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यः करोति
कर्यां होय तेमना उदयथी उत्पन्न देहना भेदथी जीवोनां नर-नारकादि देहरूप अनेक प्रकारना भेदने
जे करे छे ते, जीवोनुं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र लक्षण छे एम जाणतो नथी.
ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [लक्षणं ] लक्षण [नैव मनुते ] नहीं जानता, अर्थात् उसको
गुणोंकी परीक्षा (पहचान) नहीं है
उपार्जन किये जो शुभ-अशुभ कर्म उनके उदयसे उत्पन्न जो शरीर है, उसके भेदसे भेद मानता
है, उसको दर्शनादि गुणोंकी गम्य नहीं है
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छे. १०२.
हैं
चांडालादि देहके भेद देखकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिये
और [जीवाः ] जीव तो [सकला अपि ] सभी [सर्वत्र ] सब जगह [सर्वकाले अपि ] और
सब कालमें [तावंतः ] उतने प्रमाण ही अर्थात् असंख्यातप्रदेशी ही है
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मूलभूतानि
क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेकैकोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाश-
प्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः
माठां ध्यानो) छे तेनाथी विलक्षण जे स्वशुद्धात्मानी भावना छे तेनाथी रहित जीवथी जे
विधिसंज्ञावाळुं कर्म उपार्जित करवामां आव्युं छे. तेना वशथी जीवोना सूक्ष्म, बादर शरीरो थाय छे.
मात्र शरीरो ज थाय छे एटलुं ज नहि पण जे बालवृद्धादि पर्यायो छे ते पण विधिना विशे ज थाय
छे. अथवा संबोधन करे छे के, हे बाल! हे अज्ञान! सर्व जीवो सर्वत्र-लोकमां-मात्र लोकमां ज
नहि, परंतु त्रण काळमां पण तेटला ज प्रमाणवाळा छे; अर्थात् द्रव्यप्रमाणथी अनंता छे अने
क्षेत्रनी अपेक्षाए पण एक एक जीव पण जोके व्यवहारनयथी पोताना देह जेटलो छे तोपण
निश्चयनयथी लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेश जेटलो छे.
भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना
उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और
बाल-वृद्धादि अवस्थायें होती हैं
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं
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जानना
दूसरा है
स्वरूपको [जानाति ] जानता है
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जीवानां शुद्धसंग्रहनयेनैकत्वं मन्यते सो अप्पा जाणेइ स वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं
शत्रुमित्रादिविकल्पकल्लोलमालारहितमात्मानं जानातीति भावार्थः
जेनो एक स्वभाव छे एवा, शत्रु, मित्र आदि विकल्पोनी कल्लोलमाळाथी रहित आत्माने जाणे
छे. १०४.
संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निज स्वरूपको जानता है
भावः ] समभाव [न तिष्ठति ] नहीं रहता, [यः ] जो समभाव [भवसागरे ] संसार
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उपायभूत एवो समभाव होतो नथी के जे समभाव संसारसमुद्रने तरवाना साधनरूप नाव छे.
केवलज्ञानादि गुणोंकर निश्चयनयसे सब जीव एकसे हैं, ऐसी जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके
समभाव नहीं उत्पन्न हो सकता
कर्मोंसे [विभिन्नः ] जुदा [भवति ] हो जाता है
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न भवति
बाँधता है
कर्मोंसे जुदा हो जाता है
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एकेन देवेन अभेदनयापेक्षया शुद्धैकजीवद्रव्येण जे येन कारणेन वसह वसति
सूक्ष्म इतरनिगोदि
पण क्यांक, क्यांक भरेलो छे. (बादर पृथ्वीकाय, बादर जळकाय, बादर अग्निकाय, बादर
वायुकाय, बादर नित्यनिगोद, बादर इतरनिगोद अने प्रत्येक वनस्पति ज्यां आधार छे त्यां
छे, तेथी क्यांक होय छे क्यांक नथी होता छतां ते घणा स्थळोमां छे. आ रीते स्थावर
जीवो तो त्रण लोकमां छे, अने द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, ए
मध्यलोकमां ज छे, अधोलोक अने ऊर्ध्वलोकमां नथी. तेमांथी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
जीव कर्मभूमिमां ज छे, भोगभूमिमां नथी. तेमांथी भोगभूमिमां गर्भज पंचेन्द्रिय संज्ञी
ब्राह्मणादि वर्ण
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निश्चयनयेन शक्ति रूपेण परमब्रह्मस्वरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भण्यते, परमशिव इति च
केचन पुनः परमशिवमयमिति च
ज छे, बीजी जग्याए नथी. देवलोकमां स्वर्गवासी देवदेवी छे, अन्य पंचेन्द्रिय नथी.
