Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Devanagari transliteration). Gatha: 36-40 (Adhikar 1),41 (Adhikar 1) Jivana Parinam Par Mat Matantarno Vichar,42 (Adhikar 1),43 (Adhikar 1),44 (Adhikar 1),45 (Adhikar 1),46 (Adhikar 1),47 (Adhikar 1),48 (Adhikar 1),49 (Adhikar 1),50 (Adhikar 1).

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अथ शुद्धात्मप्रतिपक्षभूतकर्मदेहप्रतिबद्धोऽप्यात्मा निश्चयनयेन सकलो न भवतीति
ज्ञापयति
३६) कम्म-णिबद्धु वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि
होइ ण सयलु कया वि फु डु मुणि परमप्पउ सो जि ।।३६।।
कर्मनिबद्धोऽपि योगिन् देहे वसन्नपि य एव
भवति न सकलः कदापि स्फु टं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।३६।।
कर्मनिबद्धोऽपि हे योगिन् देहे वसन्नपि य एव न भवति सकलः क्वापि काले स्फु टं
मन्यस्व जानीहि परमात्मानं तमेवेति अतो विशेषःपरमात्मभावनाविपक्षभूतैः रागद्वेषमोहैः
समुपार्जितैः कर्मभिरशुद्धनयेन बद्धोऽपि तथैव देहस्थितोऽपि निश्चयनयेन सकलः सदेहो न
आगे शुद्धात्मासे जुदे कर्म और शरीर इन दोनोंकर अनादिकर बँधा हुआ यह आत्मा
है, तो भी निश्चयनयकर शरीरस्वरूप नहीं है, यह कहते हैं
गाथा३६
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी [यः ] जो यह आत्मा [कर्मनिबद्धोऽपि ] यद्यपि
कर्मोंसे बँधा है, [देहे वसन्नपि ] और देहमें रहता भी है, [कदापि ] परंतु कभी [सकलः न
भवति ] देहरूप नहीं होता, [तमेव ] उसीको तू [परमात्मानं ] परमात्मा [स्फु टं ] निश्चयसे
[मन्यस्व ] जान
भावार्थ :परमात्माकी भावनासे विपरीत जो राग, द्वेष, मोह हैं, उनकर यद्यपि
व्यवहारनयसे बँधा है, और देहमें तिष्ठ रहा है, तो भी निश्चयनयसे शरीररूप नहीं है, उससे जुदा
ही है, किसी कालमें भी यह जीव जड़ तो न हुआ, न होगा, उसे हे प्रभाकरभट्ट, परमात्मा
हवे शुद्ध आत्माथी प्रतिपक्षभूत कर्म अने देहथी प्रतिबद्ध होवा छतां पण आत्मा
निश्चयथी देहरूप थतो नथी एम कहे छेः
भावार्थःअशुद्धनयथी परमात्मानी भावनाथी विपक्षभूत रागद्वेषमोहथी उपार्जित
कर्मोथी बंधायेलो होवा छतां पण, तेम ज देहमां रहेवा छतां पण, निश्चयथी जे क्यारेय
देहरूप थतो नथी, ते परमात्माने ज हे प्रभाकरभट्ट! तुं जाण, वीतराग-स्वसंवेदनज्ञानथी
भाव एवो अर्थ छे.
अत्रे निर्विकल्प समाधिमां जेओ रत छे तेमने सदाय ते परमात्मा उपादेय छे, परंतु
अधिकार-१ः दोहा-३६ ]परमात्मप्रकाशः [ ६७

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भवति क्वापि तमेव परमात्मानं हे प्रभाकरभट्ट मन्यस्व जानीहि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन
भावयेत्यर्थः
अत्र सदैव परमात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतानामुपादेयो भवत्यन्येषां हेय
इति भावार्थः ।।३६।।
यः परमार्थेन देहकर्मरहितोऽपि मूढात्मनां सकल इति प्रतिभातीत्येवं निरूपयति
३७) जा परमत्थेँ णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णउ जो जि
मूढा सयलु भणंति फु डु मुणि परमप्पउ सो जि ।।३७।।
यः परमार्थेन निष्कलोऽपि कर्मविभिन्नो य एव
मूढाः सकलं भणन्ति स्फु टं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।३७।।
यः परमार्थेन निष्कलोऽपि देहरहितोऽपि कर्मविभिन्नोऽपि य एव भेदाभेद-
जान निश्चयकर आत्मा ही परमात्मा है, उसे तू वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर चिंतवन कर सारांश
यह है, कि यह आत्मा सदैव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लीन साधुओंको तो प्रिय है, किन्तु
मूढ़ोंको नहीं
।।३६।।
गाथा३७
आगे निश्चयनयकर आत्मा देह और कर्मोंसे रहित है, तो भी मूढ़ों (अज्ञानियों) को
शरीर स्वरूप मालूम होता है, ऐसा कहते हैं
अन्वयार्थ :[यः ] जो आत्मा [परमार्थेन ] निश्चयनयकर [निष्कलोऽपि ] शरीर
रहित है, [कर्मविभिन्नोऽपि ] और कर्मोंसे भी जुदा है, तो भी [मूढाः ] निश्चय व्यवहार
रत्नत्रयकी भावनासे विमुख मूढ़ [सकलं ] शरीरस्वरूप ही [स्फु टं ] प्रगटपनेसे [भणन्ति ]
मानते हैं, सो हे प्रभाकरभट्ट, [तमेव ] उसीको [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान,
अर्थात् वीतराग सदानंद निर्विकल्पसमाधिमें रहके अनुभव कर
भावार्थ :वही परमात्मा शुद्धात्माके वैरी मिथ्यात्व रागादिकोंके दूर होनेके समय
अन्योने हेय छे एवो भावार्थ छे. ३६.
आत्मा परमार्थथी देह अने कर्मथी रहित होवा छतां पण मूढ आत्माओने ‘‘शरीररूप’’
प्रतिभासे छे एम कहे छेः
भावार्थःअहीं शुद्ध आत्माना संवेदनथी प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व-रागादिनी निवृत्तिना
६८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-३७

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रत्नत्रयभावनारहिता मूढात्मानस्तमात्मानं सकलमिति भणन्ति स्फू टं निश्चितं हे प्रभाकरभट्ट तमेव
परमात्मानं मन्यस्व जानीहीति, वीतरागसदानन्दैकसमाधौ स्थित्वानुभवेत्यर्थः
अत्र स एव
परमात्मा शुद्धात्मसंवित्तिप्रतिपक्षभूतमिथ्यात्वरागादिनिवृत्तिकाले सम्यगुपादेयो भवति तदभावे हेय
इति तात्पर्यार्थः
।।३७।।
अथानन्ताकाशैकनक्षत्रमिव यस्य केवलज्ञाने त्रिभुवनं प्रतिभाति स परमात्मा भवतीति
कथयति
३८) गयणि अणंति वि एक्क उडु जेहउ भुयणु विहाइ
मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ ।।३८।।
गगने अनन्तेऽपि एकमुडु यथा भुवनं विभाति
मुक्त स्य यस्य पदे बिम्बितं स परमात्मा अनादिः ।।३८।।
गगने अनन्तेऽप्येकनक्षत्रं यथा तथा भुवनं जगत् प्रतिभाति क्व प्रतिभाति मुक्त स्य
ज्ञानी जीवोंको उपादेय है, और जिनके मिथ्यात्वरागादिक दूर नहीं हुए उनके उपादेय नहीं,
परवस्तुका ही ग्रहण है
।।३७।।
आगे अनंत आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह जिसके केवलज्ञानमें तीनों लोक भासते हैं,
वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं
गाथा३८
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [अनन्तेऽपि ] अनंत [गगने ] आकाशमें [एकं उडु ]
एक नक्षत्र [‘‘तथा’’ ] उसी तरह [भुवनं ] तीन लोक [यस्य ] जिसके [पदे ] केवलज्ञानमें
[बिम्बितं ] प्रतिबिंबित हुए [विभाति ] दर्पणमें मुखकी तरह भासता है, [सः ] वह [परमात्मा
अनादिः ] परमात्मा अनादि है
भावार्थ :जिसके केवलज्ञानमें एक नक्षत्रकी तरह समस्त लोक-अलोक भासते हैं,
काळे ते ज परमात्मा सम्यक् उपादेय छे अने तेना (मिथ्यात्व-रागादिनी निवृत्तिना) अभावमां
हेय छे. ए तात्पर्यार्थ छे. ३७.
हवे जेना केवळज्ञानमां, अनंत आकाशमां, एक ज नक्षत्रनी समान त्रण भुवन प्रतिभासे
छे ते परमात्मा छे एम कहे छेः
भावार्थःअहीं जेना केवळज्ञानमां एक ज नक्षत्रनी समान लोक प्रतिभासे छे, ते
अधिकार-१ः दोहा-३८ ]परमात्मप्रकाशः [ ६९

