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मोह राखे छे? कोई बुद्धिमान पुरुषो रोगना भयथी भोजननो त्याग करीने मात्राथी वधारे औषधनुं
सेवन करीने शुं फरी अजीर्ण थाय एवुं कदी करशे? (पींछी आदिने संयमनी रक्षानुं मात्र निमित्त
जाणीने तेना पर पण मोह करवा योग्य नथी) ८९.
वृथा मोहको कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता
क्या मात्रासे अधिक ले सकता है ? ऐसा कभी नहीं करेगा, मात्राप्रमाण ही लेगा
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बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहकांक्षारूपप्रभृतिसमस्तमनोरथकल्लोलमालात्यागरूपं मनोमुण्डनं पूर्वमकृत्वा
जिनदीक्षारूपं शिरोमुण्डनं कृत्वापि केनाप्यात्मा वञ्चितः
कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च
आकांक्षा आदिथी मांडीने समस्त मनोरथनी कल्लोलमाळाना त्यागरूप मनोमुंडन पूर्वे कर्युं नहि.
जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन करीने पण सर्वसंग परित्याग कर्यो न होवाथी तेणे पोताना आत्माने
छेतर्यो.
निष्परिग्रह शुद्धात्मानी अनुभूतिथी विपरीत एवा देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला परिग्रहनी
आकांक्षा छोडवी, एवो अभिप्राय छे. ९०.
[सकला अपि संगाः ] सब परिग्रह [न परिहृताः ] नहीं छोड़े, उसने [आत्मा ] अपनी
आत्माको ही [वंचितः ] ठग लिया
वाञ्छा आदि ले समस्त मनोरथ उनकी कल्लोल मालाओंका त्यागरूप मनका मुंडन वह तो
नहीं किया, और जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन कर भेष रखा, सब परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने
अपनी आत्मा ठगी
अनुमोदनाकर देखे, सुने, अनुभवे जो परिग्रह उनकी वाँछा सर्वथा त्यागनी चाहिये
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शिष्यादि सचित्त परिग्रह छे अने पींछी, कमंडल आदि अचित्त परिग्रह छे अने उपकरणसहित
छात्रादि मिश्र परिग्रह छे. अथवा मिथ्यात्व, रागादि सचित्त परिग्रह छे अने द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप
जीव, [ते एव ] वे ही [छर्दिं कृत्वा ] वमन करके [पुनः ] फि र [तां छर्दिं ] उस वमनको
पीछे [गिलंति ] निगलते हैं
सचित परिग्रह शिष्यादि, अचित्त परिग्रह पीछी, कमंडलु, पुस्तकादि और मिश्र परिग्रह पीछी,
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गुणस्थानमार्गणास्थानजीवस्थानादिपरिणतः संसारी जीवस्तु मिश्रश्चेति
छर्दिताहारग्राहकपुरुषस
समाधिस्थ पुरुषनी अपेक्षाए सिद्धरूप सचित्त परिग्रह छे अने पुद्गलादि पांच द्रव्यरूप अचित्त
परिग्रह छे अने गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान आदि रूपे परिणत संसारी जीव मिश्र
परिग्रह छे. आ प्रकारना बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित जिनलिंगने ग्रहीने पण जेओ शुद्ध
आत्मानी अनुभूतिथी विलक्षण इष्ट परिग्रहनुं ग्रहण करे छे, तेओ वमन करेला आहारने ग्रहण
करनार पुरुष जेवा छे.
रागादि, अचित परिग्रह द्रव्यकर्म, नोकर्म और मिश्र परिग्रह द्रव्यकर्म, भावकर्म दोनों मिले हुए
अचित्त परिग्रह पुद्गलादि पाँच द्रव्यका विचार, और मिश्र परिग्रह गुणस्थान मार्गणास्थान
जीवसमासादिरूप संसारीजीवका विचार
वे वमन करके पीछे आहार करनेवालोंके समान निंदाके योग्य होते हैं
पुत्रादिकमें मोह करते हैं, अर्थात् अपना परिवार छोड़कर शिष्य
जलचरोंके समूह प्रगट हैं, ऐसे अथाह समुद्रको तो बाहोंसे तिर जाता है, लेकिन गायके खुरके
जलमें डूबता है
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पगनी खरीमां रहेला पाणीमां डूबे छे.) ९१.
[कीलानिमित्तं ] लोहेके कीलेके लिए अर्थात् कीलेके समान असार इंद्रिय
आतापसे भस्म कर देते हैं
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वीर्यान्तरायेण केवलवीर्यं प्रच्छाद्यते मोहोदयेनानन्तसुखं च प्रच्छाद्यत इति
शाश्वतसुखं प्राप्नोतीति तात्पर्यम्
दिव्यपरमोदारिक शरीरने बाळे छे. केवी रीते? ज्यारे ते ख्याति, पूजा अने लाभ माटे शुद्धात्मानी
भावनाने छोडीने वर्ते छे त्यारे ज्ञानावरणादिनो बंध थाय छे, ते ज्ञानावरणकर्मथी केवळज्ञान
ढंकाय छे, केवळदर्शनावरणथी केवळदर्शन ढंकाय छे, वीर्यान्तरायथी केवळवीर्य ढंकाय छे अने
मोहना उदयथी अनंतसुख ढंकाय छे. आ रीते अनंत चतुष्टयनी प्राप्ति न थतां परम औदारिक
शरीर पण मळतुं नथी (कारण के ते ज भवे मोक्ष जवाना होय तेने ज परमोदारिक शरीर
मळे छे)
केवलदर्शन आच्छादित होता है
है, उसीके परमौदारिक शरीर होता है
है, वह परभवमें सासते (अविनाशी) सुखको (मोक्षको) पाता है
पाके फि र संसारमें भ्रमता है, उसका स्वर्ग पाना वृथा है
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वदति
वाच्य, वीतराग परमानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माने जाणतो नथी, ए तात्पर्यार्थ
छे. ९३.
[तथ्यम् ] निश्चयसे [सः ] वही पुरुष [परमार्थेन ] वास्तवमें [परमार्थम् ] परमार्थको [नैव
बुध्यते ] नहीं जानता, [जिनः भणति ] ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं
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जानातीत्यभिप्रायः
[जीवाः ] जीव [परब्रह्म ] परब्रह्मस्वरूप हैं, [येन ] क्योंकि निश्चयनयसे [सोऽपि ] वह
सम्यग्दृष्टि शुद्धरूप ही [विजानाति ] सबको जानता है
जानते हैं, सबको देखते हैं, उसी प्रकार निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि सब जीवोंको शुद्धरूप ही देखता
है
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प्रतिपादयति
जीव समान हैं, ऐसा निश्चय करते हैं
कुडयां ] किसी शरीरमें जीव [तिष्ठतु ] रहे, [सः ] वह ज्ञानी [तस्य भेदम् ] उस जीवका भेद
[न करोति ] नहीं करता, अर्थात् देहके भेदसे गुरुता लघुताका भेद करता है, परंतु ज्ञानदृष्टिसे
सबको समान देखता है
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जानिहि
भिन्नभिन्नवृक्षवत् सेनायां भिन्नभिन्नहस्त्यश्वादिवद्भेदोऽस्तीति भावार्थः
गमे ते देहमां रह्यो होय, तोपण शुद्धनिश्चयनयथी सोळवला सोनानी माफक (जेम सोळवला
सोनामां वानभेद नथी तेम) केवळज्ञानादि (अनंत) गुणोनी अपेक्षाथी (समान होवाथी) तेमां
भेद करतो नथी.
सिद्ध थशे?
छे, सेनामां भिन्न भिन्न हाथी, घोडा आदि छे तेम जीवोमां भेद छे, एवो भावार्थ
छे. ९५.
बुद्ध (ज्ञानी) ही है
हैं, उनको क्यों दोष देते हो ? तब श्रीगुरु उसका समाधान करते हैं,
गयी, उसी प्रकार जातिकी अपेक्षासे जीवोंमें भेद नहीं हैं, सब एक जाति हैं, और व्यवहारनयसे
व्यक्तिकी अपेक्षा भिन्न
जैसे सेना एक है, परन्तु हाथी, घोड़े, रथ, सुभट अनेक हैं, उसी तरह जीवोंमें जानना
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संस्थितानां जीवानां व्यवहारेण भेदं
एम दर्शावे छेः
जीवोना व्यवहारथी भेद देखीने मूढ जीवो निश्चयनयथी पण भेद करे छे अने वीतराग
हैं
केवलज्ञानसे [स्फु टं ] प्रगट [सकलमपि ] सब जीवोंको [एकं मन्यंते ] समान जानते हैं
नयसे शरीरके भेदसे भेद है, परंतु जीवपनेसे भेद नहीं है
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प्रत्येकं मन्यन्त इति अभिप्रायः
केवळज्ञानथी निश्चयथी समस्त जीवराशिने संग्रहनयथी समुदायरूप एक माने छे. ९६.
समाः ] सब समान हैं, [अपि ] और [सकलाः ] सब जीव [स्वगुणैः एके ] अपने
केवलज्ञानादि गुणोंसे समान हैं
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ज्ञानमयाः जम्मण-मरण-विमुक्क व्यवहारनयेन यद्यपि जन्ममरणसहितास्तथापि निश्चयेन वीतराग-
निजानन्दैकरूपसुखामृतमयत्वादनाद्यनिधनत्वाच्च शुद्धात्मस्वरूपाद्विलक्षणस्य जन्ममरणनिर्वर्तकस्य
कर्मण उदयाभावाज्जन्ममरणविमुक्ताः
निश्चयनयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वहानिवृद्धयभावात् स्वकीयस्वकीयजीवप्रदेशैः सर्वे
समानाः
लक्षणवाळा केवळज्ञानथी रचायेल होवाथी सर्वे जीवो ज्ञानमय छे.
छे एवा सुखामृतमय होवाथी अने अनादि अनंत होवाथी अने शुद्धात्मस्वरूपथी विलक्षण जन्म
-मरणने उत्पन्न करनार कर्मना उदयना अभावथी जन्म-मरण रहित छे.
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यप्रदेशत्वनी हानि-वृद्धि न होवाथी पोतपोताना जीवप्रदेशोथी
सर्व जीवो समान छे.
पोतपोताना गुणोथी एकसरखा छे.
जीव केवलज्ञानमयी हैं
भी नहीं ऐसे हैं, शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत जन्म मरणके उत्पन्न करनेवाले जो कर्म उनके उदयके
अभावसे जन्म-मरण रहित हैं
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केवलज्ञानं च लक्षणं भाषितम्
हवे, ज्ञानदर्शन जीवोनुं लक्षण छे, एम कहे छेः
जिनवरदेवे कह्युं छे. तेथी जो तारा मनमां वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूपी सूर्यना उदयथी
[न क्रियते ] मत कर, [यदि ] अगर [मनसि ] तेरे मनमें [विभातः जातः ] ज्ञानरूपी सूर्यका
उदय हो गया है, अर्थात् हे शिष्य, तू सबको समान जान
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सहैव नायान्ति
तेमनामां भेद करवामां आवतो नथी.
भिन्न-भिन्न छे. तेवी रीते जोके जीवोनुं ज्ञानदर्शनलक्षण समान छे तोपण विवक्षित जीव जुदो
ग्रहण करतां, बाकीना जीवो एक साथे ज आवी जता नथी तेनुं कारण ए छे के सर्व जीवना
प्रदेशो भिन्न-भिन्न छे. ते कारणे एम जणाय छे के केवळज्ञान अने केवळदर्शननुं लक्षण सरखुं
छे तोपण प्रदेशभेद छे, एवो भावार्थ छे. ९८.
