Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 101-115 (Adhikar 1).

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adhikAr-1 dohA-101 ]paramAtmaprakAsha [ 167
आत्मस्वभावः कर्मतापन्नो, लघु शीघ्रम् न केवलमात्मस्वभावो द्रश्यते लोयालोउ असेसु
लोकालोकस्वरूपमप्यशेषं द्रश्यत इति अत्र विशेषेण पूर्वसूत्रोक्त मेव व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञातव्यं
यस्मात्तस्यैव वृद्धमतसंवादरूपत्वादिति भावार्थः ।।१००।।
अतोऽमुमेवार्थं द्रष्टान्तद्रार्ष्टान्ताभ्यां समर्थयति
१०१) अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अंबरि रविराउ
जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु-सहाउ ।।१०१।।
आत्मा प्रकाशयति आत्मानं परं यथा अम्बरे रविरागः
योगिन् अत्र मा भ्रान्तिं कुरु एष वस्तुस्वभावः ।।१०१।।
अप्पु पयासइ आत्मा कर्ता प्रकाशयति कम् अप्पु परु आत्मानं परं च यथा कः
किं प्रकाशयति जिमु अंबरि रविराउ यथा येन प्रकारेण अम्बरे रविरागः जोइय एत्थु म
भंति करि एहउ वत्थुसहाउ हे योगिन् अत्र भ्रांतिं मा कार्षीः, एष वस्तुस्वभावः इति तद्यथा
यह हैं, कि अपना स्वभाव शीघ्र दिख जाता है, और स्वभावके देखनेसे समस्त लोक भी दिखता
है
यहाँ पर भी विशेष करके पूर्व सूत्रकथित चारों तरहका व्याख्यान जानना चाहिये, क्योंकि
यही व्याख्यान बड़े-बड़े आचार्योंने माना है ।।१००।।
आगे इसी अर्थको दृष्टातदार्ष्टान्तसे दृढ़ करते हैं
गाथा१०१
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [अंबरे ] आकाश में [रविरागः ] सूर्यका प्रकाश
अपनेको और परको प्रकाशित करता है, उसी तरह [आत्मा ] आत्मा [आत्मानं ] अपनेको
[परं ] पर पदार्थोंको [प्रकाशयति ] प्रकाशता है, सो [योगिन् ] हे योगी [अत्र ] इसमें [भ्रान्तिं
मा कुरु ] भ्रम मत कर
[एष वस्तुस्वभावः ] ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है
भावार्थ :जैसे मेघ रहित आकाशमें सूर्यका प्रकाश अपनेको और परको प्रकाशता
है, उसी प्रकार वीतरागनिर्विकल्प समाधिरूप कारणसमयसारमें लीन होकर मोहरूप मेघ-
समूहका नाश करके यह आत्मा मुनि अवस्थामें वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर अपनेको और परको
bhAvArthajevI rIte vAdaLAn vinAnA (nirmaL) AkAshamAn sUryano prakAsh potAne
ane parane prakAshe chhe tevI rIte vItarAg nirvikalpa samAdhirUp kAraNasamayasAramAn sthit thaIne,

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168 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-102
यथानिर्मेघाकाशे रविरागो रविप्रकाशः, स्वं परं च प्रकाशयति तथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपे
कारणसमयसारे स्थित्वा मोहमेघपटले विनष्टे सति परमात्मा छद्मस्थावस्थायां
वीतरागभेदभावनाज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष पश्चादर्हदवस्थारूपकार्यसमयसाररूपेण
परिणम्य केवलज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष आत्मवस्तुस्वभावः संदेहो नास्तीति
अत्र
योऽसौ केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपः कार्यसमयसारः स एवोपादेय इत्यभिप्रायः ।।१०१।।
अथास्मिन्नेवार्थे पुनरपि व्यक्त्यर्थं द्रष्टान्तमाह
१०२) तारायणु जलि बिंबियउ णिम्मलि दीसइ जेम
अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम ।।१०२।।
तारागणः जले बिम्बितः निर्मले द्रश्यते यथा
आत्मनि निर्मले बिम्बितं लोकालोकमपि तथा ।।१०२।।
कुछ प्रकाशित करता है, पीछे अरहंत अवस्थारूप कार्यसमयसार स्वरूप परिणमन करके
केवलज्ञानसे निज और परको सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे प्रकाशता है
यह आत्म-वस्तुका
स्वभाव है, इसमें संदेह नहीं समझना इस जगह ऐसा सारांश है, कि जो केवलज्ञान,
केवलदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यरूप, कार्यसमयसार है, वही आराधने योग्य है ।।१०१।।
गाथा१०२
आगे इसी अर्थको फि र भी खुलासा करनेके लिये दृष्टान्त देकर कहते हैं
अन्वयार्थ :[यथा ] जैसे [तारागणः ] ताराओंका समूह [निर्मले जले ] निर्मल
जलमें [बिम्बितः ] प्रतिबिम्बित हुआ [दृश्यते ] प्रत्यक्ष दिखता है, [तथा ] उसी तरह [निर्मले
आत्मनि ] मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित स्वच्छ आत्मामें [लोकालोकं अपि ] समस्त
लोक-अलोक भासते हैं
moharUpI meghapaTalano nAsh thatAn, paramAtmA chhadmastha-avasthAmAn vItarAg bhedabhAvanArUp gnAn
vaDe sva ane parane prakAshe chhe, pachhI arhant-avasthArUp kAryasamayasArarUpe pariNamIne
kevaLagnAnathI sva ane parane prakAshe chhe. evo Atmavastuno svabhAv chhe emAn sandeh nathI.
ahIn, kevaLagnAnAdi anant chatuShTayanI vyaktirUp je kAryasamayasAr chhe te ja upAdey chhe,
evo abhiprAy chhe. 101.
have, pharI A ja arthane spaShTa karavA mATe draShTAnt kahe chhe

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adhikAr-1 dohA-103 ]paramAtmaprakAsha [ 169
तारायणु जलि बिंबियउ तारागणो जले बिम्बितः प्रतिफलितः कथंभूते जले
णिम्मलि दीसइ जेम निर्मले द्रश्यते यथा द्रार्ष्टान्तमाह अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ
वि तेम आत्मनि निर्मले मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहिते बिम्बितं लोकालोकमपि तथा द्रश्यत
इति अत्र विशेषव्याख्यानं यदेव पूर्वद्रष्टान्तसूत्रे व्याख्यानमत्रापि तदेव ज्ञातव्यम् कस्मात्
अयमपि तस्य द्रष्टान्तस्य द्रढीकरणार्थमिति सूत्रतात्पर्यार्थः ।।१०२।।
अथात्मा परश्च येनात्मना ज्ञानेन ज्ञायते तमात्मानं स्वसंवेदनज्ञानबलेन जानीहीति
कथयति
१०३) अप्पु वि परु वि वियाणइ जेँ अप्पेँ मुणिएण
सो णिय-अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाण-बलेण ।।१०३।।
आत्मापि परः अपि विज्ञायते येन आत्मना विज्ञातेन
तं निजात्मानं जानीहि त्वं योगिन् ज्ञानबलेन ।।१०३।।
bhAvArthaahIn pUrvadraShTAntasUtramAn je visheSh vyAkhyAn kahyun hatun te ja vyAkhyAn
ahIn paN jANavun, kAraN ke A sUtra paN te draShTAntane draDh karavA arthe chhe evo sUtrano
tAtparyArtha chhe. 102.
have, je AtmAne jANatAn sva ane par jaNAy chhe te AtmAne tun svasamvedanarUp gnAnanA
baL vaDe jAN, em kahe chhe
भावार्थ :इसका विशेष व्याख्यान जो पहले कहा था, वही यहाँ पर जानना अर्थात्
जो सबका ज्ञाता द्रष्टा आत्मा है, वही उपादेय है यह सूत्र भी पहले कथनको दृढ़ करनेवाला
है ।।१०२।।
आगे जिस आत्माके जाननेसे निज और पर सब पदार्थ जाने जाते हैं, उसी आत्माको
तू स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे जान, ऐसा कहते हैं
गाथा१०३
अन्वयार्थ :[येन आत्मना विज्ञातेन ] जिस आत्माको जाननेसे [आत्मा अपि ]
आप और [परः अपि ] पर सब पदार्थ [विज्ञायते ] जाने जाते हैं, [तं निजात्मानं ] उस अपने
आत्माको [योगिन् ] हे योगी [त्वं ] तू [ज्ञानबलेन ] आत्मज्ञानके बलसे [जानीहि ] जान
1. pAThAntaraबिम्बितं = बिम्बितं प्रतिबिंबितं

