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सूक्ष्मशुद्धनिश्चयेन न भण्यत इति
जीवका स्वरूप नहीं है
शुद्धात्मस्वरूपका साधक है, इसलिये उपचारनयकर जीवका स्वरूप कहा जाता है, तो भी
परमसूक्ष्म शुद्धनिश्चयनयकर भावलिंग भी जीवका नहीं है
शूरवीर नहीं है, कायर नहीं है, [उत्तमः नैव ] उच्चकुली नहीं है, [नीचः नैव भवति ] और
नीचकुली भी नहीं है
shuddha jIvanun svarUp kahevAmAn Avatun nathI. 88.
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स्वात्मसंबद्धान् करोति तानेव वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थो अन्तरात्मा परस्वरूपान् जानातीति
भावार्थः
इन भेदोंको वीतरागपरमानंद निज शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिजीव अपने
समझता है, और इन्हीं भेदोंको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव
पर रूप (दूसरे) जानता है
[नारकः ] नारकी भी [क्वापि नैव ] कभी नहीं, अर्थात् किसी प्रकार भी पररूप नहीं है, परन्तु
[ज्ञानी ] ज्ञानस्वरूप है, उसको [योगी ] मुनिराज तीन गुप्तिके धारक और निर्विकल्पसमाधिमें
लीन हुए [जानाति ] जानते हैं
chhe ane temane ja vItarAg nirvikalpa samAdhistha antarAtmA parasvarUp jANe chhe, e bhAvArtha
chhe. 89.
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न भवति
तदुदयजनितान् मनुष्यादिविभावपर्यायान् भेदाभेदरत्नत्रयभावनाच्युतो बहिरात्मा स्वात्मतत्त्वे
योजयति
मनुष्यादि विभाव-पर्यायोंको भेदाभेदस्वरूप रत्नत्रयकी भावनासे रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव
अपने जानता है, और इस अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायोंको अपनेसे
जुदा जानता है
है, [तरुणः वृद्धः बालः नैव ] जवान, बूढ़ा और बालक भी नहीं है, [अन्यः अपि कर्म विशेषः ]
ये सब पर्यायें आत्मासे जुदे कर्मके विशेष हैं, अर्थात् क र्ममें उत्पन्न हुए विभाव-पर्याय हैं
vibhAvapariNAmanI jALathI upArjan karavAmAn AvelAn karmonA udayathI thayel manuShyAdi
vibhAvaparyAyone svAtmatattvamAn yoje chhe-joDe chhe, tenAthI viparIt ‘antarAtmA’ shabdathI vAchya
evo gnAnI temane pRuthak jANe chhe. e abhiprAy chhe. 90.
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वीतरागस्वसंवेदनज्ञानभावनारहितोऽपि बहिरात्मा स्वस्मिन्नियोजयति तानेव पण्डितादि-
विभावपर्यायांस्तद्विपरीतो योऽसौ चान्तरात्मा परस्मिन् कर्माणि नियोजयतीति तात्पर्यार्थः
पंडितादि विभावपर्यायोंको अज्ञानसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपनेसे जुदे कर्मजनित जानता
है
shuddhAtmadravyathI bhinna ane sarvaprakAre heyabhUt chhe temane potAmAn yoje chhe
(temane potAthI judA karmajanit jANe chhe.) e tAtpayArtha chhe. 91.
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पूर्वोक्त मेकमप्यात्मा न भवति
पापादिधर्माधर्मान्मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव पुण्यपापादि
समस्तसंकल्पविकल्पपरिहारभावनारूपे स्वशुद्धात्मद्रव्ये सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मके परमसमाधौ स्थितोऽन्तरात्मा शुद्धात्मनः सकाशात् पृथग् जानातीति
तात्पर्यार्थः
[कायः ] शरीर, इनमेंसे [एक अपि ] एक भी [आत्मा ] आत्मा [नैव भवति ] नहीं है,
[चेतनभावम् मुक्तवा ] चेतनभावको छोड़कर अर्थात् एक चेतनभाव ही अपना है
हुआ बहिरात्मा जानता है, और उन्हींको पुण्य, पापादि समस्त संकल्प, विकल्परहित निज
शुद्धात्मद्रव्यमें सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेदरत्नत्रयस्वरूप परमसमाधिमें तिष्ठता
सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मासे जुदे जानता है
dharmAdharmAdi dravyone potAmAn yoje chhe ane temane ja, puNyapApAdi samasta sankalpa-vikalpanA
tyAganI bhAvanArUp, nijashuddhAtmadravyanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyakAcharaNarUp
abhedaratnatrayAtmak paramasamAdhimAn sthit evo antarAtmA shuddhAtmAthI pRuthak jANe chhe. 92.
