Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 77-89 (Adhikar 2).

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अधिकार-२ः दोहा-७७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३४७
पुरतो हे जीव किं विलसइ किं विलसति किं शोभते अपि तु नैव कोऽसौ तम-राउ तमो
रागस्तमोव्याप्तरिति अत्रेदं तात्पर्यम् यस्मिन् शास्त्राभ्यासज्ञाने जातेऽप्यनाकुलत्वलक्षण-
पारमार्थिकसुखप्रतिपक्षभूता आकुलत्वोत्पादका रागादयो वृद्धिं गच्छन्ति तन्निश्चयेन ज्ञानं न
भवति कस्मात् विशिष्टमोक्षफलाभावादिति ।।७६।।
अथ ज्ञानिनां निजशुद्धात्मस्वरूपं विहाय नान्यत्किमप्युपादेयमिति दर्शयति
२०४) अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु
तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु ।।७७।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानिनां अन्यन्न सुन्दरं वस्तु
तेन न विषयेषु मनो रमते जानतां परमार्थम् ।।७७।।
अहीं, ए तात्पर्य छे के शास्त्रना अभ्यासथी ज्ञान थवा छतां पण जेमां अनाकुळता जेनुं
लक्षण छे एवा पारमार्थिक सुखथी प्रतिपक्षभूत आकुळताना उत्पादक एवा रागादि वृद्धि पामे
छे (रागादिनी वृद्धि थाय छे) ते खरेखर ज्ञान ज नथी. कारण के तेना वडे विशिष्ट मोक्षफळनी
प्राप्ति थती नथी. ७६.
हवे, ज्ञानी पुरुषोने निजशुद्धात्मस्वरूप सिवाय बीजुं कांई पण उपादेय नथी, एम दर्शावे
छेः
अभिलाषा [इच्छा ] नहीं शोभती यह निश्चयसे जानना शास्त्रका ज्ञान होने पर भी जो
निराकुलता न हो, और आकुलताके उपजानेवाले आत्मीकसुखके वैरी रागादिक जो वृद्धिको
प्राप्त हों, तो वह ज्ञान किस कामका ? ज्ञान तो वह है, जिससे आकुलता मिट जावे इससे
यह निश्चय हुआ, कि बाह्य पदार्थोंका ज्ञान मोक्षफलके अभावसे कार्यकारी नहीं है ।।७६।।
आगे ज्ञानी जीवोंके निज शुद्धात्मभावके बिना अन्य कुछ भी आदरने योग्य नहीं है,
ऐसा दिखलाते हैं
गाथा७७
अन्वयार्थ :[आत्मानं ] आत्माको [मुक्त्वा ] छोड़कर [ज्ञानिनां ] ज्ञानियोंको
[अन्यद् वस्तु ] अन्य वस्तु [ सुंदरं न ] अच्छी नहीं लगती, [तेन ] इसलिये [परमार्थम्
जानतां ] परमात्म
- पदार्थको जाननेवालोंका [मनः ] मन [विषयाणां ] विषयोंमें [न रमते ] नहीं
लगता

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३४८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-७८
अप्पा इत्यादि अप्पा मिल्लिवि शुद्धबुद्धैकस्वभावं परमात्मपदार्थं मुक्त्वा णाणियहं
ज्ञानिनां मिथ्यात्वरागादिपरिहारेण निजशुद्धात्मद्रव्यपरिज्ञानपरिणतानां अण्णु ण सुंदरु वत्थु अन्यन्न
सुन्दरं समीचीनं वस्तु प्रतिभाति येन कारणेन
तेण ण विसयहं मणु रमइ तेन कारणेन
शुद्धात्मोपलब्धिप्रतिपक्षभूतेषु पञ्चेन्द्रियविषयरूपकामभोगेषु मनो न रमते
किं कुर्वताम् जाणंतहं
जानतां परमत्थु वीतरागसहजानन्दैकपारमार्थिकसुखाविनाभूतं परमात्मानमेवेति तात्पर्यम् ।।७७।।
अथ तमेवार्थं द्रष्टान्तेन समर्थयति
२०५) अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु
मरगउ जेँ परियाणियउ तहुँ कच्चेँ कउ गण्णु ।।७८।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत्
मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन कुतो गणना ।।७८।।
भावार्थमिथ्यात्व, रागादिना त्याग वडे (त्यागपूर्वक) निजशुद्धात्म-द्रव्यना
परिज्ञानरूपे परिणत ज्ञानीओने शुद्ध, बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमपदार्थ सिवाय
बीजी कोई पण वस्तु समीचीन लागती नथी तेथी एक (केवळ) वीतराग सहजानंदरूप पारमार्थिक
सुखनी साथे अविनाभूत परमात्माने जाणनारनुं मन शुद्धात्मानी प्राप्तिथी प्रतिपक्षभूत
पंचेन्द्रियना विषयभूत कामभोगोमां रमतुं नथी. ७७.
हवे, द्रष्टांत वडे ते ज अर्थनुं समर्थन करे छेः
भावार्थ :मिथ्यात्व रागादिकके छोड़नेसे, निज शुद्धात्म द्रव्यके यथार्थ ज्ञानकर
जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियोंको शुद्ध, बुद्ध परम स्वभाव परमात्माको छोड़के
दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती
इसलिये उनका मन कभी विषयवासनामें नहीं
रमता ये विषय कैसे हैं जो कि शुद्धात्माकी प्राप्तिके शत्रु हैं ऐसे ये भवभ्रमणके कारण
हैं, कामभोगरूप पाँच इंद्रियोंके विषय उनमें मूढ़ जीवोंका ही मन रमता है, सम्यग्दृष्टिका मन
नहीं रमता कैसे हैं सम्यग्दृष्टि, जिन्होंने वीतराग सहजानंद अखंड सुखमें तन्मय परमात्मतत्त्वको
जान लिया है इसलिये यह निश्चय हुआ, कि जो विषयवासनाके अनुरागी हैं, वे अज्ञानी
हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे विषयविकारसे सदा विरक्त ही हैं ।।७७।।
आगे इसी कथनको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं
गाथा७८
अन्वयार्थ :[ज्ञानमयं आत्मानं ] केवलज्ञानादि अनंतगुणमयी आत्माको [मुक्त्वा ]
छोड़कर [अन्यत् ] दूसरी वस्तु [चित्ते ] ज्ञानियोंके मनमें [न लगति ] नहीं रुचती उसका

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अधिकार-२ः दोहा-७९ ]परमात्मप्रकाशः [ ३४९
अप्पा इत्यादि अप्पा मिल्लिवि आत्मानं मुक्त्वा कथंभूतम् णाणमउ ज्ञानमयं
केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणमयं चित्ति मनसि ण लग्गइ न लगति न रोचते न प्रतिभाति किम्
अण्णु निजपरमात्मस्वरूपादन्यत् अत्रार्थे द्रष्टान्तमाह मरगउ जें परियाणियउ
मरकतरत्नविशेषो येन परिज्ञातः तहुँ तस्य रत्नपरीक्षापरिज्ञानसहितस्य पुरुषस्य कच्चें कउ गण्ण
काचेन किं गणना किमपेक्षा तस्येत्यभिप्रायः ।।७८।।
अथ कर्मफलं भुञ्जानः सन् योऽसौ रागद्वेषं करोति स कर्म बध्नातीति कथयति
२०६) भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु मोहइँ जो जि करेइ
भाउ असुंदरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ ।।७९।।
भुञ्जानोऽपि निजकर्मफलं मोहेन य एव करोति
भावं असुन्दरं सुन्दरमपि स परं कर्म जनयति ।।७९।।
भुंजंतु वि इत्यादि भुंजंतु वि भुञ्जानोऽपि किम् णिय-कम्म-फलु
दृष्टांत यह है, कि [येन ] जिसने [मरकतः ] मरकतमणि (रत्न) [परिज्ञातः ] जान लिया,
[तस्य ] उसको [काचेन ] काँचसे [किं गणनं ] क्या प्रयोजन है ?
भावार्थ :जिसने रत्न पा लिया, उसको काँचके टुकड़ोंकी क्या जरूरत है ? उसी
तरह जिसका चित्त आत्मामें लग गया, उसके दूसरे पदार्थोंकी वाँछा नहीं रहती ।।७८।।
आगे कर्म - फलको भोगता हुआ जो राग-द्वेष करता है, वह कर्मोंको बाँधता है
गाथा७९
अन्वयार्थ :[य एव ] जो जीव [निजकर्मफलं ] अपने कर्मोंके फलको
[भुंजानोऽपि ] भोगता हुआ भी [मोहेन ] मोहसे [असुंदरं सुंदरम् अपि ] भले और बुरे [भावं ]
परिणामोंको [करोति ] करता है, [सः ] वह [परं ] केवल [कर्म जनयति ] कर्मको उपजाता
(बाँधता) है
भावार्थ :वीतराग परम आह्लादरूप शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत जो अशुद्ध
भावार्थजेने रत्न प्राप्त थई गयुं, तेने काचना टुकडाओनी शुं जरूर छे? ते रीते
जेनुं चित्त आत्मामां लागी गयुं तेने बीजा पदार्थोनी वांछा रहेती नथी. ७८.
हवे, कर्मफळने भोगवतो थको जे रागद्वेष करे छे ते कर्म बांधे छे एम कहे छेः

