Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 183,184,185,186 (Adhikar 2),187 (Adhikar 2) Bathi Chintaono Nishedh,188 (Adhikar 2),189 (Adhikar 2) Param Samadhinu Vyakhyan,190 (Adhikar 2),191 (Adhikar 2),192 (Adhikar 2),193 (Adhikar 2),194 (Adhikar 2),195 (Adhikar 2) Arihant Padnu Kathan.

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अधिकार-२ः दोहा-१८३ ]परमात्मप्रकाशः [ ५०७
दुःक्खइं जेण जणेइ येन कारणेन दुःखानि जनयति सो परु तं परजनं जाणहि जानीहि
किम् मित्तु परममित्रं तुहुं त्वं कर्ता यः परः किं करोति जो तणु एहु हणेइ यः कर्ता
तनुमिमां प्रत्यक्षीभूतां हन्तीति अत्र यदा वैरी देहविनाशं करोति तदा वीतरागचिदानन्दैक-
स्वभावपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नसुखामृतसमरसीभावे स्थित्वा शरीरघातकस्योपरि यथा पाण्डवैः
कौरवकुमारस्योपरि द्वेषो न कृतस्तथान्यतपोधनैरपि न कर्तव्य इत्यभिप्रायः
।।१८२।।
अथ उदयागते पापकर्मणि स्वस्वभावो न त्याज्य इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं
कथयति
३१४) उदयहँ आणिवि कम्मु मइँ जं भुंजेवउ होइ
तं सह आविउ खविउ मइँ सो पर लाहु जि कोइ ।।१८३।।
उदयमानीय कर्म मया यद् भोक्त व्यं भवति
तत् स्वयमागतं क्षपितं मया स परं लाभ एव कश्चित् ।।१८३।।
भावार्थःअहीं ज्यारे वेरी देहनो विनाश करे छे त्यारे वीतराग चिदानंद जेनो एक
स्वभाव छे एवा परमात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न सुखामृतरूप समरसीभावमां स्थिर थईने,
जेवी रीते शरीरना हणनार कौरवकुमार उपर पांडवोए द्वेष न कर्यो तेवी रीते, शरीरना घातक
उपर अन्य तपोधनोए पण द्वेष न करवो जोईए, ए अभिप्पाय छे. १८२.
हवे, उदयमां आवेला पापकर्ममां स्वभावनो त्याग न करवो एवो अभिप्राय मनमां
राखीने आ गाथासूत्र कहे छे.
कर और जो तेरे शरीरकी सेवा करता है, उससे भी राग मत कर, तथा जो तेरे शरीरका घात
कर देवे, उसको शत्रु मत जान
जब कोई तेरे शरीरका विनाश करे, तब वीतराग चिदानंद
ज्ञानस्वभाव परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न जो परम समरसीभाव, उसमें लीन होकर शरीरके
घातक पर द्वेष मत कर
जैसे महा धर्मस्वरूप युधिष्ठिर पांडव आदि पाँचों भाइयों ने दुर्योधनादि
पर द्वेष नहीं किया उसी तरह सभी साधुओंका यही स्वभाव है, कि अपने शरीरका जो घात
करे, उससे द्वेष नहीं करते, सबके मित्र ही रहते हैं ।।१८२।।
आगे पूर्वोपार्जित पापके उदयसे दुःख अवस्था आ जावे उसमें अपना धीरपना आदि
स्वभाव न छोड़े, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं
गाथा१८३
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [मया ] मैं [कर्म ] कर्मको [उदयम् आनीय ] उदयमें

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५०८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८३
जं यत् भुंजेवउ होइ भोक्त व्यं भवति किं कृत्वा उदयहं आणिवि
विशिष्टात्मभावनाबलेनोदयमानीय किम् कम्मु चिरसंचितं कर्म केन मइं मया तं तत्
पूर्वोक्तं कर्म सह आविउ दुर्धरपरीषहोपसर्गवशेन स्वयमुदयमागतं सत् खविउ मइ
निजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतरागसहजानन्दैकसुखरसास्वादद्रवीभूतेन परिणतेन मनसा क्षपितं
मया
सो स परं नियमेन लाहु जि लाभ एव कोइ कश्चिदपूर्व इति
अत्र केचन महापुरुषा
दुर्धरानुष्ठानं कृत्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च कर्मोदयमानीय तमनुभवन्ति, अस्माकं
पुनः स्वयमेवोदयागतमिति मत्वा संतोषः कर्तव्य इति तात्पर्यम्
।।१८३।।
भावार्थःजे चिरसंचित कर्मने विशिष्ट आत्मभावनाना बळथी उदयमां लावीने मारे
भोगवी लेवा योग्य छे ते पूर्वोक्त कर्म दुर्धर परिषह, उपसर्गना वशथी स्वयं उदयमां आव्युं
अने निज परमात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न एक (केवळ) वीतराग सहजानंदमय
सुखरसास्वादरूपे द्रवीभूत
परिणमेलमन वडे में तेने क्षय कर्युं ते नियमथी कोई अपूर्व लाभ
ज छे.
अहीं, कोई महापुरुषो दुर्धर अनुष्ठान करीने अने वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित
थईने कर्मने उदयमां लावीने तेने अनुभवे छे, त्यारे अमने तो कर्म स्वयमेव उदयमां आव्यां
एम जाणीने संतोष करवो, एवुं तात्पर्य छे. १८३.
लाकर [भोक्तव्यं भवति ] भोगने चाहता था, [तत् ] वह कर्म [स्वयम् आगतं ] आप ही आ
गया, [मया क्षपितं ] इससे मैं शांत चित्तसे फल सहनकर क्षय करूँ, [स कश्चित् ] यह कोई
[परं लाभः ] महान् ही लाभ हुआ
भावार्थ :जो महामुनि मुक्तिके अधिकारी हैं, उदयमें वे नहीं आये हुए कर्मोंको परम
आत्मज्ञानकी भावनाके बलसे उदयमें लाकर उसका फल भोगकर शीघ्र निर्जरा कर देते हैं
और जो वे पूर्वकर्म बिना उपायके सहज ही बाईस परीषह तथा उपसर्गके वशसे उदयमें आये
हों, तो विषाद न करना बहुत लाभ समझना
मनमें यह मानना कि हम तो उदीरणासे इन
कर्मोंको उदयमें लाकर क्षय करते, परंतु ये सहज ही उदयमें आये, वह तो बड़ा ही लाभ है
जैसे कोई बड़ा व्यापारी अपने ऊ परका कर्ज लोगोंको बुला बुलाके देता है, यदि कोई बिना
बुलाये सहज ही लेने आया हो, तो बड़ा ही लाभ है
उसी तरह कोई महापुरुष महान दुर्धर
तप करके कर्मोंको उदयमें लाके क्षय करते हैं, लेकिन वे कर्म अपने स्वयमेव उदयमें आये
हैं, तो इनके समान दूसरा क्या है, ऐसा संतोष धारणकर ज्ञानीजन उदय आये हुए कर्मोंको भोगते
हैं, परंतु राग-द्वेष नहीं करते
।।१८३।।

