Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 90-101 (Adhikar 2).

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अधिकार-२ः दोहा-९० ]परमात्मप्रकाशः [ ३६७
ममत्वं न करोतीति तथा चोक्त म्‘‘रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो मुह्येद् वृथा किमिति
संयमसाधनेषु धीमान् किमामयभयात्परिहृत्य भुक्तिं पीत्वौषधं व्रजति
जातुचिदप्यजीर्णम् ।।’’ ।।८९।।
अथ केनापि जिनदीक्षां गृहीत्वा शिरोलुञ्चनं कृत्वापि सर्वसंगपरित्यागमकुर्वतात्मा वञ्चित
इति निरूपयति
२१७) केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण
सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण ।।९०।।
केनापि आत्मा वञ्चितः शिरो लुञ्चित्वा क्षारेण
सकला अपि संगा न परिहृता जिनवरलिङ्गधरेण ।।९०।।
ग्रहे छे तोपण ममत्व करतो नथी. कह्युं पण छे के–”‘‘रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो मुह्येद् वृथा’
किमिति संयमसाधनेषु धीमान् किमामयभयात्परिहृत्य भुक्तिं पीत्वौषधं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ।।’’
(आत्मानुशासन २२८) (अर्थहे मुनि! स्त्री, धनादि मनोज्ञ वस्तुओथी तुं मोहरहित थई
गयो छो तो हवे मात्र संयमना साधनरूप एवा आ पींछी, कमंडल आदि वस्तुओमां तुं केम व्यर्थ
मोह राखे छे? कोई बुद्धिमान पुरुषो रोगना भयथी भोजननो त्याग करीने मात्राथी वधारे औषधनुं
सेवन करीने शुं फरी अजीर्ण थाय एवुं कदी करशे? (पींछी आदिने संयमनी रक्षानुं मात्र निमित्त
जाणीने तेना पर पण मोह करवा योग्य नथी) ८९.
हवे, कहे छे के जे कोईए जिनदीक्षा ग्रहीने अने माथाना वाळनो लोच करीने पण
सर्वसंगने छोड्यो नहि तेणे आत्मवंचना करी (पोतानी जातने छेतरी) एम कहे छेः
हैं ऐसा दूसरी जगह ‘‘रम्येषु’’ इत्यादिसे कहा है, कि मनोज्ञ स्त्री आदिक वस्तुओंमें जिसने
मोह तोड़ दिया है, ऐसा महामुनि संयमके साधन पुस्तक, पीछी, कमंडलु आदि उपकरणोंमें
वृथा मोहको कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता
जैसे कोई बुद्धिमान पुरुष रोगके
भयसे अजीर्णको दूर करना चाहे और अजीर्णके दूर करनेके लिये औषधिका सेवन करे, तो
क्या मात्रासे अधिक ले सकता है ? ऐसा कभी नहीं करेगा, मात्राप्रमाण ही लेगा
।।८९।।
आगे ऐसा कहते हैं, जिसने जिनदीक्षा धरके केशोंका लोंच किया, और सकल
परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने अपनी आत्मा ही को वंचित किया
गाथा९०
अन्वयार्थ :[केनापि ] जिस किसीने [जिनवरलिंगणधरेण ] जिनवरका भेष धारण

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३६८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९०
केनाप्यात्मा वञ्चितः किं कृत्वा शिरोलुञ्चनं कृत्वा केन भस्मना कस्मादिति
चेत् यतः सर्वेऽपि संगा न परिहृताः कथंभूतेन भूत्वा जिनवरलिङ्गधारकेणेति तद्यथा
वीतरागनिर्विकल्पनिजानन्दैक रूपसुखरसास्वादपरिणतपरमात्मभावनास्वभावेन तीक्ष्णशस्त्रोपकरणेन
बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहकांक्षारूपप्रभृतिसमस्तमनोरथकल्लोलमालात्यागरूपं मनोमुण्डनं पूर्वमकृत्वा
जिनदीक्षारूपं शिरोमुण्डनं कृत्वापि केनाप्यात्मा वञ्चितः
कस्मात् सर्वसंगपरित्यागाभावादिति
अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दपरिग्रहं कृत्वा तु जगत्त्रये
कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च
द्रष्टश्रुतानुभूतनिःपरिग्रहशुद्धात्मानुभूतिविपरीत-
परिग्रहकाङ्क्षास्त्वं त्यजेतित्यभिप्रायः ।।९०।।
भावार्थवीतराग निर्विकल्प निजानंद जेनुं एक रूप छे एवा सुखरसना आस्वादरूपे
परिणत परमात्मानी भावनाना स्वभावरूप तीक्ष्ण शस्त्रना उपकरणथी बाह्य, अभ्यंतर परिग्रहनी
आकांक्षा आदिथी मांडीने समस्त मनोरथनी कल्लोलमाळाना त्यागरूप मनोमुंडन पूर्वे कर्युं नहि.
जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन करीने पण सर्वसंग परित्याग कर्यो न होवाथी तेणे पोताना आत्माने
छेतर्यो.
अहीं, आ कथन जाणीने निज शुद्ध-आत्मानी भावनाथी उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप
परिग्रहने ग्रहीने त्रण काळमां त्रण लोकमां मन, वचन, कायथी, कृत, कारित, अनुमोदनथी
निष्परिग्रह शुद्धात्मानी अनुभूतिथी विपरीत एवा देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला परिग्रहनी
आकांक्षा छोडवी, एवो अभिप्राय छे. ९०.
करके [क्षारेण ] भस्मसे [शिरः ] शिरके केश [लुंचित्वा ] लौंच किये, (उखाड़े) लेकिन
[सकला अपि संगाः ] सब परिग्रह [न परिहृताः ] नहीं छोड़े, उसने [आत्मा ] अपनी
आत्माको ही [वंचितः ] ठग लिया
भावार्थ :वीतराग निर्विकल्पनिजानंद अखंडरूप सुखरसका जो आस्वाद उसरूप
परिणामी जो परमात्माकी भावना वही हुआ, तीक्ष्ण शस्त्र उससे बाहिरके और अंतरके परिग्रहोंकी
वाञ्छा आदि ले समस्त मनोरथ उनकी कल्लोल मालाओंका त्यागरूप मनका मुंडन वह तो
नहीं किया, और जिनदीक्षारूप शिरोमुंडन कर भेष रखा, सब परिग्रहका त्याग नहीं किया, उसने
अपनी आत्मा ठगी
ऐसा कथन समझकर निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न, वीतराग परम,
आनंदस्वरूपको अंगीकार करके तीनों काल तीनों लोकमें मन, वचन, काय, कृत, कारित,
अनुमोदनाकर देखे, सुने, अनुभवे जो परिग्रह उनकी वाँछा सर्वथा त्यागनी चाहिये
ये परिग्रह
शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत हैं ।।९०।।

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अधिकार-२ः दोहा-९१ ]परमात्मप्रकाशः [ ३६९
अथ ये सर्वसंगपरित्यागरूपं जिनलिङ्गं गृहीत्वापीष्टपरिग्रहान् गृह्णन्ति ते छर्दिं कृत्वा
पुनरपि गिलन्ति तामिति प्रतिपादयति
२१८) जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ठ - परिग्गह लेंति
छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ।।९१।।
ये जिनलिङ्गं धृत्वापि मुनय इष्टपरिग्रहान् लान्ति
छर्दिं कृत्वा ते एव जीव तां पुनः छर्दिं गिलन्ति ।।९१।।
ये केचन जिनलिङ्गं गृहीत्वापि मुनयस्तपोधना इष्टपरिग्रहान् लान्ति गृह्णान्ति ते किं
कुर्वन्ति छर्दिं कृत्वा त एव हे जीव तां पुनश्छर्दिं गिलन्तीति तथापि गृहस्थापेक्षया
चेतनपरिग्रहः पुत्रकलत्रादिः, सुवर्णादिः पुनरचेतनः साभरणवनितादि पुनर्मिश्रः तपोधनापेक्षया
छात्रादिः सचित्तः, पिच्छकमण्डल्वादिः पुनरचित्तः, उपकरणसहितश्छात्रादिस्तु मिश्रः अथवा
हवे, जे सर्वसंगना परित्यागरूप जिनलिंगने ग्रहीने पण इष्ट परिग्रहोनुं ग्रहण करे छे
ते वमन करीने तेने फरीथी गळे छे, एम कहे छेः
भावार्थगृहस्थनी अपेक्षाए पुत्र, कलत्रादि चेतन परिग्रह छे अने सुवर्णादि
अचेतन परिग्रह छे अने आभरण सहित वनिता मिश्र परिग्रह छे. तपोधननी अपेक्षाए
शिष्यादि सचित्त परिग्रह छे अने पींछी, कमंडल आदि अचित्त परिग्रह छे अने उपकरणसहित
छात्रादि मिश्र परिग्रह छे. अथवा मिथ्यात्व, रागादि सचित्त परिग्रह छे अने द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप
आगे जो सर्वसंगके त्यागरूप जिनमुद्राको ग्रहण कर फि र परिग्रहको धारण करता है,
वह वमन करके पीछे निगलता है, ऐसा कथन करते हैं
गाथा९१
अन्वयार्थ :[ये ] जो [मुनयः ] मुनि [जिनलिंगं ] जिनलिंगको [धृत्वापि ]
ग्रहणकर [इष्टपरिग्रहान् ] फि र भी इच्छित परिग्रहोंको [लांति ] ग्रहण करते हैं, [जीव ] हे
जीव, [ते एव ] वे ही [छर्दिं कृत्वा ] वमन करके [पुनः ] फि र [तां छर्दिं ] उस वमनको
पीछे [गिलंति ] निगलते हैं
भावार्थ :परिग्रहके तीन भेदोंमें गृहस्थकी अपेक्षा चेतन परिग्रह पुत्र कलत्रादि,
अचेतन परिग्रह आभरणादि, और मिश्र परिग्रह आभरण सहित स्त्री, पुत्रादि, साधुकी अपेक्षा
सचित परिग्रह शिष्यादि, अचित्त परिग्रह पीछी, कमंडलु, पुस्तकादि और मिश्र परिग्रह पीछी,

