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(अने प्राणनो विनाश न थवाथी हिंसा बनी शके नहि). हवे जो प्राण (जीवथी) भिन्न
होय तो प्राणनो वध थतां पण, जीवनो वध थशे नहि (अने तेम थवाथी हिंसा बनी शके
नहि). ए रीते आ बेमांथी कोई पण प्रकारे जीवनी हिंसा ज नथी तो पछी जीवहिंसामां
पापबंध केवी रीते थाय?
कहेवामां आवे छे अने तेथी पापनो बंध थाय छे. वळी, जो एकांते देह अने आत्मानो
केवळ भेद ज मानवामां आवे तो जेवी रीते परना देहनो घात थतां पण दुःख न थाय
जीववधे पापबन्धो भविष्यतीति
स्वदेहघातेऽपि दुःखं न स्यान्न च तथा
जुदे नहीं हैं, तो जैसे जीवका नाश नहीं है, वैसे प्राणोंका भी नाश नहीं हो सकता ? अगर
जुदे हैं, अर्थात् जीवसे सर्वथा भिन्न हैं, तो इन प्राणोंका नाश नहीं हो सकता
हैं, किसी नयसे भिन्न हैं
बंध होता है
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वळी, निश्चयथी जीव (परभवमां) जवा छतां पण तेनी साथे देह जतो नथी, ए कारणे
देह अने आत्मा जुदा छे.
दुःख तमने सारुं न लागतुं होय तो तमे हिंसा न करो.) १२७.
परंतु निश्चयसे एकत्व नहीं है
करना यही हिंसा है, और हिंसासे पापका बंध होता है
व्यवहारनयकर ही पाप है, और पापका फल नरकादिकके दुःख हैं, वे भी व्यवहारनयकर
ही हैं
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शब्दथी वाच्य एवा विशुद्धज्ञान-दर्शनस्वभाववाळा मुक्त आत्मानी प्राप्तिनो उपाय जे निज
शुद्ध आत्माना सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, अने सम्यग्-अनुष्ठानरूप मार्ग छे ते रागादि
रहित होवाथी निर्मळ छे. एवा मोक्ष अने मोक्षमार्गमां तुं प्रीति कर; पूर्वोक्त मोक्षमार्गथी
प्रतिपक्षभूत घर, परिजनादिकने शीघ्र छोड. १२८.
मा कुरु
करहि रइ इत्थंभूते मोक्षे मोक्षमार्गे च रतिं प्रीतिं कुरु घरु परियणु लहु छंडि
पूर्वोक्त मोक्षमार्गप्रतिपक्षभूतं गृहं परिजनादिकं शीघ्रं त्यजेति तात्पर्यम्
खंडन मत कर
विनाशीक जानकर शीघ्र ही मोक्ष
सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मोक्षका मार्ग है, उसमें प्रीति कर
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ते बधुंय विनश्वर छे, आ संसारमां पूर्वोक्त परमात्मानी सद्रश कांईपण नित्य नथी. आ
अर्थ द्रढ करवा माटे द्रष्टांत कहे छे. शुद्धआत्मतत्त्वनी भावनाथी रहित, मिथ्यात्व, विषय,
कषायमां आसक्त जीवे जे कर्मो उपार्ज्यां छे ते कर्मो सहित जीव बीजा भवमां जतां ‘कुडि’
तत्समस्तमपि कृत्रिमं विनश्वरं णिक्कारिमउ ण कोइ अकृत्रिमं नित्यं पूर्वोक्त परमात्मस
पर उसके साथ [देहो न गतः ] शरीर भी नहीं जाता, [इमं दृष्टांतं ] इस दृष्टान्तको [पश्य ]
प्रत्यक्ष देखो
वचन, कायके व्यापार उनको आदि ले सभी कार्य-पदार्थ विनश्वर हैं
भी नहीं है, सब क्षणभंगुर हैं
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गच्छतापि कुडिशब्दवाच्यो देहः सहैव न गत इति हे जीव इहु पडिछंदा जोइ इमं
है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता
करनी चाहिये
गद्य
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अथवा धर्म प्रभावना अर्थे प्रतिमास्थापनारूप देव अथवा प्रतिमारूप रागादिरूपे परिणत
मिथ्यादेव, वीतराग निर्विकल्प आत्मतत्त्वथी मांडीने समस्त पदार्थनुं प्रतिपादक शास्त्र अने
मिथ्या शास्त्र, लोकालोकना प्रकाशक केवळज्ञान आदि गुणोथी समृद्ध एवा परमात्मानो प्रच्छादक
जे मिथ्यात्व, रागादिरूपे परिणतिरूप जे अज्ञानरूपी अंधकारनो दर्प जेना वचनरूपी सूर्यना
किरणोथी विदारित थयो थको क्षणमात्रमां नाश पामे छे एवा जिनदीक्षा देनार श्रीगुरु अथवा
तेनाथी विपरीत मिथ्यागुरु, संसारसमुद्रना तरवाना उपायभूत निज शुद्ध आत्मतत्त्वनी
भावनारूप निश्चयतीर्थ, तेना स्वरूपमां रत तपोधनना आवासभूत तीर्थक्षेत्रो पण अथवा
गुणस्मरणार्थं धर्मप्रभावनार्थं वा प्रतिमास्थापनारूपो देवो रागादिपरिणतदेवताप्रतिमारूपो वा, सत्थु
वीतरागनिर्विकल्पात्मतत्त्वप्रभृतिपदार्थप्रतिपादकं शास्त्रं मिथ्याशास्त्रं वा, गुरु लोकालोकप्रकाशक-
केवलज्ञानादिगुणसमृद्धस्य परमात्मनः प्रच्छादको मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपो महाऽज्ञानान्ध-
कारदर्पः तद्व्यापियद्वचनदिनकरकिरणविदारितः सन् क्षणमात्रेण च विलयं गतः स
जिनदीक्षादायकः श्रीगुरुः तद्विपरीतो मिथ्यागुरुर्वा, तित्थु वि संसारतरणोपायभूतनिजशुद्धात्म-
तत्त्वभावनारूपनिश्चयतीर्थं तत्स्वरूपरतः परमतपोधनानां आवासभूतं तीर्थकदम्बकमपि मिथ्या-
तीर्थसमूहो वा, वेउ वि निर्दोषिपरमात्मोपदिष्टवेदशब्दवाच्यः सिद्धान्तोऽपि परकल्पितवेदो वा कव्वु
शुद्धजीवपदार्थादीनां गद्यपद्याकारेण वर्णकं काव्यं लोकप्रसिद्धविचित्रकथाकाव्यं वा, वच्छु
कहते हैं, वह भी विनश्वर है
जो आत्मतत्त्व उसको आदि ले जीव अजीवादि सकल पदार्थ उनका निरूपण करनेवाला जो
जैनशास्त्र वह भी यद्यपि अनादि प्रवृत्तिकी अपेक्षा नित्य है, तो भी वक्ता-श्रोता पुस्तकादिककी
अपेक्षा विनश्वर ही है, और जैन सिवाय जो सांख्य पातंजल आदि परशास्त्र हैं, वे भी विनाशीक
हैं
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परकल्पित वेदो, शुद्ध जीवादि पदार्थोनुं गद्य-पद्याकारे वर्णन करनारुं काव्य अने लोकप्रसिद्ध
विचित्र कथाकाव्य, परमात्मभावनाथी रहित जीवे जे वनस्पतिनामकर्म उपार्ज्युं छे तेना उदयथी
थयेलां वृक्षो के जे फूलोवाळुं देखाय छे ए बधुंय काळरूपी अग्निनुं इन्धन थई जशे
कुसुमियउ यद्
विनश्वर हैं, और उसके आचरणसे विपरीत जो अज्ञान तापस मिथ्यागुरु वे भी क्षणभंगुर हैं
जिनतीर्थके सिवाय जो पर यतियोंका निवास वे परतीर्थ वे भी विनाशीक हैं
सदा सनातन है, तो भी क्षेत्रकी अपेक्षा विनश्वर है, किसी समय है, किसी क्षेत्रमें पाया जाता
है, किसी समय नहीं पाया जाता, भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्रमें कभी प्रगट हो जाता है, कभी विलय
हो जाता है, और महाविदेहक्षेत्रमें यद्यपि प्रवाहकर सदा शाश्वता है, तो भी वक्ता
श्रोताव्याख्यानकी अपेक्षा विनश्वर है, वे ही वक्ता-श्रोता हमेशा नहीं पाये जाते, इसलिए
विनश्वर है, और पर मतियोंकर कहा गया जो हिंसारूप वेद वह भी विनश्वर है
जिसमें विचित्र कथायें हैं, ऐसे सुन्दर काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर हैं
किया जो वनस्पतिनामकर्म उसके उदयसे वृक्ष हुआ, सो वृक्षोंके समूह जो फू ले
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संबंधः
भी शुद्धात्माकी भावनाके समय वह धर्मानुराग भी नीचे दरजेका गिना जाता है, वहाँ पर केवल
वीतरागभाव ही है
पदार्थोंकी रचना है, वह सब [भंगुरं ] विनाशीक है, [एतद् विशेषम् ] इस विशेष बातको तू
[बुध्यस्व ] जान
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पर लोकमां रचायेलुं छे ते विनश्वर छे. हे प्रभाकरभट्ट! तुं आ विशेष जाण.
विसेसु इमं विशेषं बुध्यस्व जानीहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट
विनश्वरमिति
तू जान, देहादिको अनित्य जान और जीवोंको नित्य जान
देखे जाते, नष्ट हो जाते हैं [तेन कारणेन ] इस कारण तू [धर्मं ] धर्मको [कुरु ] पालन कर
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-अणगार धर्मनुं पालन कर, धन अने यौवनमां तृष्णा शा माटे करे छे?
समाधिमां स्थिर रहेवुं. यौवनमां पण तृष्णा न करवी. यौवन-अवस्थामां यौवनना उद्रेकजनित
विषयनो राग छोडी दईने अने विषयथी प्रतिपक्षभूत वीतराग चिदानंद जेनो एक स्वभाव छे
पदार्थोंकी तृष्णा छोड़ और श्रावकका तथा यतीका धर्म स्वीकार कर, धन यौवनमें क्या तृष्णा
कर रहा है
रखनी, धनकी इच्छा नहीं करनी
करे, और जो बड़ी शक्ति होवे, तो सब परिग्रह त्यागकर यतीके व्रत धारण करके निर्विकल्प
परमसमाधिमें रहे
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उपवास आदि गृहस्थधर्मनुं आचरण न कर्युं, दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि अगियार प्रकारना
वा
उसका शरीर [जरोद्रेहिकया खादयित्वा ] बुढ़ापारूपी दीमकके कीड़ेकर खाया जायगा, फि र
[तेन ] उसको मरणकर [नरके ] नरकमें [पतितव्यं ] पड़ना पड़ेगा
धर्म नहीं धारण किया, तथा मुनि होकर सब पदार्थोंकी इच्छाका निरोध कर अनशन वगैरः
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अनशनादि बार प्रकारना तपश्चरणना बळथी निजशुद्धात्माना ध्यानमां स्थित थईने निरंतर
आत्मभावना न करी-ए रीते जे गृहस्थे के तपोधने न कर्युं, तेनुं शरीर जरारूप ऊधईथी खवाई
जशे, अने नरकमां पडवुं पडशे.
विशिष्ट तपश्चरण करवुं जोईए, नहितर (श्रावकनो के यतिनो धर्म न पाळ्यो तो) परंपराए
पामेलो दुर्लभ एवो मनुष्यजन्म निष्फळ छे. १३३.
कर्तव्यं नो चेत् दुर्लभपरंपरया प्राप्तं मनुष्यजन्म निष्फलमिति
नहीं की, मनुष्यके शरीररूप चर्ममयी वृक्षको पाकर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं किया,
उनका शरीर वृद्धावस्थारूपी दीमकके कीड़े खावेंगे, फि र वह नरकमें जावेगा
रत्नत्रयरूप श्रावकका धर्म पालना
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गृहस्थनी अपेक्षाए दानपूजादिरूप अथवा शुभोपयोगस्वरूप व्यवहारधर्ममां रति कर. आ धर्ममां
जे प्रतिकूळ होय ते मनुष्य पोताना गोत्रमां जन्मेलो होय तोपण तेनो त्याग कर, धर्मसन्मुख तेमां
(धर्ममां) अनुकूळ होय तेने परगोत्रमां जन्मेलो होय तोपण, पोतानो कर.
संसारसुखसहकारिकारणभूतं स्वजनं गोत्रमप्यपहर त्यज
लक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे व शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु
[स्वजनं ] जो अपने कुटुम्बके जन उनको [अपहर ] त्याग, अन्यकी तो बात क्या है ? [तेन
पित्रापि नैव कार्यं ] उसे महास्नेहरूप पितासे भी कुछ काम नहीं है, [यः ] जो [संसारे ]
संसार
आवश्यकरूप यतीका धर्म, तथा दान पूजादि श्रावकका धर्म, यह शुभाचाररूप दो प्रकार धर्म
उसमें प्रीति कर
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जिनधर्ममें करे, तो संसारमें भ्रमण न करे
मनुष्यजन्मको [लब्ध्वा ] पाकर [परं ] केवल [आत्मा वंचितः ] अपना आत्मा ठग लिया
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आत्मवंचक छे. वळी, कह्युं पण छे के
संदेह नथी. आत्मा विमळस्वभावी छे पण ते चित्त मलिन थतां मलिन थाय छे. १३५.)
अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माका ठगनेवाला है
तिर्यंचसे मनुष्य, होना दुर्लभ है
(कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है
करने चाहिये, जिन्होंने चित्तको निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं
(तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए
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स्वेच्छाए चरवा न दे (वशमां राख), कारण के तेओ पहेलां पांच इन्द्रियना विषयरूपी वननुं
भक्षण करीने पछी जीवने निःसंसार एवा शुद्ध आत्माथी प्रतिपक्षभूत पांच प्रकारना संसारमां
पाडे छे, ए अभिप्राय छे. १३६.
स्वशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखपराङ्मुखो भूत्वा स्वेच्छया मा चारय व्याघुट्टय
विषय
वशमें रख, ये तुझे संसारमें पटक देंगे, इसलिये इनको विषयोंसे पीछे लौटा
ये पंचेन्द्रीरूपी ऊँट स्वच्छंद हुए विषय
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तेमां ज वीतराग परम आह्लादमय, समरसीभावरूप परमसुखथी रहित, अनादिकाळथी
वासनामां वासित अने पांच इन्द्रियोना विषयसुखना आस्वादमां आसक्त जीवोनुं मन फरी फरीने
जाय छे, ए भावार्थ छे. १३७.
परमाह्लादसमरसीभावपरमसुखरहितानां अनादिवासनावासितपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वादासक्तानां पुनः
पुनः तत्रैव गच्छतीति भावार्थः
स्थिरताको नहीं प्राप्त होता
[याति ] जाता है
पंचेन्द्रियोंके विषय
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विशुद्ध दर्शनज्ञान स्वभावथी परमात्माने ध्यावतो थको जे निजशुद्धात्मद्रव्यना सम्यक्श्रद्धान,
सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रयने पाळे छे-रक्षे छे ते योगी
[दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय को [पालयति ] पालता है, रक्षा करता
है
पांचपरमेष्ठीकी भावनासे रहित ऐसी पंचेंद्रियोंसे जुदा हो गया है, वही योगी है, योग शब्दका
अर्थ ऐसा है, कि अपना मन चेतनमें लगाना वह योग जिसके हो, वही योगी है, वही ध्यानी
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अनंतज्ञानादिरूप स्वशुद्धात्मामां जोडावुं
हे भोले जीव, [त्वं ] तू [आत्मनः स्कंधे ] अपने कंधे पर [कुठारम् ] आपही कुल्हाड़ीको
[मा वाहय ] मत चलावे
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परिपाटी ज
यान्युपार्जितानि पापानि तदुदयजनितानां नारकादिदुःखानां पारिपाटी प्रस्तावः एवं ज्ञात्वा
भुल्लउ जीव हे भ्रांत जीव म वाहि तुहुं मा निक्षिप त्वम्
क्योंकि [यस्य शीर्षं ] जिसका शिर [खल्वाटं ] गंजा है, [सः ] वह तो [दैवेन एव ] दैवकर
ही [मुंडितः ] मूड़ा हुआ है, वह मुंडित नहीं कहा जा सकता