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यस्य पदे केवलज्ञाने बिम्बितं प्रतिफलितं दर्पणे बिम्बमिव स एवंभूतः परमात्मा भवतीति
अत्र यस्यैव केवलज्ञाने नक्षत्रमेकमिव लोकः प्रतिभाति स एव रागादिसमस्त-
विकल्परहितानामुपादेयो भवतीति भावार्थः
।।३८।।
अथ योगीन्द्रवृन्दैर्यो निरवधिज्ञानमयो निर्विकल्पसमाधिकाले ध्येयरूपश्चिन्त्यते तं
परमात्मानमाह
३९) जोइयविंदहिँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ
मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।।३९।।
योगिवृन्दैः ज्ञानमयः यो ध्यायते ध्येयः
मोक्षस्य कारणे अनवरतं स परमात्मा देवः ।।३९।।
योगीन्द्रवृन्दैः शुद्धात्मवीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतैः ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः यः
कर्मतापन्नो ध्यायते ध्येयो ध्येयरूपोऽपि किमर्थं ध्यायते मोक्षकारणे मोक्षनिमित्ते अनवरतं
निरन्तरं स एव परमात्मा देवः परमाराध्य इति अत्र य एव परमात्मा मुनिवृन्दानां ध्येयरूपो
वही परमात्मा रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित योगीश्वरोंको उपादेय है ।।३८।।
आगे अनंत ज्ञानमयी परमात्मा योगीश्वरोंकर निर्विकल्पसमाधि-कालमें ध्यान करने
योग्य है, उसी परमात्माको कहते हैं
गाथा३९
अन्वयार्थ :[यः ] जो [योगीन्द्रवृन्दैः ] योगीश्वरोंकर [मोक्षस्य कारणे ] मोक्षके
निमित्त [अनवरतं ] निरन्तर [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी [ध्यायते ] चिंतवन किया जाता है, [सः
परमात्मा देवः ] वह परमात्मदेव [ध्येयः ] आराधने योग्य है, दूसरा कोई नहीं
भावार्थ :जो परमात्मा मुनियोंको ध्यावने योग्य कहा है, वही शुद्धात्माके वैरी
आर्त-रौद्र ध्यानकर रहित धर्म ध्यानी पुरुषोंको उपादेय है, अर्थात् जब आर्तध्यान रौद्रध्यान
ज परमात्मा रागादि समस्त विकल्प रहित योगीओने उपादेय छे. ए भावार्थ छे. ३८.
हवे योगीश्वरो निर्विकल्प समाधिकाळे निरवधि ज्ञानमय जेने ध्येयरूप चिंतवे छे ते
परमात्माने कहे छेः
भावार्थःअहीं जे परमात्मा मुनिओने ध्येयरूप कह्यो छे ते ज शुद्धात्माना संवेदनथी
७० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-३९

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भणितः स एवशुद्धात्मसंवित्तिप्रतिपक्षभूतार्तरौद्रध्यानरहितानामुपादेय इति भावार्थः ।।३९।।
अथ योऽयं शुद्धबुद्धैकस्वभावो जीवो ज्ञानावरणादिकर्महेतुं लब्ध्वा त्रसस्थावररूपं
जगज्जनयति स एव परमात्मा भवति नान्यः कोऽपि जगत्कर्ता ब्रह्मादिरिति प्रतिपादयति
४०) जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ
लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ।।४०।।
यो जीवः हेतुं लब्ध्वा विधिं जगत् बहुविधं जनयति
लिङ्गत्रयपरिमण्डितः स परमात्मा भवति ।।४०।।
यो जीवः कर्ता हेतुं लब्ध्वा किम् विधिसंज्ञं ज्ञानावरणादिकर्म पश्चाज्जङ्गमस्थावर-
रूपं जगज्जनयति स एव लिङ्गत्रयमण्डितः सन् परमात्मा भण्यते न चान्यः कोऽपि जगत्कर्ता
ये दोनों छूट जाते हैं, तभी उसका ध्यान हो सकता है ।।३९।।
आगे जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव जीव ज्ञानावरणादिकर्मोंके कारणसे त्रस स्थावर जन्मरूप
जगत्को उत्पन्न करता है, वही परमात्मा है, दूसरे कोई भी ब्रह्मादिक जगत्कर्ता नहीं है, ऐसा
कहते हैं
गाथा४०
अन्वयार्थ :[यः ] जो [जीवः ] आत्मा [विधिं हेतुं ] ज्ञानावरणादि कर्मरूप
कारणोंको [लब्ध्वा ] पाकर [बहुविधं जगत् ] अनेक प्रकारके जगतको [जनयति ] पैदा करता
है, अर्थात् कर्मके निमित्तसे त्रस स्थावररूप अनेक जन्म धरता है [लिङ्गत्रयपरिमण्डितः ]
स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुसकलिंग इन तीन चिन्होंकर सहित हुआ [सः ] वही [परमात्मा ]
शुद्धनिश्चयकर परमात्मा [भवति ] है
भावार्थ :अर्थात् अशुद्धपनेको परिणत हुआ जगतमें भटकता है, इसलिये जगतका
प्रतिपक्षभूत एवा आर्तध्यान अने रौद्रध्यानथी रहित ध्यानीने उपादेय छे एवो भावार्थ
छे. ३९.
हवे शुद्ध-बुद्ध जेनो एक स्वभाव छे एवो आ जीव, ज्ञानावरणादि कर्मनुं निमित्त
पामीने त्रस-स्थावररूप जगतने उत्पन्न करे छे ते ज परमात्मा छे, बीजो कोई जगत्कर्ता ब्रह्मादि
परमात्मा नथी एम कहे छेः
भावार्थःपूर्वे अनेक प्रकारे जे शुद्ध आत्मा कहेवामां आव्यो छे, ते ज शुद्ध
अधिकार-१ः दोहा-४० ]परमात्मप्रकाशः [ ७१