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अधिकार-२ः दोहा-१८४ ]परमात्मप्रकाशः [ ५०९
अथ इदानीं परुषवचनं सोढुं न याति तदा निर्विकल्पात्मतत्त्वभावना कर्तव्येति
प्रतिपादयति
३१५) णिट्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ
तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ ।।१८४।।
निष्ठुरवचनं श्रुत्वा जीव यदि मनसि सोढुं न याति
ततो लघु भावय ब्रह्म परं येन मनो झटिति विलीयते ।।१८४।।
जइ यदि चेत् सहण ण जाइ सोढुं न याति क्व मणि मनसि जिय हे मूढ जीव
किं कृत्वा सुणेवि श्रुत्वा किम् णिट्ठुरवयणु निष्ठुरं हृदयकर्णशूलवचनं तो तद्वचनश्रवणानन्तरं
लहु शीघ्रं भावहि वीतरागपरमानन्दैकलक्षणनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावय कम् बंभ
ब्रह्मशब्दवाच्यनिजदेहस्थपरमात्मानम् कथंभूतम् परु परमानन्तज्ञानादि गुणाधारत्वात् परमुत्कृष्टं
जिं येन परमात्मध्यानेन किं भवति मणु झत्ति विलाइ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्न-
हवे, जो आ कठोर वचन सहन न थाय तो (पोतानो कषायभाव रोकवा माटे) निर्विकल्प
आत्मतत्त्वनी भावना करवी, एम कहे छेः
भावार्थःहे मूढ जीव! जो निष्ठुर, हृदय अने कानमां शूळ जेवुं खूंचनारुं
वचन सांभळीने मनमां ताराथी सहन न थई शके तो ते वचन सांभळ्या पछी शीघ्र
आगे यह कहते हैं कि जो कोई कर्कश (कठोर) वचन कहे, और यह न सह
सकता हो तो अपने कषायभाव रोकनेके लिये निर्विकल्प आत्मतत्त्वकी भावना करनी
चाहिए
गाथा१८४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [निष्ठुरवचनं श्रुत्वा ] जो कोई अविवेकी किसीको
कठोर वचन कहे, उसको सुनकर [यदि ] जो [न सोढुं याति ] न सह सके, [ततः ] तो
कषाय दूर करनेके लिये [परं ब्रह्म ] परमानंदस्वरूप इस देहमें विराजमान परमब्रह्मका
[मनसि ] मनमें [लघु ] शीघ्र [भावय ] ध्यान करो
जो ब्रह्म अनंत ज्ञानादि गुणोंका आधार
है, सर्वोत्कृष्ट है, [येन ] जिसके ध्यान करनेसे [मनः ] मनका विकार [झटिति ] शीघ्र ही
[विलीयते ] विलीन हो जाता है
।।१८४।।

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५१० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८५
परमानन्दैकरूपसुखामृतास्वादेन मनो झटिति शीघ्र विलयं याति द्रवीभूतं भवतीति
भावार्थः
।।१८४।।
अथ जीवः कर्मवशेन जातिभेदभिन्नो भवतीति निश्चिनोति
३१६) लोउ विलक्खणु कम्म-वसु इत्थु भवंतरि एइ
चुज्जु कि जइ इहु अप्पि ठिउ इत्थु जि भवि ण पडेइ ।।१८५।।
लोकः विलक्षणः कर्मवशः अत्र भवान्तरे आयाति
आश्चर्यं किं यदि अयं आत्मनि स्थितः अत्रैव भवे न पतति ।।१८५।।
लोउ इत्यादि विलक्खणु षोडशवर्णिकासुवर्णवत्केवलज्ञानादिगुणसद्रशो न
वीतराग परमानंद जेनुं एक लक्षण छे एवी निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने परम
अनंतज्ञानादि गुणोनो आधार होवाथी उत्कृष्ट एवा ‘ब्रह्म शब्दथी वाच्य एवा निजदेहस्थ
परमात्माने भाव (ध्याव) जे परमात्माना ध्यानथी वीतराग निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न
एक (केवळ) परमानंदमय सुखामृतना आस्वादथी मन तुरत ज नाश पामे-द्रवीभूत थाय
(पीगळी जाय). १८४.
हवे, जीव कर्मना वशथी जातिभेदथी भिन्न-भिन्न स्वरूपे थाय छे (कर्मना वशे जीव
भिन्न-भिन्न जातिओ पामे छे) एम नक्की करे छेः
भावार्थःआ जनसमुदाय कर्मरहित एवा शुद्ध आत्मानी अनुभूतिनी भावनाना
आगे जीवके कर्मके वशसे भिन्नभिन्न स्वरूप जातिभेदसे होते हैं, ऐसा निश्चय करते
हैं
गाथा१८५
अन्वयार्थ :[विलक्षणः ] सोलहवानीके सुवर्णकी तरह केवलज्ञानादि गुणकर समान
जो परमात्मतत्त्व उससे भिन्न जो [लोकः ] ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जातिभेदरूप
जीवराशि वह [कर्मवशः ] कर्मके वश उत्पन्न है, अर्थात् जातिभेद कर्मके निमित्तसे हुआ
है, और वे कर्म आत्मज्ञानकी भावनासे रहित अज्ञानी जीवने उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंके
आधीन जातिभेद है, जब तक कर्मोंका उपार्जन है, तब तक [अत्र भवांतरे आयाति ] इस
संसारमें अनेक जाति धारण करता है, [अयं यदि ] जो यह जीव [आत्मनि स्थितः ]
आत्मस्वरूपमें लगे, तो [अत्रैव भवे ] इसी भवमें [न पतति ] नहीं पड़े
भ्रमण नहीं करे, [किं

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अधिकार-२ः दोहा-१८५ ]परमात्मप्रकाशः [ ५११
सर्वजीवराशिसद्रशात् परमात्मतत्त्वाद्विलक्षणो विसद्रशो भवति केन ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य-
शूद्रादिजातिभेदेन कोऽसौ लोउ लोको जनः कथंभूतः सन् कम्म-वसु कर्मरहित-
शुद्धात्मानुभूतिभावनारहितेन यदुपार्जितं कर्म तस्य कर्मण अधीनः कर्मवशः इत्थंभूतः सन्
किं करोति इत्थु भवंतरि एइ पञ्चप्रकारभवरहिताद्वीतरागपरमानन्दैकस्वभावात् शुद्धात्म-
द्रव्याद्विसद्रशे अस्मिन् भवान्तरे संसारे समायाति चुज्जु किं इदं किमाश्चर्यं किंतु नैव, जइ इहु
अप्पि ठिउ यदि चेदयं जीवः स्वशुद्धात्मनि स्थितो भवति तर्हि इत्थु जि भवि ण पडेइ
अत्रैव भवे न पततीति इदमप्याश्चर्यं न भवतीति
अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा संसारभयभीतेन
भव्येन भवकारणमिथ्यात्वादिपञ्चास्रवान् मुक्त्वा द्रव्यभावास्रवरहिते परमात्मभावे स्थित्वा च
निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
।।१८५।।
अभावथी जे कर्म उपार्ज्युं छे ते कर्मने आधीन थतो थको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि
जातिना भेदथी, सोळवला सुवर्णनी जेम केवळज्ञानादि गुणे करीने सर्वजीवराशि सद्रश नथी,
सद्रश एवा परमात्मतत्त्वथी विलक्षण
विसद्रश छे(?) आवो (जनसमुदाय) शुं करे छे?
पांच प्रकारना भवथी रहित वीतराग परमानंद जेनो एक स्वभाव छे एवो शुद्ध
आत्मद्रव्यथी विसद्रश आ भवान्तरमां-संसारमां आवे-पडे एमां शुं आश्चर्य छे? कंईपण
आश्चर्य नथी. जो आ जीव शुद्धात्मामां स्थित थाय तो आ भवमां न ज पडे तो पण
तेमां आश्चर्य नथी.
अहीं, आ व्याख्यान सांभळीने संसारभयथी भयभीत भव्यजीवे भवना कारणरूप
मिथ्यात्व आदि पांच आस्रवोने छोडीने अने द्रव्यास्रव, भावास्रव रहित परमात्मभावथी स्थित
थईने निरंतर (आत्म) भावना करवी जोईए, एवुं तात्पर्य छे. १८५.
आश्चर्यं ] इसमें क्या आश्चर्य हैं, कुछ भी नहीं ।।
भावार्थ :जबतक आत्मामें चित्त नहीं लगता, तब तक संसारमें भ्रमण करता है,
अनेक भव धारण करता है, लेकिन जब यह आत्मदर्शी हुआ तब कर्मोंको नहीं उपार्जन
करता, और भवमें भी नहीं भटकता
इसमें आश्चर्य नहीं है संसार-शरीर-भोगोंमें उदास
और जिसको भवभ्रमणका भय उत्पन्न हो गया है, ऐसा भव्य जीव उसको मिथ्यात्व, अव्रत,
कषाय, प्रमाद, योग, इन पाँचों आस्रवोंको छोड़कर परमात्मतत्त्वमें सदैव भावना करनी
चाहिये
जो इसके आत्मभावना होवे तो भवभ्रमण नहीं हो सकता ।।१८५।।
१. संस्कृत टीकामां भूल लागे छे. कदाच आ प्रमाणे पण होयः सर्वजीवराशिसदृशात् = सर्वजीवराशिः
द्रशात्