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३७० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९१
मिथ्यात्वरागादिरूपः सचित्तः, द्रव्यकर्मनोकर्मरूपः पुनरचित्तः, द्रव्यकर्मभावकर्मरूपस्तु मिश्रः
वीतरागत्रिगुप्तसमाधिस्थपुरुषापेक्षया सिद्धरूपः सचित्तः पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपः पुनरचित्तः,
गुणस्थानमार्गणास्थानजीवस्थानादिपरिणतः संसारी जीवस्तु मिश्रश्चेति
एवंविधबाह्याभ्यन्तर-
परिग्रहरहितं जिनलिङ्गं गृहीत्वापि ये शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणमिष्टपरिग्रहं गृह्णन्ति ते
छर्दिताहारग्राहकपुरुषस
द्रशा भवन्तीति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘त्यक्त्वा स्वकीयपितृ-
मित्रकलत्रपुत्रान् सक्तोऽन्य गेहवनितादिषु निर्मुमुक्षुः दोर्भ्यां पयोनिधिसमुद्गतनक्रचक्रं प्रोत्तीर्य
गोष्पदजलेषु निमग्नवान् सः ।।’’ ।।९१।।
अचित्त परिग्रह छे अने द्रव्यकर्म, भावकर्मरूप मिश्र परिग्रह छे. वीतराग त्रण गुप्तिथी गुप्त
समाधिस्थ पुरुषनी अपेक्षाए सिद्धरूप सचित्त परिग्रह छे अने पुद्गलादि पांच द्रव्यरूप अचित्त
परिग्रह छे अने गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवस्थान आदि रूपे परिणत संसारी जीव मिश्र
परिग्रह छे. आ प्रकारना बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित जिनलिंगने ग्रहीने पण जेओ शुद्ध
आत्मानी अनुभूतिथी विलक्षण इष्ट परिग्रहनुं ग्रहण करे छे, तेओ वमन करेला आहारने ग्रहण
करनार पुरुष जेवा छे.
कह्युं पण छे के‘‘त्यक्त्वा स्वकीयपितृमित्रकलत्रपुत्रान् सक्तोऽन्य गेहवनितादिषु निर्मुमुक्षुः दोर्भ्यों
पयोनिधिसमुद्गतनक्रचक्रं प्रोत्तीर्य गोष्पदजलेषु निमग्नवान् सः ।।’’
(अर्थजे निर्मुमुक्षु पोतानां पिता, मित्र, पत्नी अने पुत्रोने छोडीने अन्य घरनां
कमंडलु, पुस्तकादि सहित शिष्यादि अथवा साधुके भावोंकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह मिथ्यात्व
रागादि, अचित परिग्रह द्रव्यकर्म, नोकर्म और मिश्र परिग्रह द्रव्यकर्म, भावकर्म दोनों मिले हुए
अथवा वीतराग त्रिगुप्तिमें लीन ध्यानी पुरुषकी अपेक्षा सचित्त परिग्रह सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान,
अचित्त परिग्रह पुद्गलादि पाँच द्रव्यका विचार, और मिश्र परिग्रह गुणस्थान मार्गणास्थान
जीवसमासादिरूप संसारीजीवका विचार
इस तरह बाहिरके और अंतरके परिग्रहसे रहित जो
जिनलिंग उसे ग्रहण कर जो अज्ञानी शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत परिग्रहको ग्रहण करते हैं,
वे वमन करके पीछे आहार करनेवालोंके समान निंदाके योग्य होते हैं
ऐसा दूसरी जगह भी
कहा है, कि जो जीव अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र इनको छोड़कर परके घर और
पुत्रादिकमें मोह करते हैं, अर्थात् अपना परिवार छोड़कर शिष्य
शाखाओंमें राग करते हैं, वे
भुजाओंसे समुद्रको तैरके गायके खुरसे बने हुए गढ़ेके जलमें डूबते हैं, कैसा है समुद्र, जिसमें
जलचरोंके समूह प्रगट हैं, ऐसे अथाह समुद्रको तो बाहोंसे तिर जाता है, लेकिन गायके खुरके
जलमें डूबता है
यह बड़ा अचंभा है घरका ही संबंध छोड़ दिया तो पराये पुत्रोंसे क्या राग
करना ? नहीं करना ।।९१।।

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अधिकार-२ः दोहा-९२ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७१
अथ ये ख्यातिपूजालाभनिमित्तं शुद्धात्मानं त्यजन्ति ते लोहकीलनिमित्तं देवं देवकुलं च
दहन्तीति कथयति
२१९) लाहहँ कित्तिहि कारणिण जे सिव-संगु चयंति
खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउलु देउ डहंति ।।९२।।
लाभस्य कीर्तेः कारणेन ये शिवसंगं त्यजन्ति
कीलानिमित्तं तेऽपि मुनयः देवकुलं देउ दहन्ति ।।९२।।
लाभकीर्तिकारणेन ये केचन शिवसंगं शिवशब्दवाच्यं निजपरमात्माध्यानं त्यजन्ति ते
मुनयस्तपोधनाः किं कुर्वन्ति लोहकीलिकाप्रायं निःसारेन्द्रियसुखनिमित्तं देवशब्दवाच्यं
वनिता आदिमां आसक्त थाय छे ते भुजा वडे मगरादिथी भरेला भयंकर समुद्रने तरीने गायना
पगनी खरीमां रहेला पाणीमां डूबे छे.) ९१.
हवे, जेओ ख्याति, पूजा, लाभना निमित्ते शुद्धात्माने छोडे छे तेओ लोढाना खीला माटे
देव अने देवकुळने बाळे छे, एम कहे छेः
गाथा९२
भावार्थजे कोई मुनिओ-तपोधनो-लाभ अने कीर्ति माटे शिवशब्दथी वाच्य निज
परमात्माना ध्यानने छोडी दे छे तेओ लोढाना खीला समान निःसार इन्द्रियसुख माटे देव
आगे जो अपनी प्रसिद्धि, (बड़ाई) प्रतिष्ठा और परवस्तुका लाभ इन तीनोंके लिए
आत्मध्यानको छोड़ते हैं, वे लोहेके कीलेके लिए देव तथा देवालयको जलाते हैं
गाथा९२
अन्वयार्थ :[ये ] जो कोई [लाभस्य ] लाभ [कीर्तिः कारणेन ] और कीर्तिके
कारण [शिवसंग ] परमात्माके ध्यानको [त्यजंति ] छोड़ देते हैं, [ते अपि मुनयः ] वे ही मुनि
[कीलानिमित्तं ] लोहेके कीलेके लिए अर्थात् कीलेके समान असार इंद्रिय
सुखके निमित्त
[देवकुलं ] मुनिपद योग्य शरीररूपी देवस्थानको तथा [देवं ] आत्मदेवको [दहंति ] भवकी
आतापसे भस्म कर देते हैं
भावार्थ :जिस समय ख्याति, पूजा, लाभके अर्थ शुद्धात्माकी भावनाको छोड़कर
अज्ञान भावों में प्रवर्तन होता हैं, उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंका बंध होता है उस
ज्ञानावरणादिके बंधसे ज्ञानादि गुणका आवरण होता है केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढँक जाता

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३७२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९२
निजपरमात्मपदार्थं दहन्ति देवकुलशब्दवाच्यं दिव्यपरमौदारिकशरीरं च दहन्तीति कथमिति
चेत् यदा ख्यातिपूजालाभार्थं शुद्धात्मभावनां त्यक्त्वा वर्तन्ते तदा ज्ञानावरणादिकर्मबन्धो
भवति तेन ज्ञानावरणकर्मणा केवलज्ञानं प्रच्छाद्यते केवलदर्शनावरणेन केवलदर्शनं प्रच्छाद्यते
वीर्यान्तरायेण केवलवीर्यं प्रच्छाद्यते मोहोदयेनानन्तसुखं च प्रच्छाद्यत इति
एवं
विधानन्तचतुष्टयस्यालाभे परमौदारिकशरीरं च न लभन्त इति यदि पुनरनेकभवे परिच्छेद्यं
कृत्वा शुद्धात्मभावनां करोति तदा संसारस्थितिं छित्त्वाऽद्यकालेऽपि स्वर्गं गत्वागत्य शीघ्रं
शाश्वतसुखं प्राप्नोतीति तात्पर्यम्
तथा चोक्त म्‘‘सग्गो तवेण सव्वो वि पावए किं तु
झाण जोएण जो पावइ सो पावइ परलोके सासयं सोक्खं ।।’’।।९२।।
शब्दथी वाच्य एवा निजपरमात्मपदार्थने बाळे छे अने देवकुळ शब्दथी वाच्य एवा
दिव्यपरमोदारिक शरीरने बाळे छे. केवी रीते? ज्यारे ते ख्याति, पूजा अने लाभ माटे शुद्धात्मानी
भावनाने छोडीने वर्ते छे त्यारे ज्ञानावरणादिनो बंध थाय छे, ते ज्ञानावरणकर्मथी केवळज्ञान
ढंकाय छे, केवळदर्शनावरणथी केवळदर्शन ढंकाय छे, वीर्यान्तरायथी केवळवीर्य ढंकाय छे अने
मोहना उदयथी अनंतसुख ढंकाय छे. आ रीते अनंत चतुष्टयनी प्राप्ति न थतां परम औदारिक
शरीर पण मळतुं नथी (कारण के ते ज भवे मोक्ष जवाना होय तेने ज परमोदारिक शरीर
मळे छे)
....वळी जो, शुद्धात्मानी भावना करे छे तो संसारस्थितिने छेदीने आजना काळमां
पण स्वर्गमां जईने त्यांथी आवीने शाश्वत सुख पामे छे. कह्युं पण छे के‘‘सग्गं तवेण सव्वो
वि पावए किं तु झाण जोएण जो पावइ सो पावइ परलोके सासयं सोक्खं ।।’’ (अष्टपाहुड-मोक्षप्राभृत
२३) (अर्थतपथी तो स्वर्ग बधाय पामे छे पण ध्यानना योगथी जे स्वर्ग पामे छे ते
आत्मा परलोकमां शाश्वत सुख पामे छे.) ९२.
है, मोहके उदयसे अनंतसुख, वीर्यांतरायके उदयसे अनंतबल, और केवलदर्शनावरणसे
केवलदर्शन आच्छादित होता है
इसप्रकार अनंतचतुष्टयका आवरण हो रहा है उस
अनंतचतुष्टयके अलाभमें परमौदारिक शरीरको नहीं पाता, क्योंकि जो उसी भवमें मोक्ष जाता
है, उसीके परमौदारिक शरीर होता है
इसलिये जो कोई समभावमें शुद्धात्माकी भावना करे,
तो अभी स्वर्गमें जाकर पीछे विदेहोंमें मनुष्य होकर मोक्ष पाता है ऐसा ही कथन दूसरी जगह
शास्त्रोंमें लिखा है, कि तपसे स्वर्ग तो सभी पाते हैं, परन्तु जो कोई ध्यानके योगसे स्वर्ग पाता
है, वह परभवमें सासते (अविनाशी) सुखको (मोक्षको) पाता है
अर्थात् स्वर्गसे आकर
मनुष्य होके मोक्ष पाता है, उसीका स्वर्ग पाना सफल है, और जो कोरे (अकेले) तपसे स्वर्ग
पाके फि र संसारमें भ्रमता है, उसका स्वर्ग पाना वृथा है
।।९२।।
१.जे संस्कृत टीकानो अर्थ समजाणो नथी ते अर्थ मूकी दीधो छे.

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अधिकार-२ः दोहा-९३ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७३
अथ यो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेणात्मानं महान्तं मन्यते स परमार्थं न जानातीति
दर्शयति
२२०) अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गुरुयउ गंथहि तत्थु
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु ।।९३।।
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः गुरुकं ग्रन्थैः तथ्यम्
स परमार्थेन जिनो भणति नैव बुध्यते परमार्थम् ।।९३।।
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः कथंभूतं मन्यते गुरुकं महान्तम् कैः
ग्रन्थैर्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहैस्तथ्यं सत्यं स पुरुषः परमार्थेन वस्तुवृत्त्या नैव बुध्यते परमार्थमिति जिनो
वदति
तथाहि निर्दोषिपरमात्मविलक्षणैः पूर्वसूत्रोक्त सचित्ताचित्तमिश्रपरिग्रहैर्ग्रन्थरचनारूपशब्द-
शास्त्रैर्वा आत्मानं महान्तं मन्यते यः स परमार्थशब्दवाच्यं वीतरागपरमानन्दैकस्वभावं परमात्मानं
हवे, जे बाह्य अभ्यंतर परिग्रहथी पोताने महान माने छे ते परमार्थने जाणतो नथी,
एम दर्शावे छेः
भावार्थनिर्दोष परमात्माथी विलक्षण पूर्व सूत्रमां कहेला सचित, अचित अने मिश्र
परिग्रहोथी अथवा ग्रंथरचनारूप शब्दोथी-शास्त्रोथी-पोताने महान माने छे, ते ‘परमार्थ’ शब्दथी
वाच्य, वीतराग परमानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माने जाणतो नथी, ए तात्पर्यार्थ
छे. ९३.
आगे जो बाह्य अभ्यंतर परिग्रहसे अपनेको महंत मानता है, वह परमार्थको नहीं जानता,
ऐसा दिखलाते हैं
गाथा९३
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [मुनिः ] मुनि [ग्रंथैः ] बाह्य परिग्रहसे [आत्मानं ]
अपनेको [गुरकं ] महंत (बड़ा) [मन्यते ] मानता है, अर्थात् परिग्रहसे ही गौरव जानता है,
[तथ्यम् ] निश्चयसे [सः ] वही पुरुष [परमार्थेन ] वास्तवमें [परमार्थम् ] परमार्थको [नैव
बुध्यते ] नहीं जानता, [जिनः भणति ] ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं
भावार्थ :निर्दोष परमात्मासे पराङ्मुख जो पूर्वसूत्रमें कहे गए सचित्त, अचित्त, मिश्र
परिग्रह हैं, उनसे अपनेको महंत मानता है, जो मैं बहुत पढ़ा हूँ ऐसा जिसके अभिमान है,
वह परमार्थ यानी वीतराग परमानंदस्वभाव निज आत्माको नहीं जानता आत्म - ज्ञानसे रहित है,
यह निःसंदेह जानो ।।९३।।

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३७४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९४
न जानातीति तात्पर्यम् ।।९३।।
ग्रन्थेनात्मानं महान्तं मन्यमानः सन् परमार्थं कस्मान्न जानातीति चेत्
२२१) बुज्झंतहँ परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ
जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ ।।९४।।
बुध्यमानानां परमार्थं जीव गुरुः लघुः अस्ति न कोऽपि
जीवाः सकला अपि ब्रह्म परं येन विजानाति सोऽपि ।।९४।।
बुध्यमानानाम् कम् परमार्थम्, हे जीव गुरुत्वं लघुत्वं वा नास्ति कस्मान्नास्ति
जीवाः सर्वेऽपि परमब्रह्मस्वरूपाः तदपि कस्मात् येन कारणेन ब्रह्मशब्दवाच्यो मुक्तात्मा
केवलज्ञानेन सर्वं जानाति यथा तथा निश्चयनयेन सोऽप्येको विवक्षितो जीवः संसारी सर्वं
जानातीत्यभिप्रायः
।।९४।। एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परिग्रहपरित्यागव्याख्यानमुख्य-
हवे, शिष्य प्रश्न करे छे के परिग्रहथी आत्माने महान मानतो जीव परमार्थने केम
जाणतो नथी? (तेनुं समाधान आचार्य करे छे)
एवी रीते एकतालीस सूत्रोना महास्थळमां परिग्रहत्यागना कथननी मुख्यताथी आठ
आगे शिष्य प्रश्न करता है, कि जो ग्रंथसे अपनेको महंत मानता है, वह परमार्थको
क्यों नहीं जानता ? इसका समाधान आचार्य करते हैं
गाथा९४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [परमार्थं ] परमार्थको [बुध्यमानानां ] समझनेवालोंके
[कोऽपि ] कोई जीव [गुरुः लघुः ] बड़ा छोटा [न अस्ति ] नहीं है, [सकला अपि ] सभी
[जीवाः ] जीव [परब्रह्म ] परब्रह्मस्वरूप हैं, [येन ] क्योंकि निश्चयनयसे [सोऽपि ] वह
सम्यग्दृष्टि शुद्धरूप ही [विजानाति ] सबको जानता है
भावार्थ :जो परमार्थको नहीं जानता, वह परिग्रहसे गुरुता समझता है, और परिग्रहके
न होनेसे लघुपना जानता है, यही भूल है यद्यपि गुरुता-लघुता कर्मके आवरणसे जीवोंमें पायी
जाती है, तो भी शुद्धनयसे सब समान हैं, तथा ब्रह्म अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी केवलज्ञानसे सबको
जानते हैं, सबको देखते हैं, उसी प्रकार निश्चयनयसे सम्यग्दृष्टि सब जीवोंको शुद्धरूप ही देखता
है
।।९४।।
इस तरह इकतालीस दोहोंके महास्थलमें परिग्रह त्यागके व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ

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अधिकार-२ः दोहा-९५ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७५
तया सूत्राष्टकेन तृतीयमन्तरस्थलं समाप्तम् अत ऊर्ध्वं त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं शुद्धनिश्चयेन सर्वे
जीवाः केवलज्ञानादिगुणैः समानास्तेन कारणेन षोडशवर्णिकासुवर्णवद्भेदो नास्तीति
प्रतिपादयति
तद्यथा
२२२) जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ
अच्छुउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ।।९५।।
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम्
तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां स तस्य करोति न भेदम् ।।९५।।
जो इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते जो यः भत्तउ भक्त : कस्य
रयण-त्तयहं रत्नत्रयस्य तसु तस्य पुरुषस्य मुणि मन्यस्व जानीहि किम् लक्खणु एउ लक्षणं
सूत्रोथी त्रीजुं अन्तरस्थळ समाप्त थयुं.
एना पछी तेर सूत्र सुधी शुद्धनिश्चयनयथी सर्वे जीवो केवळज्ञानादि गुणोथी-समान छे,
ते कारणे सोळवला सुवर्णनी जेम भेद नथी, एम कहे छे.
ते आ प्रमाणेः
भावार्थजे कोई वीतरागस्वसंवेदनवाळो ज्ञानी निश्चयनो (निश्चयनयनो) अथवा
दोहोंका तीसरा अंतरस्थल पूर्ण हुआ आगे तेरह दोहों तक शद्ध निश्चयसे सब जीव
केवलज्ञानादिगुणसे समान हैं, इसलिये सोलहवान (ताव) के सुवर्णकी तरह भेद नहीं है, सब
जीव समान हैं, ऐसा निश्चय करते हैं
वह ऐसे हैं
गाथा९५
अन्वयार्थ :[यः ] जो मुनि [रत्नत्रयस्य ] रत्नत्रयकी [भक्तः ] आराधना (सेवा)
करनेवाला है, [तस्य ] उसके [इदम् लक्षणं ] यह लक्षण [मन्यस्व ] जानना कि [कस्यामपि
कुडयां ] किसी शरीरमें जीव [तिष्ठतु ] रहे, [सः ] वह ज्ञानी [तस्य भेदम् ] उस जीवका भेद
[न करोति ] नहीं करता, अर्थात् देहके भेदसे गुरुता लघुताका भेद करता है, परंतु ज्ञानदृष्टिसे
सबको समान देखता है
भावार्थ :वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी निश्चयरत्नत्रयके आराधकका ये लक्षण

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३७६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९५
इदं प्रत्यक्षीभूतम् इदं किम् अच्छुउ कहिं वि कुडिल्लियइ तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां शरीरे
सो तसु करइ ण भेउ स ज्ञानी तस्य जीवस्य देहभेदेन भेदं न करोति तथाहि योऽसौ
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी निश्चयस्य निश्चयरत्नत्रयलक्षणपरमात्मनो वा भक्त : तस्येदं लक्षणं
जानिहि
हे प्रभाकरभट्ट क्वापि देहे तिष्ठतु जीवस्तथापि शुद्धनिश्चयेन षोडशवर्णिका-
सुवर्णवत्केवलज्ञानादिगुणैर्भेदं न करोतीति अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन् जीवानां यदि
देहभेदेन भेदो नास्ति तर्हि यथा केचन वदन्त्येक एव जीवस्तन्मतमायातम् भगवानाह
शुद्धसंग्रहनयेन सेनावनादिवज्जात्यपेक्षया भेदो नास्ति व्यवहारनयेन पुनर्व्यक्त्यपेक्षया वने
भिन्नभिन्नवृक्षवत् सेनायां भिन्नभिन्नहस्त्यश्वादिवद्भेदोऽस्तीति भावार्थः
।।९५।।
निश्चयरत्नत्रस्वरूप परमात्मानो भक्त छे तेनुं हे प्रभाकरभट्ट! आ लक्षण जाण के ते, जीव
गमे ते देहमां रह्यो होय, तोपण शुद्धनिश्चयनयथी सोळवला सोनानी माफक (जेम सोळवला
सोनामां वानभेद नथी तेम) केवळज्ञानादि (अनंत) गुणोनी अपेक्षाथी (समान होवाथी) तेमां
भेद करतो नथी.
आवुं कथन सांभळीने प्रभाकरभट्ट प्रश्न करे छे के, हे भगवान! जो जीवोमां
देहना भेदथी भेद नथी तो जेवी रीते कोई एक कहे छे के ‘एक ज जीव छे’ तेनो मत
सिद्ध थशे?
त्यारे भगवान योगीन्द्रदेव कहे छे के शुद्धसंग्रहनयथी सेना, वनादिनी माफक जाति-
अपेक्षाए जीवोमां भेद नथी पण व्यवहारनयथी व्यक्तिनी अपेक्षाए वनमां जुदां जुदां वृक्षो
छे, सेनामां भिन्न भिन्न हाथी, घोडा आदि छे तेम जीवोमां भेद छे, एवो भावार्थ
छे. ९५.
प्रभाकरभट्ट तू निःसंदेह जान, जो किसी शरीरमें कर्मके उदयसे जीव रहे, परंतु निश्चयसे शुद्ध,
बुद्ध (ज्ञानी) ही है
जैसे सोनेमें वानभेद है, वैसे जीवोंमें वानभेद नहीं है, केवलज्ञानादि
अनंत गुणोंसे सब जीव समान हैं ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, हे भगवन्,
जो जीवोंमें देहके भेदसे भेद नहीं है, सब समान हैं, तब जो वेदान्ती एक ही आत्मा मानते
हैं, उनको क्यों दोष देते हो ? तब श्रीगुरु उसका समाधान करते हैं,
कि शुद्धसंग्रहनयसे सेना
एक ही कही जाती है, लेकिन सेनामें अनेक हैं, तो भी ऐसे कहते हैं, कि सेना आयी, सेना
गयी, उसी प्रकार जातिकी अपेक्षासे जीवोंमें भेद नहीं हैं, सब एक जाति हैं, और व्यवहारनयसे
व्यक्तिकी अपेक्षा भिन्न
भिन्न हैं, अनंत जीव हैं, एक नहीं है जैसे वन एक कहा जाता है,
और वृक्ष जुदे जुदे हैं, उसी तरह जातिसे जीवोंमें एकता है, लेकिन द्रव्य जुदे जुदे हैं, तथा
जैसे सेना एक है, परन्तु हाथी, घोड़े, रथ, सुभट अनेक हैं, उसी तरह जीवोंमें जानना
।।९५।।