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हरिहरादिरिति तद्यथा योऽसौ पूर्वं बहुधा शुद्धात्मा भणितः स एव शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन
शुद्धोऽपि सन् अनादिसंतानागतज्ञानावरणादिकर्मबन्धप्रच्छादितत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पसहजा-
नन्दैकसुखास्वादमलभमानो व्यवहारनयेन त्रसो भवति, स्थावरो भवति, स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गो
भवति, तेन कारणेन जगत्कर्ता भण्यते, नान्यः कोऽपि परकल्पितपरमात्मेति
अत्रायमेव
शुद्धात्मा परमात्मोपलब्धिप्रतिपक्षभूतवेदत्रयोदयजनितं रागादिविकल्पजालं निर्विकल्पसमाधिना
यदा विनाशयति तदोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकत्वादुपादेय इतिभावार्थः
।।४०।।
अथ यस्य परमात्मनः केवलज्ञानप्रकाशमध्ये जगद्वसति जगन्मध्ये सोऽपि वसति तथापि
तद्रूपो न भवतीति कथयति
कर्ता कहा है, और शुद्धपनेरूप परिणत हुआ विभाव (विकार) परिणामोंको हरता है, इसलिये
हर्त्ता है
यह जीव ही ज्ञान अज्ञान दशाकर कर्त्ता-हर्त्ता है और दूसरे कोई भी हरिहरादिक कर्त्ता
-हर्त्ता नहीं है पूर्व जो शुद्धात्मा कहा था, वह यद्यपि शुद्धनयकर शुद्ध है, तो भी अनादिसे
संसारमें ज्ञानावरणादि कर्म बंधकर ढका हुआ वीतराग, निर्विकल्पसहजानन्द, अद्वितीय सुखके
स्वादको न पानेसे व्यवहारनयकर त्रस और स्थावररूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंगादि सहित होता
है, इसलिये जगत्कर्त्ता कहा जाता है अन्य कोई भी दूसरोंकर कल्पित परमात्मा नहीं है
यह
आत्मा ही परमात्माकी प्राप्तिके शत्रु तीन वेदों (स्त्रीलिंगादि) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-
जालोंको निर्विकल्पसमाधिसे जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष-सुखका
कारण होनेसे उपादेय हो जाता है
।।४०।।
आगे जिस परमात्माके केवलज्ञानस्वरूप प्रकाशमें जगत् बस रहा है, और जगत्के
द्रव्यार्थिकनयथी शुद्ध होवा छतां, पण अनादिथी संतानरूपे चाल्या आवता ज्ञानावरणादि
कर्मबंधथी ढंकायेलो होवाथी वीतरागनिर्विकल्प सहजानंदरूप एक (केवळ) सुखास्वादने नहि
पामतो, व्यवहारनयथी त्रस थाय छे, स्थावर थाय छे, तथा स्त्री-पुरुष के नपुंसकलिंगरूप थाय
छे, ते कारणे तेने जगतनो कर्ता कहेवामां आवे छे, ए सिवाय परकल्पित (बीजाओए कल्पेल)
बीजो कोई परमात्मा जगतकर्ता नथी.
अहीं आ ज शुद्ध आत्मा, निर्विकल्प समाधि वडे परमात्मानी प्राप्तिथी प्रतिपक्षभूत त्रण
प्रकारना वेदोदय जनित रागादि विकल्पनी जाळनो ज्यारे नाश करे छे, त्यारे (आ ज शुद्धात्मा)
उपादेयभूत मोक्षसुखनो साधक होवाथी उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ४०.
हवे जे परमात्माना केवळज्ञानरूप प्रकाशमां जगत रहे छे, अने ते परमात्मा पण
जगतमां रहे छे, तो पण ते ते-रूप (जगतरूप) थतो नथी एम कहे छेः
१. पाठान्तरःकथयति = कथयन्ति
७२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४०

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४१) जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि
जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ।।४१।।
यस्य अभ्यन्तरे जगत् वसति जगदभ्यन्तरे य एव
जगति एव वसन्नपि जगत् एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।४१।।
यस्य केवलज्ञानस्याभ्यन्तरे जगत् त्रिभुवनं ज्ञेयभूतं वसति जगतोऽभ्यन्तरे योऽसौ
ज्ञायको भगवानपि वसति, जगति वसन्नेव रूपविषये चक्षुरिव निश्चयनयेन तन्मयो न भवति
मन्यस्व जानीहि
हे प्रभाकरभट्ट, तमित्थंभूतं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा
भावयेत्यर्थः अत्र योऽसौ केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपस्य कार्यसमयसारस्य वीतरागस्वसंवेदनकाले
मुक्ति कारणं भवति स एवोपादेय इति भावार्थः ।।४१।।
अथ देहे वसन्तमपि हरिहरादयः परमसमाधेरभावादेव यं न जानन्ति स परमात्मा
मध्यमें वह ठहर रहा है, तो भी वह जगत्रूप नहीं है, ऐसा कहते हैं
गाथा४१
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस आत्मारामके [अभ्यन्तरे ] केवलज्ञानमें [जगत् ] संसार
[वसति ] बस रहा है, अर्थात् प्रतिबिम्बित हो रहा है, प्रत्यक्ष भास रहा है, [जगदभ्यन्तरे ]
और जगत्में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है
वह ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय है,
[जगति एव वसन्नपि ] संसारमें निवास करता हुआ भी [जगदेव नापि ] निश्चयनयकर किसी
जगत्की वस्तुसे तन्मय (उस स्वरूप) नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थको नेत्र देखते हैं,
तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, [तमेव ] उसीको
[परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] हे प्रभाकरभट्ट, तू जान
भावार्थ :जो शुद्ध, बुद्ध सर्वव्यापक सबसे अलिप्त, शुद्धात्मा है, उसे वीतराग
निर्विकल्प समाधिमें स्थिर होकर ध्यान कर जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार है,
उसका कारण वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप निजभाव ही उपादेय हैं ।।४१।।
आगे वह शुद्धात्मा यद्यपि देहमें रहता है, तो भी परमसमाधिके अभावसे हरिहरादिक
भावार्थःअहीं जे (शुद्ध आत्मा) केवळज्ञानादिनी व्यक्तिरूप, कार्यसमयसाररूप,
मुक्तिनुं वीतरागस्वसंवेदन काळमां कारण थाय छे, ते ज उपादेय छे एवो भावार्थ छे. ४१.
हवे, देहमां रहेलो होवा छतां पण, परम समाधिना अभावने कारणे हरिहर वगेरे
अधिकार-१ः दोहा-४१ ]परमात्मप्रकाशः [ ७३

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भवतीति कथयन्ति
४२) देहि वसंत वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति
परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।।४२।।
देहे वसन्तमपि हरिहरा अपि यं अद्यापि न जानन्ति
परमसमाधितपसा विना तं परमात्मानं भणन्ति ।।४२।।
परमात्मस्वभावविलक्षणे देहे अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन वसन्तमपि हरिहरा अपि
यमद्यापि न जानन्ति केन विना वीतरागनिर्विकल्पनित्यानन्दैकसुखामृतरसास्वाद-
रूपपरमसमाधितपसा तं परमात्मानं भणन्ति वीतरागसर्वज्ञा इति किं च पूर्वभवे कोऽपि जीवो
भेदाभेदरत्नत्रयाराधनां कृत्वा विशिष्टपुण्यबन्धं च कृत्वा पश्चादज्ञानभावेन निदानबन्धं च करोति
तदनन्तरं स्वर्गं गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिर्वासुदेवो भवति
अन्यः कोऽपि जिनदीक्षां
सरीखे भी जिसे प्रत्यक्ष नहीं जान सकते, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं
गाथा४२
अन्वयार्थ :[देहे ] परमात्मस्वभावसे भिन्न शरीरमें [वसन्तमपि ]
अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर बसता है, तो भी [यं ] जिसको [हरिहरा अपि ] हरिहर
सरीखे चतुर पुरुष [अद्य अपि ] अबतक भी [न जानन्ति ] नहीं जानते हैं
किसके बिना
[परमसमाधितपसा विना ] वीतरागनिर्विकल्प नित्यानंद अद्वितीय सुखरूप अमृतके रसके
आस्वादरूप परमसमाधिभूत महातपके बिना नहीं जानते, [तं ] उसको [परमात्मानं ] परमात्मा
[भणन्ति ] कहते हैं
भावार्थ :यहाँ किसीका प्रश्न है, कि पूर्वभवमें कोई जीव जिनदीक्षा धारणकर
व्यवहार निश्चयरूप रत्नत्रयकी आराधनाकर महान् पुण्यको उपार्जन करके अज्ञानभावसे
निदानबंध करनेके बाद स्वर्गमें उत्पन्न होता है, पीछे आकर मनुष्य होता है, वही तीन खंडका
स्वामी वासुदेव (हरि) कहलाता है, और कोई जीव इसी भवमें जिनदीक्षा लेकर समाधिके
पण जेने जाणता नथीते परमात्मा छे एम कहे छेः
भावार्थःअनुपचरित असद्भूतव्यवहारनयथी, परमात्मस्वभावथी, विलक्षण एवा
देहमां रहेलो होवा छतां जेने एक (केवळ) नित्यानंदरूप सुखामृतना रसास्वादरूप वीतराग
निर्विकल्प समाधिरूप, तप विना हरि-हर जेवा पण हजु सुधी जाणता नथी, तेने वीतरागसर्वज्ञ
देवो परमात्मा कहे छे.
७४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४२

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गृहीत्वाप्यत्रैव भवे विशिष्टसमाधिबलेन पुण्यबन्धं कृत्वा पश्चात्पूर्वकृतचारित्रमोहोदयेन विषयासक्तो
भूत्वा रुद्रो भवति
कथं ते परमात्मस्वरूपं न जानन्ति इति पूर्वपक्षः तत्र परिहारं ददाति
युक्त मुक्तं भवता, यद्यपि रत्नत्रयाराधनां कृतवन्तस्तथापि याद्रशेन
वीतरागनिर्विकल्परत्नत्रयस्वरूपेण तद्भवे मोक्षो भवति ताद्रशं न जानन्तीति अत्र यमेव
शुद्धात्मानं साक्षादुपादेयभूतं तद्भवमोक्षसाधकाराधनासमर्थं च ते हरिहरादयो न जानन्तीति य
एवोपादेयो भवतीति भावार्थः
।।४२।।
बलसे पुण्यबंध करता है, उसके बाद पूर्वकृत चारित्रमोहके उदयसे विषयोंमें लीन हुआ रुद्र
(हर) कहलाता है
इसलिये वे हरिहरादिक परमात्माका स्वरूप कैसे नहीं जानते ? इसका
समाधान यह है, कि तुम्हारा कहना ठीक है यद्यपि इन हरिहरादिक महान पुरुषोंने रत्नत्रयकी
आराधना की, तो भी जिस तरहके वीतराग-निर्विकल्प-रत्नत्रयस्वरूपसे तद्भव मोक्ष होता है,
वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुआ, सरागरत्नत्रय हुआ है, इसीका नाम व्यवहाररत्नत्रय है
सो यह तो हुआ, लेकिन शुद्धोपयोगरूप वीतरागरत्नत्रय नहीं हुआ, इसलिये वीतरागरत्नत्रयके
धारक उसी भवसे मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते
इसीलिये परमशुद्धोपयोगियोंकी अपेक्षा इनको नहीं जाननेवाले कहा गया है, क्योंकि जैसे
स्वरूपके जाननेसे साक्षात् मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते
यहाँपर सारांश यह
है, कि जिस साक्षात् उपादेय शुद्धात्माको तद्भव मोक्षके साधक महामुनि ही आराध सकते
हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चिंतवन करने योग्य है
।।४२।।
पूर्वपक्षःपूर्वभवमां कोई जीव भेदाभेदरत्नत्रयनी आराधना करीने, अने विशिष्ट
पुण्यबंध करीने पछी अज्ञानभावथी निदानबंध करे छे, त्यार पछी ते स्वर्गमां जईने फरी मनुष्य
थईने त्रण खंडनो अधिपति एवो वासुदेव थाय छे; बीजो कोई जीव जिनदीक्षा ग्रहीने पण
ते ज भवमां विशिष्ट समाधिना बळथी पुण्यबंध करीने, पछी पूर्वकृत चारित्रमोहना उदयथी
विषयासक्त थईने रुद्र थाय छे; तो पछी तेओ परमात्मस्वरूपने नथी जाणता
एम केम कहो
छो?
तेनुं समाधानःतमारुं कहेवुं योग्य छे. जो के ते हरि, हर जेवा प्रसिद्ध पुरुषोए
पूर्वे रत्नत्रयनी आराधना करेली छे तोपण, जेवा वीतराग निर्विकल्प रत्नत्रयस्वरूपथी ते ज भवे
मोक्ष थाय तेवा प्रकारे तेओ परमात्मस्वरूपने जाणता नथी.
अहीं साक्षात् उपादेयभूत अने ते ज भवे मोक्षनी साधक एवी आराधनामां
समर्थ, एवा जे शुद्ध आत्माने ते हरि-हरादि जाणता नथी, ते ज उपादेय छे एवो भावार्थ
छे. ४२.
अधिकार-१ः दोहा-४२ ]परमात्मप्रकाशः [ ७५

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अथोत्पादव्ययपर्यायार्थिकनयेन संयुक्तोऽपि यः द्रव्यार्थिकनयेन उत्पादव्ययरहितः स एव
परमात्मा निर्विकल्पसमाधिबलेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्ट इति निरूपयति
४३) भावाभावहिँ संजुवउ भावाभावहिँ जो जि
देहि जि दिट्ठउ जिणवरहिँ मुणि परमप्पउ सो जि ।।४३।।
भावाभावाभ्यां संयुक्त : भावाभावाभ्यां य एव
देहे एव द्रष्टः जिनवरैः मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।४३।।
भावाभावाभ्यां संयुक्त : पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययाभ्यां परिणतः, द्रव्यार्थिकनयेन
भावाभावयोः रहितः य एव वीतरागनिर्विकल्पसदानन्दैकसमाधिना तद्भवमोक्षसाधका-
आगे यद्यपि पर्यायार्थिकनयकर उत्पादव्ययकर सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर
उत्पादव्ययरहित है, सदा ध्रुव (अविनाशी) ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधिके बलसे
तीर्थंकरदेवोंने देहमें भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं :
गाथा४३
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [भावाभावाभ्यां ] व्यवहारनयकर यद्यपि उत्पाद और
व्ययकर [संयुक्त : ] सहित है तो भी द्रव्यार्थिकनयसे [भावाभावाभ्यां ] उत्पाद और विनाशसे
(‘‘रहितः’’) रहित है, तथा [जिनवरैः ] वीतरागनिर्विकल्प आनंदरूपसे समाधिकर तद्भव
मोक्षके साधक जिनवरदेवने [देहे अपि ] देहमें भी [
द्रष्टः ] देख लिया है, [तमेव ] उसीको
तूँ [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान, अर्थात वीतराग परमसमाधिके बलसे अनुभव कर
भावार्थ :जो परमात्मा कृष्ण, नील, कापोत, लेश्यारूप विभाव परिणामोंसे रहित
हवे जे पर्यायार्थिकनयथी उत्पादव्ययथी संयुक्त होवा छतां पण, द्रव्यार्थिकनयथी
उत्पादव्ययथी रहित छे, ते ज परमात्माने जिनवरे निर्विकल्प समाधिना बळथी देहमां पण देख्यो
छे एम कहे छेः
भावार्थःजे पर्यायार्थिकनयथी उत्पादव्ययरूपे (भावाभाव रूपे) परिणत छे
(परिणमेलो छे), द्रव्यार्थिकनयथी भावाभावथी (उत्पादव्ययथी) रहित छे अने ते ज भवे मोक्षनी
साधक एवी आराधनामां समर्थ एवी एक (केवळ) वीतराग, निर्विकल्प, सदानंदरूप समाधि
वडे जिनवरोए देहमां पण जेने देख्यो छे, ते परमात्माने ज तुं जाण अर्थात् वीतराग परम
समाधिना बळथी अनुभव.
७६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४३