पाताळलोकमां उपरना भागमां भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव अने नीचेना भागमां सात
नरकोना नारकी पंचेन्द्रिय छे, अन्य कोई नथी अने मध्यलोकमां भवनवासी, व्यंतरदेव तथा
ज्योतिषीदेव ए त्रण जातिना देव अने तिर्यंच छे, आ रीते त्रस जीव लोकमां कोई जग्याए
छे कोई जग्याए नथी. आ रीते आ लोक जीवोथी भरेलो छे. सूक्ष्मस्थावर वगरनो तो
लोकनो कोई भाग खाली नथी, बधी जग्याए सूक्ष्मस्थावर भर्या पड्या छे.)
कहेवाय छे, ते कारणे ज ते जीवराशिने ज केटलाक ‘परमब्रह्ममय जगत’ कहे छे, केटलाक
भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्री हैं, अन्य
कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और
तिर्यंच पाये जाते हैं
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जगत्कर्ता ब्रह्मादिना-मास्तीति मन्यन्ते तदा तेषां दूषणम्
शास्त्रत्वादित्यभिप्रायः
आपो छो?
पुरुषविशेषने जगत्व्यापी, जगत्कर्ता तरीके ब्रह्मादिना नाम वडे माने छे तो तेमने दूषण
छे, कारण के ते प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोथी बाधित छे. (जो कोई एक शुद्ध, बुद्ध नित्य
मुक्त छे ते शुद्ध-बुद्धने कर्तापणुं, हर्तापणुं संभवी शकतुं नथी, कारण के भगवान मोहथी
रहित छे माटे तेने कर्ता-हर्तापणानी इच्छा संभवी शके नहि. ते तो निर्दोष छे माटे कर्ता
-हर्ता भगवानने मानवामां प्रत्यक्ष विरोध आवे छे) तेना साधक प्रमाण प्रमेयनी विचारणा
न्यायशास्त्रोमां करवामां आवी छे. अहीं अध्यात्मशास्त्र होवाथी तेनुं विवेचन कहेवामां आवतुं
नथी, एवो अभिप्राय छे. १०७.
अन्यमतवालोंको क्यों दूषण देते हो ? उसका समाधान
है
कर्त्ता-हर्त्तापना हो ही नहीं सकता, और अच्छा है वह मोहकी प्रकृति है
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स्वसंवेदनज्ञानपरिग्रहत्यागसर्वजीवसमानताप्रतिपादनमुख्यत्वेनैकचत्वारिंशत्सूत्रैर्महास्थलं समाप्तम्
समानताना प्रतिपादननी मुख्यताथी एकतालीस सूत्रोनुं महास्थळ समाप्त थयुं.
समाप्त हुआ
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नोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते
नित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य
सकाशात् च्युता भवन्तीति
कहेवाय छे, तेनो संग छोडे छे; कारण के जेवी रीते धनुर्विद्याना अभ्यास समये बीजे लक्ष जतां,
धनुर्धारी लक्ष्यरूपथी चलित थाय छे तेवी रीते मुनिओ पूर्वोक्त बाह्य, अभ्यंतर परद्रव्यना संसर्गथी
ध्येयभूत, वीतरागनित्यानंद ज जेनो एक स्वभाव छे एवा परमसमरसी भावरूपे परिणत
परमात्मतत्त्वथी चलित थाय छे
छे. १०८.
है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं
सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह सारांश है
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अने सम्यग्-अनुष्ठानरूप समभावथी बाह्य (रहित) छे तेनी साथे हे आत्मा! तुं संसर्ग न कर;
कारण के तेनी साथे संसर्ग करवाथी तुं रागद्वेषादिना कल्लोलरूप चिंतासमुद्रमां पडीश. वळी, बीजुं
दूषण ए आवशे के शरीर पण नियमथी बळशे-व्याकुळ थशे.