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सूत्र कहे
किया कि यदि पुण्य-पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्नका श्रीगुरु समाधान
करते हैं
[आत्मानम् जानन् ] अपनेको जानता अनुभवता हुआ [आत्मा ] आत्मा [शाश्वतमोक्षपदं ]
अविनाशी सुखका स्थान मोक्षका मार्ग है
A pramANe
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च भवति
स्थितिकरणात् संयमो भवति, बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन कामक्रोधविवर्जनलक्षणेन व्रतपरिरक्षण-
शीलेन निश्चयेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मद्रव्यनिर्मलानुभवनेन शीलं भवति
शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिर होनेसे आत्माको संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शीलका
कारणरूप जो काल क्रोधादिके त्यागरूप व्रतकी रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनयकर
अंतरंगमें अपने शुद्धात्मद्रव्यका निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा
ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकारका तप है, उससे तथा
निश्चयकर अंतरंगमें सब परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे परमात्मस्वभाव (निजस्वभाव) में
प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभावपरिणामोंके जीतनेसे आत्मा ही ‘तपश्चरण
है, और आत्मा ही निजस्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे
सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही
है, अन्य कोई नहीं है, वीतरागसंवेदनज्ञानके अनुभवसे आत्मा ही निश्चयज्ञानरूप है, और
te tapashcharaN chhe.
karIne paramAtmatattvamAn paramasamarasIbhAvanun pariNaman te mokShamArga chhe.
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प्रतपनाद्विजयनात्तपश्चरणं भवति
इति तात्पर्यार्थः
आत्मा ही मोक्षमार्ग है
साधकपनेसे आत्मा ही उपादेय है
evo tAtparyArtha chhe. 93.
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सम्यक्त्वं भवति, तथापि निश्चयेन वीतरागपरमानन्दैकस्वभावः शुद्धात्मोपादेय इति
रुचिरूपपरिणामपरिणतशुद्धात्मैव निश्चयसम्यक्त्वं भवति
निश्चयज्ञानं भवति
[जानीहि ] तू जान, अर्थात् आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्र है, ऐसा संदेह रहित जानो
व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानंदस्वभाववाला
शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणामसे परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है,
यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनज्ञानका साधक होनेसे व्यवहारनयकर शास्त्रका ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी
निश्चयनयकर वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है
कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्रको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही
nishchayanayathI vItarAg paramAnand jeno ek svabhAv chhe evo shuddha AtmA upAdey chhe , evI
ruchirUp pariNAme pariNamelo shuddha AtmA ja nishchayasamyaktva chhe; jo ke shAstragnAn
nishchayasvasamvedanagnAnanun sAdhak hovAthI vyavahArathI gnAn chhe, topaN nishchayanayathI
vItarAgasvasamvedanagnAnarUpe pariNamelo shuddha AtmA ja nishchayagnAn chhe; jo ke vyavahAranayathI mUL
-uttar guNo (aThThAvIs mUL guNo, chorAsIlAkh uttar guNo) nishchayachAritranA sAdhak hovAthI
chAritra chhe topaN nishchayanayathI shuddhAtmAnubhUtirUp vItarAgachAritrarUpe pariNamelo svashuddhAtmA ja
chAritra chhe.
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अन्य [देवं ] देवको [मा चिन्तय ] मत ध्यावे, [आत्मानं विमलं ] रागादि मल रहित आत्माको
[मुक्तवा ] छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहाँ रमण कर, आत्मा ही गुरु है, उसकी
सेवा कर और आत्मा ही देव है उसीकी आराधना कर
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संसारसमुद्रतरणसमर्थत्वान्निश्चयनयेन स्वात्मतत्त्वमेव तीर्थं भवति
स्वशुद्धात्मैव गुरुः
वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप छेद रहित जहाजकर संसाररूपी समुद्रके तरनेको समर्थ जो निज
आत्मतत्त्व है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परासे परमात्मतत्त्वका लाभ होता है
कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागनेके समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसीसे
संसारकी निवृत्ति होती है
परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य
नहीं
chhidra rahit jahAj vaDe sansArasamudrane taravAne samartha hovAthI nishchayanayathI svaAtmatattva ja tIrtha
chhe
hovAthI ‘svashuddhAtmA’ ja guru chhe.
kahevAy chhe topaN, nishchayanayathI param ArAdhya hovAthI vItarAg nirvikalpa triguptiyukta
paramasamAdhikALe ‘svashuddhAtmasvabhAv’ ja dev chhe.
