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कारणं, तस्मात् त्रयाद्विपरीतं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपम् मोक्षस्य कारणमिति योऽसौ न जानाति
जे कोई निश्चयनयथी विभावपरिणाम बंधनो हेतु छे अने स्वभावपरिणाम मोक्षनो हेतु छे,
एम जाणे छे ते पुण्य, पाप बन्नेने करतो नथी) एम मनमां राखीने आ सूत्र कहे छेः
नहीं जानता है, [स एव ] वही [पुण्यमपि पापमपि ] पुण्य और पाप [द्वे अपि ] दोनोंको ही
[मोहेन ] मोहसे [करोति ] करता है
मिथ्याचारित्र इन तीनोंको बंधका कारण और इन तीनोंसे रहित भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षका
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भावार्थः
पुण्य-पाप दोनोंको [मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [भणित्वा ] जानकर [करोति ] करता
है
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द्वे करोतीति
सहजानन्दैकसमरसी भावेन तत्रैव निश्चलस्थिरत्वं सम्यक्चारित्रं, इत्येतैस्त्रिभिः परिणतमात्मानं
योऽसौ मोक्षकारणं न जानाति स एव पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं च करोतीति
विशिष्टपुण्यमास्रवति तथाप्यसौ तदुपादेयं न करोतीति भावार्थः
भावथी तेमां ज, (स्वशुद्धात्मामां ज) निश्चलस्थिरतारूप सम्यक्चारित्र छे. ए त्रण रूपे परिणत
आत्माने जे मोक्षनुं कारण जाणतो नथी ते ज पुण्यने उपादेय करे छे अने पापने हेय करे छे.
मुक्तिना कारणरूप तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृति आदिक विशिष्ट पुण्यनो अनीहितवृत्तिथी आस्रव थाय
छे तोपण ते सम्यग्द्रष्टि तेने उपादेय करतो नथी. एवो भावार्थ छे. ५४.
सम्यक्चारित्र
यद्यपि संसारकी स्थितिके छेदनका कारण, और सम्यक्त्वादि गुणसे परम्पराय मुक्तिका कारण
ऐसी तीर्थंकरनामप्रकृति आदि शुभ (पुण्य) प्रकृतियोंको (कर्मोंको) अवाँछितवृत्तिसे ग्रहण
करता है, तो भी उपादेय नहीं मानता है
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सन् हिण्डते भ्रमति
पुण्यपापरहित शुद्ध आत्माथी विलक्षण तेओ, जेम सोनानी अने लोढानी बेडी बंधननी अपेक्षाए
समान छे तेम, बंधनी अपेक्षाए समान ज छे
करे छे.
हुआ [चिरं ] बहुत काल तक [दुःखं सहमानः ] दुःख सहता हुआ [लोके ] संसारमें [हिंडते ]
भटकता है
भिन्न हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर पुण्य-पाप रहित शुद्धात्मासे दोनों ही भिन्न हुए बंधरूप
होनेसे दोनों समान ही हैं
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सन् संसारे परिभ्रमति इति
षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्
योगीन्द्रदेव कहे छे के जो शुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप त्रण गुप्तिथी गुप्त एवी वीतराग
निर्विकल्प परम समाधिने पामीने स्थित थाय छे त्यारे तो संमत ज छे (त्यारे तो पुण्य
-पापने समान मानवा ते तो यथार्थ ज छे) पण जो तेवी अवस्थाने प्राप्त कर्या सिवाय
जे गृहस्थअवस्थामां दान-पूजादिक छोडे छे अने मुनिनी अवस्थामां छ आवश्यक आदिने
छोडीने उभयभ्रष्ट (बन्ने बाजुथी भ्रष्ट) थतो वर्ते छे त्यारे तो दूषण ज छे, (त्यारे तो
पुण्य-पाप बन्नेने समान मानवां ते तो दूषण ज छे) एवुं तात्पर्य छे. ५५.
