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कौरवकुमारस्योपरि द्वेषो न कृतस्तथान्यतपोधनैरपि न कर्तव्य इत्यभिप्रायः
जेवी रीते शरीरना हणनार कौरवकुमार उपर पांडवोए द्वेष न कर्यो तेवी रीते, शरीरना घातक
उपर अन्य तपोधनोए पण द्वेष न करवो जोईए, ए अभिप्पाय छे. १८२.
कर देवे, उसको शत्रु मत जान
घातक पर द्वेष मत कर
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निजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतरागसहजानन्दैकसुखरसास्वादद्रवीभूतेन परिणतेन मनसा क्षपितं
मया सो स परं नियमेन लाहु जि लाभ एव कोइ कश्चिदपूर्व इति
पुनः स्वयमेवोदयागतमिति मत्वा संतोषः कर्तव्य इति तात्पर्यम्
अने निज परमात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न एक (केवळ) वीतराग सहजानंदमय
सुखरसास्वादरूपे द्रवीभूत
एम जाणीने संतोष करवो, एवुं तात्पर्य छे. १८३.
गया, [मया क्षपितं ] इससे मैं शांत चित्तसे फल सहनकर क्षय करूँ, [स कश्चित् ] यह कोई
[परं लाभः ] महान् ही लाभ हुआ
हों, तो विषाद न करना बहुत लाभ समझना
बुलाये सहज ही लेने आया हो, तो बड़ा ही लाभ है
हैं, तो इनके समान दूसरा क्या है, ऐसा संतोष धारणकर ज्ञानीजन उदय आये हुए कर्मोंको भोगते
हैं, परंतु राग-द्वेष नहीं करते
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कषाय दूर करनेके लिये [परं ब्रह्म ] परमानंदस्वरूप इस देहमें विराजमान परमब्रह्मका
[मनसि ] मनमें [लघु ] शीघ्र [भावय ] ध्यान करो
[विलीयते ] विलीन हो जाता है
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भावार्थः
अनंतज्ञानादि गुणोनो आधार होवाथी उत्कृष्ट एवा ‘ब्रह्म शब्दथी वाच्य एवा निजदेहस्थ
परमात्माने भाव (ध्याव) जे परमात्माना ध्यानथी वीतराग निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न
एक (केवळ) परमानंदमय सुखामृतना आस्वादथी मन तुरत ज नाश पामे-द्रवीभूत थाय
(पीगळी जाय). १८४.
आत्मस्वरूपमें लगे, तो [अत्रैव भवे ] इसी भवमें [न पतति ] नहीं पड़े
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अत्रैव भवे न पततीति इदमप्याश्चर्यं न भवतीति
निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
जातिना भेदथी, सोळवला सुवर्णनी जेम केवळज्ञानादि गुणे करीने सर्वजीवराशि सद्रश नथी,
सद्रश एवा परमात्मतत्त्वथी विलक्षण
आत्मद्रव्यथी विसद्रश आ भवान्तरमां-संसारमां आवे-पडे एमां शुं आश्चर्य छे? कंईपण
आश्चर्य नथी. जो आ जीव शुद्धात्मामां स्थित थाय तो आ भवमां न ज पडे तो पण
तेमां आश्चर्य नथी.
थईने निरंतर (आत्म) भावना करवी जोईए, एवुं तात्पर्य छे. १८५.
करता, और भवमें भी नहीं भटकता
चाहिये
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हेतुर्जातः इउ मण्णिवि चउ रोसु केचन परोपकारनिरताः परेषां द्रव्यादिकं दत्त्वा सुखं कुर्वन्ति
सुखनो हेतु हुं थयो. केटलाक परोपकारमां रत पुरुषो तो बीजाओने धनादिक आपीने सुखी
करे छे, अने में तो तेमने धनादिक आप्या सिवाय सुखी कर्या एम मानीने रोष छोड
तो मुझे यही लाभ है, कि [अहं ] मैं [तेषां सुखस्य हेतुः ] उनको सुखका कारण हुआ, [इति
मत्वा ] ऐसा मनमें विचारकर [रोषम् त्यज ] गुस्सा छोड़ो
किया, मेरे अवगुण ही से सुखी हो गये, तो इसके समान दूसरी क्या बात है ? ऐसा
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ममैते दोषाः सन्ति सत्यमिदमस्य वचनं तथापि रोषं त्यज, अथवा ममैते दोषा न सन्ति
तस्य वचनेन किमहं दोषी जातस्तथापि, क्षमितव्यम्, अथवा परोक्षे दोषग्रहणं करोति न च
प्रत्यक्षे समीचीनोऽसौ तथापि क्षमितव्यम्, अथवा वचनमात्रेणैव दोषग्रहणं करोति न च
शरीरबाधां करोति तथापि क्षमितव्यम्, अथवा शरीरबाधामेव करोति न च प्राणविनाशं
एम मानीने पण कोप छोड, अथवा आ दोषो मारामां छे एवुं एनुं वचन सत्य छे,
एम मानीने रोष त्यज अथवा आ दोषो मारामां नथी तो तेना वचनथी शुं हुं दोषी
थई गयो? एम मानीने क्षमा करवी, अथवा मारा दोष पीठ पाछळ कहे छे, पण मारी
समक्ष नथी कहेतो ते समीचीन छे (सारुं छे) एम मानीने क्षमा करवी, अथवा (कोई
प्रत्यक्ष पोतानी सामे दोष कहे तो) वचनमात्रथी मारा दोष ग्रहण करे छे पण मारा
शरीरने बाधा करतो नथी एम मानीने क्षमा करवी, अथवा शरीरने ज बाधा करे छे,
प्राणनो विनाश करतो नथी एम मानीने क्षमा करवी, अथवा प्राणनो ज विनाश करे छे
ऐसा जान रोष छोड़ना
जानकर उससे क्षमा करना कि प्रत्यक्ष तो मेरा मानभंग नहीं करता है, परोक्षकी बात क्या
है
कर
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मत्वा सर्वतात्पर्येण क्षमा कर्तव्येत्यभिप्रायः
करवी जोईए, ए अभिप्राय छे. १८६.
होकर परलोकका साधन कर, इस लोककी [किमपि मा चिंतय ] कुछ भी चिंता मत कर
[अवश्यम् करोति ] निश्चयसे करती है
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करे छे.
छे. १८७.
है
करनेसे नहीं होता, वाँछाके त्यागसे ही होता है, रागादि चिन्ताजालसे रहित केवलज्ञानादि
अनंतगुणोंको प्रगटता सहित जो मोक्ष है, वह चिंताके त्यागसे होता है
शुद्धात्मतत्त्वका स्वरूप उसमें लीन हुए परमयोगियोंकी मोक्ष [करिष्यति ] करेंगे
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गुणव्यक्ति सहितो मोक्षः चिन्तितो न भवति
समूहरहिते शुद्धात्मतत्त्वस्वरूपे स्थितानां परमयोगिनां मोक्खु करेसइ अनन्तज्ञानादि-
गुणोपलम्भरूपं मोक्षं करिष्यतीति
परमसमाधिकाले न कर्तव्येति भावार्थः
तो केवी रीते थाय छे? ते आ रीते थाय छे. मिथ्यात्व, रागादिचिंताजाळथी उपार्जित जे कर्मथी
जीव बंधायो छे, ते ज कर्म [ते ज कर्मनो छूटकारो] शुभाशुभविकल्पसमूहथी रहित अने
शुद्धआत्मस्वरूपमां स्थित परमयोगीओने अनंत ज्ञानादि गुणोनी प्राप्तिरूप मोक्ष करशे.
सुगईगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ती होउ मज्झं
थाओ अने जिनगुणनी संपत्ति मने मळो.) इत्यादि भावना करवी योग्य छे तोपण,
वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिकाळे ते करवी योग्य नथी, एवो भावार्थ छे. १८८.
पंचमगतिमें गमन हो, समाधि मरण हो, और जिनराजके गुणोंकी सम्पत्ति मुझको हो
निर्विकल्पसमाधिके समय नहीं होती
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विभावगुण अने नरनारकादि विभावपर्यायरूप मळथी रहित एक चिदानंद स्वभावरूप परमात्मा
स्थिर थाय छे, अने भवरहित शुद्धआत्मद्रव्यथी विलक्षण भवमळना कारणभूत जे कर्मो ते
हैं, [आत्मा तिष्ठति ] उन्हींके चिदानंद अखंड स्वभाव आत्माका ध्यान स्थिर होता है
परमसमाधिमें रत हैं, उन्हीं पुरुषोंके [भवमलानि ] शुद्धात्मद्रव्यसे विपरीत अशुद्ध भावके
कारण जो कर्म हैं, वे सब [(ऊढ्वा) बहित्वा यांति ] शुद्धात्म परिणामरूप जो जलका प्रवाह
उसमें बह जाते हैं
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कहते हैं, [तेन ] इस परमसमाधिसे [मुनयः ] मुनिराज [सकलानपि ] सभी
[शुभाशुभविकल्पान् ] शुभ-अशुभ भावोंको [मुंचंति ] छोड़ देते हैं
उन सबको छोड़ देते हैं, समस्त परद्रव्यकी आशासे रहित जो निज शुद्धात्मस्वभाव उससे
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सर्वपरद्रव्याशारहितशुद्धात्मद्रव्यभावना कर्तव्येति
शुद्धआत्मद्रव्यथी विपरीत शुभाशुभ परिणामोने छोडे छे.
छे, एम जाणीने सर्वपरद्रव्यनी आशा रहित एवा शुद्ध आत्मद्रव्यनी भावना करवी जोईए.
वळी कह्युं छे के
है
आशा ही है
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नदीकिनारे अने ग्रीष्मकाळमां पर्वतना शिखर पर) दुर्धर तपश्चरण करवा छतां पण, वळी
शास्त्रजनित विकल्पोना
वाच्य एवा विशुद्धज्ञान, विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा अने स्वदेहमां स्थित परमात्माने
देखी शकतो नथी.
[परमसमाधिविवर्जितः ] जो परमसमाधिसे रहित है, वह [शांतम् शिवं ] शांतरूप शुद्धात्माको
[नैव पश्यति ] नहीं देख सकता
ग्रीष्मकालमें पर्वतके शिखर पर, वर्षाकालमें वृक्षकी मूलमें महान् दुर्धर तप करता है
निर्विकल्प परमात्मस्वरूप उससे रहित हुआ सीखता है, शास्त्रोंका रहस्य जानता है, परंतु
परमसमाधिसे रहित है, अर्थात् रागादि विकल्पसे रहित समाधि जिसके प्रगट न हुई, तो
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परंपरया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति
तो ते परंपराए मोक्षनुं साधक छे, नहि तो ते (तपश्चरण अने शास्त्रअध्ययन) मात्र
पुण्यबंधनुं ज कारण छे. जेओ निर्विकल्प समाधि रहित छे ते संतो आत्मरूपने देखी
शकता नथी. वळी कह्युं छे के
जोई शकता नथी. १९१.
तथा इस देहमें बिराजमान ऐसे निज परमात्माको नहीं देख सकता
कारण नहीं है, पुण्यबंधके कारण होते हैं
जन्मका अंधा सूर्यको नहीं देख सकता है
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भवन्ति जोइया हे योगिन्
समाधिबहिरङ्गसहकारिभूतं जितपरिषहत्वं चेति पञ्चैतान् ध्यानहेतून् ज्ञात्वा भावयित्वा च
नथी, तेओ निर्दोष परमात्माना आराधको ज नथी.
निर्ग्रंथपणुं, (४) निश्चित आत्मानी अनुभूतिरूप चित्तवशता (मनोजय) अने (५) वीतराग
निर्विकल्प समाधिना बहिरंग सहकारीभूत परिषहजय ए पांच ध्यानना हेतु जाणीने अने तेने
करते, [ते ] वे [योगिन् ] हे योगी, [परमात्माराधकाः ] परमात्माके आराधक [नैव भवंति ]
नहीं हैं
हो, सब दोषोंसे रहित जो निज परमात्मा उसकी आराधनाके घातक विषय कषायके सिवाय
दूसरा कोई भी नहीं है
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परीषहोंको जीतना, वह भी ध्यानका कारण है
[न यांति ] नहीं जानते हैं, [ते ] वे शुद्धात्मभावनासे रहित पुरुष [बहुविधानि ] अनेक प्रकारके
[भवदुःखानि ] नारकादि भवदुःख आधि व्याधिरूप [अनंतं कालं ] अनंतकालतक [सहंते ]
भोगते हैं
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शुद्धात्मभावनारहिताः पुरुषाः सहंति सहन्ते
केवळज्ञानादि अनंतगुणस्वभाववाळा परमात्मस्वरूपने-पामता नथी (जाणता नथी) तेओ
चाहिये
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भावार्थः
चित्तमां शुद्ध आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
शुद्धोपयोगलक्षणवाळी परम समाधि थती नथी एम केवळी वीतराग सर्वज्ञ कहे छे, एवो
भावार्थ छे. १९४.
नहीं हो सकती [एवं ] ऐसा [केवलिनः ] केवलीभगवान् [भणंति ] कहते हैं
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मुख्यताथी त्रण गाथासूत्र सुधी व्याख्यान करे छे. ते आ प्रमाणेः
समस्तविकल्पोनो नाश थतां अर्थात् समस्त रागादि विकल्पोनो नाश थया पछी चार घातिकर्मनो
है, अर्थात् जब घातियाकर्म विलय हो जाते हैं, तब अरहंतपद पाता है, देवेंद्रादिकर पूजाके योग्य
हो वह अरहंत है, क्योंकि पूजायोग्यको ही अर्हंत कहते हैं
[सकलविकल्पानां ] समस्त रागादि विकल्पोंका [त्रुटयतां ] नाश करता है, अर्थात् जब समस्त
रागादि विकल्पोंका नाश हो जावे, तब निर्विकल्प ध्यानके प्रसादसे केवलज्ञान होता है