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३५० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८०
वीतरागपरमाह्लादरूपशुद्धात्मानुभूतिविपरीतं निजोपार्जितं शुभाशुभकर्मफलं मोहइं निर्मोह-
शुद्धात्मप्रतिकूलमोहोदयेन
जो जि करेइ य एव पुरुषः करोति
कम् भाउ भावं
परिणामम् किंविशिष्टम् असुंदरु सुंदरु वि अशुभं शुभमपि सो पर स एव भावः
कम्मु जणेइ शुभाशुभं कर्म जनयति अयमत्र भावार्थ उदयागते कर्मणि योऽसौ
स्वस्वभावच्युतः सन् रागद्वेषौ करोति स एवः कर्म बध्नाति ।।७९।।
अथ उदयागतेकर्मानुभवे योऽसौ रागद्वेषौ न करोति स कर्म न बध्नातीति कथयति
२०७) भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिँ राउ ण जाइ
सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ ।।८०।।
भुञ्जानोऽपि निजकर्मफलं यः तत्र रागं न याति
स नैव बध्नाति कर्म पुनः संचितं येन विलीयते ।।८०।।
भावार्थजे पुरुष वीतराग परम आह्लादरूप शुद्ध आत्मानी अनुभूतिथी
विपरीत स्वोपार्जित (पोते उपार्जित करेला) शुभाशुभकर्मना फळने भोगवतो थको पण
निर्मोह एवा शुद्ध आत्माथी प्रतिकूळ मोहोदयथी शुभ-अशुभ (सारा-नरसा) परिणामने करे
छे ते ज (ते भाव ज) शुभाशुभ कर्म उपजावे छे.
अहीं, ए भावार्थ छे के जे कोई स्वभावभावथी च्युत थतो उदयागत कर्ममां राग
-द्वेष करे छे ते ज कर्म बांधे छे. ७९.
हवे, उदयमां आवेला कर्मना अनुभवमां जे राग-द्वेष करतो नथी ते कर्म बांधतो
नथी, एम कहे छेः
रागादिक विभाव उनसे उपार्जन किये गये शुभ-अशुभ कर्म उनके फलको भोगता हुआ जो
अज्ञानी जीव मोहके उदयसे हर्ष-विषाद भाव करता है, वह नये कर्मोंका बंध करता है
सारांश
यह है कि, जो निज स्वभावसे च्युत हुआ उदयमें आये हुए कर्मोंमें राग द्वेष करता है, वही
कर्मोंको बाँधता है
।।७९।।
आगे जो उदय प्राप्त कर्मोंमें राग-द्वेष नहीं करता, वह कर्मोंको भी नहीं बाँधता, ऐसा
कहते हैं
गाथा८०
अन्वयार्थ :[निजकर्मफलं ] अपने बाँधे हुए कर्मोंके फलको [भुंजानोऽपि ] भोगता

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अधिकार-२ः दोहा-८० ]परमात्मप्रकाशः [ ३५१
भुंजंतु वि इत्यादि भुंजंतु वि भुञ्जानोऽपि किम् णिय-कम्म-फलु निजकर्मफलं
निजशुद्धात्मोपलम्भाभावेनोपार्जितं पूर्वं यत् शुभाशुभं कर्म तस्य फलं जो यो जीवः तहिँ
तत्र कर्मानुभवप्रस्तावे राउ ण जाइ रागं न गच्छति वीतरागचिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मतत्त्व-
भावनोत्पन्नसुखामृततृप्तः सन् रागद्वेषौ न करोति
सो स जीवः णवि बंधइ नैव बध्नाति
किं न बध्नाति कम्मु ज्ञानावरणादि कर्म पुणु पुनरपि येन कर्मबन्धाभावपरिणामेन किं
भवति संचिउ जेण विलाइ पूर्वसंचितं कर्म येन वीतरागपरिणामेन विलयं विनाशं
गच्छतीति अत्राह प्रभाकरभट्टः कर्मोदयफलं भुञ्जानोऽपि ज्ञानी कर्मणापि न बध्यते
इति सांख्यादयोऽपि वदन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति भगवानाह ते
भावार्थःनिजकर्मफळने-निजशुद्धात्मानी प्राप्तिना अभावथी पूर्वे उपार्जेल
शुभाशुभ कर्मना फळने-भोगवतो थको पण जे जीव कर्मना अनुभवमां रागने प्राप्त
थतो नथी-वीतराग चिदानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्धात्मतत्त्वनी भावनाथी
उत्पन्न
सुखामृतथी तृप्त थतो राग-द्वेष करतो नथीते जीव फरी ज्ञानावरणादि कर्म
बांधतो नथी, जे कर्मना अभावपरिणामथीवीतराग परिणामथीपूर्वना संचित कर्म
नाश पामे छे.
आवुं कथन सांभळीने प्रभाकरभट्ट पूछे छे के‘ हे प्रभु! कर्मोदयना फळने
भोगवतो थको ज्ञानी कर्मथी पण बंधातो नथी’ एम सांख्यादिओ पण कहे छे तो
आप तेमने शा माटे दोष आपो छो?
हुआ भी [तत्र ] उस फलके भोगनेमें [यः ] जो जीव [रागं ] राग-द्वेषको [न याति ] नहीं प्राप्त
होता [सः ] वह [पुनः कर्म ] फि र कर्मको [नैव ] नहीं [बध्नाति ] बाँधता, [येन ] जिस
कर्मबंधाभाव परिणामसे [संचितं ] पहले बाँधे हुए कर्म भी [विलीयते ] नाश हो जाते हैं
भावार्थ :निज शुद्धात्माके ज्ञानके अभावसे उपार्जन किये जो शुभ-अशुभ कर्म
उनके फलको भोगता हुआ भी वीतराग चिदानंद परमस्वभावरूप शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे
उत्पन्न अतीन्द्रियसुखरूप अमृतसे तृप्त हुआ जो रागी-द्वेषी नहीं होता, वह जीव फि र ज्ञानावरणादि
कर्मोंको नहीं बाँधता है, और नये कर्मोंका बंधका अभाव होनेसे प्राचीन कर्मोंकी निर्जरा ही
होती है
यह संवरपूर्वक निर्जरा ही मोक्षका मूल है ? ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न
किया कि हे प्रभो, ‘‘कर्मके फलको भोगता हुआ भी ज्ञानसे नहीं बँधता’’ ऐसा सांख्य आदिक
भी कहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं
हम तो
आत्मज्ञान संयुक्त ज्ञानी जीवोंकी अपेक्षासे कहते हैं, वे ज्ञानके प्रभावसे कर्म - फल भोगते हुए