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अधिकार-२ः दोहा-९६ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७७
अथ त्रिभुवनस्थजीवानां मूढा भेदं कुर्वन्ति, ज्ञानिनस्तु भिन्नभिन्नसुवर्णानां षोडश-
वर्णिकैकत्ववत्केवलज्ञानलक्षणेनैकत्वं जानन्तीति दर्शयति
२२३) जीवहँ तिहुयण-संठियहँ मूढा भेउ करंति
केवल-णाणिं णाणि फु डु सयलु वि एक्कु मुणंति ।।९६।।
जीवानां त्रिभुवनसंस्थितानां मूढा भेदं कुर्वन्ति
केवलज्ञानेन ज्ञानिनः स्फु टं सकलमपि एकं मन्यन्ते ।।९६।।
जीवहं इत्यादि जीवहं तिहुयण-संठियहं श्वेतकृष्णरक्तादिभिन्नभिन्नवस्त्रैर्वेष्टितानां
षोडशवर्णिकानां भिन्नभिन्नसुवर्णानां यथा व्यवहारेण वस्त्रवेष्टनभेदेन भेदः तथा त्रिभुवन-
संस्थितानां जीवानां व्यवहारेण भेदं
द्रष्ट्वा निश्चयनयेनापि मूढा भेउ करंति मूढात्मानो भेदं
हवे, मूढ जीवो त्रण लोकमां रहेला जीवोना भेद करे छे पण ज्ञानीओ तो, जुदा
जुदा सोनामां सोळवलापणाथी एकत्व छे तेम जीवोमां केवळज्ञानप्रमाणथी एकत्व जाणे छे,
एम दर्शावे छेः
भावार्थश्वेत, कृष्ण, रक्त आदि जुदां जुदां वस्त्रोथी वींटायेल जुदां जुदां सोळवलां
सोनाना जेवी रीते व्यवहारनयथी वस्त्रनां वींटायेला भेदथी भेद छे, तेवी रीते त्रण लोकमां रहेला
जीवोना व्यवहारथी भेद देखीने मूढ जीवो निश्चयनयथी पण भेद करे छे अने वीतराग
आगे तीन लोकमें रहनेवाले जीवोंका अज्ञानी भेद करते हैं जीवपनेसे कोई कम-बढ़
नहीं हैं, कर्मके उदयसे शरीरभेद हैं, परंतु द्रव्यकर सब समान हैं जैसे सोनेमें वानभेद है,
वैसे ही परके संयोगसे भेद मालूम होता है, तो भी सुवर्णपनेसे सब समान हैं, ऐसा दिखलाते
हैं
गाथा९६
अन्वयार्थ :[त्रिभुवनसंस्थितानां ] तीन भुवनमें रहनेवाले [जीवानां ] जीवोंका
[मूढाः ] मूर्ख ही [भेदं ] भेद [कुर्वंति ] करते हैं, और [ज्ञानिनः ] ज्ञानी जीव [केवलज्ञानेन ]
केवलज्ञानसे [स्फु टं ] प्रगट [सकलमपि ] सब जीवोंको [एकं मन्यंते ] समान जानते हैं
भावार्थ :व्यवहारनयकर सोलहवानके सुवर्ण भिन्न भिन्न वस्त्रोंमें लपेटें तो वस्त्रके
भेदसे भेद है, परंतु सुवर्णपनेसे भेद नहीं है, उसी प्रकार तीन लोकमें तिष्ठे हुए जीवोंका व्यवहार-
नयसे शरीरके भेदसे भेद है, परंतु जीवपनेसे भेद नहीं है
देहका भेद देखकर मूढ़ जीव भेद

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३७८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९७
कुर्वन्ति केवल-णाणिं वीतरागसदानन्दैकसुखाविनाभूतकेवलज्ञानेन वीतरागस्वसंवेदन णाणि
ज्ञानिनः फु डु स्फु टं निश्चितं सयलु वि समस्तमपि जीवराशिं एक्कु मुणंति संग्रहनयेन समुदायं
प्रत्येकं मन्यन्त इति अभिप्रायः
।।९६।।
अथ केवलज्ञानादिलक्षणेन शुद्धसंग्रहनयेन सर्वे जीवाः समाना इति कथयति
२२४) जीवा सयल वि णाण-मय जम्मण-मरण-विमुक्क
जीव-पएसहिँ सयल सम सयल वि सगुणहिँ एक्क ।।९७।।
जीवाः सकला अपि ज्ञानमया जन्ममरणविमुक्ताः
जीवप्रदेशैः सकलाः समाः सकला अपि स्वगुणैरेके ।।९७।।
जीवा इत्यादि जीवा सयल वि णाण-मय व्यवहारेण लोकालोकप्रकाशकं निश्चयेन
स्वशुद्धात्मग्राहकं यत्केवलज्ञानं तज्ज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण केवलज्ञानावरणेन झंपितं तिष्ठति
स्वसंवेदनवाळा ज्ञानीओ एक (केवळ) वीतराग सदानंदरूप सुखनी साथे अविनाभावी
केवळज्ञानथी निश्चयथी समस्त जीवराशिने संग्रहनयथी समुदायरूप एक माने छे. ९६.
हवे, शुद्धसंग्रहनयथी केवळज्ञानादि लक्षणथी सर्व जीवो समान छे, एम कहे छेः
भावार्थः‘जीवा सयल वि णाणमय’ व्यवहारनयथी लोकालोक प्रकाशक अने
निश्चयनयथी स्वशुद्धात्मनुं ग्राहक जे केवळज्ञान छे ते ज्ञान जोके व्यवहारनयथी केवळ-
मानते हैं, और वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी जीवपनेसे सब जीवोंको समान मानता है सभी जीव
केवलज्ञानवेलिके कंद सुखपंक्ति है, कोई कम बढ़ नहीं है ।।९६।।
आगे केवलज्ञानादि लक्षणसे शुद्धसंग्रहनयकर सब जीव एक हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा९७
अन्वयार्थ :[सकला अपि ] सभी [जीवाः ] जीव [ज्ञानमयाः ] ज्ञानमयी हैं, और
[जन्ममरणविमुक्ताः ] जन्म-मरण सहित [जीवप्रदेशैः ] अपने अपने प्रदेशोंसे [सकलाः
समाः ] सब समान हैं, [अपि ] और [सकलाः ] सब जीव [स्वगुणैः एके ] अपने
केवलज्ञानादि गुणोंसे समान हैं
भावार्थ :व्यवहारसे लोक-अलोकका प्रकाशक और निश्चयनयसे निज
शुद्धात्मद्रव्यका ग्रहण करनेवाला जो केवलज्ञान वह यद्यपि व्यवहारनयसे केवलज्ञानावरणकर्मसे
१. पाठान्तरःवीतरागस्वसंवेदेन णाणि ज्ञानिनः = णाणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनः

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अधिकार-२ः दोहा-९७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३७९
तथाऽपि शुद्धनिश्चयेन तदावरणाभावात् पूर्वोक्त लक्षणकेवलज्ञानेन निवृत्तत्वात्सर्वेऽपि जीवा
ज्ञानमयाः
जम्मण-मरण-विमुक्क व्यवहारनयेन यद्यपि जन्ममरणसहितास्तथापि निश्चयेन वीतराग-
निजानन्दैकरूपसुखामृतमयत्वादनाद्यनिधनत्वाच्च शुद्धात्मस्वरूपाद्विलक्षणस्य जन्ममरणनिर्वर्तकस्य
कर्मण उदयाभावाज्जन्ममरणविमुक्ताः
जीव-पएसहिं सयल सम यद्यपि संसारावस्थायां
व्यवहारेणोपसंहारविस्तारयुक्त त्वाद्देहमात्रा मुक्तावस्थायां तु किंचिदूनचरमशरीरप्रमाणास्तथापि
निश्चयनयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वहानिवृद्धयभावात् स्वकीयस्वकीयजीवप्रदेशैः सर्वे
समानाः
सयल वि सगुणहिं एक्क यद्यपि व्यवहारेणाव्याबाधानन्तसुखादिगुणाः संसारावस्थायां
कर्मझंपितास्तिष्ठन्ति, तथापि निश्चयेन कर्माभावात् सर्वेऽपि स्वगुणैरेकप्रमाणा इति अत्र यदुक्तं
ज्ञानावरणथी ढंकायेलुं छे तोपण शुद्धनिश्चयनयथी केवळज्ञानावरणनो अभाव होवाथी पूर्वोक्त
लक्षणवाळा केवळज्ञानथी रचायेल होवाथी सर्वे जीवो ज्ञानमय छे.
‘जम्ममरणविमुक्ताः’
व्यवहारनयथी जोके जन्ममरणसहित छे तोपण निश्चयनयथी वीतराग निजानंद जेनुं एक रूप
छे एवा सुखामृतमय होवाथी अने अनादि अनंत होवाथी अने शुद्धात्मस्वरूपथी विलक्षण जन्म
-मरणने उत्पन्न करनार कर्मना उदयना अभावथी जन्म-मरण रहित छे.
‘जीव पएसहिं सयल सम’ जोके संसार-अवस्थामां व्यवहारनयथी संकोच-विस्तार सहित
होवाथी देहमात्र छे अने मुक्त-अवस्थामां चरमशरीरथी किंचित् न्यून शरीरप्रमाण छे तोपण
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यप्रदेशत्वनी हानि-वृद्धि न होवाथी पोतपोताना जीवप्रदेशोथी
सर्व जीवो समान छे.
‘सयल वि सगुणहिं एक्क’ जोके व्यवहारनयथी अव्याबाध, अनंतसुखादि गुणो संसार-
अवस्थामां कर्मोथी आच्छादित छे तोपण निश्चयनयथी कर्मनो अभाव होवाथी सर्व जीवो
पोतपोताना गुणोथी एकसरखा छे.
ढँका हुआ है, तो भी शुद्ध निश्चयसे केवलज्ञानावरणका अभाव होनेसे केवलज्ञानस्वभावसे सभी
जीव केवलज्ञानमयी हैं
यद्यपि व्यवहारनयकर सब संसारी जीव जन्म-मरण सहित हैं, तो भी
निश्चयनयकर वीतराग निजानंदरूप अतीन्द्रिय सुखमयी हैं, जिनकी आदि भी नहीं और अंत
भी नहीं ऐसे हैं, शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत जन्म मरणके उत्पन्न करनेवाले जो कर्म उनके उदयके
अभावसे जन्म-मरण रहित हैं
यद्यपि संसारअवस्थामें व्यवहारनयकर प्रदेशोंका संकोच
विस्तारको धारण करते हुए देहप्रमाण हैं, और मुक्त - अवस्थामें चरम (अंतिम) शरीरसे कुछ
कम देहप्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं, हानिवृद्धि न
होनेसे अपने प्रदेशोंकर सब समान हैं, और यद्यपि व्यवहारनयसे संसार - अवस्थामें इन जीवोंके
अव्याबाध अनंत सुखादिगुण कर्मोंसे ढँके हुए हैं, तो भी निश्चयनयकर कर्मके अभावसे सभी

