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छे (रागादिनी वृद्धि थाय छे) ते खरेखर ज्ञान ज नथी. कारण के तेना वडे विशिष्ट मोक्षफळनी
प्राप्ति थती नथी. ७६.
जानतां ] परमात्म
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सुन्दरं समीचीनं वस्तु प्रतिभाति येन कारणेन तेण ण विसयहं मणु रमइ तेन कारणेन
शुद्धात्मोपलब्धिप्रतिपक्षभूतेषु पञ्चेन्द्रियविषयरूपकामभोगेषु मनो न रमते
बीजी कोई पण वस्तु समीचीन लागती नथी तेथी एक (केवळ) वीतराग सहजानंदरूप पारमार्थिक
सुखनी साथे अविनाभूत परमात्माने जाणनारनुं मन शुद्धात्मानी प्राप्तिथी प्रतिपक्षभूत
पंचेन्द्रियना विषयभूत कामभोगोमां रमतुं नथी. ७७.
दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती
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[तस्य ] उसको [काचेन ] काँचसे [किं गणनं ] क्या प्रयोजन है ?
परिणामोंको [करोति ] करता है, [सः ] वह [परं ] केवल [कर्म जनयति ] कर्मको उपजाता
(बाँधता) है
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शुद्धात्मप्रतिकूलमोहोदयेन जो जि करेइ य एव पुरुषः करोति
निर्मोह एवा शुद्ध आत्माथी प्रतिकूळ मोहोदयथी शुभ-अशुभ (सारा-नरसा) परिणामने करे
छे ते ज (ते भाव ज) शुभाशुभ कर्म उपजावे छे.
अज्ञानी जीव मोहके उदयसे हर्ष-विषाद भाव करता है, वह नये कर्मोंका बंध करता है
कर्मोंको बाँधता है
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तत्र कर्मानुभवप्रस्तावे राउ ण जाइ रागं न गच्छति वीतरागचिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्व-
भावनोत्पन्नसुखामृततृप्तः सन् रागद्वेषौ न करोति सो स जीवः णवि बंधइ नैव बध्नाति
थतो नथी-वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी
उत्पन्न
आप तेमने शा माटे दोष आपो छो?
होता [सः ] वह [पुनः कर्म ] फि र कर्मको [नैव ] नहीं [बध्नाति ] बाँधता, [येन ] जिस
कर्मबंधाभाव परिणामसे [संचितं ] पहले बाँधे हुए कर्म भी [विलीयते ] नाश हो जाते हैं
उत्पन्न अतीन्द्रियसुखरूप अमृतसे तृप्त हुआ जो रागी-द्वेषी नहीं होता, वह जीव फि र ज्ञानावरणादि
कर्मोंको नहीं बाँधता है, और नये कर्मोंका बंधका अभाव होनेसे प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा ही
होती है
भी कहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं
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तात्पर्यम्
आवे छे, एवुं तात्पर्य छे. ८०.
तबतक [जीव ] हे जीव, [परमार्थं ] निज शुद्धात्मतत्त्वको [जानन्नपि ] शब्दसे केवल जानता
हुआ भी [नैव ] नहीं [मुच्यते ] मुक्त होता
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कालं न मुञ्चति एत्थु अत्र जगति सो णवि मुच्चइ स जीवो नैव मुच्यते ज्ञानावरणादिकर्मणा
ताम तावन्तं कालं जिय हे जीव
नथी, त्यां सुधी ते आ संसारमां परमार्थ शब्दथी वाच्य एवा निजशुद्धात्मतत्त्वने वीतराग
अनुष्ठान रहित थयो थको (वीतराग अनुष्ठान विना) केवळ शब्दमात्रथी ज जाणतो थको
ज्ञानावरणादि कर्मथी मूकातो नथी. ए भावार्थ छे के निज शुद्ध आत्मस्वभावनुं ज्ञान होवा छतां
पण शुद्ध आत्मानी प्राप्तिस्वरूप वीतराग चारित्रनी भावना विना मोक्ष मळतो नथी. ८१.