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५१२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८६
अथ परेण दोषग्रहणे कृते कोपो न कर्तव्य इत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं
प्रतिपादयति
३१७) अवगुण-गहणइँ महुतणइँ जइ जीवहँ संतोसु
तो तहँ सोक्खहं हेउ हउँ इउ मण्णिवि चइ रोसु ।।१८६।।
अवगुणग्रहणेन मदीयेन यदि जीवानां संतोषः
ततः तेषां सुखस्य हेतुरहं इति मत्वा त्यज रोषम् ।।१८६।।
जइ जीवहं संतोसु यदि चेदज्ञानिजीवानां संतोषो भवति केन अवगुण-गहणइ
निर्दोषिपरमात्मनो विलक्षणा ये दोषा अवगुणास्तेषां ग्रहणेन कथंभूतेन महुतणइं मदीयेन ता
तहं सोक्खहहेउ हउँ यतः कारणान्मदीयदोषग्रहणेन तेषां सुखं जातं ततस्तेषामहं सुखस्य
हेतुर्जातः
इउ मण्णिवि चउ रोसु केचन परोपकारनिरताः परेषां द्रव्यादिकं दत्त्वा सुखं कुर्वन्ति
हवे, जो बीजा कोईने पोतानो दोष ग्रहण करवाथी संतोष थाय छे तो (तेना पर)
कोप न करवो, एवो अभिप्राय मनमां राखीने आ सूत्र कहे छेः
भावार्थःनिर्दोष परमात्माथी विलक्षण जे मारा दोषो छे तेमना ग्रहणथी जो
अज्ञानी जीवोने संतोष थाय छे तो मारा दोष ग्रहण करवाथी तेमने सुख थयुं तेथी तेमना
सुखनो हेतु हुं थयो. केटलाक परोपकारमां रत पुरुषो तो बीजाओने धनादिक आपीने सुखी
करे छे, अने में तो तेमने धनादिक आप्या सिवाय सुखी कर्या एम मानीने रोष छोड
आगे जो कोई अपने दोष ग्रहण करे तो उस पर क्रोध नहीं करना, क्षमा करना, यह
अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं
गाथा१८६
अन्वयार्थ :[मदीयेन अवगुणग्रहणेन ] अज्ञानी जीवोंको परके दोष ग्रहण करनेसे
हर्ष होता है, मेरे दोष ग्रहण करके [यदि जीवानां संतोषः ] जिन जीवोंको हर्ष होता है, [ततः ]
तो मुझे यही लाभ है, कि [अहं ] मैं [तेषां सुखस्य हेतुः ] उनको सुखका कारण हुआ, [इति
मत्वा ] ऐसा मनमें विचारकर [रोषम् त्यज ] गुस्सा छोड़ो
भावार्थ :ज्ञानी गुस्सा नहीं करते, ऐसा विचारते हैं, कि जो कोई परका उपकार
करनेवाले परजीवोंको द्रव्यादि देकर सुखी करते हैं, मैंने कुछ द्रव्य नहीं दिया, उपकार नहीं
किया, मेरे अवगुण ही से सुखी हो गये, तो इसके समान दूसरी क्या बात है ? ऐसा

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अधिकार-२ः दोहा-१८६ ]परमात्मप्रकाशः [ ५१३
मया पुनर्द्रव्यादिकं मुक्त्वापि तेषां सुखं कृतमिति मत्वा रोषं त्यज अथवा मदीया
अनन्तज्ञानादिगुणा न गृहीतास्तैः किंतु दोषा एव गृहीता इति मत्वा च कोपं त्यज, अथवा
ममैते दोषाः सन्ति सत्यमिदमस्य वचनं तथापि रोषं त्यज, अथवा ममैते दोषा न सन्ति
तस्य वचनेन किमहं दोषी जातस्तथापि, क्षमितव्यम्, अथवा परोक्षे दोषग्रहणं करोति न च
प्रत्यक्षे समीचीनोऽसौ तथापि क्षमितव्यम्, अथवा वचनमात्रेणैव दोषग्रहणं करोति न च
शरीरबाधां करोति तथापि क्षमितव्यम्, अथवा शरीरबाधामेव करोति न च प्राणविनाशं
अथवा मारा अनंतज्ञानादि गुणो तो तेमणे लीधा नथी, परंतु मारा दोषो ज ग्रह्या छे
एम मानीने पण कोप छोड, अथवा आ दोषो मारामां छे एवुं एनुं वचन सत्य छे,
एम मानीने रोष त्यज अथवा आ दोषो मारामां नथी तो तेना वचनथी शुं हुं दोषी
थई गयो? एम मानीने क्षमा करवी, अथवा मारा दोष पीठ पाछळ कहे छे, पण मारी
समक्ष नथी कहेतो ते समीचीन छे (सारुं छे) एम मानीने क्षमा करवी, अथवा (कोई
प्रत्यक्ष पोतानी सामे दोष कहे तो) वचनमात्रथी मारा दोष ग्रहण करे छे पण मारा
शरीरने बाधा करतो नथी एम मानीने क्षमा करवी, अथवा शरीरने ज बाधा करे छे,
प्राणनो विनाश करतो नथी एम मानीने क्षमा करवी, अथवा प्राणनो ज विनाश करे छे
जानकर हे भव्य, तू रोष छोड़ अथवा ऐसा विचारे, कि मेरे अनंत ज्ञानादि गुण तो उसने
नहीं लिये, दोष लिये वो निस्संक लो जैसे घरमें कोई चोर आया, और उसने रत्न
सुवर्णादि नहीं लिये माटी पत्थर लिये तो लो, तुच्छ वस्तुके लेनेवाले पर क्या क्रोध करना,
ऐसा जान रोष छोड़ना
अथवा ऐसा विचारे, कि जो यह दोष कहता है, वे सच कहता
है, तो सत्यवादीसे क्या द्वेष करना अथवा ये दोष मुझमें नहीं हुआ वह वृथा कहता है,
तो उसके वृथा कहनेसे क्या मैं दोषी हो गया, बिलकुल नहीं हुआ ऐसा जानकर क्रोध
छोड़ क्षमाभाव धारण करना चाहिये अथवा यह विचारो कि वह मेरे मुँहके आगे नहीं
कहता, लेकिन पीठ पीछे कहता है, सो पीठ पीछे तो राजाओंको भी बुरा कहते हैं, ऐसा
जानकर उससे क्षमा करना कि प्रत्यक्ष तो मेरा मानभंग नहीं करता है, परोक्षकी बात क्या
है
अथवा कदाचित् कोई प्रत्यक्ष मुँह आगे दोष कहे, तो तू यह विचार की वचनमात्रसे
मेरे दोष ग्रहण करता है, शरीरको तो बाधा नहीं करता, यह गुण है, ऐसा जान क्षमा ही
कर
अथवा जो कोई शरीरको भी बाधा करे, तो तू ऐसा विचार, कि मेरे प्राण तो नहीं
हरता, यह गुण है जो कभी कोई पापी प्राण ही हर ले, तो यह विचार कि ये प्राण तो
विनाशक हैं, विनाशीक वस्तुके चले जानेकी क्या बात है मेरा ज्ञानभाव अविनश्वर है,
उसको तो कोई हर नहीं सकता, इसने तो मेरे बाह्य प्राण हर लिये हैं; परंतु