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राधानासमर्थेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्टः तमेव परमात्मानं मन्यस्व जानीहि वीतरागपरम-
समाधिबलेनानुभवेत्यर्थः अत्र य एव परमात्मा कृष्णनीलकापोतलेश्यास्वरूपादिसमस्त-
विभावरहितेन शुद्धात्मोपलब्धिध्यानेन जिनवरैर्देहेऽपि द्रष्टः स एव साक्षादुपादेय इति
तात्पर्यार्थः ।।४३।।
अथ येन देहे वसता पञ्चेन्द्रियग्रामो वसति गतेनोद्वसो भवति स एव परमात्मा
भवतीति कथयति
४४) देहि वसंतेँ जेण पर इंदिय-गामु वसेइ
उव्वसु होइ गएण फु डु सो परमप्पु हवेइ ।।४४।।
देहे वसता येन परं इन्द्रियग्रामः वसति
उद्वसो भवति गतेन स्फु टं स परमात्मा भवति ।।४४।।
देहे वसता येन परं नियमेनेन्द्रियग्रामो वसति येनात्मना निश्चयेनातीन्द्रियस्वरूपेणापि-
शुद्धात्मकी प्राप्तिरूप ध्यानकर जिनवरदेवने देहमें देखा है, वही साक्षात् उपादेय है ।।४३।।
आगे देहमें जिसके रहनेसे पाँच इन्द्रियरूप गाँव बसता है, और जिसके निकलनेसे
पंचेन्द्रियरूप गाँव उजड़ हो जाता है, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं
गाथा४४
अन्वयार्थ :[येन परं देहे वसता ] जिसके केवल देहमें रहनेसे [इन्द्रियग्रामः ]
इन्द्रिय गाँव [वसति ] रहता है, [गतेन ] और जिसके परभवमें चले जानेपर [उद्धसः स्फु टं
भवति ] उजड़ निश्चयसे हो जाता है [स परमात्मा ] वह परमात्मा [भवति ] है
।।
भावार्थ :शुद्धात्मासे जुदी ऐसी देहमें बसते आत्मज्ञानके अभावसे ये इन्द्रियाँ अपने
अपने विषयोंमें (रूपादिमें) प्रवर्तती हैं, और जिसके चले जानेपर अपने अपने विषय-व्यापारसे
अहीं जे परमात्माने कृष्ण, नील, कापोतलेश्यास्वरूप आदि समस्त विभावथी रहित
शुद्धात्मानी उपलब्धिरूप ध्यानवडे जिनवरे देहमां पण देख्यो छे ते ज उपादेय छे एवो तात्पर्यार्थ
छे. ४३.
हवे देहमां जेना रहेवाथी पांच इन्द्रियरूप गाम वसे छे अने जेना जवाथी पांच
इन्द्रियरूप गाम उज्जड थाय छे, ते ज परमात्मा छे एम कहे छेः
भावार्थःदेहमां जे रहेतां नियमथी इन्द्रियगाम वसे छेनिश्चयनयथी अतीन्द्रिय
अधिकार-१ः दोहा-४४ ]परमात्मप्रकाशः [ ७७

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व्यवहारनयेन शुद्धात्मविपरीते देहे वसता स्पर्शनादीन्द्रियग्रामो वसति, स्वसंवित्त्यभावे
स्वकीयविषये प्रवर्तत इत्यर्थः
उद्वसो भवति गतेन स एवेन्द्रियग्रामो यस्मिन् भवान्तरगते
सत्युद्वसो भवति स्वकीयविषयव्यापाररहितो भवति स्फु टं निश्चितं स एवंलक्षण-
श्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा भवतीति
अत्र य एवातीन्द्रियसुखास्वादसमाधिरतानां मुक्ति -
कारणं भवति स एव सर्वप्रकारोपादेयातीन्द्रियसुखसाधकत्वादुपादेय इति भावार्थः ।।४४।।
अथ यः पञ्चेन्द्रियैः पञ्चविषयान् जानाति स च तैर्न ज्ञायते स परमात्मा भवतीति
निरूपयति
४५) जो णिय-करणहिँ पंचहिँ वि पंच वि विसय मुणेइ
मुणिउ ण पंचहिँ पंचहिँ वि सो परमप्पु हवेइ ।।४५।।
यः निजकरणैः पञ्चभिरपि पञ्चापि विषयान् जानाति
ज्ञातः न पञ्चभिः पञ्चभिरपि स परमात्मा भवति ।।४५।।
रुक जाती हैं, ऐसा चिदानन्द निज आत्मा वही परमात्मा है अतीन्द्रियसुखके आस्वादी
परमसमाधिमें लीन हुए मुनियोंको ऐसे परमात्माका ध्यान ही मुक्तिका कारण है , वही
अतीन्द्रियसुखका साधक होनेसे सब तरह उपादेय है
।।४४।।
आगे जो पाँच इन्द्रियोंसे पाँच विषयोंको जानता है, और आप इन्द्रियोंके गोचर नहीं
होता है, वही परमात्मा है, यह कहते हैं
गाथा४५
अन्वयार्थ :[यः ] जो आत्माराम शुद्धनिश्चयनयकर अतीन्द्रिय ज्ञानमय है तो भी
अनादि बंधके कारण व्यवहारनयसे इन्द्रियमय शरीरको ग्रहणकर [निजकरणैः पञ्चभिरपि ]
स्वरूपी होवा छतां पण जे आत्मा व्यवहारनयथी शुद्ध आत्माथी विपरीत देहमां रहेतां,
स्पर्शनादि इन्द्रियगाम वसे छे, अर्थात् स्वसंवेदनना अभावमां ते इन्द्रियो (स्पर्शनादि)
पोतपोताना विषयमां प्रवर्ते छे अने जे भवान्तरमां जतां ते इन्द्रियगाम उज्जड थाय छे अर्थात्
ते पोतपोताना विषयना व्यापारथी रहित थाय छे, ते निश्चयथी चिदानंद जेनो एक स्वभाव
छे एवो परमात्मा छे.
अहीं जे अतीन्द्रिय सुखना आस्वादरूप समाधिमां रत थयेलाओने मुक्तिनुं कारण छे,
ते ज (ते परमात्मा ज) सर्व प्रकारे उपादेयभूत अतीन्द्रिय सुखनो साधक होवाथी उपादेय छे,
एवो भावार्थ छे. ४४.
७८ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४५

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यो निजकरणैः पञ्चभिरपि पञ्चापि विषयान् मनुते जानाति तद्यथा यः कर्ता
शुद्धनिश्चयनयेनातीन्द्रियज्ञानमयोऽपि अनादिबन्धवशात् असद्भूतव्यवहारेणेन्द्रियमयशरीरं गृहीत्वा
स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थत्वात्पञ्चेन्द्रियैः कृत्वा पञ्चविषयान् जानाति, इन्द्रियज्ञानेन
परिणमतीत्यर्थः
पुनश्च कथंभूतः मुणिउ ण पंचहिं पंचहिं वि सो परमप्पु हवेइ मतो न
ज्ञातो न पञ्चभिरिन्द्रियैः पञ्चभिरपि स्पर्शादिविषयैः तथाहिवीतरागनिर्विकल्प-
स्वसंवेदनज्ञान-विषयोऽपि पञ्चेन्द्रियैश्च न ज्ञात इत्यर्थः स एवंलक्षणः परमात्मा भवतीति अत्र
य एव पञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादविपरीतेन वीतरागनिर्विकल्पपरमानन्दसमरसीभावसुख-
रसास्वादपरिणतेन समाधिना ज्ञायते स एवात्मोपादानसिद्धमित्यादिविशेषणविशिष्ट-
अपनी पाँचों इन्द्रियो द्वारा [पञ्चापि विषयान् ] रूपादि पाँचों ही विषयोंको जानता है, अर्थात्
इन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करके इन्द्रियोंसे रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शको जानता है, और आप
[पञ्चभिः ] पाँच इन्द्रियोंकर तथा [पञ्चभिरपि ] पाँचों विषयोंसे सो [मतो न ] नहीं जाना
जाता, अगोचर है, [स परमात्मा ] ऐसे लक्षण जिसके हैं, वही परमात्मा [भवति ] है
भावार्थ :पाँच इन्द्रियोंके विषयसुखके आस्वादसे विपरीत, वीतराग-निर्विकल्प
परमानन्द समरसीभावरूप, सुखके रसका आस्वादरूप, परमसमाधि करके जो जाना जाता है,
वही परमात्मा है, वह ज्ञानगम्य है, इन्द्रियोंसे अगम्य है, और उपादेयरूप अतीन्द्रिय सुखका
साधन अपना स्वभावरूप वही परमात्मा आराधने योग्य है
।।४५।।
हवे जे पांच इन्द्रियोवडे पांच विषयोने जाणे छे पण जे तेमना वडे (पांच इन्द्रियो
अने पांच विषयो वडे) जणातो नथी, ते परमात्मा छे एम कहे छेः
भावार्थःजे पोतानी पांच इन्द्रियो वडे पांच विषयोने जाणे छे, जे शुद्ध
निश्चयनयथी अतीन्द्रिय ज्ञानमय होवा छतां पण अनादिबंधना वशे असद्भूत व्यवहारथी
इन्द्रियमय शरीर ग्रहीने, स्वयं अर्थोने जाणवाने असमर्थ होवाथी पांच इन्द्रियो द्वारा पांच
विषयोने जाणे छे अर्थात् इन्द्रिय ज्ञानरूपे परिणमे छे, अने जे पांच इन्द्रियो अने पांच स्पर्शादि
विषयोथी जणातो नथी अर्थात् वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञाननो विषय होवा छतां पांच
इन्द्रियोथी (अने पांच विषयोथी) जणातो नथी, ते परमात्मा छे.
अहीं पंचेन्द्रियविषयना सुखना आस्वादथी विपरीत वीतराग, निर्विकल्प, परमानंदरूप,
समरसीभावमय सुखरसना आस्वादरूपे परिणत समाधि वडे, जे परमात्मा जणाय छे ते ज
‘‘
आत्मोपादानथी सिद्ध’’ इत्यादि विशेषणथी विशिष्ट, उपादेयभूत अतीन्द्रिय सुखनो साधक
१. आ श्लोक बीजा अधिकारमां गाथा-७नी टीकामां आवेल छे.
अधिकार-१ः दोहा-४५ ]परमात्मप्रकाशः [ ७९

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स्योपादेयभूतस्यातीन्द्रियसुखस्य साधकत्वादुपादेय इति भावार्थः ।।४५।।
अथ यस्य परमार्थेन बन्धसंसारौ न भवतस्तमात्मानं व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि इति
कथयति
४६) जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसारु
सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ।।४६।।
यस्य परमार्थेन बन्धो नैव योगिन् नापि संसारः
तं परमात्मानं जानीहि त्वं मनसि मुक्त्वा व्यवहारम् ।।४६।।
जसु परमत्थें बंधु णवि जोइय ण वि संसारु यस्य परमार्थेन बन्धो नैव हे योगिन्
नापि संसारः तद्यथायस्य चिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मनस्तद्विलक्षणो द्रव्यक्षेत्रकाल-
आगे जिसके निश्चयकर बंध नहीं हैं, और संसार भी नहीं है, उस आत्माको सब
लौकिकव्यवहार छोड़कर अच्छी तरह पहचानो, ऐसा कहते हैं
गाथा४६
अन्वयार्थ :[हे योगिन् ] हे योगी, [यस्य ] जिस चिदानन्द शुद्धात्माके
[परमार्थेन ] निश्चय करके [संसारः ] निज स्वभावसे भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप
पाँच प्रकार परिवर्तन (भ्रमण) स्वरूप संसार [नैव ] नहीं है, [बन्धोनापि ] और संसारके कारण
जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकारका बंध भी नहीं है
जो बंध केवलज्ञानादि
अनंतचतुष्टयको प्रगटतारूप मोक्ष-पदार्थसे जुदा है, [तं परमात्मनं ] उस परमात्माको [त्वं ]
तू [मनसि व्यवहारम् मुक्त्वा ] मनमेंसे सब लौकिक-व्यवहारको छोड़कर तथा
वीतरागसमाधिमें ठहरकर [जानीहि ] जान, अर्थात् चिन्तवन कर
भावार्थ :शुद्धात्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो संसार और संसारका कारण बंध इन
दोनोंसे रहित और आकुलतासे रहित ऐसे लक्षणवाला मोक्षका मूलकारण जो शुद्धात्मा है, वही
होवाथी उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ४५.
हवे जेने परमार्थथी बंध अने संसार नथी एवा आत्माने व्यवहार छोडीने जाण एम
कहे छेः
भावार्थःहे योगी! जेने परमार्थथी बंध पण नथी अने संसार पण नथीचिदानंद
जेनो एक स्वभाव छे एवा शुद्धात्माथी विलक्षण अने परमागम प्रसिद्ध द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव,
८० ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४६

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भवभावरूपः परमागमप्रसिद्धः पञ्चप्रकारः संसारो नास्ति, इत्थंभूतसंसारस्य कारण-
भूतप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नकेवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपमोक्षपदार्थाद्विलक्षणो
बन्धोऽपि नास्ति,
सो परमप्पउ जाणि तुहुं मणि मिल्लिवि ववहारु तमेवेत्थंभूतलक्षणं परमात्मानं
मनसि व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि, वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः
अत्र य एव
शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणेन संसारेण बन्धनेन च रहितः स एवानाकुलत्वलक्षणसर्व-
प्रकारोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकत्वादुपादेय इति तात्पर्यार्थः
।।४६।।
अथ यस्य परमात्मनो ज्ञानं वल्लीवत् ज्ञेयास्तित्वाभावेन निवर्तते न च शक्त्यभावेनेति
कथयति
४७) णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि
मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ।।४७।।
ज्ञेयाभावे वल्ली यथा तिष्ठति ज्ञानं वलित्वा
मुक्तानां यस्य पदे बिम्बितं परमस्वभावं भणित्वा ।।४७।।
सर्वथा आराधने योग्य है ।।४६।।
आगे जिस परमात्माका ज्ञान सर्वव्यापक है, ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो ज्ञानसे न
जाना जावे, सब ही पदार्थ ज्ञानमें भासते हैं, ऐसा कहते हैं
गाथा४७
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे मंडपके अभावसे [वल्लि ] बेल (लता) [तिष्ठति ]
ठहरती है, अर्थात् जहाँ तक मंडप है, वहाँ तक तो चढ़ती है और आगे मंडपका सहारा न
अने भावरूप पांच प्रकारनो संसार जेने नथी, तेमज आ प्रकारना संसारना (पंचविध) कारणरूप
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, अने प्रदेशना भेदथी भिन्न एवा केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टयनी
व्यक्तिरूप मोक्षपदार्थथी विलक्षण एवो बंध पण जेने नथी, ते परमात्माने मनमांथी व्यवहार
छोडीने जाण अर्थात् वीतराग निर्विकल्प समाधिमां स्थित थईने भाव.
अहीं शुद्ध आत्मानी अनुभूतिथी विलक्षण एवा संसार अने बंधथी जे रहित छे ते
ज, अनाकुळता जेनुं लक्षण छे एवा सर्व प्रकारे उपादेयभूत मोक्षसुखनो साधक होवाथी, उपादेय
छे एवो तात्पर्यार्थ छे. ४६.
हवे वेलनी जेम ते परमात्मानुं ज्ञान (अन्य) ज्ञेयना अस्तित्वना अभावथी अटकी जाय
छे, पण शक्तिनां अभावथी नहि एम कहे छेः
अधिकार-१ः दोहा-४७ ]परमात्मप्रकाशः [ ८१