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३५२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८१
निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्रनिरपेक्षा वदन्ति तेन कारणेन तेषां दूषणमिति
तात्पर्यम्
।।८०।।
अथ यावत्कालमणुमात्रमपि रागं न मुञ्चति तावत्कालं कर्मणा न मुच्यते इति
प्रतिपादयति
२०८) जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु
सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु ।।८१।।
यः अणुमात्रमपि रागं मनसि यावत् न मुञ्चति अत्र
स नैव मुच्यते तावत् जीव जानन्नपि परमार्थम् ।।८१।।
जो इत्यादि जो यः कर्ता अणु-मेत्तु वि अणुमात्रमपि सूक्ष्ममपि राउ रागं वीतरागसदा-
भगवान श्री गुरु कहे छे के तेओ निजशुद्धात्मानी अनुभूतिस्वरूप वीतराग
चारित्रथी निरपेक्ष (चारित्रनी अपेक्षा राख्या सिवाय) कहे छे, तेथी तेमने दोष देवामां
आवे छे, एवुं तात्पर्य छे. ८०.
हवे, ज्यां सुधी जीव अणुमात्र पण (सूक्ष्म पण) रागने छोडतो नथी त्यां सुधी
कर्मथी छूटतो नथी, एम कहे छेः
भी राग द्वेष भाव नहीं करते इसलिये उनके नये बंधका अभाव है, और जो मिथ्यादृष्टि
ज्ञानभावसे बाह्य पूर्वोपार्जितकर्म - फलको भोगते हुए रागी द्वेषी होते हैं, उनके अवश्य बंध होता
है इस तरह सांख्य नहीं कहता, वह वीतरागचारित्रसे रहित कथन करता है इसलिए उन
सांख्यादिकोंको दूषण दिया जाता है यह तात्पर्य जानना ।।८०।।
आगे जबतक परमाणुमात्र भी (सूक्ष्म भी) रागको नहीं छोड़ताधारण करता है,
तबतक कर्मोंसे नहीं छूटता, ऐसा कथन करते हैं
गाथा८१
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [अणुमात्रं अपि ] थोड़ा भी [रागं ] राग [मनसि ]
मनमेंसे [यावत् ] जबतक [अत्र ] इस संसारमें [न मुंचति ] नहीं छोड़ देता है, [तावत् ]
तबतक [जीव ] हे जीव, [परमार्थं ] निज शुद्धात्मतत्त्वको [जानन्नपि ] शब्दसे केवल जानता
हुआ भी [नैव ] नहीं [मुच्यते ] मुक्त होता
भावार्थ :जो वीतराग सदा आनंदरूप शुद्धात्मभावसे रहित पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी

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अधिकार-२ः दोहा-८२ ]परमात्मप्रकाशः [ ३५३
नन्दैकशुद्धात्मनो विलक्षणं पञ्चेन्द्रियविषयसुखाभिलाषरागं मणि मनसि जाम ण मिल्लइ यावन्तं
कालं न मुञ्चति
एत्थु अत्र जगति सो णवि मुच्चइ स जीवो नैव मुच्यते ज्ञानावरणादिकर्मणा
ताम तावन्तं कालं जिय हे जीव
किं कुर्वन्नपि जाणंतु वि वीतरागानुष्ठानरहितः सन्
शब्दमात्रेण जानन्नपि कं जानन् परमत्थु परमार्थशब्दवाच्यनिजशुद्धात्मतत्त्वमिति अयमत्र
भावार्थः निजशुद्धात्मस्वभावज्ञानेऽपि शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणवीतरागचारित्रभावनां विना मोक्षं न
लभत इति ।।८१।।
अथ निर्विकल्पात्मभावनाशून्यः शास्त्रं पठन्नपि तपश्चरणं कुर्वन्नपि परमार्थं न
वेत्तीति कथयति
२०९) बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ
ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ।।८२।।
बुध्यते शास्त्राणि तपः चरति परं परमार्थं न वेत्ति
तावत् न मुच्यते यावत् नैव एनं परमार्थं मनुते ।।८२।।
भावार्थजे जीव अणुमात्र पणसूक्ष्मपणएक (केवळ) वीतराग सदानंदरूप शुद्ध
आत्माथी विलक्षण पंचेन्द्रियोना विषयसुखनी अभिलाषारूप रागने ज्यां सुधी मनमांथी छोडतो
नथी, त्यां सुधी ते आ संसारमां परमार्थ शब्दथी वाच्य एवा निजशुद्धात्मतत्त्वने वीतराग
अनुष्ठान रहित थयो थको (वीतराग अनुष्ठान विना) केवळ शब्दमात्रथी ज जाणतो थको
ज्ञानावरणादि कर्मथी मूकातो नथी. ए भावार्थ छे के निज शुद्ध आत्मस्वभावनुं ज्ञान होवा छतां
पण शुद्ध आत्मानी प्राप्तिस्वरूप वीतराग चारित्रनी भावना विना मोक्ष मळतो नथी. ८१.
जे निर्विकल्प आत्मभावनाथी शून्य छे ते शास्त्रने भणवा छतां, तपश्चरण करवा छतां
पण परमार्थने जाणतो नथी, एम कहे छेः
इच्छा रखता है, मनमें थोड़ासा भी राग रखता है, वह आगमज्ञानसे आत्माको शब्दमात्र जानता
हुआ भी वीतरागचारित्रकी भावनाके बिना मोक्षको नहीं पाता
।।८१।।
आगे जो निर्विकल्प आत्म - भावनासे शून्य है, वह शास्त्रको पढ़ता हुआ भी तथा
तपश्चरण करता हुआ भी परमार्थको नहीं जानता है, ऐसा कहते हैं
गाथा८२
अन्वयार्थ :[शास्त्राणि ] शास्त्रोंको [बुध्यते ] जानता है, [तपः चरति ] और

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३५४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८२
बुज्झइ इत्यादि बुज्झइ बुध्यते कानि सत्थइँ शास्त्राणि न केवलं शास्त्राणि बुध्यते
तउ चरइ तपश्चरति पर परं किंतु परमत्थु ण वेइ परमार्थं न वेत्ति न जानाति कस्मान्न
वेत्ति यद्यपि व्यवहारेण परमात्मप्रतिपादकशास्त्रेण ज्ञायते तथापि निश्चयेन वीतरागस्वसंवेदन-
ज्ञानेन परिच्छिद्यते यद्यप्यनशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन साध्यते
तथापि निश्चयेन निर्विकल्पशुद्धात्माविश्रान्तिलक्षणवीतरागचारित्रसाध्यो योऽसौ परमार्थशब्दवाच्यो
निज-शुद्धात्मा तत्र निरन्तरानुष्ठानाभावात्
ताव ण मुंचइ तावन्तं कालं न मुच्यते
केन कर्मणा
जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ यावन्तं कालं नैवैनं पूर्वोक्त लक्षणं परमार्थं मनुते जानाति श्रद्धत्ते
सम्यगनुभवतीति
इदमत्र तात्पर्यम् यथा प्रदीपेन विवक्षितं वस्तु निरीक्ष्य गृहीत्वा च
भावार्थशास्त्रोने जाणे छे अने तप आचरे छे पण परमार्थने जाणतो नथी, कारण
के ‘परमार्थ’ शब्दथी वाच्य जे निजशुद्धात्मा जोके व्यवहारनयथी परमात्माना प्रतिपादक शास्त्रथी
जणाय छे तोपण निश्चयनयथी वीतरागस्वसंवेदनरूप ज्ञानथी ज जणाय छे. अने व्यवहारनयथी
जो के बहिरंग सहकारी कारणभूत अनशनादि बार प्रकारना तपथी साधवामां आवे छे तोपण
निश्चयनयथी निर्विकल्प शुद्ध आत्मामां विश्रांतिस्वरूप वीतराग चारित्रथी ज साधवामां आवे छे,
ते निजशुद्धात्मामां निरंतर अनुष्ठानना अभावथी आत्मा ज्यां सुधी आ पूर्वोक्त लक्षणवाळा
परमार्थने सम्यग् जाणतो नथी, सम्यग् श्रद्धतो नथी अने सम्यग् अनुभवतो नथी त्यां सुधी
कर्मथी छूटतो नथी.
अहीं, आ भावार्थ छे के जेवी रीते दीवा वडे विवक्षित वस्तुने जोईने अने ग्रहण करीने
तपस्या करता है, [परं ] लेकिन [परमार्थं ] परमात्माको [न वेत्ति ] नहीं जानता है, [यावत् ]
और जबतक [एवं ] पूर्व कहे हुए [परमार्थं ] परमात्माको [नैव मनुते ] नहीं जानता, या अच्छी
तरह अनुभव नहीं करता है, [तावत् ] तबतक [न मुच्यते ] नहीं छूटता
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे आत्मा अध्यात्मशास्त्रोंसे जाना जाता है, तो भी
निश्चयनय से वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे ही जानने योग्य है, यद्यपि बाह्य सहकारीकारण अनशनादि
बारह प्रकारके तपसे साधा जाता है, तो भी निश्चयनयसे निर्विकल्पवीतरागचारित्रसे ही आत्माकी
सिद्धि है
जिस वीतरागचारित्रका शुद्धात्मामें विश्राम होना ही लक्षण है सो वीतरागचारित्रके
बिना आगमज्ञानसे तथा बाह्य तपसे आत्मज्ञानकी सिद्धि नहीं है जबतक निज शुद्धात्मतत्त्वके
स्वरूपका आचरण नहीं है, तबतक कर्मोंसे नहीं छूट सकता यह निःसंदेह जानना, जबतक
परमतत्त्वको न जाने, न श्रद्धा करे, न अनुभवे, तबतक कर्मबंधसे नहीं छूटता इससे यह निश्चय
हुआ कि कर्मबंधसे छूटनेका कारण एक आत्मज्ञान ही है, और शास्त्रका ज्ञान भी आत्मज्ञानके
लिए ही किया जाता है, जैसे दीपकसे वस्तुको देखकर वस्तुको उठा लेते हैं, और दीपकको छोड़

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अधिकार-२ः दोहा-८३ ]परमात्मप्रकाशः [ ३५५
प्रदीपस्त्यज्यते तथा शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकशास्त्रेण शुद्धात्मतत्त्वं ज्ञात्वा गृहीत्वा च प्रदीपस्थानीयः
शास्त्रविकल्पस्त्यज्यत इति
।।८२।।
अथ योऽसौ शास्त्रं पठन्नपि विकल्पं च मुञ्चति निश्चयेन देहस्थं शुद्धात्मानं न
मन्यते स जडो भवतीति प्रतिपादयति
२१०) सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु
देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।।८३।।
शास्त्रं पठन्नपि भवति जडः यः न हन्ति विकल्पम्
देहे वसन्तमपि निर्मलं नैव मन्यते परमात्मानम् ।।८३।।
सत्थु इत्यादि सत्थु पढंतु वि शास्त्रं पठन्नपि होइ जडु स जडो भवति यः किं करोति
दीवो छोडी देवामां आवे छे, तेवी रीते शुद्ध आत्मतत्त्वना प्रतिपादक शास्त्रथी शुद्ध आत्मतत्त्वने
जाणीने अने ग्रहीने प्रदीपस्थानीय शास्त्रना विकल्पने छोडवामां आवे छे. ८२.
हवे, जे कोई शास्त्रने भणीने पण विकल्पने छोडतो नथी अने निश्चयनयथी देहमां रहेला
शुद्ध आत्माने मानतो नथी ते जड छे, एम कहे छेः
भावार्थजे जीव शास्त्रने जाणवा छतां पण शास्त्रना अभ्यासनुं फळ रागादि
देते हैं, उसी तरह शुद्धात्मतत्त्वके उपदेश करनेवाले जो अध्यात्मशास्त्र उनसे शुद्धात्मतत्त्वको
जानकर उस शुद्धात्मतत्त्वका अनुभव करना चाहिए, और शास्त्रका विकल्प छोड़ना चाहिए
शास्त्र तो दीपकके समान हैं, तथा आत्मवस्तु रत्नके समान है ।।८२।।
आगे जो शास्त्रको पढ़ करके भी विकल्पको नहीं छोड़ता, और निश्चयसे शुद्धात्माको
नहीं मानता जो कि शुद्धात्मदेव देहरूपी देवालयमें मौजूद है, उसे न ध्यावता है, वह मूर्ख है,
ऐसा कहते हैं
गाथा८३
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [शास्त्रं ] शास्त्रको [पठन्नपि ] पढ़ता हुआ भी
[विकल्पम् ] विकल्पको [न ] [हंति ] नहीं दूर करता, (मेंटता) वह [जडो भवति ] मूर्ख
है, जो विकल्प नहीं मेंटता, वह [देहे ] शरीरमें [वसंतमपि ] रहते हुए भी [निर्मलं
परमात्मानम् ] निर्मल परमात्माको [नैव मन्यते ] नहीं श्रद्धानमें लाता
भावार्थ :शास्त्रके अभ्यासका तो फल यह है, कि रागादि विकल्पोंको दूर करना,

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३५६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८३
जो ण हणेइ वियप्पु यः कर्ता शास्त्राभ्यासफलभूतस्य रागादिविकल्परहितस्य निजशुद्धात्मस्व-
भावस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वरागादिविकल्पं न हन्ति
न केवलं विकल्पं न हन्ति देहि वसंतु
वि देहे वसन्तमपि णिम्मलउ निर्मलं कर्ममलरहितं णवि मण्णइ नैव मन्यते न श्रद्धत्ते कम्
परमप्पु निजपरमात्मानमिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा त्रिगुप्तसमाधिं कृत्वा च स्वयं भावनीयम्
यदा तु त्रिगुप्तिगुप्तसमाधिं कर्तुं नायाति तदा विषयकषायवञ्चनार्थं शुद्धात्मभावनास्मरण-
द्रढीकरणार्थं च बहिर्विषये व्यवहारज्ञानवृद्धयर्थं च परेषां कथनीयं किंतु तथापि
परप्रतिपादनव्याजेन मुख्यवृत्त्या स्वकीयजीव एव संबोधनीयः कथमिति चेत् इदमनुपपन्नमिदं
व्याख्यानं न भवति मदीयमनसि यदि समीचीनं न प्रतिभाति तर्हि त्वमेव स्वयं किं न
भावयतीति तात्पर्यम्
।।८३।।
विकल्पथी रहित निजशुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति छे एवा निजशुद्धात्मस्वभावथी प्रतिपक्षभूत
मिथ्यात्व, रागादि विकल्पनो नाश करतो नथी. मात्र विकल्पनो नाश करतो नथी एटलुं ज
नहि, पण देहमां रहेवा छतां पण निर्मळ-कर्ममळ रहित-निज परमात्माने श्रद्धतो नथी, ते
जड
मूर्ख छे.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने अने त्रणगुप्तियुक्त समाधि करीने पोताने ज भाववो,
अने ज्यारे त्रण गुप्तिथी गुप्त समाधि करवानुं न बने त्यारे विषयकषायनी वंचना अर्थे
(विषय कषायने छोडवा माटे) अने शुद्ध आत्मानी भावनानुं स्मरण द्रढ करवा माटे अने
बहिर्विषयमां व्यवहारज्ञाननी वृद्धि अर्थे बीजा जीवोने धर्मोपदेश आपवो, तेम छतां पण
परने उपदेशवाना बहाना द्वारा मुख्यपणे स्वकीय जीव ज संबोधवो. केवी रीते? ते आ
प्रमाणेः
आ योग्य नथी; आ गाथानुं व्याख्यान मारा मनमां वस्युं नथी; जो समीचीन
पणे (बराबर सारी रीते, योग्य रीते) प्रतिभासतुं नथी, तो तमे पण स्वयं तेनो विचार
करो. आवुं तात्पर्य छे. ८३.
और निज शुद्धात्माको ध्यावना इसलिए इस व्याख्यानको जानकर तीन गुप्तिमें अचल हो
परमसमाधिमें आरूढ़ होके निजस्वरूपका ध्यान करना लेकिन जबतक तीन गुप्तियाँ न हों,
परमसमाधि न आवे, (हो सके) तबतक विषय कषायोंके हटानेके लिये शुद्धात्मस्मरण
भावनाके दृढीकरण हेतु परजीवोंको धर्मोपदेश देना, उसमें भी परके उपदेशके बहानेसे
मुख्यताकर अपना जीव हीको संबोधना
वह इस तरह है, कि परको उपदेश देते अपनेको
समझावे जो मार्ग दूसरोंको छुड़ावे, वह आप कैसे करे इससे मुख्य संबोधन अपना ही है
परजीवोंको ऐसा ही उपदेश है, जो यह बात मेरे मनमें अच्छी नहीं लगती, तो तुमको भी भली
नहीं लगती होगी, तुम भी अपने मनमें विचार करो
।।८३।।

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अधिकार-२ः दोहा-८४ ]परमात्मप्रकाशः [ ३५७
अथ बोधार्थं शास्त्रं पठन्नपि यस्य विशुद्धात्मप्रतीतिलक्षणो बोधो नास्ति स मूढो भवतीति
प्रतिपादयति
२११) बोह-णिमित्तेँ सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु
तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु ।।८४।।
बोधनिमित्तेन शास्त्रं किल लोके पठयते अत्र
तेनापि बोधो न यस्य वरः स किं मूढो न तथ्यम् ।।८४।।
बोह इत्यादि बोधनिमित्तेन किल शास्त्रं लोके पठयते अत्र तेनैव कारणेन
बोधो न यस्य कथंभूतः वरो विशिष्टः स किं मूढो न भवति किंतु भवत्येव
तथ्यमिति तद्यथा अत्र यद्यपि लोकव्यवहारेण कविगमकवादित्ववाग्मित्वादिलक्षणशास्त्र-
जनितो बोधो भण्यते तथापि निश्चयेन परमात्मप्रकाशकाध्यात्मशास्त्रोत्पन्नो वीतरागस्व-
हवे, बोधार्थे....(ज्ञान माटे) शास्त्र भणीने पण जेने विशुद्ध आत्मानी प्रतीतिस्वरूप
बोध थतो नथी ते मूढ छे, एम कहे छेः
भावार्थअहीं जो के लोकव्यवहारथी (नवीन कविताना करनार) कवि, (प्राचीन
काव्योनी टीकाना करनार) गमक, (जेने वादमां कोई न जीती शके एवुं) वादित्व, अने
(श्रोताओना मनने रंजक करनार एवा शास्त्रवक्ता होवा रूप) वाग्मित्व, इत्यादि लक्षणवाळुं
शास्त्रजनित ज्ञान कहेवाय छे तोपण निश्चयनयथी परमात्मस्वरूपना प्रकाशक अध्यात्मशास्त्रथी
आगे ज्ञानके लिए शास्त्रको पढ़ते हुए भी जिसके आत्म - ज्ञान नहीं, वह मूर्ख है, ऐसा
कथन करते हैं
गाथा८४
अन्वयार्थ :[अत्र लोके ] इस लोकमें [किल ] नियमसे [बोधनिमित्तेन ] ज्ञानके
निमित्त [शास्त्रं ] शास्त्र [पठ्यते ] पढ़े जाते हैं, [तेनापि ] परंतु शास्त्रके पढ़नेसे भी [यस्य ]
जिसको [वरः बोधः न ] उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, [स ] वह [किं ] क्या [मूढः न ] मूर्ख नहीं
है ? [तथ्यम् ] मूर्ख ही है, इसमें संदेह नहीं
भावार्थ :इस लोकमें यद्यपि लोक व्यवहारसे नवीन कविताका कर्ता कवि,
प्राचीन काव्योंकी टीकाके कर्त्ताको गमक, जिससे वादमें कोई न जीत सके ऐसा वादित्व,
और श्रोताओं के मनको अनुरागी करनेवाला शास्त्रका वक्ता होनेरूप वाग्मित्व, इत्यादि
लक्षणोंवाला शास्त्रजनित ज्ञान होता है, तो भी निश्चयनयसे वीतरागस्वसंवेदनरूप ही ज्ञानकी

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३५८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८४
संवेदनरूपः स एव बोधो ग्राह्यो न चान्यः तेनानुबोधेन विना शास्त्रे पठितेऽपि मूढो
भवतीति अत्र यः कोऽपि परमात्मबोधजनकमल्पशास्त्रं ज्ञात्वापि वीतरागभावनां करोति
स सिद्धयतीति तथा चोक्त म्‘‘वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिज्झंति
हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु ।।’’ परं किन्तु‘‘अक्खरडा जोयंतु
ठिउ अप्पि ण दिण्णउ चित्तु कणविरउ पलालु जिमु पर संगहिउ बहुत्तु ।।’’ इत्यादि
पाठमात्रं गृहीत्वा परेषां बहुशास्त्रज्ञानिनां दूषणा न कर्तव्या तैर्बहुश्रुतैरप्यन्येषा-
मल्पश्रुततपोधनानां दूषणा न कर्तव्या कस्मादिति चेत् दूषणे कृते सति परस्परं
उत्पन्न जे वीतरागस्वसंवेदनरूप बोध छे ते ज बोध ग्राह्य छे, पण अन्य (बीजो बोध)
नहि. ते अनुबोध विना (वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञान विना) शास्त्र भण्यो होवा छतां पण
मूढ छे.
अहीं, जे कोई पण परमात्मबोधना उत्पन्न करनार अल्प शास्त्र जाणीने पण
वीतराग भावना करे छे ते सिद्ध थाय छे. कह्युं पण छे के‘‘वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु
सिक्खिऊण सिज्झंति ण हु सिज्झंति विरागेण विणा पढिदेसु वि सव्वसत्थेसु’’ (अर्थवैराग्यमां
तत्पर वीरो थोडाक शास्त्रने शीखीने पण शुद्ध थाय छे पण सर्व शास्त्रो भणवा छतां पण
जीव वैराग्य विना सिद्धि पामतो नथी) वळी कह्युं छे के
‘‘अक्खरडा जोयंतु ठिउ अप्पि ण दिण्णउ
चित्तु कणविरउ पलालु जिमु पर संगहिउ बहुत्तु ।। (दोहा पाहुड ८४) (अर्थजे शास्त्रोना
अक्षरोने ज जुए छे पण चित्तने पोताना आत्मामां स्थिर करतो नथी तो मानो के तेणे
अनाजना कणोथी रहित घणुं पराळ निरर्थक संग्रह करवा जेवुं कर्युं) इत्यादि पाठ मात्र ग्रहीने
अने बहु शास्त्रना जाणनाराओने दोष न देवो. ते बहुश्रुतज्ञोए पण अन्य अल्पश्रुतज्ञ
अध्यात्म - शास्त्रोंमें प्रशंसा की गयी है इसलिये स्वसंवेदन ज्ञानके बिना शास्त्रोंके पढ़े हुए भी
मूर्ख हैं और जो कोई परमात्मज्ञानके उत्पन्न करनेवाले (छोटे) थोड़े शास्त्रोंको भी जानकर
वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकी भावना करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं ऐसा ही कथन ग्रन्थोंमें
हरएक जगह कहा है, कि वैराग्यमें लगे हुए जो मोहशत्रुको जीतनेवाले हैं, वे थोड़े शास्त्रोंको
ही पढ़कर सुधर जाते हैं
मुक्त हो जाते हैं, और वैराग्यके बिना सब शास्त्रोंको पढ़ते हुए भी
मुक्त नहीं होते यह निश्चय जानना परंतु यह कथन अपेक्षासे है इस बहानेसे शास्त्र
पढ़नेका अभ्यास नहीं छोड़ना, और जो विशेष शास्त्रके पाठी हैं, उनको दूषण न देना जो
शास्त्रके अक्षर बता रहा है, और आत्मामें चित्त नहीं लगाया वह ऐसे जानना कि जैसे किसीने
कण रहित बहुत भूसेका ढेर कर लिया हो, वह किसी कामका नहीं है
इत्यादि पीठिकामात्र
सुनकर जो विशेष शास्त्रज्ञ हैं, उनकी निंदा नहीं करनी, और जो बहुश्रुत हैं, उनको भी अल्प
शास्त्रज्ञोंकी निंदा नहीं करनी चाहिए
क्योंकि परके दोष ग्रहण करनेसे राग-द्वेषकी उत्पत्ति

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अधिकार-२ः दोहा-८५ ]परमात्मप्रकाशः [ ३५९
रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति तेन ज्ञानतपश्चरणादिकं नश्यतीति भावार्थः ।।८४।।
अथ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरहितानां तीर्थभ्रमणेन मोक्षो न भवतीति कथयति
२१२) तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ
णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ ।।८५।।
तीर्थं तीर्थं भ्रमतां मूढानां मोक्षो न भवति
ज्ञानविवर्जितो येन जीव मुनिवरो भवति न स एव ।।८५।।
तीर्थं तीर्थं प्रति भ्रमतां मूढात्मनां मोक्षो न भवति कस्मादिति चेत्
ज्ञानविवर्जितो येन कारणेन हे जीव मुनिवरो न भवति स एवेति तथाहि निर्दोषि-
परमात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादस्यन्दिसुन्दरानन्दरूपनिर्मलनीरपूरप्रवाहनिर्झरज्ञानदर्शनादिगुणसमूह
तपस्वीओने दोष न देवो. शा माटे? के दोष देतां परस्पर रागद्वेषनी उत्पत्ति थाय छे, तेनाथी
ज्ञानतपश्चरण वगेरे नाश पामे छे, एवो भावार्थ छे. ८४.
हवे, वीतराग संवेदनरूप ज्ञानथी रहित जीवोने तीर्थभ्रमण करवाथी पण मोक्ष थतो नथी,
एम कहे छेः
भावार्थनिर्दोष परमात्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परम आह्लाद झरता
सुंदर आनंदरूप निर्मळ जळना पूरना प्रवाहना झरणाथी अने ज्ञानदर्शनादि गुणना समूहरूप
होती है, उससे ज्ञान और तपका नाश होता है, यह निश्चयसे जानना ।।८४।।
आगे वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे रहित जीवोंको तीर्थ - भ्रमण करनेसे भी मोक्ष नहीं है, ऐसा
कहते हैं
गाथा८५
अन्वयार्थ :[तीर्थं तीर्थं ] तीर्थ तीर्थ प्रति [भ्रमतां ] भ्रमण करनेवाले [मूढानां ]
मूर्खोंको [मोक्षः ] मुक्ति [न भवति ] नहीं होती, [जीव ] हे जीव, [येन ] क्योंकि जो
[ज्ञानविवर्जितः ] ज्ञानरहित हैं, [स एव ] वह [मुनिवरः न भवति ] मुनीश्वर नहीं हैं, संसारी
हैं
मुनीश्वर तो वे ही हैं, जो समस्त विकल्पजालोंसे रहित होके अपने स्वरूपमें रमें, वे ही
मोक्ष पाते हैं
भावार्थ :निर्दोष परमात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनंदरूप
निर्मल जल उसके धारण करनेवाले और ज्ञान-दर्शनादि गुणोंके समूहरूपी चंदनादि वृक्षोंके

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३६० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८५
चन्दनादिद्रुमवनराजितंदेवेन्द्रचक्रवर्तिगणधरादिभव्यजीवतीर्थयात्रिकसमूहश्रवणसुखकरदिव्यध्वनिरूपराजहंस-
प्रभृतिविविधपक्षिकोलाहलमनोहरं यदर्हद्वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं तदेव निश्चयेन गङ्गादितीर्थं न
लोकव्यवहारप्रसिद्धं गङ्गादिकम्
परमनिश्चयेन तु जिनेश्वरपरमतीर्थसद्रशं संसारतरणोपाय-
कारणभूतत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिरतानां निजशुद्धात्मतत्त्वस्मरणमेव तीर्थं, व्यवहारेण तु
तीर्थंकरपरमदेवादिगुणस्मरणहेतुभूतं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणं तन्निर्वाणस्थानादिकं च तीर्थ-
मिति
अयमत्र भावार्थः पूर्वोक्तं निश्चयतीर्थं श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरहितानामज्ञानिनां शेष-
तीर्थं मुक्ति कारणं न भवतीति ।।८५।।
अथ ज्ञानिनां तथैवाज्ञानिनां च यतीनामन्तरं दर्शयति
चंदनादि वृक्षोना वनथी शोभित, देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधरादि भव्य जीवरूपी तीर्थयात्राळुओना
कर्णने सुखकारी एवा दिव्यध्वनिरूप राजहंसादि विविध पक्षीओना कोलाहलथी मनोहर एवुं जे
अर्हंत वीतराग सर्वज्ञनुं स्वरूप ते ज निश्चयथी (खरेखर) गंगादि तीर्थ छे, पण लोकव्यवहारमां
प्रसिद्ध एवा गंगादि, ते तीर्थ नथी.
परम निश्चयनयथी तो वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिमां रत मुनिओने, संसार तरवाना
उपायमां कारणभूत होवाथी जिनेश्वररूप परमतीर्थना जेवुं निजशुद्धआत्मतत्त्वनुं स्मरण ज तीर्थ
छे अने व्यवहारनयथी तीर्थंकर परमदेवादिना गुणस्मरणना कारणभूत अने मुख्यपणे पुण्यबंधना
कारणरूप ते निर्वाणस्थान आदि तीर्थ छे.
अहीं, ए भावार्थ छे के पूर्वोक्त निश्चयतीर्थना श्रद्धान, परिज्ञान अने अनुष्ठानथी रहित
अज्ञानीओने अन्य तीर्थ मुक्तिनुं कारण थतुं नथी. ८५.
हवे, ज्ञानी अने अज्ञानी यतिओनो तफावत दर्शावे छेः
वनोंसे शोभित तथा देवेन्द्र चक्रवर्त्ती गणधरादि भव्यजीवरूपी तीर्थ - यात्रियोंके कानोंको सुखकारी
ऐसी दिव्यध्वनिसे शोभायमान और अनेक मुनिजनरूपी राजहंसोंको आदि लेकर नाना तरहके
पक्षियोंके शब्दोंसे महामनोहर जो अरहंत वीतराग सर्वज्ञ वे ही निश्चयसे महातीर्थ हैं, उनके
समान अन्य तीर्थ नहीं हैं
वे ही संसारके तरनेके कारण परमतीर्थ हैं जो परम समाधि में
लीन महामुनि हैं, उनके वे ही तीर्थ हैं, निश्चयसे निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानके समान दूसरा
कोई तीर्थ नहीं है, और व्यवहारनयसे तीर्थंकर परमदेवादिके गुणस्मरणके कारण मुख्यतासे शुभ
बंधके कारण ऐसे जो कैलास, सम्मेदशिखर आदि निर्वाणस्थान हैं, वे भी व्यवहारमात्र तीर्थ
कहे हैं
जो तीर्थतीर्थ प्रतिभ्रमण करे, और निज तीर्थका जिसके श्रद्धान परिज्ञान आचरण नहीं
हो, वह अज्ञानी है उसके तीर्थ भ्रमनेसे मोक्ष नहीं हो सकता ।।८५।।
आगे ज्ञानी और अज्ञानी यतियोंमें बहुत बड़ा भेद दिखलाते हैं

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अधिकार-२ः दोहा-८६ ]परमात्मप्रकाशः [ ३६१
२१३) णाणिहिँ मूढहँ मुणिवरुहँ अंतरु होइ महंतु
देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवइँ भिण्णु मुणंतु ।।८६।।
ज्ञानिनां मूढानां मुनिवराणां अन्तरं भवति महत्
देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमानः ।।८६।।
ज्ञानिनां मूढानां च मुनिवराणां अन्तरं विशेषो भवति कथंभूतम् महत् कस्मादिति
चेत् देहमपि मुञ्चति कोऽसौ ज्ञानी किं कुर्वन् सन् जीवात्सकाशाद्भिन्नं मन्यमानो जानन्
इति तथा च वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी पुत्रकलत्रादिबहिर्द्रव्यं तावद्दूरे तिष्ठतु शुद्धबुद्धैक-
स्वभावात् स्वशुद्धात्मस्वरूपात्सकाशात् पृथग्भूतं जानन् स्वकीयदेहमपि त्यजति मूढात्मा पुनः
स्वीकरोति इति तात्पर्यम् ।।८६।। एकमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये पञ्चदशसूत्रैर्वीतराग-
भावार्थवीतराग स्वसंवेदनज्ञानी पुत्र, कलत्रादि बहारना (दूरना) पदार्थथी तो दूर
ज (अलग ज) रहे छे पण शुद्ध, बुद्ध जेनो एक स्वभाव छे एवा स्वशुद्धात्मस्वरूपथी पोताना
देहने पृथग्भूत जाणीने पोताना देहने पण त्यजे छे अने मूढात्मा (बहिरात्मा) ते सर्वने पोताना
करे छे. ८६.
ए प्रमाणे एकतालीस सूत्रोना महास्थळमां पंदर सूत्रोथी वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञाननी
गाथा८६
अन्वयार्थ :[ज्ञानिनां ] सम्यग्दृष्टि भावलिंगी [मूढ़ानां ] मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी
[मुनिवराणां ] मुनियोंमें [महत् अंतरं ] बड़ाभारी भेद [भवति ] है [ज्ञानी ] क्योंकि ज्ञानी
मुनि तो [देहम् अपि ] शरीरको भी [जीवाद्भिन्नं ] जीव से जुदा [मन्यमानः ] जानकर [मुचंति ]
छोड़ देते हैं, अर्थात् शरीरका भी ममत्व छोड़ देते हैं, तो फि र पुत्र, स्त्री आदिका क्या कहना
है ? ये तो प्रत्यक्षसे जुदे हैं, और द्रव्यलिंगीमुनि लिंग(भेष)में आत्म
- बुद्धिको रखता है
भावार्थ :वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी महामुनि मन-वचन-काय इन तीनोंसे अपनेको
भिन्न जानता है, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मादिसे जिसको ममता नहीं है, पिता, माता, पुत्र,
कलत्रादिकी तो बात अलग रहे जो अपने आत्म
- स्वभावसे निज देहको ही जुदा जानता है
जिसके परवस्तुमें आत्मभाव नहीं है और मूढ़ात्मा परभावोंको अपने जानता है यही ज्ञानी
और अज्ञानीमें अन्तर है परको अपना मानें वह बँधता है, और न मानें वह मुक्त होता है
यह निश्चयसे जानना ।।८६।। इसप्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थलके मध्यमें पन्द्रह दोहोंमें

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३६२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८७
स्वसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन द्वितीयमन्तरस्थलं समाप्तम् तदनन्तरं तत्रैव महास्थलमध्ये सूत्राष्टकपर्यन्तं
परिग्रहत्यागव्याख्यानमुख्यत्वेन तृतीयमन्तरस्थलं प्रारभ्यते
तद्यथा
२१४) लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु
बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहिँ वि एहु विसेसु ।।८७।।
लातुं इच्छति मूढः परं भुवनमपि एतद् अशेषम्
बहुविधधर्ममिषेण जीव द्वयोः अपि एष विशेषः ।।८७।।
लातुं ग्रहीतुं इच्छति कोऽसौ मूढो बहिरात्मा परं कोऽर्थः, नियमेन किम्
भुवनमप्येतत्तु अशेषं समस्तम् केन कृत्वा बहुविधधर्ममिषेण व्याजेन हे जीव द्वयोरप्येष
विशेषः पूर्वोक्त सूत्रकथितज्ञानिजीवस्यात्र पूर्वोक्त पुनरज्ञानिजीवस्य च तथाहि वीतराग-
मुख्यताथी बीजुं अन्तरस्थळ समाप्त थयुं.
तेना पछी ते ज महास्थळमां आठ गाथासूत्रो सुधी परिग्रहत्यागना कथननी मुख्यताथी
त्रीजुं अंतरस्थळ शरू करे छे.
ते आ प्रमाणेः
भावार्थएक (केवळ) वीतराग सहजानंदरूप सुखना आस्वादरूप स्वशुद्धात्मा ज
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे दूसरा अंतरस्थल समाप्त हुआ
अब परिग्रहत्यागके व्याख्यानको आठ दोहोंमें कहते हैं
गाथा८७
अन्वयार्थ :[द्वयोः अपिः ] ज्ञानी और अज्ञानी इन दोनोंमें [एष विशेषः ] इतना
ही भेद है, कि [मूढोः ] अज्ञानीजन [बहुविधधर्ममिषेण ] अनेक तरहके धर्मके बहानेसे [एतद्
अशेषम् ] इस समस्त [भुवनम् अपि ] जगत्को ही [परं ] नियमसे [लातुं इच्छति ] लेनेकी
इच्छा करता है, अर्थात् सब संसारके भोगोंकी इच्छा करता है, तपश्चरणादि कायक्लेशसे
स्वर्गादिके सुखोंको चाहता है, और ज्ञानीजन कर्मोंके क्षयके लिये तपश्चरणादि करता है,
भोगोंका अभिलाषी नहीं है
।।
भावार्थ :वीतराग सहजानंद अखंडसुखका आस्वादरूप जो शुद्धात्मा वही आराधने

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अधिकार-२ः दोहा-८७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३६३
सहजानन्दैकसुखास्वादरूपः स्वशुद्धात्मैव उपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तस्यैव परमात्मनः
समस्तमिथ्यात्वरागाद्यास्रवेभ्यः पृथग्रूपेण परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव रागादिपरिहाररूपेण
निश्चलचित्तवृत्तिः सम्यक्चारित्रम् इत्येवं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्त्रयात्मकमात्मानमरोचमानस्तथै-
वाजानन्नभावयंश्च मूढात्मा
किं करोति समस्तं जगद्धर्मब्याजेन ग्रहीतुमिच्छति, पूर्वोक्त ज्ञानी
तु त्यक्तु मिच्छतीति भावार्थः ।।८७।।
अथ शिष्यकरणाद्यनुष्ठानेन पुस्तकाद्युपकरणेनाज्ञानी तुष्यति, ज्ञानी पुनर्बन्धहेतुं जानन्
सन् लज्जां करोतीति प्रकटयति
२१५) चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिँ तूसइ मूढु णिभंतु
एयहिँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु ।।८८।।
उपादेय छे एवी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, ते ज परमात्मानुं समस्त मिथ्यात्व, रागादि आस्रवोथी
पृथक्रूपे परिच्छित्तिरूप सम्यग्ज्ञान अने रागादिना परिहाररूपे ते ज परमात्मामां
निश्चळचित्तवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र एवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप त्रयात्मक आत्मानी रुचि न करतो
तेम ज तेने न जाणतो अने तेने न भावतो मूढात्मा समस्त जगतने धर्मना बहानाथी
(भोगववाना बहानाथी) ग्रहण करवाने इच्छे छे, ज्यारे पूर्वोक्त ज्ञानी (जगतना समस्त
भोगोने) छोडवा इच्छे छे. ८७.
हवे, शिष्य करवा आदिना कार्यथी अने पुस्तक आदिना उपकरणथी अज्ञानी संतोष
पामे छे अने ज्ञानी तेने बंधनो हेतु जाणतो थको (तेमनाथी) लज्जा पामे छे, एम हवे कहे
छेः
योग्य है, ऐसी जो रुचि वह सम्यग्दर्शन, समस्त मिथ्यात्व रागादि आस्रवसे भिन्नरूप उसी
परमात्माका जो ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान और उसीमें निश्चल चित्तकी वृत्ति वह सम्यक्चारित्र, यह
निश्चयरत्नत्रयरूप जो शुद्धात्माकी रुचि जिसके नहीं, ऐसा मूढ़जन आत्मा को नहीं जानता हुआ,
और नहीं अनुभवता हुआ जगत्के समस्त भोगोंको धर्मके बहानेसे लेना चाहता है, तथा ज्ञानीजन
समस्त भोगोंसे उदास है, जो विद्यमान भोग थे, वे सब छोड़ दिये और आगामी वाँछा नहीं
है, ऐसा जानना
।।८७।।
आगे शिष्योंका करना, पुस्तकादिका संग्रह करना, इन बातोंसे अज्ञानी प्रसन्न होता है,
और ज्ञानीजन इनको बंधके कारण जानता हुआ इनसे रागभाव नहीं करता, इनके संग्रहमें
लज्जावान् होता है

