Page 47 of 565
PDF/HTML Page 61 of 579
single page version
छेः
अनुभवथी प्रतिपक्ष नव प्रकारना अब्रह्मचर्यव्रतने (कुशीलने) अने वीतराग निर्विकल्प समाधिना
मुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्यार्थिकनयेनानन्तमविनश्वरमनन्त-
नहीं है, [यस्य ] जिसके [यन्त्रः न ] अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं
है, [मन्त्रः न ] अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप मंत्र नहीं है, [यस्य ] और जिसके [मण्डलं
न ] जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं हैं, [मुद्रा न ]
गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्रा नहीं हैं, [तं ] उसे [अनन्तम् ] द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी तथा
अनंत ज्ञानादिगुणरूप [देवम् मन्यस्व ]
आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको
Page 48 of 565
PDF/HTML Page 62 of 579
single page version
एवो भावार्थ छे. कह्युं पण छे केः
ए चारे भावो मुश्केलीथी सिद्ध थाय छे. २२.
नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातकस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं
कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः
शुद्धात्माका अनुभव कर
होता है, पाँच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमेंसे मनोगुप्ति पालना कठिन
है
Page 49 of 565
PDF/HTML Page 63 of 579
single page version
संजातनित्यानन्दैकसुखामृतास्वादपरिणतस्य ध्यानस्य विषयः
है, अर्थात् वेद, शास्त्र, ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं, आत्मा शब्दातीत है, तथा इन्द्रिय, मन
विकल्परूप हैं, और मूर्तीक पदार्थको जानते हैं, वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तीक है, इसलिए
इन तीनोंसे नहीं जान सकते
निर्विकल्प अपने स्वरूपके ध्यानकर स्वरूपकी प्राप्ति है
सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यानसे ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यानका उपाय है,
ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूपमें अपना परिणमन लगाओ
है, वह परमतत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्गमें लगे हुए हैं, सो वृथा
Page 50 of 565
PDF/HTML Page 64 of 579
single page version
दर्शनवाला है, [केवलसुखस्वभावः ] जिसका केवलसुख स्वभाव है, और जो [केवलवीर्यः ]
अनंतवीर्यवाला है, [स एव ] वही [परापरभावः ] उत्कृष्ट अर्हंतपरमेष्ठीसे भी अधिक
स्वभाववाला सिद्धरूप शुद्धात्मा है [मन्यस्व ] ऐसा मानो
Page 51 of 565
PDF/HTML Page 65 of 579
single page version
सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः
ऐसे निष्कल परमात्मा निराकारस्वरूप सिद्धपरमेष्ठी हैं, वे सकल परमात्मासे भी उत्तम हैं, वही
सिद्धरूप शुद्धात्मा ध्यान करने योग्य है
आहारक, तैजस, कार्माण ये पाँच शरीर जिसके नहीं है, अर्थात् निराकार है, [देवः ] तीन
लोककर आराधित जगतका देव है, [यः ] ऐसा जो परमात्मा सिद्ध है, [सः ] वही [तत्र
परमपदे ] उस लोकके शिखर पर [निवसति ] विराजमान है, [यः] जो कि [त्रैलोक्यस्य ]
तीन लोकका [ध्येयः ] ध्येय (ध्यान करने योग्य) है
Page 52 of 565
PDF/HTML Page 66 of 579
single page version
प्रमाणेः
देहमें भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं
गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी [देवः ] देवाधिदेव परम आराध्य [सिद्धौ ] मुक्तिमें [निवसति ] रहता है,
[ता
Page 53 of 565
PDF/HTML Page 67 of 579
single page version
मुक्तौ निवसति तिष्ठति देवः परमाराध्यः ता
कार्यसमयसाररूप परम आराध्य एवा देव मुक्तिमां रहे छे तेवो ज पूर्वोक्त लक्षणवाळो
परब्रह्म शुद्ध बुद्ध जेनो एक स्वभाव छे एवो उत्कृष्ट ब्रह्मा-परमात्मा-
शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी शक्तिरूपे देहमां रहे छे. तेथी हे प्रभाकरभट्ट! तुं सिद्धभगवान अने
पोतामां भेद न कर. मोक्षप्राभृत (गाथा १०३)मां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं
पण छे के
आचार्यपरमेष्ठी आदिथी पण जेमने ध्याववामां आवे छे अने बीजाओ वडे जेमने
स्तववामां आवे छे एवा सत्पुरुषोथी पण जेमने स्तववामां आवे छे एवो जे कोई
(जीवपदार्थ) देहमां रहेल छे ते परमात्माने तुं जाण.
इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, तूँ [भेदम् ] सिद्ध भगवान्में और अपनेमें भेद [मा कुरु ] मत कर
सत्पुरुषोंसे स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्यपरमेष्ठी वगैरहसे भी ध्यान करने
योग्य ऐसा जीवनामा पदार्थ इस देहमें बसता है, उसको तूँ परमात्मा जान
Page 54 of 565
PDF/HTML Page 68 of 579
single page version
अन्तर्मुहूर्तेन
भावथी) उपार्जित करेलां पूर्वकृत कर्मोना शीघ्र-अन्तर्मुहूर्तमां सेंकडो चूरेचूरा थई जाय छे ते
उपार्जित [कर्माणि ] कर्म [त्रुटयन्ति ] चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभावसे
(अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते
हैं, [तं परं ] उस सदानंदरूप परमात्माको [देहं वसन्तं ] देहमें बसते हुए भी [हे योगिन् ]
हे योगी [किं न जानासि ] तू क्यों नहीं जानता ?
Page 55 of 565
PDF/HTML Page 69 of 579
single page version
हे योगिन्
पण हे योगी! तेने तुं केम जाणतो नथी?
त्यार पछी पांच प्रक्षेपकोने कहे छे. ते आ प्रमाणेः
उपादेय है, अन्य कोई नहीं है
नहीं हैं, [यत्र ] जिसमें [मनोव्यापारः ] संकल्प-विकल्परूप मनका व्यापार भी [न ] नहीं है,
अर्थात् विकल्प रहित परमात्मासे व्यापार जुदे हैं, [तं ] उस पूर्वोक्त लक्षणावालेको [हे जीव
त्वं ] हे जीव, तू [आत्मानं ] आत्माराम [मन्यस्व ] मान, [अन्यत्परम् ] अन्य सब विभावोंको
[अपहर ] छोड़
Page 56 of 565
PDF/HTML Page 70 of 579
single page version
नित्यानन्दैकरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा जानीहि हे जीव, त्वम् अन्य-
त्परमात्मस्वभावाद्विपरीतं पञ्चेन्द्रियविषयस्वरूपादिविभावसमूहं परस्मिन् दूरे सर्वप्रकारेणापहर
त्यजेति तात्पर्यार्थः
निर्विकल्प परमात्माथी विलक्षण, संकल्पविकल्परूप मनोव्यापार नथी ते निज शुद्धात्माने हे
जीव! तुं जाण
दूरथी ज सर्व प्रकारे छोड. ए तात्पयार्थ छे.
समाधिमां रहीए छीए एम जेओ कहे छे तेमना निषेध अर्थे; अथवा श्वेतशंखनी जेम
आ स्वरूपविशेषण छे एम समजवा माटे, (जेम शंख छे ते श्वेत ज होय छे तेम जे
निर्विकल्प समाधि होय छे ते वीतराग रूप ज होय छे, ए रीते स्वरूप प्रगट करवा माटे)
त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर
हम निर्विकल्पसमाधिमें स्थित हैं, उनके निषेधके लिये वीतरागता सहित निर्विकल्पसमाधिका
कथन किया गया है, अथवा सफे द शंखकी तरह स्वरूप प्रगट करनेके लिये कहा गया है,
Page 57 of 565
PDF/HTML Page 71 of 579
single page version
योजनीयम्
वीतरागतारूप ही होगी
निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात् व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप
(तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभावमें स्थित है, [तं ] उसे
[हे जीव त्वं ] हे जीव, तूँ [आत्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान
Page 58 of 565
PDF/HTML Page 72 of 579
single page version
स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व जानीहि हे जीव
नित्यानन्दैकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः
तेने हे जीव! तुं आत्मा जाण
सम्बन्धसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं, [तत्परं ] उनको पर (अन्य) [मन्यस्व ]
Page 59 of 565
PDF/HTML Page 73 of 579
single page version
नथी एवो अने जेनो कोई आकार कहेवातो नथी एवो जाण.
पुद्गलादि पांच द्रव्यरूप ते जीव साथे संबंध विनानुं छे के जे अजीवनुं लक्षण छे, कारण
के जीवथी अजीवनुं लक्षण भिन्न छे, ते कारणे जे पर एवा रागादिक छे तेने पर जाणो-
जे भेद्य अने अभेद्य छे. (अर्थात् जे जीव साथे संबंध विनाना छे अने जीव साथे
संबंधवाळा छे.)
ऐसा मैं कहता हूँ
पाँच तरहके वर्ण रहित है, सुगन्ध, दुर्गंध इन दो तरहके गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर)
नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्दसे रहित है, पुल्लिंग आदि करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात्
लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दिखता, अर्थात् निराकार वस्तु है
Page 60 of 565
PDF/HTML Page 74 of 579
single page version
संबंधी नहीं हैं, अजीवसंबंधी ही हैं, इसलिये अजीव हैं, जीवसे भिन्न हैं
संबंधसे हैं, इसलिये पर ही समझो
[ज्ञानमयः ] लोक और अलोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, [मूर्तिविरहितः ]
अमूर्तीक आत्मासे विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्तिरहित है, [चिन्मात्रः ] अन्य द्रव्योंमें
नहीं पाई जावे, ऐसी शुद्धचेतनास्वरूप ही है, और [इन्द्रियविषयः नैव ] इन्द्रियोंके गोचर नहीं
है, वीतराग स्वसंवेदनसे ही ग्रहण किया जाता है
हवे ते शुद्धात्माना ज्ञानादि लक्षणोने विशेषपणे कहे छेः
Page 61 of 565
PDF/HTML Page 75 of 579
single page version
विपरीतलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या वर्जितत्वान्मूर्तिविरहितः, अन्यद्रव्यासाधारणया-
शुद्धचेतनया निष्पन्नत्वाच्चिन्मात्रः
अतीन्द्रिय छे, लोकालोकना प्रकाशक केवळज्ञानथी रचायेलो होवाथी ज्ञानमय छे, अमूर्त
आत्माथी विपरीत लक्षणवाळी स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप मूर्तिथी रहित होवाथी मूर्ति रहित
छे. अन्य द्रव्योनी साथे असाधारण एवी शुद्ध चेतनाथी निष्पन्न होवाथी चिन्मात्र छे अने
वीतराग स्वसंवेदनरूप ज्ञानथी ग्राह्य होवा छतां इन्द्रियोने अगोचर छे. आवुं लक्षण (शुद्ध
आत्मानुं) निश्चितपणे कहेवामां आव्युं छे.
हवे जे संसार, शरीर, अने भोगोथी विरक्त थईने शुद्ध आत्मानुं ध्यान करे छे तेनी
Page 62 of 565
PDF/HTML Page 76 of 579
single page version
शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य गुरुक्की महती संसारवल्ली त्रुटयति नश्यति शतचूर्णा भवतीति
तात्पर्यार्थः
[गुर्वी ] मोटी [सांसारिकी वल्ली ] संसाररूपी बेल [त्रुटयति ] नाशको प्राप्त हो जाती है
शुद्धात्म-सुखमें अनुरागी कर शरीरादिकमें वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्माको विचारता है, उसका
संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्माके ध्यानसे संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही
ध्यान करने योग्य (उपादेय) है
व्यावृत्त करीने (पाछुं वाळीने) निज शुद्धात्मसुखमां रत थवाथी संसार, शरीर अने भोगोथी
विरक्त मनवाळो थयो थको जे शुद्ध आत्माने ध्यावे छे तेनी संसाररूपी मोटी वेलना सेंकडो कटका
थई जाय छे
त्यार पछी, देहरूपी देवालयमां जे रहे छे ते ज शुद्धनिश्चयनयथी परमात्मा छे एम
Page 63 of 565
PDF/HTML Page 77 of 579
single page version
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनानाद्यनन्तः, यद्यपि देहो जडस्तथापि स्वयं लोकालोकप्रकाशकत्वात्केवलज्ञान-
स्फु रिततनुः, केवलज्ञानप्रकाशरूपशरीर इत्यर्थंः
है, महा पवित्र है, [देवः ] आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है,
[अनाद्यनन्तः ] जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर अनादि अनंत है, तथा यह देह आदि
अंतकर सहित है, [केवलज्ञानस्फु रत्तनुः ] जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको
प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़
है, [सः परमात्मा ] वही परमात्मा [निर्भ्रान्तः ] निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं
समझना
परमात्मा-देव-आराध्य-पूज्य
केवलज्ञानप्रकाशरूप शरीरवाळो छे ते निःसंदेह परमात्मा छे.
Page 64 of 565
PDF/HTML Page 78 of 579
single page version
निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमात्मानं
अपि ] वह भी [नैव स्पृश्यते ] नहीं छुआ जाता
अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है
व्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी
व्यवहारनयथी रहेवा छतां पण निश्चयथी जे देहने स्पर्शतो नथी, ते परमात्माने ज
Page 65 of 565
PDF/HTML Page 79 of 579
single page version
इति भावार्थः
ममत्वसे रहित (विवेकी) पुरुषोंके आराधने योग्य है
छे. ३४.
Page 66 of 565
PDF/HTML Page 80 of 579
single page version
परमयोगिनां कश्चित् स्फु रति संवित्तिमायाति
सम्यक्चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठे हुए
हैं, उन योगीश्वरोंके हृदयमें [परमानन्दं जनयन् ] वीतराग परम आनन्दको उत्पन्न करता
हुआ [यः कश्चित् ] जो कोई [स्फु रति ] स्फु रायमान होता है, [स स्फु टं ] वही प्रकट
[परमात्मा ] परमात्मा [भवति ] है, ऐसा जानो
शुद्ध निश्चयमें तिष्ठते हैं, उन योगियोंके ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है
है
हैं, उनको आत्मरुचि नहीं हो सकती यह तात्पर्य हुआ
अभेद-रत्नत्रयात्मक वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित परमयोगीओने वीतराग परमानंदने
उत्पन्न करतो जे कोई परमात्मा स्फुरायमान थाय छे
थाय छे.
छे एवो तात्पर्यार्थ छे. ३५.