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प्रमाण छे, एवो भावार्थ छे. (दीवो जे जे भाजनमां राखवामां आवे ते ते प्रमाणे तेनो प्रकाश
फेलाय छे तेवी रीते आत्मा चार गतिमां जेवुं शरीर धारण करे ते ते प्रमाणे आत्मप्रदेशो संकोच
-विस्तार पामे छे. १६४.
दूसरेका सुख-दुःख मालूम होना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है
असंख्यातप्रदेशी है, और व्यवहारनयकर पात्रमें रखे हुए दीपककी तरह देहप्रमाण है, जैसा
शरीर-धारण करे, वैसा प्रदेशोंका संकोच विस्तार हो जाता है
अज्ञानतासे नहीं जाना
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कारणभूत होवाथी तथा अविनश्वर होवाथी ‘अनंत’ छे, तेने-में साध्यरूप जे वीतराग-तात्त्विक
-मनोहर-आनंदझरतो समरसीभाव ते समरसीभावस्वरूप एवी ‘अंबर’ शब्दथी वाच्य
पूर्वोक्त-लक्षणवाळी, रागादिशून्य, निर्विकल्प समाधिमां मनने लगाडीने जाण्यो नहि.
प्रभाकरभट्ट पश्चात्ताप करतो कहे छे के हे स्वामी! आटला काळ सुधी आवो परमात्मानो
उपदेश प्राप्त न करीने निःसंदेह हुं नष्ट थयो. १६५.
हवे, परम उपशमभाव सहित सर्वसंगना त्याग वडे संसारनो नाश थाय छे, एम बे
जाना, इसलिए इतने काल तक संसारमें भटका निजस्वरूपकी प्राप्तिके बिना मैं नष्ट हुआ
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आदि अनेक प्रकारना भेदथी भेदवाळा (क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास,
कुप्य, भांड ए दश प्रकारना) बाह्य परिग्रहो
योगीश्वरोंका प्रेम है, ऐसा [शिवपदमार्गोऽपि ] मोक्ष-पद भी [नैव मतः ] नहीं जाना, [घोरं
तपश्चरणं ] महा दुर्धर तप [न चीर्णं ] नहीं किया, [यत् ] जो कि [निजबोधेन सारम् ]
आत्मज्ञानकर शोभायमान है, [पुण्यमपि पापमपि ] और पुण्य तथा पाप ये दोनों [नैव दग्धं ]
नहीं भस्म किये, तो [संसार ] संसार [किं छिद्यते ] कैसे छूट सकता है ?
भय, ग्लानि
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सुवर्णलोह-निगलद्वयस
आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप मार्गने पण-के जे
निश्चयमोक्षमार्गमां परमयोगीओने अनुराग
एवा निजबोधथी सारभूत घोर, दुर्धर परिषह, घोर, दुर्धर उपसर्गना जयरूप अनशनादि बार
प्रकारनुं तपश्चरण कर्युं नहि अने निश्चयनयथी शुभाशुभ बन्ने बेडीथी रहित एवा
संसारीजीवनां, व्यवहारनयथी सोनानी अने लोढानी बे बेडी जेवां पुण्य अने पाप बन्नेने पण
शुद्ध आत्मद्रव्यना अनुभवरूप ध्याननी अग्नि वडे बाळ्यां नहि तो संसार केवी रीते छेदाय?]
इसप्रकार बाह्य अभ्यंतर परिग्रहके चौबीस भेद हुए, इनको नहीं छोड़ा
चारित्र भी नहीं जाना
व्यवहाररत्नत्रय
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अरहंत आदिक पंचपरमेष्ठी [न वंदिताः ] भी नहीं पूजे, तब [शिवलाभः ] मोक्षकी प्राप्ति [किं
भविष्यति ] कैसे हो सकती है ?
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ण वंदिय पञ्च न वन्दिताः
शिवशब्दवाच्यमोक्षपदस्थितानां तदाराधकानामाचार्यादीनां च यथायोग्यं दानपूजावन्दनादिकं न
कृतम्, कथं शिवशब्दवाच्यमोक्षसुखस्य लाभो भविष्यति न कथमपीति
दातव्यं पूजावन्दनादिकं च कर्तव्यमिति भावार्थः
स्थित जिननाथने जलधारा सहित, गंध, अक्षत, पुष्प आदि अष्टविध पूजाथी (जल, चंदन,
अक्षत, फळ, नैवेद्य, दीप, धूप, फळथी) पूज्या नहि, अने त्रण भुवनना अधिपतिथी वंद्यपदमां
स्थित एवा अर्हंत, सिद्ध अने त्रण भुवनना इशथी वंद्य मोक्षपदना आराधक, आचार्य,
उपाध्याय अने साधु ए पांच गुरुओने वंदन कर्युं नहि, ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा मोक्षपदमां
स्थित अर्हंत अने सिद्धने अने तेमना आराधक आचार्यादिने यथायोग्य दान, पूजा, वंदना
आदि कर्यां नहि तो केवी रीते ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा मोक्षसुखनी प्राप्ति थशे? कोई पण
रीते थशे नहि.
छे. १६८.
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप फलसे पूजा नहीं की; और तीन लोककर वंदने
योग्य ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँचपरमेष्ठियोंकी आराधना नहीं की
ही उपाय हैं
पंचपरमेष्ठीकी वंदना करना, ये ही व्यवहारनयकर कल्याणके उपाय हैं
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स्थितैश्चत्यभिप्रायः
परमगतिः ] स्वयमेव परमगति (मोक्ष) मिलती है
ध्यानकी सिद्धि है, और वे ही परमगतिके पात्र हैं
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भावात्
शुद्धात्मद्रव्यथी विलक्षण, द्रव्य, क्षेत्र, काळादि पांच प्रकारना भेदथी भेदवाळो संसार नाश पामे
छे. कारण के छद्मस्थ अवस्थामां शुभाशुभ चिंतासक्त जिनवर पण संशय, विभ्रम,
विमोहरहित अनंतज्ञानादि निर्मळ गुणवाळा होवाथी जे हंस जेवो छे एवो जे परमात्मा तेना
आचारने रागादि रहित शुद्धात्मपरिणामने-पामता नथी.
[चिंतासक्तः ] चिन्तामें लगे हुए [जिनवरोऽपि ] छद्मस्थ अवस्थावाले तीर्थंकरदेव भी
[हंसाचारम् न लभते ] परमात्माके आचरणरूप शुद्ध भावोंको नहीं पाते
रहित शुद्धोपयोग परिणामोंको नहीं पा सकते
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तात्पर्यम्
शुद्धात्मतत्त्वमां सर्व तात्पर्यथी भावना करवी जोईए, एवुं तात्पर्य छे. १७०.
होते
[मनो मारय ] विकल्प
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पक्षभूते पञ्चप्रकारसंसारकारणे व्यवहारे
विनाशयेति भावार्थः
प्रकारना संसारना कारणरूप व्यवहारमां प्रवर्ते छे! हवे हुं शुं करुं? एवा प्रश्नना जवाबमां
श्रीगुरु कहे छे के ‘‘ब्रह्म’’ शब्दथी वाच्य एवा स्वशुद्ध आत्माने जाणीने-जे प्रपंचथी-माया
पाखंडथी-रहित छे ते निजशुद्धआत्माने वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञानथी जाणीने मनना अनेक
विकल्पजाळथी रहित परमात्मामां स्थित थईने शुभाशुभ विकल्पजाळरूप मनने मारो-मननो
विनाश करो, ए भावार्थ छे. १७१.
रोककर [अनंतम् ] अनंतगुणवाले [आत्मानं देवम् ] आत्मदेवका [ध्याय ] चिंतवन कर
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दूध, दहीं, घी अने तेल ए छ रसोथी अने रूप रहित एवा शुद्धात्मतत्त्वथी प्रतिपक्षभूत
काळा, नील, राता, सफेद, पीळा ए पांच रूपोथी परिणमता मनने रोकीने, केवळज्ञानादि
अनंतगुणनो आधार होवाथी, अनंतसुखनुं स्थान होवाथी अने अविनश्वर होवाथी अनंत छे
एवा, वीतराग परमानंदरूप सुखथी जे शोभे छे, रमे छे, ते देव छे, एवा स्वशुद्धात्माने हे
प्रभाकरभट्ट! तुं ध्याव-चिन्तवन कर. १७२.
रस और जो अरूप शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न काले, सफे द, पीले, लाल, पाँच तरहके रूप इनमें निरन्तर
चित्त जाता है, उसको रोककर आत्मदेवकी आराधना कर
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लक्षण छे एवा अनंतसुखादि अनंतशक्तिरूपे परिणत होवाथी जे अनंत छे एवो आ
प्रत्यक्षगोचर आत्मा जे शुभ, अशुभ, शुद्धउपयोगरूपे चिन्तववामां आवे ते स्वरूपे परिणमे
छे.
आत्मा परिणमे छे ते ते रूपे आत्मा तन्मयी थई जाय छे.]
[परिणमति ] परिणमता है, [यथा स्फ टिकमणिः मंत्रः ] जैसे स्फ टिकमणि और गारुड़ी आदि
मंत्र हैं
और जो शुद्धोपयोगको ध्यावे, तो परमशुद्धरूप परिणमन करता है
परिणमता है, हरे डंकसे हरा और लालसे लाल भासता है
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शुद्धरूपेणैव ध्यातव्य इति
अहीं, तात्पर्य एम छे के आ आत्मा जे जे स्वरूपे चिंतववामां आवे छे ते ते स्वरूपे
छोडीने (आत्माने) शुद्धरूपे ज ध्याववो जोईए. १७३.
उज्ज्वल है, उसके नीचे जैसा डंक लगाओ, वैसा ही भासता है
रक्खें
परमात्मा है, वह व्यवहारनयकर [कर्मविशेषेण ] अनादि कर्मबंधके विशेषसे [जाप्यः जातः ]
पराधीन हुआ दूसरेका जाप करता है; परंतु [यदा ] जिस समय [आत्मना ] वीतराग निर्विकल्प
स्वसंवेदनज्ञानकर [आत्मानं ] अपनेको [जानाति ] जानता है, [तदा ] उस समय [स एव ]
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जात उत्पन्नः कथंभूतो जातः जाप्यः पराधीनः जामइं जाणइ यदा काले जानाति
सुखानुभवेन दीव्यति क्रीडतीति देवः परमाराध्यः
पोतानी बुद्धिना दोषथी पराधीन थयो छे.
उत्पन्न वीतराग सुखानुभवथी शोभे छे, क्रीडा करे छे ते देव छे के जे परमआराध्य छे; ते
देव शुद्धनिश्चयनयथी मुक्तिगत परमात्मा समान छे.
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ज्ञानेन निवृत्तः ज्ञानमयः सो हउं यद्यपि व्यवहारेण कर्मावृतस्तिष्ठामि तथापि निश्चयेन स
एवाहं पूर्वोक्त : परमात्मा
रचायेल छे; जो के हुं व्यवहारथी कर्म वडे अवरायेलो छुं तोपण, निश्चयथी पूर्वोक्त प्रसिद्ध
(ज्ञानमय) परमात्मा छुं के जे ‘देव’ अर्थात् परम आराध्य छे अने अनंत सुखादि गुणोनुं
स्थान होवाथी ‘अनंत’ छे
प्रभाकरभट्ट! तुं संशयरहित थयो थको भाव.
परमात्मा ] वही उत्कृष्ट परमात्मा है
है
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देशव्यक्तिं लब्ध्वा सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः
सम्यक्त्वादिरूप शुद्धात्मानी एकदेशव्यक्ति पामीने सर्वतात्पर्यथी भावना करवी जोईए, एवो
अभिप्राय छे. १७५.
है
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परमात्माथी भिन्न जाण, ए भावार्थ छे. १७६.
[आत्मस्वभावात् ] आत्मस्वभावसे [सकलमपि ] सब [कर्मस्वभावम् ] शुभाशुभ कर्म
[मन्यस्व ] भिन्न जानो
[भ्रांत्या ] भ्रमसे [मलिनं ] मैला [मा मन्यस्व ] मत मान
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मा मन्यस्व जिय हे जीव
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नष्टेऽपि सति व्यवहारेण देहस्थमपि वीतरागचिदानन्दैकपरमात्मानं शुद्धनिश्चयनयेन देहाद्भिन्नं
नष्ट मानतो नथी तेवी रीते वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनवाळो ज्ञानी देह लाल होतां, देह
जीर्ण अने नष्ट थतां, व्यवहारथी देहमां रहेवा छतां पण शुद्ध निश्चयनयथी देहथी भिन्न,
एक (केवळ) वीतराग चिदानंदमय परमात्माने लाल, जीर्ण के नष्ट मानतो नथी.
निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानी [देह रक्ते ] शरीरके लाल होनेसे [आत्मानं ] आत्माको [रक्तम्
न मन्यते ] लाल नहीं मानता
उसी तरह ज्ञानी [देहे जीर्णे ] शरीरके जीर्ण होनेसे [आत्मानं जीर्णम् न मन्यते ] आत्माको
जीर्ण नहीं मानता, [यथा बुधः ] जैसे कोई बुद्धिमान् [वस्त्रे प्रणष्टे ] वस्त्रके नाश होनेसे [देहं
नष्टम् ] देहका नाश [न मन्यते ] नहीं मानता, [तथा ज्ञानी ] उसी तरह ज्ञानी [देहे नष्टे ]
देहका नाश होनेसे [आत्मानं ] आत्माका [नष्टम् न मन्यते ] नाश नहीं मानता, [जीव ] हे
जीव, [यथा ज्ञानी ] जैसे ज्ञानी [देहाद् भिन्नं एव ] देहसे भिन्न ही [वस्त्रम् मन्यते ] कपड़ेको
मानता है, [तथा ज्ञानी ] उसी तरह ज्ञानी [देहमपि ] शरीरको भी [आत्मनः भिन्नं ] आत्मासे
जुदा [मन्यते ] मानता है, ऐसा [जानीहि ] तुम जानो
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(व्यवहारे देहमां स्थित) सहज शुद्ध परमानंद जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माथी
भिन्न जाणे छे, एम तुं जाण एवो भावार्थ छे. १७८-१८१.
सुख
शरीरका [हंति ] घात करे, [तं ] उसको [त्वं ] तुम [परं मित्रं ] परममित्र [जानीहि ] जानो