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170 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-104
अप्पु वि परु वि वियाणियइ जें अप्पें मुणिएण आत्मापि परोऽपि विज्ञायते येन
आत्मना विज्ञातेन सो णिय अप्पा जाणि तुहुं तं निजात्मानं जानीहि त्वम् जोइय णाणबलेण
हे योगिन्, केन कृत्वा जानीहि ज्ञानबलेनेति अयमत्रार्थः वीतरागसदानन्दैकस्वभावेन
येनात्मना ज्ञातेन स्वात्मा परोऽपि ज्ञायते तमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानभावना-
समुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादेन जानीहि तन्मयो भूत्वा सम्यगनुभवेति भावार्थः
।।१०३।।
अतः कारणात् ज्ञानं पृच्छति
१०४) णाणु पयासहि परमु महु किं अण्णेँ बहुएण
जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्क-खणेण ।।१०४।।
ज्ञानं प्रकाशय परमं मम किं अन्येन बहुना
येन निजात्मा ज्ञायते स्वामिन् एकक्षणेन ।।१०४।।
भावार्थ :यहाँ पर यह है, कि रागादि विकल्प-जालसे रहित सदा आनंद स्वभाव
जो निज आत्मा उसके जाननेसे निज और पर सब जाने जाते हैं, इसलिये हे योगी, हे ध्यानी,
तू उस आत्माको वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे उत्पन्न परमानंद सुखरसके
आस्वादसे जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर
स्वसंवेदन ज्ञान (आपकर अपनेके अनुभव
करना) ही सार है ऐसा उपदेश श्री योगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टको दिया ।।१०३।।
अब प्रभाकरभट्ट महान् विनयसे ज्ञानका स्वरूप पूछता है
गाथा१०४
अन्वयार्थ :[स्वामिन् ] हे भगवान् [येन ज्ञानेन ] जिस ज्ञानसे [एकक्षणेन ]
क्षणभरमें [निजात्मा ] अपनी आत्मा [ज्ञायते ] जानी जाती है, वह [परमं ज्ञानं ] परम ज्ञान
[मम ] मेरे [प्रकाशय ] प्रकाशित करो, [अन्येन बहुना ] और बहुत विकल्प-जालोंसे [किं ]
क्या फायदा ? कुछ भी नहीं
bhAvArthavItarAg sadAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA je AtmAne jANatAn,
svAtmA ane par paN jaNAy chhe te AtmAne vItarAganirvikalpa svasamvedanarUp gnAnanI bhAvanAthI
utpanna paramAnandarUp sukharasanA AsvAd vaDe tun jAN-tanmay thaIne samyag anubhav e bhAvArtha
chhe. 103.
e kAraNe prabhAkarabhaTTa (mahAvinayathI) gnAnanun svarUp pUchhe chhe

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adhikAr-1 dohA-105 ]paramAtmaprakAsha [ 171
णाणु पयासहि परमु महु ज्ञानं प्रकाशय परमं मम किं अण्णे बहुएण किमन्येन
ज्ञानरहितेन बहुना जेण णियप्पा जाणियइ येन ज्ञानेन निजात्मा ज्ञायते, सामिय एक्कखणेण
हे स्वामिन् नियतकालेनैकक्षणेनेति तथाहि प्रभाकरभट्टः पृच्छति किं पृच्छति हे भगवन्
येन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन क्षणमात्रेणैव शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्मा ज्ञायते तदेव ज्ञानं
कथय किमन्येन रागादिप्रवर्धकेन विकल्पजालेनेति
अत्र येनैव ज्ञानेन मिथ्यात्वरागादि-
विकल्परहितेन निजशुद्धात्मसंवित्तिरूपेणान्तर्मुहूर्तेनैव परमात्मस्वरूपं ज्ञायते तदेवोपादेयमिति
तात्पर्यार्थः
।।१०४।।
अत उर्ध्वं सूत्रचतुष्टयेन ज्ञानस्वरूपं प्रकाशयति
१०५) अप्पा णाणु मुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु
जीवपएसहिँ तित्तिडउ णाणेँ गयणपवाणु ।।१०५।।
आत्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानम्
जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ।।१०५।।
भावार्थ :प्रभाकर भट्ट श्रीयोगीन्द्रदेवसे पूछता है, कि हे स्वामी जिस
वीतरागस्वसंवेदनकर ज्ञानकर क्षणमात्रमें शुद्ध, बुद्ध स्वभाव अपनी आत्मा जानी जाती है, वह
ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालोंसे कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक
विभावोंके बढ़ानेवाले हैं
सारांश यह है कि मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित तथा निज शुद्ध
आत्मानुभवरूप जिस ज्ञानसे अंतर्मुहूर्तमें ही परमात्माका स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान उपादेय
है
ऐसी प्रार्थना शिष्यने श्रीगुरुसे की ।।१०४।।
आगे श्रीगुरु चार दोहा-सूत्रोंसे ज्ञानका स्वरूप प्रकाशते हैंश्रीगुरु कहते हैं, कि
गाथा१०५
हे प्रभाकर भट्ट, [त्वं ] तू [आत्मानं ] आत्माको ही [ज्ञानं ] ज्ञान [मन्यस्व ] जान,
bhAvArthaprabhAkarabhaTTa shrIyogIndradevane pUchhe chhe ke he bhagavAn! vItarAg-
svasamvedanarUp gnAnathI kShaNamAtramAn ja shuddha, buddha jeno ek svabhAv chhe evo nij AtmA jaNAy
chhe te ja gnAnano upadesh karo, anya rAgAdivardhak vikalpajALathI shun prayojan chhe?
ahIn mithyAtvarAgAdivikalpathI rahit, nijashuddhaAtmAnI samvittirUp je gnAn vaDe
paramAtmAnun svarUp jaNAy chhe te ja gnAn upAdey chhe, evo tAtparyArtha chhe. 104.
tyAr pachhI chAr gAthA sUtrothI shrI guru gnAnanun svarUp prakAshe chhe.