स्वच्छंद हुए रहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? तब योगीन्द्रदेवने कहा
-पापको समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है
हैं
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बुद्धि [कुर्वन्ति ] कर देवे, तो [तानि पापानि ] वे पाप भी [वरं सुंदराणि ] बहुत अच्छे हैं,
ऐसा [ज्ञानिनः ] ज्ञानी [भणंति ] कहते हैं
जान नरकके कारण जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह और आरंभादिक हैं, उनको खराब
जानके पापसे उदास होवे
है
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समान दूसरा क्या होगा
उदास होवें, वे प्रशंसा करने योग्य हैं, और पापी जीव प्रशंसाके योग्य नहीं हैं, क्योंकि पाप
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लभते
आकांक्षारूप निदानबंधपूर्वक ज्ञान, तप अने दानादिथी उपार्जित करेलां जे पुण्यकर्मो छे ते
हेय छे; शा माटे? कारण के निदानबंधथी उपार्जित पुण्यथी बीजा भवमां राज्यादिनी
विभूति प्राप्त थतां तो जीव भोगोने छोडी शकतो नथी, तेथी रावणादिनी माफक ते पुण्यथी
नरकादिना दुःख पामे छे माटे तेवा पुण्यो हेय छे. वळी निदान रहित एवा पुण्य सहित
जे पुरुषो छे ते बीजा भवमां राज्यादिना भोग प्राप्त थतां पण भोगोने छोडीने,
नरकादि दुःखोंको [जनयंति ] उपजाते हैं, [ज्ञानिनः ] ऐसा ज्ञानीपुरुष [भणंति ] कहते हैं
दान तप आदिकसे उपार्जन किये जो पुण्यकर्म हैं, वे हेय हैं
अज्ञानियोंके पुण्य
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फि र मनुष्य होकर मोक्षको पाते हैं
जीव, [निजदर्शनविमुखः ] अपने सम्यग्दर्शनसे विमुख हुआ [पुण्यमपि ] पुण्य भी
[करिष्यसि ] करे [मा वरं ] तो अच्छा नहीं
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भण्यते तदभिमुखः सन् हे जीव मरणमपि लभस्व दोषो नास्ति तेन विना पुण्यं मा
कार्षीरिति
तेन कारणेन सम्यक्त्वसहितानां मरणमपि भद्रम्
ते निश्चयसम्यक्त्वनी सन्मुख थतो हे जीव! जो तुं मरण पण पामे तो दोष नथी पण सम्यक्त्व
विनानुं पुण्य न कर.
कहेवाय छे. ते कारणे सम्यक्त्व सहित जीवोनुं मरण पण भद्र छे अने सम्यक्त्व रहित जीवोनुं
पुण्य पण भद्र नथी, कारण के निदानथी बांधेला ते पुण्यथी जीवो भवान्तरमां भोगोने पामीने
हुआ
इसलिये सदा सुखी ही होवेंगे
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[पुण्यं कुर्वाणा अपि ] पुण्य भी करते हैं, तो भी पुण्यके फलसे अल्प सुख पाके संसारमें
[अनंतं दुःखम् ] अनन्त दुःख [सहंते ] भोगते हैं
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अने केटलाक नकुल, सहदेवादिनी माफक स्वर्गसुख पामे छे, पण जेओ सम्यक्त्व रहित छे तेओ
पुण्य करवा छतां पण अनंत दुःख ज अनुभवे छे. ५९.
सहदेवकी तरह अहमिंद्र
[मतिमोहेन ] बुद्धिके भ्रम होनेसे (अविवेकसे) [पापं ] पाप होता है, [तस्मात् ] इसलिये
[पुण्यं ] ऐसा पुण्य [अस्माकं ] हमारे [मा भवतु ] न होवे
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(घमंड) होता है, अभिमानसे बुद्धि भ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्टकर पाप कमाता है, और पापसे
भव भवमें अनंत दुःख पाता है
अभिमान नहीं उत्पन्न करता, परम्पराय मोक्षका कारण है
चक्रवर्ती बलभद्र
बुद्धिमें शास्त्र, मनमें दया, पराक्रमरूप भुजाओंमें शूरवीरता, याचकोंमें पूर्ण लक्ष्मीका दान, और
मोक्षमार्गमें गमन है, वे निरभिमानी हुए, जिनके किसी गुणका अहंकार नहीं हुआ
पण भरत, सगर, राम, पांडवादिना पुण्यबंधनी माफक सम्यक्त्वादि गुण सहित पुण्यबंध मद
उत्पन्न करतो नथी. वळी जो पुण्य सर्वने मद उत्पन्न करे तो तेओ केवी रीते पुण्यना भाजन
थतां मदअहंकारादि विकल्पने छोडीने मोक्षे गया? एवो भावार्थ छे.
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है
लेकिन [कर्मक्षयः ] तत्काल कर्मोंका क्षय [नैव भवति ] नहीं होता, ऐसा [आर्यः शांतिः ]
शांति नाम आर्य अथवा कपट रहित संत पुरुष [भणति ] कहते हैं
हता छतां पण तेओ अभिमानथी रहित हता, एम आगमथी जाणवा मळे छे पण
आश्चर्य छे के हालमां-पंचमकाळमां-लेश पण गुणो न होय तोपण मनुष्यो उद्धत छे
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निरन्तरं पञ्चपरमेष्ठिगुणस्मरणदानपूजादिना निर्भरभक्ताः सन्तः किमर्थं पुण्योपार्जनं कुर्युरिति
है
और दान-पूजादि शुभ क्रियाओंसे पूर्ण होकर क्यों पुण्यका उपार्जन किया ? तब श्रीगुरुने उत्तर
दिया
कारण श्रीपंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करते हैं, और दान पूजादिक करते हैं, परंतु उनकी दृष्टि
केवल निज परिणतिपर है, पर वस्तुपर नहीं है
स्मरण, दान, पूजादिथी निर्भर (अत्यंत) भक्त थईने शा माटे पुण्य उपार्जन करता हता?