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५१४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८७
तथापि क्षमितव्यम्, अथवा प्राणविनाशमेव करोति न च भेदाभेदरत्नत्रयभावनाविनाशं चेति
मत्वा सर्वतात्पर्येण क्षमा कर्तव्येत्यभिप्रायः
।।१८६।।
अथ सर्वचिन्तां निषेधयति युग्मेन
३१८) जोइय चिंति म किं पि तुहुँ जइ बीहउ दुक्खस्स
तिल-तुस-मित्तु वि सल्लडा वेयण करइ अवस्स ।।१८७।।
योगिन् चिन्तय मा किमपि त्वं यदि भीतः दुःखस्य
तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेदनां करोत्यवश्यम् ।।१८७।।
चिंति म चिन्तां मा कार्षीः किं पि तुहुं कामपि त्वं जोइय हे योगिन् यदि किम्
जइ बीहउ यदि बिभेषि कस्य दुक्खस्स वीतरागतात्त्विकानन्दैकरूपात् पारमार्थिक-
पण भेदाभेद रत्नत्रय भावनानो विनाश करतो नथी एम मानीने सर्व तात्पर्यथी क्षमा
करवी जोईए, ए अभिप्राय छे. १८६.
हवे, बे गाथासूत्रो द्वारा सर्व चिंताओनो निषेध करे छेः
भावार्थःहे योगी! तुं जो वीतराग तात्त्विक आनंदमय जेनुं एकरूप छे एवा
पारमार्थिक सुखथी प्रतिपक्षभूत नारकादि दुःखथी डरतो हो तो विषयकषायनी लेश मात्र पण
भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाका विनाश नहीं किया ऐसा जानकर सर्वथा क्षमा ही करना
चाहिये ।।१८६।।
आगे सब चिन्ताओंका निषेध करते हैं
गाथा१८७
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [त्वं ] तू [यदि ] जो [दुःखस्य ] वीतराग परम
आनंदके शत्रु जो नरकादि चारों गतियोंके दुःख उनसे [भीतः ] डर गया है, तो तू निश्चिंत
होकर परलोकका साधन कर, इस लोककी [किमपि मा चिंतय ] कुछ भी चिंता मत कर
क्योंकि [तिलतुषमात्रमपि शल्यं ] तिलके भूसे मात्र भी शल्य [वेदनां ] मनको वेदना
[अवश्यम् करोति ] निश्चयसे करती है
भावार्थ :चिन्ता रहित आत्मज्ञानसे उलटे जो विषय कषाय आदि विकल्पजाल
उनकी चिन्ता कुछ भी नहीं करना यह चिन्ता दुःखका ही कारण है, जैसे बाण आदिकी

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अधिकार-२ः दोहा-१८८ ]परमात्मप्रकाशः [ ५१५
सुखात्प्रतिपक्षभूतस्य नारकादिदुःखस्य यतः कारणात् तिल-तुस-मित्तु वि सल्लडा
तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेयण करइ अवस्स वेदनां बाधां करोत्यवश्यं नियमेन अत्र
चिन्तारहितात्परमात्मनः सकाशाद्विलक्षणा या विषयकषायादिचिन्ता सा न कर्तव्या
काण्डादिशल्यमिव दुःखकारणत्वादिति भावार्थः ।।१८७।।
किंच
३१९) मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु ण चिंतिउ होइ
जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ ।।१८८।।
मोक्षं मा चिन्तय योगिन् मोक्षो न चिन्तितो भवति
येन निबद्धो जीवः मोक्षं करिष्यति तदेव ।।१८८।।
चिंता न कर, कारण के तलना फोतरा जेटलुं शल्य पण अवश्य (नियमथी) वेदना-बाधा-उत्पन्न
करे छे.
अहीं, चिंता रहित परमात्माथी विलक्षण जे विषयकषायादिनी चिंता छे ते न करवी,
कारण के जेम बाणादि शल्य दुःखनुं कारण छे तेवी रीते चिंता दुःखनुं कारण छे, ए भावार्थ
छे. १८७.
हवे, मोक्षनी पण चिंता न करवी तेम कहे छेः
तृणप्रमाण भी सलाई महा दुःखका कारण है, जब वह शल्य निकाले, तभी सुख होता
है
।।१८७।।
आगे मोक्षकी भी चिन्ता नहीं करना, ऐसा कहते हैं
गाथा१८८
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, अन्य चिन्ताकी तो बात क्या रही, [मोक्षं मा
चिंतय ] मोक्षकी भी चिन्ता मत कर, [मोक्षः ] क्योंकि मोक्ष [चिंतितो न भवति ] चिन्ता
करनेसे नहीं होता, वाँछाके त्यागसे ही होता है, रागादि चिन्ताजालसे रहित केवलज्ञानादि
अनंतगुणोंको प्रगटता सहित जो मोक्ष है, वह चिंताके त्यागसे होता है
यही कहते हैं[येन ]
जिन मिथ्यात्वरागादि चिन्ताजालोंसे उपार्जन किये कर्मोंसे [जीवः ] यह जीव [निबद्धः ]
बँधा हुआ है, [तदेव ] वे कर्म ही (क र्मक्षय) [मोक्षं ] शुभाशुभ विकल्पके समूहसे रहित जो
शुद्धात्मतत्त्वका स्वरूप उसमें लीन हुए परमयोगियोंकी मोक्ष [करिष्यति ] करेंगे

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५१६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१८८
मोक्खु इत्यादि मोक्खु म चिंतहि मोक्षचिन्तां मा कार्षीस्त्वं जोइया हे योगिन्
यतः कारणात् मोक्खु ण चिंतिउ होउ रागादिचिन्ताजालरहितः केवलज्ञानाद्यनन्त-
गुणव्यक्ति सहितो मोक्षः चिन्तितो न भवति
तर्हि कथं भवति जेण णिबद्धउ जीवडउ येन
मिथ्यात्वरागादिचिन्ताजालोपार्जितेन कर्मणा बद्धो जीवः सोइ तदेव कर्म शुभाशुभविकल्प-
समूहरहिते शुद्धात्मतत्त्वस्वरूपे स्थितानां परमयोगिनां
मोक्खु करेसइ अनन्तज्ञानादि-
गुणोपलम्भरूपं मोक्षं करिष्यतीति
अत्र यद्यपि सविकल्पावस्थायां विषयकषायाद्यपध्यान-
वञ्चनार्थं मोक्षमार्गे भावनाद्रढीकरणार्थं च ‘‘दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगईगमणं
समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ती होइ मज्झं’’ इत्यादि भावना कर्तव्या तथापि वीतरागनिर्विकल्प-
परमसमाधिकाले न कर्तव्येति भावार्थः
।।१८८।।
भावार्थःहे योगी! तुं मोक्षनी पण चिंता न कर, कारण के रागादि-
चिंताजाळरहित अने केवळज्ञानादि अनंत गुणोनी व्यक्ति सहित मोक्ष, चिंता करवाथी थतो नथी.
तो केवी रीते थाय छे? ते आ रीते थाय छे. मिथ्यात्व, रागादिचिंताजाळथी उपार्जित जे कर्मथी
जीव बंधायो छे, ते ज कर्म [ते ज कर्मनो छूटकारो] शुभाशुभविकल्पसमूहथी रहित अने
शुद्धआत्मस्वरूपमां स्थित परमयोगीओने अनंत ज्ञानादि गुणोनी प्राप्तिरूप मोक्ष करशे.
अहीं, जोके सविकल्प अवस्थामां विषयकषायादि अपध्यानना वंचनार्थे अने मोक्षमार्गमां
भावनाने द्रढ करवा माटे
‘‘दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो
सुगईगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ती होउ मज्झं
।।’’
(श्री कुंदकुंदाचार्य प्राकृत सिद्ध भक्ति) (अर्थचार गतिना दुःख नाश पामो, कर्मनो
क्षय थाओ, बोधिलाभ थाओ, सुगतिमां (पंचमगतिमां, मोक्षमां) गमन थाओ; समाधिमरण
थाओ अने जिनगुणनी संपत्ति मने मळो.) इत्यादि भावना करवी योग्य छे तोपण,
वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिकाळे ते करवी योग्य नथी, एवो भावार्थ छे. १८८.
भावार्थ :वह चिन्ताका त्याग ही तुझको निस्संदेह मोक्ष करेगा अनंत ज्ञानादि
गुणोंकी प्रगटता वह मोक्ष है यद्यपि विकल्प सहित जो प्रथम अवस्था उसमें विषय कषायादि
खोटे ध्यानके निवारण करनेके लिये और मोक्षमार्गमें परिणाम दृढ़ करनेके लिये ज्ञानीजन ऐसी
भावना करते हैं, कि चतुर्गतिके दुःखोंका क्षय हो, अष्ट कर्मोंका क्षय हो, ज्ञानका लाभ हो,
पंचमगतिमें गमन हो, समाधि मरण हो, और जिनराजके गुणोंकी सम्पत्ति मुझको हो
यह भावना
चौथे, पाँचवें, छट्ठे गुणस्थानमें करने योग्य है, तो भी ऊ परके गुणस्थानोंमें वीतराग
निर्विकल्पसमाधिके समय नहीं होती
।।१८८।।

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अधिकार-२ः दोहा-१८९ ]परमात्मप्रकाशः [ ५१७
अथ चतुर्विशंतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्कमन्तर-
स्थलं कथ्यते तद्यथा
३२०) परम-समाहि-महा-सरहिँ जे बुड्डहिँ पइसेवि
अप्पा थक्कइ विमलु तहँ भव-मल जंति वहेवि ।।१८९।।
परमसमाधिमहासरसि ये मज्जन्ति प्रविश्य
आत्मा तिष्ठति विमलः तेषां भवमलानि यान्ति ऊढ्वा ।।१८९।।
जे बुड्डहिं ये केचना पुरुषा मग्ना भवन्ति क्व परम-समाहि-महा-सरहिं
परमसमाधिमहासरोवरे किं कृत्वा मग्ना भवन्ति पइसेवि प्रविश्य सर्वात्मप्रदेशैरवगाह्य अप्पा
थक्कइ चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा तिष्ठति कथंभूतः विमलु द्रव्यकर्मनोकर्ममतिज्ञानादि-
विभावगुणनरकादिविभावपर्यायमलरहितः तहं तेषां परमसमाधिरतपुरुषाणां भव-मल जंति
हवे, चोवीस सूत्रोना महास्थळोमां परम समाधिना व्याख्याननी मुख्यताथी छ
दोहासूत्रोनुं अन्तरस्थळ कहे छे. ते आ प्रमाणेः
भावार्थःजे कोई पुरुषो परमसमाधिरूप महासरोवरमां, सर्वआत्मप्रदेशोथी
अवगाहीने, मग्न थाय छे ते परमसमाधिमां रत पुरुषोमां द्रव्यकर्म, नोकर्म, मतिज्ञानादि
विभावगुण अने नरनारकादि विभावपर्यायरूप मळथी रहित एक चिदानंद स्वभावरूप परमात्मा
स्थिर थाय छे, अने भवरहित शुद्धआत्मद्रव्यथी विलक्षण भवमळना कारणभूत जे कर्मो ते
आगे चौबीस दोहोंके स्थलमें परमसमाधिके व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहासूत्र
कहते हैं
गाथा१८९
अन्वयार्थ :[ये ] जो कोई महान पुरुष [परमसमाधिमहासरसि ] परमसमाधिरूप
सरोवरमें [प्रविश्य ] घुसकर [मज्जन्ति ] मग्न होते हैं, उनके सब प्रदेश समाधिरसमें भींग जाते
हैं, [आत्मा तिष्ठति ] उन्हींके चिदानंद अखंड स्वभाव आत्माका ध्यान स्थिर होता है
जो
कि आत्मा [विमलः ] द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मसे रहित महा निर्मल है, [तेषां ] जो योगी
परमसमाधिमें रत हैं, उन्हीं पुरुषोंके [भवमलानि ] शुद्धात्मद्रव्यसे विपरीत अशुद्ध भावके
कारण जो कर्म हैं, वे सब [(ऊढ्वा) बहित्वा यांति ] शुद्धात्म परिणामरूप जो जलका प्रवाह
उसमें बह जाते हैं

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५१८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९०
भवरहितात् शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणानि यानि कर्माणि भवमलकारणभूतानि गच्छन्ति किं कृत्वा
वहेवि शुद्धपरिणामनीरप्रवाहेण ऊद्वेति भावार्थः ।।१८९।।
अथ
३२१) सयल-वियप्पहँ जो विलउ परम-समाहि भणंति
तेण सुहासुह-भावडा मुणि सयल वि मेल्लंति ।।१९०।।
सकलविकल्पानां यः विलयः (तं) परमसमाधिं भणन्ति
तेन शुभाशुभभावान् मुनयः सकलानपि मुञ्चन्ति ।।१९०।।
भणंति कथयन्ति के ते वीतरागसर्वज्ञाः कं भणन्ति परम-समाहि वीतराग-
परमसामायिकरूपं परमसमाधिं जो विलउ यं विलयं विनाशम् केषाम् सयल-वियप्पह
निर्विकल्पात्परमात्मस्वरूपात्प्रतिकूलानां समस्तविकल्पानां तेण तेन कारणेन मेल्लंति मुञ्चन्ति के
शुद्धपरिणामरूपी जळना प्रवाहमां तणाई जाय छे-धोवाई जाय छे, ए भावार्थ छे. १८९.
वळी (हवे परमसमाधिनुं लक्षण कहे छे)ः
भावार्थःनिर्विकल्प परमात्म स्वरूपथी प्रतिकूळ समस्त विकल्पोनो विनाश थवो
तेने वीतरागसर्वज्ञदेव, वीतराग परम सामायिकरूप परम समाधि कहे छे, ते कारणे परम-
भावार्थ :जहाँ जलका प्रवाह आवे, वहाँ मल कैसे रह सकता है, कभी नहीं
रहता ।।१८९।।
आगे परमसमाधिका लक्षण कहते हैं
गाथा१९०
अन्वयार्थ :[यः ] जो [सकलविकल्पानां ] निर्विकल्पपरमात्मस्वरूपसे विपरीत
रागादि समस्त विकल्पोंका [विलयः ] नाश होना, उसको [परमसमाधिं भणंति ] परमसमाधि
कहते हैं, [तेन ] इस परमसमाधिसे [मुनयः ] मुनिराज [सकलानपि ] सभी
[शुभाशुभविकल्पान् ] शुभ-अशुभ भावोंको [मुंचंति ] छोड़ देते हैं
भावार्थ :परम आराध्य जो आत्मस्वरूप उसके ध्यानमें लीन जो तपोधन वे शुभ
-अशुभ मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित जो शुद्धात्मद्रव्य उससे विपरीत जो अच्छे-बुरे भाव
उन सबको छोड़ देते हैं, समस्त परद्रव्यकी आशासे रहित जो निज शुद्धात्मस्वभाव उससे

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अधिकार-२ः दोहा-१९० ]परमात्मप्रकाशः [ ५१९
कर्तारः मुणि परमाराध्यध्यानरतास्तपोधनाः कान् मुञ्चन्ति सुहासुह-भावडा शुभाशुभ-
मनोवचनकाय व्यापार रहितान् शुद्धात्मद्रव्याद्विपरीतान् शुभाशुभभावान् परिणामान् कति-
संख्योपेतान् सयल वि समस्तानपि अयं भावार्थः समस्तपरद्रव्याशारहितात् स्वशुद्धात्मस्व-
भावाद्विपरीता या आशापीहलोकपरलोकाशा यावत्तिष्ठति मनसि तावद् दुःखी जीव इति ज्ञात्वा
सर्वपरद्रव्याशारहितशुद्धात्मद्रव्यभावना कर्तव्येति
तथा चोक्त म्‘‘आसापिसायगहिओ जीवो
पावेइ दारुणं दुक्खं आसा जाहं णियत्ता ताहं णियत्ताइं सयलदुक्खाइं ।।’’ ।।१९०।।
अथ
३२२) घोरु करंतु वि तव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु
परम-समाहि-विवज्जयउ णवि देक्खइ सिउ संतु ।।१९१।।
आराध्यध्यानरत तपोधनो समस्त शुभाशुभ मनवचनकायव्यापारथी रहित एवा
शुद्धआत्मद्रव्यथी विपरीत शुभाशुभ परिणामोने छोडे छे.
भावार्थ एम छे के समस्तपरद्रव्यनी आशाथी रहित एवा स्वशुद्ध आत्मस्वभावथी
विपरीत जे आ लोक अने परलोकनी आशा ज्यां सुधी मनमां रहे छे त्यां सुधी जीव दुःखी
छे, एम जाणीने सर्वपरद्रव्यनी आशा रहित एवा शुद्ध आत्मद्रव्यनी भावना करवी जोईए.
वळी कह्युं छे के
‘‘आसापिसायगहिओ जीवो पावेइ दारुणं दुक्खं
आसा जाहं णियत्ता ताहं णियत्ताई सयलदुक्खाइं ।।’’
(अर्थआशारूपी पिशाचथी ग्रहायेलो जीव दारुण दुःख पामे छे. जेमणे आशा
छोडी तेओ सर्व दुःखोथी मुक्त थया छे.) ।।१९०.
वळी (हवे एम कहे छे के परमसमाधि विना शुद्ध आत्मा देखी शकातो नथी)ः
विपरीत जो इस लोक परलोककी आशा, वह जब तक मनमें स्थित है, तबतक यह जीव दुःखी
है
ऐसा जानकर सब परद्रव्यकी आशासे रहित जो शुद्धात्मद्रव्य उसकी भावना करनी चाहिये
ऐसा ही कथन अन्य जगह भी हैआशारूप पिशाचसे घिरा हुआ यह जीव महान् भयंकर
दुःख पाता है, जिन मुनियोंने आशा छोड़ी, उन्होंने सब दुःख दूर किये, क्योंकि दुःखका मूल
आशा ही है
।।१९०।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि जो परमसमाधिके रहित है, वह शुद्ध आत्माको नहीं देख
सकता

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५२० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९१
घोरं कुर्वन् अपि तपश्चरणं सकलान्यपि शास्त्राणि मन्यमान
परमसमाधिविवर्जितः नैव पश्यति शिवं शान्तम् ।।१९१।।
करंतु वि कुर्वाणाऽपि किम् तव-चरणु समस्तपरद्रव्येच्छावर्जितं शुद्धात्मा-
नुभूतिरहितं तपश्चरणम् कथंभूतम् घोरु घोरं दुर्धरं वृक्षमूलातापनादिरूपम् न केवलं
तपश्चरणं कुर्वन् सयल वि सत्थ मुणंतु शास्त्रजनितविकल्पतात्पर्यरहितात् परमात्मस्वरूपात्
प्रतिपक्षभूतानि सर्वशास्त्राण्यपि जानन् इत्थंभूतोऽपि सन् परम-समाहि-विवज्जयउ यदि
चेद्रागादिविकल्परहितपरमसमाधिविवर्जितो भवति तर्हि णवि देक्खइ न पश्यति कम् सिउ
शिवं शिवशब्दवाच्यं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं स्वदेहस्थमपि च परमात्मानम् कथंभूतम् संत
रागद्वेषमोहरहितत्वेन शान्तं परमोपशमरूपमिति इदमत्र तात्पर्यम् यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय
भावार्थःसमस्त परद्रव्योनी इच्छाथी रहित अने शुद्धात्मानी अनुभूतिथी रहित
एवुं, वृक्षना मूळमां के आतपनादिरूप (वर्षाकाळमां वृक्षना मूळनी समीपमां, शीतकाळमां
नदीकिनारे अने ग्रीष्मकाळमां पर्वतना शिखर पर) दुर्धर तपश्चरण करवा छतां पण, वळी
शास्त्रजनित विकल्पोना
तात्पर्यथी रहित एवापरमात्मस्वरूपथी प्रतिपक्षभूत सर्व शास्त्रोने
जाणवा छतां पण–(आवो होवा छतां पण) जो मुनि रागादिविकल्पथी रहित एवी
परमसमाधिथी रहित छे, तो ते रागद्वेषमोहसहित होवाथी परमोपशमरूप शांत, ‘शिव’ शब्दथी
वाच्य एवा विशुद्धज्ञान, विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा अने स्वदेहमां स्थित परमात्माने
देखी शकतो नथी.
गाथा१९१
अन्वयार्थ :[घोरं तपश्चरणं कुर्वन् अपि ] जो मुनि महा दुर्धर तपश्चरण करता
हुआ भी और [सकलानि शास्त्राणि ] सब शास्त्रोंको [जानन् ] जानता हुआ भी
[परमसमाधिविवर्जितः ] जो परमसमाधिसे रहित है, वह [शांतम् शिवं ] शांतरूप शुद्धात्माको
[नैव पश्यति ] नहीं देख सकता
।।
भावार्थ :तप उसे कहते हैं, कि जिसमें किसी वस्तुकी इच्छा न हो सो
इच्छाका अभाव तो हुआ नहीं, परंतु कायक्लेश करता है, शीतकालमें नदीके तीर,
ग्रीष्मकालमें पर्वतके शिखर पर, वर्षाकालमें वृक्षकी मूलमें महान् दुर्धर तप करता है
केवल तप ही नहीं करता शास्त्र भी पढ़ता है, सकल शास्त्रोंके प्रबंधसे रहित जो
निर्विकल्प परमात्मस्वरूप उससे रहित हुआ सीखता है, शास्त्रोंका रहस्य जानता है, परंतु
परमसमाधिसे रहित है, अर्थात् रागादि विकल्पसे रहित समाधि जिसके प्रगट न हुई, तो

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अधिकार-२ः दोहा-१९१ ]परमात्मप्रकाशः [ ५२१
इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा
परंपरया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति
निर्विकल्पसमाधिरहिताः
सन्तः आत्मरूपं न पश्यन्ति तथा चोक्त म्‘‘आनन्दं ब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम्
ध्यानहीना न पश्यन्ति जात्यन्धा इव भास्करम् ।।’’ ।।१९१।।
अथ
३२३) विषय-कसाय वि णिद्दलिवि जे ण समाहि करंति
ते परमप्पहँ जोइया णवि आराहय होंति ।।१९२।।
अहीं, तात्पर्य एम छे के जो निज शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे एम जाणीने
तेना साधकपणे तेने अनुकूळ तपश्चरण करे छे अने तेना ज्ञानना साधक शास्त्रने भणे छे
तो ते परंपराए मोक्षनुं साधक छे, नहि तो ते (तपश्चरण अने शास्त्रअध्ययन) मात्र
पुण्यबंधनुं ज कारण छे. जेओ निर्विकल्प समाधि रहित छे ते संतो आत्मरूपने देखी
शकता नथी. वळी कह्युं छे के
‘‘आनन्दं ब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम् ध्यानहीना न पश्यन्ति
जात्यन्धा इव भास्करम् ।।’’ अर्थब्रह्मनुं रूप आनंद छे, ते पोताना देहमां रहेलो छे.
जेवी रीते जन्मांध पुरुषो सूर्यने देखी शकता नथी तेवी रीते ध्यानथी रहित पुरुषो तेने
जोई शकता नथी. १९१.
वळी (हवे विषयकषायनो निषेध करे छे)ः
वह परमसमाधिके बिना तप करता हुआ और श्रुत पढ़ता हुआ भी निर्मल ज्ञान दर्शनरूप
तथा इस देहमें बिराजमान ऐसे निज परमात्माको नहीं देख सकता
जो आत्मस्वरूप राग
द्वेष मोह रहित परमशांत है परमसमाधिके बिना तप और श्रुतसे भी शुद्धात्माको नहीं देख
सकता जो निज शुद्धात्माको उपादेय जानकर ज्ञानका साधक तप करता है, और ज्ञानकी
प्राप्तिका उपाय जो जैनशास्त्र उनको पढ़ता है, तो परम्परा मोक्षका साधक है और जो
आत्माके श्रद्धान बिना कायक्लेशरूप तप ही करे, तथा शब्दरूप ही श्रुत पढ़े, तो मोक्षका
कारण नहीं है, पुण्यबंधके कारण होते हैं
ऐसा ही परमानंदस्तोत्रमें कहा है, कि जो
निर्विकल्प समाधि रहित जीव हैं, वे आत्मस्वरूपको नहीं देख सकते ब्रह्मका रूप आनंद
है, वह ब्रह्म निज देहमें मौजूद है; परंतु ध्यानसे रहित जीव ब्रह्मको नहीं देख सकते, जैसे
जन्मका अंधा सूर्यको नहीं देख सकता है
।।१९१।।
आगे विषय कषायोंका निषेध करते हैं