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172 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-105
अप्पा णाणु मुणेहि तुहुं प्रभाकरभट्ट आत्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वम् यः किं करोति
जो जाणइ अप्पाणु यः कर्ता जानाति कम् आत्मानम् किंविशिष्टम् जीवपएसहिं
तित्तिडउ जीवप्रदेशैस्तावन्मात्रं लोकमात्रप्रदेशम् अथवा पाठान्तरम् ‘जीवपएसहिं देहसमु’
तस्यार्थो निश्चयेन लोकमात्रप्रदेशोऽपि व्यवहारेणैव संहारविस्तारधर्मत्वाद्देहमात्रः पुनरपि
कथंभूतम् आत्मानं णाणें गयणपवाणु ज्ञानेन कृत्वा व्यवहारेण गगनमात्रं जानीहीति तद्यथा
निश्चयनयेन मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानपञ्चकादभिन्नं व्यवहारेण ज्ञानापेक्षया
रूपावलोकनविषये
द्रष्टिवल्लोकालोकव्यापकं निश्चयेन लोकमात्रासंख्येयप्रदेशमपि व्यवहारेण
स्वदेहमात्रं तमित्थंभूतमात्मानम् आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्वरूपप्रभृतिसमस्तविकल्पक ल्लोलजालं
[यः ] जो ज्ञानरूप आत्मा [आत्मानम् ] अपनेको [जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं ] अपने प्रदेशोंसे
लोक-प्रमाण [ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ] ज्ञानसे व्यवहारनयकर आकाश-प्रमाण [जानाति ] जानता
है
भावार्थ :निश्चयनयकर मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल इन पाँच ज्ञानोंसे अभिन्न
तथा व्यवहारनयसे ज्ञानकी अपेक्षारूप देखनेमें नेत्रोंकी तरह लोक-अलोकमें व्यापक है अर्थात्
जैसे आँख रूपी पदार्थोंको देखती हैं, परंतु उन स्वरूप नहीं होती, वैसे ही आत्मा यद्यपि लोक-
अलोकको जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है,
ज्ञानकर ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चयसे प्रदेशोंकर लोक-प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी
व्यवहारनयकर अपने देह-प्रमाण है, ऐसे आत्माको जो पुरुष आहार, भय, मैथुन परिग्रहरूप
चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्पकी तरंगोंको छोड़कर जानता है, वही पुरुष ज्ञानसे
अभिन्न होनेसे ज्ञान कहा जाता है
आत्मा और ज्ञानमें भेद नहीं है, आत्मा ही ज्ञान है यहाँ
सारांश यह है, कि निश्चयनयकरके पाँच प्रकारके ज्ञानोंसे अभिन्न अपने आत्माको जो ध्यानी
bhAvArthanishchayanayathI (AtmA) matignAn, shrutagnAn, avadhignAn, manaparyayagnAn,
kevaLagnAn e pAnch gnAnathI abhinna chhe. jevI rIte Ankh rUp dekhavAnA viShayamAn ek prakAre
(vyavahAranayathI) vyApak kahevAy chhe tevI rIte, vyavahAranayathI gnAnanI apekShAe lokAlok vyApak
chhe, nishchayathI lok jeTalo asankhyAt pradeshI chhe, vyavahArathI svadehapramAN chhe
AvA AtmAne
AhAr-bhay-maithun-parigrahasangnAsvarUpathI mAnDIne samasta vikalpajALano tyAg karIne je jANe chhe
te puruSh ja gnAnathI abhinna hovAthI gnAn kahevAy chhe.
ahIn, nishchayanayathI A ja pAnch gnAnathI abhinna AtmAne je dhyAtA jANe chhe tene
ja upAdey jANo, evo bhAvArtha chhe. (shrI samayasAr gAthA 204mAn) kahyun paN chhe ke

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adhikAr-1 dohA-106 ]paramAtmaprakAsha [ 173
त्यक्त्वा जानाति यः स पुरुष ज्ञानादभिन्नत्वाज् ज्ञानं भण्यत इति अत्रायमेव निश्चयनयेन
पञ्चज्ञानादभिन्नमात्मानं जानात्यसौ ध्याता तमेवोपादेयं जानीहीति भावार्थः तथा चोक्त म्
‘‘आभिणिबोहिय सुदोधिमणकेवल च तं होदि एगमेव पदं सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं
णिव्वुदिं गादि ।।’’ ।।१०५।।
१०६) अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु
ते तुहुँ तिण्णि वि परिहरिवि णियमिँ अप्पु वियाणु ।।१०६।।
आत्मनः ये अपि विभिन्नाः वत्स तेऽपि भवन्ति न ज्ञानम्
तान् त्वं त्रीण्यपि परिहृत्य नियमेन आत्मानं विजानीहि ।।१०६।।
अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ आत्मनः सकाशाद्येऽपि भिन्नाः वत्स ते वि हवंति
जानता है, उसी आत्माको तू उपादेय जान ऐसा ही सिद्धांतोंमें हरएक जगह कहा है
‘‘आभिणि’’ इत्यादि इसका अर्थ यह है, कि मति श्रुत अवधि मनःपर्यय केवलज्ञान ये पाँच
प्रकारके सम्यग्ज्ञान एक आत्माके ही स्वरूप हैं, आत्माके बिना ये ज्ञान नहीं हो सकते, वह
आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर वह जीव निर्वाणको पाता है
।।१०५।।
आगे परभावका निषेध करते हैं
गाथा१०६
अन्वयार्थ :[वत्स ] हे शिष्य, [आत्मनः ] आत्मा से [ये अपि भिन्नाः ] जो जुदे
भाव हैं, [तेऽपि ] वे भी [ज्ञानम् न भवंति ] ज्ञान नहीं हैं, वे सब भाव ज्ञानसे रहित जड़रूप
हैं, [तान् ] उन [त्रीणि अपि ] धर्म, अर्थ, कामरूप तीनों भावोंको [परिहृत्य ] छोड़कर
[नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ] आत्माको [त्वं ] तू [विजानीहि ] जान
भावार्थ :हे प्रभाकर भट्ट, मुनिरूप धर्म, अर्थरूप संसार के प्रयोजन, काम
‘‘आभिणिबोहिय सुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि ।।
arthamatignAn, shrutagnAn, avadhignAn, manaparyayagnAn ane kevaLagnAnte ek ja pad chhe
[kAraN ke gnAnanA sarva bhedo gnAn ja chhe; te A paramArtha chhe (shuddhanayanA viShayabhUt
gnAnasAmAnya ja A paramArtha chhe-) ke jene pAmIne AtmA nirvANane prApta thAy chhe.] 105.
have parabhAvano niShedh kare chhe.
bhAvArthanishchayanayathI sakaL-vishad-ek-gnAnasvarUp paramArtha-padArthathI bhinna evA

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174 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-107
ण णाणु तेऽपि भवन्ति न ज्ञानं, तेन कारणेन तुहुं तिण्णि वि परिहरिवि तान् कर्मतापन्नान्
तत्र हे प्रभाकरभट्ट त्रीण्यपि परिहृत्य
पश्चात्किं कुरु णियमिं अप्पु वियाणु निश्चयेनात्मानं
विजानीहीति तद्यथा सकलविशदैकज्ञानस्वरूपात् परमात्मपदार्थात् निश्चयनयेन भिन्नान्
त्रीण्यपि धर्मार्थकामान् त्यक्त्वा वीतरागस्वसंवेदनलक्षणे शुद्धात्मानुभूतिज्ञाने स्थित्वात्मानं
जानीहीति भावार्थः
।।१०६।।
अथ
१०७) अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण
तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणेँ तेण ।।१०७।।
आत्मा ज्ञानस्य गम्यः परः ज्ञानं विजानाति येन
त्रीण्यपि मुक्त्वा जानीहि त्वं आत्मानं ज्ञानेन तेन ।।१०७।।
अप्पा णाणहं गम्मु पर आत्मा ज्ञानस्य गम्यो विषयः परः कोऽर्थः नियमेन
(विषयाभिलाष) ये तीनों ही आत्मासे भिन्न हैं, ज्ञानरूप नहीं हैं निश्चयनय करके सब तरफ से
निर्मल केवलज्ञानस्वरूप परमात्मपदार्थसे भिन्न तीनों ही धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थोंको छोड़कर
वीतरागस्वसंवेदनस्वरूप शुद्धात्मानुरूपज्ञानमें रहकर आत्माको जान
।।१०६।।
आगे आत्माका स्वरूप दिखलाते हैं
गाथा१०७
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [परं ] नियमसे [ज्ञानस्य ] ज्ञानके [गम्यः ] गोचर
है, [येन ] क्योंकि [ज्ञानं ] ज्ञान ही [विजानाति ] आत्माको जानता है, [तेन ] इसलिये [त्वं ]
हे प्रभाकर भट्ट तू [त्रीणि अपि मुक्तवा ] धर्म, अर्थ, काम इन तीनों ही भावोंको छोड़कर
[ज्ञानेन ] ज्ञानसे [आत्मानं ] निज आत्माको [जानीहि ] जान
भावार्थ :निज शुद्धात्मा ज्ञानके ही गोचर (जानने योग्य) है, क्योंकि मतिज्ञानादि
dharma artha ane kAm e traNey puruShArthane chhoDIne vItarAg svasamvedan jenun svarUp chhe evA
shuddhAtmAnI anubhUtirUp gnAnamAn sthit thaIne AtmAne jAN, e bhAvArtha chhe. 106.
have, AtmAnun svarUp darshAve chhe
bhAvArthanij shuddhAtmA gnAnane ja gamya chhe, kAraN ke matignAnAdi pAnch bhedo rahit