[अन्यदपि ] और भी [अंगः ] शरीर [दह्यते ] दाहको प्राप्त होगा, अर्थात् अंदरसे जलता रहेगा
उसरूप समभावसे जो जुदे पदार्थ हैं, उनका संग छोड़ दे
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परिणत पुरुष ते पण कथंचित्, (पर कहेवाय छे,) नियम नथी. १०९.
मिथ्यात्वी रागी
जाते हैं, जैसे [वैश्वानरः ] आग [लोहेन ] लोहेसे [मिलितः ] मिल जाती है, [तेन ] तभी
[घनैः ] घनोंसे [पिट्टयते ] पीटी
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तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषैः
अने व्यवहारनयथी मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणत दुष्ट पुरुषो साथेना संसर्गथी, नाश पामे छे.
आनुं समर्थन करवा माटे द्रष्टांत कहे छे. अग्नि लोढानो संग पामे छे तेथी घण वडे टिपाया
करे छे.
परपरिणत पुरुष त्याज्य छे, एवो अभिप्राय छे. ११०.
भी मलिन हो जाते हैं
अनेक दोषोंकर सहित रागी-द्वेषी जीवोंकी भी संगति कभी नहीं करना, यह तात्पर्य है
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पश्येति
भावनाथी रहित मोहासक्त समस्त जगतने, आकुळता जेनुं लक्षण छे एवा पारमार्थिक सुखथी
विलक्षण अने आकुळताना उत्पादक एवा दुःखने सहन करतुं, तुं देख.
साधकभूत जे शरीर तेनी स्थिति माटे (तेने टकाववा माटे) पण जे अन्न, जळादिक लेवामां
आवे छे तेमनी उपर पण मोह न करवो, एवो भावार्थ छे. १११.
[सकलं जगत् ] सब जगत् जीवोंको [दुःखं सहमानं ] क्लेश भोगते हुए [पश्य ] देख
जाते हैं, तो भी विशेष राग न करना, राग रहित नीरस आहार लेना चाहिये
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अभ्यंतर भेदथी भेदवाळुं बार प्रकारनुं तपश्चरणनुं दान आप्युं छे. तेणे शुद्ध आत्मानी
भावनास्वरूप संयमना साधक एवा देहनी स्थिति पण करी छे अने तेणे शुद्धात्मोपलंभनी
प्राप्तिरूप मोक्षगति पण आपी छे.
तू [भिक्षायां ] परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें [मिष्टम् ] स्वादयुक्त [भोजनं ]
आहारकी [अभिलषसि ] इच्छा करता है, तो तू [किं न लज्जस ] क्यों नहीं शरमाता ? यह
बड़ा आश्चर्य है
घर साधुको लेना योग्य है
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मोहो न कर्तव्य इति तात्पर्यम्
करतां छतां पण, स्वस्वभावथी प्रतिपक्षभूत मोह न करवो, एवुं तात्पर्य छे. १११
रत्नत्रयके आराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हुए भी राग नहीं करते हैं
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मनोवचनकायेषु भोजनगृद्धिं वर्जय इति तात्पर्यम्
वचन अने कायाथी भोजननी लोलुपतानो त्याग कर! ए सारांश छे. १११
वचन और [काये ] कायसे [भोजनगृद्धिं ] भोजनकी लोलुपता को [विवर्जयस्व ] त्याग कर
दे
मुनयः ] वे मुनि [भोजन गृध्राः ] भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीके समान हैं, ऐसा तू [गणय ]
समझ
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एव परमो धर्म इति चेत्, निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रय-
लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति
निश्चयरत्नत्रयस्वरूपे शुद्धोपयोगरूप परमधर्मनो तो अवकाश नथी. (अर्थात् गृहस्थोने
शुभोपयोगनी ज मुख्यता छे.)
समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं
नहीं है, अर्थात् गृहस्थोंके शुभोपयोगकी ही मुख्यता है
श्रावक, श्राविका इन सबको विनयपूर्वक आहार दे