हुआ भी वीतरागचारित्रकी भावनाके बिना मोक्षको नहीं पाता
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निज-शुद्धात्मा तत्र निरन्तरानुष्ठानाभावात् ताव ण मुंचइ तावन्तं कालं न मुच्यते
सम्यगनुभवतीति
जणाय छे तोपण निश्चयनयथी वीतरागस्वसंवेदनरूप ज्ञानथी ज जणाय छे. अने व्यवहारनयथी
जो के बहिरंग सहकारी कारणभूत अनशनादि बार प्रकारना तपथी साधवामां आवे छे तोपण
निश्चयनयथी निर्विकल्प शुद्ध आत्मामां विश्रांतिस्वरूप वीतराग चारित्रथी ज साधवामां आवे छे,
ते निजशुद्धात्मामां निरंतर अनुष्ठानना अभावथी आत्मा ज्यां सुधी आ पूर्वोक्त लक्षणवाळा
परमार्थने सम्यग् जाणतो नथी, सम्यग् श्रद्धतो नथी अने सम्यग् अनुभवतो नथी त्यां सुधी
कर्मथी छूटतो नथी.
और जबतक [एवं ] पूर्व कहे हुए [परमार्थं ] परमात्माको [नैव मनुते ] नहीं जानता, या अच्छी
तरह अनुभव नहीं करता है, [तावत् ] तबतक [न मुच्यते ] नहीं छूटता
बारह प्रकारके तपसे साधा जाता है, तो भी निश्चयनयसे निर्विकल्पवीतरागचारित्रसे ही आत्माकी
सिद्धि है
लिए ही किया जाता है, जैसे दीपकसे वस्तुको देखकर वस्तुको उठा लेते हैं, और दीपकको छोड़
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शास्त्रविकल्पस्त्यज्यत इति
जाणीने अने ग्रहीने प्रदीपस्थानीय शास्त्रना विकल्पने छोडवामां आवे छे. ८२.
जानकर उस शुद्धात्मतत्त्वका अनुभव करना चाहिए, और शास्त्रका विकल्प छोड़ना चाहिए
ऐसा कहते हैं
है, जो विकल्प नहीं मेंटता, वह [देहे ] शरीरमें [वसंतमपि ] रहते हुए भी [निर्मलं
परमात्मानम् ] निर्मल परमात्माको [नैव मन्यते ] नहीं श्रद्धानमें लाता
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भावस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वरागादिविकल्पं न हन्ति
भावयतीति तात्पर्यम्
मिथ्यात्व, रागादि विकल्पनो नाश करतो नथी. मात्र विकल्पनो नाश करतो नथी एटलुं ज
नहि, पण देहमां रहेवा छतां पण निर्मळ-कर्ममळ रहित-निज परमात्माने श्रद्धतो नथी, ते
जड
(विषय कषायने छोडवा माटे) अने शुद्ध आत्मानी भावनानुं स्मरण द्रढ करवा माटे अने
बहिर्विषयमां व्यवहारज्ञाननी वृद्धि अर्थे बीजा जीवोने धर्मोपदेश आपवो, तेम छतां पण
परने उपदेशवाना बहाना द्वारा मुख्यपणे स्वकीय जीव ज संबोधवो. केवी रीते? ते आ
प्रमाणेः
करो. आवुं तात्पर्य छे. ८३.
