध
यथाख्यातस्य संप्रति तत्किमन्ये यथाशक्तिमाचरन्तु तपस्विनः ’’ अर्थआ पंचमकाळमां
यथाख्यात चारित्रना आचरनारा नथी, तो शुं थयुं? तपस्वीओ पोतानी शक्ति अनुसार
तथा दशवेंसे बारहवें गुणस्थानमें स्पर्श करते हैं, ग्यारहवेंमें नहीं, तथा बारहवेमें शुक्लध्यानका
दूसरा पाया होता है, उसके प्रसादसे केवलज्ञान पाता है, और उसी भवमें मोक्षको जाता
है
इसलिये उत्तम संहननका कथन शुक्लध्यानकी अपेक्षासे है आठवें गुणस्थानसे नीचेके
चौथेसे लेकर सातवें तक शुक्लध्यान नहीं होता, धर्मध्यान छहों संहननवालोंके है, श्रेणीके
नीचे धर्मध्यान ही है, उसका निषेध किसी संहननमें नहीं है
ऐसा ही कथन तत्त्वानुशासन
नामक ग्रंथमें कहा है ‘‘यत्पुनः’’ इत्यादि उसका अर्थ ऐसा है, कि जो वज्रकायके ही
ध्यान होता है, ऐसा आगमका वचन है, वह दोनों श्रेणियोंमें शुक्लध्यान होनेकी अपेक्षा है,
और श्रेणीके नीचे जो धर्मध्यान है, उसका निषेध (न होना) किसी संहननमें नहीं कहा
है, यह निश्चयसे जानना
राग-द्वेषके अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही
निश्चयचारित्र है, वह इस समय पंचमकालमें भरतक्षेत्रमें नहीं है, इसलिये साधुजन अन्य
चारित्रका आचरण करो
चारित्रके पाँच भेद हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि,
सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात उनमें इस समय इस क्षेत्रमें सामायिक छेदोपस्थापना ये दो ही
चारित्र होते हैं, अन्य नहीं, इसलिये इनको ही आचरो तत्त्वानुशासनमें भी कहा है ‘चरितारो’
इत्यादि इसका अर्थ ऐसा है, कि इस समय यथाख्यातचारित्रके आचरण करनेवाले मौजूद
नहीं हैं, तो क्या हुआ अपनी शक्तिके अनुसार तपस्वीजन सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण

Page 277 of 565
PDF/HTML Page 291 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३६ ]परमात्मप्रकाशः [ २७७
पुनश्चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः मोक्षप्राभृते‘‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण लहहिं
इंदत्तं लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुदिं जंति ।।’’ अयमत्र भावार्थः यथादित्रिकसंहनन-
लक्षणवीतरागयथाख्यातचारित्राभावेऽपीदानीं शेषसंहननेनापि शेषचारित्रमाचरन्ति तपस्विनः
तथादिकत्रिकसंहननलक्षणशुक्लध्यानाभावेऽपि शेषसंहनेनापि शेषचारित्रमाचरन्ति तपस्विनः तथा
त्रिकसंहननलक्षणशुक्लध्यानाभावेऽपि शेषसंहनेनापि संसारस्थितिच्छेदकारणं परंपरया मुक्ति कारणं
च धर्मध्यानमाचरन्तीति
।।३६।।
अन्योने आचरो. वळी मोक्षप्राभृत (गाथा ७७)मां श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे पण कह्युं छे के
‘‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण लहहिं इंदत्तं लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुदिं जंति ’’
(अर्थआजेय (आ पंचमकाळमां पण) विमळत्रिरत्नमुनिओ (शुद्ध रत्नत्रयवाळा
मुनिओ, रत्नत्रय वडे शुद्ध एवा मुनिओ) आत्मानुं ध्यान करीने इन्द्रपदने पामे छे
अथवा लोकान्तिकदेव थाय छे अने त्यांथी च्यवी (मनुष्य थईने) मोक्षे जाय छे.
अहीं, आ भावार्थ छे के आदिना त्रण संहननवाळा वीतराग यथाख्यात चारित्रना
अभावमां पण आजेय तपस्वीओ बाकीना संहनन वडे (यथासंभव) बाकीनां चारित्रने
आचरे छे तथा पहेला त्रण संहननवाळा शुक्लध्यानना अभावमां पण बाकीनां संहनन
वडे संसारस्थितिने छेदवानुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण एवुं धर्मध्यान आचरे
छे. ३६.
करो फि र श्रीकुंदकुंदाचार्यने भी मोक्षपाहुड़में ऐसा ही कहा है ‘‘अज्ज वि’’ उसका तात्पर्य
यह है, कि अब भी इस पंचमकालमें मन, वचन, कायकी शुद्धतासे आत्माका ध्यान करके
यह जीव इन्द्र पदको पाता है, अथवा लौकांतिकदेव होता है, और वहाँसे च्युत होकर
मनुष्यभव धारण करके मोक्षको पाता है
अर्थात् जो इस समय पहलेके तीन संहनन तो
नहीं हैं, परंतु अर्धनाराच, कीलक, सूपाटिका, ये आगेके तीन हैं, इन तीनोंसे सामायिक
छेदोपस्थापनाका आचरण करो, तथा धर्मध्यानको आचरो
धर्मध्यानका अभाव छहों संहननोंमें
नहीं है, शुक्लध्यान पहलेके तीन संहननोंमें ही होता है, उनमें भी पहला पाया (भेद)
उपशमश्रेणीसंबंधी तीनों संहननोंमें है, और दूसरा, तीसरा, चौथा पाया प्रथम संहननवाले ही
के होता है, ऐसा नियम है
इसलिये अब शुक्लध्यानके अभावमें भी हीन संहननवाले इस
धर्मध्यानको आचरो यह धर्मध्यान परम्पराय मुक्तिका मार्ग है, संसारकी स्थितिका छेदनेवाला
है जो कोई नास्तिक इस समय धर्मध्यानका अभाव मानते हैं, वे झूठ बोलनेवाले हैं, इस
समय धर्मध्यान है, शुक्लध्यान नहीं है ।।३६।।

Page 278 of 565
PDF/HTML Page 292 of 579
single page version

२७८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३७
अथ सुखदुःखं सहमानः सन् येन कारणेन समभावं करोति मुनिस्तेन कारणेन
पुण्यपापद्वयसंवरहेतुर्भवतीति दर्शयति
१६३) बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ
पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ ।।३७।।
द्वे अपि येन सहमानः मुनिः मनसि समभावं करोति
पुण्यस्य पापस्य तेन जीव संवरहेतुः भवति ।।३७।।
बिण्णि वि इत्यादि बिण्णि वि द्वे अपि सुखदुःखे जेण येन कारणेन सहंतु सहमानः
सन् कोऽसौ कर्ता मुणि मुनिः स्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानी मणि अविक्षिप्तमनसि सम-भाउ
समभावं सहजशुद्धज्ञानानन्दैकरूपं रागद्वेषमोहरहितं परिणामं कर्मतापन्नं करेइ करोति परिणमति
पुण्णहं पावहं पुण्यस्य पापस्य संबन्धी तेण तेन कारणेन जिय हे जीव संवर-हेउ संवरहेतुः
कारणं
हवेइ भवतीति
अयमत्र तात्पर्यार्थः कर्मोदयवशात् सुखदुःखे जातेऽपि योऽसौ
हवे सुख-दुःखने सहन करतो मुनि जे कारणे समभाव करे छे तेथी ते कारणे ते
मुनि पुण्यपापना संवरनो हेतु थाय छे, एम दर्शावे छेः
भावार्थजे कारणे सुख अने दुःख ए बन्नेयने सहन करतो मुनि स्वसंवेदनवाळा
प्रत्यक्षज्ञानी-अविक्षिप्त (शांत) मनमां समभावने-सहज शुद्ध ज्ञानानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा,
आगे जो मुनिराज सुख-दुःखको सहते हुए समभाव रखते हैं, अर्थात् सुखमें तो हर्ष
नहीं करते, और दुःखमें खेद नहीं करते, जिनके सुख्-दुःख दोनों ही समान हैं, वे ही साधु
पुण्यकर्म-पापकर्मके संवर (रोकने) के कारण हैं, आनेवाले कर्मोंको रोकते हैं, ऐसा दिखलाते
हैं
गाथा३७
अन्वयार्थ :[येन ] जिस कारण [द्वे अपि सहमानः ] सुख दुःख दोनोंको ही सहता
हुआ [मुनिः ] स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी [मनसि ] निश्चित मनमें [समभावं ] समभावोंको
[करोति ] धारण करता है, अर्थात् राग, द्वेष, मोह रहित स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप परिणमन
करता है, विभावरूप नहीं परिणमता, [तेन ] इसी कारण [जीव ] हे जीव, वह मुनि [पुण्यस्य
पापस्य संवरहेतुः ] सहजमें ही पुण्य और पाप इन दोनोंके संवरका कारण [भवति ] होता है
भावार्थ :कर्मके उदयसे सुख-दुःख उत्पन्न होने पर भी जो मुनीश्वर रागादि रहित

Page 279 of 565
PDF/HTML Page 293 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३८ ]परमात्मप्रकाशः [ २७९
रागादिरहितमनसि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मसंवित्तिं न त्यजति स पुरुष एवाभेदनयेन
द्रव्यभावरूपपुण्यपापसंवरस्य हेतुः कारणं भवतीति
।।३७।।
अथ यावन्तं कालं रागादिरहितपरिणामेन स्वशुद्धात्मस्वरूपे तन्मयो भूत्वा तिष्ठति तावन्तं
कालं संवरनिर्जरे करोतीति प्रतिपादयति
१६४) अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु
संवरणिज्जर जाणि तुहुं सयलवियप्पविहीणु ।।३८।।
तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः
संवरनिर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ।।३८।।
रागद्वेषमोहरहित परिणामने-करे छे अर्थात् सहज शुद्ध ज्ञानानंद ज जेनुं एक रूप छे एवा,
रागद्वेषमोहरहित परिणाममां परिणमे छे ते कारणे ते मुनि पुण्य अने पाप ए बन्नेना संवरनो
हेतु थाय छे.
अहीं, आ तात्पर्य छे के कर्मोदय वशे सुख-दुःख उत्पन्न थवा छतां पण, जे कोई
रागादिथी रहित एवा मनमां विशुद्धज्ञान, विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा निज शुद्ध
आत्माना संवेदनने छोडतो नथी ते पुरुष ज अभेदनयथी द्रव्यभावरूप पुण्य-पापना संवरनुं
कारण थाय छे. ३७.
हवे, मुनि जेटलो समय राग-द्वेष रहित परिणाम वडे स्वशुद्धात्म स्वरूपमां तन्मय थईने
रहे छे तेटलो ज काळ संवरनिर्जरा करे छे, एम कहे छेः
मनमें शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको नहीं छोड़ता है, वही पुरुष अभेदनयकर
द्रव्य भावरूप पुण्य-पापके संवरका कारण है
।।३७।।
आगे जिस समय जितने काल तक रागादि रहित परिणामोंकर निज शुद्धात्मस्वरूपमें
तन्मय हुआ ठहरता है, तब तक संवर और निर्जराको करता है, ऐसा कहते हैं
गाथा३८
अन्वयार्थ :[मुनिः ] मुनिराज [यावंतं कालं ] जबतक [आत्मस्वरूपे निलीनः ]
आत्मस्वरूपमें लीन हुआ [तिष्ठति ] रहता है, अर्थात् वीतराग नित्यानंद परम समरसीभावकर
परिणमता हुआ अपने स्वभावमें तल्लीन होता है, उस समय हे प्रभाकरभट्ट; [त्वं ] तू
[सकलविकल्पविहीनम् ] समस्त विकल्प समूहोंसे रहित अर्थात् ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा

Page 280 of 565
PDF/HTML Page 294 of 579
single page version

२८० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-३८
अत्थ(च्छ)इ इत्यादि अत्थ(च्छ)इ तिष्ठति किं कृत्वा तिष्ठति जित्तिउ कालु यावन्तं
कालं प्राप्य क्व तिष्ठति अप्प-सरूवि निजशुद्धात्मस्वरूपे कथंभूतः सन् णिलीणु निश्चयनयेन
लीनो द्रवीभूतो वीतरागनित्यानन्दैकपरमसमरसीभावेन परिणतः हे प्रभाकरभट्ट
इत्थंभूतपरिणामपरिणतं तपोधनमेवाभेदेन
संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ संवरनिर्जरास्वरूपं जानीहि
त्वम्
पुनरपि कथंभूतम् सयल-वियप्प-विहीणु सकलविकल्पहीनं ख्यातिपूजालाभप्रभृति-
विकल्पजालावलीरहितमिति अत्र विशेषव्याख्यानं यदेव पूर्वसूत्रद्वयभणितं तदेव ज्ञातव्यम्
कस्मात् तस्यैव निर्जरासंवरव्याख्यानस्योपसंहारोऽयमित्यभिप्रायः ।।३८।। एवं मोक्षमोक्षमार्गमोक्ष-
फलादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारोक्तसूत्राष्टकेनाभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यत्वेन स्थलं समाप्तम्
अत ऊर्ध्वं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं परमोपशमभावमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति
तथाहि
१६५) कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ
संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ ।।३९।।
भावार्थमुनि जेटलो काळ निज शुद्धात्मस्वरूपमां निश्चयथी लीन थईने द्रवीभूत
थईने एक (केवळ) वीतराग नित्यानंदरूप परमसमरसीभावे परिणमेलो रहे छे, तेटला काळसुधी
तुं आवा परिणामरूपे परिणमेला, संकल्प-विकल्पथी रहित ख्यातिपूजालाभआदिना विकल्पनी
जाळावलीथी रहित-तपोधनने संवरनिर्जरास्वरूप जाण.
जे विशेष व्याख्यान पूर्वना बे गाथासूत्रोमां कह्युं छे ते ज अत्रे जाणवुं, कारण के ते
ज संवर अने निर्जराना व्याख्याननो उपसंहार छे, एवो अभिप्राय छे. ३८.
आ प्रमाणे मोक्ष, मोक्षमार्ग अने मोक्षफळआदिना प्रतिपादक बीजा महाधिकारमां कहेल
आठ सूत्रोथी अभेदरत्नत्रयना व्याख्याननी मुख्यताथी (अंतर) स्थळ समाप्त थयुं.
(अपनी प्रतिष्ठा) लाभको आदि देकर विकल्पोंसे रहित उस मुनिको [संवरनिर्जरा ] संवर
निर्जरा स्वरूप [जानीहि ] जान
यहाँ पर भावार्थरूप विशेष व्याख्यान जो कि पहले दो सूत्रोंमें
कहा था, वही जानो इसप्रकार संवर निर्जराका व्याख्यान संक्षेपरूपसे कहा गया है ।।३८।।
इस तरह मोक्ष, मोक्षमार्ग और मोक्षफलका निरूपण करनेवाले दूसरे महाधिकारमें
आठ दोहासूत्रोंसे अभेदरत्नत्रयके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थल पूरा हुआ
आगे चौदह दोहोंमें परम उपशमभावकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं

Page 281 of 565
PDF/HTML Page 295 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-३९ ]परमात्मप्रकाशः [ २८१
कर्म पुराकृतं स क्षपयति अभिनवं प्रवेशं न ददाति
संगं मुक्त्वा यः सकलं उपशमभावं करोति ।।३९।।
कम्मु इत्यादि कम्मु पुरक्किउ कर्म पुराकृतं सो खवइ स एव
वीतरागस्वसंवेदनतत्त्वज्ञानी क्षपयति पुनरपि किं करोति अहिणव पेसु ण देइ अभिनवं
कर्म प्रवेशं न ददाति स कः संगु मुएविणु जो सयलु संगं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं मुक्त्वा
यः कर्ता समस्तम् पश्चात्किं करोति उवसम भाउ करेइ जीवितमरणलाभालाभसुख-
दुःखादिसमताभावलक्षणं समभावं करोति तद्यथा स एव पुराकृतं कर्म क्षपयति नवतरं
संवृणोति य एव बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं मुक्त्वा सर्वशास्त्रं पठित्वा च शास्त्रफलभूतं वीतराग-
परमानन्दैकसुखरसास्वादरूपं समभावं करोतीति भावार्थः
तथा चोक्त म्‘‘साम्यमेवाद-
राद्भाव्यं किमन्यै र्ग्रन्थविस्तरैः प्रक्रियामात्रमेवेदं वाङ्मयं विश्वमस्य हि ।।’’ ।।३९।।
त्यार पछी चौद गाथा सूत्र सुधी परम उपशमभावनी मुख्यताथी व्याख्यान करे छे. ते
आ प्रमाणेः
भावार्थते ज पूर्वकृत कर्मोने खपावे छे अने नवां कर्मोने रोके छे के जे
बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहने छोडीने अने सर्व शास्त्र भणीने शास्त्रना फळभूत एक (केवळ)
वीतराग परमानंदरूप सुखरसना आस्वादरूप समभावने करे छे. कह्युं पण छे के
‘‘साम्यमेवादराद्भाव्यं किमन्यैैर्ग्रन्थविस्तरैः प्रक्रियामात्रमेवेदं वाङ्मयं विश्वमस्य हि ।।’’ [अर्थएक
समभाव ज आदरथी भाववा योग्य छे, अन्य ग्रंथोना विस्तारोथी शुं? आ समस्त
गाथा३९
अन्वयार्थ :[सः ] वही वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी [पुराकृतं कर्म ] पूर्व उपार्जित
कर्मोंको [क्षपयति ] क्षय करता है, और [अभिनवं ] नये कर्मोंको [प्रवेशं ] प्रवेश [न
ददाति ] नहीं होने देता, [यः ] जो कि [सकलं ] सब [संगं ] बाह्य अभ्यंतर परिग्रहको
[मुक्त्वा ] छोड़कर [उपशमभावं ] परम शांतभावको [करोति ] करता है, अर्थात् जीवन,
मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र, तृण, कांचन इत्यादि वस्तुओंमें एकसा परिणाम
रखता है
भावार्थ :जो मुनिराज सकल परिग्रहको छोड़कर सब शास्त्रोंका रहस्य जानके
वीतराग परमानंद सुखरसका आस्वादी हुआ समभाव करता है, वही साधु पूर्वके कर्मोंका क्षय
करता है, और नवीन कर्मोंको रोकता है
ऐसा ही कथन पद्मनंदिपच्चीसीमें भी है
‘‘साम्यमेव’’ इत्यादि इसका तात्पर्य यह है, कि आदरसे समभावको ही धारण करना चाहिये,

Page 282 of 565
PDF/HTML Page 296 of 579
single page version

२८२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४०
अथ यः समभावं करोति तस्यैव निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि नान्यस्येति
दर्शयति
१६६) दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम - भाउ करेइ
इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ ।।४०।।
दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तस्य यः समभावं करोति
इतरस्य एकमपि अस्ति नैव जिनवरः एवं भणति ।।४०।।
दंसणु इत्यादि दंसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं तसु निश्चयनयेन तस्यैव
भवति कस्य जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं करोति इयरहं इतरस्य समभावरहितस्य
वाङ्मय (द्वादशांग) आनी (समभावनी) प्रक्रियामात्र ज छे.] ३९.
हवे, जे समभाव करे छे तेने ज निश्चयथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र
होय छे, अन्यने नहि एम दर्शावे छेः
भावार्थनिश्चयनयथी ‘निज शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे’ एवी रुचिरूप
सम्यग्दर्शन तेने ज होय छे, निजशुद्धात्मानी संवित्तिथी उत्पन्न वीतराग परमानंदना मधुर-
रसस्वादवाळो आ आत्मा छे अने निरंतर आकुळताना उत्पादक होवाथी कटुक-
अन्य ग्रंथके विस्तारोंसे क्या, समस्त पंथ तथा सकल द्वादशांग इस समभावरूप सूत्रकी ही
टीका है
।।३९।।
आगे जो जीव समभावको करता है, उसीके निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्र होता है, अन्यके नहीं, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा४०
अन्वयार्थ :[दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र [तस्य ] उसीके
निश्चयसे होते हैं, [यः ] जो यति [समभावं ] समभाव [करोति ] करता है, [इतरस्य ] दूसरे
समभाव रहित जीवके [एकं अपि ] तीन रत्नोंमेंसे एक भी [नैव अस्ति ] नहीं है, [एवं ] इस-
प्रकार [जिनवरः ] जिनेन्द्रदेव [भणति ] कहते हैं
भावार्थ :निश्चयनयसे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन उस
समभावके धारकके होता है, और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानंद

Page 283 of 565
PDF/HTML Page 297 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-४० ]परमात्मप्रकाशः [ २८३
एक्कु वि अत्थि णवि रत्नत्रयमध्ये नास्तेकमपि जिणवरु एउ भणेइ जिनवरो वीतरागः सर्वज्ञ
एवं भणतीति
तथाहि निश्चयनयेन निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तस्यैव
निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दमधुररसास्वादोऽयमात्मा निरन्तराकुलत्वोत्पादकत्वात्
कटुकरसास्वादाः कामक्रोधादय इति भेदज्ञानं तस्यैव भवति स्वरूपे चरणं चारित्रमिति
वीतरागचारित्रं तस्यैव भवति
तस्य कस्य वीतरागनिर्विकल्पपरमसामायिकभावनानुकूलं
निर्दोषिपरमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं यः समभावं करोतीति भावार्थः ।।४०।।
अथ यदा ज्ञानी जीव उपशाम्यति तदा संयतो भवति कामक्रोधादिकषायवशं गतः
पुनरसंयतो भवतीति निश्चिनोति
१६७) जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ
होइ कसायहँ वसि गयउ जीउ असंजदु सो ।।४१।।
रसस्वादवाळा आ काम क्रोधादि छे एवुं भेदज्ञान तेने ज होय छे, ‘स्वरूपमां चरवुं ते
चारित्र’ एवुं वीतराग चारित्र तेने ज होय छे के जे वीतराग निर्विकल्प परमसामायिकनी
भावनाने अनुकूळ निर्दोष परमात्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
समभाव करे छे. ४०.
हवे, जे समये ज्ञानी जीव उपशमभावमां स्थित होय छे ते समये संयत होय
छे अने जे समये कामक्रोधादि कषायने वश होय छे त्यारे ते असंयत होय छे, एम
नक्की करे छेः
मधुर रसका आस्वाद उस स्वरूप आत्मा है, तथा हमेशा आकुलताके उपजानेवाले काम
क्रोधादिक हैं, वे महा कटुक रसरूप अत्यंत विरस हैं, ऐसा
जानना, वह सम्यग्ज्ञान और स्वरूपके आचरणरूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावके धारण
करनेवालेके ही होता है, जो मुनीश्वर वीतराग निर्विकल्प परम सामायिकभावकी भावनाके
अनुकूल (सन्मुख) निर्दोष परमात्माके यथार्थ श्रद्धान, यथार्थ ज्ञान और स्वरूपका यथार्थ
आचरणरूप अखंडभाव धारण करता है, उसीके परमसमाधिकी सिद्धि होती है
।।४०।।
आगे ऐसा कहते हैं कि जिस समय ज्ञानी जीव शांतभावको धारण करता है,
उसी समय संयमी होता है, तथा जब क्रोधादि कषायके वश होता है, तब असंयमी होता
है
१ पाठान्तरःवशं गत = संगतः

Page 284 of 565
PDF/HTML Page 298 of 579
single page version

२८४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४१
यावत् ज्ञानी उपशाम्यति तावत् संयतो भवति
भवति कषायाणां वशे गतः जीवः असंयतः स एव ।।४१।।
जांवइ इत्यादि जांवइ यदा काले णाणिउ ज्ञानी जीवः उवसमइ उपशाम्यति ताम-
तदा काले संजदु होइ संयतो भवति होइ भवति कसायहं वसि गयउ कषायवशं गतः
जीउ जीवः कथंभूतो भवति असंजदु असंयतः कोऽसौ सोइ स एव पूर्वोक्त जीव इति
अयमत्र भावार्थः अनाकुलत्वलक्षणस्य स्वशुद्धात्मभावनोत्थपारमार्थिकसुखस्यानुकूलपरमोपशमे
यदा ज्ञानी तिष्ठति तदा संयतो भवति तद्विपरीत परमाकुलत्वोत्पादककामक्रोधादौ परिणतः
पुनरसंयतो भवतीति
तथा चोक्त म्‘‘अकसायं तु चरित्तं कषायवसगदो असंजदो होदि
उवसमइ जम्हि काले तक्काले संजदो होदि’’ ।।४१।।
भावार्थअनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा, स्वशुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न
पारमार्थिक सुखने अनुकूळ परम उपशमभावमां ज्यारे ज्ञानी स्थित होय छे त्यारे ते संयत होय
छे अने तेनाथी विपरीत परमात्मामां आकुळताना उत्पादक कामक्रोधादिमां परिणमेलो होय छे
त्यारे असंयत होय छे. कह्युं पण छे के
‘‘अकसायं तु चरितं कसायवसगदो असंजदो होदि ।।’’
उवसमइ जम्हि काले तक्काले संजदा होदि ।।’’
[अर्थअकषायभाव (कषायनो अभाव) ते चारित्र छे, कषायने वश थयेलो जीव
गाथा४१
अन्वयार्थ :[यदा ] जिस समय [ज्ञानी जीवः ] ज्ञानी जीव [उपशाम्यति ]
शांतभावको प्राप्त होता है, [तदा ] उस समय [संयतः भवति ] संयमी होता है, और
[कषायाणां ] क्रोधादि कषायोंके [वशे गतः ] आधीन हुआ [स एव ] वही जीव [असंयतः ]
असंयमी [भवति ] होता है
भावार्थ :आकुलता रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ निर्विकल्प
(असली) सुखका कारण जो परम शांतभाव उसमें जिस समय ज्ञानी ठहरता है, उसी समय
संयमी कहलाता है, और आत्मभावनामें परम आकुलताके उपजानेवाले काम क्रोधादिक
अशुद्ध भावोंमें परिणमता हुआ जीव असंयमी होता है, इसमें कुछ संदेह नहीं है
ऐसा
दूसरी जगह भी कहा है ‘अकसायं’ इत्यादि अर्थात् कषायका जो अभाव है, वही चारित्र
है, इसलिये कषायके आधीन हुआ जीव असंयमी होता है, और जब कषायोंको शांत करता

Page 285 of 565
PDF/HTML Page 299 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-४२ ]परमात्मप्रकाशः [ २८५
अथ येन कषाया भवन्ति मनसि तं मोहं त्यजेति प्रतिपादयति
१६८) जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु
मोह-कसाय-विवज्जयउ पर पावहि सम-बोहु ।।४२।।
येन कषाया भवन्ति मनसि तं जीव मुञ्च मोहम्
मोहकषायविवर्जितः परं प्राप्नोषि समबोधम् ।।४२।।
जेण इत्यादि जेण येन वस्तुना वस्तुनिमित्तेन मोहेन वा किं भवति कसाय हवंति
क्रोधादिकषाया भवन्ति क्व भवन्ति मणि मनसि साे तं जिय हे जीव मिल्लहि मुञ्च कम्
तं पूर्वोक्ते मोहु मोहं मोहनिमित्तपदार्थं चेति पश्चात् किं लभसे त्वम् मोह-कषाय-विवज्जियउ
मोहकषायविवर्जितः सन् पर परं नियमेन पावहि प्राप्नोषि कं कर्मतापन्नम् सम-बोहु समबोधं
असंयत होय छे अने जे काळे कषायने उपशमावे छे ते काळे जीव संयत होय छे.] ४१.
हवे, जेनाथी (जे मोहथी) मनमां कषाय थाय छे ते मोहने तुं छोड. एम वर्णन करे
छेः
भावार्थनिर्मोह एवा निजशुद्धात्माना ध्यान वडे निर्मोह एवा स्वशुद्धात्मतत्त्वथी
विपरीत मोहने हे जीव! तुं छोड, के जे मोहथी अथवा मोहना निमित्तभूत वस्तुथी निष्कषाय
परमात्मतत्त्वना विनाशक एवा क्रोधादि कषायो थाय छे. मोहकषायनो अभाव थतां तुं रागादि
है, तब संयमी कहलाता है ।।४१।।
आगे जिस मोहसे मनमें कषायें होतीं हैं, उस मोहको तू छोड़, ऐसा वर्णन करते हैं
गाथा४२
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव; [येन ] जिस मोहसे अथवा मोहके उत्पन्न करनेवाली
वस्तुसे [मनसि ] मनमें [कषायाः ] कषाय [भवंति ] होवें, [तं मोहम् ] उस मोहको अथवा
मोह निमित्तक पदार्थको [मुंच ] छोड़, [मोहकषायविवर्जितः ] फि र मोहको छोड़नेसे मोह
कषाय रहित हुआ तू
[परं ] नियमसे [समबोधम् ] राग द्वेष रहित ज्ञानको [प्राप्नोषि ] पावेगा
भावार्थ :निर्मोह निज शुद्धात्माके ध्यानसे निर्मोह निज शुद्धात्मतत्त्वसे विपरीत
मोहको हे जीव छोड़ जिस मोहसे अथवा मोह करनेवाले पदार्थसे कषाय रहित
परमात्मतत्त्वरूप ज्ञानानंद स्वभावके विनाशक क्रोधादि कषाय होते हैं, इन्हींसे संसार है,
इसलिये मोह कषायके अभाव होने पर ही रागादि रहित निर्मल ज्ञानको तू पा सकेगा
ऐसा