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३८० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९८
शुद्धात्मनः स्वरूपं तदेवोपादेयमिति तात्पर्यम् ।।९७।।
अथ जीवानां ज्ञानदर्शनलक्षणं प्रतिपादयति
२२५) जीवहँ लक्खणु जिणवरहि भासिउ दंसण-णाणु
तेण ण किज्जइ भेउ तहँ जइ मणि जाउ विहाणु ।।९८।।
जीवानां लक्षणं जिनवरैः भाषितं दर्शनं ज्ञानं
तेन न क्रियते भेदः तेषां यदि मनसि जातो विभातः ।।९८।।
जीवहं इत्यादि जीवहं लक्खणु जिणवरहिं भासिउ दंसण-णाणु यद्यपि व्यवहारेण
संसारावस्थायां मत्यादिज्ञानं चक्षुरादिदर्शनं जीवानां लक्षणं भवति तथापि निश्चयेन केवलदर्शनं
केवलज्ञानं च लक्षणं भाषितम्
कैः जिनवरैः तेण ण किञ्जइ भेउ तहँ तेन कारणेन
व्यवहारेण देहभेदेऽपि केवलज्ञानदर्शनरूपनिश्चयलक्षणेन तेषां न क्रियते भेदः यदि किम् जइ
अहीं, शुद्धात्मानुं जे स्वरूप कह्युं छे ते ज उपादेय छे, एवुं तात्पर्य छे. ९७.
हवे, ज्ञानदर्शन जीवोनुं लक्षण छे, एम कहे छेः
भावार्थजोके व्यवहारनयथी संसार-अवस्थामां मति आदि ज्ञान, चक्षु आदि दर्शन
जीवोनुं लक्षण छे, तोपण निश्चयनयथी केवळदर्शन अने केवळज्ञान जीवोनुं लक्षण छे, एम
जिनवरदेवे कह्युं छे. तेथी जो तारा मनमां वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूपी सूर्यना उदयथी
जीव गुणोंकर समान हैं ऐसा जो शुद्ध आत्माका स्वरूप है, वही ध्यान करने योग्य है ।।९७।।
आगे जीवोंका ज्ञानदर्शन लक्षण कहते हैं
गाथा९८
अन्वयार्थ :[जीवानां लक्षणं ] जीवोंका लक्षण [जिनवरैः ] जिनेंद्रदेवने [दर्शनं
ज्ञानं ] दर्शन और ज्ञान [भाषितं ] कहा है, [तेन ] इसलिए [तेषां ] उन जीवोंमें [भेदः ] भेद
[न क्रियते ] मत कर, [यदि ] अगर [मनसि ] तेरे मनमें [विभातः जातः ] ज्ञानरूपी सूर्यका
उदय हो गया है, अर्थात् हे शिष्य, तू सबको समान जान
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे संसारीअवस्थामें मत्यादि ज्ञान, और चक्षुरादि दर्शन
जीवके लक्षण कहे हैं, तो भी निश्चयनयकरकेवलदर्शन केवलज्ञान ये ही लक्षण हैं, ऐसा
जिनेंद्रदेवने वर्णन किया है इसलिये व्यवहारनयकर देहभेदसे भी भेद नहीं है,
केवलज्ञानदर्शनरूप निजलक्षणकर सब समान हैं, कोई भी बड़ा-छोटा नहीं है जो तेरे मनमें

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अधिकार-२ः दोहा-९८ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८१
मणि जाउ विहाणु यदि चेन्मनसि वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानादित्योदयेन जातः कोऽसौ
प्रभातसमय इति अत्र यद्यपि षोडशवर्णिकालक्षणं बहूनां सुवर्णानां मध्ये समानं
तथाप्येकस्मिन् सुवर्णे गृहीते शेषसुवर्णानि सहैव नायान्ति कस्मात् भिन्नभिन्नप्रदेशत्वात् तथा
यद्यपि केवलज्ञानदर्शनलक्षणं समानं सर्वजीवानां तथाप्येकस्मिन् विवक्षितजीवे पृथक्कृते शेषजीवा
सहैव नायान्ति
कस्मात् भिन्नभिन्नप्रदेशत्वात् तेन कारणेन ज्ञायते यद्यपि
केवलज्ञानदर्शनलक्षणं समानं तथापि प्रदेशभेदोऽस्तीति भावार्थः ।।९८।।
अथ शुद्धात्मनां जीवजातिरूपेणैकत्वं दर्शयति
२२६) बंभहँ भुवणि वसंताहँ जे णवि भेउ करंति
ते परमप्पपयासयर जोइय विमलु मुणंति ।।९९।।
प्रभातनो समय थयो होय तो व्यवहारनयथी देहभेद होवा छतां केवळदर्शनरूप निश्चयलक्षणथी
तेमनामां भेद करवामां आवतो नथी.
अहीं, जोके सर्व सुवर्णनुं सोळवलुं लक्षण समान छे तोपण तेमांथी कोई एक सुवर्णने
ग्रहण करतां, बाकीनुं सुवर्ण एक साथे आवी जतुं नथी तेनुं कारण ए छे के सर्व सुवर्णना प्रदेशो
भिन्न-भिन्न छे. तेवी रीते जोके जीवोनुं ज्ञानदर्शनलक्षण समान छे तोपण विवक्षित जीव जुदो
ग्रहण करतां, बाकीना जीवो एक साथे ज आवी जता नथी तेनुं कारण ए छे के सर्व जीवना
प्रदेशो भिन्न-भिन्न छे. ते कारणे एम जणाय छे के केवळज्ञान अने केवळदर्शननुं लक्षण सरखुं
छे तोपण प्रदेशभेद छे, एवो भावार्थ छे. ९८.
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूप सूर्यका उदय हुआ है, और मोहनिद्राके अभावसे
आत्म - बोधरूप प्रभात हुआ है, तो तू सबोंको समान देख जैसे यद्यपि सोलहवानीके सोने सब
समान वृत्त हैं, तो भी उन सुवर्णराशियोंमें से एक सुवर्णको ग्रहण किया, तो उसके ग्रहण
करनेसे सब सुवर्ण साथ नहीं आते, क्योंकि सबके प्रदेश भिन्न हैं, उसी प्रकार यद्यपि केवलज्ञान
दर्शन लक्षण सब जीव समान हैं, तो भी एक जीवका ग्रहण करनेसे सबका ग्रहण नहीं होता
क्योंकि प्रदेश सबके भिन्न-भिन्न हैं, इससे यह निश्चय हुआ, कि यद्यपि केवलज्ञान दर्शन
लक्षणसे सब जीव समान हैं, तो भी प्रदेश सबके जुदे-जुदे हैं, यह तात्पर्य जानना
।।९८।।
आगे जातिके कथनसे सब जीवोंकी एक जाति है, परन्तु द्रव्य अनन्त हैं, ऐसा दिखलाते
हैं
१ पाठान्तरः षोडशवर्णिकालक्षणं बहूनां सुवर्णानां मध्ये समानं = षोडशवर्णिका समानानां बहूनां सुवर्णानां
मध्ये

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३८२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-९९
ब्रह्मणां भुवने वसतां ये नैव भेदं कुर्वन्ति
ते परमात्मप्रकाशकराः योगिनः विमलं मन्यन्ते ।।९९।।
बंभहं इत्यादि बंभहं ब्रह्मणः शुद्धात्मनः किं कुर्वतः भुवणि वसंताहं भुवने
त्रिभुवने वसंतः तिष्ठतः जे णवि भेउ करंति ये नैव भेदं कुर्वन्ति केन शुद्धसंग्रहनयेन
ते परमप्प-पयासयर ते ज्ञानिनः परमात्मस्वरूपस्य प्रकाशकाः सन्त जोइय हे योगिन्
अथवा बहुवचनेन हे योगिनः
किं कुर्वन्ति विमलु मुणंति विमलं संशयादिरहितं
शुद्धात्मस्वरूपं मन्यन्ते जानन्तीति तद्यथा यद्यपि जीवराश्यपेक्षया तेषामेकत्वं भण्यते
तथापि व्यक्त्यपेक्षया प्रदेशभेदेन भिन्नत्वं नगरस्य गृहादिपुरुषादिभेदवत् कश्चिदाह
यथैकोऽपि चन्द्रमा बहुजलघटेषु भिन्नभिन्नरूपेण द्रश्यते तथैकोऽपि जीवो बहुशरीरेषु
हवे, जीवोनी जातिरूपे (जीवनी जातिनी अपेक्षाए) शुद्धात्मानुं एकत्व दर्शावे छेः
भावार्थजेवी रीते नगरना घर आदि अने पुरुषादिनुं पोतानी जातिनी अपेक्षाए
एकपणुं छे तोपण व्यक्तिनी अपेक्षाए तेमनुं भिन्नपणुं छे तेवी रीते जोके जीवराशिनी अपेक्षाए
तेमनुं एकत्व कह्युं छे, तोपण व्यक्ति-अपेक्षाए प्रदेशभेदथी तेमनुं भिन्नपणुं छे.
अहीं, कोई कहे छे केजेवी रीते चंद्र एक होवा छतां जळथी भरेला अनेक
घडामां भिन्न-भिन्नरूपे देखाय छे. तेवी रीते जीव एक होवा छतां पण अनेक शरीरमां
भिन्न-भिन्नरूपे देखाय छे. श्री गुरु तेमनुं समाधान करे छे
जळथी भरेला अनेक घडामां
चंद्रना किरणोनी उपाधिना विशे जळजातिना पुद्गलो ज चंद्राकारे परिणम्या छे, पण
गाथा९९
अन्वयार्थ :[भुवने ] इस लोकमें [वसन्तः ] रहनेवाले [ब्रह्मणः ] जीवोंका [भेदं ]
भेद [नैव ] नहीं [कुर्वति ] करते हैं, [ते ] वे [परमात्मप्रकाशकराः ] परमात्माके प्रकाश
करनेवाले [योगिन् ] योगी, [विमलं ] अपने निर्मल आत्माको [जानंति ] जानते हैं
इसमें संदेह
नहीं है
भावार्थ :यद्यपि जीवराशिकी अपेक्षा जीवोंकी एकता है, तो भी प्रदेशभेदसे
प्रगटरूप सब जुदे-जुदे हैं जैसे वृक्ष जातिकर वृक्षोंका एकपना है, तो भी सब वृक्ष जुदे
जुदे हैं, और पहाड़जातिसे सब पहाड़ोंका एकत्व है, तो भी सब जुदे-जुदे हैं, तथा रत्न
जातिसे रत्नोंका एकत्व है, परन्तु सब रत्न पृथक् पृथक् हैं, घटजातिकी अपेक्षा सब
घटोंका एकपना है, परंतु सब जुदे-जुदे हैं, और पुरुषजातिकर सबकी एकता है, परंतु
सब अलग अलग हैं उसी प्रकार जीवजातिकी अपेक्षासे सब जीवोंका एकपना है, तो

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अधिकार-२ः दोहा-९९ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८३
भिन्नभिन्नरूपेण द्रश्यत इति परिहारमाह बहुषु जलघटेषु चन्द्रकिरणोपाधिवशेन जलपुद्गला
एव चन्द्राकारेण परिणता न चाकाशस्थचन्द्रमाः अत्र द्रष्टान्तमाह यथा
देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणानां पुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणमन्ति न च
देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणमति
यदि परिणमति तदा दर्पणस्थं मुखप्रतिबिम्बं चेतनत्वं
प्राप्नोति, न च तथा, तथैकचन्द्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति किं च न चैको
ब्रह्मनामा कोऽपि द्रश्यते प्रत्यक्षेण यश्चन्द्रवन्नानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्रायः ।।९९।।
अथ सर्वजीवविषये समदर्शित्वं मुक्ति कारणमिति प्रकटयति
आकाशमां रहेलो चंद्र परिणम्यो नथी. अहीं तेनुं द्रष्टांत आपे छे. जेवी रीते देवदत्तना
मुखनी उपाधिना वशे अनेक दर्पणोनां पुद्गलो ज मुखना अनेक आकाररूपे परिणमे छे
पण देवदत्तनुं मुख अनेकरूपे (अनेक आकार रूपे) परिणमतुं नथी. जो (देवदत्तनुं मुख
अनेक आकाररूपे) परिणमतुं होय तो दर्पणमां रहेला मुखनुं प्रतिबिंब चेतनपणाने पामे,
पण तेम थतुं नथी (पण चेतन थतुं नथी). तेवी रीते एक चंद्रमा पण अनेकरूपे
परिणमतो नथी.
वळी, एक ब्रह्म नामनो कोई प्रत्यक्षपणे जोवामां आवतो नथी के जे चंद्रनी पेठे
अनेकरूपे थतो होय, एवो अभिप्राय छे. ९९.
भी प्रदेशोंके भेदसे सब ही जीव जुदे-जुदे हैं इस पर कोई परवादी प्रश्न करता है कि
जैसे एक ही चन्द्रमा जलके भरे बहुत घड़ोंमें जुदा जुदा भासता है, उसी प्रकार एक ही
जीव बहुत शरीरों में भिन्न-भिन्न भास रहा है
उसका श्रीगुरु समाधान करते हैंजो बहुत
जलके घड़ोंमें चन्द्रमाकी किरणोंकी उपाधिसे जलजातिके पुद्गल ही चन्द्रमाके आकारके
परिणत हो गये हैं, लेकिन आकाशमें स्थित चन्द्रमा तो एक ही है, चन्द्रमा तो बहुत
स्वरूप नहीं हो गया
उनका दृष्टान्त देते हैं जैसे कोई देवदत्तनामा पुरुष उसके मुखकी
उपाधि (निमित्त) से अनेक प्रकारके दर्पणोंसे शोभायमान काचका महल उसमें वे
काचरूप पुद्गल ही अनेक मुखके आकारके परिणत हुए हैं, कुछ देवदत्तका मुख
अनेकरूप नहीं परिणत हुआ है, मुख एक ही है
जो कदाचित् देवदत्तका मुख अनेकरूप
परिणमन करे, तो दर्पणमें तिष्ठते हुए मुखोंके प्रतिबिम्ब चेतन हो जावें परंतु चेतन नहीं
होते, जड़ ही रहते हैं, उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेकरूप नहीं परिणमता वे जलरूप
पुद्गल ही चन्द्रमा के आकारमें परिणत हो जाते हैं इसलिए ऐसा निश्चय समझना, कि
जो कोई ऐसा कहते हैं कि एक ही ब्रह्मके नानारूप दिखते हैं यह कहना ठीक नहीं
है जीव जुदे-जुदे हैं ।।९९।।