भावनाके दृढीकरण हेतु परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहानेसे
मुख्यताकर अपना जीव हीको संबोधना
नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो
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(श्रोताओना मनने रंजक करनार एवा शास्त्रवक्ता होवा रूप) वाग्मित्व, इत्यादि लक्षणवाळुं
शास्त्रजनित ज्ञान कहेवाय छे तोपण निश्चयनयथी परमात्मस्वरूपना प्रकाशक अध्यात्मशास्त्रथी
जिसको [वरः बोधः न ] उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, [स ] वह [किं ] क्या [मूढः न ] मूर्ख नहीं
है ? [तथ्यम् ] मूर्ख ही है, इसमें संदेह नहीं
और श्रोताओं के मनको अनुरागी करनेवाला शास्त्रका वक्ता होनेरूप वाग्मित्व, इत्यादि
लक्षणोंवाला शास्त्रजनित ज्ञान होता है, तो भी निश्चयनयसे वीतरागस्वसंवेदनरूप ही ज्ञानकी
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नहि. ते अनुबोध विना (वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान विना) शास्त्र भण्यो होवा छतां पण
मूढ छे.
जीव वैराग्य विना सिद्धि पामतो नथी) वळी कह्युं छे के
अनाजना कणोथी रहित घणुं पराळ निरर्थक संग्रह करवा जेवुं कर्युं) इत्यादि पाठ मात्र ग्रहीने
अने बहु शास्त्रना जाणनाराओने दोष न देवो. ते बहुश्रुतज्ञोए पण अन्य अल्पश्रुतज्ञ
ही पढ़कर सुधर जाते हैं
कण रहित बहुत भूसेका ढेर कर लिया हो, वह किसी कामका नहीं है
शास्त्रज्ञोंकी निंदा नहीं करनी चाहिए
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ज्ञानतपश्चरण वगेरे नाश पामे छे, एवो भावार्थ छे. ८४.
[ज्ञानविवर्जितः ] ज्ञानरहित हैं, [स एव ] वह [मुनिवरः न भवति ] मुनीश्वर नहीं हैं, संसारी
हैं
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प्रभृतिविविधपक्षिकोलाहलमनोहरं यदर्हद्वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं तदेव निश्चयेन गङ्गादितीर्थं न
लोकव्यवहारप्रसिद्धं गङ्गादिकम्
तीर्थंकरपरमदेवादिगुणस्मरणहेतुभूतं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणं तन्निर्वाणस्थानादिकं च तीर्थ-
मिति
कर्णने सुखकारी एवा दिव्यध्वनिरूप राजहंसादि विविध पक्षीओना कोलाहलथी मनोहर एवुं जे
अर्हंत वीतराग सर्वज्ञनुं स्वरूप ते ज निश्चयथी (खरेखर) गंगादि तीर्थ छे, पण लोकव्यवहारमां
प्रसिद्ध एवा गंगादि, ते तीर्थ नथी.
छे अने व्यवहारनयथी तीर्थंकर परमदेवादिना गुणस्मरणना कारणभूत अने मुख्यपणे पुण्यबंधना
कारणरूप ते निर्वाणस्थान आदि तीर्थ छे.
पक्षियोंके शब्दोंसे महामनोहर जो अरहंत वीतराग सर्वज्ञ वे ही निश्चयसे महातीर्थ हैं, उनके
समान अन्य तीर्थ नहीं हैं
कोई तीर्थ नहीं है, और व्यवहारनयसे तीर्थंकर परमदेवादिके गुणस्मरणके कारण मुख्यतासे शुभ
बंधके कारण ऐसे जो कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं, वे भी व्यवहारमात्र तीर्थ
कहे हैं
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देहने पृथग्भूत जाणीने पोताना देहने पण त्यजे छे अने मूढात्मा (बहिरात्मा) ते सर्वने पोताना
करे छे. ८६.
छोड़ देते हैं, अर्थात् शरीरका भी ममत्व छोड़ देते हैं, तो फि र पुत्र, स्त्री आदिका क्या कहना
है ? ये तो प्रत्यक्षसे जुदे हैं, और द्रव्यलिंगीमुनि लिंग(भेष)में आत्म
कलत्रादिकी तो बात अलग रहे जो अपने आत्म
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अशेषम् ] इस समस्त [भुवनम् अपि ] जगत्को ही [परं ] नियमसे [लातुं इच्छति ] लेनेकी
इच्छा करता है, अर्थात् सब संसारके भोगोंकी इच्छा करता है, तपश्चरणादि कायक्लेशसे
स्वर्गादिके सुखोंको चाहता है, और ज्ञानीजन कर्मोंके क्षयके लिये तपश्चरणादि करता है,
भोगोंका अभिलाषी नहीं है
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समस्तमिथ्यात्वरागाद्यास्रवेभ्यः पृथग्रूपेण परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव रागादिपरिहाररूपेण
निश्चलचित्तवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् इत्येवं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्त्रयात्मकमात्मानमरोचमानस्तथै-
वाजानन्नभावयंश्च मूढात्मा
पृथक्रूपे परिच्छित्तिरूप सम्यग्ज्ञान अने रागादिना परिहाररूपे ते ज परमात्मामां
निश्चळचित्तवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र एवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप त्रयात्मक आत्मानी रुचि न करतो
तेम ज तेने न जाणतो अने तेने न भावतो मूढात्मा समस्त जगतने धर्मना बहानाथी
(भोगववाना बहानाथी) ग्रहण करवाने इच्छे छे, ज्यारे पूर्वोक्त ज्ञानी (जगतना समस्त
भोगोने) छोडवा इच्छे छे. ८७.
छेः
परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तकी वृत्ति वह सम्यक्चारित्र, यह
निश्चयरत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढ़जन आत्मा को नहीं जानता हुआ,
और नहीं अनुभवता हुआ जगत्के समस्त भोगोंको धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन
समस्त भोगोंसे उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड़ दिये और आगामी वाँछा नहीं
है, ऐसा जानना
लज्जावान् होता है
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इति तात्पर्यम्
वीतरागचारित्रथी नहि भावतो, मूढात्मा जिनदीक्षा आपवी वगेरे शुभ अनुष्ठानने अने
पुस्तक वगेरे उपकरणने पुण्यबंधनुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण माने छे. ज्ञानी
साक्षात् पुण्यबंधनुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण मानता होवा छतां पण निश्चयथी
तेमने मुक्तिनुं कारण मानता नथी. ८८.
[एतैः ] इन बाह्य पदार्थोंसे [लज्जते ] शरमाता है, क्योंकि इन सबोंको [बंधस्य हेतुं ] बंधका
कारण [जानन् ] जानता है
दानादि शुभ आचरण और पुस्तकादि उपकरण उनको मुक्तिके कारण मानता है, और ज्ञानीजन
इनको साक्षात् पुण्यबंधके कारण जानता है, परम्पराय मुक्तिके कारण मानता है
मुक्तिके कारण नहीं हैं
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दूर करनार) कोई स्वादिष्ट औषध लईने जीभनी लंपटताथी (स्वादनो लोलुपी थई अधिक मात्रामां
(खोटे मार्गमें) [पातिताः ] डाल देते हैं
अधिक लेके औषधिका ही अजीर्ण करता है, उसी तरह अज्ञानी कोई द्रव्यलिंगी यती विनयवान्
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विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्व-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगत्वप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः
पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि
वगेरेने (अजीर्णरोगस्थानीय) मोहना भयथी छोडीने अने जिनदीक्षा ग्रहीने कांई पण
औषधस्थानीय उपकरणादिने ग्रहीने शुद्ध-बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मतत्त्वनां
सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान अने सम्यग् अनुष्ठानरूप निरोगपणाना प्रतिपक्षभूत
अजीर्णरोगस्थानीय (अजीर्ण रोग समान) पोताने मोह उपजावे छे. पण ज्ञानी तेवो नथी.
भावसंयमना रक्षणार्थे विशिष्ट संहननादि शक्तिनो अभाव होतां, जो के तपनुं साधन जे शरीर
तेना रक्षाना सहकारीभूत अन्न, जळ, संयम, शौच, ज्ञानना उपकरणो कमंडल, पींछी अने शास्त्रो
लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका
अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी बुद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है
शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने
योग्य है
रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी
रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मल
पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते