Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 102,103,104,105,106,107 (Adhikar 2),108 (Adhikar 2) Pardravyana Sambadhano Tyag,109 (Adhikar 2),110 (Adhikar 2) Tyaganu Drashtant,111 (Adhikar 2) Mohano Tyag,111 (Adhikar 2)*2,111 (Adhikar 2)*3,111 (Adhikar 2)*4.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 21 of 29

 

Page 387 of 565
PDF/HTML Page 401 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०२ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८७
अथ जीवानां निश्चयनयेन योऽसौ देहभेदेन भेदं करोति स जीवानां दर्शन-
ज्ञानचारित्रलक्षणं न जानातीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति
२२९) देहविभेयइँ जो कुणइ जीवइँ भेउ विचित्तु
सो णवि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरित्तु ।।१०२।।
देहविभेदेन यः करोति जीवानां भेदं विचित्रम्
स नैव लक्षणं मनुते तेषां दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।।१०२।।
देह इत्यादि देह-विभेयइँ देहममत्वमूलभूतानां ख्यातिपूजालाभस्वरूपादीनां अपध्यानानां
विपरीतस्य स्वशुद्धात्मध्यानस्याभावे यानि कृतानि कर्माणि तदुदयजनितेन देहभेदेन जो कुणइ
यः करोति
कम् जीवइं भेउ विचित्तु जीवानां भेदं विचित्रं नरनारकादिदेहरूपं सो णवि
हवे, निश्चयनयथी जे देहना भेदथी जीवोना भेद करे छे ते जीवोनुं दर्शन
-ज्ञान-चारित्रलक्षण जाणतो नथी एवो अभिप्राय मनमां राखीने आ गाथासूत्र कहे छेः
भावार्थदेहना ममत्वनुं मूळ कारण जे ख्याति-पूजा-लाभस्वरूप आदि अपध्यानो,
(आर्तरौद्रस्वरूप माठां ध्यानो) तेमनाथी विपरीत, स्वशुद्धात्मध्यानना अभावमां जे कर्मो उपार्जित
कर्यां होय तेमना उदयथी उत्पन्न देहना भेदथी जीवोनां नर-नारकादि देहरूप अनेक प्रकारना भेदने
जे करे छे ते, जीवोनुं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र लक्षण छे एम जाणतो नथी.
आगे जीव ही को जानते हैं, परंतु उसके लक्षण नहीं जानते, वह अभिप्राय मनमें रखकर
व्याख्यान करते हैं
गाथा१०२
अन्वयार्थ :[यः ] जो [देहविभेदेन ] शरीरोंके भेदसे [जीवानां ] जीवोंका
[विचित्रम् ] नानारूप [भेदं ] भेद [करोति ] करता है, [स ] वह [तेषां ] उन जीवोंका [दर्शनं
ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [लक्षणं ] लक्षण [नैव मनुते ] नहीं जानता, अर्थात् उसको
गुणोंकी परीक्षा (पहचान) नहीं है
भावार्थ :देहके ममत्वके मूल कारण ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा और लाभरूप
जो आर्त रौद्रस्वरूप खोटे ध्यान उनसे निज शुद्धात्माका ध्यान उसके अभावसे इस जीवने
उपार्जन किये जो शुभ-अशुभ कर्म उनके उदयसे उत्पन्न जो शरीर है, उसके भेदसे भेद मानता
है, उसको दर्शनादि गुणोंकी गम्य नहीं है
यद्यपि पापके उदयसे नरकयोनि, पुण्यके उदयसे

Page 388 of 565
PDF/HTML Page 402 of 579
single page version

३८८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०३
लक्खणु मुणइ तहं स नैव लक्षणं मनुते तेषां जीवानाम् किंलक्षणम् दंसणु णाणु चरित्तु
सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रमिति अत्र निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणानां जीवानां
ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यचाण्डालादिदेहभेदं द्रष्ट्वा रागद्वेषौ न कर्तव्याविति तात्पर्यम् ।।१०२।।
अथ शरीराणि बादरसूक्ष्माणि विधिवशेन भवन्ति न च जीवा इति दर्शयति
२३०) अंगइँ सुहुमइँ बादरइँ विहिवसिँ होंति जे बाल
जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सयकाल ।।१०३।।
अङ्गानि सूक्ष्माणि बादराणि विधिवशेन भवन्ति ये बालाः
जीवाः पुनः सकला अपि तावन्तः सर्वत्रापि सदाकाले ।।१०३।।
अहीं, निश्चयनयथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्चरित्र जेमनां लक्षण छे एवा
जीवोना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चांडालादि देहना भेद जोईने राग-द्वेष न करवा, एवुं तात्पर्य
छे. १०२.
हवे, विधिना वशे बादर अने सूक्ष्म शरीरो थाय छे पण जीवो थता नथी, एम दर्शावे
छेः
देवोंका शरीर और शुभाशुभ मिश्रसे नरदेह तथा मायाचारसे पशुका शरीर मिलता है, अर्थात्
इन शरीरोंके भेदसे जीवोंकी अनेक चेष्टायें देखी जाती हैं, परंतु दर्शन ज्ञान लक्षणसे सब तुल्य
हैं
उपयोग लक्षणके बिना कोई जीव नहीं है इसलिये ज्ञानीजन सबको समान जानते हैं
निश्चयनयसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र जीवोंके लक्षण हैं, ऐसा जानकर ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र
चांडालादि देहके भेद देखकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिये
सब जीवोंके मैत्रीभाव करना, यही
तात्पर्य है ।।१०२।।
आगे सूक्ष्म बादर-शरीर जीवोंके कर्मके सम्बन्धसे होते हैं, सो सूक्ष्म, बादर, स्थावर,
जंगम ये सब शरीरके भेद हैं, जीव तो चिद्रूप है, सब भेदोंसे रहित है, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा१०३
अन्वयार्थ :[सूक्ष्माणि ] सूक्ष्म [बादराणि ] और बादर [अंगानि ] शरीर [ये ] तथा
जो [बालाः ] बाल, वृद्ध, तरुणादि अवस्थायें [विधिवशेन ] कर्मोंसे [भवंति ] होती हैं, [पुनः ]
और [जीवाः ] जीव तो [सकला अपि ] सभी [सर्वत्र ] सब जगह [सर्वकाले अपि ] और
सब कालमें [तावंतः ] उतने प्रमाण ही अर्थात् असंख्यातप्रदेशी ही है

Page 389 of 565
PDF/HTML Page 403 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०३ ]परमात्मप्रकाशः [ ३८९
अंगइं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते अंगइं सुहुमइं बादरइं अङ्गानि
सूक्ष्मबादराणि जीवानां विहि-वसिं होंति विधिवशाद्भवन्ति अङ्गोद्भवपञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षा-
मूलभूतानि
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगवाञ्छारूपनिदानबन्धादीनि यान्यपध्यानानि, तद्विलक्षणा यासौ
स्वशुद्धात्मभावना तद्रहितेन जीवेन यदुपार्जितं विधिसंज्ञं कर्म तद्वशेन भवन्त्येव न केवलमङ्गानि
भवन्ति जे बाल ये बालवृद्धादिपर्यायाः तेऽपि विधिवशेनैव अथवा संबोधनं हे बाल अज्ञान
जिय पुणु सयल वि तित्तडा जीवाः पुनः सर्वेऽपि तत्प्रमाणा द्रव्यप्रमाणं प्रत्यनन्ताः,
क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेकैकोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाश-
प्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः
क्व सव्वत्थ वि सर्वत्र लोके न केवलं लोके सय-काल सर्वत्र
कालत्रये तु अत्र जीवानां बादरसूक्ष्मादिकं व्यवहारेण कर्मकृतभेदं द्रष्ट्वा विशुद्धदर्शनज्ञान-
भावार्थशरीरमां उत्पन्न पांच इन्द्रियोना विषयोनी आकांक्षानुं मूळ कारण एवा,
देखेला, सांभळेला, अने अनुभवेला भोगोनी वांछारूप निदानबंध आदि जे अपध्यानो (दुर्ध्यानो,
माठां ध्यानो) छे तेनाथी विलक्षण जे स्वशुद्धात्मानी भावना छे तेनाथी रहित जीवथी जे
विधिसंज्ञावाळुं कर्म उपार्जित करवामां आव्युं छे. तेना वशथी जीवोना सूक्ष्म, बादर शरीरो थाय छे.
मात्र शरीरो ज थाय छे एटलुं ज नहि पण जे बालवृद्धादि पर्यायो छे ते पण विधिना विशे ज थाय
छे. अथवा संबोधन करे छे के, हे बाल! हे अज्ञान! सर्व जीवो सर्वत्र-लोकमां-मात्र लोकमां ज
नहि, परंतु त्रण काळमां पण तेटला ज प्रमाणवाळा छे; अर्थात् द्रव्यप्रमाणथी अनंता छे अने
क्षेत्रनी अपेक्षाए पण एक एक जीव पण जोके व्यवहारनयथी पोताना देह जेटलो छे तोपण
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेश जेटलो छे.
भावार्थ :जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मोंके उदयसे होती हैं अर्थात्
अंगोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेंद्रियोंके विषय उनकी वाँछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे, सुने,
भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना
उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और
बाल-वृद्धादि अवस्थायें होती हैं
ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवको नहीं हैं हे अज्ञानी जीव,
यह बात तू निःसंदेह जान ये सभी जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्रकी अपेक्षा एक एक
जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं
सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना
बादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर) जीवोंमें भेद मत जानो विशुद्ध ज्ञान-
१ पाठान्तरःहे बाल अज्ञान = बाल हे अज्ञान

Page 390 of 565
PDF/HTML Page 404 of 579
single page version

३९० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०४
लक्षणापेक्षया निश्चयनयेन भेदो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ।।१०३।।
अथ जीवानां शत्रुमित्रादिभेदं यः न करोति स निश्चयनयेन जीवलक्षणं जानातीति
प्रतिपादयति
२३१) सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ
एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ ।।१०४।।
शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते
एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ।।१०४।।
सत्तु वि इत्यादि सत्तु वि शत्रुरपि मित्तु वि मित्रमपि अप्पु परु आत्मा परोऽपि जीव
असेसु वि जीवा अशेषा अपि एइ एते प्रत्यक्षीभूताः एक्कु करेविणु जो मुणइ एकत्वं कृत्वा
अहीं, व्यवहारनयथी जीवोना बादर सूक्ष्मादिक कर्मकृत भेद जोईने निश्चयनयथी
विशुद्धज्ञानलक्षणनी अपेक्षाए जीवोना भेद न करवा, एवो अभिप्राय छे. १०३.
हवे, जे जीवोना शत्रु, मित्र आदि भेद करतो नथी ते निश्चयनयथी जीवनुं लक्षण जाणे
छे, एम कहे छेः
भावार्थशत्रु-मित्र, जीवित-मरण, लाभ-अलाभादि समताभावरूप वीतराग
दर्शनकी अपेक्षा सब ही जीव समान हैं, कोई भी जीव दर्शन, ज्ञान रहित नहीं है, ऐसा
जानना
।।१०३।।
आगे जो जीवोंके शत्रु-मित्रादि भेद नहीं करता है, वह निश्चयकर जीवका लक्षण
जानता है, ऐसा कहते हैं
गाथा१०४
अन्वयार्थ :[एते अशेषा अपि ] ये सभी [जीवाः ] जीव हैं, उनमेंसे [शत्रुरपि ]
कोई एक किसीका शत्रु भी है, [मित्रम् अपि ] मित्र भी है, [आत्मा ] अपना है, और [परः ]
दूसरा है
ऐसा व्यवहारसे जानकर [यः ] जो ज्ञानी [एकत्वं कृत्वा ] निश्चयसे एकपना करके
अर्थात् सबमें समदृष्टि रखकर [मनुते ] समान मानता है, [सः ] वही [आत्मानं ] आत्माके
स्वरूपको [जानाति ] जानता है
भावार्थ :इन संसारी जीवोंमें शत्रु आदि अनेक भेद दिखते हैं, परंतु जो ज्ञानी सबको
एक दृष्टिसे देखता हैसमान जानता है शत्रु, मित्र, जीवित, मरण, लाभ, अलाभ आदि

Page 391 of 565
PDF/HTML Page 405 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०५ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९१
यो मनुते शत्रुमित्रजीवितमरणलाभादिसमताभावनारूपवीतरागपरमसामायिकं कृत्वा योऽसौ
जीवानां शुद्धसंग्रहनयेनैकत्वं मन्यते
सो अप्पा जाणेइ स वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं
शत्रुमित्रादिविकल्पकल्लोलमालारहितमात्मानं जानातीति भावार्थः
।।१०४।।
अथ योऽसौ सर्वजीवान् समानान्न मन्यते तस्य समभावो नास्तीत्यावेदयति
२३२) जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव ।।१०५।।
यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान्
तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौः ।।१०५।।
जो णवि इत्यादि जो णवि मण्णइ यो नैव मन्यते कान् जीव जीवान् जिय हे
-परमसामायिक करीने जे शुद्धसंग्रहनयथी सर्व जीवोने एकरूपे जाणे छे ते वीतराग सहजानंद
जेनो एक स्वभाव छे एवा, शत्रु, मित्र आदि विकल्पोनी कल्लोलमाळाथी रहित आत्माने जाणे
छे. १०४.
हवे, जे सर्व जीवोने समान जाणतो नथी तेने समभाव होतो नथी, एम कहे छे.
भावार्थजे, समस्त जीवोने वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने निश्चय-
सबोंमें समभावरूप जो वीतराग परमसामायिकचारित्र उसके प्रभावसे जो जीवोंको शुद्ध
संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निज स्वरूपको जानता है
जो
निजस्वरूप, वीतराग सहजानंद एक स्वभाव तथा शत्रु-मित्र आदि विकल्प - जालसे रहित है,
ऐसे निजस्वरूपको समताभावके बिना नहीं जान सकता ।।१०४।।
आगे जो सब जीवोंको समान नहीं मानता, उसके समभाव नहीं हो सकता, ऐसा कहते
हैं
गाथा१०५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यः ] जो [सकलानपि ] सभी [जीवान् ] जीवोंको
[एकस्वभावान् ] एक स्वभाववाले [नैव मन्यते ] नहीं जानता, [तस्य ] उस अज्ञानीके [समः
भावः ] समभाव [न तिष्ठति ] नहीं रहता, [यः ] जो समभाव [भवसागरे ] संसार
- समुद्रके
तैरनेको [नौः ] नावके समान है
भावार्थ :जो अज्ञानी सब जीवों को समान नहीं मानता, अर्थात् वीतराग

Page 392 of 565
PDF/HTML Page 406 of 579
single page version

३९२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०६
जीव कतिसंख्योपेतान् सयल वि समस्तानपि कथंभूतान्न मन्यते एक्क-सहाव वीतराग-
निविकल्पसमाधौ स्थित्वा सकलविमलकेवलज्ञानादिगुणैर्निश्चयेनैकस्वभावान् तासु ण थक्कइ भाउ
समु तस्य न तिष्ठति समभावः कथंभूतः भव-सायरि जो णाव संसारसमुद्रे यो
नावस्तरणोपायभूता नौरिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा रागद्वेषमोहान् मुक्त्वा च परमोपशमभावरूपे
शुद्धात्मनि स्थातव्यमित्यभिप्रायः ।।१०५।।
अथ जीवानां योऽसौ भेदः स कर्मकृत इति प्रकाशयति
२३३) जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ ।।१०६।।
जीवानां भेद एव कर्मकृतः कर्म अपि जीवो न भवति
येन विभिन्नः भवति तेभ्यः कालं लब्ध्वा कमपि ।।१०६।।
नयथी सकळ विमळ केवळज्ञानादि गुणो वडे एकस्वभावी नथी मानतो तेने संसारसमुद्रने तरवाना
उपायभूत एवो समभाव होतो नथी के जे समभाव संसारसमुद्रने तरवाना साधनरूप नाव छे.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने अने राग-द्वेष-मोहने छोडीने परमोपशमभावरूप शुद्ध
आत्मामां स्थित थवुं, एवो अभिप्राय छे. १०५.
हवे, जीवोना जे कांई भेद छे ते कर्मकृत छे, एम प्रगट करे छेः
निर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर सबको समान दृष्टिसे नहीं देखता, सकल ज्ञायक परम निर्मल
केवलज्ञानादि गुणोंकर निश्चयनयसे सब जीव एकसे हैं, ऐसी जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके
समभाव नहीं उत्पन्न हो सकता
ऐसा निस्संदेह जानो कैसा है समभाव, जो संसार समुद्रसे
तारनेके लिये जहाजके समान है यहाँ ऐसा व्याख्यान जानकर राग-द्वेष-मोहको तजकर
परमशांतभावरूप शुद्धात्मामें लीन होना योग्य है ।।१०५।।
आगे जीवोंमें जो भेद हैं, वह सब कर्मजनित हैं, ऐसा प्रगट करते हैं
गाथा१०६
अन्वयार्थ :[जीवानां ] जीवोंमें [भेदः ] नर-नारकादि भेद [कर्मकृत एव ] कर्मोंसे
ही किया गया है, और [कर्म अपि ] कर्म भी [जीवः ] जीव [न भवति ] नहीं हो सकता
[येन ] क्योंकि वह जीव [कमपि ] किसी [कालं ] समयको [लब्ध्वा ] पाकर [तेभ्यः ] उन
कर्मोंसे [विभिन्नः ] जुदा [भवति ] हो जाता है

Page 393 of 565
PDF/HTML Page 407 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९३
जीवहं इत्यादि जीवहं जीवानां भेउ जि भेद एव कम्म-किउ निर्भेदशुद्धात्मविलक्षणेन
कर्मणा कृतः, कम्मु वि जीउ ण होइ ज्ञानावरणादिकर्मैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं जीवस्वरूपं
न भवति
कस्मान्न भवतीति चेत् जेण विभिण्णउ होइ तहं येन कारणेन विभिन्नो भवति
तेभ्यः कर्मभ्यः किं कृत्वा कालु लहेविणु कोइ वीतरागपरमात्मानुभूतिसहकारिकारणभूतं
कमपि कालं लब्ध्वेति अयमत्र भावार्थः टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकशुद्धजीवस्वभावाद्विलक्षणं
मनोज्ञामनोज्ञस्त्रीपुरुषादिजीवभेदं द्रष्ट्वा रागाद्यपध्यानं न कर्तव्यमिति ।।१०६।।
अतः कारणात् शुद्धसंग्रहेण भेदं मा कार्षीरिति निरूपयति
२३४) एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्णविसेसु
इक्कइँ देवइँ जेँ वसह तिहुयणु एहु असेसु ।।१०७।।
एकं कु रु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम्
एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतद् अशेषम् ।।१०७।।
भावार्थमात्र (केवळ) टंकोत्कीर्ण ज्ञायक शुद्ध जीवस्वभावथी विलक्षण मनोज्ञ,
अमनोज्ञ स्त्री पुरुष आदिरूप जीवना भेद जोईने रागादिरूप अपध्यान न करवुं. १०६.
तेथी, शुद्धसंग्रहनयथी तुं जीवोमां भेद न कर, एम कहे छेः
भावार्थ :कर्म शुद्धात्मासे जुदे हैं, शुद्धात्मा भेदकल्पनासे रहित है ये
शुभाशुभकर्म जीवका स्वरूप नहीं हैं, जीवका स्वरूप तो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव है
अनादिकालसे यह जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये रागादि अशुद्धोपयोगसे कर्मको
बाँधता है
सो कर्मका बंध अनादिकालका है इस कर्मबंधसे कोई एक जीव वीतराग
परमात्माकी अनुभूतिके सहकारी कारणरूप जो सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका समय उसको पाकर उन
कर्मोंसे जुदा हो जाता है
कर्मोंसे छूटनेका यही उपाय है, जो जीवके भवस्थिति समीप (थोड़ी)
रही हो, तभी सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, तभी कर्मकलंकसे
छूट जाता है तात्पर्य यह है कि जो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव उससे विलक्षण
जो स्त्री, पुरुषादि शरीरके भेद उनको देखकर रागादि खोटे ध्यान नहीं करने चाहिये ।।१०६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि तू शुद्ध संग्रहनयकर जीवोंमें भेद मत कर
गाथा१०७
अन्वयार्थ :[एकं कुरु ] हे आत्मन्, तू जातिकी अपेक्षा सब जीवोंको एक जान,

Page 394 of 565
PDF/HTML Page 408 of 579
single page version

३९४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०७
एक्कु करे इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते एक्कु करे सेनावनादि-
वज्जीवजात्यपेक्षया सर्वमेकं कुरु मण बिण्णि करि मा द्वौ कार्षीः मं करि वण्ण-विसेस
मनुष्यजात्यपेक्षया ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रादि वर्णभेदं मा कार्षीः, यतः कारणात् इक्कइं देवइ
एकेन देवेन अभेदनयापेक्षया शुद्धैकजीवद्रव्येण
े येन कारणेन वसह वसति
किं कर्तृं
तिहुयणु त्रिभुवनं त्रिभुवनस्थो जीवराशिःएहु एषः प्रत्यक्षीभूतः कतिसंख्योपेतः असेसु अशेषं
समस्तं इति त्रिभुवनग्रहणेन इह त्रिभुवनस्थो जीवराशिर्गृह्यते इति तात्पर्यम् तथाहि
लोकस्तावदयं सूक्ष्मजीवैर्निरन्तरं भृतस्तिष्ठति बादरैश्चाधारवशेन क्वचित् क्वचिदेव त्रसैः
भावार्थप्रथम तो आ लोक सूक्ष्म जीवोथी निरंतर (बधी जगाए) भर्यो पड्यो
छे. (सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जळकाय, सूक्ष्म अग्निकाय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म नित्यनिगोद,
सूक्ष्म इतरनिगोदि
आ छ प्रकारना सूक्ष्म जीवोथी समस्त लोक निरंतर भरेलो रहे छे)
अने ते आधारवशे (रहेला) बादर जीवोथी लोकमां क्यांक, क्यांक भरेलो छे, त्रस जीवोथी
पण क्यांक, क्यांक भरेलो छे. (बादर पृथ्वीकाय, बादर जळकाय, बादर अग्निकाय, बादर
वायुकाय, बादर नित्यनिगोद, बादर इतरनिगोद अने प्रत्येक वनस्पति ज्यां आधार छे त्यां
छे, तेथी क्यांक होय छे क्यांक नथी होता छतां ते घणा स्थळोमां छे. आ रीते स्थावर
जीवो तो त्रण लोकमां छे, अने द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, ए
मध्यलोकमां ज छे, अधोलोक अने ऊर्ध्वलोकमां नथी. तेमांथी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
जीव कर्मभूमिमां ज छे, भोगभूमिमां नथी. तेमांथी भोगभूमिमां गर्भज पंचेन्द्रिय संज्ञी
[मा द्वौ कार्षीः ] इसलिये राग और द्वेष मत कर, [वर्णविशेषम् ] मनुष्य जातिकी अपेक्षा
ब्राह्मणादि वर्ण
- भेदको भी [मा कार्षीः ] मत कर, [येन ] क्योंकि [एकेन देवेन ] अभेदनयसे
शुद्ध आत्माके समान [एतद् अशेषम् ] ये सब [त्रिभुवनं ] तीनलोकमें रहनेवाली जीव - राशि
[वसति ] ठहरी हुई है, अर्थात् जीवपनेसे सब एक हैं
भावार्थ :सब जीवोंकी एक जाति है जैसे सेना और वन एक है, वैसे जातिकी
अपेक्षा सब जीव एक हैं नर-नारकादि भेद और ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्ण - भेद सब
कर्मजनित हैं, अभेदनयसे सब ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्णभेद सब कर्मजनित हैं,
अभेदनयसे सब जीवोंको एक जानो अनंत जीवोंकर वह लोक भरा हुआ है उस जीव
राशिमें भेद ऐसे हैंजो पृथ्वीकायसूक्ष्म, जलकायसूक्ष्म, अग्निकायसूक्ष्म, वायुकायसूक्ष्म,
नित्यनिगोदसूक्ष्म, इतरनिगोदसूक्ष्मइन छह तरहके सूक्ष्म जीवोंकर तो यह लोक निरन्तर भरा
हुआ है, सब जगह इस लोकमें सूक्ष्म जीव हैं और पृथ्वीकायबादर, जलकायबादर,
अग्निकायबादर, वायुकायबादर, नित्यनिगोदबादर, इतरनिगोदबादर और प्रत्येकवनस्पतिये

Page 395 of 565
PDF/HTML Page 409 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०७ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९५
क्वचिदपि तथा ते जीवाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्त्यपेक्षया
केवलज्ञानादिगुण-रूपास्तेन कारणेन स एव जीवराशिः यद्यपि व्यवहारेण कर्मकृतस्तिष्ठति तथापि
निश्चयनयेन शक्ति रूपेण परमब्रह्मस्वरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भण्यते, परमशिव इति च
तेनैव कारणेन स एव जीवराशिः केचन परब्रह्ममयं जगद्वदन्ति, केचन परमविष्णुमयं वदन्ति,
केचन पुनः परमशिवमयमिति च
अत्राह शिष्यः यद्येवंभूतं जगत्संमतं भवतां तर्हि परेषां
किमिति दूषणं दीयते भवद्भिः परिहारमाह यदि पूर्वोक्त नयविभागेन केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
थळचर अने नभचर ए बन्ने जातिना तिर्यंच छे. तथा मनुष्य मध्यलोकना अढी द्वीपमां
ज छे, बीजी जग्याए नथी. देवलोकमां स्वर्गवासी देवदेवी छे, अन्य पंचेन्द्रिय नथी.
पाताळलोकमां उपरना भागमां भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव अने नीचेना भागमां सात
नरकोना नारकी पंचेन्द्रिय छे, अन्य कोई नथी अने मध्यलोकमां भवनवासी, व्यंतरदेव तथा
ज्योतिषीदेव ए त्रण जातिना देव अने तिर्यंच छे, आ रीते त्रस जीव लोकमां कोई जग्याए
छे कोई जग्याए नथी. आ रीते आ लोक जीवोथी भरेलो छे. सूक्ष्मस्थावर वगरनो तो
लोकनो कोई भाग खाली नथी, बधी जग्याए सूक्ष्मस्थावर भर्या पड्या छे.)
वळी, ते जीवो शुद्धपारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी शक्ति-अपेक्षाए
केवळज्ञानादिगुणरूप छे, ते कारणे ते जीवराशिजोके व्यवहारनयथी कर्मकृत छे तोपण
निश्चयनयथी शक्तिरूपे ‘परम ब्रह्मस्वरूप’ कहेवाय छे, ‘परमविष्णु’ कहेवाय छे अने ‘परमशिव’
कहेवाय छे, ते कारणे ज ते जीवराशिने ज केटलाक ‘परमब्रह्ममय जगत’ कहे छे, केटलाक
जहाँ आधार है वहाँ हैं सो कहीं पाये जाते हैं, कही नहीं पाये जाते, परंतु ये भी बहुत जगह
हैं इसप्रकार स्थावर तो तीनों लोकोंमें पाये जाते हैं, और दोइंद्री, तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री तिर्यंच
ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक-ऊ र्ध्वलोकमें नहीं उसमेंसे दोइंद्री, तेइंद्री, चौइन्द्री
जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें नहीं भोगभूमिमें गर्भज पंचेंद्री सैनी थलचर या
नभचर ये दोनों जातितिर्यंच हैं मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीप में पाये जाते हैं, अन्य जगह
नहीं, देवलोकमें स्वर्गवासी देव-देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेंद्री नहीं, पाताललोकमें ऊ परके
भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्री हैं, अन्य
कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और
तिर्यंच पाये जाते हैं
इसप्रकार त्रसजीव किसी जगह हैं, किसी जगह नहीं हैं इस तरह यह
लोक जीवोंसे भरा हुआ है सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोकका कोई भाग खाली नहीं है, सब
जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं ये सभी जीव शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं इसलिये यद्यपि यह जीव - राशि
व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है इन जीवोंको

Page 396 of 565
PDF/HTML Page 410 of 579
single page version

३९६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०७
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण मन्यन्ते तदा तेषां दूषणं नास्ति, यदि पुनरेकः पुरुषविशेषो व्यापी
जगत्कर्ता ब्रह्मादिना-मास्तीति मन्यन्ते तदा तेषां दूषणम्
कस्माद् दूषणमिति चेत् प्रत्यक्षादि-
प्रमाणबाधितत्वात् साधकप्रमाणप्रमेयचिन्ता तर्के विचारिता तिष्ठत्यत्र तु नोच्यते अध्यात्म-
शास्त्रत्वादित्यभिप्रायः
।।१०७।। इति षोडशवर्णिकासुवर्णद्रष्टान्तेन केवलज्ञानादिलक्षणेन सर्वे
‘परमविष्णुमय’ कहे छे, वळी केटलाक ‘परमशिवमय’ कहे छे.
अहीं, शिष्य प्रश्न करे छे केजो तमे पण आ प्रमाणे जगतने ‘परमब्रह्ममय’,
‘परमविष्णुमय’, ‘परमशिवमय’ मानो छो तो पछी तमे अन्यमतवाळाओने शा माटे दूषण
आपो छो?
तेनो परिहार कहे छेजो पूर्वोक्त नयविभागथी केवळज्ञानादि गुणोनी अपेक्षाए
वीतरागसर्वज्ञप्रणीत मार्गानुसार माने तो तेमने दूषण नथी, पण जो कोई एक
पुरुषविशेषने जगत्व्यापी, जगत्कर्ता तरीके ब्रह्मादिना नाम वडे माने छे तो तेमने दूषण
छे, कारण के ते प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोथी बाधित छे. (जो कोई एक शुद्ध, बुद्ध नित्य
मुक्त छे ते शुद्ध-बुद्धने कर्तापणुं, हर्तापणुं संभवी शकतुं नथी, कारण के भगवान मोहथी
रहित छे माटे तेने कर्ता-हर्तापणानी इच्छा संभवी शके नहि. ते तो निर्दोष छे माटे कर्ता
-हर्ता भगवानने मानवामां प्रत्यक्ष विरोध आवे छे) तेना साधक प्रमाण प्रमेयनी विचारणा
न्यायशास्त्रोमां करवामां आवी छे. अहीं अध्यात्मशास्त्र होवाथी तेनुं विवेचन कहेवामां आवतुं
नथी, एवो अभिप्राय छे. १०७.
ही परमविष्णु कहना, परमशिव कहना चाहिये यही अभिप्राय लेकर कोई एक ब्रह्ममयी जगत्
कहते हैं, कोई एक विष्णुमयी कहते हैं, कोई एक शिवमयी कहते हैं यहाँ पर शिष्यने प्रश्न
किया, कि तुम भी जीवोंको परब्रह्म मानते हो, तथा परमविष्णु, परमशिव मानते हो, तो
अन्यमतवालोंको क्यों दूषण देते हो ? उसका समाधान
हम तो पूर्वोक्त नयविभागकर
केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे जीवोंको ऐसा मानते हैं, तो दूषण नहीं
है
इस तरह वे नहीं मानते हैं वे एक कोई पुरुष जगत्का कर्त्ता-हर्त्ता मानते हैं इसलिये
उनको दूषण दिया जाता है, क्योंकि जो कोई एक शुद्ध-बुद्ध नित्य मुक्त है, उस शुद्ध-बुद्धको
कर्त्ता-हर्त्तापना हो ही नहीं सकता, और अच्छा है वह मोहकी प्रकृति है
भगवान् मोहसे रहित
हैं, इसलिये कर्त्ता-हर्त्ता नहीं हो सकते कर्त्ता-हर्त्ता मानना प्रत्यक्ष विरोध है हम तो जीव
राशिको परमब्रह्म मानते हैं, उसी जीवराशिसे लोक भरा हुआ है अन्यमती ऐसा मानते हैं, कि
एक ही ब्रह्म अनंतरूप हो रहा है जो वही एक सबरूप हो रहा होवे, तो नरक निगोद स्थानको
कौन भोगे ? इसलिये जीव अनंत हैं इन जीवोंको ही परमब्रह्म, परमशिव कहते हैं, ऐसा तू
निश्चयसे जान ।।१०७।।

Page 397 of 565
PDF/HTML Page 411 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०८ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९७
जीवाः समाना भवन्तीति व्याख्यानमुख्यतया त्रयोदशसूत्रैरन्तरस्थलं गतम् एवं
मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये चतुर्भिरन्तरस्थलैः शुद्धोपयोगवीतराग-
स्वसंवेदनज्ञानपरिग्रहत्यागसर्वजीवसमानताप्रतिपादनमुख्यत्वेनैकचत्वारिंशत्सूत्रैर्महास्थलं समाप्तम्
अत ऊर्ध्वं ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि सप्ताधिकशतसूत्रपर्यन्ते स्थलसंख्याबहिर्भूतान्
प्रक्षेपकान् विहाय चूलिकाव्याख्यानं करोति इति
२३५) परु जाणंतु वि परममुणि परसंसग्गु चयंति
परसंगइँ परमप्पयहँ लक्खहँ जेण चलंति ।।१०८।।
परं जानन्तोऽपि परममुनयः परसंसर्गं त्यजन्ति
परसंगेन परमात्मनः लक्ष्यस्य येन चलन्ति ।।१०८।।
आ प्रमाणे सोळवला सुवर्णना द्रष्टांत वडे केवळज्ञानादि लक्षणथी सर्व जीवो समान छे
एवा व्याख्याननी मुख्यताथी तेर दोहासूत्रोनुं अंतरस्थळ समाप्त थयुं.
ए प्रमाणे मोक्षमार्ग, मोक्षफळ, अने मोक्ष आदिना प्रतिपादक बीजा महाधिकारमां
चार अन्तरस्थळोथी शुद्धोपयोग, वीतराग स्वसंवेदनरूपज्ञान, परिग्रहत्याग अने सर्व जीवोनी
समानताना प्रतिपादननी मुख्यताथी एकतालीस सूत्रोनुं महास्थळ समाप्त थयुं.
आना पछी ‘परू जाणंतु वि’ इत्यादि एकसो सात गाथासूत्रोथी, स्थळसंख्याथी बहिर्भूत
प्रक्षेपकोने छोडीने चूलिकानुं व्याख्यान करे छे, ते आ प्रमाणेः
इसप्रकार सोलहवानीके सोनेके दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञानादि लक्षणसे सब जीव समान
हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे तेरह दोहासूत्र कहे इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्षफल और मोक्ष
इन तीनोंको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें चार अन्तरस्थलोंका इकतालीस दोहोंका महास्थल
समाप्त हुआ
इसमें शुद्धोपयोग, वीतरागस्वसंवेदनज्ञान, परिग्रहत्याग और सब जीव समान हैं,
ये कथन किया
आगे ‘पर जाणंतु वि’ इत्यादि एकसौ सात दोहा पर्यंत तीसरा महाधिकार कहते हैं,
उसीमें ग्रंथको समाप्त करते हैं
गाथा१०८
अन्वयार्थ :[परममुनयः ] परममुनि [परं जानंतोऽपि ] उत्कृष्ट आत्मद्रव्यको
जानते हुए भी [परसंसर्गं ] परद्रव्य जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म उसके सम्बन्धको

Page 398 of 565
PDF/HTML Page 412 of 579
single page version

३९८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१०८
परु जाणंतु वि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते परु जाणंतु वि परद्रव्यं
जानन्तोऽपि के ते परम-मुणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरताः परममुनयः किं कुर्वन्ति पर-
संसग्गु चयंति परसंसर्गं त्यजन्ति निश्चयेनाभ्यन्तरे रागादिभावकर्मज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मशरीरादि-
नोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते
तत्संसर्गं परिहरन्ति
यतः कारणात् पर-संगइँ [?] पूर्वोक्त बाह्याभ्यन्तर परद्रव्यसंसर्गेण परमप्पयहं वीतराग-
नित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य
कथंभूतस्य लक्खहं लक्ष्यस्य
ध्येयभूतस्य धनुर्विद्याभ्यासप्रस्तावे लक्ष्यरूपस्यैव जेण चलंति येन कारणेन चलन्ति त्रिगुप्तिसमाधेः
सकाशात् च्युता भवन्तीति
अत्र परमध्यानाविघातकत्वान्मिथ्यात्वरागादिपरिणामस्तत्परिणतः
पुरुषरूपो वा परसंसर्गस्त्यजनीय इति भावार्थः ।।१०८।।
भावार्थवीतराग स्वसंवेदनज्ञानमां रत परममुनिओ परद्रव्यने जाणता थका
परसंसर्गने छोडे छेनिश्चयथी अभ्यंतरमां रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अने शरीरादि
नोकर्म तथा बहारमां मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणत असंवृतजन (असंयमी जीव) ए बधुं परद्रव्य
कहेवाय छे, तेनो संग छोडे छे; कारण के जेवी रीते धनुर्विद्याना अभ्यास समये बीजे लक्ष जतां,
धनुर्धारी लक्ष्यरूपथी चलित थाय छे तेवी रीते मुनिओ पूर्वोक्त बाह्य, अभ्यंतर परद्रव्यना संसर्गथी
ध्येयभूत, वीतरागनित्यानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमसमरसी भावरूपे परिणत
परमात्मतत्त्वथी चलित थाय छे
त्रण गुप्तियुक्त समाधिथी च्युत थाय छे.
अहीं, परमध्यानना विघातक होवाथी मिथ्यात्व, रागादि परिणामरूप अथवा
मिथ्यात्व रागादि परिणामोमां परिणत पुरुषरूप एवो परसंसर्ग छोडवा योग्य छे, एवो भावार्थ
छे. १०८.
[त्यजंति ] छोड़ देते हैं [येन ] क्योंकि [परसंगेन ] परद्रव्यके सम्बन्धसे [लक्ष्यस्य ] ध्यान
करने योग्य जो [परमात्मनः ] परमपद उससे [चलंति ] चलायमान हो जाते हैं
भावार्थ :शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हुए परद्रव्योंके साथ
सम्बन्ध छोड़ देते हैं अंदरके विकार रागादि भावकर्म और बाहरके शरीरादि ये सब परद्रव्य
कहे जाते हैं वे मुनिराज एक आत्मभावके सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग (सम्बन्ध) छोड़
देते हैं तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका सम्बन्ध छोड़ देते हैं इनके संसर्गसे
परमपद जो वीतरागनित्यानंद अमूर्तस्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य
है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं
यहाँ
पर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागी-द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग
सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह सारांश है
।।१०८।।

Page 399 of 565
PDF/HTML Page 413 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१०९ ]परमात्मप्रकाशः [ ३९९
अथ तमेव परद्रव्यसंसर्गं त्यागं कथयति
२३६) जो समभावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु
चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ।।१०९।।
यः समभावाद् बाह्यः तेन सह मा कुरु संगम्
चिंतासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ।।१०९।।
यो इत्यादि जो यः कोऽपि सम-भावहं बाहिरउ जीवितमरणलाभालाभादि
समभावानुकूलविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावज्ञानपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञाननुष्ठानरूपसमभावबाह्यः
तिं सहुं मं करि संगु तेन सह संसर्गं मा कुरु हे आत्मन् यतः किम् चिंता-सायरि पडहि
रागद्वेषादिकल्लोलरूपे चिन्तासमुद्रे पतसि पर परं नियमेन अण्णु वि अन्यदपि दूषणं
भवति किम् डज्झइ दह्यते व्याकुलं भवति किं दह्यते अंगु शरीरं इति अयमत्र
हवे, ते ज परद्रव्यना संसर्गने छोडवानुं कहे छेः
भावार्थजे कोई जीवित-मरण, लाभ-अलाभ आदिमां समभावने अनुकूळ
विशुद्धज्ञान अने विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा परमात्मद्रव्यनां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान
अने सम्यग्-अनुष्ठानरूप समभावथी बाह्य (रहित) छे तेनी साथे हे आत्मा! तुं संसर्ग न कर;
कारण के तेनी साथे संसर्ग करवाथी तुं रागद्वेषादिना कल्लोलरूप चिंतासमुद्रमां पडीश. वळी, बीजुं
दूषण ए आवशे के शरीर पण नियमथी बळशे-व्याकुळ थशे.
आगे उन्हीं परद्रव्योंके संबंधको फि र छुड़ानेका कथन करते हैं
गाथा१०९
अन्वयार्थ :[यः ] जो कोई [समभावात् ] समभाव अर्थात् निजभावसे [बाह्य ]
बाह्य पदार्थ हैं, [तेन सह ] उनके साथ [संगम् ] संग [मा कुरु ] मत कर क्योंकि उनके
साथ संग करनेसे [चिंतासागरे ] चिंतारूपी समुद्रमें [पतसि ] पड़ेगा, [परं ] केवल
[अन्यदपि ] और भी [अंगः ] शरीर [दह्यते ] दाहको प्राप्त होगा, अर्थात् अंदरसे जलता रहेगा
भावार्थ :जो कोई जीवित, मरण, लाभ, अलाभादिमें तुल्यभाव उसके संमुख जो
निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्म द्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निजभाव
उसरूप समभावसे जो जुदे पदार्थ हैं, उनका संग छोड़ दे
क्योंकि उनके संगसे चिंतारूपी
समुद्रमें गिर पड़ेगा जो समुद्र राग-द्वेषरूपी कल्लोलोंसे व्याकुल है उनके संगसे मनमें चिंता

Page 400 of 565
PDF/HTML Page 414 of 579
single page version

४०० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-११०
भावार्थः वीतरागनिर्विकल्पसमाधिभावनाप्रतिपक्षभूतरागादिस्वकीयपरिणाम एव निश्चयेन पर
इत्युच्यते व्यवहारेण तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषः सोऽपि कथंचित्, नियमो नास्तीति ।।
१०९ ।।
अथैतदेव परसंसर्गदूषणं द्रष्टान्तेन समर्थयति
२३७) भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं
वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं ।।११०।।
भद्राणामपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसर्गः खलैः
वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते घनैः ।।११०।।
भल्लाहं वि इत्यादि भल्लाहं वि भद्राणामपि स्वस्वभावसहितानामपि णासन्ति गुण
नश्यन्ति परमात्मोपलब्धिलक्षणगुणाः येषां किम् जहँ संसग्ग येषां संसर्गः कै सह खलेहिं
अहीं, आ भावार्थ छे के वीतराग निर्विकल्प समाधिनी भावनाथी प्रतिपक्षभूत रागादिरूप
स्वकीय परिणाम ज निश्चयथी ‘पर’ (‘परद्रव्य’) कहेवाय छे अने व्यवहारथी मिथ्यात्व, रागादिरूपे
परिणत पुरुष ते पण कथंचित्, (पर कहेवाय छे,) नियम नथी. १०९.
हवे, परद्रव्यनो संसर्ग दूषण छे ए ज कथनने द्रष्टांत वडे द्रढ करे छेः
भावार्थस्वस्वभावसहित भद्र जीवोना परमात्मानी प्राप्तिस्वरूप गुणो,
उत्पन्न होगी, और शरीरमें दाह होगा यहाँ तात्पर्य यह है, कि वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिकी
भावनासे विपरीत जो रागादि अशुद्ध परिणाम वे ही परद्रव्य कहे जाते हैं, और व्यवहारनयकर
मिथ्यात्वी रागी
द्वेषी पुरुष पर कहे गये हैं इन सबकी संगति सर्वदा दुःख देनेवाली है, किसी
प्रकार सुखदायी नहीं है, ऐसा निश्चय है ।।१०९।।
आगे परद्रव्यका प्रसंग महान् दुःखरूप हैं, यह कथन दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं
गाथा११०
अन्वयार्थ :[खलैः सह ] दुष्टोंके साथ [येषां ] जिनका [संसर्गः ] संबंध है, वह
[भद्राणाम् अपि ] उन विवेकी जीवोंके भी [गुणाः ] सत्य शीलादि गुण [नश्यन्ति ] नष्ट हो
जाते हैं, जैसे [वैश्वानरः ] आग [लोहेन ] लोहेसे [मिलितः ] मिल जाती है, [तेन ] तभी
[घनैः ] घनोंसे [पिट्टयते ] पीटी
कूटी जाती है
भावार्थ :विवेकी जीवोंके शीलादि गुण मिथ्यादृष्टि रागी द्वैषी अविवेकी जीवोंकी

Page 401 of 565
PDF/HTML Page 415 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१११ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०१
परमात्मपदार्थप्रतिपक्षभूतैर्निश्चयनयेन स्वकीयबुद्धिदोषरूपैः रागद्वेषादिपरिणामैः खलैर्दुष्टैर्व्यवहारेण
तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषैः
अस्मिन्नर्थे द्रष्टान्तमाह वइसाणरु लोहहं मिलिउ वैश्वानरो
लोहमिलितः तें तेन कारणेन पिट्टियइघणेहिं पिट्टनक्रियां लभते कैः घनैरिति
अत्रानाकुलत्वसौख्यविघातको येन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगकांक्षारूपनिदानबन्धाद्यपध्यानपरिणाम एव
परसंसर्गस्त्याज्यः व्यवहारेण तु परपरिणतपुरुष इत्याभिप्रायः ।।११०।।
अथ मोहपरित्यागं दर्शयति
२३८) जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।१११।।
योगिन् मोहं परित्यज मोहो न भद्रो भवति
मोहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।१११।।
परमात्मपदार्थना प्रतिपक्षभूत अने निश्चयनयथी स्वकीयबुद्धिदोषरूप दुष्ट रागद्वेष आदि परिणामो
अने व्यवहारनयथी मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणत दुष्ट पुरुषो साथेना संसर्गथी, नाश पामे छे.
आनुं समर्थन करवा माटे द्रष्टांत कहे छे. अग्नि लोढानो संग पामे छे तेथी घण वडे टिपाया
करे छे.
अहीं, अनाकुळतारूप सुखना विघातक, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी
वांछारूप निदानबंध आदि अपध्यानरूप परिणामरूप ज परसंसर्ग त्याज्य छे अने व्यवहारथी
परपरिणत पुरुष त्याज्य छे, एवो अभिप्राय छे. ११०.
हवे, मोहनो त्याग करवानुं दर्शावे छेः
संगतिसे नाश हो जाते हैं अथवा आत्माके निजगुण मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध भावोंके संबंधसे
मलिन हो जाते हैं जैसे अग्नि लोहेके संगमें पीटीकूटी जाती है यद्यपि आगको घन कूट
नहीं सकता, परंतु लोहेकी संगतिसे अग्नि भी कूटनेमें आती है, उसी तरह दोषोंके संगसे गुण
भी मलिन हो जाते हैं
यह कथन जानकर आकुलता रहित सुखके घातक जो देखे, सुने, अनुभव
किये भोगोंकी वाँछारूप निदानबंध आदि खोटे परिणामरूपी दुष्टोंकी संगति नहीं करना, अथवा
अनेक दोषोंकर सहित रागी-द्वेषी जीवोंकी भी संगति कभी नहीं करना, यह तात्पर्य है
।।११०।।
आगे मोहका त्याग करना दिखलाते हैं
गाथा१११
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, तू [मोहं ] मोहको [परित्यज ] बिलकुल छोड़ दे,

Page 402 of 565
PDF/HTML Page 416 of 579
single page version

४०२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१११
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् मोहु परिच्चयहि निर्मोहपरमात्मस्वरूपभावना-
प्रतिपक्षभूतं मोहं त्यज कस्मात् मोहु ण भल्लउ होइ मोहो भद्रः समीचीनो न भवति
तदपि कस्मात् मोहासत्तउ सयलु जगु मोहासक्तं समस्तं जगत् निर्मोहशुद्धात्मभावनारहितं
दुक्खु सहंतउ जोइ अनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविलक्षणमाकुलत्वोपादकं दुःखं सहमानं
पश्येति
अत्रास्तां तावद् बहिरङ्गपुत्रकलत्रादौ पूर्वं परित्यक्ते पुनर्वासनावशेन स्मरणरूपो मोहो
न कर्तव्यः शुद्धात्मभावनास्वरूपं तपश्चरणं तत्साधकभूतशरीरं तस्यापि स्थित्यर्थमशनपानादिकं
यद्गृह्यमाणं तत्रापि मोहो न कर्तव्य इति भावार्थः ।।१११।।
अथ स्थलसंख्याबहिर्भूतमाहारमोहविषयनिराकरणसमर्थनार्थं प्रक्षेपकत्रयमाह तद्यथा
भावार्थहे योगी! तुं निर्मोह एवा परमात्मस्वरूपनी भावनाथी प्रतिपक्षभूत एवा
मोहने तुं छोड, कारण के मोह समीचीन नथी. शा माटे? कारण के निर्मोह एवा शुद्ध आत्मानी
भावनाथी रहित मोहासक्त समस्त जगतने, आकुळता जेनुं लक्षण छे एवा पारमार्थिक सुखथी
विलक्षण अने आकुळताना उत्पादक एवा दुःखने सहन करतुं, तुं देख.
अहीं, कहे छे के पूर्वे छोडी दीधेल बहिरंग स्त्री, पुत्रादिमां फरीथी वासनाना वशे
स्मरणरूप मोह तो न करवो ए तो ठीक, परंतु शुद्धात्मानी भावनास्वरूप जे तपश्चरण तेना
साधकभूत जे शरीर तेनी स्थिति माटे (तेने टकाववा माटे) पण जे अन्न, जळादिक लेवामां
आवे छे तेमनी उपर पण मोह न करवो, एवो भावार्थ छे. १११.
हवे, आहारना मोहना त्यागनुं समर्थन करवा माटे स्थळसंख्याथी बहार त्रण प्रक्षेपक
गाथासूत्रो कहे छेः
क्योंकि [मोहः ] मोह [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं होता है, [मोहासक्तं ] मोहसे आसक्त
[सकलं जगत् ] सब जगत् जीवोंको [दुःखं सहमानं ] क्लेश भोगते हुए [पश्य ] देख
भावार्थ :जो आकुलता रहित है, वह दुःखका मूल मोह है मोही जीवोंको दुःख
सहित देखो वह मोह परमात्मस्वरूपकी भावनाका प्रतिपक्षी दर्शनमोह चारित्रमोहरूप है
इसलिये तू उसको छोड़ पुत्र, स्त्री आदिकमें तो मोहकी बात दूर रहे, यह तो प्रत्यक्षमें त्यागने
योग्य ही है, और विषयवासनाके वश देह आदिक परवस्तुओंका रागरूप मोह - जाल है, वह भी
सर्वथा त्यागना चाहिये अंतर बाह्य मोहका त्यागकर सम्यक् स्वभाव अंगीकार करना शुद्धात्मा
की भावनारूप जो तपश्चरण उसका साधक जो शरीर उसकी स्थितिके लिये अन्न जलादिक लिये
जाते हैं, तो भी विशेष राग न करना, राग रहित नीरस आहार लेना चाहिये
।।१११।।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय जो प्रक्षेपक दोहे हैं, उनके द्वारा आहारका मोह निवारण
करते हैं

Page 403 of 565
PDF/HTML Page 417 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१११२ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०३
२३९) काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं
अहिलससि किं ण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं ।।१११।।
कृत्वा नग्नरूपं बीभत्सं दग्धमृतकसद्रशम्
अभिलषसि किं न लज्जसे भिक्षायां भोजनं मिष्टम् ।।१११।।
काऊण इत्यादि काऊण कृत्वा किम् णग्गरूवं नग्नरूपं निर्ग्रन्थं जिनरूपम्
कथंभूतम् बीभस्सं (च्छं ?) भयानकम् पुनरपि कथंभूतम् दड्ढ-मडय-सारिच्छं दग्धमृतक-
द्रशम् एवंविधिं रूपं धृत्वा हे तपोधन अहिलससि अभिलाषं करोषि किं ण लज्जसि लज्जां
किं न करोषि किं कुर्वाणः सन् भिक्खाए भोयणं मिट्ठं भिक्षायां भोजनं मिष्टं इति मन्यमानः
सन्निति श्रावकेण तावदाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानं तात्पर्येण दातव्यम् आहारदानं येन दत्तं तेन
भावार्थश्रावके तो तात्पर्यपूर्वक आहार, अभय, भैषज्य अने शास्त्र ए चार
प्रकारनुं दान आपवुं जोईए. जेणे आहारदान आप्युं तेणे शुद्ध आत्मानी अनुभूतिनुं साधक बाह्य
अभ्यंतर भेदथी भेदवाळुं बार प्रकारनुं तपश्चरणनुं दान आप्युं छे. तेणे शुद्ध आत्मानी
भावनास्वरूप संयमना साधक एवा देहनी स्थिति पण करी छे अने तेणे शुद्धात्मोपलंभनी
प्राप्तिरूप मोक्षगति पण आपी छे.
जोके आ प्रमाणेना गुणथी विशिष्ट चार प्रकारना दान श्रावको आपे छे तोपण निश्चय
गाथा१११
अन्वयार्थ :[बीभत्सं ] भयानक देहके मैलसे युक्त [दग्धमृतकसदृशम् ] जले हुए
मुरदेके समान रूपरहित ऐसे [नग्नरूपं ] वस्त्र रहित नग्नरूपको [कृत्वा ] धारण करके हे साधु,
तू [भिक्षायां ] परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें [मिष्टम् ] स्वादयुक्त [भोजनं ]
आहारकी [अभिलषसि ] इच्छा करता है, तो तू [किं न लज्जस ] क्यों नहीं शरमाता ? यह
बड़ा आश्चर्य है
भावार्थ :पराये घर भिक्षाको जाते मिष्ट आहारकी इच्छा धारण करता है, सो तुझे
लाज नहीं आती ? इसलिये आहारका राग छोड़ अल्प और नीरस, आहार उत्तम कुली श्रावकके
घर साधुको लेना योग्य है
मुनिको रागभाव रहित आहार लेना चाहिये स्वादिष्ट सुंदर
आहारका राग करना योग्य नहीं है और श्रावकको भी यही उचित है, कि भक्तिभावसे
मुनिको निर्दोष आहार देवे, जिसमें शुभका दोष न लगे और आहारके समय ही आहारमें मिली
हुई निर्दोष औषधि दे, शास्त्रदान करे, मुनियोंका भय दूर करे, उपसर्ग निवारण करे यही

Page 404 of 565
PDF/HTML Page 418 of 579
single page version

४०४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१११
शुद्धात्मानुभूतिसाधकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं तपश्चरणं दत्तं भवति शुद्धात्मभावना-
लक्षणसंयमसाधकस्य देहस्यापि स्थितिः कृता भवति शुद्धात्मोपलंभप्राप्तिरूपा भवान्तरगतिरपि
दत्ता भवति यद्यप्येवमादिगुणविशिष्टं चतुर्विधदानं श्रावकाः प्रयच्छन्ति तथापि निश्चयव्यवहार-
रत्नत्रयाराधकतपोधनेन बहिरङ्गसाधनीभूतमाहारादिकं किमपि गृह्णतापि स्वस्वभावप्रतिपक्षभूतो
मोहो न कर्तव्य इति तात्पर्यम्
।।१११।।
अथ :
२४०) जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ।।१११।।
यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविघतपःफलं महद्विपुलम्
ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ।।१११।।
व्यवहाररत्नत्रयना आराधक एवा तपोधने बहिरंग साधनभूत कोई पण आहारादिकने ग्रहण
करतां छतां पण, स्वस्वभावथी प्रतिपक्षभूत मोह न करवो, एवुं तात्पर्य छे. १११
२.
हवे, फरी पण भोजननी लालसानो त्याग करावे छेः
गृहस्थको योग्य है जिस गृहस्थने यतीको आहार दिया, उसने तपश्चरण दिया, क्योंकि
संयमका साधन शरीर है, और शरीरकी स्थिति अन्न जलसे है आहारके ग्रहण करनेसे तपस्याकी
बढ़वारी होती है इसलिये आहारका दान तपका दान है यह तपसंयम शुद्धात्माकी
भावनारूप है, और ये अंतर बाह्य बारह प्रकारका तप शुद्धात्माकी अनुभूतिका साधक है तप
संयमका साधन दिगम्बर का शरीर है इसलिये आहारके देनेवालेने यतीके देहकी रक्षा की,
और आहारके देनेवालेने शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष दी क्योंकि मोक्षका साधन मुनिव्रत है,
और मुनिव्रतका साधन शरीर है, तथा शरीरका साधन आहार है इसप्रकार अनेक गुणोंको उत्पन्न
करनेवाला आहारादि चार प्रकारका दान उसको श्रावक भक्तिसे देता है, तो भी निश्चय व्यवहार
रत्नत्रयके आराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हुए भी राग नहीं करते हैं
राग-द्वेष-मोहादि परिणाम निजभावके शत्रु हैं, यह सारांश हुआ ।।१११।।
आगे फि र भी भोजनकी लालसाको त्याग कराते हैं
गाथा१११
अन्वयार्थ :[भो साधो ] हे योगी, [यदि ] जो तू [द्वादशविधतपः फलं ] बारह
प्रकार तपका फल [महद्विफलं ] बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष [इच्छसि ] चाहता है, [ततः ] तो

Page 405 of 565
PDF/HTML Page 419 of 579
single page version

अधिकार-२ः दोहा-१११४ ]परमात्मप्रकाशः [ ४०५
जइ इच्छसि यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपःफलम् कथंभूतम् महद्विपुलं
स्वर्गापवर्गरूपं ततः कारणात् वीतरागनिजानन्दैकसुखरसास्वादानुभवेन तृप्तो भूत्वा
मनोवचनकायेषु भोजनगृद्धिं वर्जय इति तात्पर्यम्
।।१११।।
उक्तं च
२४१) जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति
ते मुणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।१११।।
ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति
ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ।।१११।।
जे इत्यादि जे सरसिं संतुट्ठमण ये केचन सरसेन सरसाहारेण संतुष्टमनसः विरसि
कसाउ वहंति विरसे विरसाहारे सति कषायं वहन्ति कुर्वन्ति े ते पूर्वोक्ताः मुणि
भावार्थहे योगी! जो तुं बार प्रकारना तपनुं महान भारे फळ एवा स्वर्ग-मोक्षने
इच्छे छे, तो वीतराग निजानंद एक सुखरसनो आस्वादरूप अनुभवथी तृप्त थयो थको, मन,
वचन अने कायाथी भोजननी लोलुपतानो त्याग कर! ए सारांश छे. १११
३.
वळी, कह्युं छे केः
भावार्थगृहस्थोनो आहारदानादिक ज परम धर्म छे, सम्यक्त्व सहित तेनाथी
(आहारादिकथी) ज तेओ परंपराए मोक्ष मेळवे छे शा माटे गृहस्थोनो ते ज परम धर्म छे?
वीतराग निजानंद एक सुखरसका आस्वाद उसके अनुभवसे तृप्त हुआ [मनोवचनयोः ] मन,
वचन और [काये ] कायसे [भोजनगृद्धिं ] भोजनकी लोलुपता को [विवर्जयस्व ] त्याग कर
दे
यह सारांश है ।।१११।।
और भी कहा है
गाथा१११
अन्वयार्थ :[ये ] जो जोगी [सरसेन ] स्वादिष्ट आहारसे [संतुष्टमनसः ] हर्षित
होते हैं, और [विरसे ] नीरस आहारमें [कषायं ] क्रोधादि कषाय [वहंति ] करते हैं, [ते
मुनयः ] वे मुनि [भोजन गृध्राः ] भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीके समान हैं, ऐसा तू [गणय ]
समझ
वे [परमार्थं ] परमतत्त्वको [नैव मन्यंते ] नहीं समझते हैं
भावार्थ :जो कोई वीतरागके मार्गसे विमुख हुए योगी रस सहित स्वादिष्ट आहारसे
खुश होते हैं, कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्ष करें, आहारके देनेवालेसे

Page 406 of 565
PDF/HTML Page 420 of 579
single page version

४०६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१११
मुनयस्तपोधनाः भोयणधार गणि भोजनविषये गृध्रसद्रशान् गणय मन्यस्व जानीहि इत्थंभूताः
सन्तः णवि परमत्थु मुणंति नैव परमार्थं मन्यन्ते जानन्तीति अयमत्र भावार्थः
गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते कस्मात् स
एव परमो धर्म इति चेत्, निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रय-
लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति
शुद्धोपयोगपरमधर्मरतैस्तपोधनैस्त्वन्नपानादि-
विषये मानापमानसमतां कृत्वा यथालाभेन संतोषः कर्तव्य इति ।।१११।।
अथ शुद्धात्मोपलम्भाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयासक्त जीवानां विनाशं दर्शयति
(ए कारणे के) निरंतर विषयकषायने आधीन होवाथी तेवा आर्त अने रौद्रध्यानमां रत जीवोने
निश्चयरत्नत्रयस्वरूपे शुद्धोपयोगरूप परमधर्मनो तो अवकाश नथी. (अर्थात् गृहस्थोने
शुभोपयोगनी ज मुख्यता छे.)
शुद्धोपयोगरूप परमधर्ममां रत तपोधनोए तो अन्न-पानादि बाबतमां मान-अपमानमां
समता धारीने यथालाभथी (जे मळे तेमां) संतोष करी लेवो जोईए(संतोष राखवो
जोईए). १११४.
हवे, शुद्धात्मानी प्राप्तिनो अभाव होतां, पांच इन्द्रियना विषयमां आसक्त जीवोनो
विनाश थाय छे, एम दर्शावे छेः
प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर रस रहित भोजन मिले तो कषाय करते हैं, उस गृहस्थको बुरा
समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं
गृद्धपक्षीके समान हैं ऐसे लोलुपी यती देहमें
अनुरागी होते हैं, परमात्म - पदार्थको नहीं जानते गृहस्थोंके तो दानादिक ही बड़े धर्म हैं जो
सम्यक्त्व सहित दानादि करे, तो परम्परासे मोक्ष पावे क्योंकि श्रावकका दानादिक ही परमधर्म
है वह ऐसे हैं, कि ये गृहस्थलोग हमेशा विषय कषायके आधीन हैं, इससे इनके आर्त रौद्र ध्यान
उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही
नहीं है, अर्थात् गृहस्थोंके शुभोपयोगकी ही मुख्यता है
और शुद्धोपयोगी मुनि इनके घर आहार
लेवें, तो इसके समान अन्य क्या ? श्रावकका तो यही बड़ा धरम है, जो कि यती, अर्जिका,
श्रावक, श्राविका इन सबको विनयपूर्वक आहार दे
और यतीका यही धर्म है, अन्न जलादिमें राग
न करे, और मान-अपमानमें समताभाव रक्खे गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले
वैसा लेवे, चाहे चावल मिले, चाहे अन्य कुछ मिले जो मिले उसमें हर्ष विषाद न करे दूध,
दहीं, घी, मिष्टान्न, इनमें इच्छा न करे यही जिनमार्गमें यतीकी रीति हैं ।।१११।।
आगे शुद्धात्माकी प्राप्तिके अभावमें जो विषयी जीव पाँच इंद्रियोंके विषयोंमें आसक्त
हैं, उनका अकाज (विनाश) होता है, ऐसा दिखलाते हैं