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३६४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८८
शिष्यार्जिकापुस्तकैः तुष्यति मूढो निर्भ्रान्तः
एतैः लज्जते ज्ञानी बन्धस्य हेतुं जानन् ।।८८।।
शिष्यार्जिकादीक्षादानेन पुस्तकप्रभृत्युपकरणैश्च तुष्यति संतोषं करोति कोऽसौ मूढः
कथंभूतः निर्भ्रान्तः एतैर्बहिर्द्रव्यैर्लज्जां करोति कोऽसौ ज्ञानी किं कुर्वन्नपि पुण्यबन्धहेतुं
जानन्नपि तथा च पूर्वसूत्रोक्त सम्यग्दर्शनचारित्रलक्षणं निजशुद्धात्मस्वभावश्रद्धानो विशिष्टभेद-
ज्ञानेनाजानंश्च तथैव वीतरागचारित्रेणाभावयंश्च मूढात्मा किं करोति पुण्यबन्धकारणमपि
जिनदीक्षादानादिशुभानुष्ठानं पुस्तकाद्युपकरणं वा मुक्ति कारणं मन्यते ज्ञानी तु यद्यपि
साक्षात्पुण्यबन्धकारणं मन्यते परंपरया मुक्ति कारणं च तथापि निश्चयेन मुक्ति कारणं न मन्यते
इति तात्पर्यम्
।।८८।।
भावार्थपूर्वसूत्रमां कहेला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रस्वरूप
निजशुद्धआत्मस्वभावने नहि. श्रद्धतो, विशिष्ट भेदज्ञानथी नहि जाणतो तेम ज
वीतरागचारित्रथी नहि भावतो, मूढात्मा जिनदीक्षा आपवी वगेरे शुभ अनुष्ठानने अने
पुस्तक वगेरे उपकरणने पुण्यबंधनुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण माने छे. ज्ञानी
साक्षात् पुण्यबंधनुं कारण अने परंपराए मुक्तिनुं कारण मानता होवा छतां पण निश्चयथी
तेमने मुक्तिनुं कारण मानता नथी. ८८.
गाथा८८
अन्वयार्थ :[मूढः ] अज्ञानीजन [शिष्यार्जिकापुस्तकैः ] चेला चेली पुस्तकादिकसे
[तुष्यति ] हर्षित होता है, [निर्भ्रान्तः ] इसमें कुछ संदेह नहीं है, [ज्ञानी ] और ज्ञानीजन
[एतैः ] इन बाह्य पदार्थोंसे [लज्जते ] शरमाता है, क्योंकि इन सबोंको [बंधस्य हेतुं ] बंधका
कारण [जानन् ] जानता है
भावार्थ :सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप जो निज शुद्धात्मा उसको न
श्रद्धान करता, न जानता और न अनुभव करता जो मूढ़ात्मा वह पुण्यबंधके कारण जिनदीक्षा
दानादि शुभ आचरण और पुस्तकादि उपकरण उनको मुक्तिके कारण मानता है, और ज्ञानीजन
इनको साक्षात् पुण्यबंधके कारण जानता है, परम्पराय मुक्तिके कारण मानता है
यद्यपि
व्यवहारनयकर बाह्य सामग्रीको धर्मका साधन जानता है, तो भी ऐसा मानता है कि निश्चयनयसे
मुक्तिके कारण नहीं हैं
।।८८।।

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अधिकार-२ः दोहा-८९ ]परमात्मप्रकाशः [ ३६५
अथ चट्टपट्टकुण्डिकाद्युपकरणैर्मोहमुत्पाद्य मुनिवराणां उत्पथे पात्यते [?] इति
प्रतिपादयति
२१६) चट्टहिँ पट्टहिँ कुंडियहिँ चेल्ला-चेल्लियएहिँ
मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहिँ ।।८९।।
चट्टैः पट्टैः कुण्डिकाभिः शिष्यार्जिकाभिः
मोहं जनयित्वा मुनिवराणां उत्पथे पातितास्तैः ।।८९।।
चट्टपट्टकुण्डिकाद्युपकरणैः शिष्यार्जिकापरिवारैश्च कर्तृभूतैर्मोहं जनयित्वा केषाम्
मुनिवराणां, पश्चादुन्मार्गे पातितास्ते तु तैः तथाहि तथा कश्चिदजीर्णभयेन विशिष्टाहारं
त्यक्त्वा लङ्घनं कुर्वन्नास्ते पश्चादजीर्णप्रतिपक्षभूतं किमपि मिष्टौषधं गृहीत्वा
हवे, कमंडळ, पींछी, पुस्तक आदि उपकरणो मुनिवरोने मोह उपजावी उन्मार्गमां नाखे
छे, एम प्रतिपादन करे छेः
भावार्थजेवी रीते कोई अज्ञानी अर्थात् ज्ञान विनानो (मूर्ख अर्थात् डाह्यो नहि एवो)
अजीर्णना भयथी विशिष्ट आहारने छोडीने लंघन करे छे. पछी अजीर्णना प्रतिपक्षभूत (अजीर्णने
दूर करनार) कोई स्वादिष्ट औषध लईने जीभनी लंपटताथी (स्वादनो लोलुपी थई अधिक मात्रामां
आगे कमंडलु, पीछी, पुस्तकादि उपकरण और शिष्यादिका संघ ये मुनियोंको मोह
उत्पन्न कराके खोटे मार्गमें पटक देते हैं
गाथा८९
अन्वयार्थ :[चट्टैः पट्टैः कुंडिकाभिः ] पीछी, कमंडल, पुस्तक और
[शिष्यार्जिकाभिः ] मुनि श्रावकरूप चेला, अर्जिका, श्राविका इत्यादि चेलीये संघ
[मुनिवराणां ] मुनिवरोंको [मोहं जनयित्वा ] मोह उत्पन्न कराके [तैः ] वे [उत्पथे ] उन्मार्गमें
(खोटे मार्गमें) [पातिताः ] डाल देते हैं
भावार्थ :जैसे कोई अजीर्णके भयसे मनोज्ञ आहारको छोड़कर लंघन करता है,
पीछे अजीर्णकी दूर करनेवाली कोई मीठी औषधिको लेकर जिह्वाका लंपटी होके मात्रासे
अधिक लेके औषधिका ही अजीर्ण करता है, उसी तरह अज्ञानी कोई द्रव्यलिंगी यती विनयवान्
१ पाठान्तरः पात्यते = पात्यन्त

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३६६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-८९
जिह्वालाम्पटयेनौषधेनापि अजीर्णं करोत्यज्ञानी इति, न च ज्ञानीति, तथा कोऽपि तपोधनो
विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्व-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगत्वप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः
किं कृत्वा
किमप्यौषधस्थानीयमुपकरणादिकं गृहीत्वा कोऽसावज्ञानी न तु ज्ञानीति इदमत्र तात्पर्यम्
परमोपेक्षासंयमधरेण शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतः सर्वोऽपि तावत्परिग्रहस्त्याज्यः परमोपेक्षासंयमा-
भावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थं विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपः-
पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि
औषध लईने) औषधथी-ज अजीर्ण करे छे ते अज्ञानी छे. तेवी रीते कोई तपोधन विनीत, वनिता
वगेरेने (अजीर्णरोगस्थानीय) मोहना भयथी छोडीने अने जिनदीक्षा ग्रहीने कांई पण
औषधस्थानीय उपकरणादिने ग्रहीने शुद्ध-बुद्ध ज जेनो एक स्वभाव छे एवा निजशुद्धात्मतत्त्वनां
सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् ज्ञान अने सम्यग् अनुष्ठानरूप निरोगपणाना प्रतिपक्षभूत
अजीर्णरोगस्थानीय (अजीर्ण रोग समान) पोताने मोह उपजावे छे. पण ज्ञानी तेवो नथी.
अहीं, ए तात्पर्य छे के परमोपेक्षासंयमधारीए शुद्धात्मानुभूतिथी प्रतिपक्षभूत बधोय
परिग्रह छोडवा योग्य छे अने परमोपेक्षासंयमना अभावमां वीतराग शुद्धात्मानुभूतिरूप
भावसंयमना रक्षणार्थे विशिष्ट संहननादि शक्तिनो अभाव होतां, जो के तपनुं साधन जे शरीर
तेना रक्षाना सहकारीभूत अन्न, जळ, संयम, शौच, ज्ञानना उपकरणो कमंडल, पींछी अने शास्त्रो
पतिव्रता स्त्री आदिको मोहके डरसे छोड़कर जिनदीक्षा लेके अजीर्ण समान मोहके दूर करनेके
लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका
अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी बुद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है
मात्राप्रमाण औषधि लेवे, तो वह रोगको हर सके यदि औषधिका ही अजीर्ण करेमात्रासे
अधिक लेवे, तो रोग नहीं जाता, उलटी रोगकी वृद्धि ही होती है यह निःसंदेह जानना इससे
यह निश्चय हुआ जो परमोपेक्षासंयम अर्थात् निर्विकल्प परमसमाधिरूप तीन गुप्तिमयी परम
शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने
योग्य है
शुद्धोपयोगी मुनियोंके कुछ भी परिग्रह नहीं है, और जिनके परमोपेक्षा संयम नहीं
लेकिन व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी रक्षणार्थ व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी
रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी
रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मल
मूत्रादिकी बाधा भी
होती है, इसलिये शौचका उपकरण कमंडलु, और संयमोपकरण पीछी, और ज्ञानोपकरण
पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते