Page 287 of 565
PDF/HTML Page 301 of 579
single page version
शुभाशुभकर्मफलभोक्ता तथापि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन निजशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैक-
सुखामृतभोक्ता, यद्यपि व्यवहारेण कर्मक्षयानन्तरं मोक्षभाजनं भवति तथापि शुद्धपारिणामिक-
परमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सदा मुक्त मेव, यद्यपि व्यवहारेणेन्द्रियजनितज्ञानदर्शनसहितं
तथा अशुद्धनिश्चयनयथी स्वप्रकृत (पोते उपार्जन करेला) शुभ-अशुभ कर्मना फळनो भोक्ता
छे तोपण शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी निजशुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न एक (केवळ) वीतराग
परमानंदरूप सुखामृतनो भोक्ता छे, तेमज व्यवहारनयथी कर्मना क्षय टाणे ज मोक्षनुं भाजन
थाय छे तोपण शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी सदा मुक्त ज छे, जो-
[मत्वा ] जानकर [समभावे स्थिताः ] शांतभावमें तिष्ठते हैं, और [येषां रतिः ] जिनकी लगन
[आत्मस्वभावे ] निज शुद्धात्म स्वभावमें हुई है, [ते परं ] वे ही जीव [अत्र जगति ] इस
संसारमें [सुखिनः ] सुखी हैं
शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखरूप
अमृतका ही भोगनेवाला है, यद्यपि व्यवहारनयसे कर्मोंके क्षय होनेके बाद मोक्षका पात्र है,
तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा मुक्त ही है, यद्यपि
Page 288 of 565
PDF/HTML Page 302 of 579
single page version
निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशं, यद्यपि व्यवहारेणोपसंहारविस्तारसहितं तथापि
मुक्तावस्थायामुपसंहारविस्ताररहितं चरमशरीरप्रमाणप्रदेशं, यद्यपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्यय-
ध्रौव्ययुक्तं तथापि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निजशुद्धात्मद्रव्यं पूर्वं ज्ञात्वा
तद्विलक्षणं परद्रव्यं च निश्चित्य पश्चात् समस्तमिथ्यात्वरागादिविकल्पत्यागेन वीतराग-
चिदानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मतत्त्वे ये रतास्त एव धन्या इति भावार्थः
केवळज्ञान-केवळदर्शनस्वभाववाळो छे, तथा व्यवहारनयथी पोताना उपार्जेला देह जेवडो ज छे
तोपण निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी छे, व्यवहारनयथी प्रदेशोना संकोच
-विस्तार सहित छे तोपण मुक्त-अवस्थामां संकोच-विस्तार रहित चरमशरीरप्रमाण प्रदेशवाळो
छे, जोके पर्यायार्थिकनयथी उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त छे तोपण द्रव्यार्थिकनयथी नित्य टंकोत्कीर्ण
ज्ञायक ज जेनो एक स्वभाव छे. एवा निजशुद्धात्मद्रव्यने प्रथम जाणीने अने निजशुद्धात्म
द्रव्यथी विलक्षण परद्रव्यनो निश्चय करीने पछी समस्त मिथ्यात्वरागादि विकल्पनो त्याग करीने
वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे, एवा स्वशुद्धात्मतत्त्वमां जेओ रत थया तेओ
ज धन्य छे, श्री पूज्यपादस्वामीए परमात्मतत्त्वना लक्षणमां पण कह्युं छे केः
निश्चयनयसे सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाववाला है, यद्यपि व्यवहारनयकर
यह जीव नामकर्मसे प्राप्त देहप्रमाण है, तो भी निश्चयनयसे लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी
है, यद्यपि व्यवहारनयसे प्रदेशोंके संकोच विस्तार सहित है, तो भी सिद्ध
सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर टंकोत्कीर्ण ज्ञानके अखंड स्वभावसे ध्रुव ही है
परद्रव्योंको भी अच्छी तरह निश्चय करके अर्थात् आप परका निश्चय करके बादमें समस्त
मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंको छोड़कर वीतराग चिदानंद स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वमें जो लीन हुए
हैं, वे ही धन्य हैं
Page 289 of 565
PDF/HTML Page 303 of 579
single page version
स्वरूपे आत्माने जाणवाथी साध्यनी सिद्धि छे, अन्य प्रकारे जाणवाथी साध्यनी सिद्धि थती
नथी. ४३.
