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तीव्र मूर्च्छारूप अने विषयोनी आकांक्षारूप नीललेश्या, रणभूमिमां मरवा इच्छे अने कोई
स्तुति करे तो संतोष पामे वगेरे लक्षणोवाळी कापोतलेश्या
संतोषं करोतीत्यादिलक्षणा कापोतलेश्या च, एवं लेश्यात्रयप्रभृतिसमस्तविभावत्यागेन
देहाद्भिन्नमात्मानं भावय इति
स्वभाव लज्जा रहित हो, दया
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सत्पुरुषो देहनुं ममत्व छोडे छे, (कारण के) जे देहमां पंचेन्द्रियोना विषयोथी रहित
शुद्धात्मानुभूतिसंपन्न परम सुख पामता नथी ते देहमां सत्पुरुषो शा माटे निवास करे?
शुद्धात्मसुखमां संतोष छोडीने ते देहमां शा माटे रति करे? १५३.
भावार्थः
क्योंकि [यत्र ] जिस देहमें [परमसुखं ] उत्तम सुख [न प्राप्नुवंति ] नहीं पाते, [तत्र ] उसमें
[संतः ] सत्पुरुष [किं वसंति ] कैसे रह सकते हैं ?
हैं, और शुद्धात्मस्वरूपका सेवन करते हैं, निजस्वरूपमें ठहरकर देहादि पदार्थोंमें प्रीति
छोड़ देते हैं
नहीं मिल सकता
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सुहु वढ चिंतंताहं इन्द्रियाधीनं परसुखं चिन्तयतां वत्स मित्र हियइ ण फि ट्टइ सोसु
हृदये न नश्यति शोषोऽन्तर्दाह इति
सुखको [चिंतयतां ] चिन्तवन करनेवालोंके [हृदये ] चित्तका [शोषः ] दाह [न नश्यति ] नहीं
मिटता
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थशे.) ए प्रमाणे गाथाथी कहेल लक्षणवाळा अध्यात्मसुखमां स्थित थईने भावना (आत्मभावना)
करवी, एवुं तात्पर्य छे. वळी कह्युं पण छे के
कामभोगोथी तृप्त थई शकतो नथी).
छे. १५४.
भोगोंसे तृप्त नहीं होता
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देहमां, रागादि न कर.
शुद्धात्मज्ञानं स्वभावं ज्ञात्वा जोइयहु भो योगिन् परहं म बंधउ राउ परस्मिन् शुद्धात्मनो
विलक्षणे देहे रागादिकं मा कुरु तस्मात्
केवलज्ञानस्वभाव है, [इदं ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [योगिन् ] हे योगी, [परस्मिन् ] परवस्तुसे
[रागम् ] प्रीति [मा बधान ] मत बाँध
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विषयकषायरूप महावात वडे जे भव्यवर पुंडरिकनुं मनरूपी प्रचुर जळ क्षोभ पामतुं नथी, तेनुं
अनादिकाळरूप महापाताळमां पडेलुं आत्मरूपी रत्नविशेष रागादि मळना त्याग वडे शीघ्र
निर्मळ थाय छे. हे वत्स! मात्र निर्मळ थाय छे एटलुं ज नहि पण, शुद्धात्माने परम
कहेवामां आवे छे ते परमनी कळा-अनुभूति ते परम कळा, ते परमकळारूपी द्रष्टि वडे ज जे
णवि डहुलिज्जइ नैव क्षुभ्यति जासु यस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य अप्पा णिम्मलु होइ लहु
आत्मा रत्नविशेषोऽनादिकालरूपमहापाताले पतितः सन् रागादिमलपरिहारेण लघु शीघ्रं
निर्मलो भवति
जीवकी [आत्मा ] आत्मा [वत्स ] हे बच्चे, [निर्मलो भवति ] निर्मल होती है, और [लघु ]
शीघ्र ही [प्रत्यक्षोऽपि ] प्रत्यक्ष हो जाती है
छोड़नेसे शीघ्र ही निर्मल हो जाता है, हे बच्चे, आत्मा उन भव्य जीवोंका निर्मल होता है, और
प्रत्यक्ष उनको आत्माका दर्शन होता है
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सकता
[यस्य ] जिसकी [ईदृशी ] ऐसी [शक्तिः ] शक्ति [न ] नहीं है, [सः ] वह [योगेन ] योगसे
[किं करोति ] क्या कर सकता है ?
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वत्स योगेन किं करोति
समाधिरूप शस्त्रसे शीघ्र ही मारकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, वह योगी योगसे क्या
कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता
मनोरथरूप विकल्प
ध्यान लगाते हैं, [वत्स ] हे वत्स, वे अज्ञानी हैं, [तेषां अज्ञान विजृंभितानां ] उन शुद्धात्माके
ज्ञानसे विमुख, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिरूप अज्ञानसे परिणत हुए जीवोंको [केवलज्ञानम्
स्वभाव छे एवा परमात्मामां नथी जोड्यो ते पुरुष
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ध्यायन्ति
जिनप्रतिमाक्षरादिकं ध्येयं भवतीति तथापि निश्चयध्यानकाले स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति
भावार्थः
ध्यावने योग्य हैं, तो भी निश्चय ध्यानके समय शुद्ध आत्मा ही ध्यावने योग्य है, अन्य
नहीं
ध्यान करवा योग्य छे तोपण निश्चयध्यानना काळे स्वशुद्धात्मा ज ध्याववा योग्य छे एवो भावार्थ
छे. १५८.
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निजशुद्धात्मस्वरूपं झायंताहं वीतरागत्रिगुप्तिसमाधिबलेन ध्यायतां बलि बलि जोइयडाहं
श्रीयोगीन्द्रदेवाः स्वकीयाभ्यन्तरगुणानुरागं प्रकटयन्ति, बलिं क्रियेऽहमिति परमयोगिनां प्रशंसां
कुर्वन्ति
जिन योगियोंके [परेण सह ] अन्य पदार्थोंके साथ [समरसीभावं ] समरसीभाव है, और
[पुण्यम् पापं अपि न ] जिनके पुण्य और पाप दोनों ही उपादेय नहीं हैं
अन्तरंगका धर्मानुराग प्रगट करते हैं, और परम योगीश्वरोंके परम स्वसंवेदनज्ञान सहित महा
समरसीभाव है
निजशुद्धात्म स्वरूपनुं वीतराग त्रण गुप्तिथी युक्त समाधिना बळथी ध्यान करनाराओ प्रत्ये
श्री योगीन्द्रदेव पोतानो अभ्यंतर (अंतरनो) गुणानुराग प्रगट करे छे. ते परम योगीओ
पर हुं श्री योगीन्द्रदेव
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हृदयमें स्थापन करता है, और [यः ] जो [वसितान् ] पहलेके बसे हुए मिथ्यात्वादि परिणाम
हैं, उनको [शून्यान् ] ऊ जड़ करता है, उनको निकाल देता है, [तस्य योगिनः ] उस योगीकी
[अहं ] मैं [बलिं ] पूजा [कुर्वे ] करता हूँ, [यस्य ] जिसके [न पापं न पुण्यम् ] न तो पाप
है और न पुण्य है
एक स्वभाव छे. एवा परमात्माथी विलक्षण पुण्य-पाप बन्ने नथी. १५९.
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सुण्णु निश्चयनयेन शुद्धचैतन्यनिश्चयप्राणस्य हिंसकत्वान्मिथ्यात्वविकल्पजालमेव निश्चयहिंसा
तत्प्रभृति-समस्तविभावपरिणामान् स्वसंवेदनज्ञानलाभात्पूर्वं वसितानिदानीं शून्यान् करोतीति बलि
किज्जउं तसु जोइयहिं बलिर्मस्तकस्योपरितनभागेनावतारणं क्रियेऽहमिति तस्य योगिनः
करता है
है, ऐसे परमयोगीकी मैं बलिहारी हूँ, अर्थात् उसके मस्तक पर मैं अपनेको वारता हूँ
निश्चयहिंसा छे, ते हिंसाथी मांडीने पूर्वे वसेला समस्त विभावपरिणामोने स्वसंवेदनरूप ज्ञाननी
प्राप्तिथी अत्यारे शून्य (उज्जड) करे छे, ते योगीने हुं वारी जाउं छुं अर्थात् हुं माथुं नमावीने
नमस्कार करुं छुं, ए रीते श्री योगीन्द्रदेव गुणोनी प्रशंसा करे छे के जे योगीने वीतराग शुद्ध
आत्मतत्त्वथी विपरीत पुण्य अने पाप बन्ने नथी. १६०.
परमोपदेशनुं पांच सूत्रो द्वारा फरीने पण वर्णन करे छेः
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गच्छति सो सामिय उवएसु कहि हे स्वामिन् तदुपदेशं कथयति प्रभाकरभट्टः श्रीयोगीन्द्रदेवान्
पृच्छति
आत्मस्वभावथी विपरीत अनेक विकल्पनी जाळरूप मन विलय पामे ते उपदेश हे स्वामी! आप
मने कहो, एम प्रभाकरभट्ट श्री योगीन्द्रदेवने प्रश्न करे छे. एवा निर्दोष परमात्मा
हवे तेनो उत्तरः
मन [अस्तमनं ] स्थिरताको [याति ] प्राप्त हो जावे, [अन्य देवेन किम् ] दूसरे देवताओंसे क्या
प्रयोजन है ?
उत्पन्न समस्त विकल्प-जालोंसे रहित जो परमात्मा पदार्थ उसमें मोह-जालका लेश भी न रहे,
और निर्विकल्प शुद्धात्म भावनासे विपरीत नाना विकल्पजालरूपी चंचल मन वह अस्त हो
जावे
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भरितावस्थे निर्विकल्पसमाधौ विलाइ पूर्वोक्त : श्वासो विलयं गच्छति नासिकाद्वारं विहाय
तालुरन्ध्रेण गच्छतीत्यर्थः
पूर्वोक्त रागादिविकल्पाधारभूतं तन्मयं वा अत्थवणहं जाइ अस्तं विनाशं गच्छति स्वस्वभावेन
समाधिमां विलय पामे छे, अर्थात् नासिका द्वार छोडीने ताळवाना छिद्रथी (ब्रह्मरंध्रना दशम
द्वारथी) नीकळे छे ते बाह्य बोधथी शून्य निर्विकल्प समाधिमां मोहना उदयथी उत्पन्न रागादि
विकल्पजाळ शीघ्र नाश पामे छे, पूर्वोक्त रागादि विकल्पोना आधारभूत अथवा पूर्वोक्त रागादि
विकल्पोमां तन्मय एवुं मन विनाश पामे छे
[झटिति ] शीघ्र [त्रुटयति ] नष्ट हो जाता है, [मनः ] और मन [अस्तं याति ] स्थिर हो जाता
है
तत्त्वस्वरूप परमानंदकर पूर्ण निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर चित्त हो जाता है, तब श्वासोच्छ्वासरूप
पवन रुक जाती है, नासिकाके द्वारको छोड़कर तालुवा रंध्ररूपी दशवें द्वारमें होके निकले, तब
मोह टूटता है, उसी समय मोहके उदयकर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-जाल नाश हो जाते हैं,
बाह्य ज्ञानसे शून्य निर्विकल्पसमाधिमें विकल्पोंका आधरभूत जो मन वह अस्त हो जाता है,
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शेषाष्टमभागप्रमाणं छिद्रं तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं क्षणमात्रं नासिकया
तदनन्तरं रन्ध्रेण कृत्वा निर्गच्छतीति
अणीना आठमा भाग जेवडुं जे छिद्र छे ते दशम द्वारथी क्षणवार, त्यार पछी क्षणवार
नासिकाथी, त्यार पछी ब्रह्मरंध्र द्वारथी नीकळे छे पण परकल्पित (पातंजलि मतवाळाथी
कल्पित) वायुधारणरूपे श्वासनो नाश न समजवो (श्वासनुं रुंधन न समजवुं). शा माटे? कारण
के वायुधारणा प्रथम तो इहापूर्वक छे अने इहा मोहना कार्यरूप विकल्प छे. वळी, ते
(अनीहितवृत्तिथी निर्विकल्पसमाधिना बळथी नीकळतो वायु) मोहनुं कारण थतो नथी, तेथी
अहीं परकल्पित वायु घटतो नथी. वळी कुंभक, पूरक, रेचक आदि जेनी संज्ञा छे ते वायुधारणा
अहीं क्षणवार ज थाय छे पण अभ्यासना वशे घडी, प्रहर, दिवस आदि सुधी पण थाय छे
स्वयमेव अवाँछीक वृत्तिसे तालुवाके बालकी अनीके आठवें भाग प्रमाण अत सूक्ष्म छिद्रमें
(दशवें द्वारमें) होकर निकलती है, नासाके छेदको छोड़कर तालुरंध्रमें (छेदमें) होकर
निकलती है
वाँछाका कारण मोह है
शरीर हलका हो जाता है, परंतु मुक्ति इस वायुधारणासे नहीं होती, क्योंकि वायुधारणा शरीरका
धर्म है, आत्माका स्वभाव नहीं है
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कार्यं देहारोगत्वलघुत्वादिकं न च मुक्ति रिति
कार्य मुक्ति नथी. जो वायुधारणानुं कार्य मुक्ति पण होय (जो वायुधारणाथी मोक्ष थतो होय)
तो वायुधारणा करनार अत्यारना पुरुषोनो मोक्ष केम थतो नथी, एवो भावार्थ छे. १६२.
चपलतासे आनंदघनमें अडोल अवस्थाको नहीं पाते, तब तक मनके वश करनेके लिए
श्रीपंचपरमेष्ठीका ध्यान स्मरण करते हैं, ओंकारादि मंत्रोंका ध्यान करते हैं और प्राणायामका
अभ्यास कर मनको रोकके चिद्रूपमें लगाते हैं, जब वह लग गया, तब मन और पवन सब स्थिर
हो जाते हैं
है, [श्वासोच्छ्वासः ] श्वासोच्छ्वास [त्रुटयति ] रुक जाता है, [अपि ] और [केवलज्ञानम् ]
केवलज्ञान [परिणमति ] उत्पन्न होता है
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नासिकया कृत्वा निर्गच्छति पुनरपि रन्ध्रेणेत्युच्छ्वासनिःश्वासलक्षणो वायुः
ज्ञानानुचरणरूपे निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ येषां निवास इति
निर्विकल्प त्रण गुप्तिथी गुप्त परमसमाधिमां जेनो निवास छे तेना मोह-ममत्वादि विकल्पजाळ
नाश पामे छे. आलोक, परलोकनी आशाथी मांडीने विकल्पजाळरूप मन मरी जाय छे,
उच्छ्वास-निश्वासलक्षण वायु अनीहितवृत्तिथी नासिका द्वारने छोडीने क्षणवार तालुरंध्रमांथी
नीकळे छे, वळी पछी नासिका द्वारा नीकळे छे वळी पाछो ब्रह्मरंध्रथी नीकळे छे. वळी
केवळज्ञान पण परिणमे छे-उत्पन्न थाय छे.
आकाश न लेवो ‘अंबर’ शब्दनो अर्थ परम समाधि लेवो), अने ‘वायु’ शब्दथी कुंभक, रेचक,
पूरक आदिरूप वायुनिरोध न समजवो पण स्वयं अनीहितवृत्तिथी निर्विकल्प समाधिना बळथी
श्वासोच्छ्वासरूप वायु रुक जाती है, श्वासोच्छ्वास अवाँछीकपनेसे नासिकाके द्वारको
छोड़कर तालुछिद्रमें होकर निकलते हैं, तथा कुछ देरके बाद नासिकासे निकलते हैं
विकल्पजालसे रहित शुद्धात्माका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निर्विकल्प त्रिगुप्तिमयी
परमसमाधिमें निवास है
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निर्विकल्पसमाधिबलेन दशमद्वारसंज्ञेन ब्रह्मरन्ध्रसंज्ञेन सूक्ष्माभिधानरूपेण च तालुरन्ध्रेण योऽसौ
गच्छति स एव ग्राह्यः तत्र
तत्रैव निर्विकल्पसमाधौ तिष्ठतीत्यर्थः
छे ते ज त्यां लेवो. वळी, कह्युं पण छे के-
तो मन मरी जाय छे, पवननो सहज क्षय थाय छे. मोहजाळ नाश पामे छे अने सर्व अंग
त्रिभुवननी समान थई जाय छे (अर्थात् केवळज्ञान थवाथी तेमां त्रण लोक जणाय छे).
शब्दथी तो रागादि परभावनुं शून्यपणुं समजवुं पण आकाशने जाणतां मोहजाळ नाश पामती
नथी, तेथी (‘अन्तराल’ शब्दथी) अन्ये बतावेलुं परकल्पित (आकाश) न समजवुं, एवो
अभिप्राय छे. १६३.
द्वारा अवाँछिक वृत्तिसे पवन निकलता है, वह लेना
है, ऐसा समाधिका प्रभाव है
जानते हैं
रुककर दशवें द्वारमेंसे होकर निकले
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भरितावस्थोऽपि मिथ्यात्वरागादिपरभावरहितत्वान्निर्विकल्पसमाधिराकाशमम्बरशब्दवाच्यं शून्य-
मित्युच्यते
होवा छतां मिथ्यात्व, रागादि परभावोथी रहित होवाथी ‘अंबर’ शब्दथी वाच्य आकाशने
-निर्विकल्प समाधिने-शून्य कहेवामां आवे छे. ते आकाश जेनी संज्ञा छे एवी निर्विकल्प समाधिमां
जाता है, और ज्ञान करके [परस्य प्रमाणम् ] लोकालोकप्रमाण आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त हो
जाता है
रहित है, शून्यरूप है, इसलिए आकाश शब्दका अर्थ यहाँ शुद्धात्मस्वरूप लेना
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व्यवहारेण ज्ञानापेक्षया न च प्रदेशापेक्षया लोकालोकप्रमाणं मनो
अपेक्षाए व्याप्त पण प्रदेशनी अपेक्षाए व्याप्त नहि एवा मनने जे ध्याता पुरुष स्थिर करे
छे तेनो मोह शीघ्र तेना ध्यानथी नाश पामे छे. मात्र मोह नाश पामे छे एटलुं ज नहि पण
परमात्मस्वरूपनुं प्रमाण पण पामे छे.
तेवी रीते जो आत्मा निश्चयथी सर्वगत होय तो परकीय सुखदुःखमां आत्माना तन्मय परिणाम
होवाथी परना सुख-दुःखनो अनुभव प्राप्त थाय, पण तेम थतुं नथी. (तेथी व्यवहारथी ज्ञान-
अपेक्षाए आत्माने सर्वगतपणुं छे, प्रदेश-अपेक्षाए नहि.)
है, प्रदेशोंकी अपेक्षा लोकालोकप्रमाण नहीं है
लगावे, तब जगत्से मोह दूर हो और परमात्माको पावे