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५२२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९२
विषयकषायानपि निर्दल्य ये न समाधिं कुर्वन्ति
ते परमात्मनः योगिन् नैव आराधका भवन्ति ।।१९२।।
जे ये केचन ण करंति न कुर्वन्ति कम् समाहि त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधिम् किं
कृत्वा पूर्वम् णिद्दलिवि निर्मूल्य कानपि विषय-कसाय वि निर्विषयकषायात्
शुद्धात्मतत्त्वात् प्रतिपक्षभूतान् विषयकषायानपि ते णवि आराहय होंति ते नैवाराधका
भवन्ति
जोइया हे योगिन्
कस्याराधका न भवन्ति परमप्पहं निर्दोषिपरमात्मन इति
तथाहि विषयकषायनिवृत्तिरूपं शुद्धात्मानुभूतिस्वभावं वैराग्यं, शुद्धात्मोपलब्धिरूपंतत्त्वविज्ञानं,
बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागरूपं नैर्ग्रन्थ्यं, निश्चितात्मानुभूतिरूपा वशचित्तता, वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिबहिरङ्गसहकारिभूतं जितपरिषहत्वं चेति पञ्चैतान् ध्यानहेतून् ज्ञात्वा भावयित्वा च
भावार्थःहे योगी! जे कोई विषयकषाय रहित-शुद्ध-आत्मतत्त्वथी प्रतिपक्षभूत
विषयकषायोने पण निर्मूळ करीने (मूळमांथी उखेडीने) त्रण गुप्तिथी गुप्त परमसमाधिने करता
नथी, तेओ निर्दोष परमात्माना आराधको ज नथी.
भावार्थः(१) विषयकषायनी निवृत्तिरूप अने शुद्धआत्मानी अनुभूति-स्वभाववाळो
वैराग्य, (२) शुद्ध आत्मानी उपलब्धिरूप तत्त्वविज्ञान, (३) बाह्य अभ्यंतर परिग्रहना त्यागरूप
निर्ग्रंथपणुं, (४) निश्चित आत्मानी अनुभूतिरूप चित्तवशता (मनोजय) अने (५) वीतराग
निर्विकल्प समाधिना बहिरंग सहकारीभूत परिषहजय ए पांच ध्यानना हेतु जाणीने अने तेने
गाथा१९२
अन्वयार्थ :[ये ] जो [विषयकषायानपि ] समाधिको धारणकर विषय कषायोंको
[निर्दल्य ] मूलसे उखाड़कर [समाधिं ] तीन गुप्तिरूप परमसमाधिको [न कुर्वंति ] नहीं धारण
करते, [ते ] वे [योगिन् ] हे योगी, [परमात्माराधकाः ] परमात्माके आराधक [नैव भवंति ]
नहीं हैं
भावार्थ :ये विषय कषाय शुद्धात्मतत्त्वके शत्रु हैं, जो इनका नाश न करे, वह
स्वरूपका आराधक कैसा ? स्वरूपको वही आराधता है, जिसके विषय कषायका प्रसंग न
हो, सब दोषोंसे रहित जो निज परमात्मा उसकी आराधनाके घातक विषय कषायके सिवाय
दूसरा कोई भी नहीं है
विषय कषायकी निवृत्तिरूप शुद्धात्माकी अनुभूति वह वैराग्यसे ही देखी
जाती है इसलिये ध्यानका मुख्य कारण वैराग्य है जब वैराग्य हो तब तत्त्वज्ञान निर्मल हो,
सो वैराग्य और तत्त्वज्ञान ये दोनों परस्परमें मित्र हैं ये ही ध्यानके कारण हैं, और बाह्याभ्यन्तर
परिग्रहके त्यागरूप निर्ग्रन्थपना वह ध्यानका कारण है निश्चित आत्मानुभूति ही है स्वरूप

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अधिकार-२ः दोहा-१९३ ]परमात्मप्रकाशः [ ५२३
ध्यानं कर्तव्यमिति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं वशचित्तता
जितपरिषहत्वं च पञ्चैते ध्यानहेतवः ।।’’ ।।१९२।।
अथ
३२४) परम-समाहि धरेवि मुणि जे परबंभु ण जंति
ते भव-दुक्खइँ बहुविहइँ कालु अणंतु सहंति ।।१९३।।
परमसमाधिं धृत्वापि मुनयः ये परब्रह्म न यान्ति
ते भवदुःखानि बहुविधानि कालं अनन्तं सहन्ते ।।१९३।।
जे ये केचन मुणि मुनयः ण जंति न गच्छन्ति कं कर्मतापन्नम् परबंभु परमब्रह्म
भावीने ध्यान करवुं. वळी कह्युं छे केः‘‘वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रंथ्यं वशचित्तता जितपरिषहत्वं च पञ्चैते
ध्यानहेतवः ।। (अर्थ(१) वैराग्य, (२) तत्त्वविज्ञान, (३) नैर्ग्रंथ्य, (४) चित्तनुं वशपणुं अने
(५) परिषहजय ए पांच ध्यानना हेतुओ छे.) १९२.
वळी (हवे परमसमाधिनो महिमा कहे छे)ः
भावार्थःजे कोई मुनिओ एक वीतराग तात्त्विक चिदानंदमय अनुभूतिरूप
जिसका ऐसे जो मनका वश होना, वह वीतराग निर्विकल्पसमाधिका सहकारी है, और बाईस
परीषहोंको जीतना, वह भी ध्यानका कारण है
ये पाँच ध्यानके कारण जानकर ध्यान करना
चाहिये ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि संसार शरीरभोगोंसे विरक्तता, तत्त्वविज्ञान, सकल
परिग्रहका त्याग, मनका वश करना, और बाईस परिषहोंका जीतनाये पाँच आत्मध्यानके
कारण हैं ।।१९२।।
आगे परमसमाधिकी महिमा कहते हैं
गाथा१९३
अन्वयार्थ :[ये मुनयः ] जो कोई मुनि [परमसमाधिं ] परमसमाधिको [धृत्वापि ]
धारण करके भी [परब्रह्म ] निज देहमें ठहरे हुए केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप निज आत्माको
[न यांति ] नहीं जानते हैं, [ते ] वे शुद्धात्मभावनासे रहित पुरुष [बहुविधानि ] अनेक प्रकारके
[भवदुःखानि ] नारकादि भवदुःख आधि व्याधिरूप [अनंतं कालं ] अनंतकालतक [सहंते ]
भोगते हैं
भावार्थ :मनके दुःखको आधि कहते हैं, और तनुसंबंधी दुःखोंको व्याधि कहते