देखनेवाला है, अपनी देहके प्रमाण हैं, संसार
Page 290 of 565
PDF/HTML Page 304 of 579
single page version
करोति
भवति
तेन कारणेन स्तवनं भवति, अथवा येन कारणेन बन्धुशब्देन गोत्रमपि भण्यते तेन
(शांत) स्वभावथी परमात्मस्वरूपे परिणम्यो थको ज्ञानावरणादि कर्मबंधने हणे छे ते कारणे
स्तुति थाय छे; जे कारणे ‘बंधु’ शब्दनो अर्थ भाई पण लेवाय छे ते ‘बंधुघाती’ ए
अर्थथी लोकव्यवहारभाषाथी निंदा पण थाय छे (आ दोष नथी पण गुण छे, आ निंदा
द्वारा स्तुति छे.)
करोति ] जगत्के प्राणियोंको बावला
Page 291 of 565
PDF/HTML Page 305 of 579
single page version
छोड़ देता है
Page 292 of 565
PDF/HTML Page 306 of 579
single page version
परमात्मानमाश्रयति च तेन कारणेन तस्य स्तुतिर्भवति
भवति तेन कारणेन स निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन तपोधनोऽपीति
बंधनथी बंधायेल निजशत्रुने छोडीने कोई पण कारणे पोते ज ‘पर’ शब्दथी वाच्य एवा
शत्रुने आधीन थाय छे तेथी निंदा पामे छे, तेवी रीते तपोधन पण शब्दना छळथी निंदा पामे
छे. ४५.
जो ज्ञानावरणादि कर्म
Page 293 of 565
PDF/HTML Page 307 of 579
single page version
अथवा यथा कोऽपि लोकमध्ये चित्तविकलो भूतः सन् निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन
तपोधनोऽपीति
स्तुति पामे छे अथवा जेवी रीते कोई लोकमां धनथी रहित थयो थको निंदाने पामे छे, तेवी
रीते तपोधन पण शब्दना छळथी निंदा पामे छे. ४६.
भूत्वा ] शरीर रहित होके अथवा बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर [एकाकी ] अकेला [जगतः
उपरि ] लोकके शिखर पर अथवा सबके ऊ पर [आरोहति ] चढ़ता है
लोक अर्थात् लोकोंके ऊ पर चढ़ता है
है
Page 294 of 565
PDF/HTML Page 308 of 579
single page version
शुद्धात्मना जागर्ति
छे ते शुद्धात्मानी अवस्थामां तो ते परमयोगी, वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूपी
रत्नदीपकना प्रकाशथी मिथ्यात्व, रागादि विकल्पजाळरूप अंधकारने छोडीने शुद्धस्वरूप वडे जागे
छे.
[सकलं जगत् ] सब संसारी जीव [जागर्ति ] जाग रहे हैं, [तां ] उस दशाको [निशां मत्वा ]
योगी रात मानकर [स्वपिति ] योग निद्रामें सोता है
मालूम होती है
जीव परमात्मतत्त्वकी भावनासे परान्मुख हुए विषय
Page 295 of 565
PDF/HTML Page 309 of 579
single page version
निर्विकल्पपरमसमाधियोगनिद्रायां स्वपिति निद्रां करोतीति
अनेक प्रपंचोंमें (झगड़ोंमें) लगे हुए हैं
Page 296 of 565
PDF/HTML Page 310 of 579
single page version
समभावेन विना शुद्धात्मलाभो न भवतीति
समभावसे [आत्मस्वभावम् ] केवलज्ञान पूर्ण आत्मस्वभावको आगे पावेगा
करता है
Page 297 of 565
PDF/HTML Page 311 of 579
single page version
स्थायां अनुभवन् सन् भेदज्ञानी पुरुषः परं प्राणिनं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न च
निन्दतीति
कारणरूप कारणसमयसारने जाणतो थको, त्रण गुप्तिथी गुप्त अवस्थामां अनुभवतो भेदज्ञानी
पुरुष बीजा प्राणी पासेथी भणतो नथी अने बीजा प्राणीने प्रेरतो नथी (अर्थात् भणावतो नथी),
कोईनी स्तुति करतो नथी के कोईनी निंदा करतो नथी. ४८.
न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा करता है, [सिद्धेः कारणं ] मोक्षका कारण [समं
भावं ] एक समभावको [परं ] निश्चयसे [जानन् ] जानता हुआ [तमेव ] केवल
आत्मस्वरूपमें अचल हो रहा है, अन्य कुछ भी शुभ-अशुभ कार्य नहीं करता
लक्षण है, ऐसा मोक्षका कारण जो समयसार उसे जानता हुआ, अनुभवता हुआ, अनुभवी पुरुष
न किसी प्राणीको सिखाता है, न किसीसे सीखता है, न स्तुति करता है, न निंदा करता है
Page 298 of 565
PDF/HTML Page 312 of 579
single page version
करोतीति चतुःकलं प्रकटयति
निज शुद्धात्माने जाणे छे ते परिग्रह, विषयो, देह अने व्रत-अव्रतमां राग-द्वेष करतो नथी, एम
चार सूत्रोथी प्रगट करे छेः
शुद्धात्मा उसे जानता है, वह परिग्रहमें तथा विषय देहसंबंधी व्रत-अव्रतमें राग-द्वेष नहीं करता,
ऐसा चार
जिस मुनिने [आत्मस्वभावः ] आत्माका स्वभाव [ग्रंथात् ] ग्रंथसे [भिन्नः विज्ञातः ] जुदा जान
लिया है
Page 299 of 565
PDF/HTML Page 313 of 579
single page version
चेति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाः, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डरूपा बाह्यपरि-
ग्रहाः इत्थंभूतान् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहान् जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः
कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा शुद्धात्मोपलम्भलक्षणे वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च यो
बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहाद्भिन्नमात्मानं जानाति स परिग्रहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति
दश बाह्य परिग्रहो
छे एवी वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने जे बाह्य अभ्यंतर परिग्रहथी भिन्न
आत्माने जाणे छे, ते परिग्रह उपर राग-द्वेष करतो नथी.
कारित अनुमोदनासे छोड़ और शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर
परवस्तुसे अपनेको भिन्न जानता है, वो ही परिग्रहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता है
ऐसा तात्पर्य जानना
Page 300 of 565
PDF/HTML Page 314 of 579
single page version
भावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखामृतरसास्वादेन तृप्तो भूत्वा यो विषयेभ्यो भिन्नं
शुद्धात्मानमनुभवति स मुनिपञ्चेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषौ न करोति
कारित, अनुमोदनथी छोडीने निजशुद्धात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परमानंद जेनुं एक रूप
छे एवा सुखामृतना रसास्वादथी तृप्त थईने जे विषयोथी भिन्न शुद्ध आत्माने अनुभवे छे
ते मुनि पांच इन्द्रियोना विषयमां राग-द्वेष करतो नथी.
राग नहीं करता और अनिष्ट विषयों पर द्वेष नहीं करता; क्योंकि [येन ] जिनसे [आत्मस्वभावः ]
अपना स्वभाव [विषयेभ्यः ] विषयोंसे [भिन्नः विज्ञातः ] जुदा समझ लिया है
छोड़कर और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अतींद्रियसुखके रसके
आस्वादनेसे तृप्त होकर विषयोंसे भिन्न अपने आत्माको जो मुनि अनुभवता है, वो ही
विषयोंमें राग-द्वेष नहीं करता
Page 301 of 565
PDF/HTML Page 315 of 579
single page version
भावार्थ छे. ५०.
करता, अशुभ शरीरसे द्वेष नहीं करता, [येन ] जिसने [आत्मस्वभावः ] निजस्वभाव [देहात् ]
देहसे [भिन्नः विज्ञातः ] भिन्न जान लिया है
Page 302 of 565
PDF/HTML Page 316 of 579
single page version
लक्षणसुखपरिणते निजपरमात्मनि स्थित्वा च य एव देहाद्भिन्नं स्वशुद्धात्मानं जानाति स एव
देहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति
छे तेने त्रण लोकमां त्रण काळमां मन-वचन-कायथी कृत, कारित, अनुमोदनथी छोडीने अने
वीतरागनिर्विकल्प समाधिना बळथी अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा पारमार्थिक सुखरूपे परिणत
निज परमात्मामां स्थित थईने जे महामुनि देहथी भिन्न स्वशुद्धात्माने जाणे छे ते ज देहनी
उपर राग-द्वेष करतो नथी.
तात्पर्यार्थ छे. ५१.
है, निराबाध नहीं है, नाशके लिए हुए है, जिसका नाश हो जाता है, बन्धका कारण है, और
विषम है
महामुनि देहसे भिन्न अपने शुद्धात्माको जानता है, वही देहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता
देता है, और देहबुद्धिवालोंको नहीं शोभता, ऐसा अभिप्राय जानना
Page 303 of 565
PDF/HTML Page 317 of 579
single page version
विषयमां द्वेष करतो नथी.
व्रतनो निषेध थयो?
[स्वभावः ] स्वभाव [बंधस्य हेतुः ] कर्मबंधका कारण [विज्ञातः ] जान लिया है
होता है
Page 304 of 565
PDF/HTML Page 318 of 579
single page version
विषये निवृत्तिः दत्तादानविषये प्रवृत्तिरित्यादिरूपेणैकदेशं व्रतम्
द्वेष ए बन्नेने छोडवा जोईए.)
अने सत्य वचनमां प्रवृत्ति अदत्तादानथी निवृत्ति अने दत्तादानमां प्रवृत्ति, इत्यादि स्वरूपे
एकदेशव्रत छे. राग-द्वेषरूप संकल्प-विकल्पनी तरंगमाळाथी रहित त्रण गुप्तिथी गुप्त परम
से निवृत्ति, अचौर्यमें प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपसे एकदेशव्रत कहा जाता है, और राग-द्वेषरूप
संकल्प विकल्पोंकी कल्लोलोंसे रहित तीन गुप्तिसे गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत
होता है
Page 305 of 565
PDF/HTML Page 319 of 579
single page version
शुभ परिणामनो पण त्याग होवाथी व्रत उपर पण राग करवा योग्य नथी.)
देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षारूप निदानबंधादिना विकल्पोथी रहित,
मन-वचन-कायना निरोधरूप निजशुद्धात्मध्यानमां स्थित थईने पछी निर्विकल्प थया. पण तेमने
अल्पकाळना महाव्रत होवाथी तेमना महाव्रतनी प्रसिद्धि न थई. अहीं कोई अज्ञानी एम
कहे के अमे पण मरणकाळे तेवी रीते करीशुं, तो एम कहेवुं योग्य नथी कारण के जो कोई
एक आंधळाने कोई पण रीते खजानानी प्राप्ति थई गई तो शुं बधाने ते रीते थाय? एवो
भावार्थ छे. कह्युं पण छे के
निर्विकल्प हुए
Page 306 of 565
PDF/HTML Page 320 of 579
single page version
इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
थई जाय छे तो ते अंधपुरुषने कदाचित् निधिनी प्राप्ति थाय छे तेना जेवुं कहेवाय. पण
आवुं बधी जग्याए खरेखर थाय तेवुं प्रमाण नथी (पण आवुं बधी जग्याए अवश्य थाय
ज एम संभवतुं ज नथी.] ५२.
पुरुषको निधिका लाभ हुआ हो
भेद नहीं जानता है, वही पुण्य-पापका कर्ता होता है, अन्य नहीं, ऐसा मनमें धारणकर यह
गाथा