दर्शन लक्षण सब जीव समान हैं, तो भी एक जीवका ग्रहण करनेसे सबका ग्रहण नहीं होता
लक्षणसे सब जीव समान हैं, तो भी प्रदेश सबके जुदे-जुदे हैं, यह तात्पर्य जानना
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अथवा बहुवचनेन हे योगिनः
तेमनुं एकत्व कह्युं छे, तोपण व्यक्ति-अपेक्षाए प्रदेशभेदथी तेमनुं भिन्नपणुं छे.
भिन्न-भिन्नरूपे देखाय छे. श्री गुरु तेमनुं समाधान करे छे
करनेवाले [योगिन् ] योगी, [विमलं ] अपने निर्मल आत्माको [जानंति ] जानते हैं
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देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणमति
मुखनी उपाधिना वशे अनेक दर्पणोनां पुद्गलो ज मुखना अनेक आकाररूपे परिणमे छे
पण देवदत्तनुं मुख अनेकरूपे (अनेक आकार रूपे) परिणमतुं नथी. जो (देवदत्तनुं मुख
अनेक आकाररूपे) परिणमतुं होय तो दर्पणमां रहेला मुखनुं प्रतिबिंब चेतनपणाने पामे,
पण तेम थतुं नथी (पण चेतन थतुं नथी). तेवी रीते एक चंद्रमा पण अनेकरूपे
परिणमतो नथी.
जीव बहुत शरीरों में भिन्न-भिन्न भास रहा है
स्वरूप नहीं हो गया
काचरूप पुद्गल ही अनेक मुखके आकारके परिणत हुए हैं, कुछ देवदत्तका मुख
अनेकरूप नहीं परिणत हुआ है, मुख एक ही है
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लक्षणथी समान
केवळज्ञानादि (अनंत) गुणोनुं स्थान एवा निर्वाणने पामे छे.
[प्रतिष्ठिताः ] विराजमान [लघु ] शीघ्र ही [निर्वाणं ] मोक्षको [लभंते ] पाते हैं
गिनते हैं, वे पुरुष समभावमें स्थित शीघ्र ही शिवपुरको पाते हैं
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छे, एम कहे छे.)ः
करना चाहिए
ज्ञानी [देहविभेदेन ] देहके भेदसे [तेषां भेदं ] उन जीवोंके भेद को [किं मन्यते ] क्या मान
सकता है, नहीं मान सकता
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देहोद्भवविषयसुखरसास्वादविलक्षणशुद्धात्मभावनारहितेन जीवेन यान्युपार्जितानि कर्माणि
जीवितमरणसुखदुःखादिकं प्राप्नोति
छे, एम जे जाणे छे ते वीतराग स्वसंवेदनवाळा ज्ञानी शुं देहथी उद्भवता विषयसुखरसना
आस्वादथी विलक्षण शुद्धात्मानी भावनाथी रहित जीवे जे कर्मो उपार्जित कर्यां छे तेना उदयथी
उत्पन्न देहभेदथी जीवोना भेद माने? (कदी पण न माने.)
जीवने’ मानवामां बहु भारे दोष आवे छे. तेना मत अनुसारे विवक्षित एक जीवने
जीवित-मरण सुख-दुःखादि थतां, सर्व जीवोने ते ज क्षणे जीवित-मरण सुख-दुःखादि थवां
जोईए; शा माटे? कारण के तेमना मतमां ‘एक ज जीव छे’ एवी मान्यता छे. पण एवुं
(अहीं) जोवामां आवतुं नथी, (एक ज जीवने जीवित-मरणादि थतां बधाने जीवित-मरण
थतां जोवामां आवतां नथी) एवो भावार्थ छे. १०१.
वही सिद्ध
उदयसे उत्पन्न हुए देहादिक के भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान
सकता
हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है