सन्मानादिक करे छे तेवी रीते ते महापुरुषो पण वीतराग परमानंद ज जेनुं एक रूप
छे एवा मोक्षलक्ष्मीना सुखसुधारसना पिपासु थईने संसारस्थितिने छेदवाने कारणभूत अने
विषयकषायथी उत्पन्न दुर्ध्यानना विनाशना हेतुभूत एवा, परमेष्ठीना गुणस्मरण, दान,
पूजादिक करता हता.
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हेतुभूतं च परमेष्ठिसंबन्धिगुणस्मरणदानपूजादिकं कुर्युरिति
निश्चयसे [पापं ] पाप [भवति ] होता है, [येन ] जिस पापके कारणसे वह जीव [संसारं ]
संसारमें [भ्रमति ] भ्रमण करता है
दुर्गतिमें भटकता है
विनाना) पुण्यनो आश्रव थाय छे. ६१.
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योऽसौ निन्दां करोति स मिथ्या
इन तीनोंकी जो निंदा करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है
और पाप दोनोंके मेलसे [मनुष्यगतिं ] मनुष्यगतिको [लभते ] पाता है, और [द्वयोरपि क्षये ]
पुण्य-पाप दोनोंके ही नाश होनेसे [निर्वाणम् ] मोक्षको पाता है, ऐसा [विजानीहि ] जानो
मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्यात्वथी ते पाप बांधे छे. पापथी ते चारगतिरूप संसारमां भमे छे. ६२.
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मुक्तो भवतीति तात्पर्यार्थः
देव होता है, दोनोंके मेलसे मनुष्य होता है, और शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत इन दोनों पुण्य
-पापोंके क्षयसे निर्वाण (मोक्ष) मिलता है
पाता है
नारकगतिनुं अने तिर्यंचगतिनुं भाजन थाय छे, ते ज शुद्ध आत्माथी विलक्षण एवा पुण्योदयथी
देव थाय छे, ते ज शुद्ध आत्माथी विपरीत पुण्य-पाप द्वयथी मनुष्य थाय छे अने विशुद्धज्ञान,
विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा ते ज निज शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यग् अनुष्ठानरूप शुद्धोपयोगथी मुक्त थाय छे. वळी कह्युं पण छे के
बन्नेना मिश्रणथी मनुष्यपणुं पामे छे अने बन्नेना क्षयथी निर्वाण पामे छे. ६३.
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अनुमोदयति, एक्कु वि एकमपि, णाणि ण तेण ज्ञानी पुरुषो न तेन कारणेनेति
छोड़े, ऐसा कहते हैं
जो पुण्यके कारण हैं, मोक्षके कारण नहीं हैं, [तेन ] इसीलिये पहली अवस्थामें पापके दूर
करनेके लिये ज्ञानी पुरुष इनको करता है, कराता है, और करते हुएको भला जानता है तो
भी निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्थामें [ज्ञानी ] ज्ञानी जीव [एकमपि ] इन तीनोंमेंसे एक भी
[न करोति ] न तो करता है, [कारयति ] न कराता है, और न [अनुमन्यते ] करते हुए को
भला जानता है
भूतकालके रागादि दोष उनका दूर करना वह निश्चयप्रतिक्रमण; वीतराग चिदानन्द शुद्धात्माकी
द्वारा कहे छेः
निश्चय प्रतिक्रमण छे, एक (केवळ) वीतराग चिदानंदनी अनुभूतिनी भावनाना बळथी
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रूपाणां रागादिनां त्यजनं निश्चयप्रत्याख्यानं भण्यते, निजशुद्धात्मोपलम्भबलेन वर्तमानोदयागत-
शुभाशुभनिमित्तानां हर्षविषादादिपरिणामानां निजशुद्धात्मद्रव्यात् पृथक्करणं निश्चयालोचनमिति
लोचनत्रयं तन्त्रयानुकूलं वन्दननिन्दनादिशुभोपयोगं च त्यजन् स ज्ञानी भण्यते न चान्य इति
भावार्थः
निश्चयप्रत्याख्यान,
निश्चयआलोचन
आदि शुभोपयोग है, उनको छोड़ता है वही ज्ञानी कहा जाता है, अन्य नहीं
शुद्धमें लग जाता है
प्रवृत्ति अशुभकी निवृत्ति वह व्यवहारआलोचन है
निजशुद्धात्मानी प्राप्तिना बळथी वर्तमान उदयमां आवेलां शुभाशुभ कर्मो जेमना निमित्त होय
छे, एवा हर्षविषाद आदि परिणामोने निजशुद्धआत्मद्रव्यथी जुदा करवा ते निश्चय आलोचना
छे.
अनुकूळ एवा वंदना, निंदा आदि शुभोपयोगने छोडे छे ते ज्ञानी छे, पण बीजो कोई ज्ञानी
नथी, एवो भावार्थ छे. ६४.