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ज्ञानावरण, दर्शनावरण बन्नेयनो नाश थवाथी अने रहस्य शब्दथी अन्तराय समजवो.
अन्तरायकर्मनो नाश थवाथी देवेन्द्रादि रचित, अतिशयवान (सातिशय) पूजाने योग्य छे ते
अर्हंत छे, ए भावार्थ छे. १९५.
आनंदमयी [आत्मा ] यह आत्मा ही रत्नत्रयके प्रसादसे [अर्हन् ] अरहंत [भवति ] होता है
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आत्मा निश्चयथी वीतरागपरमसमरसी भाव स्वरूप तात्त्विक परमानंदमय लक्षणवाळो अर्हंत थाय
छे एमां संदेह न करवो जोईए, ए अभिप्राय छे. १९६.
[परमानंदस्वभावः ] और इंद्रिय विषयसे रहित आत्मीक रागादि विकल्पोंसे रहित परमानंद ही
जिसका स्वभाव है, ऐसा जिनेश्वर केवलज्ञानमयी अरहंतदेव [सः ] वही [परमात्मा ] उत्कृष्ट
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परमप्पउ स पूर्वोक्तोऽर्हन्नेव परमात्मा परम-परु प्रकृष्टानन्तज्ञानादिगुणरूपा मा लक्ष्मीर्यस्य
स भवति परमः संसारिभ्यः पर उत्कृष्टः इत्युच्यते परमश्चासौ परश्च परमपरः साे स
पूर्वोक्तो वीतरागः सर्वज्ञः जिय हे जीव अप्प-सहाउ आत्मस्वभाव इति
रहित, स्व-आत्माथी उत्पन्न, रागादि विकल्प रहित, परमानंद स्वभावी छे, ते पूर्वोक्त
अर्हंत ज परमात्मा छे, परमेश्वर छे. परम-उत्कृष्ट अनंतज्ञानादि गुणरूप मा अर्थात् लक्ष्मी
जेने छे ते परम छे, संसारीओथी पर एटले उत्कृष्ट छे. आवा जे परम पर ते परम
छे, ते-पूर्वोक्त वीतराग सर्वज्ञ छे. हे जीव! ते आत्मस्वभाव छे.
एवा तेने ज आगळ स्वयमेव कथन करशे.
है, और [स आत्मस्वभावः ] वह आत्माका ही स्वभाव है
जितने भगवान्के नाम हैं, उतने ही निश्चयनयकर विचारो तो सब जीवोंके हैं, सभी जीव
जिनसमान हैं, और जिनराज भी जीवोंके समान हैं, ऐसा जानना
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[योगिन् त्वं ] हे योगी, तू [परमात्मप्रकाशं ] परमात्मप्रकाश [नियमेन ] निश्चयसे [मन्यस्व ]
मान
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इत्यभिप्रायः
अनंतज्ञानसुखादि गुणो छे तेमने आच्छादन करनारा जे दोषो छे तेनाथी पण भिन्न जे
जिनदेव छे तेने हे योगी! तुं निश्चयथी परमात्मप्रकाश जाण (परमात्मप्रकाश संज्ञावाळो
परमात्मा जाण.) ए अभिप्राय छे. १९८.
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परमप्रकाशम्
ज अविनश्वर होवाथी अनंत छे एवा केवळज्ञान, केवळदर्शन, सुख अने वीर्यस्वरूप जे छे ते
ज जिनदेव छे, तेम ज उत्कृष्ट मुनि
[परममुनिः ] वही परममुनि अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञानी है
क्षेत्र, काल, भव, भावको जाना हुआ परमप्रकाशक है
अविनश्वर हैं, इनका अंत नहीं है, ऐसा जानना
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जिनदेवः
एवेश्वराभिधानः, स एव ब्रह्मशब्दवाच्यः, स एव सुगतशब्दाभिधेयः, स एव जिनेश्वरः, स एव
विशुद्ध इत्याद्यष्टाधिकसहस्रनामाभिधेयो भवति
सुगत नामनो बुद्ध, समस्त रागादि दोषना त्याग वडे शुद्ध जिनदेव छे एम मुनिओ
‘ब्रह्म’ शब्दथी वाच्य छे, ते ज ‘सुगत’ शब्दथी अभिधेय छे, ते ज जिनेश्वर छे, ते ज विशुद्ध
छे इत्यादि एक हजार आठ नामवाळा छे एम प्रत्यक्ष ज्ञानीओ कहे छे.
है, उसीके ये सब नाम हैं
वही ब्रह्म, वही शिव, वही सुगत, वही जिनेश्वर, और वही विशुद्ध
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उसे ही [जिनवरदेवेन ] जिनवरदेवने [महान् सिद्धः प्रभणितः ] सबसे महान् सिद्ध भगवान्
कहा है
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यत्कर्म तस्य क्षयः कर्मक्षयस्तं कृत्वा
विपरीत जो आर्त रौद्र खोटे ध्यान उनसे उत्पन्न हुए जो शुभ-अशुभ कर्म उनका
स्वसंवेदनज्ञानरूप शुक्लध्यानसे क्षय करके अक्षय पद पा लिया है
जे कर्म छे तेनो क्षय करीने जे ज्ञानावरणादि कर्मथी रहित अने सम्यक्त्वादि आठ गुण सहित
थाय छे अने जे अविनाशी छे तेने ज जिनवरदेवे सिद्ध कह्या छे
तात्पर्य छे. २०१.
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अविनाशी सुख है, और [तत्रैव ] उसी शुद्ध क्षेत्रमें [लब्धस्वभावः ] निजस्वभावको पाकर
[जीव ] हे जीव, [सकलमपि कालं ] सदा काल [निवसति ] निवास करते हैं, फि र चतुर्गतिमें
नहीं आवेंगे
आत्मस्वभावने पामीने मोक्षपदमां समस्त काळ सुधी-अनंतानंत काळ सुधी वसे छे.
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और केवलदर्शन केवलज्ञानमयी हैं, ऐसे [मुक्तः ] कर्म रहित हुए [तत्रैव ] अनंतकाल तक
उसी सिद्धक्षेत्रमें [नंदति ] अपने स्वभावमें आनंदरूप विराजते हैं
सब काल, और सब भावोंको जानता है
गतिनां दुःख तेनाथी रहित छे, केवळदर्शनज्ञानमय छे, क्रमकरणव्यवधानरहितपणे त्रण जगतना
त्रणकाळवर्ती पदार्थोना प्रकाशक केवळदर्शन अने केवळज्ञानथी रचायेल छे. आवा गुणवाळा सिद्ध
भगवान शुं करे छे? आवा गुणविशिष्ट सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि आठ कर्मथी रहित अने
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शिखर पर विराज रहे हैं, जिसका कभी अंत नहीं, उसी सिद्धपदमें सदा काल विराजते हैं,
केवलज्ञान दर्शन कर घट
वृद्धिने पामे छे, ए भावार्थ छे. २०३.
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हैं, [जीव ] हे जीव, [ते ] वे [सकलं मोहं ] समस्त मोहको [जित्वा ] जीतकर [परमार्थम्
बुध्यंति ] परमतत्त्वको जानते हैं
हैं, वे निर्मोह परमात्मतत्त्वसे विपरीत जो मोहनामा कर्म उसकी समस्त प्रकृतियोंको मूलसे
उखाड़ देते हैं, मिथ्यात्व रागादिकोंको जीतकर निर्मोह निराकुल चिदानंद स्वभाव जो परमात्मा
उसको अच्छी तरह जानते हैं
एवा परमात्मप्रकाश नामना शास्त्रने ध्यावे छे ते तपोधनो परमार्थशब्दथी वाच्य, चिदानंद जेनो
एक स्वभाव छे एवा परमात्माने जाणे छे, ए भावार्थ छे. २०४.
