Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 89-92 (Adhikar 1),93 (Adhikar 1) Bhedagyanani Mukhyatathi Aatmanu Kathan,94 (Adhikar 1),95 (Adhikar 1),96 (Adhikar 1),97 (Adhikar 1),98 (Adhikar 1),99 (Adhikar 1),100 (Adhikar 1).

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adhikAr-1 dohA-89 ]paramAtmaprakAsha [ 147
कथंभूतो भवति ज्ञानी तमात्मानं कोऽसौ जानाति योगी ध्यानीति तथाहियद्यप्यात्मा
व्यवहारेण वन्दकादिलिङ्गी भण्यते तथापि शुद्धनिश्चयनयेनैकोऽपि लिङ्गी न भवतीति अयमत्र
भावार्थः देहाश्रितं द्रव्यलिङ्गमुपचरितासद्भूतव्यवहारेण जीवस्वरूपं भण्यते, वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिरूपं भावलिङ्गं तु यद्यपि शुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वादुपचारेण शुद्धजीवस्वरूपं भण्यते, तथापि
सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन न भण्यत इति
।।८८।। अथ
८९) अप्पा गुरु णवि सिस्सु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु
सूरउ कायरु होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ।।८९।।
आत्मा गुरुः नैव शिष्यः नैव नैव स्वामी नैव भृत्यः
शूरः कातरः भवति नैव नैव उत्तमः नैव नीचः ।।८९।।
है, वह उपचरितासद्भूतव्यवहारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी निश्चयनयकर
जीवका स्वरूप नहीं है
क्योंकि जब देह ही जीवकी नहीं, तो भेष कैसे हो सकता है ? इसलिये
द्रव्यलिंग तो सर्वथा ही नहीं है, और वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप भावलिंग यद्यपि
शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी
परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है
भावलिंग साधनरूप है, वह भी परम
अवस्थाका साधक नहीं है ।।८८।।
आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं है
गाथा८९
अन्वयार्थ :[आत्मा ] आत्मा [गुरुः नैव ] गुरु नहीं है, [शिष्य नैव ] शिष्य भी
नहीं है, [स्वामी नैव ] स्वामी भी नहीं है, [भृत्यः नैव ] नौकर नहीं है, [शूरः कातरः नैव ]
शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, [उत्तमः नैव ] उच्चकुली नहीं है, [नीचः नैव भवति ] और
नीचकुली भी नहीं है
sAdhak hovAthI upachArathI shuddha jIvanun svarUp kahevAmAn Ave chhe topaN tene sUkShmashuddhanishchayanayathI
shuddha jIvanun svarUp kahevAmAn Avatun nathI. 88.
have (AtmA, guru, shiShyAdik paN nathI em kahe chhe)
bhAvArthagurushiShyAdi sambandho jo ke vyavahAranayathI jIvanA svarUpo chhe topaN
2. pAThAntaraलिंगमु=लिंगमनु

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148 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-90
आत्मा गुरुर्नैव भवति शिष्योऽपि न भवति नैव स्वामी नैव भृत्यः शूरो न भवति
कातरो हीनसत्त्वो नैव भवति नैवोत्तमः उत्तमकुलप्रसूतः नैव नीचो नीचकुलप्रसूत इति
तद्यथा गुरुशिष्यादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारेण जीवस्वरूपांस्तथापि शुद्धनिश्चयेन
परमात्मद्रव्याद्भिन्नान् हेयभूतान् वीतरागपरमानन्दैकस्वशुद्धात्मोपलब्धेश्च्युतो बहिरात्मा
स्वात्मसंबद्धान् करोति तानेव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानातीति
भावार्थः
।।८९।। अथ
९०) अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ
अप्पा णारउ कहिँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।९०।।
आत्मा मनुष्यः देवः नापि आत्मा तिर्यग् न भवति
आत्मा नारकः क्वापि नैव ज्ञानी जानाति योगी ।।९०।।
भावार्थ :ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबंध यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके
स्वरूप हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयसे शुद्ध आत्मासे जुदे हैं, आत्माके नहीं हैं, त्यागने योग्य हैं,
इन भेदोंको वीतरागपरमानंद निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिजीव अपने
समझता है, और इन्हीं भेदोंको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव
पर रूप (दूसरे) जानता है
।।८९।।
आगे आत्माका स्वरूप कहते हैं
गाथा९०
अन्वयार्थ :[आत्मा ] जीव पदार्थ [मनुष्यः देवः नापि ] न तो मनुष्य है, न तो
देव है, [आत्मा ] आत्मा [तिर्यग् न भवति ] तिर्यंच पशु भी नहीं है, [आत्मा ] आत्मा
[नारकः ] नारकी भी [क्वापि नैव ] कभी नहीं, अर्थात् किसी प्रकार भी पररूप नहीं है, परन्तु
[ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उसको [योगी ] मुनिराज तीन गुप्तिके धारक और निर्विकल्पसमाधिमें
लीन हुए [जानाति ] जानते हैं
shuddhanishchayanayathI paramAtmadravyathI bhinna ane heyabhUt chhe, temane potAnA AtmAmAn sambaddha kare
chhe ane temane ja vItarAg nirvikalpa samAdhistha antarAtmA parasvarUp jANe chhe, e bhAvArtha
chhe. 89.
have (AtmAnun svarUp kahe chhe)

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adhikAr-1 dohA-91 ]paramAtmaprakAsha [ 149
अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ अप्पा णारउ कहिं वि णवि आत्मा
मनुष्यो न भवति देवो नैव भवति आत्मा तिर्यग्योनिर्न भवति आत्मा नारकः क्वापि काले
न भवति
तर्हि किंविशिष्टो भवति णाणिउ जाणइ जोइ ज्ञानी ज्ञानरूपो भवति तमात्मानं
कोऽसो जानाति योगी कोऽर्थः त्रिगुप्तिनिर्विकल्पसमाधिस्थ इति तथाहि विशुद्धज्ञानदर्शन-
स्वभावपरमात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतैः रागद्वेषादिविभावपरिणामजालैर्यान्युपार्जितानि कर्माणि
तदुदयजनितान् मनुष्यादिविभावपर्यायान् भेदाभेदरत्नत्रयभावनाच्युतो बहिरात्मा स्वात्मतत्त्वे
योजयति
तद्विपरीतोऽन्तरात्मशब्दवाच्यो ज्ञानी पृथक् जानातीत्यभिप्रायः ।।९०।। अथ
९१) अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु
तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ।।९१।।
भावार्थ :निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव जो परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उलटे राग-
द्वेषादि विभाव-परिणामोंसे उपार्जन किये जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनके उदयसे उत्पन्न हुई
मनुष्यादि विभाव-पर्यायोंको भेदाभेदस्वरूप रत्नत्रयकी भावनासे रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव
अपने जानता है, और इस अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायोंको अपनेसे
जुदा जानता है
।।९०।।
आगे फि र आत्माका स्वरूप कहते हैं
गाथा९१
अन्वयार्थ :[आत्मा ] चिद्रूप आत्मा [पंडितः ] विद्यावान् व [मूर्खः ] मूर्ख [नैव ]
नहीं है, [ईश्वरः ] धनवान् सब बातोंमें समर्थ भी [नैव ] नहीं है [निःस्वः ] दरिद्री भी [नैव ] नहीं
है, [तरुणः वृद्धः बालः नैव ] जवान, बूढ़ा और बालक भी नहीं है, [अन्यः अपि कर्म विशेषः ]
ये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मके विशेष हैं, अर्थात् क र्ममें उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं
bhAvArthabhedAbhedaratnatrayanI bhAvanAthI chyut evo bahirAtmA, vishuddhagnAn,
vishuddhadarshan jeno svabhAv chhe evA paramAtmatattvanI bhAvanAthI pratipakShabhUt rAgadveShAdi
vibhAvapariNAmanI jALathI upArjan karavAmAn AvelAn karmonA udayathI thayel manuShyAdi
vibhAvaparyAyone svAtmatattvamAn yoje chhe-joDe chhe, tenAthI viparIt ‘antarAtmA’ shabdathI vAchya
evo gnAnI temane pRuthak jANe chhe. e abhiprAy chhe. 90.
have (pharI AtmAnun svarUp kahe chhe)