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णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि ज्ञेयाभावे वल्लि यथा तथा ज्ञानं तिष्ठति
व्यावृत्येति यथा मण्डपाद्यभावे वल्ली व्यावृत्य तिष्ठति तथा ज्ञेयावलम्बनाभावे ज्ञानं व्यावृत्य
तिष्ठति न च ज्ञातृत्वशक्त्यभावेनेत्यर्थः कस्य संबन्धि ज्ञानम् मुक्कहं मुक्तात्मनां ज्ञानम्
कथंभूतम् जसु पय बिंबियउ यस्य भगवतः पदे परमात्मस्वरूपे बिम्बितं प्रतिफलितं तदाकारेण
परिणतम् कस्मात् परमसहाउ भणेवि परमस्वभाव इति भणित्वा मत्वा ज्ञात्वैवेत्यर्थः अत्र
यस्येत्थंभूतं ज्ञानं सिद्धसुखस्योपादेयस्याविनाभूतं स एव शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।४७।।
मिलनेसे चढ़नेसे ठहर जाती है, उसी तरह [मुक्तानां ] मुक्त-जीवोंका [ज्ञानं ] ज्ञान भी जहाँतक
ज्ञेय (पदार्थ) हैं, वहाँतक फै ल जाता है, [ज्ञेयाभावे ] और ज्ञेयका अवलम्बन न मिलनेसे
[बलेपि ? ] जाननेकी शक्ति होनेपर भी [तिष्ठति ] ठहर जाता है, अर्थात् कोई पदार्थ जाननेसे
बाकी नहीं रहता, सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सब भावोंको ज्ञान जानता है, ऐसे तीनलोक
सरीखे अनंते लोकालोक होवें, तो भी एकसमयमें ही जान लेवे, [यस्य ] जिस भगवान्
परमात्माके [पदे ] केवलज्ञानमें [परमस्वभावं ] अपना उत्कृष्ट स्वभाव सबके जाननेरूप
[बिम्बितं ] प्रतिभासित हो रहा है, अर्थात् ज्ञान सबका अंतर्यामि है, सर्वाकार ज्ञानकी परिणति
है, ऐसा [भणित्वा ] जानकर ज्ञानका आराधन करो
भावार्थ :जहाँ तक मंडप वहाँ तक ही बेल (लता) की बढ़वारी है, और जब
मंडपका अभाव हो, तब बेल स्थिर होके आगे नहीं फै लती, लेकिन बेलमें विस्तार-शक्तिका
अभाव नहीं कह सकते, इसी तरह सर्वव्यापक ज्ञान केवलीका है, जिसके ज्ञानमें सर्व पदार्थ
झलक ते हैं, वही ज्ञान आत्माका परमस्वभाव है, ऐसा जिसका ज्ञान है, वही शुद्धात्मा उपादेय
है
यह ज्ञानानंदरूप आत्माराम है, वही महामुनियोंके चित्तका विश्राम (ठहरनेकी जगह)
है ।।४७।।
भावार्थःजेवी रीते वेल मंडप वगेरेना अभावमां आगळ फेलाती अटकी जाय छे
तेवी रीते मुक्त आत्माओनुं ज्ञान ज्ञेयना अवलंबनना अभावमां अटकी जाय छे, पण
ज्ञातृत्वशक्तिना अभावथी नहि एवो अर्थ छे. जे भगवानना परमात्मस्वरूपमां ज्ञान बिंबित
थई रह्युं छे, तदाकारे परिणमी रह्युं छे; शा कारणे? परमस्वभावने जाणीने ए अर्थ छे.
अहीं जेनुं आवुं ज्ञान उपादेयभूत सिद्धसुखनी साथे अविनाभावी छे ते ज शुद्धात्मा
उपादेय छे, एवो भावार्थ छे. ४७.
१. आ गाथानी संस्कृत टीकानो अर्थ नहि समजातो होवाथी अन्वयार्थ हिंदीना आधारे कर्यो छे.
८२ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४७

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अथ यस्य कर्माणि यद्यपि सुखदुःखादिकं जनयन्ति तथापि स न जनितो न हृत
इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयति
४८) कम्महिँ जासु जणंतहिँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि
किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।।४८।।
कर्मभिः यस्य जनयद्भिरपि निजनिजकार्यं सदापि
किमपि न जनितो हृतः नैव तं परमात्मानं भावय ।।४८।।
कर्मभिर्यस्य जनयद्भिरपि किम् निजनिजकार्यं सदापि तथापि किमपि न जनितो
हृतश्च नैव तं परमात्मानं भावयत यद्यपि व्यवहारनयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रतिबन्धकानि कर्माणि
आगे जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे यद्यपि सुख-दुखादिको उपजाते हैं, तो भी वह आत्मा
किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ, किसीने बनाया नहीं, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते
हैं
गाथा४८
अन्वयार्थ :[कर्मभिः ] ज्ञानावरणादि कर्म [सदापि ] हमेशा [निजनिजकार्यं ]
अपने अपने सुख-दुःखादि कार्यको [जनयद्भिरपि ] प्रगट करते हैं,तो भी शुद्ध निश्चयनयकर
[यस्य ] जिस आत्माका [किमपि ] कुछ भी अर्थात् अनंतज्ञानादिस्वरूप [न जनितः ] न तो
नया पैदा किया और [नैव हृतः ] न विनाश किया, और न दूसरी तरहका किया, [तं ] उस
[परमात्मानं ] परमात्माको [भावय ] तू चिंतवन कर
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे शुद्धात्मस्वरूपके रोकनेवाले ज्ञानावरणादिकर्म
अपने अपने कार्यको करते हैं, अर्थात् ज्ञानावरण तो ज्ञानको ढँकता है, दर्शनावरणकर्म
दर्शनको आच्छादन करता है, वेदनीय साता-असाता उत्पन्न करके अतीन्द्रियसुखको घातता
है, मोहनीय सम्यक्त्व तथा चारित्रको रोकता है, आयुकर्म स्थितिके प्रमाण शरीरमें राखता
है, अविनाशी भावको प्रगट नहीं होने देता, नामकर्म नाना प्रकार गति जाति शरीरादिकको
हवे कर्मो जोके तेने सुखदुःखादिक उपजावे छे तो पण ते परमात्मा (तेनाथी) उत्पन्न
करातो नथी, के नाश करातो नथी एवो अभिप्राय मनमां राखीने सूत्र कहे छेः
भावार्थःजो के व्यवहारनयथी शुद्धात्मस्वरूपना प्रतिबंधक कर्मो सुख-दुःखादिक
अधिकार-१ः दोहा-४८ ]परमात्मप्रकाशः [ ८३

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सुखदुःखादिकं निजनिजकार्यं जनयन्ति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन अनन्तज्ञानादिस्वरूपं न हृतं न
विनाशितं न चाभिनवं जनितमुत्पादितं किमपि यस्यात्मनस्तं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ
स्थित्वा भावयेत्यर्थः
अत्र यदेव कर्मभिर्न हृतं न चोत्पादितं चिदानन्दैकस्वरूपं तदेवोपादेयमिति
तात्पर्यार्थः ।।४८।।
अथ यः कर्मनिबद्धोऽपि कर्मरूपो न भवति कर्मापि तद्रूपं न संभवति तं परमात्मानं
भावयेति कथयति
४९) कम्म-णिबद्धु वि होइ णवि जो फु डु कम्मु कया वि
कम्मु वि जो ण कया वि फु डु सो परमप्पउ भावि ।।४९।।
उपजाता है, गोत्रकर्म ऊँ च नीच गोत्रमें डाल देता है, और अन्तरायकर्म अनंत (बल) को
प्रगट नहीं होने देता
इस प्रकार ये कार्यको करते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर आत्माका
अनंतज्ञानादिस्वरूपका इन कर्मोंने न तो नाश किया, और न नया उत्पन्न किया,
आत्मा तो जैसा है वैसा ही है
ऐसे अखंड परमात्माको तू वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें
स्थिर होकर ध्यान कर यहाँ पर यह तात्पर्य है, कि जो जीवपदार्थ कर्मोंसे न हरा
गया, न उपजा, किसी दूसरी तरह नहीं किया गया, वही चिदानन्दस्वरूप उपादेय
है
।।४८।।
इसके बाद जो आत्मा कर्मोंसे अनादिकालका बँधा हुआ है, तो भी कर्मरूप नहीं होता,
और कर्म भी आत्मस्वरूप नहीं होते आत्मा चैतन्य है, कर्म जड़ हैं, ऐसा जानकर उस
परमात्माका तू ध्यान कर, ऐसा कहते हैं
पोतपोतानां कार्यने उत्पन्न करे छे, तोपण शुद्ध निश्चयनयथी जे आत्मानुं अनंतज्ञानादि स्वरूप
जरा पण विनाश पामतुं नथी के नवुं उत्पन्न थतुं नथी, ते परमात्माने वीतराग निर्विकल्प
समाधिमां स्थित थईने भाव एवो अर्थ छे.
अहीं जे एक (केवळ) चिदानंदस्वरूप कर्मोथी हणातुं नथी, तेमज उत्पन्न करातुं नथी,
ते ज उपादेय छे, एवो तात्पर्यार्थ छे. ४८.
हवे जे कर्मथी बंधायो होवा छतां पण कर्मरूप थतो नथी अने कर्म पण ते रूप
थतुं नथी, ते परमात्माने भाव एम कहे छेः
८४ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-४९