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अर्थ जानें, [तेऽपि ] वे भी [लोकालोकप्रकाशकरं ] लोकालोकको प्रकाशनेवाले [प्रकाशम् ]
केवलज्ञान तथा उसके आधारभूत परमात्मतत्त्वको शीघ्र ही पा सकेंगे
ही को पावेंगे
ही पावेंगे
गुणपर्यायसहित त्रणकाळना लोकालोकना प्रकाशक, प्रकाश शब्दथी वाच्य एवा केवळज्ञान तथा
तेमना आधारभूत परमात्मप्रकाशने
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नन्तगुणस्वरूपस्य परमात्मपदार्थस्य
देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषं लब्ध्वा पश्चाज्जिनदीक्षां गृहीत्वा च केवलज्ञानमुत्पाद्य त्रिभुवननाथा
भवन्तीति भावार्थः
हैं, [तेषां ] उनका [मोहः ] निर्मोह आत्मद्रव्यसे विलक्षण जो मोहनामा कर्म [झटिति
त्रुटयति ] शीघ्र ही टूट जाता है, और वे [त्रिभुवननाथा भवंति ] शुद्धात्मतत्त्वकी भावनाके
फलसे पूर्व देवेंद्र चक्रवर्त्यादिकी महान् विभूति पाकर चक्रवर्तीपदको छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण
करके केवलज्ञानको उत्पन्न कराके तीन भुवनके नाथ होते हैं, यह सारांश हैं
नाम ले छे तेमनो निर्मोह
करीने त्रण भुवनना नाथ थाय छे, ए भावार्थ छे. २०६.
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परमात्मनः
[भवदुःखेभ्यः ] चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंसे [भीताः ] डर गये हैं, और [निर्वाणम् पदं ]
मोक्षपदको [इच्छंति ] चाहते हैं
शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अविनश्वर सुखसे विपरीत जो नरकादि संसारके
दुःख उनसे डर गये हैं, जिनको चतुर्गतिके भ्रमणका डर है, और जो सिद्धपरमेष्ठीके निवास
मोक्षपदको चाहते हैं
सुखथी विलक्षण नारकादि भवदुःखोथी भयभीत छे अने जेओ निर्वृतिगत (मोक्षप्राप्त)
परमात्माना आधारभूत ‘निर्वाण’ शब्दथी वाच्य एवा मुक्तिस्थानने इच्छे छे, ए अभिप्राय
छे. २०७.
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इत्यभिप्रायः
ही मुनीश्वर [परमात्मप्रकाशस्य योग्याः ] परमात्मप्रकाशके अभ्यासके योग्य [भवंति ] हैं
अनुभूति उससे उपार्जन किया जो अतीन्द्रिय परमानंदसुख उसके रसके आस्वादसे तृप्त हुए विषयोंमें
नहीं रमते हैं
सुखरसना आस्वादथी तृप्त थईने सुलभ अने मनोहर एवा विषयोमां पण रमता न होय,
ए अभिप्राय छे. २०८.
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शब्दवाच्यस्य शुद्धात्मस्वरूपस्य
मोहरूप समस्त विकल्प
परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य [भणंते ] कहते हैं
हैं, और जिनके मिथ्यात्व राग द्वेषादि मलकर रहित शुद्ध भाव हैं, ऐसे पुरुषोंके सिवाय दूसरा
कोई भी परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य नहीं है
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है
शुद्धात्मस्वरूप वह लक्षण और छंदोकर रहित है
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छन्दोविवर्जितः
करोतीति भावार्थः
लक्षणस्वरूप है, सो भावोंसे उसको आराधो, वही चतुर्गतिके दुःखोंका नाश करनेवाला है
है, और यह परमात्मप्रकाशनामा अध्यात्म
अपेक्षाए लक्षण अने छंदथी रहित छे एवो आ परमात्मप्रकाश शुद्धभावनाथी भाववामां आवतो
थको, शुद्धात्मसंवित्तिथी उत्पन्न रागादि विकल्प रहित परमानंद जेनुं एक लक्षण छे एवा सुखथी
विपरीत चार गतिनां दुःखोनो विनाश करे छे, ए भावार्थ छे. २१०.