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परमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतरसास्वादेन
पूर्ण कलशवद्भरितावस्थः केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकः शुद्धोपयोगस्वभावो
श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यग् अनुचरणरूप निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न वीतराग परम आह्लाद
जेनुं एक लक्षण छे एवा सुखामृतरसना आस्वादथी, पूर्ण छलोछल भरेला कळशनी जेम
परिपूर्ण, केवळज्ञानादिनी व्यक्तिरूप कार्यसमयसारनो उत्पादक एवो ज शुद्धोपयोगस्वभाव कारण
[स्पर्शैः ] स्पर्श विषयके कारण गड्ढेमें पड़कर बाँधे जाते हैं, [गंधेन ] सुगंधकी लोलुपतासे
[अलिकुलानि ] भौंरे काँटोंमें या कमलमें दबकर प्राण छोड़ देते और [रसे ] रसके लोभी
[मत्स्याः ] मच्छ [नश्यंति ] धीवरके जालमें पड़कर मारे जाते हैं
जीव विषयोंमें [किं ] क्या [अनुरागं ] प्रीति [कुर्वंति ] करते हैं ? कभी नहीं करते
जो निर्विकल्प समाधि, उससे उत्पन्न वीतराग परम आहलादरूप सुख
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नश्यन्तीति ज्ञात्वा कथं तत्रासक्तिं गच्छन्ति ते विवेकिन इति
नाश पामे छे.
विषयोंके अनुरागी पाँच इन्द्रियोंके लोलुपी भव भवमें नाश पाते हैं
चिदानन्दस्वभाव परमात्मतत्त्व उसको न सेवते हुए, न जानते हुए, और न भावते हुए, अज्ञानी
जीव मिथ्या मार्गको वाँछते, कुमार्गकी रुचि रखते हुए नरकादि गतिमें घानीमें पिलना, करोंतसे
विदरना, और शूली पर चढ़ना इत्यादि अनेक दुःखोंको देहादिककी प्रीतिसे भोगते हैं
चित्तकर निजरूपको नहीं ध्यावते हैं
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छे. ११३.
जगत् ] सम्पूर्ण जगत्को [दुःखं सहमानं ] दुःख सहते हुए [पश्य ] देख
[संदशकुलुंचनम् ] संडासीसे खेंचना, [पतत् त्रोटनम् ] चोट लगनेसे टूटना, इत्यादि दुःखोंको
सहती हैं, ऐसा [पश्य ] देख
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संबंधथी निर्लोभ परमात्मतत्त्वनी भावनाथी रहित जीव घणना घा समान नरकादिनां दुःखो घणा
काळ सुधी सहन करे छे. ११४.
निर्लोभपरमात्मतत्त्वभावना रहितो जीवो घनघातस्थानीयानि नारकादिदुःखानि बहुकालं सहत
इति
है, उसी तरह लोह अर्थात् लोभके कारणसे परमात्मतत्त्वकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव
घनघातके समान नरकादि दुःखोंको बहुत काल तक भोगता है
[भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, [स्नेहासक्तं ] स्नेहमें लगा हुआ [सकलं जगत् ] समस्त
संसारीजीव [दुःखं सहमानं ] अनेक प्रकार शरीर और मनके दुःख सह रहे हैं, उनको तू
[पश्य ] देख
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स्नेह समीचीन नथी. ते स्नेहमां आसक्त सकळ जगतने निःस्नेह एवा शुद्ध आत्मानी भावनाथी
रहित शारीरिक अने मानसिक अनेक प्रकारनां घणां दुःखोने सहन करतुं, तुं देख.
ज पामे छे. ११५.
तात्पर्यम्
हर जगह दुःख ही है
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भावता जीवो मिथ्यामार्गमां रुचि करता थका, पंचेन्द्रिय विषयोमां आसक्त थतां, नरनारकादि
गतिओमां घाणीमां पिलावुं, करवतथी कपावुं अने शूळीए चडवुं वगेरे अनेक प्रकारना दुःख सहन
करे छे. ए भावार्थ छे. ११६.
सन्तो नरनारकादिगतिषु यन्त्रपीडनक्रकचविदारणशूलारोहणादि नानादुःखं सहन्त इति
भावार्थः
[पुनः पुनः ] बार बार [पीडनदुःखम् ] पिलनेका दुख [सहमानं ] सहता है, उसे [पश्य ] देखो
[यौवनद्रहे ] जवान अवस्थारूपी बड़े भारी तालाबमें [पतिताः ] पड़े हुए विषय
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भावनारूप जहाजथी यौवनरूपी महासरोवरने जेओ तरी जाय छे तेओ ज धन्य छे, तेओ ज
सत्पुरुषो छे. ११७.
यौवनमहाहृदं ये तरन्ति त एव धन्यास्त एव सत्पुरुषा इति तात्पर्यम्
तालाबको तैर जाते हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, वे ही धन्य हैं, यह सारांश जानना, बहुत विस्तारसे
क्या लाभ है
[जीव ] हे जीव, [भिक्षाभोजन ] भिक्षासे भोजन करनेवाला [त्वं ] तू [आत्मीयं कार्यम् ] अपने
आत्मा का कल्याण भी [न करोषि ] नहीं करता
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आत्मानी अत्यंत स्वाभाविक-ज्ञानादि गुणोना स्थानभूत जे अवस्थान्तर (संसार-अवस्थाथी भिन्न
अवस्था) मोक्ष ते साध्यो छे, एम जाणीने भिक्षाथी भोजन करनार हे जीव! तुं आत्मीय कार्य
केम करतो नथी?
मोक्षः स साधितः
कर्तव्यमित्यभिप्रायः
राज्यके लिये उद्यमी हुए
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भटकतो, तुं महान दुःखने पामे छे, माटे शुद्ध आत्मानी प्राप्तिना बळथी आठेय कर्मोने निर्मूळ
करीने स्वात्मोपलब्धिरूप मोक्षने
आठों ही कर्मोंको [निर्दल्य ] नाश कर, [महांतम् मोक्षं ] सबमें श्रेष्ठ मोक्षको [व्रज ] जा
पावेगा, निगोद राशिमें अनंतकाल तक रुलेगा
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कुणहि किं कर्माणि करोषि किमर्थं तोइ यद्यपि दुःखानीष्टानि न भवन्ति तथापि इति
तात्पर्यम्
तो फि र [चतुर्गतिदुःखानां ] चार गतियोंके दुःखके [कारणानि कर्माणि ] कारण जो कर्म हैं,
[किं करोषि ] उनको क्यों करता है
करता है ? मत कर
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ज करे छे पण अनंतज्ञानादिस्वरूप मोक्षनुं कारण एवा वीतराग परम आह्लादना रसास्वादरूपे
ध्यायति
[मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [एकं क्षणं ] एक क्षण भी
[नैव चिंतयति ] नहीं चिन्तवन करता
वीतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एकक्षण भी विचार नहीं करता
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परमात्मभावनाथी प्रतिपक्षभूत स्त्री, पुत्रोमां मोहित थईने, निजपरमात्मतत्त्वना ध्यानथी
उत्पन्न, एक (केवळ) वीतराग सदानंदरूप निराकुळता लक्षणवाळा पारमार्थिक सुखथी विलक्षण
सहमानः ] अनेक दुःखोंको सहता हुआ [योनिलक्षाणि ] चौरासी लाख योनियोंमें [परिभ्रमति ]
भटकता फि रता है
विमुख जो शरीरके तथा मनके नाना तरहके सुख-दुःखोंको सहता हुआ भ्रमण करता है
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करे छे तेथी ते महान ज्ञान ज निरंतर भाववुं, ए अभिप्राय छे. १२२.
है, ज्ञान ही से मोक्षकी सिद्धि होती है
परमागममें [योगिभिः ] योगियोंने [दृष्टम् ] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं ] कर्मोंके
आधीन हैं, और [कृत्रिमं ] विनाशीक है
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कर्माधीन छे अने अकृत्रिम-टंकोत्कीर्ण-ज्ञायक जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्ध आत्मद्रव्यथी
विपरीत होवाथी कृत्रिम
करना
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नहि पण निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गने पण पामीश नहि. तेथी तुं तपश्चरणनुं ज
वारंवार विशेष चिन्तवन कर पण बीजा कोईनुं नहि. तपश्चरणना चिंतवनथी शुं फळ थाय छे?
तीर्थंकर परम देवाधिदेव आदि महान पुरुषोए आश्रय कर्यो होवाथी जे महान छे, एवा पूर्वोक्त
लक्षणवाळा मोक्षने तुं पामीश.
तात्पर्य छे. १२४.
कर्तव्येति तात्पर्यम्
इसलिये [वरं ] उत्तम [तपः एव तपः ] तपका ही बारम्बार [चिंतय ] चिंतवन कर, क्योंकि
तप से ही [महांतम् मोक्षं ] श्रेष्ठ मोक्ष सुखको [प्राप्नोषि ] पा सकेगा
निजस्वरूपकी भावना करना, यह तात्पर्य है
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पुत्रना ममत्वना निमित्तथी उत्पन्न, देखेला, सांभळेला अने अनुभवेला भोगोनी आकांक्षास्वरूप
तीक्ष्ण शस्त्रथी हे जीव! जे तुं पाप करीश ते पापनुं फळ नरकादि गतिमां तारे एकलाने ज
भोगववुं पडशे.
[कारणेन ] कारण [तत् त्वं ] उसके फलको तू [एक ] अकेला [सहिष्यसे ] सहेगा
शुद्धचैतन्य प्राणोंका घात करता है, अपने प्राण रागादिक मैलसे मैले करता है, और
बाह्यमें अनेक जीवोंकी हिंसा करके अशुभ कर्मोंको उपार्जन करता है, उनका फल तू
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निश्चयहिंसा छोडवी एवो भावार्थ छे. वळी निश्चयहिंसानुं स्वरूप पण (श्री जय धवल
भा-१ पाना १०२मां) कह्युं छे के
ते ज हिंसा छे, एम जिनेश्वरदेवे निर्देश कर्यो छे. १२५.
तीक्ष्ण शस्त्र उससे अपने ज्ञानादि प्राणोंको हनना, वह निश्चयहिंसा है, रागादिककी उत्पत्ति
वह निश्चय हिंसा है
परघात है
दिखलाया है
उसकी आयुके अनुसार है, परंतु इसने जब परघात विचारा, तब आत्मघाती हो
चुका
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करीने अने निश्चयनयथी अभ्यंतरमां मिथ्यात्व, रागादिरूप तीक्ष्ण शस्त्रथी शुद्धात्मअनुभूतिरूप
पोताना निश्चयप्राणोने चूरीने ते पूर्वोक्त स्व-पर जीवोमां तुं जे दुःख आपे छे, ते दुःखनी
अपेक्षाए अनंतगणुं दुःख हे मूढ जीव! तुं अवश्य पामीश.
त्वं कर्ता करिष्यसि तेषु पूर्वोक्त स्वपरजीवेषु तं तह पासि अणंतगुणु तद्दुःखं तदपेक्षया
अनन्तगुणं अवसइं अवश्यमेव जीव हे मूढजीव लहीसि प्राप्नोतीति
[तदपेक्षया ] उसकी अपेक्षा [अनंतगुणं ] अनंतगुणा [अवश्यमेव ] निश्चयसे [लभसे ] पावेगा
मारना वह चूरना है, यह हिंसा ही महा पापका मूल है
करता है, उसका फल अनंत दुःख अवश्य सहेगा
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कोई नियम नथी. जेम बीजानो घात करवा माटे (तेना तरफ फेंकवा माटे) तप्त लोखंडना
गोळाने झालवा जतां प्रथम तो पोतानो ज हाथ दाझे छे, एवो भावार्थ छे.
जीवनी आयु बाकी रही होय तो ते मारी शकातो नथी पण आणे मारवाना भाव कर्या
माटे ते निःसंदेह हिंसक बनी चूक्यो अने ज्यारे हिंसानो भाव थयो त्यारे ते कषायवान
थयो. कषायवान थवुं ते ज आत्मघात छे.) ।।१२६.
प्राणघातो भवतु मा भवतु नियमो नास्ति
देगा, तो निश्चयसे अनंतगुणा दुःख पावेगा
या न हो, परजीवका घात तो उसकी आयु पूर्ण हो गई हो, तब होता है, अन्यथा नहीं; परंतु
इसने जब परका घात विचारा, तब यह आत्मघाती हो चुका
परजीवका घात होवे, या न होवे
तब यह कषायवान् हुआ
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घात करनारने नरकगति थाय छे.
(वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूप अभयदान देवाथी) मोक्ष अने परजीवोना प्राणोनी
रक्षारूप अभयदान देवाथी स्वर्ग थाय छे. ए रीते बन्ने पंथ तारी आगळ दर्शाव्या छे. हे जीव!
ज्यां रुचे त्यां लागी जा.
नरकगतिर्भवति अभय-पदाणें निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं
स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां च कुर्वतां सग्गु स्वस्याभयप्रदानेन
मोक्षो भवत्यन्यजीवानामभयप्रदानेन स्वर्गश्चेति बे पह जवला दरिसिया एवं द्वौ पन्थानां
[समीपे ] अपने पास [दर्शितौ ] दिखलाये हैं, [यत्र ] जिसमें [रोचते ] तेरी रुचि हो, [तत्र ]
उसीमें [लग्न ] तू लग जा
परप्राणघात, सो प्राणघातियोंके नरकगति होती है
जीवकी रक्षा और व्यवहारनयकर परप्राणियोंके प्राणोंकी रक्षारूप अभयदान यह स्वदया