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adhikAr-1 dohA-107 ]paramAtmaprakAsha [ 175
कस्मात् णाणु वियाणइ जेण ज्ञानं कर्तृ विजानात्यात्मानं येन कारणेन अतः कारणात् तिण्णि
वि मिल्लिवि जाणि तुहुं त्रीण्यपि मुक्त्वा जानीहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट, अप्पा णाणें तेण कं
जानीहि आत्मानम् केन ज्ञानेन तेन कारणेनेति तथाहि निजशुद्धात्मा ज्ञानस्यैव गम्यः
कस्मादिति चेत् मतिज्ञानादिकपञ्चविकल्परहितं यत्परमपदं परमात्मशब्दवाच्यं साक्षान्मोक्षकारणं
तद्रूपो योऽसौ परमात्मा तमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानगुणेन विना दुर्धरानुष्ठानं
कुर्वाणाअपि बहवोऽपि न लभन्ते यतः कारणात्
तथा चोक्तं समयसारे‘‘णाणगुणेण
विहीणा एयं तु पयं बहू वि ण लहंते तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि दुक्खपरिमोक्खं ।।’’
अत्र धर्मार्थकामादिसर्वपरद्रव्येच्छां योऽसौ मुञ्चति स्वशुद्धात्मसुखामृते तृप्तो भवति स एव
निःपरिग्रहो भण्यते स एवात्मानं जानातीति भावार्थः
उक्तं च‘‘अपरिग्गहो अणिच्छो
पाँच भेदों रहित जो परमात्म शब्दका अर्थ परमपद है वही साक्षात् मोक्षका कारण है, उस
स्वरूप परमात्माको वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानके बिना दुर्धर तपके करनेवाले भी बहुतसे
प्राणी नहीं पाते
इसलिये ज्ञानसे ही अपना स्वरूप अनुभव कर ऐसा ही कथन
श्रीकुंदकुंदाचार्यने समयसारजीमें किया है ‘‘णाणगुणेहिं’’ इत्यादि इसका अर्थ यह है, कि
सम्यग्ज्ञाननामा निज गुणसे रहित पुरुष इस ब्रह्मपदको बहुत कष्ट करके भी नहीं पाते, अर्थात्
जो महान दुर्धर तप करो तो भी नहीं मिलता
इसलिये जो तू दुःखसे छूटना चाहता है,
सिद्धपदकी इच्छा रखता है, तो आत्मज्ञानकर निजपदको प्राप्त कर यहाँ सारांश यह है कि,
जो धर्म-अर्थ-कामादि सब परद्रव्यकी इच्छाको छोड़ता है, वही निज शुद्धात्मसुखरूप अमृतमें
तृप्त हुआ सिद्धांतमें परिग्रह रहित कहा जाता है, और निर्ग्रंथ कहा जाता है, और वही अपने
आत्माको जानता है
ऐसा ही समयसारमें कहा है ‘‘अपरिग्गहो’’ इत्यादि इसका अर्थ ऐसा
‘paramAtma’ shabdathI vAchya je paramapad sAkShAt mokShanun kAraN chhe, tadrUp je paramAtmA chhe te AtmAne
vItarAg nirvikalpa svasamvedanarUp gnAnaguN vinA durdhar anuShThAn karavA chhatAn paN ghaNA puruSho
pAmatA nathI. shrI samayasAr (gAthA 205)mAn kahyun paN chhe ke
‘‘णाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं बहू वि ण लहंते तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि
कम्मपरिमोक्खं ।। [arthagnAnaguNathI rahit ghaNAy loko (ghaNA prakAranAn karma karavA chhatAn) A
gnAnasvarUp padane pAmatA nathI; mATe he bhavya! jo tun karmathI sarvathA mukta thavA ichchhato ho
to A niyat evA Ane (gnAnane) grahaN kar.]
ahIn dharma, artha, kAmAdi sarva paradravyanI ichchhAne je chhoDe chhe ane svashuddhAtmasukhAmRutamAn
tRupta thAy chhe te ja niparigrahI kahevAmAn Ave chhe, te ja potAnA AtmAne jANe chhe, evo
bhAvArtha chhe. (shrI samayasAr gAthA 210mAn) kahyun paN chhe ke
‘‘अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणि

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176 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-108
भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।।’’ ।।१०७।।
अथ
१०८) णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि
ता अण्णाणिं णाणमउँ किं पर बंभु लहेहि ।।१०८।।
ज्ञानिन् ज्ञानी ज्ञानिना ज्ञानिनं यावत् न मन्यस्व
तावद् अज्ञानेन ज्ञानमयं किं परं ब्रह्म लभसे ।।१०८।।
णाणिय हे ज्ञानिन् णाणिउ ज्ञानी निजात्मा णाणिएण ज्ञानिना निजात्मना करणभूतेन
है, कि निज सिद्धांतमें परिग्रह रहित और इच्छा रहित ज्ञानी कहा गया है, जो धर्मको भी नहीं
चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा
कहाँसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है, जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं
है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका
जाननेवाला ही होता है
।।१०७।।
आगे ज्ञानसे ही परब्रह्मकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं
गाथा१०८
अन्वयार्थ :[ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी [ज्ञानी ] ज्ञानवान् अपना आत्मा [ज्ञानिना ]
सम्यग्ज्ञान करके [ज्ञानिनं ] ज्ञान लक्षणवाले आत्माको [यावत् ] जब तक [न ] नहीं
[जानासि ] जानता, [तावद् ] तब तक [अज्ञानेन ] अज्ञानी होनेसे [ज्ञानमयं ] ज्ञानमय [परं
ब्रह्म ] अपने स्वरूपको [किं लभसे ] क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता
जो कोई
आत्माको पाता है, तो ज्ञानसे ही पा सकता है
भावार्थ :जब तक यह जीव अपनेको आपकर अपनी प्राप्तिके लिये आपसे अपनेमें
य णिच्छदे धम्मं अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।। [arthaanichchhakane aparigrahI
kahyo chhe ane gnAnI dharmane (puNyane) ichchhato nathI, tethI te dharmano parigrahI nathI, (dharmano) gnAyak
ja chhe.] 107.
have, gnAnathI ja parabrahmanI prApti thAy chhe, em kahe chhe
bhAvArthajyAn sudhI kartArUp AtmA karmarUp AtmAne, karaNarUp AtmA vaDe,

