Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 165-167 (Adhikar 2),168 (Adhikar 2) Danpoojadi Shravakdhram Parampara Mokshanu Karan Chhe,169 (Adhikar 2) Chinta Rahit Dhyan Mukatinu Karan,170 (Adhikar 2),171 (Adhikar 2),172 (Adhikar 2),173 (Adhikar 2),174 (Adhikar 2) Aa Atma Ja Paramatma Chhe,175 (Adhikar 2),176 (Adhikar 2),177 (Adhikar 2) Deh Ane Aatmani Bhedbhavana,178 (Adhikar 2),179 (Adhikar 2),180 (Adhikar 2),181 (Adhikar 2),182 (Adhikar 2).

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अधिकार-२ः दोहा-१६५ ]परमात्मप्रकाशः [ ४८७
तथा निश्चयेन पुनर्लोकमात्रासंख्येयप्रदेशोऽपि सन् व्यवहारेण पुनः शरीरकृतोपसंहार-
विस्तारवशाद्विवक्षितभाजनस्थप्रदीपवत् देहमात्र इति भावार्थः ।।१६४।।
अथ
२९६) देहि वसंतु वि णवि मुणिउ अप्पा देउ अणंतु
अंबरि समरसि मणु धरिवि सामिय णट्ठु णिभंतु ।।१६५।।
देहे वसन्नपि नैव मतः आत्मा देवः अनन्तः
अम्बरे समरसे मनः धृत्वा स्वामिन् नष्टः निर्भ्रान्तः ।।१६५।।
देहि वसंतु वि इत्यादि देहि वसंतु वि व्यवहारेण देहे वसन्नपि णवि मुणिउ नैव ज्ञातः
व्यवहारनयथी विवक्षित भाजनमां राखेला दीवानी पेठे शरीरकृत संकोचविस्तारने कारणे देह
प्रमाण छे, एवो भावार्थ छे. (दीवो जे जे भाजनमां राखवामां आवे ते ते प्रमाणे तेनो प्रकाश
फेलाय छे तेवी रीते आत्मा चार गतिमां जेवुं शरीर धारण करे ते ते प्रमाणे आत्मप्रदेशो संकोच
-विस्तार पामे छे. १६४.
हवे, शिष्य पश्चात्ताप करे छेः
भावार्थःव्यवहारे देहमां रह्यो होवा छतां, निजशुद्धात्माने के जे केवळ ज्ञानादि
आत्मा जो पदार्थोंको तन्मयी होके जाने, तो परके सुख-दुःखसे तन्मयी होनेसे इसको भी
दूसरेका सुख-दुःख मालूम होना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है
इसलिए निश्चयसे आत्मा
असर्वगत है, और व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा निश्चयसे लोकप्रमाण
असंख्यातप्रदेशी है, और व्यवहारनयकर पात्रमें रखे हुए दीपककी तरह देहप्रमाण है, जैसा
शरीर-धारण करे, वैसा प्रदेशोंका संकोच विस्तार हो जाता है
।।१६४।।
आगे फि र प्रश्न करता है
गाथा१६५
अन्वयार्थ :[स्वामिन् ] हे स्वामी, [देहे वसन्नपि ] व्यवहारनयकर देहमें रहता हुआ
भी [आत्मा देवः ] आराधने योग्य आत्मा [अनंतः ] अनंत गुणोंका आधार [नैव मतः ] मैंने
अज्ञानतासे नहीं जाना
क्या करके [समरसे ] समान भावरूप [अंबरे ] निर्विकल्पसमाधिमें
[मनः धृत्वा ] मन लगा कर इसलिए अब तक [नष्टो निर्भ्रांतः ] निस्संदेह नष्ट हुआ
भावार्थ :प्रभाकरभट्ट पछताता हुआ श्री योगीन्द्रदेवसे बिनंती करता है, कि हे

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४८८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१६५
कोऽसौ अप्पा निजशुद्धात्मा किंविशिष्टः देउ आराधनायोग्यः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारत्वेन
देवः परमाराध्यः पुनरपि किंविशिष्टः अणंतु अनन्तपदार्थपरिच्छित्तिकारणत्वाद-
विनश्वरत्वादनन्तः किं कृत्वा मणु घरिवि मनो धृत्वा क्व अंबरि अम्बरशब्दवाच्ये
पूर्वोक्त लक्षणे रागादिशून्ये निर्विकल्पसमाधौ कथंभूते समरसि वीतरागतात्त्विकमनोहरानन्द-
स्यन्दिनि समरसीभावे साध्ये सामिय हे स्वामिन् प्रभाकरभट्टः पश्चात्तापमनुशयं कुर्वन्नाह किं
ब्रूते णट्ठु णिभंतु इयन्तं कालमित्थंभूतं परमात्मोपदेशमलभमानः सन् निर्भ्रान्तो
नष्टोऽहमित्यभिप्रायः ।।१६५।। एवं परमोपदेशकथनमुख्यत्वेन सूत्रदशकं गतम्
अथ परमोपशमभावसहितेन सर्वसंगपरित्यागेन संसारविच्छेदं भवतीति युग्मेन
निश्चिनोति
२९७) सयल वि संग ण मिल्लिया णवि किउ उवसम-भाऊ
सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ णवि जहिं जोइहिँ अणुराउ ।।१६६।।
अनंतगुणनो आधार होवाथी ‘देव’ अर्थात् परम आराध्य छे अने अनंत पदार्थोनी ज्ञप्तिना
कारणभूत होवाथी तथा अविनश्वर होवाथी ‘अनंत’ छे, तेने-में साध्यरूप जे वीतराग-तात्त्विक
-मनोहर-आनंदझरतो समरसीभाव ते समरसीभावस्वरूप एवी ‘अंबर’ शब्दथी वाच्य
पूर्वोक्त-लक्षणवाळी, रागादिशून्य, निर्विकल्प समाधिमां मनने लगाडीने जाण्यो नहि.
प्रभाकरभट्ट पश्चात्ताप करतो कहे छे के हे स्वामी! आटला काळ सुधी आवो परमात्मानो
उपदेश प्राप्त न करीने निःसंदेह हुं नष्ट थयो. १६५.
ए प्रमाणे परम उपदेशना कथननी मुख्यताथी दस गाथासूत्रो समाप्त थयां.
हवे, परम उपशमभाव सहित सर्वसंगना त्याग वडे संसारनो नाश थाय छे, एम बे
गाथासूत्रोथी नक्की करे छेः
स्वामिन् मैंने अब तक रागादि विभाव रहित निर्विकल्पसमाधिमें मन लगाकर आत्म-देव नहीं
जाना, इसलिए इतने काल तक संसारमें भटका निजस्वरूपकी प्राप्तिके बिना मैं नष्ट हुआ
अब
ऐसा उपदेश करें कि जिससे भ्रम मिट जावे ।।१६५।।
इसप्रकार परमोपदेशके कथनकी मुख्यतासे दस दोहे कहे हैं
आगे परमोपदेश भाव सहित सब परिग्रहका त्याग करनेसे संसारका विच्छेद होता है,
ऐसा दो दोहेमें निश्चय करते हैं

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अधिकार-२ः दोहा-१६६-१६७ ]परमात्मप्रकाशः [ ४८९
२९८) घोरु ण चिण्णउ तव-चरणु जं णिय-बोहहं सारु
पुण्णु वि पाउ वि दड्ढु णवि किमु छिज्जइ संसारु ।।१६७।।
सकला अपि संगाः न मुक्ताः नैव कृत उपशमभावः
शिवपदमार्गोऽपि मतो नैव यत्र योगिनां अनुरागः ।।१६६।।
घोरं न चीर्णं तपश्चरणं यत् निजबोधस्य सारम्
पुण्यमपि पापमपि दग्धं नैव किं छिद्यते संसारः ।।१६७।।
सयल वि इत्यादि सयल वि समस्ता अपि संग मिथ्यात्वादिचतुर्दशभेदभिन्ना
आभ्यन्तराः क्षेत्रवास्त्वादिबहुभेदभिन्ना बाह्या अपि संगाः परिग्रहाः ण मिल्लिया न मुक्ताः
पुनरपि किं न कृतम् णवि किउ उवसम-भाऊ जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमता-
भावलक्षणो नैव कृतः उपशमभावः पुनश्च किं न कृतम् सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ
भावार्थःजो मिथ्यात्व, राग, द्वेष, चार कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय,
ग्लानि अने वेद ए चौद प्रकारना भेदथी भेदवाळा अभ्यन्तर परिग्रहो तथा क्षेत्र, वास्तु
आदि अनेक प्रकारना भेदथी भेदवाळा (क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास,
कुप्य, भांड ए दश प्रकारना) बाह्य परिग्रहो
ए रीते समस्त परिग्रहोने पण छोड्या नहि.
जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःखादिमां समताभाव जेनुं लक्षण छे एवो उपशमभाव न
गाथा१६६-१६७
अन्वयार्थ :[सकला अपि संगाः ] सब परिग्रह भी [न मुक्ताः ] नहीं छोडे,
[उपशमभावः नैव कृतः ] समभाव भी नहीं किया [यत्र योगिनां अनुरागः ] और जहाँ
योगीश्वरोंका प्रेम है, ऐसा [शिवपदमार्गोऽपि ] मोक्ष-पद भी [नैव मतः ] नहीं जाना, [घोरं
तपश्चरणं ] महा दुर्धर तप [न चीर्णं ] नहीं किया, [यत् ] जो कि [निजबोधेन सारम् ]
आत्मज्ञानकर शोभायमान है, [पुण्यमपि पापमपि ] और पुण्य तथा पाप ये दोनों [नैव दग्धं ]
नहीं भस्म किये, तो [संसार ] संसार [किं छिद्यते ] कैसे छूट सकता है ?
भावार्थ :मिथ्यात्व, (अतत्त्व श्रद्धान) राग, (प्रीतिभाव दोष) दोष, (वैरभाव) देव,
(स्त्री, पुरुष, नपुंसक) क्रोध-मान-माया-लोभरूप चार कषाय, और हास्य, रति, अरति, शोक,
भय, ग्लानि
ये चौदह अंतरंग परिग्रह, क्षेत्र, (ग्रामादिक) वास्तु, (गृहादिक) हिरण्य, (रुपया,
पैसा, मुहर आदि) सुवर्ण, (गहने आदि) धन, (हाथी, घोड़ा आदि) धान्य, (अन्नादि) दासी,

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४९० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१६६-१६७
णवि ‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् प्राप्तं मुक्ति पदं येन स शिवः
परिकीर्तितः ।।’’ इति वचनात् शिवशब्दवाच्यो योऽसौ मोक्षस्तस्य मार्गोऽपि न ज्ञातः
कथंभूतो मार्गः स्वशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपः यत्र मार्गे किम् जहिं जोहहिं
अणुराउ यत्र निश्चयमोक्षमार्गे परमयोगिनामनुरागस्तात्पर्यम् न केवलं मोक्षमार्गोऽपि न
ज्ञातः घोरु ण चिण्णउ तव-चरणु घोरं दुर्धरं परीषहोपसर्गजयरूपं नैव चीर्णं न कृतम्
किं तत् अनशनादिद्वादशविधं तपश्चरणम् यत्कथंभूतम् जं णिय-बोहहं सारु
यत्तपश्चरणं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनलक्षणेन निजबोधेन सारभूतम् पुनश्च किं न कृतम्
पुण्णु वि पाउ वि निश्चयनयेन शुभाशुभनिगलद्वयरहितस्य संसारिजीवस्य व्यवहारेण
सुवर्णलोह-निगलद्वयस
द्रशं पुण्यपापद्वयमपि दड्ढु णवि शुद्धात्मद्रव्यानुभवरूपेण ध्यानाग्निना
दग्धं नैव किमु छिज्जइ संसारु कथं छिद्यते संसार इति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा निरन्तरं
कर्यो ‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् प्राप्तं मुक्ति पदं येन स शिवः परिकीर्तितः’’ ।। (आप्त
स्वरूप २४) [अर्थर् :शिवरूप, (परमकल्याणरूप, निर्वाणरूप, शांत अने अक्षय मुक्तिपद
जेणे प्राप्त कर्युं छे ते शिव छे) ए वचनानुसारे ‘शिव’ शब्दथी वाच्य जे मोक्ष छे तेना स्वशुद्ध
आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप मार्गने पण-के जे
निश्चयमोक्षमार्गमां परमयोगीओने अनुराग
तात्पर्य छे तेने पण जाण्यो नहि, केवळ
मोक्षमार्गने जाण्यो नहि एटलुं ज नहि पण जे वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन जेनुं लक्षण छे
एवा निजबोधथी सारभूत घोर, दुर्धर परिषह, घोर, दुर्धर उपसर्गना जयरूप अनशनादि बार
प्रकारनुं तपश्चरण कर्युं नहि अने निश्चयनयथी शुभाशुभ बन्ने बेडीथी रहित एवा
संसारीजीवनां, व्यवहारनयथी सोनानी अने लोढानी बे बेडी जेवां पुण्य अने पाप बन्नेने पण
शुद्ध आत्मद्रव्यना अनुभवरूप ध्याननी अग्नि वडे बाळ्यां नहि तो संसार केवी रीते छेदाय?]
दास, कुप्य (वस्त्र तथा सुगंधादिक), भांड (बर्तन आदि) ये दस तरहके बाहरके परिग्रह,
इसप्रकार बाह्य अभ्यंतर परिग्रहके चौबीस भेद हुए, इनको नहीं छोड़ा
जीवित, मरण, सुख, दुःख,
लाभ, अलाभादिमें समान भाव कभी नहीं किया, कल्याणरूप मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान
चारित्र भी नहीं जाना
निजस्वरूपका श्रद्धान, निजस्वरूपका ज्ञान और निजस्वरूपका आचरण
निश्चयरत्नत्रय तथा नव पदार्थोंका श्रद्धान, नव पदार्थोंका ज्ञान और अशुभ क्रियाके त्यागरूप
व्यवहाररत्नत्रय
ये दोनों ही मोक्षके मार्ग हैं, इन दोनोंमेंसे निश्चयरत्नत्रय तो साक्षात् मोक्षका मार्ग
है, और व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका मार्ग है ये दोनों मैंने कभी नहीं जाने, संसारका ही मार्ग
जाना अनशनादि बारह प्रकारका तप नहीं किया, बाईस परीषह नहीं सहन की तथा पुण्य
सुवर्णकी बेड़ी, पाप लोहेकी बेड़ी, ये दोनों बंधन निर्मल आत्मध्यानरूपी अग्निसे भस्म नहीं

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अधिकार-२ः दोहा-१६८ ]परमात्मप्रकाशः [ ४९१
शुद्धात्मद्रव्यभावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१६६-६७।।
अथ दानपूजापश्चपरमेष्ठिवन्दनादिरूपं परंपरया मुक्ति कारणं श्रावकधर्मं कथयति
२९९) दाणु ण दिण्णउ मुणिवरहँ ण वि पुज्जिउ जिण-णाहु
पंच ण वंदिय परम-गुरू किमु होसइं सिव-लाहु ।।१६८।।
दानं न दत्तं मुनिवरेभ्यः नापि पूजितः जिननाथः
पञ्च न वन्दिताः परमगुरवः किं भविष्यति शिवलाभः ।।१६८।।
दाणु इत्यादि दाणु ण दिण्णउ आहाराभयभैषज्यशास्त्रभेदेन चतुर्विधदानं भक्ति पूर्वकं
न दत्तम् केषाम् मुणिवरहं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकानां मुनिवरादिचतुर्विधसंघस्थितानां
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने निरंतर शुद्ध आत्मद्रव्यनी भावना करवी जोईए, एवुं
तात्पर्य छे. १६६-१६७.
हवे दान, पूजा अने पंचपरमेष्ठीओनी वंदना आदिरूप परंपराए मुक्तिनुं कारण
एवा श्रावकधर्मनुं कथन करे छेः
भावार्थःनिश्चय व्यवहाररत्नत्रयना आराधक मुनिवरादि चतुर्विध संघमां स्थित
पात्रोने आहारदान, अभयदान, औषधदान अने शास्त्रदान ए चार प्रकारना दान आप्यां
किये इन बातोंके बिना किये संसारका विच्छेद नहीं होता, संसारसे मुक्त होनेके ये ही कारण
हैं ऐसा व्याख्यान जानकर सदैव शुद्धात्मस्वरूपकी भावना करनी चाहिए ।।१६६-१६७।।
आगे दान, पूजा और पंचपरमेष्ठीकी वंदना, आदि परम्परा मुक्तिका कारण जो
श्रावकधर्म उसे कहते हैं
गाथा१६८
अन्वयार्थ :[दानं ] आहारादि दान [मुनिवराणां ] मुनिश्वर आदि पात्रोंको [न दत्तं ]
नहीं दिया, [जिननाथः ] जिनेन्द्रभगवानको भी [नापि पूजितः ] नहीं पूजा, [पंच परमगुरवः ]
अरहंत आदिक पंचपरमेष्ठी [न वंदिताः ] भी नहीं पूजे, तब [शिवलाभः ] मोक्षकी प्राप्ति [किं
भविष्यति ] कैसे हो सकती है ?
भावार्थ :आहार, औषध, शास्त्र और अभयदानये चार प्रकारके दान भक्तिपूर्वक
पात्रोंको नहीं दिये, अर्थात् निश्चय व्यवहाररत्नत्रयके आराधक जो यती आदिक चार प्रकार संघ