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कर्मनिबद्धोऽपि भवति नैव यः स्फु टं कर्म कदापि
कर्मापि यो न कदापि स्फु टं तं परमात्मानं भावय ।।४९।।
कम्मणिबद्धु वि होइ णवि जो फु डु कम्मु कया वि कर्मनिबद्धोऽपि भवति नैव यः
स्फु टं निश्चितम् किं न भवति कर्म कदाचिदपि तथाहियः कर्ता शुद्धात्मोप-
लम्भाभावेनोपार्जितेन ज्ञानावरणादिशुभाशुभकर्मणा व्यवहारेण बद्धोऽपि शुद्धनिश्चयेन कर्मरूपो न
भवति
केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपं त्यक्त्वा कर्मरूपेण न परिणमतीत्यर्थः पुनश्च किंविशिष्टः
कम्मु वि जो ण कया वि फु डु कर्मापि यो न कदापि स्फु टं निश्चितम् तद्यथा
ज्ञानावरणादिद्रव्यभावरूपं कर्मापि कर्तृभूतं यः परमात्मा न भवति स्वकीयकर्मपुद्गलस्वरूपं विहाय
गाथा४९
अन्वयार्थ :[यः ] जो चिदान्द आत्मा [कर्मनिबद्धोऽपि ] ज्ञानावरणादिकर्मोंसे बँधा
हुआ होनेपर भी [कदाचिदपि ] कभी भी [कर्म नैव स्फु टं ] कर्मरूप निश्चयसे नहीं [भवति ]
होता, [कर्म अपि ] और कर्म भी [यः ] जिस परमात्मरूप [कदाचिदपि स्फु टं ] कभी भी
निश्चयकर [न ] नहीं होते, [तं ] उस पूर्वोक्त लक्षणोंवाले [परमात्मानं ] परमात्माको तू
[भावय ] चिंतवन कर
भावार्थ :जो आत्मा अपने शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिके अभावसे उत्पन्न किये
ज्ञानावरणादि शुभ-अशुभ कर्मोंसे व्यवहारनयकर बँधा हुआ है, तो भी शुद्धनिश्चयनयसे कर्मरूप
नहीं है, अर्थात् केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूपको छोड़कर कर्मरूप नहीं परिणमता,
और ये ज्ञानावरणादि द्रव्य
- भावरूप कर्म भी आत्मस्वरूप नहीं परिणमते, अर्थात् अपने जड़रूप
पुद्गलपनेको छोड़कर चैतन्यरूप नहीं होते, यह निश्चय है, कि जीव तो अजीव नहीं होता,
और अजीव है, वह जीव नहीं होता
ऐसी अनादिकालकी मर्यादा है इसलिये कर्मोंसे भिन्न
भावार्थःजे कर्मथी बंधायेल होवा छतां निश्चयथी कदीपण कर्मरूप थतो नथी, जे
शुद्धात्मानी प्राप्तिना अभावथी उपार्जित ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मथी व्यवहारे बंधायेलो होवा
छतां पण शुद्ध निश्चयनयथी कर्मरूप थतो नथी, अर्थात् केवळज्ञानादि अनंत गुणस्वरूप छोडीने
कर्मरूप परिणमतो नथी, अने कर्म पण निश्चयथी कदी पण जे-रूप थतुं नथी, ते आ प्रमाणेः
ज्ञानावरणादि द्रव्य-भावरूप कर्म पण कर्ता थईने परमात्मारूप थतुं नथी अर्थात् स्वकीय
कर्मपुद्गलस्वरूप छोडीने परमात्मारूपे परिणमतुं नथी, ते परमात्माने तुं भाव.
देह-रागादि परिणतिरूप बहिरात्माने छोडीने, शुद्धात्म परिणतिनी भावनारूप
अन्तरात्मामां स्थित थईने, सर्वप्रकारे उपादेयभूत विशुद्धज्ञान अने विशुद्धदर्शन जेनो स्वभाव
अधिकार-१ः दोहा-४९ ]परमात्मप्रकाशः [ ८५

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परमात्मरूपेण न परिणमतीत्यर्थः सो परमप्पउ भावि तमेवंलक्षणं परमात्मानं भावय
देहरागादिपरिणतिरूपं बहिरात्मानं मुक्त्वा शुद्धात्मपरिणतिभावनारूपेऽन्तरात्मनि स्थित्वा
सर्वप्रकारोपादेयभूतं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमात्मानं भावयेति भावार्थः
।।४९।। एवं
त्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये यथा निर्मलो ज्ञानमयो व्यक्ति रूपः शुद्धात्मा सिद्धौ
तिष्ठति, तथाभूतः शुद्धनिश्चयेन शक्ति रूपेण देहेऽपि तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन
चतुर्विंशतिसूत्राणि गतानि
।।
अत उर्ध्वं स्वदेहप्रमाणव्याख्यानमुख्यत्वेन षट्सूत्राणि कथयन्ति तद्यथा
५०) कि वि भणंति जिउ सव्वगउ जिउ जडु के वि भणंति
कि वि भणंति जिउ देह-समु सुण्णु वि के वि भणंति ।।५०।।
केऽपि भणन्ति जीवं सर्वगतं जीवं जडं केऽपि भणन्ति
केऽपि भणन्ति जीवं देहसमं शून्यमपि केऽपि भणन्ति ।।५०।।
ज्ञान-दर्शनमयी सब तरह उपादेयरूप (आराधने योग्य) परमात्माको तुम देह रागादि परिणतिरूप
बहिरात्मपनेको छोड़कर शुद्धात्मपरिणतिकी भावनारूप अन्तरात्मामें स्थिर होकर चिन्तवन करो,
उसीका अनुभव करो, ऐसा तात्पर्य हुआ
।।४९।।
ऐसे तीन प्रकार आत्माके कहनेवाले पहले महाधिकारके पाँचवे स्थलमें जैसा निर्मल
ज्ञानमयी प्रगटरूप शुद्धात्मा सिद्धलोकमें विराजमान है, वैसा ही शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूपसे
देहमें तिष्ठ रहा है, ऐसे कथनकी मुख्यतासे चौबीस दोहा-सूत्र कहे गये
इससे आगे छह दोहा
-सूत्रोंमें आत्मा व्यवहारनयकर अपनी देहके प्रमाण है, यह कह सकते हैं :
गाथा५०
अन्वयार्थ :[केऽपि ] कोई नैयायिक, वेदान्ती और मीमांसक-दर्शनवाले [जीवं ]
छे, एवा परमात्माने तुं भाव एवो भावार्थ छे. ४९.
ए प्रमाणे त्रण प्रकारना आत्माना प्रतिपादक प्रथम महाधिकारमां, जेवो निर्मळ
ज्ञानमय व्यक्तिरूपे शुद्ध आत्मा सिद्धमां बिराजे छे, तेवो ज शुद्ध आत्मा शुद्ध निश्चयनयथी
शक्तिरूपे देहमां पण बिराजे छे, एवा व्याख्याननी मुख्यताथी चोवीस सूत्रो समाप्त थयां.
त्यारपछी (आत्मा) पोताना देह जेवडो छे एवा कथननी मुख्यताथी छ सूत्रो कहे छे.
ते आ प्रमाणेः
८६ ]
योगीन्दुदेवविरचितः
[ अधिकार-१ः दोहा-५०