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adhikAr-1 dohA-109 ]paramAtmaprakAsha [ 177
कथंभूतो निजात्मा णाणिउ ज्ञानी ज्ञानलक्षणः तमित्थंभूतमात्मानं जा ण मुणेहि यावत्कालं
न जानासि ता अण्णाणिं णाणमउं तावत्कालमज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालेन ज्ञानमयम्
किं पर बंभु लहेहि किं परमुत्कृष्टं ब्रह्मस्वभावं लभसे किं तु नैवेति तद्यथा यावत्कालमात्मा
कर्ता आत्मानं कर्मतापन्नम् आत्मना करणभूतेन आत्मने निमित्तं आत्मनः सकाशात् आत्मनि
स्थितं समस्तरागादिविकल्पजालं मुक्त्वा न जानासि तावत्कालं परमब्रह्मशब्दवाच्यं
निर्दोषिपरमात्मानं किं लभसे नैवेति भावार्थः
।।१०८।। इति सूत्रचतुष्टयेनान्तरस्थले
ज्ञानव्याख्यानं गतम्
अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेनान्तरस्थले परलोकशब्दव्युत्पत्त्या परलोकशब्दवाच्यं परमात्मानं
कथयति
१०९) जोइज्जइ तिं बंभु परु जाणिज्जइ तिं सोइ
बंभु मुणेविणु जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ ।।१०९।।
द्रश्यते तेन ब्रह्मा परः ज्ञायते तेन स एव
ब्रह्म मत्वा येन लघु गम्यते परलोके ।।१०९।।
तिष्ठता नहीं जान ले, तब तक निर्दोष शुद्ध परमात्मा सिद्धपरमेष्ठीको क्या पा सकता है ? कभी
नहीं पा सकता
जो आत्माको जानता है, वही परमात्माको जानता है ।।१०८।।
इसप्रकार प्रथम महास्थलमें चार दोहोंमें अंतरस्थलमें ज्ञानका व्याख्यान किया आगे
चार सूत्रोंमें अंतरस्थलमें परलोक शब्दकी व्युत्पत्तिकर परलोक शब्दसे परमात्माको ही कहते
हैं
गाथा१०९
अन्वयार्थ :[तेन ] उस कारणसे उसी पुरुषसे [परः ब्रह्मा ] शुद्धात्मा नियमसे
AtmAne mATe, AtmAthI, AtmAmAn sthit thaIne samasta rAgAdi vikalpajALane chhoDIne
jANato nathI; tyAn sudhI ‘parabrahma’ shabdathI vAchya evA nirdoSh paramAtmAne shun pAmI shake?
na pAmI shake, e bhAvArtha chhe. 108.
e rIte pratham mahAsthaLamAn chAr dohak sUtrothI antarasthaLamAn gnAnanun vyAkhyAn samApta
thayun.
tyAr pachhI antarasthaLamAn chAr gAthA sUtrothI paralok shabdanI vyutpatti anusAr paralok
shabdathI vAchya paramAtmAnun kathan kare chhe

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178 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-109
जोइज्जइ द्रश्यते तिं तेन पुरुषेण तेन कारणेन वा कोऽसौ द्रश्यते बंभु परु
ब्रह्मशब्दवाच्यः शुद्धात्मा कथंभूतः परः उत्कृष्टः अथवा पर इति पाठे नियमेन न केवलं
द्रश्यते जाणिज्जइ ज्ञायते तेन पुरुषेण तेन कारणेन वा सोइ स एव शुद्धात्मा केन कारणेन
बंभु मुणेविणु जेण लहु येन पुरुषेण येन कारणेन वा ब्रह्मशब्दवाच्यनिर्दोषिपरमात्मानं मत्वा
ज्ञात्वा पश्चात्
गम्मिज्जइ परलोइ तेनैव पूर्वोक्ते न ब्रह्मस्वरूपपरिज्ञानपुरुषेण तेनैव कारणेन वा
गम्यते
क्व परलोके परलोकशब्दवाच्ये परमात्मतत्त्वे किं च योऽसौ शुद्धनिश्चयनयेन
शक्ति रूपेण केवलज्ञानदर्शनस्वभावः परमात्मा स सर्वेषां सूक्ष्मैकेन्द्रियादिजीवानां शरीरे पृथक्
पृथग्रूपेण तिष्ठति स एव परमब्रह्मा स एव परमविष्णुः स एव परमशिवः इति, व्यक्ति रूपेण
पुनर्भगवानर्हन्नैव मुक्ति गतसिद्धात्मा वा परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वा भण्यते
तेन नान्यः कोऽपि
परिकल्पितः जगद्वयापी तथैवैको परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वास्तीति अयमत्रार्थः यत्रासौ
[दृश्यते ] देखा जाता है, [तेन ] उसी पुरुषसे निश्चयसे [स एव ] वही शुद्धात्मा [ज्ञायते ]
जाना जाता है, [येन ] जो पुरुष जिस कारण [ब्रह्म मत्वा ] अपना स्वरूप जानकर [परलोके
लघु गम्यते ] परमात्मतत्त्वमें शीघ्र ही प्राप्त होता है
भावार्थ :जो कोई शुद्धात्मा अपना स्वरूप शुद्ध निश्चयनयकर शक्तिरूपसे
केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव है, वही वास्तवमें (असलमें) परमेश्वर है परमेश्वरमें और
जीवमें जाति-भेद नहीं है, जब तक कर्मोंसे बँधा हुआ है, तब तक संसारमें भ्रमण करता है
सूक्ष्म बादर एकेन्द्रियादि जीवोंके शरीरमें जुदा जुदा तिष्ठता है, और जब कर्मोंसे रहित हो जाता
है, तब सिद्ध कहलाता है
संसार-अवस्थामें शक्तिरूप परमात्मा है, और सिद्ध-अवस्थामें
व्यक्तिरूप है यही आत्मा परब्रह्म, परमविष्णु शक्तिरूप है, और प्रगटरूपसे भगवान् अर्हंत
अथवा मुक्तिको प्राप्त हुए सिद्धात्मा ही परमब्रह्मा, परमविष्णु, परमशिव कहे जाते हैं यह
निश्चयसे जानो ऐसा कहनेसे अन्य कोई भी कल्पना किया हुआ जगत्में व्यापक परमब्रह्म,
परमविष्णु, परमशिव नहीं सारांश यह है कि जिस लोकके शिखर पर अनंत सिद्ध विराज
रहे हैं, वही लोकका शिखर परमधाम ब्रह्मलोक वहीं विष्णुलोक और वही शिवलोक है, अन्य
bhAvArthashuddhanishchayanayathI shaktirUpe kevaLagnAnadarshanasvabhAvavALA je paramAtmA chhe te,
sarva sUkShma ekendriyAdi jIvonA sharIramAn pRuthak pRuthakrUpe rahe chhe, te ja paramabrahmA chhe te ja
param viShNu chhe ane te ja paramashiv chhe, ane vyaktirUpe bhagavAn arhant ja athavA muktigat
siddhAtmA ja paramabrahmA chhe, viShNu chhe, shiv chhe, tenAthI bIjo koI kalpit jagadvyApI tem
ja ek parabrahma, viShNu, shiv nathI.

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adhikAr-1 dohA-110 ]paramAtmaprakAsha [ 179
मुक्तात्मा लोकाग्रे तिष्ठति स एव ब्रह्मलोकः स एव विष्णुलोकः स एव शिवलोको नान्यः
कोऽपीति भावार्थः
।।१०९।। अथ
११०) मुणि-वर-विंदहँ हरि-हरहं जो मणि णिवसइ देउ
परहँ जि परतरु णाणमउ सो वुच्चइ पर-लोउ ।।११०।।
मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां यः मनसि निवसति देवः
परस्माद् अपि परतरः ज्ञानमयः स उच्यते परलोकः ।।११०।।
मुणिवरविंदहं हरिहरहं मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां च जो मणि णिवसइ देउ योऽसौ
मनसि निवसति देवः आराध्यः पुनरपि किंविशिष्टः परहं जि परतरु णाणमउ
परस्मादुत्कृष्टादपि अथवा परहं जि बहुवचनं परेभ्योऽपि सकाशादतिशयेन परः परतरः
कोई भी ब्रह्मलोक, विष्णुलोक, शिवलोक नहीं है , ये सब निर्वाणक्षेत्रके नाम हैं, और ब्रह्मा,
विष्णु, शिव ये सब सिद्धपरमेष्ठीके नाम हैं
भगवान् तो व्यक्तिरूप परमात्मा हैं, तथा वह जीव
शक्तिरूप परमात्मा है इसमें संदेह नहीं है जितने भगवान्के नाम हैं, उतने सब शक्तिरूप
इस जीवके नाम हैं यह जीव ही शुद्धनयकर भगवान् है ।।१०९।।
आगे ऐसा कहते हैं कि भगवान्का ही नाम परलोक है
गाथा११०
अन्वयार्थ :[यः ] जो आत्मदेव [मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां ] मुनिश्वरोंके समूहके
तथा इन्द्र वा वासुदेव रुद्रोंके [मनसि ] चित्तमें [निवसति ] बस रहा है, [सः ] वह [परस्माद्
अपि परतरः ] उत्कृष्टसे भी उत्कृष्ट [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी [परलोकः ] परलोक [उच्यते ]
कहा जाता है
भावार्थ :परलोक शब्दका अर्थ ऐसा है कि पर अर्था त् उत्कृष्ट वीतराग चिदानंद
शुद्ध स्वभाव आत्मा उसका लोक अर्थात् अवलोकन निर्विकल्पसमाधिमें अनुभवना वह
ahIn, A artha chhe ke muktAtmA je lokanA agrabhAgamAn birAje chhe te ja brahmalok
chhe, te ja viShNulok chhe, te ja shivalok chhe, bIjo koI paN nahi, evo bhAvArtha chhe. 109.
have, paramAtmA paralok chhe, em kahe chhe
bhAvArthapar arthAt utkRuShTa vItarAg chidAnand jeno ek svabhAv chhe evo AtmA
teno lok arthAt tenun avalokan athavA nirvikalpa samAdhimAn tenun anubhavan evo ‘paralok’

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180 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-111
पुनरपि कथंभूतः ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः सो वुच्चइ परलोउ स एवंगुणविशिष्टः
शुद्धात्मा परलोक इत्युच्यते इति पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दैकस्वभाव आत्मा तस्य
लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थंः, अथवा लोक्यन्ते
द्रश्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः
परश्चासौ लोकश्च परलोकः व्यवहारेण पुनः स्वर्गापवर्गलक्षणः परलोको भण्यते अत्र
योऽसौ परलोकशब्दवाच्यः परमात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।११०।। अथ
१११) सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ
जहिँ मइ तहिँ गइ जीवह जि णियमेँ जेण हवेइ ।।१११।।
सः परः उच्यते लोकः परः यस्य मतिः तत्र वसति
यत्र मतिः तत्र गतिः जीवस्य एव नियमेन येन भवति ।।१११।।
परलोक है अथवा जिसके परमात्मस्वरूपमें या केवलज्ञानमें जीवादि पदार्थ देखे जावें,
इसलिये उस परमात्माका नाम परलोक है अथवा व्यवहारनयकर स्वर्ग-मोक्षको परलोक कहते
हैं स्वर्ग और मोक्षका कारण भगवानका धर्म है, इसलिये केवली भगवान्को परलोक कहते
हैं परमात्माके समान अपना निज आत्मा है, वही परलोक है, वही उपादेय है ।।११०।।
आगे ऐसा कहते हैं, जिसका मन निज आत्मामें बस रहा है, वही ज्ञानी जीव परलोक
है
गाथा१११
अन्वयार्थ :[यस्य मतिः ] जिस भव्य जीवकी बुद्धि [तत्र ] उस निज
आत्मस्वरूपमें [वसति ] बस रही है, अर्थात् विषय-कषाय-विकल्प-जालके त्यागसे
स्वसंवेदन
ज्ञानस्वरूपकर स्थिर हो रही है [स ] वह पुरुष [परः ] निश्चयनयकर [परः
shabdano artha chhe, athavA je paramAtmasvarUpamAn athavA jenA keLavagnAnathI jIvAdi padArtho dekhAy
chhe-jaNAy chhe te lok chhe param lok (paramAtmA) paralok chhe, ane vyavahAranayathI svargamokShane
paralok kahyo chhe.
ahIn, ‘paralok’ shabdathI vAchya evo je paramAtmA chhe te ja upAdey chhe, evo tAtparyArtha
chhe. 110.
have, jenun man nij AtmAmAn vase chhe te gnAnI jIv paralok chhe, em kahe chhe

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adhikAr-1 dohA-111 ]paramAtmaprakAsha [ 181
सो पर वुच्चइ लोउ परु स परः नियमेनोच्यते लोको जनः कथंभूतो भण्यते
पर उत्कृष्टः स कः जसु मइ तित्थु वसेइ यस्य भव्यजनस्य मतिर्मनश्चित्तं तत्र
निजपरमात्मस्वरूपे वसति विषयकषायविकल्पजालत्यागेन स्वसंवेदनसंवित्तिस्वरूपेण
स्थिरीभवतीति
यस्य परमात्मतत्त्वे मतिस्तिष्ठति स कस्मात्परो भवतीति चेत् जहिं मइ
तहिं जीवहं जि णियमें जेण हवेइ येन कारणेन यत्र स्वशुद्धात्मस्वरूपे मतिस्तत्रैव गतिः
कस्यैव जीवजीवस्यैव अथवा बहुवचनपक्षे जीवानामेव निश्चयेन भवतीति अयमत्र
भावार्थः यद्यार्तरौद्राधीनतया स्वशुद्धात्मभावनाच्युतो भूत्वा परभावेन परिणमति तदा
दीर्घसंसारी भवति, यदि पुनर्निश्चयरत्नत्रयात्मके परमात्मतत्त्वे भावनां करोति तर्हि निर्वाणं
प्राप्नोति इति ज्ञात्वा सर्वरागादिविकल्पत्यागेन तत्रैव भावनां कर्तव्येति
।।१११।। अथ
लोकः ] उत्कृष्ट जन [उच्यते ] कहा जाता है अर्थात् जिसकी बुद्धि निजस्वरूपमें ठहर रही
है, वह उत्तम जन है, [येन ] क्योंकि [यत्र मतिः ] जैसी बुद्धि होती है, [तत्र ] वैसी [एव ]
ही [जीवस्य ] जीवकी [गतिः ] गति [नियमेन ] निश्चयनयकर [भवति ] होती है, ऐसा
जिनवरदेवने कहा है
अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें जिस जीवकी बुद्धि होवे, उसको वैसी ही गति
होती है, जिन जीवोंका मन निज-वस्तुमें है, उनको निज-पदकी प्राप्ति होती है, इसमें संदेह
नहीं है
भावार्थ :जो आर्तध्यान रौद्रध्यानकी आधीनतासे अपने शुद्धात्माकी भावनासे
रहित हुआ रागादिक परभावोंस्वरूप परिणमन करता है, तो वह दीर्घसंसारी होता है, और
जो निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वमें भावना करता है, तो वह मोक्ष पाता है
ऐसा
जानकर सब रागादि विकल्पोंको त्यागकर उस परमात्मतत्त्वमें ही भावना करनी
चाहिये
।।१११।।
bhAvArthaje bhavya jIvanI mati-man-chitta nijaparamAtma-svarUpamAn vase chhe arthAt
viShayakaShAy vikalpajALanA tyAgathI svasamvedanasamvittisvarUp vaDe jenI mati sthir thaI chhe tene
niyamathI paralok-utkRuShTa jan-kahevAmAn Ave chhe. kAraN ke je svashuddhAtmasvarUpamAn jIvanI athavA
jIvonI mati hoy chhe tyAn gati nishchayathI thAy chhe.
ahIn A bhAvArtha chhe. je ArtadhyAn ane raudradhyAnane AdhIn thavAthI svashuddhAtmabhAvanAthI
chyut thaIne parabhAvarUpe pariName chhe te dIrgha sansArI thAy chhe ane jo nishchayaratnatrayAtmak
paramAtmatattvamAn bhAvanA kare chhe te nirvAN pAme chhe em jANIne sarva rAgAdi vikalpajALano tyAg
karIne temAn ja (paramAtma-tattvamAn ja) bhAvanA karavI joIe. 111.

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182 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-112
११२) जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तहुँ मरणु वि जेण लहेहि
तेँ परबंभु मुएवि मइँ मा पर-दव्वि करेहि ।।११२।।
यत्र मतिः तत्र गतिः जीव त्वं मरणमपि येन लभसे
तेन परब्रह्म मुक्त्वा मतिं मा परद्रव्ये कार्षीः ।।११२।।
जहिं मइ तहिं गइ जीव तुहुं मरणु वि जेण लहेहि यत्र मतिस्तत्र गतिः हे जीव
त्वं मरणेन कृत्वा येन कारणेन लभसे तें परबंभु मुएवि मइं मा परदव्वि करेहि तेन कारणेन
परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं वीतरागसदानन्दैक-
सुखामृतरसपरिणतं निजशुद्धात्मतत्त्वं मुक्त्वा मतिं चित्तं परद्रव्ये देहसंगादिषु मा कार्षीरिति
तात्पर्यार्थः
।।११२।। एवं सूत्रचतुष्टयेनान्तरस्थले परलोकशब्दव्युत्पत्त्या परलोकशब्दवाच्यस्य
आगे फि र इसी बातको दृढ़ करते हैं
गाथा११२
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [यत्र मतिः ] जहाँ तेरी बुद्धि है, [तत्र गतिः ] वहीं
पर गति है, उसको [येन ] जिस कारणसे [त्वं मृत्वा ] तू मरकर [लभसे ] पावेगा, [तेन ]
इसलिये तू [परब्रह्म ] परब्रह्मको [मुक्तवा ] छोड़कर [परद्रव्ये ] परद्रव्यमें [मतिं ] बुद्धिको
[मा कार्षीः ] मत कर
भावार्थ :शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर टाँकीका-सा गढ़ा हुआ अघटितघाट, अमूर्तिक
पदार्थ, ज्ञायकमात्र स्वभाव, वीतराग, सदा आनंदरूप, अद्वितीय अतीन्द्रिय सुखरूप, अमृतके
रसकर तृप्त ऐसे निज शुद्धात्मतत्त्वको छोड़कर द्रव्यकर्म- भावकर्म-नोकर्ममें या देहादि परिग्रहमें
मनको मत लगा
।।११२।।
इसप्रकार पहले महाधिकारमें चार दोहा-सूत्रोंकर अंतरस्थलमें परलोक शब्दका अर्थ
vaLI pharI paN A vAtane draDh kare chhe.
bhAvArthatethI shuddha dravyArthikanayathI ‘parabrahma’ shabdathI vAchya, TankotkIrNa gnAyak ja
jeno ek svabhAv chhe evA, ek (kevaL) vItarAgasadAnandarUp sukhAmRutarasarUpe pariNamelA
nijashuddhAtmatattvane chhoDIne paradravyamAn
- dehasangAdimAnchittane na joDna pravartAv, e tAtpayArtha
chhe. 112.
e pramANe antarasthaLamAn chAr gAthAsUtrothI ‘paralok’ shabdanI vyutpattithI ‘paralok’

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adhikAr-1 dohA-113 ]paramAtmaprakAsha [ 183
परमात्मनो व्याख्यानं गतम्
तदन्तरं किं तत् परद्रव्यमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति
११३) जं णियदव्वहँ भिण्णु जडु तं परदव्वु वियाणि
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि ।।११३।।
यत् निजद्रव्याद् भिन्नं जडं तत् परद्रव्यं जानीहि
पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पञ्चमं जानीहि ।।११३।।
जमित्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते जं यत् णियदव्वहं निजद्रव्यात्
भिण्णु भिन्नं पृथग्भूतं जडु जडं तं तत् परदव्वु वियाणि परद्रव्यं जानीहि तच्च किम्
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु पुद्गलधर्माधर्मनभोरूपं कालु वि कालमपि पंचमु जाणि पञ्चमं
जानीहीति
अनन्तचतुष्टयस्वरूपान्निजद्रव्याद्बाह्यं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरूपं जीवसंबद्धं शेषं
परमात्मा किया आगे परलोक (परमात्मा) में ही मन लगा, परद्रव्यसे ममता छोड़ ऐसा कहा
गया था, उसमें शिष्यने प्रश्न किया कि परद्रव्य क्या हैं ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं
गाथा११३
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [निजद्रव्याद् ] आत्म-पदार्थसे [भिन्नं ] जुदा [जडं ] जड़
पदार्थ है, [तत्] उसे [परद्रव्यं ] परद्रव्य [जानीहि ] जानो, और वह परद्रव्य [पुद्गलः
धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं ] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और पाँचवाँ कालद्रव्य
[जानीहि ] ये सब परद्रव्य जानो
भावार्थ :द्रव्य छह हैं, उनमेंसे पाँच जड़ और जीवको चैतन्य जानो पुद्गल
धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये सब जड़ हैं, इनको अपनेसे जुदा जानो और जीव भी अनंत
हैं, उन सबको अपनेसे भिन्न जानो
अनंतचतुष्टयस्वरूप अपना आत्मा है, उसीको निज
(अपना ) जानो, और जीवके भावकर्मरूप रागादिक तथा द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि आठ
shabdathI vAchya evA paramAtmAnun vyAkhyAn samApta thayun.
have, paralok (paramAtmA)mAn man lagAv, paradravyanI mamatA chhoD em je
kahevAmAn Avyun temAn ‘paradravya’ shun chhe? evo shiShye prashna karyo, tenun samAdhAn shrI guru kare
chhe
bhAvArthaanantachatuShTayasvarUp nijadravyathI bAhya (bhinna), bhAvakarma, dravyakarma, ane