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५२४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९३
परब्रह्मशब्दवाच्यं निजदेहस्थं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावं परमात्मस्वरूपम् किं कृत्वा पूर्वम्
परम-समाहि धरेवि वीतरागतात्त्विकचिदानन्दैकानुभूतिरूपं परमसमाधिं धृत्वा ते पूर्वोक्त -
शुद्धात्मभावनारहिताः पुरुषाः
सहंति सहन्ते
कानि कर्मतापन्नानि भव-दुक्खइं वीतराग-
परमाह्लादरूपात् पारमार्थिकसुखात् प्रतिपक्षभूतानि नरनारकादिभवदुःखानि कतिसंख्योपेतानि
बहुविहइं शारीरमानसादिभेदेन बहुविधानि कियन्तं कालम् कालु अणंतु अनन्तकाल-
पर्यन्तमिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा निजशुद्धात्मनि स्थित्वा रागद्वेषादिसमस्तविभावत्यागेन
भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१९३।।
अथ
३२५) जामु सुहासुह-भावडा णवि सयल वि तुट्टंति
परमसमाहि ण तामुमणि केवलि एहु भणंति ।।१९४।।
परमसमाधिने धारण करीने परम ब्रह्मने-‘परब्रह्म’ शब्दथी वाच्य एवा, निजदेहमां रहेला,
केवळज्ञानादि अनंतगुणस्वभाववाळा परमात्मस्वरूपने-पामता नथी (जाणता नथी) तेओ
पूर्वोक्त शुद्ध आत्मानी भावनाथी रहित पुरुषो-वीतराग परम आह्लादरूप पारमार्थिक
सुखथी प्रतिपक्षभूत, शारीरिक, मानसिक आदि अनेक प्रकारनां भवदुःखोने सहे छे.
अहीं, आ व्याख्यान जाणीने निज शुद्ध आत्मामां स्थित थईने रागद्वेषादि समस्त
विभावना त्याग वडे (आत्म) भावना करवी जोईए, एवुं तात्पर्य छे. १९३.
वळी (हवे एम कहे छे के ज्यां सुधी आ जीवना बधा शुभाशुभ भावो दूर
न थाय त्यां सुधी परमसमाधि थई शकती नथी.)ः
हैं, नाना प्रकारके दुःखोंको अज्ञानी जीव भोगता है ये दुःख वीतराग परम आह्लादरूप जो
पारमार्थिकसुख उससे विमुख हैं यह जीव अनन्तकाल तक निजस्वरूपके ज्ञान बिना
चारों गतियोंके नाना प्रकारके दुःख भोग रहा है ऐसा व्याख्यान जानकर निज शुद्धात्ममें
स्थिर होके राग द्वेषादि समस्त विभावोंका त्यागकर निज स्वरूपकी ही भावना करनी
चाहिये
।।१९३।।
आगे यह कहते हैं, कि जब तक इस जीवके शुभाशुभ भाव सब दूर न हों, तब तक
परमसमाधि नहीं हो सकती

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अधिकार-२ः दोहा-१९४ ]परमात्मप्रकाशः [ ५२५
यावत् शुभाशुभभावाः नैव सकला अपि त्रुटयन्ति
परमसमाधिर्न तावत् मनसि केवलिन एवं भणन्ति ।।१९४।।
जामु इत्यादि जामु यावत्कालं णवि तुट्टंति नैव नश्यन्ति के कर्तारः सुहासुह-भावडा
शुभाशुभविकल्पजालरहितात् परमात्मद्रव्याद्विपरीताः शुभाशुभभावाः परिणामा कतिसंख्योपेता
अपि सयल वि समस्ता अपि तामु ण तावत्कालं न कोऽसौ परम-समाहि
शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपः शुद्धोपयोगलक्षणः परमसमाधिः क्व मणि रागादि-
विकल्पत्वेन शुद्धचेतसि केवलि एहु भणंति केवलिनो वीतरागसर्वज्ञा एवं कथयन्तीति
भावार्थः
।।१९४।। इति चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिप्रतिपादकसूत्रषट्केन
प्रथममन्तरस्थलं गतम्
भावार्थःज्यां सुधी शुभाशुभ विकल्पजाळरहित एवा परमात्मद्रव्यथी विपरीत
समस्त शुभाशुभ परिणामो नाश पामता नथी, त्यां सुधी रागादि विकल्पथी रहित एवा शुद्ध
चित्तमां शुद्ध आत्मानां सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्अनुचरणरूप
शुद्धोपयोगलक्षणवाळी परम समाधि थती नथी एम केवळी वीतराग सर्वज्ञ कहे छे, एवो
भावार्थ छे. १९४.
ए प्रमाणे चोवीस सूत्रोना महास्थळमां परमसमाधिना प्रतिपादक छ सूत्रोथी प्रथम
अन्तरस्थळ समाप्त थयुं.
गाथा१९४
अन्वयार्थ :[यावत् ] जब तक [सकला अपि ] समस्त [शुभाशुभभावाः ] सकल
विकल्पजालसे रहित जो परमात्मा उससे विपरीत शुभाशुभ परिणाम [नैव त्रुटयंति ] दूर न
होंमिटें नहीं, [तावत् ] तब तक [मनसि ] रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्तमें [परमसमाधिः
न ] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप शुद्धोपयोग जिसका लक्षण है, ऐसी परमसमाधि इस जीवके
नहीं हो सकती [एवं ] ऐसा [केवलिनः ] केवलीभगवान् [भणंति ] कहते हैं
भावार्थ :शुभाशुभ विकल्प जब मिटें, तभी परमसमाधि होवे, ऐसी जिनेश्वरदेवकी
आज्ञा है ।।१९४।।
इसप्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमसमाधिके कथनरूप छह दोहोंका
अंतरस्थल समाप्त हुआ

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५२६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-२ः दोहा-१९५
तदनन्तरमर्हत्पदमिति भावमोक्ष इति जीवन्मोक्ष इति केवलज्ञानोत्पत्तिरित्येकोऽर्थः तस्य
चतुर्विधनामाभिधेयस्यार्हत्पदस्य प्रतिपादनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति तद्यथा
३२६) सयलवियप्पहँ तुट्टाहँ सिवपयमग्गि वसंतु
कम्म-चउक्कइ विलउ गइ अप्पा हुइ अरहंतु ।।१९५।।
सकलविकल्पानां त्रुटयतां शिवपदमार्गे वसन्
कर्मचतुष्के विलयं गते आत्मा भवति अर्हन् ।।१९५।।
हुइ भवति कोऽसौ अप्पा आत्मा कथंभूतो भवति अरहंतु अरिर्मोहनीयं कर्म
तस्य हननाद् रजसी ज्ञानद्रगावरणे तयोरपि हननाद् रहस्यशब्देनान्तरायस्तदभावाच्च
देवेन्द्रादिविनिर्मितामतिशयवतीं पूजामर्हतीत्यर्हन् कस्मिन् सति कम्म-चउक्कइ विलउ गइ
त्यार पछी अर्हंतपद कहो, भावमोक्ष कहो, जीवन्मोक्ष कहो, केवळज्ञानोत्पत्ति कहोः
ए चारे शब्दनो अर्थ एक ज छे. ए चार प्रकारना नाम जेना छे ते अर्हंतपदना प्रतिपादननी
मुख्यताथी त्रण गाथासूत्र सुधी व्याख्यान करे छे. ते आ प्रमाणेः
भावार्थः‘शिव’ शब्दथी वाच्य एवुं जे मोक्षपद तेनो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्र ए त्रणेयनी एकतारूप लक्षणवाळो जे मार्ग तेमां वसता थका आत्मा, पूर्वे
समस्तविकल्पोनो नाश थतां अर्थात् समस्त रागादि विकल्पोनो नाश थया पछी चार घातिकर्मनो
आगे तीन दोहोंमें अरहंतपदका व्याख्यान करते हैं, अरहंतपद कहो या भावमोक्ष कहो,
अथवा जीवन्मोक्ष कहो, या केवलज्ञानकी उत्पत्ति कहो
ये चारों अर्थ एकको ही सूचित करते हैं, अर्थात् चारों शब्दोंका अर्थ एक ही है
गाथा१९५
अन्वयार्थ :[कर्मचतुष्के विलयं गते ] ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी, और
अन्तराय इन चार घातियाकर्मोंके नाश होनेसे [आत्मा ] यह जीव [अर्हन् भवति ] अर्हंत होता
है, अर्थात् जब घातियाकर्म विलय हो जाते हैं, तब अरहंतपद पाता है, देवेंद्रादिकर पूजाके योग्य
हो वह अरहंत है, क्योंकि पूजायोग्यको ही अर्हंत कहते हैं
पहले तो महामुनि हुआ
[शिवपदमार्गे वसन् ] मोक्षपदके मार्गरूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें ठहरता हुआ
[सकलविकल्पानां ] समस्त रागादि विकल्पोंका [त्रुटयतां ] नाश करता है, अर्थात् जब समस्त
रागादि विकल्पोंका नाश हो जावे, तब निर्विकल्प ध्यानके प्रसादसे केवलज्ञान होता है