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३८४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१००
२२७) रायदोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियंति
ते समभावि परिट्ठिया लहु णिव्वाणु लहंति ।।१००।।
रागद्वेषौ द्वौ परिहृत्य ये समान् जीवान् पश्यन्ति
ते समभावे प्रतिष्ठिताः लघु निर्वाणं लभन्ते ।।१००।।
राय इत्यादि पदस्वण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते राय-दोस बे परिहरिवि
वीतरागनिजानन्दैकस्वरूपस्वशुद्धात्मद्रव्यभावनाविलक्षणौ रागद्वेषौ परिहृत्य जे ये केचन सम
जीव णियंति सर्वसाधारणकेवलज्ञानदर्शनलक्षणेन समानान् सद्रशान् जीवान् निर्गच्छन्ति
जानन्ति ते ते पुरुषाः कथंभूताः सम-भावि परिट्ठिया जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादि-
समताभावनारूपे समभावे प्रतिष्ठिताः सन्तः लहु णिव्वाणु लहंति लघु शीघ्रं आत्यन्तिक-
हवे, सर्व जीवोमां समदर्शीपणुं मुक्तिनुं कारण छे, एम प्रगट करे छेः
भावार्थःजे कोई वीतराग निजानंद जेनुं एक स्वरूप छे एवा शुद्धात्मद्रव्यनी
भावनाथी विलक्षण रागद्वेषने छोडीने जीवोने सर्वसाधारण केवळज्ञान अने केवळदर्शनना
लक्षणथी समान
सद्रशजाणे छे ते पुरुषो जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदिमां
समताभावनारूप समभावमां रह्या थका शीघ्र आत्यन्तिक एक स्वभावरूप अचिंत्य, अद्भुत
केवळज्ञानादि (अनंत) गुणोनुं स्थान एवा निर्वाणने पामे छे.
आगे ऐसा कहते हैं, कि सब ही जीव द्रव्य से तो जुदे-जुदे हैं, परंतु जातिसे एक हैं,
और गुणोंकर समान हैं, ऐसी धारणा करना मुक्तिका कारण है
गाथा१००
अन्वयार्थ :[ये ] जो [रागद्वेषौ ] राग और द्वेषको [परिहृत्य ] दूर करके [जीवाः
समाः ] सब जीवोंको समान [निर्गच्छंति ] जानते हैं, [ते ] वे साधु [समभावे ] समभावमें
[प्रतिष्ठिताः ] विराजमान [लघु ] शीघ्र ही [निर्वाणं ] मोक्षको [लभंते ] पाते हैं
भावार्थ :वीतराग निजानंदस्वरूप जो निज आत्मद्रव्य उसकी भावनासे विमुख जो
राग-द्वेष उनको छोड़कर जो महान् पुरुष केवलज्ञान दर्शन लक्षणकर सब ही जीवोंकी समान
गिनते हैं, वे पुरुष समभावमें स्थित शीघ्र ही शिवपुरको पाते हैं
समभावका लक्षण ऐसा है,
कि जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःखादि सबको समान जानें जो अनन्त सिद्ध हुए
और होवेंगे, यह सब समभावका प्रभाव है समभावसे मोक्ष मिलता है कैसा है वह

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अधिकार-२ः दोहा-१०१ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८५
स्वभावैकाचिन्त्याद्भुतकेवलज्ञानादिगुणास्पदं निर्वाणं लभन्त इति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा
रागद्वेषौ त्यक्त्वा च शुद्धात्मानुभूतिरूपा समभावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।१००।।
अथ सर्वजीवसाधारणं केवलज्ञानदर्शनलक्षणं प्रकाशयति
२२८) जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि
देहविभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ।।१०१।।
जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव
देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ।।१०१।।
जीवहं इत्यादि जीवहं जीवानां दंसणु णाणु जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायाणां
क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन परिच्छित्तिसमर्थं विशुद्धदर्शनं ज्ञानं च जिय हे जीव लक्खणु जाणइ जो
अहीं, आ कथन जाणीने अने राग-द्वेषने त्यागीने शुद्धात्मानी अनुभूतिरूप
समभावना करवी, एवो अभिप्राय छे. १००.
हवे, केवळदर्शन अने केवळज्ञान सर्व जीवोनुं साधारण (सामान्य) लक्षण छे, एम
प्रगट करे छे (कोईपण जीव एना विनानो नथी. सर्व जीवोमां ए गुणो शक्तिरूपे होय
छे, एम कहे छे.)ः
भावार्थत्रण लोक अने त्रण काळवर्ती समस्त द्रव्यगुण पर्यायोने क्रम, कारण अने
मोक्षस्थान, जो अत्यंत अद्भुत अचिंत्य केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंका स्थान है यहाँ यह
व्याख्यान जानकर राग-द्वेषको छोड़के शुद्धात्माके अनुभवरूप जो समभाव उसका सेवन सदा
करना चाहिए
यही इस ग्रंथका अभिप्राय है ।।१००।।
आगे सब जीवोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन साधारण लक्षण हैं, इनके बिना कोई
जीव नहीं है ये गुण शक्तिरूप सब जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा१०१
अन्वयार्थ :[जीवानां ] जीवोंके [दर्शनं ज्ञानं ] दर्शन और ज्ञान [लक्षणं ] निज
लक्षण को [य एव ] जो कोई [जानाति ] जानता है, [जीव ] हे जीव, [स एव ज्ञानी ] वही
ज्ञानी [देहविभेदेन ] देहके भेदसे [तेषां भेदं ] उन जीवोंके भेद को [किं मन्यते ] क्या मान
सकता है, नहीं मान सकता
भावार्थ :तीन लोक और तीन कालवर्त्ती समस्त द्रव्य गुण पर्यायोंको एक ही

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३८६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०१
जि लक्षणं जानाति य एव देह-विभेएं भेउ तहं देहविभेदेन भेदं तेषां जीवानां,
देहोद्भवविषयसुखरसास्वादविलक्षणशुद्धात्मभावनारहितेन जीवेन यान्युपार्जितानि कर्माणि
तदुदयेनोत्पन्नेन देहभेदेन जीवानां भेदं णाणि किं मण्णइ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी किं मन्यते नैव
कम् सो जि तमेव पूर्वोक्तं देहभेदमिति अत्र ये केचन ब्रह्माद्वैतवादिनो नानाजीवान्न मन्यन्ते
तन्मतेन विवक्षितैकजीवस्य जीवितमरणसुखदुःखादिके जाते सर्वजीवानां तस्मिन्नेव क्षणे
जीवितमरणसुखदुःखादिकं प्राप्नोति
कस्मादिति चेत् एकजीवत्वादिति न च तथा द्रश्यते इति
भावार्थः ।।१०१।।
व्यवधानरहितपणे देखवा-जाणवामां समर्थ एवां विशुद्धदर्शन अने विशुद्धज्ञान जीवोनुं लक्षण
छे, एम जे जाणे छे ते वीतराग स्वसंवेदनवाळा ज्ञानी शुं देहथी उद्भवता विषयसुखरसना
आस्वादथी विलक्षण शुद्धात्मानी भावनाथी रहित जीवे जे कर्मो उपार्जित कर्यां छे तेना उदयथी
उत्पन्न देहभेदथी जीवोना भेद माने? (कदी पण न माने.)
अहीं, जे कोई ब्रह्माद्वैतवादीओ (वेदान्तीओ) अनेक जीवोने मानता नथी (अने एक
ज जीव माने छे) तेमनी ए वात अप्रमाण छे, कारण के तेमना मतानुसार ‘एक ज
जीवने’ मानवामां बहु भारे दोष आवे छे. तेना मत अनुसारे विवक्षित एक जीवने
जीवित-मरण सुख-दुःखादि थतां, सर्व जीवोने ते ज क्षणे जीवित-मरण सुख-दुःखादि थवां
जोईए; शा माटे? कारण के तेमना मतमां ‘एक ज जीव छे’ एवी मान्यता छे. पण एवुं
(अहीं) जोवामां आवतुं नथी, (एक ज जीवने जीवित-मरणादि थतां बधाने जीवित-मरण
थतां जोवामां आवतां नथी) एवो भावार्थ छे. १०१.
समयमें जाननेमें समर्थ जो केवलदर्शन केवलज्ञान है, उसे निज लक्षणोंसे जो कोई जानता है,
वही सिद्ध
- पद पाता है जो ज्ञानी अच्छी तरह इन निज लक्षणोंको जान लेवे वह देहके भेदसे
जीवोंका भेद नहीं मान सकता अर्थात् देहसे उत्पन्न जो विषयसुख उनके रसके आस्वादसे
विमुख शुद्धात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किये जो ज्ञानावरणादिकर्म, उनके
उदयसे उत्पन्न हुए देहादिक के भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान
सकता
देहमें भेद हुआ तो क्या, गुणसे सब समान हैं, और जीवजातिकर एक हैं यहाँ
पर जो कोई ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती नाना जीवोंको नहीं मानते हैं, और वे एक ही जीव मानते
हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है
उनके मतमें एक ही जीवके माननेसे बड़ा भारी दोष होता
है वह इस तरह है, कि एक जीवके जीने-मरने, सुख-दुःखादिके होने पर सब जीवोंके उसी
समय जीना, मरना, सुख, दुःखादि होना चाहिये, क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक है परन्तु ऐसा
देखनेमें नहीं आता इसलिये उनका वस्तु एक मानना वृथा है, ऐसा जानो ।।१०१।।
१ पाठान्तरःतदुयेनोत्पन्नेन = तदुयोत्पन्नेन