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184 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-114
पुद्गलादिपञ्चभेदं यत्सर्वं तद्धेयमिति ।।११३।।
अथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरन्तर्मुहूर्तेनापि कर्मजालं दहतीति ध्यानसामर्थ्यं दर्शयति
११४) जइ णिविसद्धु वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ
अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरि डहइ असेसु वि पाउ ।।११४।।
यदि निमिषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागम्
अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ।।११४।।
जइ इत्यादि जइ णिविसद्धु वि यदि निमिषार्घमपि कु वि करइ कोऽपि कश्चित्
करोति किं करोति परमप्पइ अणुराउ परमात्मन्यनुरागम् तदा किं करोति अग्गिकणी जिम
कर्म, और शरीरादिक नोकर्म, और इनका संबंध अनादिसे है, परंतु जीवसे भिन्न है, इसलिये
अपने मत मान
पुद्गलादि पाँच भेद जड़ पदार्थ सब हेय जान, अपना स्वरूप ही उपादेय
है, उसीको आराधन कर ।।११३।।
आगे एक अन्तमुहूर्तमें कर्म-जालको वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप अग्नि भस्म कर
डालती है ऐसी समाधिकी सामर्थ्य है, वही दिखाते हैं
गाथा११४
अन्वयार्थ :[यदि ] जो [निमिषार्धमपि ] आधे निमेषमात्र भी [कोऽपि ] कोई
[परमात्मनि ] परमात्मामें [अनुरागम् ] प्रीतिको [करोति ] करे तो [यथा ] जैसे
[अग्निकणिका ] अग्निकी कणी [काष्ठगिरिं ] काठके पहाड़को [दहति ] भस्म करती है,
उसी तरह [अशेषम् अपि पापम् ] सब ही पापोंको भस्म कर डाले
भावार्थ :ऋद्धिका गर्व, रसायनका गर्व अर्थात् पारा वगैरह आदि धातुओंके
भस्म करनेका मद, अथवा नौ रसके जाननेका गर्व, कवि-कलाका मद, वादमें जीतनेका
nokarmarUp jIvanA sambandhavALun ane bAkInun pudgalAdi pAnch bhedavALun je kAI chhe te badhuy hey
chhe. 113.
have, vItarAg nirvikalpa samAdhi antarmuhUrtamAn ja karmajALane bALI nAkhe chhe evun dhyAnanun
sAmarthya chhe, em darshAve chhe
bhAvArthaRIddhino garva, rasano garva, (rasAyanano garva arthAt pArA vagere dhAtuone

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adhikAr-1 dohA-115 ]paramAtmaprakAsha [ 185
कट्ठगिरी अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति तथा डहइ असेसु वि पाउ दहत्यशेष पापमिति
तथाहिऋद्धिगौरवरसगौरवकवित्ववादित्वगमकत्ववाग्मित्वचतुर्विधशब्दगौरवस्वरूपप्रभृतिसमस्त-
विकल्पजालत्यागरूपेण महावातेन प्रज्वलिता निजशुद्धात्मतत्त्वध्यानाग्निकणिका
स्तोकाग्निकेन्धनराशिमिवान्तर्मुहूर्तेनापि चिरसंचितकर्मराशिं दहतीति अत्रैवंविधं शुद्धात्मध्यान-
सामर्थ्यं ज्ञात्वा तदेव निरन्तरं भावनीयमिति भावार्थः ।।११४।।
अथ हे जीव चिन्ताजालं मुक्त्वा शुद्धात्मस्वरूपं निरन्तरं पश्येति निरूपयति
११५) मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चिंतउ होइ
चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ।।११५।।
मद, शास्त्रकी टीका बनानेका मद, शास्त्रके व्याख्यान करनेका मद, ये चार तरहका
शब्द-गौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचंड पवन उससे
प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानरूप अग्निकी कणी है, जैसे
वह अग्निकी कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको
भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्मके इकट्ठे किये हुए कर्मोंको आधे निमेषमें नष्ट
कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा
करनी चाहिये
।।११४।।
आगे हे जीव, चिंताओंको छोड़कर शुद्धात्मस्वरूपको निरंतर देख, ऐसा कहते हैं
bhasma karavAno mad, athavA nav ras jANavAno mad) ane kavikaLAno mad, vAdamAn jItavAno
mad, shAstranI TIkA banAvavAno mad, shAstranun vyAkhyAn karavAno mad A chAr shabdagaurav
e
garvAdisvarUpathI mAnDIne samasta vikalpajALonA tyAgarUp prachanD pavanathI prajvalit nij shuddha
AtmatattvanA dhyAnarUp agnikaNikA, jevI rIte agninI nAnI kaNI indhananA pahADane bhasmibhUt
karI nAkhe chhe, tevI rIte, dIrghakALathI sanchit karelA (anek bhavomAn sanchit karelA) karmarAshine
antarmuhUrtamAn bhasma karI nAkhe chhe
naShTa karI de chhe.
ahIn, Avun shuddhAtmadhyAnanun sAmarthya jANIne te ja nirantar bhAvavA yogya chhe, evo
bhAvArtha chhe. 114.
have, he jIv! chintAjALano tyAg karIne shuddhAtmasvarUpane tun nirantar dekh, em kahe
chhe
1 pAThAntaraस्तोकाग्निके = स्तोकाग्निकणिकानि

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186 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-115
मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तः भूत्वा
चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ।।११५।।
मेल्लिवि इत्यादि मेल्लिवि मुक्त्वा सयल समस्तं अवक्खडी देशभाषया चिन्तां
जिय हे जीव णिच्चिंतउ होइ निश्चिन्तो भूत्वा किं कुरु चित्तु णिवेसहि चित्तं निवेशय
धारय क्क परमपए निजपरमात्मपदे पश्चात् किं कुरु देउ णिरंजणु जोइ देवं निरञ्जनं
पश्येति तद्यथा हे जीव द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूपपापध्यानादि समस्तचिन्ताजालं मुक्त्वा
निश्चिन्तो भूत्वा चित्तं परमात्मस्वरूपे स्थिरं कुरु, तदनन्तरं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जनरहितं
देवं परमाराध्यं निजशुद्धात्मानं ध्यायेति भावार्थः
अपध्यानलक्षणं कथ्यते
‘‘बन्धवधच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः आर्तध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने
गाथा११५
अन्वयार्थ :[हे जीव ] हे जीव [सकलां ] समस्त [चिन्तां ] चिंताओंको
[मुक्त्वा ] छोड़कर [निश्चिन्तः भूत्वा ] निश्चित होकर तू [चित्तं ] अपने मनको [परमपदे ]
परमपदमें [निवेशय ] धारण कर, और [निरंजनं देवं ] निरंजनदेवको [पश्य ] देख
भावार्थ :हे हंस, (जीव) देखे सुने और भोगे हुए भोगोंकी वांछारूप खोटे ध्यान
आदि सब चिंताओंको छोड़कर अत्यंत निश्चिंत होकर अपने चित्तको परमात्मस्वरूपमें स्थिर
कर
उसके बाद भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप अंजनसे रहित जो निरंजनदेव परम आराधने
योग्य अपना शुद्धात्मा है, उसका ध्यान कर पहले यह कहा था कि खोटे ध्यानको छोड़,
सो खोटे ध्यानका नाम शास्त्रमें अपध्यान कहा है अपध्यानका लक्षण कहते हैं
‘‘बंधवधेत्यादि’’ उसका अर्थ ऐसा है कि निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिन-शासनमें उसको
अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका बाँधनेका अथवा छेदनेका चिंतवन करे, और
bhAvArthahe jIv! dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI AkAnkShAsvarUp
apadhyAnAdi samasta chintAjALane chhoDIne, nishchint thaIne chittane paramAtmasvarUpamAn sthir kar,
ane bhAvakarma, dravyakarma, ane nokarmarUp anjan rahit param ArAdhya evo dev je nij shuddhAtmA
chhe tenun dhyAn kar.
apadhyAnanun svarUp kahe chhe ‘‘बन्धवधच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः आर्तध्यानमपध्यानं
शासति जिनशासने विशदाः ।।’’ (shrI ratnakaranDashrAvakAchAr gAthA 78) (arthadveShabhAvathI paranAn
vadhabandhanachhedanAdinun chintavan karavun ane rAgabhAvathI parastrIAdinun chintavan karavun tene