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४९२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१६८
पात्राणां ण वि पुज्जिउ जलधारया सह गन्धाक्षतपुष्पाद्यष्टविधपूजया न पूजितः कोऽसौ
जिण-णाहु देवेन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रपूजितः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिपूर्णः पूज्यपदस्थितो जिननाथः पंच
ण वंदिय पञ्च न वन्दिताः
के ते परम-गुरू त्रिभुवनाधीशवन्द्यपदस्थिता अर्हत्सिद्धाः
त्रिभुवनेशवन्द्यमोक्षपदाराधकाः आचार्योपाध्यायसाधवश्चेति पञ्च गुरवः, किमु होसइ सिव-लाह
शिवशब्दवाच्यमोक्षपदस्थितानां तदाराधकानामाचार्यादीनां च यथायोग्यं दानपूजावन्दनादिकं न
कृतम्, कथं शिवशब्दवाच्यमोक्षसुखस्य लाभो भविष्यति न कथमपीति
अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा
उपासकाव्याख्यानं ज्ञात्वा उपासकाध्ययनशास्त्रकथितमार्गेण विधिद्रव्यदातृपात्रलक्षणविधानेन दानं
दातव्यं पूजावन्दनादिकं च कर्तव्यमिति भावार्थः
।।१६८।।
नहि, देवेन्द्र, धरणेन्द्र अने नरेन्द्रथी पूजित, केवळज्ञानादि अनंत गुणोथी परिपूर्ण, पूज्यपदमां
स्थित जिननाथने जलधारा सहित, गंध, अक्षत, पुष्प आदि अष्टविध पूजाथी (जल, चंदन,
अक्षत, फळ, नैवेद्य, दीप, धूप, फळथी) पूज्या नहि, अने त्रण भुवनना अधिपतिथी वंद्यपदमां
स्थित एवा अर्हंत, सिद्ध अने त्रण भुवनना इशथी वंद्य मोक्षपदना आराधक, आचार्य,
उपाध्याय अने साधु ए पांच गुरुओने वंदन कर्युं नहि, ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा मोक्षपदमां
स्थित अर्हंत अने सिद्धने अने तेमना आराधक आचार्यादिने यथायोग्य दान, पूजा, वंदना
आदि कर्यां नहि तो केवी रीते ‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवा मोक्षसुखनी प्राप्ति थशे? कोई पण
रीते थशे नहि.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने उपासकाध्ययन शास्त्रमां कहेला मार्ग प्रमाणे विधि, द्रव्य,
दाता, पात्रना लक्षणानुसारे दान देवुं जोईए अने पूजावंदनादि करवा जोईए, एवो भावार्थ
छे. १६८.
उनको चार प्रकारका दान भक्तिकर नहीं दिया, और भूखे जीवोंको करुणाभावसे दान नहीं दिया
इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र आदिकर पूज्य केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकर पूर्ण जिननाथकी पूजा नहीं कीं;
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप फलसे पूजा नहीं की; और तीन लोककर वंदने
योग्य ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँचपरमेष्ठियोंकी आराधना नहीं की
सो हे जीव, इन कार्योंके बिना तुझे मुक्तिका लाभ कैसे होगा ? क्योंकि मोक्षकी प्राप्तिके ये
ही उपाय हैं
जिनपूजा, पंचपरमेष्ठीकी वंदना, और चार संघको चार प्रकारका दान, इन बिना
मुक्ति नहीं हो सकती ऐसा व्याख्यान जानकर सातवें उपासकाध्ययन अंगमें कही गई जो दान,
पूजा, वंदनादिककी विधि वही करने योग्य है शुभ विधिसे न्यायकर उपार्जन किया अच्छा
द्रव्य वह दातारके अच्छे गुणोंको धारणकर विधिसे पात्रको देना, जिनराजकी पूजा करना, और
पंचपरमेष्ठीकी वंदना करना, ये ही व्यवहारनयकर कल्याणके उपाय हैं
।।१६८।।

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अधिकार-२ः दोहा-१६९ ]परमात्मप्रकाशः [ ४९३
अथ निश्चयेन चिन्तारहितध्यानमेव मुक्ति कारणमिति प्रतिपादयति चतुष्कलेन
३००) अद्धुम्मीलिय-लोयणिहिँ जोउ कि झंपियएहिँ
एमुइ लव्भइ परम-गइ णिच्चिंतिं ठियएहिँ ।।१६९।।
अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां योगः किं झंपिताभ्याम्
एवमेव लभ्यते परमगतिः निश्चिन्तं स्थितैः ।।१६९।।
अद्धुम्मीलिय-लोयणिहिं अर्धोन्मीलितलोचनपुटाभ्यां जोउ किं योगो ध्यानं किं भवति
अपि तु नैव न केवलमर्धोन्मीलिताभ्याम् झंपियएहिं झंपिताभ्यामपि लोचनाभ्यां नैवेति
तर्हि कथं लभ्यते एमुइ लब्भइ एवमेव लभ्यते लोचनपुटनिमीलनोन्मीलननिरपेक्षैः का
लभ्यते परम-गइ केवल ज्ञानादिपरमगुणयोगात्परमगतिर्मोक्षगतिः कैः लभ्यते णिच्चिंतिं
ठियएहिं ख्यातिपूजालाभप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालरहितैः पुरुषैश्चिन्तारहितैः स्वशुद्धात्मरूप-
स्थितैश्चत्यभिप्रायः
।।१६९।।
अथ
हवे निश्चयथी चिंता रहित ध्यान ज मुक्तिनुं कारण छे, एम चार गाथासूत्रोथी कहे
छेः
हवे, फरी पण चिंतानो ज त्याग करवानुं कहे छेः
आगे निश्चयसे चिन्ता रहित ध्यान ही मुक्तिका कारण है, ऐसा कहते हैं
गाथा१६९
अन्वयार्थ :[अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां ] आधे ऊ घड़े हुए नेत्रोंसे अथवा
[झंपिताभ्याम् ] बंद हुए नेत्रोंसे [किं ] क्या [योगः ] ध्यानकी सिद्धि होती है, कभी नहीं
[निश्चिन्तं स्थितैः ] जो चिन्ता रहित एकाग्रमें स्थित हैं, उनको [एवमेव ] इसी तरह [लभ्यते
परमगतिः ] स्वयमेव परमगति (मोक्ष) मिलती है
।।
भावार्थ :ख्याति (बड़ाई) पूजा (अपनी प्रतिष्ठा) और लाभ इनको आदि लेकर
समस्त चिन्ताओंसे रहित जो निश्चिंत पुरुष हैं, वे ही शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिरता पाते हैं, उन्हींके
ध्यानकी सिद्धि है, और वे ही परमगतिके पात्र हैं
।।१६९।।
आगे फि र भी चिन्ताका ही त्याग बतलाते हैं

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४९४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७०
३०१) जोइय मिल्लहि चिन्त जइ तो तुट्टइ संसारु
चिंतासत्तउ जिणवरु वि लहइ ण हंसाचारु ।।१७०।।
योगिन् मुञ्चसि चिन्तां यदि ततः त्रुटयति संसारः
चिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लभते न हंसाचरम् ।।१७०।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् मिल्लहि मुञ्चसि काम् चिन्तारहिता-
द्विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्परमात्मपदार्थाद्विलक्षणां चिन्त जइ यदि चेत् तो ततश्चिन्ता-
भावात्
किं भवति तुट्टइ नश्यति स कः संसारु निःसंसारात् शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणो
द्रव्यक्षेत्रकालादिभेदभिन्नः पञ्चप्रकारः संसारः यतः कारणात् चिंतासत्तउ जिणवरु वि
छद्मस्थावस्थायां शुभाशुभचिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लहइ लभते न कम् हंसाचारु
संशयविभ्रमविमोहरहितानन्तज्ञानादिनिर्मलगुणयोगेन हंस इव हंसः परमात्मा तस्याचारं
भावार्थःविशुद्धज्ञान, विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा, चिंतारहित
परमात्मपदार्थथी विलक्षण चिंताने जो तुं छोडीश तो चिंताना अभावथी निःसंसार
शुद्धात्मद्रव्यथी विलक्षण, द्रव्य, क्षेत्र, काळादि पांच प्रकारना भेदथी भेदवाळो संसार नाश पामे
छे. कारण के छद्मस्थ अवस्थामां शुभाशुभ चिंतासक्त जिनवर पण संशय, विभ्रम,
विमोहरहित अनंतज्ञानादि निर्मळ गुणवाळा होवाथी जे हंस जेवो छे एवो जे परमात्मा तेना
आचारने रागादि रहित शुद्धात्मपरिणामने-पामता नथी.
गाथा१७०
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [यदि ] जो तू [चिंतां मुंचसि ] चिन्ताओंको
छोड़ेगा [ततः ] तो [संसारः ] संसारका भ्रमण [त्रुटयति ] छूट जायेगा, क्योंकि
[चिंतासक्तः ] चिन्तामें लगे हुए [जिनवरोऽपि ] छद्मस्थ अवस्थावाले तीर्थंकरदेव भी
[हंसाचारम् न लभते ] परमात्माके आचरणरूप शुद्ध भावोंको नहीं पाते
भावार्थ :हे योगी, निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मपदार्थसे पराङ्मुख जो चिंता
जाल उसे छोड़ेगा, तभी चिंताके अभावसे संसार भ्रमण टूटेगा शुद्धात्मद्रव्यसे विमुख द्रव्य,
क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच प्रकारके संसारसे तू मुक्त होगा जब तक चिंतावान् है, तब
तक निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती दूसरोंकी तो क्या बात है, जो तीर्थंकरदेव भी
केवल अवस्थाके पहले जब तक कुछ शुभाशुभ चिन्ताकर सहित हैं, तब तक वे भी रागादि
रहित शुद्धोपयोग परिणामोंको नहीं पा सकते
संशय विमोह विभ्रम रहित अनंत ज्ञानादि

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अधिकार-२ः दोहा-१७१ ]परमात्मप्रकाशः [ ४९५
रागादिरहितं शुद्धात्मपरिणाममिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षा-
प्रभृतिसमस्तचिन्ताजालं त्यक्त्वापि चिन्तारहिते शुद्धात्मतत्त्वे सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येति
तात्पर्यम्
।।१७०।।
अथ
३०२) जोइय दुम्मइ कवुण तुहँ भवकारणि ववहारि
बंभु पवंचहिँ जो रहिउ सो जाणिवि मणु मारि ।।१७१।।
योगिन् दुर्मतिः का तव भवकारणे व्यवहारे
ब्रह्म प्रपंचैर्यद् रहितं तत् ज्ञात्वा मनो मारय ।।१७१।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् दुम्मइ कवुण तुहं दुर्मतिः का तवेयं भवकारणि
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने द्रष्ट, श्रुत, अनुभूत, (देखेला, सांभळेला अने
अनुभवेला) भोगोनी आकांक्षाथी मांडीने समस्त चिंताजाळने छोडीने पण चिंता रहित
शुद्धात्मतत्त्वमां सर्व तात्पर्यथी भावना करवी जोईए, एवुं तात्पर्य छे. १७०.
वळी (हवे श्रीगुरु मुनिओने उपदेश आपे छे के मनने मारीने परब्रह्मनुं ध्यान
करो)ः
भावार्थःहे योगी! तारी आ केवी दुर्बुद्धि छे के भवरहित अने शुभाशुभ
निर्मलगुण सहित हंसके समान उज्ज्वल परमात्माके शुद्ध भाव हैं, वे चिंताके बिना छोड़े नहीं
होते
तीर्थंकरदेव भी मुनि होके निश्चिंत व्रत धारण करते हैं, तभी परमहंस दशा पाते हैं, ऐसा
व्याख्यान जानकर देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी वाँछा आदि समस्त चिंताजालको छोड़कर
परम निश्चिंत हो, शुद्धात्मकी भावना करना योग्य है ।।१७०।।
आगे श्रीगुरु मुनियोंको उपदेश देते हैं, कि मनको मारकर परब्रह्मका ध्यान करो
गाथा१७१
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [तव का दुर्मतिः ] तेरी क्या खोटी बुद्धि है, जो
तू [भवकारणे व्यवहारे ] संसारके कारण उद्यमरूप व्यवहार करता है अब तू [प्रपंचैः रहितं ]
मायाजालरूप पाखंडोंसे रहित [यत् ब्रह्म ] जो शुद्धात्मा है, [तत् ज्ञात्वा ] उसको जानकर
[मनो मारय ] विकल्प
जालरूपी मनको मार
भावार्थ :वीतराग स्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्माको जानकर शुभाशुभ विकल्प

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४९६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७२
ववहारि भवरहितात् शुभाशुभमनवचनकायव्यापाररूपव्यवहारविलक्षणाच्च स्वशुद्धात्मद्रव्यात्प्रति-
पक्षभूते पञ्चप्रकारसंसारकारणे व्यवहारे
तर्हि किं करोमिति चेत् बंभु ब्रह्मशब्दवाच्यं
स्वशुद्धात्मानं ज्ञात्वा कथंभूतं यत् पवंचहि जो रहिउ प्रपंचैर्मायापाखण्डैः यद्रहितम् सा
जाणिवि तं निजशुद्धात्मानं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा पश्चात्किं कुरु मणु मारि
अनेकमानसविकल्पजालरहिते परमात्मनि स्थित्वा शुभाशुभविकल्पजालरूपं मनो मारय
विनाशयेति भावार्थः
।।१७१।।
अथ
३०३) सव्वहिँ रायहिँ छहिँ रसहिँ पंचहिँ रूवहिँ जंतु
चित्तु णिवारिवि झाहि तुहुँ अप्पा देउ अणंतु ।।१७२।।
सर्वैः रागैः षड्भिः रसैः पञ्चभिः रूपैः गच्छत्
चित्तं निवार्य ध्याय त्वं आत्मानं देवमनन्तम् ।।१७२।।
मनवचनकायाना व्यापाररूप व्यवहारथी विलक्षण एवा शुद्ध आत्मद्रव्यथी प्रतिपक्षभूत पांच
प्रकारना संसारना कारणरूप व्यवहारमां प्रवर्ते छे! हवे हुं शुं करुं? एवा प्रश्नना जवाबमां
श्रीगुरु कहे छे के ‘‘ब्रह्म’’ शब्दथी वाच्य एवा स्वशुद्ध आत्माने जाणीने-जे प्रपंचथी-माया
पाखंडथी-रहित छे ते निजशुद्धआत्माने वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञानथी जाणीने मनना अनेक
विकल्पजाळथी रहित परमात्मामां स्थित थईने शुभाशुभ विकल्पजाळरूप मनने मारो-मननो
विनाश करो, ए भावार्थ छे. १७१.
वळी, हवे फरी ए ज वात कहे छे के सर्व विषयोने छोडीने आत्मदेवने ध्यावोः
जालरूप मनको मारो मनके बिना वश किये निर्विकल्पध्यानकी सिद्धि नहीं होती मनके
अनेक विकल्पजालोंसे जो शुद्ध आत्मा उसमें निश्चलता तभी होती है, जब कि मनको मारके
निर्विकल्प दशाको प्राप्त होवे इसलिये सकल शुभाशुभ व्यवहारको छोड़के शुद्धात्माको
जानो ।।१७१।।
आगे यही कहते हैं, कि सब विषयोंको छोड़कर आत्मदेवको ध्यावो
गाथा१७२
अन्वयार्थ :हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं ] तू [सर्वैः रागैः ] सब शुभाशुभ रागोंसे, [षड्भिः
रसैः ] छहों रसोंसे, [पंचभिः रसैः ] पाँच रसोंसे [गच्छत् चित्तं ] चलायमान चित्तको [निवार्य ]
रोककर [अनंतम् ] अनंतगुणवाले [आत्मानं देवम् ] आत्मदेवका [ध्याय ] चिंतवन कर

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अधिकार-२ः दोहा-१७२ ]परमात्मप्रकाशः [ ४९७
सव्वहिं इत्यादि झाहि ध्याय चिन्तय तुहुँ त्वं हे प्रभाकरभट्ट कम् अप्पा
स्वशुद्धात्मानम् कथंभूतम् देउ वीतरागपरमानन्दसुखेन दीव्यति क्रीडति इति देवस्तं देवम्
पुनरपि कथंभूतम् अणंतु केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारत्वादनन्तसुखास्पदत्वादविनश्वरत्वाच्चानन्त-
स्तमनन्तम् किं कृत्वा पूर्वम् चित्तु णिवारिवि चित्तं निवार्य व्यावृत्य किं कुर्वन् सन् जंत
गच्छत्परिणममानं सत् कैः करणभूतैः सव्वहिं रायहिं वीतरागात्स्वशुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणैः
सर्वशुभाशुभरागैः न केवलं रागैः छहिं रसहिं रसरहिताद्वीतरागसदानन्दैकरसपरिणतादात्मनो
विपरीतैः गुडलवणदधिदुग्धतैलघृतषड्रसैः पुनरपि कैः पंचहिं रूवहिं अरूपात्
शुद्धात्मतत्त्वात्प्रतिपक्षभूतैः कृष्णनीलरक्त श्वेतपीतपञ्चरूपैरिति तात्पर्यम् १७२
अथ येन स्वरूपेण चिन्त्यते परमात्मा तेनैव परिणमतीति निश्चिनोति
३०४) जेण सरूविं झाइयइ अप्पा एहु अणंतु
तेण सरूविं परिणवइ जह फलिहउ-मणि मंतु ।।१७३।।
भावार्थःवीतराग स्वशुद्धात्मद्रव्यथी विलक्षण एवा शुभाशुभ सर्व रागोथी रस
रहित एक (केवळ) वीतराग सदानंदरूप रसमां परिणत आत्माथी विपरीत, गोळ, लवण,
दूध, दहीं, घी अने तेल ए छ रसोथी अने रूप रहित एवा शुद्धात्मतत्त्वथी प्रतिपक्षभूत
काळा, नील, राता, सफेद, पीळा ए पांच रूपोथी परिणमता मनने रोकीने, केवळज्ञानादि
अनंतगुणनो आधार होवाथी, अनंतसुखनुं स्थान होवाथी अने अविनश्वर होवाथी अनंत छे
एवा, वीतराग परमानंदरूप सुखथी जे शोभे छे, रमे छे, ते देव छे, एवा स्वशुद्धात्माने हे
प्रभाकरभट्ट! तुं ध्याव-चिन्तवन कर. १७२.
हवे, परमात्मा जे स्वरूपे चिंतववामां आवे छे ते ज स्वरूपे ते परिणमे छे, एम
नक्की करे छेः
भावार्थ :वीतराग, परम आनंद सुखमें क्रीड़ा करनेवाले केवल ज्ञानादि अनंतगुणवाले
अविनाशी शुद्ध आत्माका एकाग्र चित्त होकर ध्यान कर क्या करके ? वीतराग शुद्धात्मद्रव्यसे
विमुख जो समस्त शुभाशुभ राग, निजरससे विपरीत जो दधि, दुग्ध, तेल, घी, लोंन, मिस्री, ये छह
रस और जो अरूप शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न काले, सफे द, पीले, लाल, पाँच तरहके रूप इनमें निरन्तर
चित्त जाता है, उसको रोककर आत्मदेवकी आराधना कर
।।१७२।।
आगे आत्माको जिसरूपसे ध्यावो, उसीरूप परिणमता है, जैसे स्फ टिकमणिके नीचे
जैसा डंक दिया जाये, वैसा ही रंग भासता है, ऐसा कहते हैं

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४९८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७३
येन स्वरूपेण ध्यायते आत्मा एषः अनन्तः
तेन स्वरूपेण परिणमति यथा स्फ टिकमणिः मन्त्रः ।।१७३।।
जेण इत्यादि तेण सरूविं परिणवइ तेन स्वरूपेण परिणमति कोऽसौ कर्ता
अप्पा आत्मा एहु एष प्रत्यक्षीभूतः पुनरपि किंविशिष्टः अणंतु वीतरागानाकुलत्व-
लक्षणानन्तसुखाद्यनन्तशक्ति परिणतत्वादनन्तः तेन केन जेण सरूविं झाइयइ येन
शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण ध्यायते चिन्त्यते द्रष्टान्तमाह जह फलिहउ-मणि मंतु यथा
स्फ टिकमणिः जपापुष्पाद्युपाधिपरिणतः गारुडादिमन्त्रो वेति अत्र विशेषव्याख्यानं तु‘‘येन
येन स्वरूपेण युज्यते यन्त्रवाहकः तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ।।’’ इति
भावार्थःजेवी रीते स्फटिकमणि जपापुष्पादिनी उपाधिथी ते उपाधिरूपे परिणमे
छे अने जेवी रीते गारुडादिमंत्र गारुडादिरूप भासे छे तेवी रीते वीतराग अनाकुळता जेनुं
लक्षण छे एवा अनंतसुखादि अनंतशक्तिरूपे परिणत होवाथी जे अनंत छे एवो आ
प्रत्यक्षगोचर आत्मा जे शुभ, अशुभ, शुद्धउपयोगरूपे चिन्तववामां आवे ते स्वरूपे परिणमे
छे.
अहीं, विशेष व्याख्यान पण छे‘‘येन येन स्वरूपेण युज्यते यन्त्रवाहकः तेन तन्मयतां
याति विश्वरूपो मणिर्यथा ।।’’ (अमितगति योगसार ९. ५१) [अर्थविश्वरूपधारी स्फटिकनी
जेम (जेवी रीते स्फटिकमणि सर्व पदार्थोना रंगरूपे परिणमे छे तेवी रीते) जे जे स्वरूपे
आत्मा परिणमे छे ते ते रूपे आत्मा तन्मयी थई जाय छे.]
गाथा१७३
अन्वयार्थ :[एषः ] यह प्रत्यक्षरूप [अनंतः ] अविनाशी [आत्मा ] आत्मा [येन
स्वरूपेण ] जिस स्वरूपसे [ध्यायते ] ध्याया जाता है, [तेन स्वरूपेण ] उसी स्वरूप
[परिणमति ] परिणमता है, [यथा स्फ टिकमणिः मंत्रः ] जैसे स्फ टिकमणि और गारुड़ी आदि
मंत्र हैं
भावार्थ :यह आत्मा शुभ, अशुभ, शुद्ध इन तीन उपयोगरूप परिणमता है जो
अशुभोपयोगका ध्यान करे, तो पापरूप परिणवे, शुभोपयोगका ध्यान करे, तो पुण्यरूप परिणवे,
और जो शुद्धोपयोगको ध्यावे, तो परमशुद्धरूप परिणमन करता है
जैसे स्फ टिकमणिके नीचे
जैसा डंक लगाओ, अर्थात् श्याम, हरा, पीला, लालमेंसे जैसा लगाओ, उसी रूप स्फ टिकमणि
परिणमता है, हरे डंकसे हरा और लालसे लाल भासता है
उसी तरह जीवद्रव्य जिस
उपयोगरूप परिणमता है, उसीरूप भासता है और गारुड़ी आदि मंत्रोंमेंसे गारुडीमंत्र गरुड़रुप

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अधिकार-२ः दोहा-१७४ ]परमात्मप्रकाशः [ ४९९
श्लोकार्थकथितद्रष्टान्तेन ध्यातव्यः इदमत्र तात्पर्यम् अयमात्मा येन येन स्वरूपेण चिन्त्यते
तेन तेन परिणमतीति ज्ञात्वा शुद्धात्मपदप्राप्त्यर्थिभिः समस्तरागादिविकल्पसमूहं त्यक्त्वा
शुद्धरूपेणैव ध्यातव्य इति
।।१७३।।
अथ चतुष्पादिकां कथयति
३०५) एहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसेँ जायउ जप्पा
जामइँ जाणइ अप्पें अप्पा तामइँ सो जि देउ परमप्पा ।।१७४।।
एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः
यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा ।।१७४।।
ए श्लोकार्थमां कहेला द्रष्टांतथी (आत्मा) ध्याववा योग्य छे (चिंतववा योग्य छे).
अहीं, तात्पर्य एम छे के आ आत्मा जे जे स्वरूपे चिंतववामां आवे छे ते ते स्वरूपे
परिणमे छे एम जाणीने शुद्धआत्मपदनी प्राप्तिना अर्थीए समस्त रागादि विकल्पना समूहने
छोडीने (आत्माने) शुद्धरूपे ज ध्याववो जोईए. १७३.
हवे, चतुष्पदोनुं कथन करे छेः(हवे चार सूत्रो कहे छे)ः
भासता है, जिससे कि सर्प डर जाता है ऐसा ही कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है, कि जिस
जिस रूपसे आत्मा परिणमता है, उस उस रूपसे आत्मा तन्मयी हो जाता है, जैसे स्फ टिकमणि
उज्ज्वल है, उसके नीचे जैसा डंक लगाओ, वैसा ही भासता है
ऐसा जानकर आत्माका स्वरूप
जानना चाहिये जो शुद्धात्मपदकी प्राप्तिके चाहनेवाले हैं, उनको यही योग्य है, कि समस्त
रागादिक विकल्पोंके समूहको छोड़कर आत्माके शुद्ध रूपको ध्यावें और विकारों पर दृष्टि न
रक्खें
।।१७३।।
आगे चतुष्पदछंदमें आत्माके शुद्ध स्वरूपको कहते हैं
गाथा१७४
अन्वयार्थ :[एष यः आत्मा ] यह प्रत्यक्षीभूत स्वसंवेदनज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा
[स परमात्मा ] वही शुद्धनिश्चयनयकर अनंत चतुष्टयस्वरूप क्षुधादि अठारह दोष रहित निर्दोष
परमात्मा है, वह व्यवहारनयकर [कर्मविशेषेण ] अनादि कर्मबंधके विशेषसे [जाप्यः जातः ]
पराधीन हुआ दूसरेका जाप करता है; परंतु [यदा ] जिस समय [आत्मना ] वीतराग निर्विकल्प
स्वसंवेदनज्ञानकर [आत्मानं ] अपनेको [जानाति ] जानता है, [तदा ] उस समय [स एव ]

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५०० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७४
एहु इत्यादि एहु जु एष यः प्रत्यक्षीभूतः अप्पा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आत्मा
कथंभूतः सो परमप्पा शुद्धनिश्चयेनानन्तचतुष्टयस्वरूपः क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितः स निर्दोषि-
परमात्मा कम्म-विसेसें जायउ जप्पा व्यवहारनयेनादिकर्मबन्धनविशेषेण स्वकीयबुद्धिदोषेण
जात उत्पन्नः कथंभूतो जातः जाप्यः पराधीनः
जामइं जाणइ यदा काले जानाति
केन
कम् अप्पें अप्पा वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतेनात्मना निजशुद्धात्मानं तामइं
तस्मिन् स्वशुद्धात्मानुभूतिकाले सो जि स एवात्मा देउ निजशुद्धात्मभावनोत्थवीतराग-
सुखानुभवेन दीव्यति क्रीडतीति देवः परमाराध्यः
किंविशिष्टो देवः परमप्पा शुद्धनिश्चयेन
मुक्ति गत-परमात्मसमानः अयमत्र भावार्थः यद्येवंभूतः परमात्मा शक्ति रूपेण देहमध्ये
नास्ति तर्हि केवलज्ञानोत्पत्तिकाले कथं व्यक्तीभविष्यतीति ।।१७४।।
अथ तमेवार्थं व्यक्तीकरोति
भावार्थःआ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आत्मा शुद्ध निश्चयनयथी अनंतचतुष्टयस्वरूप
क्षुधाआदि अढार दोष रहित निर्दोष परमात्मा-ते व्यवहारनयथी अनादिकर्मबंधनना विशेषथी
पोतानी बुद्धिना दोषथी पराधीन थयो छे.
परंतु ज्यारे वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरूपे परिणत आत्मा वडे निजशुद्ध-आत्माने
जाणे छे त्यारे ते स्वशुद्धआत्मानी अनुभूतिना समये ते ज आत्मा निज-शुद्धआत्मानी भावनाथी
उत्पन्न वीतराग सुखानुभवथी शोभे छे, क्रीडा करे छे ते देव छे के जे परमआराध्य छे; ते
देव शुद्धनिश्चयनयथी मुक्तिगत परमात्मा समान छे.
अहीं, भावार्थ एम छे के जो आवो परमात्मा शक्तिरूपे देहमां न होय तो केवळज्ञाननी
उत्पत्तिकाळे तेनी व्यक्ति केवी रीते थाय? ।।१७४.
हवे, ते ज अर्थने प्रगट करे छेः
यह आत्मा ही [परमात्मा ] परमात्मा देव है
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो परम आनंद उसके अनुभवमें
क्रीडा करनेसे देव कहा जाता है, यही आराधने योग्य है जो आत्मदेव शुद्ध निश्चयनयकर
भगवान् केवलीके समान है ऐसा परमात्मदेव शक्तिरूपसे देहमें हैं, जो देहमें न होवे, तो
केवलज्ञानके समय कैसे प्रगट होवे ।।१७४।।
आगे इसी अर्थको प्रगटपनेसे दृढ़ करते हैं
१. अहीं ‘स्वसंवेदन ज्ञान प्रत्यक्ष’ होवुं जोईए.

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अधिकार-२ः दोहा-१७५ ]परमात्मप्रकाशः [ ५०१
३०६) जो परमप्पा णाणमउ सो हउँ देउ अणंतु
जो हउँ सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु ।।१७५।।
यः परमात्मा ज्ञानमयः स अहं देवः अनन्तः
यः अहं स परमात्मा परः इत्थं भावय निर्भ्रान्तः ।।१७५।।
जो परमप्पा इत्यादि जो परमप्पा यः कश्चित् प्रसिद्धः परमात्मा
सर्वोत्कृष्टानन्तज्ञानादिरूपा मा लक्ष्मीर्यस्य स भवति परमश्चासावात्मा च परमात्मा णाणमउ
ज्ञानेन निवृत्तः ज्ञानमयः सो हउं यद्यपि व्यवहारेण कर्मावृतस्तिष्ठामि तथापि निश्चयेन स
एवाहं पूर्वोक्त : परमात्मा
कथंभूतः देउ परमाराध्यः पुनरपि कथंभूतः अणंत
अनन्तसुखादिगुणास्पदत्वादनन्तः जो उं सो परमप्पु योऽहं स्वदेहस्थो निश्चयेन परमात्मा स
भावार्थः‘परा’ अर्थात् सर्वोत्कृष्ट-अनंतज्ञानादिरूप ‘मा’ अर्थात् लक्ष्मी जेने छे ते
‘परम’ छे, अने परम एवो आत्मा ते ‘परमात्मा छे’ के जे ‘ज्ञानमय’ अर्थात् ज्ञानथी
रचायेल छे; जो के हुं व्यवहारथी कर्म वडे अवरायेलो छुं तोपण, निश्चयथी पूर्वोक्त प्रसिद्ध
(ज्ञानमय) परमात्मा छुं के जे ‘देव’ अर्थात् परम आराध्य छे अने अनंत सुखादि गुणोनुं
स्थान होवाथी ‘अनंत’ छे
ते ज हुं छुं. स्वदेहमां रहेलो हुं निश्चयथी परमात्मा छुं, तेना जेवा
ज मुक्तिप्राप्त परमात्मा छे जे परमगुणयुक्त होवाथी ‘उत्कृष्ट’ छे-आवा परमात्माने, हे
प्रभाकरभट्ट! तुं संशयरहित थयो थको भाव.
गाथा१७५
अन्वयार्थ :[यः परमात्मा ] जो परमात्मा [ज्ञानमयः ] ज्ञानस्वरूप है, [स अहं ]
वह मैं ही हूँ, जो कि [अनंत देवः ] अविनाशी देवस्वरूप हूँ, [य अहं ] जो मैं हूँ [स परः
परमात्मा ] वही उत्कृष्ट परमात्मा है
[इत्थं ] इसप्रकार [निर्भ्रांतः ] निस्संदेह [भावय ] तू
भावना कर
भावार्थ :जो कोई एक परमात्मा परम प्रसिद्ध सर्वोत्कृष्ट अनंतज्ञानादिरूप लक्ष्मीका
निवास है, ज्ञानमयी है, वैसा ही मैं हूँ यद्यपि व्यवहारनयकर मैं कर्मोंसे बँधा हुआ हूँ, तो भी
निश्चयनयकर मेरे बंध मोक्ष नहीं है, जैसा भगवान्का स्वरूप है, वैसा ही मेरा स्वरूप है
जो आत्मदेव महामुनियोंकर परम आराधने योग्य है, और अनंत सुख आदि गुणोंका निवास
है
इससे यह निश्चय हुआ कि जैसा परमात्मा वैसा यह आत्मा और जैसा यह आत्मा है,
वैसा ही परमात्मा है जो परमात्मा है वह मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही परमात्मा है अहं यह