Page 286 of 565
PDF/HTML Page 300 of 579
single page version

२८६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-४२
रागद्वेषरहितं ज्ञानमिति तथाहि निर्मोहनिजशुद्धात्मध्यानेन निर्मोहस्वशुद्धात्मतत्त्वविपरीतं हे जीव
मोहं मुञ्च, येन मोहेन मोहनिमित्तवस्तुना वा निष्कषायपरमात्मतत्त्वविनाशकाः क्रोधादिकषाया
भवन्ति पश्चान्मोहकषायाभावे सति रागादिरहितं विशुद्धज्ञानं लभसे त्वमित्यभिप्रायः
तथा
चोक्त म्‘‘तं वत्थुं मुत्तव्वं जं पडि उपज्जए कसायग्गी तं वत्थुमल्लिएज्जो (तद् वस्तु
अंगीकरोति, इति टिप्पणी) जत्थुवसम्मो कसायाणं ।।’’ ।।४२।।
अथ हेयोपादेयतत्त्वं ज्ञात्वा परमोपशमे स्थित्वा येषां ज्ञानिनां स्वशुद्धात्मनि रतिस्त एव
सुखिन इति कथयति
१६९) तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का समभावि
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्पसहावि ।।४३।।
रहित विशुद्ध ज्ञानने पामीश एवो अभिप्राय छे. वळी भगवती आराधना गाथा २६२मां कह्युं
पण छे के
‘‘तं वत्थुं मुत्तव्व जं पडि उपज्जए कसायग्गी तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थुवसम्मो कसायाणं ।।’’
(अर्थजेना निमित्तथी कषायरूपी अग्नि उत्पन्न थाय छे ते वस्तु छोडवी जोईए अने जेना
निमित्तथी कषायो उपशांत थाय छे ते वस्तुनो आश्रय करवो जोईए-ते वस्तुने अंगीकार करवी
जोईए.) ४२.
हवे, हेय-उपादेय तत्त्वने जाणीने परम उपशमभावमां स्थित थईने जे ज्ञानीओने
स्वशुद्धात्मामां रति थई तेओ ज सुखी छे, एम कहे छेः
दूसरी जगह भी कहा है ‘‘तं वत्थुं’’ इत्यादि अर्थात् वह वस्तु मन वचन कायसे छोड़नी
चाहिये, कि जिससे कषायरूप अग्नि उत्पन्न हो, तथा उस वस्तुका अंगीकार करना चाहिये,
जिससे कषायें शांत हों
तात्पर्य यह है, कि विषयादिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि
पापियोंका संग सब तरहसे मोहकषायको उपजाते हैं, इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि
दहकती रहती है
वह सब प्रकारसे छोड़ना चाहिये, और सत्संगति तथा शुभ सामग्री
(कारण) कषायोंको उपशमाती है,कषायरूपी अग्निको बुझाती है, इसलिये उस संगति
वगैरहको अंगीकार करनी चाहिये ।।४२।।
आगे हेयोपादेय तत्त्वको जानकर परम शांतभावमें स्थित होकर जिनके निःकषायभाव
हुआ और निजशुद्धात्मामें जिनकी लीनता हुई, वे ही ज्ञानी परम सुखी हैं, ऐसा कथन करते
हैं