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150 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-92
आत्मा पण्डितः मूर्खः नैव नैव ईश्वरः नैव निःस्वः
तरुणः वृद्धः बालः नैव अन्यः अपि कर्मविशेषः ।।९१।।
अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु तरुणउ बूढउ बालु णवि आत्मा
पण्डितो न भवति मूर्खो नैव ईश्वरः समर्थो नैव निःस्वो दरिद्रः तरुणो वृद्धो बालोऽपि नैव
पण्डितादिस्वरूपं यद्यात्मस्वभावो न भवति तर्हि किं भवति अण्णु वि कम्मविसेसु अन्य एव
कर्मजनितोऽयं विभावपर्यायविशेष इति तद्यथा पण्डितादिसंबन्धान् यद्यपि व्यवहारनयेन
जीवस्वभावान् तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धात्मद्रव्याद्भिन्नान् सर्वप्रकारेण हेयभूतान्
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि बहिरात्मा स्वस्मिन्नियोजयति तानेव पण्डितादि-
विभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्माणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः
।।९१।।
अथ
९२) पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ
एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयणभाउ ।।९२।।
भावार्थ :यद्यपि शरीरके सम्बन्धसे पंडित वगैरह भेद व्यवहारनयसे जीवके कहे
जाते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयनयकर शुद्धात्मद्रव्यसे भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं इन
भेदोंको वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हींको
पंडितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्मजनित जानता
है
।।९१।।
आगे आत्माका चेतनभाव वर्णन करते हैं
jo panDitAdisvarUp AtmAno svabhAv nathI to te shun chhe? [अन्यः अपि कर्म विशेषः]
panDitAdi svarUp AtmAthI bhinna karmavisheSh chhearthAt karmajanit vibhAv paryAy visheSh chhe.
bhAvArthavItarAgasvasamvedanarUp gnAnanI bhAvanAthI rahit evo bahirAtmA,
panDitAdi sambandho jo ke vyavahAranayathI jIvanA svabhAvo chhe topaN shuddhanishchayanayathI
shuddhAtmadravyathI bhinna ane sarvaprakAre heyabhUt chhe temane potAmAn yoje chhe
joDe chhe ane tenAthI
viparIt je antarAtmA chhe te, te ja panDitAdi vibhAvaparyAyone par evA karmamAn yoje chhe.
(temane potAthI judA karmajanit jANe chhe.) e tAtpayArtha chhe. 91.
have (AtmAnA chetanabhAvanun varNan kare chhe)

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adhikAr-1 dohA-92 ]paramAtmaprakAsha [ 151
पुण्यमपि पापमपि कालः नभः धर्माधर्ममपि कायः
एकमपि आत्मा भवति नैव मुक्त्वा चेतनभावम् ।।९२।।
पुएणु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ पुण्यमपि पापमपि कालः नभः
आकाशं धर्माधर्ममपि कायः शरीरं, एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयणभाउ इदं
पूर्वोक्त मेकमप्यात्मा न भवति
किं कृत्वा मुक्त्वा किं चेतनभावमिति तथाहि
व्यवहारनयेनात्मनः सकाशादभिन्नान् शुद्धनिश्चयेन भिन्नान् हेयभूतान् पुण्य-
पापादिधर्माधर्मान्मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव पुण्यपापादि
समस्तसंकल्पविकल्पपरिहारभावनारूपे स्वशुद्धात्मद्रव्ये सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मके परमसमाधौ स्थितोऽन्तरात्मा शुद्धात्मनः सकाशात् पृथग् जानातीति
तात्पर्यार्थः
।।९२।। एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये मिथ्याद्रष्टिभावनाविपरीतेन
गाथा९२
अन्वयार्थ :[पुण्यमपि ] पुण्यरूप शुभकर्म [पापमपि ] पापरूप अशुभकर्म
[कालः ] अतीत अनागत वर्तमान काल [नभः ] आकाश [धर्माधर्ममपि ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य
[कायः ] शरीर, इनमेंसे [एक अपि ] एक भी [आत्मा ] आत्मा [नैव भवति ] नहीं है,
[चेतनभावम् मुक्तवा ] चेतनभावको छोड़कर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है
।।
भावार्थ :व्यवहारनयकर यद्यपि पुण्य, पापादि आत्मासे अभिन्न हैं, तो भी
शुद्धनिश्चयनयकर भिन्न हैं, और त्यागने योग्य हैं, उन परभावोंको मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत
हुआ बहिरात्मा जानता है, और उन्हींको पुण्य, पापादि समस्त संकल्प, विकल्परहित निज
शुद्धात्मद्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप परमसमाधिमें तिष्ठता
सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है
।।९२।।
ऐसे बहिरात्मा परमात्मारूप तीन प्रकारके आत्माका जिसमें कथन है, ऐसे पहले
bhAvArthamithyAtva, rAgAdirUpe pariNamelo bahirAtmA vyavahAranayathI AtmAthI
abhinna ane shuddhanishchayanayathI AtmAthI bhinna, heyabhUt evA te puNya, pAp ane
dharmAdharmAdi dravyone potAmAn yoje chhe ane temane ja, puNyapApAdi samasta sankalpa-vikalpanA
tyAganI bhAvanArUp, nijashuddhAtmadravyanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyakAcharaNarUp
abhedaratnatrayAtmak paramasamAdhimAn sthit evo antarAtmA shuddhAtmAthI pRuthak jANe chhe. 92.
e pramANe traN prakAranA AtmAnA pratipAdak mahAdhikAramAn mithyAdraShTinI bhAvanAthI

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152 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-93
सम्यग्द्रष्टिभावनास्थितेन सूत्राष्टकं समाप्तम् ।।
अथानन्तरं सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेन ‘अप्पा संजमु’ इत्यादि प्रक्षेपकान्
विहायैकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तमुपसंहाररूपा चूलिका कथ्यते तद्यथा
यदि पुण्यपापादिरूपः परमात्मा न भवति तर्हि कीद्रशो भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह
९३) अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु
अप्पा सासय-मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु ।।९३।।
आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा दर्शनं ज्ञानम्
आत्मा शाश्वतमोक्षपदं जानन् आत्मानम् ।।९३।।
अधिकारमें मिथ्यादृष्टिकी भावनासे रहित जो सम्यग्दृष्टिकी भावना उसकी मुख्यतासे आठ दोहा-
सूत्र कहे
आगे भेदविज्ञानकी मुख्यतासे ‘‘अप्पा संजमु’’ इत्यादि इकतीस दोहापर्यन्त क्षेपक-
सूत्रोंको छोड़कर पहला अधिकार पूर्ण करते हुए व्याख्यान करते हैं, उसमें भी जो शिष्यने प्रश्न
किया कि यदि पुण्य-पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान
करते हैं
गाथा९३
अन्वयार्थ :[आत्मा ] निज गुण-पर्यायका धारक ज्ञानस्वरूप चिदानंद ही [संयमः ]
संयम है, [शीलं तपः ] शील है, तप है, [आत्मा ] आत्मा [दर्शनं ज्ञानम् ] दर्शनज्ञान है, और
[आत्मानम् जानन् ] अपनेको जानता अनुभवता हुआ [आत्मा ] आत्मा [शाश्वतमोक्षपदं ]
अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है
इस कथनको विशेषतर कहते हैं
viparIt samyagdraShTinI bhAvanAnI mukhyatAthI ATh gAthAsUtro samApta thayAn.
tyAr pachhI have sAmAnya bhedabhAvanAnI mukhyatAthI ‘अप्पा संजमु’ ityAdi prakShepakone
chhoDIne ekatrIs sUtro sudhI (pahelo adhikAr pUrNa karatAn) upasanhArarUpe chUlikA kahe chhe. te
A pramANe
jo puNya pApAdirUp paramAtmA nathI to te kevo chhe?
evA prashnanA uttararUpe shrIguru samAdhAn kare chhe

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adhikAr-1 dohA-93 ]paramAtmaprakAsha [ 153
अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु अप्पा सासयमोक्खपउ आत्मा संयमो भवति
शीलं भवति तपश्चरणं भवति आत्मा दर्शनं भवति शाश्वतमोक्षपदं च भवति अथवा पाठान्तरं
‘सासयमुक्खपहुं’ शाश्वतमोक्षस्य पन्था मार्गः, अथवा ‘सासयसुक्खपउ’ शाश्वतसौख्यपदं स्वरूपं
च भवति
किं कुर्वन् सन् जाणंतउ अप्पाणु जानन्ननुभवन् कम् आत्मानमिति तद्यथा
बहिरङ्गेन्द्रियसंयमप्राणसंयमबलेन साध्यसाधकभावेन निश्चयेन स्वशुद्धात्मनि संयमनात्
स्थितिकरणात् संयमो भवति, बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कामक्रोधविवर्जनलक्षणेन व्रतपरिरक्षण-
शीलेन निश्चयेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मद्रव्यनिर्मलानुभवनेन शीलं भवति
बहिरङ्गेन सहकारिकारण-
भावार्थ :पाँच इन्द्रियाँ और मनका रोकना व छह कायके जीवोंकी दयास्वरूप ऐसे
इन्द्रियसंयम तथा प्राणसंयम इन दोनोंके बलसे साध्य-साधक भावकर निश्चयसे अपने
शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका
कारणरूप जो काल क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनयकर
अंतरंगमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा
ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा
निश्चयकर अंतरंगमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव (निजस्वभाव) में
प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे आत्मा ही ‘तपश्चरण
है, और आत्मा ही निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे
सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही
है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और
bhAvArthasAdhyasAdhak bhAv vaDe bahirang indriy sanyam ane prANasanyamanA baLathI
nishchaye svashuddhAtmAmAn sanyamit rahevunsthiti karavIte sanyam chhe.
bahirang sahakArIkAraNabhUt kAmakrodhAdinA tyAgasvarUp vratarakShaNarUp shIl vaDe nishchayathI
abhyantaramAn svashuddhAtmadravyano nirmaL anubhav karavo te shIl chhe.
bahirang sahakArIkAraNabhUt anashanAdi bAr prakAranA tapashcharaN vaDe nishchayanayathI
abhyantaramAn samasta paradravyanI ichchhAno nirodh karIne paramAtmasvabhAvamAn pratapavun-vijayavant vartavun,
te tapashcharaN chhe.
‘svashuddhAtmA’ ja upAdey chhe evI ruchi karavI te nishchayasamyaktva chhe. vItarAg-
svasamvedanarUp gnAnanun anubhavan te nishchayagnAn chhe. mithyAtva, rAgAdi samasta vikalpajALano tyAg
karIne paramAtmatattvamAn paramasamarasIbhAvanun pariNaman te mokShamArga chhe.

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154 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-94
भूतानशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन निश्चयनयेनाभ्यन्तरे समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन परमात्मस्वभावे
प्रतपनाद्विजयनात्तपश्चरणं भवति
स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिकरणान्निश्चयसम्यक्त्वं भवति
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानानुभवनान्निश्चयज्ञानं भवति मिथ्यात्वरागादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन
परमात्मतत्त्वे परमसमरसीभावपरिणमनाच्च मोक्षमार्गो भवतीति अत्र बहिरङ्गद्रव्येन्द्रियसंयमादि-
प्रतिपालनादभ्यन्तरे शुद्धात्मानुभूतिरूपभावसंयमादिपरिणमनादुपादेयसुखसाधकत्वादात्मैवोपादेय
इति तात्पर्यार्थः
।।९३।।
अथ स्वशुद्धात्मसंवित्तिं विहाय निश्चयनयेनान्यदर्शनज्ञानचारित्रं नास्तीत्यभिप्रायं
मनसि संप्रधार्य सूत्रं कथयति
९४) अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ।।९४।।
अन्यद् एव दर्शनं अस्ति नापि अन्यदेव अस्ति न ज्ञानं
अन्यद् एव चरणं न अस्ति जीव मुक्त्वा आत्मानं जानीहि ।।९४।।
मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्पजालको त्यागकर परमात्मतत्त्वमें परमसमरसीभावके परिणमनसे
आत्मा ही मोक्षमार्ग है
तात्पर्य यह है, कि बहिरंग द्रव्येन्द्रिय-संयमादिके पालनेसे अंतरंगमें
शुद्धात्माके अनुभवरूप भावसंयमादिकके परिणमनसे उपादेयसुख जो अतीन्द्रियसुख उसके
साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है
।।९३।।
आगे निज शुद्धात्मस्वरूपको छोड़कर निश्चयनयसे दूसरा कोई दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं
है, इस अभिप्रायको मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं
गाथा९४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [आत्मानं ] आत्माको [मुक्तवा ] छोड़कर
[अन्यदपि ] दूसरा कोई भी [दर्शनं ] दर्शन [न एव ] नहीं है, [अन्यदपि ] अन्य कोई [ज्ञानं
ahIn, bahirangathI dravyendriyanA sanyamAdinA pratipAlanathI abhyantaramAn shuddhAtmAnubhUtirUp
bhAvasanyamAdirUpe pariNaman dvArA upAdey evA sukhano sAdhak hovAthI ‘AtmA’ ja upAdey chhe,
evo tAtparyArtha chhe. 93.
have, svashuddhAtmAnI samvitti sivAy nishchayanayathI anya koI darshan, gnAn, chAritra nathI
evo abhiprAy manamAn rAkhIne sUtra kahe chhe

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adhikAr-1 dohA-94 ]paramAtmaprakAsha [ 155
अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु अण्णु जि चरणु ण अत्थि
जिय अन्यदेव दर्शनं नास्ति अन्यदेव ज्ञानं नास्ति अन्यदेव चरणं नास्ति हे जीव किं कृत्वा
मेल्लिवि अप्पा जाणु मुक्त्वा कम् आत्मानं जानीहीति तथाहि यद्यपि
षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थाः साध्यसाधकभावेन निश्चयसम्यक्त्वहेतुत्वाद्व्यवहारेण
सम्यक्त्वं भवति, तथापि निश्चयेन वीतरागपरमानन्दैकस्वभावः शुद्धात्मोपादेय इति
रुचिरूपपरिणामपरिणतशुद्धात्मैव निश्चयसम्यक्त्वं भवति
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानसाधकत्वात्तु
व्यवहारेण शास्त्रज्ञानं भवति, तथापि निश्चयनयेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिणतः शुद्धात्मैव
निश्चयज्ञानं भवति
यद्यपि निश्चयचारित्रसाधकत्वान्मूलोत्तरगुणा व्यवहारेण चारित्रं भवति,
तथापि शुद्धात्मानुभूतिरूपवीतरागचारित्रपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयनयेन चारित्रं भवतीति
न अस्ति ] ज्ञान नहीं है, [अन्यद् एव चरणं नास्ति ] अन्य कोई चरित्र नहीं है, ऐसा
[जानीहि ] तू जान, अर्थात् आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र है, ऐसा संदेह रहित जानो
भावार्थ :यद्यपि छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थका श्रद्धान
कार्य-कारणभावसे निश्चयसम्यक्त्वका कारण होनेसे व्यवहारसम्यक्त्व कहा जाता है, अर्थात्
व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानंदस्वभाववाला
शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणामसे परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है,
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानका साधक होनेसे व्यवहारनयकर शास्त्रका ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी
निश्चयनयकर वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है
यद्यपि
निश्चयचारित्रके साधक होनेसे अट्ठाईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तरगुण, व्यवहारनयकर चारित्र
कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्रको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही
bhAvArthajo ke chha dravya, pAnch astikAy, sAt tattva, ane nav padArtha
sAdhyasAdhakabhAv vaDe nishchayasamyaktvanA hetu hovAthI vyavahAranayathI samyaktva chhe, topaN
nishchayanayathI vItarAg paramAnand jeno ek svabhAv chhe evo shuddha AtmA upAdey chhe , evI
ruchirUp pariNAme pariNamelo shuddha AtmA ja nishchayasamyaktva chhe; jo ke shAstragnAn
nishchayasvasamvedanagnAnanun sAdhak hovAthI vyavahArathI gnAn chhe, topaN nishchayanayathI
vItarAgasvasamvedanagnAnarUpe pariNamelo shuddha AtmA ja nishchayagnAn chhe; jo ke vyavahAranayathI mUL
-uttar guNo (aThThAvIs mUL guNo, chorAsIlAkh uttar guNo) nishchayachAritranA sAdhak hovAthI
chAritra chhe topaN nishchayanayathI shuddhAtmAnubhUtirUp vItarAgachAritrarUpe pariNamelo svashuddhAtmA ja
chAritra chhe.

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156 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-95
अत्रोक्त लक्षणेऽभेदरत्नत्रयपरिणतः परमात्मैवोपादेय इति भावार्थः ।।९४।।
अथ निश्चयेन वीतरागभावपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयतीर्थः निश्चयगुरुर्निश्चयदेव इति
कथयति
९५) अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ।।९५।।
अन्यद् एव तीर्थ मा याहि जीव अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व
अन्यद् एव देवं मा चिन्तय त्वं आत्मानं विमलं मुक्त्वा ।।९५।।
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि अण्णु जि देउ म चिंति
तुहुं अन्यदेव तीर्थं मा गच्छ हे जीव अन्यदेव गुरुं मा सेवस्व अन्यदेव देवं मा चिन्तय त्वम्
निश्चयनयकर चारित्र है तात्पर्य यह है कि अभेदरूप परिणत हुआ परमात्मा ही ध्यान करने
योग्य है ।।९४।।
आगे निश्चयनयकर वीतरागभावरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही निश्चयतीर्थ,
निश्चयगुरु, निश्चयदेव है, ऐसा कहते हैं
गाथा९५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव [त्वं ] तू [अन्यद् एव ] दूसरे [तीर्थं ] तीर्थको [मा
याहि ] मत जावे, [अन्यद् एव ] दूसरे [गुरुं ] गुरुको [मा सेवस्व ] मत सेवे, [अन्यद् एव ]
अन्य [देवं ] देवको [मा चिन्तय ] मत ध्यावे, [आत्मानं विमलं ] रागादि मल रहित आत्माको
[मुक्तवा ] छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर, आत्मा ही गुरु है, उसकी
सेवा कर और आत्मा ही देव है उसीकी आराधना कर
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे मोक्षके स्थानक सम्मेदशिखर आदि व जिनप्रतिमा
ahIn, ukta lakShaNavALo abhedaratnatrayarUpe pariNamelo paramAtmA ja upAdey chhe, evo
bhAvArtha chhe. 94.
have, nishchayanayathI vItarAgabhAvarUpe pariNamelo svashuddhAtmA ja nishchayatIrtha chhe, nishchayaguru
chhe, nishchayadev chhe em kahe chhe
bhAvArthajo ke vyavahAranayathI nirvANasthAn, chaitya (jin pratimA), chaityAlay
1 अत्रोक्त लक्षणेऽ tene badale अत्रोक्त लक्षणोऽ em hovun joIe.

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adhikAr-1 dohA-95 ]paramAtmaprakAsha [ 157
किं कृत्वा अप्पा विमलु मुएवि मुक्त्वा त्यक्त्वा कम् आत्मानम् कथंभूतम् विमलं
रागादिरहितमिति तथाहि यद्यपि व्यवहारनयेन निर्वाणस्थानचैत्यचैत्यालयादिकं
तीर्थभूतपुरुषगुणस्मरणार्थं तीर्थं भवति, तथापि वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपनिश्छिद्रपोतेन
संसारसमुद्रतरणसमर्थत्वान्निश्चयनयेन स्वात्मतत्त्वमेव तीर्थं भवति
यदुपदेशात्पारंपर्येण
परमात्मतत्त्वलाभो भवतीति व्यवहारेण शिक्षादीक्षादायको यद्यपि गुरुर्भवति, तथापि
निश्चयनयेन पञ्चेन्द्रियविषयप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामपरित्यागकाले संसारविच्छित्तिकारणत्वात्
स्वशुद्धात्मैव गुरुः
यद्यपि प्राथमिकापेक्षया सविकल्पापेक्षया चित्तस्थितिकरणार्थं
तीर्थंकरपुण्यहेतुभूतं साध्यसाधकभावेन परंपरया निर्वाणकारणं च जिनप्रतिमादिकं व्यवहारेण देवो
जिनमंदिर आदि तीर्थ हैं, क्योंकि वहाँसे गये महान् पुरुषोंके गुणोंकी याद होती है, तो भी
वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप छेद रहित जहाजकर संसाररूपी समुद्रके तरनेको समर्थ जो निज
आत्मतत्त्व है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परासे परमात्मतत्त्वका लाभ होता है
यद्यपि व्यवहारनयकर दीक्षा शिक्षाका देनेवाला दिगंबर गुरु होता है, तो भी निश्चयनयकर विषय
कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागनेके समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसीसे
संसारकी निवृत्ति होती है
यद्यपि प्रथम अवस्थामें चित्तकी स्थिरताके लिये व्यवहारनयकर
जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परंपरासे निर्वाणके कारण हैं, तो भी निश्चयनयकर
परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य
नहीं
इसप्रकार निश्चय व्यवहारनयकर साध्य-साधक-भावसे तीर्थ गुरु देवका स्वरूप जानना
चाहिये निश्चयदेव, निश्चयगुरु, निश्चयतीर्थ निज आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और
(mandir) vagere tIrtharUp puruShanA guNanA smaraNArthe tIrtha chhe topaN, vItarAg nirvikalpa samAdhirUp
chhidra rahit jahAj vaDe sansArasamudrane taravAne samartha hovAthI nishchayanayathI svaAtmatattva ja tIrtha
chhe
ke jenA upadeshathI paramparAe paramAtmAnI prApti thAy chhe.
jo ke vyavahAranayathI shikShA, dIkShAnA denAr guru chhe topaN, nishchayanayathI panchendriyanA
viShay (kaShAy) AdithI mAnDIne samasta vibhAvapariNAmanA tyAg samaye sansAranA nAshanun kAraN
hovAthI ‘svashuddhAtmA’ ja guru chhe.
jo ke prAthamik apekShAe-savikalpa apekShAechittane sthir karavA mATe tIrthankaranA puNyanA
heturUp ane sAdhyasAdhak bhAvathI paramparAe nirvANanun kAraN evI jinapratimAdik vyavahArathI dev
kahevAy chhe topaN, nishchayanayathI param ArAdhya hovAthI vItarAg nirvikalpa triguptiyukta
paramasamAdhikALe ‘svashuddhAtmasvabhAv’ ja dev chhe.
1 pAThAntaraय = त

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158 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-96
भण्यते, तथापि निश्चयनयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिपरमसमाधिकाले
स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति
एवं निश्चयव्यवहाराभ्यां साध्यसाधकभावेन तीर्थगुरुदेवतास्वरूपं
ज्ञातव्यमिति भावार्थः ।।९५।।
अथ निश्चयेनात्मसंवित्तिरेव दर्शनमिति प्रतिपादयति
९६) अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु ।।९६।।
आत्मा दर्शनं केवलोऽपि अन्यः सर्वः व्यवहारः
एक एव योगिन् ध्यायते यः त्रैलोक्यस्य सारः ।।९६।।
अप्पा दंसणु केवलु वि आत्मा दर्शनं सम्यक्त्वं भवति कथंभूतोऽपि केवलोऽपि
व्यवहारदेव जिनेन्द्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहारगुरु महामुनिराज, व्यवहारतीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक
ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्थामें आराधने योग्य हैं
तथा निश्चयनयकर
ये सब पदार्थ हैं, उनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परासे है यहाँ श्रीपरमात्मप्रकाश अध्यात्म-
ग्रंथमें निश्चयदेव गुरु तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनाकर अनंत सिद्ध हुए और होवेंगे,
ऐसा सारांश हुआ
।।९५।।
आगे निश्चयनयकर आत्मस्वरूप ही सम्यग्दर्शन है
गाथा९६
अन्वयार्थ :[केवलः आत्मा अपि ] केवल (एक) आत्मा ही [दर्शनं ]
सम्यग्दर्शन है, [अन्यः सर्वः व्यवहारः ] दूसरा सब व्यवहार है, इसलिये [योगिन् ] हे योगी
[एक एव ध्यायते ] एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः ] जो कि
तीन लोकमें सार है
भावार्थ :वीतराग चिदानंद अखंड स्वभाव, आत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान
e pramANe 1sAdhyasAdhakabhAvathI nishchay vyavahAranayathI tIrtha, guru ane devanun svarUp
jANavun, evo bhAvArtha chhe. 95.
have, nishchayathI Atmasamvitti ja (AtmAnun samvedan ja) darshan (samyaktva) chhe, em kahe
chhe
1 sAdhyasAdhakabhAvanAn spaShTIkaraN mATe shrIpanchAstikAy gujarAtI gAthA 166 thI 172 sudhInI
phUTanoT juo.

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adhikAr-1 dohA-96 ]paramAtmaprakAsha [ 159
अण्णु सव्वु ववहारु अन्यः शेषः सर्वोऽपि व्यवहारः तेन कारणेन एक्कु जि जोइय झाइयइ
हे योगिन्, एक एव ध्यायते यः आत्मा कथंभूतः जो तइलोयहं सारु यः परमात्मा
त्रैलोक्यस्य सारभूत इति तद्यथा वीतरागचिदानन्दैकस्वभावात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-
ज्ञानानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयलक्षणनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिपरिणतो निश्चयनयेन स्वात्मैव सम्यक्त्वं
अन्यः सर्वोऽपि व्यवहारस्तेन कारणेन स एव ध्यातव्य इति
अत्र यथा द्राक्षा-
कर्पूरश्रीखण्डादिबहुद्रव्यैर्निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैकं भण्यते, तथा शुद्धा-
त्मानुभूतिलक्षणैर्निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मात्वभेदविवक्षया
एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः
तथा चोक्तं अभेदरत्नत्रयलक्षणम्‘‘दर्शनमात्म-
विनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः स्थितिरात्मन चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति
बन्धः ।।’’ ।।९६।।
अनुभवरूप जो अभेदरत्नत्रय वही जिसका लक्षण है, तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप
समाधिमें लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है
इस
कारण आत्मा ही ध्यावने योग्य है जैसे दाख, कपूर, चन्दन इत्यादि बहुत द्रव्योंसे बनाया गया
जो पीनेका रस यद्यपि अनेक रसरूप है, तो भी अभेदनयकर एक पानवस्तु कही जाती है,
उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ
आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है
यही
अभेदरत्नत्रयका स्वरूप जैन सिद्धान्तोंमें हरएक जगह कहा है‘‘दर्शनमित्यादि’’ इसका अर्थ
ऐसा है, कि आत्माका निश्चय वह सम्यग्दर्शन है, आत्माका जानना वह सम्यग्ज्ञान है, और
bhAvArthanishchayanayathI vItarAg chidAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA
AtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyakanubhUtirUp abhedaratnatrayasvarUp ane
nirvikalpa triguptiyukta samAdhimAn pariNamelo svAtmA ja samyaktva chhe, bAkIno badhoy vyavahAr
chhe, tethI te ja (svAtmA ja) dhyAvavA yogya chhe.
ahIn jevI rIte drAkSha, kapUr, chandanAdi anek dravyothI banel pAnak abhed vivakShAe
karIne ek ja kahevAy chhe, tevI rIte shuddhaAtmAnI anubhUtisvarUp nishchayasamyagdarshan-
gnAnachAritrAtmak anek bhAvorUpe pariNamelo AtmA anek hovA chhatAn abhedavivakShAthI ek ja
kahevAy chhe, evo bhAvArtha chhe. (shrI amRutachandrAchArya kRut puruShArthasiddhyupAy gAthA 216mAn)
abhedaratnatrayanun svarUp e ja pramANe kahyun chhe ke
‘‘दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।।’’ arthaAtmAnA svarUpano nishchay thavo te
samyagdarshan chhe, AtmAnA svarUpanun parignAn thavun te samyaggnAn chhe ane AtmasvarUpamAn lIn

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160 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-97
अथ निर्मलमात्मानं ध्यायस्व येन ध्यातेनान्तर्मुहूर्तेनैव मोक्षपदं लभ्यत इति
निरूपयति
९७) अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण
जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क-खणेण ।।९७।।
आत्मानं ध्यायस्व निर्मलं किं बहुना अन्येन
यं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ।।९७।।
अप्पा झायहि णिम्मलउ आत्मानं ध्यायस्व कथंभूतं निर्मलम् किं बहुएं अण्णेण
किं बहुनान्येन शुद्धात्मबहिर्भूतेन रागादिविकल्पजालमालाप्रपञ्चेन जो झायंतहं परमपउ
आत्मामें निश्चल होना वह सम्यक्चारित्र है, यह निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मोक्षका कारण है, इनसे
बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता
।।९६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल आत्माको ही ध्यावो, जिसके ध्यान करनेसे अंतर्मुहूर्तमें
(तात्काल) मोक्षपदकी प्राप्ति हो
गाथा९७
अन्वयार्थ :हे योगी तू [निर्मलं आत्मानं ] निर्मल आत्माका ही [ध्यायस्व ] ध्यान
कर, [अन्येन बहुना किं ] और बहुत पदार्थोंसे क्या देश काल पदार्थ आत्मासे भिन्न हैं, उनसे
कुछ प्रयोजन नहीं है, रागादि-विकल्पजालके समूहोंके प्रपंचसे क्या फायदा, एक निज
स्वरूपको ध्यावो, [यं ] जिस परमात्माके [ध्यायमानानां ] ध्यान करनेवालोंको [एकक्षणेन ]
क्षणमात्रमें [परमपदं ] मोक्षपद [लभ्यते ] मिलता है
भावार्थ :सब शुभाशुभ संकल्प-विकल्प रहित निजशुद्ध आत्मस्वरूपके ध्यान
करनेसे शीघ्र ही मोक्ष मिलता है, इसलिये वही हमेशा ध्यान करने योग्य है ऐसा ही
thavun te samyagchAritra chhe. jyAre A traNey guN AtmasvarUp chhe to enAthI karmono bandh kevI
rIte thaI shake? (arthAt thaI shakato nathI, te nishchayaratnatray sAkShAt mokShanun kAraN chhe.) 96.
have, kahe chhe ke tun nirmaL AtmAnun dhyAn kar ke jenun dhyAn karavAthI tun antarmuhUrtamAn
ja mokShapad pAmIsha
bhAvArthasamasta shubhAshubh sankalpavikalparahit svashuddhAtmatattvanA dhyAnathI

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adhikAr-1 dohA-97 ]paramAtmaprakAsha [ 161
लब्भइ यं परमात्मानं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते केन कारणभूतेन एक्कखणेण
एकक्षणेनान्तर्मुहूर्तेनापि तथाहि समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्परहितेन स्वशुद्धात्म-
तत्त्वध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन तदेव निरन्तरं ध्यातव्यमिति तथा चोक्तं
बृहदाराधनाशास्त्रे षोडशतीर्थंकराणां एकक्षणे तीर्थकरोत्पत्तिवासरे प्रथमे श्रामण्यबोधसिद्धिः
अन्तर्मुहूर्तेन निर्वृत्ता अत्राह शिष्यः यद्यन्तर्मुहूर्तपरमात्मध्यानेन मोक्षो भवति तर्हि
इदानीमस्माकं तद्धयानं कुर्वाणानां किं न भवति परिहारमाह याद्रशं तेषां
प्रथमसंहननसहितानां शुक्लध्यानं भवति ताद्रशमिदानीं नास्तीति तथा चोक्त म्‘‘अत्रेदानीं
निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनम् ।।’’ अत्र
बृहदाराधना-शास्त्रमें कहा है सोलह तीर्थंकरोंके एक ही समय तीर्थंकरोंके उत्पत्तिके दिन
पहले चारित्र ज्ञानकी सिद्धि हुई, फि र अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष हो गया यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता
है कि यदि परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, तो इस समय ध्यान करनेवाले हम
लोगोंको क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है
कि जैसा निर्विकल्प शुक्लध्यान
वज्रवृषभनाराचसंहननवालोंको चौथे कालमें होता है, वैसा अब नहीं हो सकता ऐसा ही दूसरे
ग्रंथोंमें कहा है‘‘अत्रेत्यादि’’ इसका अर्थ यह है, कि श्रीसर्वज्ञवीतरागदेव इस भरतक्षेत्रमें
इस पंचमकालमें शुक्लध्यानका निषेध करते हैं, इस समय धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान
नहीं हो सकता
उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों ही इस समय नहीं हैं, सातवाँ गुणस्थान
antarmuhUrtamAn mokSha maLe chhe tethI te ja nirantar dhyAvavA yogya chhe. 2bRuhadArAdhanA shAstramAn paN
kahyun chhe ke‘‘षोडशतीर्थंकराणां एकक्षणे तीर्थकरोत्पत्तिवासरे प्रथमे श्रामण्यबोधसिद्धिः अन्तर्मुहूर्तेन
निवृता (artha :RUShabhanAthathI mAnDIne shAntinAth tIrthankar sudhI soL tIrthankarone je divase
divyadhvaninI utpatti thaI hatI te pratham divase bahu munione shrAmaNyabodhasiddhi (chAritra ane
kevaLagnAnanI siddhi) ek kShaNe-antarmuhUrtamAn-thaI).
ahIn, shiShya prashna kare chhe kejo paramAtmAnA dhyAnathI antarmuhUrtamAn mokSha thAy chhe to
atyAre tenun dhyAn karanArA amane kem mokSha thato nathI?
tenun samAdhAnapratham sanhananavALAne (vajravRuShabhanArAchasanhananavALA jIvone) jevun
shukladhyAn thAy chhe tevun shukladhyAn atyAre thatun nathI, (shrI rAmasenakRut tattvAnushAsan gAthA
83mAn) kahyun paN chhe ke
‘‘अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां
प्राग्विवर्तिनाम् ।।’’ arthasarvagnavItarAgajinavaradeve A bharatakShetramAn atyAre (A panchamakALamAn)
1. pAThAntaraकारणभूतेन=करणभूतेन
2. A gAthA sanskRit TIkAvALI bhagavatI ArAdhanAmAn pAn 1771, gAthA 2228mAn chhe.

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162 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-98
येन कारणेन परमात्मध्यानेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते तेन कारणेन संसारस्थिति-
च्छेदनार्थमिदानीमपि तदेव ध्यातव्यमिति भावार्थः
।।९७।।
अथ अस्य वीतरागमनसि शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शास्त्रपुराणतपश्चरणानि किं
कुर्वन्तीति कथयति
९८) अप्पा णियमणि णिम्मलउ णियमेँ वसइ ण जासु
सत्थपुराणइँ तवचरणु मुक्खु वि करहिँ कि तासु ।।९८।।
आत्मा निजमनसि निर्मलः नियमेन वसति न यस्य
शास्त्रपुराणानि तपश्चरणं मोक्षं अपि कुर्वन्ति किं तस्य ।।९८।।
तक गुणस्थान है, ऊ परके गुणस्थान नहीं हैं इस जगह तात्पर्य यह हैं कि जिस कारण
परमात्माके ध्यानसे अंतर्मुहूर्तमें मोक्ष होता है, इसलिये संसारकी स्थिति घटानेके वास्ते अब
भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परया मोक्ष भी मिल सकता है
।।९७।।
आगे ऐसा कहते हैं कि, जिसके राग रहित मनमें शुद्धात्माकी भावना नहीं है, उनके
शास्त्र, पुराण, तपश्चरण क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते
गाथा९८
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसके [निजमनसि ] निज मनमें [निर्मलः आत्मा ] निर्मल
आत्मा [नियमेन ] निश्चयसे [न वसति ] नहीं रहता, [तस्य ] उस जीवके [शास्त्रपुराणानि ]
shukladhyAnano niShedh karyo chhe paN temaNe A kALamAn dharmadhyAn kahyun chhe, (dharmadhyAn hoy em
kahyun chhe.) upasham ane kShapakashreNIthI nIchenA guNasthAnamAn vartatA jIvone dharmadhyAn hoI shake
chhe tevI bhagavAnanI AgnA chhe.
ahIn, je kAraNe paramAtmAnA dhyAnathI antarmuhUrtamAn mokSha maLe chhe te kAraNe sansAranI
sthiti chhedavA mATe atyAre paN (A panchamakALamAn paN) te ja paramAtmAnun dhyAn karavA yogya
chhe, evo bhAvArtha chhe. 97
.
have, kahe chhe ke jenA rAgarahit manamAn shuddhAtmabhAvanA nathI tene shAstra, purAN,
tapashcharaNAdi shun kare? te kahe chhe.
A gAthA sanskRit TIkAvALI bhagavatI ArAdhanA AshvAs 7, gAthA 2028 pAnA
1772nI sanskRit TIkAmAn AdhArarUpe Apel chhe.

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adhikAr-1 dohA-98 ]paramAtmaprakAsha [ 163
अप्पा णियमणि णिम्मलउ णियमें वसइ ण जासु आत्मा निजमनसि निर्मलो नियमेन
वसति तिष्ठति न यस्य सत्थपुराणइं तवचरणु मुक्खु वि करहिं किं तासु शास्त्रपुराणानि
तपश्चरणं च मोक्षमपि किं कुर्वन्ति तस्येति
तद्यथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपा यस्य
शुद्धात्मभावना नास्ति तस्य शास्त्रपुराणतपश्चरणानि निरर्थकानि भवन्ति तर्हि किं सर्वथा
निष्फलानि नैवम् यदि वीतरागसम्यक्त्वरूपस्वशुद्धात्मोपादेयभावनासहितानि भवन्ति तदा
मोक्षस्यैव बहिरङ्गसहकारिकारणानि भवन्ति तदभावे पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति
मिथ्यात्वरागादिसहितानि पापबन्धकारणानि च विद्यानुवादसंज्ञितदशमपूर्वश्रुतं पठित्वा
भर्गपुरुषादिवदिति भावार्थः
।।९८।।
अथात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवतीति दर्शयति
शास्त्रके पुराण [तपश्चरणमपि ] तपस्या भी [किं ] क्या [मोक्षं ] मोक्षको [कुर्वंति ] कर सकते
हैं ? कभी नहीं कर सकते
भावार्थ :वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप शुद्धभावना जिसके नहीं है, उसके शास्त्र,
पुराण, तपश्चरणादि सब व्यर्थ हैं यहाँ शिष्य प्रश्न करता है, कि क्या बिलकुल ही निरर्थक
हैं उसका समाधान ऐसा है, कि बिलकुल तो नहीं है, लेकिन वीतराग सम्यक्त्वरूप निज
शुद्धात्माकी भावना सहित हो, तब तो मोक्षके ही बाह्य सहकारीकारण है, यदि वे
वीतरागसम्यक्त्वके अभावरूप हों, तो पुण्यबंधके कारण हैं, और जो मिथ्यात्वरागादि सहित हों,
तो पापबंधके कारण है, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्व तक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट
हो जाते हैं
।।९८।।
आगे जिन भव्यजीवोंने आत्माको जान लिया, उन्होंने सब जाना ऐसा दिखलाते हैं
bhAvArthavItarAg nirvikalpa samAdhirUp shuddhAtmabhAvanA jene nathI tene shAstra, purAN
ane tapashcharaN nirarthak chhe.
prashna :to shun teo sarvathA (taddan) niShphaL chhe?
tenun samAdhAAn :sarvathA nahi (teo sarvathA niShphaL nathI.) jo ‘vItarAg-samyaktvarUp
shuddhAtmA ja upAdey chhe, evI bhAvanA sahit hoy to teo mokShanAn bahirang sahakArI kAraN
chhe, tenA abhAvamAn teo puNyabandhanAn kAraN chhe. mithyAtva, rAgAdi sahit hoy to, teo
pApabandhanAn kAraN chhe, jem rudrapuruShane vidyAnuvAd nAmanA dashamA pUrva sudhI shAstra bhaNavA chhatAn
pApabandhanAn kAraN thayAn hatAn. e bhAvArtha chhe. 98.
have, AtmAne jANatAn sarva jaNAyun em darshAve chhe

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164 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-99
९९) जोइय अप्पेँ जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ
अप्पहँ केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ ।।९९।।
योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति
आत्मनः संबन्धिनिर्भावे बिम्बितं येन वसति ।।९९।।
जोइय अप्पे जाणिएण हे योगिन् आत्मना ज्ञातेन किं भवति जगु जाणियउ हवेइ
जगत्त्रिभुवनं ज्ञातं भवति कस्मात् अप्पहं केरइ भावडइ बिंबिउ जेण बसेइ आत्मनः
संबन्धिनि भावे केवलज्ञानपर्याये बिम्बितं प्रतिबिम्बितं येन कारणेन वसति तिष्ठतीति
अयमर्थः वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे ज्ञाते सति समस्तद्वादशाङ्गागमस्वरूपं
ज्ञातं भवति कस्मात् यस्माद्राघवपाण्डवादयो महापुरुषा जिनदीक्षां गृहीत्वा द्वादशाङ्गं पठित्वा
गाथा९९
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी [आत्मना ज्ञातेन ] एक अपने आत्माके जाननेसे
[जगत् ज्ञातं भवति ] यह तीन लोक जाना जाता है, [येन ] क्योंकि [आत्मनः संबन्धिनि भावे ]
आत्माके भावरूप केवलज्ञानमें [बिम्बितं ] यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ [वसति ] बस रहा हैं
भावार्थ :वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्मतत्त्वके जानने पर समस्त
द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है क्योंकि जैसे रामचन्द्र, पांडव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष
भी जिनराजकी दीक्षा लेकर फि र द्वादशांगको पढ़कर द्वादशांग पढ़नेका फल निश्चयरत्नत्रय-
स्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे
इसलिये वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकर
अपने आत्माका जानना ही सार है, आत्माके जाननेसे सबका जानपना सफल होता है, इस
कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना
अथवा निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न
bhAvArthavItarAg nirvikalpa svasamvedanarUp gnAn vaDe paramAtmatattva jANatAn, samasta
bAr anganun svarUp jaNAyun, kAraN ke (1) jethI rAm, pAnDav Adi mahApuruSho jinadIkShA laIne
bAr ang bhaNIne bAr anganA adhyayananA phaLarUp, nishchayaratnatrayAtmak paramAtmadhyAnamAn lIn
rahe chhe tethI vItarAg svasamvedanarUp gnAn vaDe nij AtmAne jANatAn sarva jaNAyun chhe. (2) athavA
nirvikalpa samAdhithI utpanna paramAnandarUp sukharasano AsvAd utpanna thatAn ja, puruSh em jANe
ke ‘‘mArun svarUp anya chhe, deh-rAgAdi par chhe’’ tethI AtmAne jANatAn, sarva jaNAyun. (3) athavA
kartArUp AtmA karaNabhUt shrutagnAnarUp vyAptignAnathI sarva lokAlokane jANe chhe tethI AtmAne
jANatAn sarva jaNAyun. (4) athavA kevaLagnAnanI utpattinA bIjarUp vItarAg, nirvikalpa

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adhikAr-1 dohA-99 ]paramAtmaprakAsha [ 165
द्वादशाङ्गाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयात्मके परमात्मध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति
अथवा
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति किं जानाति वेत्ति
मम स्वरूपमन्यद्देहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्वं ज्ञातं भवति अथवा आत्मा
कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन करणभूतेन सर्वं लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते
सर्वं ज्ञातं भवतीति
अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिबलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन
केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिम्बवत् सर्वं लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते
सर्वं ज्ञातं भवतीति अत्रेदं व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागं कृत्वा सर्वतात्पर्येण
निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
तथा चोक्तं समयसारे‘‘जो पस्सइ अप्पाणं
अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं अपदेससुत्तमज्झं पस्सइ जिणसासणं सव्वं ।।’’ ।।९९।।
हुआ जो परमानंद सुखरस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरूप
जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्माके (अपने) जाननेसे
सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया, उसने अपनेसे भिन्न सब पदार्थ जाने
अथवा
आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञानसे सब लोकालोकको जानता है, इसलिये आत्माके जाननेसे सब
जाना गया
अथवा वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न (प्रगट) करके
जैसे दर्पणमें घट पटादि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पणमें सब लोक-अलोक
भासते हैं
इससे यह बात निश्चय हुई, कि आत्माके जाननेसे सब जाना जाता है यहाँ पर सारांश
यह हुआ, कि इन चारों व्याख्यानोंका रहस्य जानकर बाह्य अभ्यंतर सब परिग्रह छोड़कर सब
तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये
ऐसा ही कथन समयसारमें श्रीकुंदकुंदाचार्यने
किया है ‘‘जो पस्सइ’’ इत्यादिइसका अर्थ यह है, कि जो निकट-संसारी जीव स्वसंवेदन-
ज्ञानकर अपने आत्माको अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपनेसे अपनेको देखता है, वह सब जैनशासनको
देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है
कैसा वह आत्मा है ? रागादिक ज्ञानावरणादिकसे रहित है,
traNaguptiyukta samAdhinA baLathI kevaLagnAn utpanna thatAn, jevI rIte darpaNamAn padArtho pratibimbit
thAy chhe tevI rIte sarvalokanun svarUp jaNAy chhe. e kAraNe AtmAne jANatAn, sarva jaNAyun.
ahIn, A chAr prakAranun vyAkhyAn jANIne, bAhya abhyantar parigrahano tyAg karIne, sarva
tAtparyathI nij shuddhAtmAnI bhAvanA kartavya chhe, evo bhAvArtha chhe. shrI samayasAr (gAthA 15)mAn
paN kahyun chhe ke
‘‘जो पस्सइ अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं अपदेससुत्तमज्झं पस्सइ जिणसासणं
सव्वं ।। arthaje puruSh AtmAne abaddhaspRuShTa, ananya, avisheSh (tathA upalakShaNathI niyat
ane asanyukta) dekhe chhe te sarva jinashAsanane dekhe chhe-ke je jinashAsan bAhya dravyashrut tem ja

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166 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-100
अथैतदेव समर्थयति
१००) अप्पसहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु
दीसइ अप्पसहावि लहु लोयालोउ असेसु ।।१००।।
आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां एष भवति विशेषः
द्रश्यते आत्मस्वभावे लघु लोकालोकः अशेषः ।।१००।।
अप्पसहावि परिट्ठियहं आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां पुरुषाणां, एहउ होइ विसेसु एष
प्रत्यक्षीभूतो विशेषो भवति एष कः दीसइ अप्पसहावि लहु द्रश्यते परमात्मस्वभावे
स्थितानां लघु शीघ्रम् अथवा पाठान्तरं ‘दीसइ अप्पसहाउ लहु’ द्रश्यते, स कः,
अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान मार्गणा जीवसमास
इत्यादि सब भेदोंसे रहित है
ऐसे आत्माके स्वरूपको जो देखता है, जानता है, अनुभवता
है, वह सब जिनशासनका मर्म जाननेवाला है ।।९९।।
अब इसी बातका समर्थन (दृढ़) करते हैं
गाथा१००
अन्वयार्थ :[आत्मस्वभावे ] आत्माके स्वभावमें [प्रतिष्ठितानां ] लीन हुए
पुरुषोंके [एष विशेषः भवति ] प्रत्यक्षमें जो यह विशेषता होती है, कि [आत्मस्वभावे ]
आत्मस्वभावमें उनको [अशेषः लोकालोकः ] समस्त लोकालोक [लघु ] शीघ्र ही
[दृश्यते ] दिख जाता है
भावार्थ :अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, ‘‘अप्पसहाव लहु’’ इसका अर्थ
abhyantar gnAnarUp bhAvashrutavALun chhe. 99.
have, A vAtanun ja samarthan kare chhe
bhAvArthaahIn visheShapaNe pUrva sUtramAn kahelAn chArey vyAkhyAn jANavA, kAraN ke te
vyAkhyAn pramANe vRuddha AchAryonI sAkShI paN maLI Ave chhe.
(kAraN ke te vyAkhyAnano, vRuddha AchAryonA matanI sAthe paN meL khAy chhe.) 100.
have, A ja arthane draShTAnt drArShTAntathI draDh kare chhe