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आत्मतत्त्वनी प्राप्तिरूप निश्चयधर्मना चोर छे तेमने
अहीं, पूर्वकाळमां देवोनुं आगमन जोईने, सात ॠद्धिरूप धर्मनो अतिशय जोईने,
अनेक राजाधिराजना मणिमुकुटना किरणो चुम्बन करतां हतां (जेमना चरणारविंदने मोटा
मोटा राजाओ नमस्कार करे छे) एवा भरत, सगर, राम, पांडवादिने जिनधर्ममां रत
किज्जउं हउं तासु बलिं पूजां करोमि तस्याहमिति
छोड़ते हैं, उनकी बलिहारी श्रीयोगीन्द्रदेव करते हैं, अर्थात् अपना गुणानुराग प्रगट करते हैं, जो
वर्तमान विषयोंके प्राप्त होने पर भी उनको छोड़ते हैं, वे महापुरुषोंकर प्रशंसा योग्य हैं, अर्थात्
जिनके सम्पदा मौजूद हैं, वे सब त्यागकर वीतरागके मारगको आराधें, वे तो सत्पुरुषोंसे सदा
ही प्रशंसाके योग्य हैं, और जिसके कुछ भी तो सामग्री नहीं है, परंतु तृष्णासे दुःखी हो रहा
है, अर्थात् जिसके विषय तो विद्यमान नहीं हैं, तो भी उनका अभिलाषी है, वह महानिंद्य है
नानाप्रकारकी ऋद्धियोंके धारी महामुनियोंका अतिशय देखकर ज्ञानकी प्राप्ति होती थी, तथा
अन्य जीवोंको अवधिमनःपर्यय केवलज्ञानकी उत्पत्ति देखकर सम्यक्त्वकी सिद्धि होती थी,
जिनके चरणारविन्दोंको बड़े
आ झाडनां फळ देखावे सुंदर होय छे पण खावामां कडवां अने झेरी होय छे.
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रत जीवोने दान-पूजादिक करे तेमां आश्चर्य नथी, परंतु आ जे
(बळदेव) चक्रघर (चक्रवर्ती) नो अभाव छे. ए प्रमाणे श्लोकमां कहेला लक्षणवाळा
दुषमकाळमां जे विषयनो त्याग करे छे ते आश्चर्य छे. (अर्थात् तेवा पुरुषोने धन्य छे)
एवो भावार्थ छे. १३९.
तत्राश्चर्यं नास्ति इदानीं पुनः ‘‘देवागमपरिहीणे कालेऽतिशयवर्जिते
है, ऐसे दुःषमकालमें जो भव्यजीव धर्मको धारण करते हैं, यती श्रावकके व्रत आचरते हैं, यह
अचंभा है
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विकल्पजाळरूप अने पांच ज्ञानना प्रतिपक्षभूत पांच इन्द्रियोना मनरूपी नायकने
विशिष्टभेदभावनारूप अंकुशना बळथी स्वाधीन करो. जेने स्वाधीन करवाथी शुं थाय छे? जेने
(मनने) वश करवाथी अन्य इन्द्रियो वश थाय छे. द्रष्टांत कहे छे. झाडनुं मूळ नष्ट थतां,
पांदडाओ नक्की सुकाई जाय छे.
भावनाङ्कुशबलेन स्वाधीनं कुरुते
हो जाती हैं
और देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप आर्त, रौद्र, खोटे ध्यानोंको आदि लेकर अनेक
विकल्पजालमयी मन है
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(मनने जीतवाथी ते) जितेन्द्रिय थवाय छे. वळी, कह्युं छे के
उपाय मूकी देवो नहि.) १४०.
तो मोक्षका साधन कर, ऐसा संबोधन करते हैं
अनुभव [निश्चलं ] निश्चलरूप [कुरु ] कर, जिससे कि [अवश्यं ] अवश्य [मोक्षं ] मोक्षको
[लभसे ] पावेगा
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केटलो काळ वितावीश?
प्रसंग आवी पडवा छतां पण, मेरुवत् निश्चळपणे संसर्ग कर (निश्चळ ध्यान कर), तेवा
निश्चळआत्मध्यानथी तुं अनंतज्ञानादि गुणोनुं स्थान एवा मोक्षने अवश्य पामीश, एवुं तात्पर्य
छे. १४१.
संसर्गं कुरु
तात्पर्यम्
भटकेगा ? अब तो केवलज्ञान दर्शनरूप अपने शुद्धात्माका अनुभव कर, निज भावोंका संबंध
कर
मोक्ष पावेगा
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प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व, रागादिमां क्यांय पण गमन न कर. जे कोई विषयकषायने आधीन थवाथी
‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा स्वशुद्धात्मामां लीन-तन्मय-थता नथी, तेमने व्याकुळतानुं लक्षण जे
छे एवा दुःखने सहन करता तुं देख.
तपोधन कहिं वि म जाहि शुद्धात्मभावनाप्रतिपक्षभूते मिथ्यात्वरागादौ क्वापि गमनं मा कार्षीः
लीनास्तन्मया व भवन्ति दुक्खु सहंता वाहि व्याकुलत्वलक्षणं दुक्खं सहमानास्सन्तः पश्येति
निजभावमें [नैव लीनाः ] नहीं लीन होते हैं, वे सब [दुःखं ] दुःखको [सहमानाः ] सहते हैं,
ऐसा तू [पश्य ] देख
मत कर, केवल आत्मस्वरूपमें मगन रह
धाम है
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निजशुद्धात्माथी च्युत जीवने आ बे वस्तु मळी नथी. बे कई? (१) अनंतज्ञानादि-
[न प्राप्ते ] नहीं पाये
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शब्दथी निश्चयथी शुद्धात्मानुभूतिलक्षण वीतराग-सम्यक्त्व अने व्यवहारथी वीतराग सर्वज्ञप्रणीत
सत्द्रव्यादिना श्रद्धानरूप सराग सम्यक्त्व, एम भावार्थ छे.
सम्यक्त्वशब्देन तु निश्चयेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागसम्यक्त्वम्, व्यवहारेण तु
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसद्द्रव्यादिश्रद्धानरूपं सरागसम्यक्त्वं चेति भावार्थः
न पाये
है, परन्तु जिनराजस्वामी न पाये, ऐसा नहीं हो सकता ? क्योंकि ‘‘भवि भवि जिण पुज्जिउ
वंदिउ’’ ऐसा शास्त्रका वचन है, अर्थात् भव भवमें इस जीवने जिनवर पूजे और गुरू वंदे
वीतराग सर्वज्ञदेवके उपदेशे हुए षट् द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ और पाँच अस्तिकाय उनका
श्रद्धानरूप सराग सम्यक्त्व यह निश्चय व्यवहार दो प्रकारका सम्यक्त्व है
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अज्ञानी जीवोंके बाँधनेके लिये यह [पाशःमंडितः ] अनेक फाँसोंसे मंडित [अविचलः ] बहुत
मजबूत बंदीखाना बनाया है, इसमें [निस्संदेहम् ] सन्देह नहीं है
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छे, एमां संदेह करवा योग्य नथी.
माफक शुद्धात्मभावना करवानुं बनी शकतुं नथी. वळी, कह्युं पण छे केः
नथी.) ।।१४४.
गृहस्थानां तपोधनवत् शुद्धात्मभावना कर्तुं नायातीति
विषय कषाय हैं, उनसे यह मन व्याकुल होता है
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निमित्ते तुं मोह न कर. हे तपोधन! ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा शुद्धात्मानी भावनानो
त्याग न कर.
छोडीने अने शुद्ध आत्मानी अनुभूतिलक्षण वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने
सर्वतात्पर्यथी भावना करवी जोईए, ए अभिप्राय छे. १४५.
अवगण्णु हे तपोधन शिवशब्दवाच्यशुद्धात्मभावनात्यागं मा कार्षीरिति
सोऽपि जीवस्वरूपं न भवति इति ज्ञात्वा बहिःपदार्थे ममत्वं त्यक्त्वा शुद्धात्मानुभूति-
लक्षणवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः
तू [शिवसंगमं ] मोक्षका संगम [अवगण्य ] छोड़कर [परकारणे ] पुत्र, स्त्री, वस्त्र, आभूषण
आदि उपकरणोंमें [मा मुह्य ] ममत्व मत कर
धन
शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये
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संसर्गमां अक्षय, अनंतसुख प्राप्त थाय छे, जे कारणथी-बाह्य-चिन्ताथी अव्याबाध
अतीन्द्रिय सुख पावे, [अन्यं मा ] अन्य कुछ भी मत [चिंतय ] चिंतवन कर, [येन ] जिससे
कि [मोक्षः न लभ्यते ] मोक्ष न मिले
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जाणीने घुणथी खावामां आवेला नकामा थयेला सांठानो, वाववामां बीज तरीके उपयोग
करी असारने सार करवामां आवे छे. तेवी रीते मनुष्यजन्मने असार होवा छतां सारभूत
करवामां आवे छे. केवी रीते? जेवी रीते घुणभक्षित शेरडीना सांठानो बीज तरीके उपयोग
जो इस मनुष्य
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(केवळ) वीतरागसहजानंदरूप स्वशुद्धात्मस्वभावनां सम्यक् श्रद्धान, सम्यग् ज्ञान अने
सम्यग् अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रयनी भावनाना बळथी अने ते निश्चयरत्नत्रयना
साधक व्यवहाररत्नत्रयनी भावनाना बळथी स्वर्ग अने मोक्षनुं फळ मळे छे, ए तात्पर्य
छे. १४७.
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयभावनाबलेनतत्साधकव्यवहाररत्नत्रयभावनाबलेन च
स्वर्गापवर्गफलं गृह्यत इति तात्पर्यम्
आचरणरूप निश्चयरत्नत्रयकी भावनाके बलसे मोक्ष प्राप्त किया जाता है, और निश्चयरत्नत्रयका
साधक जो व्यवहाररत्नत्रय उसकी भावनाके बलसे स्वर्ग मिलता है, तथा परम्परासे मोक्ष होता
है
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धातुमय होवाथी अशुचिमय छे एवा शरीरथी पण शुचिभूत शुद्धात्मस्वरूपनुं ग्रहण थाय
छे, निर्गुण होवा छतां शरीरथी पण केवळज्ञानादि गुणोनो समूह साधवामां आवे छे. वळी
(श्रीरामसिंह दोहापाहुड गाथा १९मां) कह्युं पण छे
साध्यत इति भावार्थः
[दुर्जने ] दुर्जनोंका [उपकाराः ] उपकार करना वृथा है
अपना नहीं हो सकता
शुद्धात्मस्वरूपकी आराधना करना
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ते क्रिया शा माटे न करवी? (अवश्य करवी.) अर्थात् आ विनाशी, मलिन अने निर्गुण
शरीरने स्थिर, निर्मळ अने गुणयुक्त आत्माना ध्यानमां लगाडवुं जोईए. १४८.
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शुद्ध आत्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म अने नोकर्मना मळथी रहित छे.
करवी जोईए. १४९.
मल
[एतैः ] इन मिले हुओंसे [विधिना ] विधाताने [वैरं ] वैर [मत्वा ] मानकर [देहः ] शरीर
[निर्मितः ] बनाया है
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भिन्न होवाथी अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा सुखस्वभाववाळो छे. त्रण लोकमां जेटलां
पापो छे तेटलां पापोथी बनेल होवाथी आ देह पापरूप छे, अने शुद्ध आत्मा तो
व्यवहारथी देहमां रहेवा छतां पण निश्चयथी पापरूप देहथी भिन्न होवाथी अत्यंत पवित्र
छे. त्रण लोकमां जेटला अशुचि पदार्थो छे तेटला अशुचि पदार्थोथी बनेल होवाथी आ देह
अशुचिरूप छे अने शुद्ध आत्मा तो व्यवहारथी देहमां रहेलो होवा छतां पण निश्चयथी
देहथी पृथक्भूत (अलग, भिन्न, जुदो) होवाथी अत्यंत निर्मळ छे.
विनिर्मितः
पापरूपदेहाद्भिन्नत्वादत्यन्तपवित्रः
निराकुलस्वरूप सुखरूप है, तीन लोकमें जितने पाप हैं, उन पापोंसे यह शरीर बनाया गया
है, इसलिये यह देह पापरूप ही है, इससे पाप ही उत्पन्न होता है, और चिदानंद चिद्रूप जीव
पदार्थ व्यवहारनयसे देहमें स्थित है, तो भी देहसे भिन्न अत्यंत पवित्र है, तीन जगत्में जितने
अशुचि पदार्थ हैं, उनको इकट्ठेकर यह शरीर निर्माण किया है, इसलिये महा अशुचिरूप है,
और आत्मा व्यवहारनयकर देहमें विराजमान है, तो भी देहसे जुदा परम पवित्र है
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प्रश्ननो प्रत्युतर आपे छे. हे विशिष्ट भेदज्ञानी! वीतराग सदानंद जेनो एक स्वभाव
छे तेवा परमात्माने आर्तरौद्रादि समस्त विकल्पना त्याग वडे निर्मळ करतो थको तुं
‘निश्चयधर्म’ शब्दथी वाच्य एवा वीतराग चारित्र द्वारा (चारित्रने करीने, चारित्र वडे
अथवा चारित्रमां) प्रीति कर. १५१.
कुर्वन्निति तात्पर्यम्
तू [आत्मानं ] आत्माको [विमलं कुर्वन् ] निर्मल करता हुआ [धर्मे ] धर्मसे [रतिं ] प्रीति
[कुरु ] कर
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नथी.
[ज्ञानमयं ] ज्ञानादि गुणमय [तं आत्मानं ] ऐसे आत्माको [त्वं ] तू [पश्य ] देख
इन तीन अशुभ लेश्याओंको आदि लेकर सब विभावभावोंको त्यागकर, निजस्वरूपका
ध्यान कर