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५०२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७६
एव तत्सदश एव मुक्ति गतपरमात्मा कथंभूतः परु परमगुणयोगात् पर उत्कृष्टः एहउ
भावि इत्थंभूतं परमात्मानं भावय हे प्रभाकरभट्ट कथंभूतः सन् णिभंतु भ्रान्तिरहितः
संशयरहितः सन्निति अत्र स्वदेहेऽपि शुद्धात्मास्तीति निश्चयं कृत्वा मिथ्यात्वाद्युपशमवशेन
केवलज्ञानाद्युत्पत्तिबीजभूतां कारणसमयसाराख्यामागमभाषया वीतरागसम्यक्त्वादिरूपां शुद्धात्मैक-
देशव्यक्तिं लब्ध्वा सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः
।।१७५।।
अथामुमेवार्थं द्रष्टान्तदार्ष्टान्ताभ्यां समर्थयति
३०७) णिम्मल-फलिहहँ जेम जिय भिण्णउ परकिय-भाउ
अप्प-सहावहँ तेम मुणि सयलु वि कम्म-सहाउ ।।१७६।।
निर्मलस्फ टिकाद् यथा जीव भिन्नः परकृतभावः
आत्मस्वभावात् तथा मन्यस्व सकलमपि कर्मस्वभावम् ।।१७६।।
अहीं, पोताना देहमां पण शुद्ध आत्मा छे एवो निर्णय करीने मिथ्यात्वादि उपशमना
वशे केवळज्ञानादिनी उत्पत्तिना बीजरूप, आगमभाषाए कारणसमयसार नामनी वीतराग
सम्यक्त्वादिरूप शुद्धात्मानी एकदेशव्यक्ति पामीने सर्वतात्पर्यथी भावना करवी जोईए, एवो
अभिप्राय छे. १७५.
हवे, आ ज अर्थनुं द्रष्टांत-दार्ष्टांतथी समर्थन करे छेः
शब्द देहमें स्थित आत्माको कहता है और सः यह शब्द मुक्ति प्राप्त परमात्मामें लगाना
जो परमात्मा वह मैं हूँ, और मैं हूँ सो परमात्मायही ध्यान हमेशा करना वह परमात्मा
परमगुणके संबंधसे उत्कृष्ट है श्रीयोगीन्द्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं, कि हे प्रभाकरभट्ट, तू
सब विकल्पोंको छोड़कर केवल परमात्माका ध्यान कर निस्संदेह होके इस देहमें शुद्धात्मा
है, ऐसा निश्चय कर मिथ्यात्वादि सब विभावोंकी उपशमताके वशसे केवलज्ञानादि उत्पत्तिका
जो कारण समयसार (निज आत्मा) उसीकी निरन्तर भावना करनी चाहिये वीतराग
सम्यक्त्वादिरूप शुद्ध आत्माका एकदेश प्रगटपनेको पाकर सब तरहसे ज्ञानकी भावना योग्य
है
।।१७५।।
आगे इसी अर्थको दृष्टान्त दार्ष्टान्तसे पुष्ट करते हैं
गाथा१७६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [यथा ] जैसे [परकृतभावः ] नीचेके सब डंक

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अधिकार-२ः दोहा-१७७ ]परमात्मप्रकाशः [ ५०३
भिण्णउ भिन्नो भवति जिय हे जीव जेम यथा कोऽसौ कर्ता परकिय-भाउ
जपापुष्पाद्युपाधिरूपः परकृतभावः कस्मात्सकाशात् णिम्मल-फलिहहं निर्मलस्फ टिकात् तेम
तथा भिन्नं मुणि मन्यस्व जानीहि कम् सयलु वि कम्म-सहाउ समस्तमपि भावकर्मद्रव्य-
कर्मनोकर्मस्वभावम् कस्मात् सकाशात् अप्प-सहावहं अनन्तज्ञानादिगुणस्वभावात् परमात्मनः
इति भावार्थः ।।१७६।।
अथ तामेव देहात्मनोर्भेदभावनां द्रढयति
३०८) जेम सहाविं णिम्मलउ फलिहउ तेम सहाउ
भंतिए मइलु म मण्णि जिय मइलउ देक्खवि काउ ।।१७७।।
यथा स्वभावेन निर्मलः स्फ टिकः तथा स्वभावः
भ्रान्त्या मलिनं मा मन्यस्व जीव मलिनं द्रष्ट्वा कायम् ।।१७७।।
भावार्थःजेवी रीते जपापुष्पादिनी उपाधिरूप परकृत भाव निर्मळस्फटिकथी भिन्न
छे तेवी रीते समस्त भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मस्वभावने अनंतज्ञानादिगुण-स्वभावमय
परमात्माथी भिन्न जाण, ए भावार्थ छे. १७६.
हवे, ते ज देह अने आत्मानी भेदभावना द्रढ करे छे (हवे देह अने आत्मा जुदा
छे, एवी भावना करे छे)ः
[निर्मलस्फ टिकात् ] महा निर्मल स्फ टिकमणिसे [भिन्नः ] जुदे हैं, [तथा ] उसी तरह
[आत्मस्वभावात् ] आत्मस्वभावसे [सकलमपि ] सब [कर्मस्वभावम् ] शुभाशुभ कर्म
[मन्यस्व ] भिन्न जानो
भावार्थ :आत्मस्वभाव महानिर्मल है, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म ये सब जड़ हैं,
आत्मा चिद्रूप है अनंत ज्ञानादि गुणरूप जो चिदानंद उससे तू सकल प्रपंच भिन्न मान ।।१७६।।
आगे देह और आत्मा जुदेजुदे हैं, यह भेदभावना दृढ़ करते हैं
गाथा१७७
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [स्फ टिकः ] स्फ टिकमणि [स्वभावेन ] स्वभावसे
[निर्मलः ] निर्मल है, [तथा ] उसीतरह [स्वभावः ] आत्मा ज्ञान दर्शनरूप निर्मल है ऐसे
आत्मस्वभावको [जीव ] हे जीव, [कायम् मलिनं ] शरीरकी मलिनता [दृष्ट्वा ] देखकर
[भ्रांत्या ] भ्रमसे [मलिनं ] मैला [मा मन्यस्व ] मत मान

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५०४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१७८-१८१
जेम इत्यादि जेम सहाविं णिम्मलउ यथा स्वभावेन निर्मलो भवति कोऽसौ
फलिहउ स्फ टिकमणिः तेम तथा निर्मलो भवति कोऽसौ कर्ता सहाउ विशुद्धज्ञानरूपस्य
परमात्मनः स्वभावः भंतिए मइलु म मण्णि पूर्वोक्त मात्मस्वभावं कर्मतापन्नं भ्रान्त्या मलिनं
मा मन्यस्व
जिय हे जीव
किं कृत्वा मइलउ देक्खवि मलिनं द्रष्ट्वा कम् काउ
निर्मलशुद्धबुद्धैकस्वभावपरमात्मपदार्थाद्विलक्षणं कायमित्यभिप्रायः ।।१७७।।
अथ पूर्वोक्त भेदभावनां रक्तादिवस्त्रद्रष्टान्तेन व्यक्ति करोति चतुष्कलेन
३०९) रत्तेँ वत्थेँ जेम बुहु देहु ण मण्णइरत्तु
देहिं रत्तिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ रत्तु ।।१७८।।
३१०) जिण्णिं वत्थिं जेम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु
देहिं जिण्णिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ।।१७९।।
३११) वत्थु पणट्ठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णट्ठु
णट्ठे देहे णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ णट्ठु ।।१८०।।
३१२) भिण्णउ वत्थु जि जेम जिय देहहँ मण्णइ णाणि
देहु वि भिण्णउँ णाणि तहँ अप्पहँ मण्णइ जाणि ।।१८१।।
रक्ते न वस्त्रेन यथा बुधः देहं न मन्यते रक्त म्
देहेन रक्ते न ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते रक्त म् ।।१७८।।
हवे, पूर्वोक्त भेदभावनाने रक्तादि वस्त्रना द्रष्टांतथी चार गाथासूत्रो द्वारा प्रगट करे छे.
भावार्थ :यह काय शुद्ध-बुद्ध परमात्मपदार्थसे भिन्न है, काय मैली है, आत्मा
निर्मल है ।।१७७।।
आगे पूर्वकथित भेदविज्ञानकी भावना रक्त पीतादि वस्त्रके दृष्टांतसे चार दोहोंमें प्रगट
करते हैं
गाथा१७८८१
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [बुधः ] कोई बुद्धिमान् पुरुष [रक्ते वस्त्रे ] लाल वस्त्रसे

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अधिकार-२ः दोहा-१७८-१८१ ]परमात्मप्रकाशः [ ५०५
जीर्णेन वस्त्रेण तथा बुधः देहं न मन्यते जीर्णम्
देहेन जीर्णेन ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते जीर्णम् ।।१७९।।
वस्त्रे प्रणष्टे यथा बुधः देहं न मन्यते नष्टम्
नष्टे देहे ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते नष्टम् ।।१८०।।
भिन्नं वस्त्रमेव यथा जीव देहात् मन्यते ज्ञानी
देहमपि भिन्नं ज्ञानी तथा आत्मनः मन्यते जानीहि ।।१८१।।
यथा कोऽपि व्यवहारज्ञानी रक्ते वस्त्रे जीर्णे वस्त्रे नष्टेऽपि स्वकीयवस्त्रे स्वकीयं
देहं रक्तं जीर्णं नष्टं न मन्यते तथा वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानी देहे रक्ते जीर्णे
नष्टेऽपि सति व्यवहारेण देहस्थमपि वीतरागचिदानन्दैकपरमात्मानं शुद्धनिश्चयनयेन देहाद्भिन्नं
भावार्थःजेवी रीते कोईपण व्यवहारज्ञानी (व्यवहारमां कुशळ मनुष्य) स्वकीय
वस्त्र लाल होतां, वस्त्र जीर्ण थतां, अने वस्त्र नष्ट थतां, स्वकीय देहने लाल, जीर्ण अने
नष्ट मानतो नथी तेवी रीते वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनवाळो ज्ञानी देह लाल होतां, देह
जीर्ण अने नष्ट थतां, व्यवहारथी देहमां रहेवा छतां पण शुद्ध निश्चयनयथी देहथी भिन्न,
एक (केवळ) वीतराग चिदानंदमय परमात्माने लाल, जीर्ण के नष्ट मानतो नथी.
[देहं रक्तम् ] शरीरको लाल [न मन्यते ] नहीं मानता, [तथा ] उसी तरह [ज्ञानी ] वीतराग
निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानी [देह रक्ते ] शरीरके लाल होनेसे [आत्मानं ] आत्माको [रक्तम्
न मन्यते ] लाल नहीं मानता
[यथा बुधः ] जैसे कोई बुद्धिमान् [वस्त्रे जीर्णे ] कपड़ेके
जीर्ण (पुराने ) होने पर [देहं जीर्णम् ] शरीरको जीर्ण [न मन्यते ] नहीं मानता, [तथा ज्ञानी ]
उसी तरह ज्ञानी [देहे जीर्णे ] शरीरके जीर्ण होनेसे [आत्मानं जीर्णम् न मन्यते ] आत्माको
जीर्ण नहीं मानता, [यथा बुधः ] जैसे कोई बुद्धिमान् [वस्त्रे प्रणष्टे ] वस्त्रके नाश होनेसे [देहं
नष्टम् ] देहका नाश [न मन्यते ] नहीं मानता, [तथा ज्ञानी ] उसी तरह ज्ञानी [देहे नष्टे ]
देहका नाश होनेसे [आत्मानं ] आत्माका [नष्टम् न मन्यते ] नाश नहीं मानता, [जीव ] हे
जीव, [यथा ज्ञानी ] जैसे ज्ञानी [देहाद् भिन्नं एव ] देहसे भिन्न ही [वस्त्रम् मन्यते ] कपड़ेको
मानता है, [तथा ज्ञानी ] उसी तरह ज्ञानी [देहमपि ] शरीरको भी [आत्मनः भिन्नं ] आत्मासे
जुदा [मन्यते ] मानता है, ऐसा [जानीहि ] तुम जानो
भावार्थ :जैसे वस्त्र और शरीर मिले हुए भासते हैं, परंतु शरीरसे वस्त्र जुदा है, उसी
तरह आत्मा और शरीर मिले हुए दिखते हैं, परंतु जुदा हैं शरीरकी रक्ततासे, जीर्णतासे और
विनाशसे आत्माकी रक्तता, जीर्णता और विनाश नहीं होता यह निसंदेह जानो यह आत्मा

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५०६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८२
रक्तं जीर्णं नष्टं न मन्यते इति भावार्थः अथ मण्णइ मन्यते कोऽसौ णाणि
देहवस्त्रविषये भेदज्ञानी किं मन्यते भिण्णउ भिन्नम् किम् वत्थु जि वस्त्रमेव जेम
यथा जिय हे जीव कस्माद्भिन्नं मन्यते देहहं स्वकीयदेहात् द्रष्टान्तमाह मण्णइ
मन्यते कोऽसौ णाणि देहात्मनोर्भेदज्ञानी तहं तथा भिन्नं मन्यते कमपि देहु वि
देहमपि कस्मात् अप्पहं निश्चयेन देहविलक्षणाद्व्यवहारेण देहस्थात्सहजशुद्धपरमानन्दैक-
स्वभावान्निजपरमात्मनः जाणि जानीहीति भावार्थः ।।१७८--८१।।
अथ दुःखजनकदेहघातकं शत्रुमपि मित्रं जानीहीति दर्शयति
३१३) इहु तणु जीवड तुज्झ रिउ दुक्खइँ जेण जणेइ
सो परु जाणहि मित्तु तुहुँ जो तणु एहु हणेइ ।।१८२।।
इयं तनुः जीव तव रिपुः दुःखानि येन जनयति
तं परं जानीहि मित्रं त्वं यः तनुमेतां हन्ति ।।१८२।।
रिउ रिपुर्भवति का इहु तणु इयं तनुः कर्त्री जीवड हे जीव तुज्झ तव कस्मात्
हे जीव! जेवी रीते देह अने वस्त्रनो भेदज्ञानी वस्त्रने स्वकीय देहथी जुदुं जाणे छे
तेवी रीते देह अने आत्मानो भेदज्ञानी देहने निश्चयथी देहथी विलक्षण, व्यवहारथी देहस्थ
(व्यवहारे देहमां स्थित) सहज शुद्ध परमानंद जेनो एक स्वभाव छे एवा परमात्माथी
भिन्न जाणे छे, एम तुं जाण एवो भावार्थ छे. १७८-१८१.
हवे दुःखजनक, देहघातक एवा शत्रुने पण तुं मित्र जाण, एम दर्शावे छेः
व्यवहारनयकर देहमें स्थित है, तो भी सहज शुद्ध परमानंदरूप निजस्वभावकर जुदा ही है, देहके
सुख
दुःख जीवमें नहीं हैं ।।१७८८१।।
आगे दुःख उत्पन्न करनेवाला शत्रुरूप यह देह है, उसको तू मित्र मत समझ, ऐसा कहते
हैं
गाथा१८२
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [इयं तनुः ] यह शरीर [तव रिपुः ] तेरा शत्रु है,
[येन ] क्योंकि [दुःखानि ] दुःखोंको [जनयति ] उत्पन्न करता है, [यः ] जो [इमां तनुं ] इस
शरीरका [हंति ] घात करे, [तं ] उसको [त्वं ] तुम [परं मित्रं ] परममित्र [जानीहि ] जानो
भावार्थ :यह शरीर तेरा शत्रु होनेसे दुःख उत्पन्न करता है, इससे तू अनुराग मत