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स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति
ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्थामें आराधने योग्य हैं
ऐसा सारांश हुआ
[एक एव ध्यायते ] एक आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः ] जो कि
तीन लोकमें सार है
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अन्यः सर्वोऽपि व्यवहारस्तेन कारणेन स एव ध्यातव्य इति
त्मानुभूतिलक्षणैर्निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मात्वभेदविवक्षया
एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः
समाधिमें लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है
उसी तरह शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावोंसे परिणत हुआ
आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनयकी विवक्षासे आत्मा एक ही वस्तु है
nirvikalpa triguptiyukta samAdhimAn pariNamelo svAtmA ja samyaktva chhe, bAkIno badhoy vyavahAr
chhe, tethI te ja (svAtmA ja) dhyAvavA yogya chhe.
gnAnachAritrAtmak anek bhAvorUpe pariNamelo AtmA anek hovA chhatAn abhedavivakShAthI ek ja
kahevAy chhe, evo bhAvArtha chhe. (shrI amRutachandrAchArya kRut puruShArthasiddhyupAy gAthA 216mAn)
abhedaratnatrayanun svarUp e ja pramANe kahyun chhe ke
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बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता
स्वरूपको ध्यावो, [यं ] जिस परमात्माके [ध्यायमानानां ] ध्यान करनेवालोंको [एकक्षणेन ]
क्षणमात्रमें [परमपदं ] मोक्षपद [लभ्यते ] मिलता है
rIte thaI shake? (arthAt thaI shakato nathI, te nishchayaratnatray sAkShAt mokShanun kAraN chhe.) 96.
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लोगोंको क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है
नहीं हो सकता
kevaLagnAnanI siddhi) ek kShaNe-antarmuhUrtamAn-thaI).
83mAn) kahyun paN chhe ke
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च्छेदनार्थमिदानीमपि तदेव ध्यातव्यमिति भावार्थः
भी धर्मध्यानका आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परया मोक्ष भी मिल सकता है
kahyun chhe.) upasham ane kShapakashreNIthI nIchenA guNasthAnamAn vartatA jIvone dharmadhyAn hoI shake
chhe tevI bhagavAnanI AgnA chhe.
chhe, evo bhAvArtha chhe. 97
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तपश्चरणं च मोक्षमपि किं कुर्वन्ति तस्येति
भर्गपुरुषादिवदिति भावार्थः
हैं ? कभी नहीं कर सकते
वीतरागसम्यक्त्वके अभावरूप हों, तो पुण्यबंधके कारण हैं, और जो मिथ्यात्वरागादि सहित हों,
तो पापबंधके कारण है, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्व तक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट
हो जाते हैं
chhe, tenA abhAvamAn teo puNyabandhanAn kAraN chhe. mithyAtva, rAgAdi sahit hoy to, teo
pApabandhanAn kAraN chhe, jem rudrapuruShane vidyAnuvAd nAmanA dashamA pUrva sudhI shAstra bhaNavA chhatAn
pApabandhanAn kAraN thayAn hatAn. e bhAvArtha chhe. 98.
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आत्माके भावरूप केवलज्ञानमें [बिम्बितं ] यह लोक प्रतिबिम्बित हुआ [वसति ] बस रहा हैं
स्वरूप जो शुद्धपरमात्मा उसके ध्यानमें लीन हुए तिष्ठे थे
कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना
bAr ang bhaNIne bAr anganA adhyayananA phaLarUp, nishchayaratnatrayAtmak paramAtmadhyAnamAn lIn
rahe chhe tethI vItarAg svasamvedanarUp gnAn vaDe nij AtmAne jANatAn sarva jaNAyun chhe. (2) athavA
nirvikalpa samAdhithI utpanna paramAnandarUp sukharasano AsvAd utpanna thatAn ja, puruSh em jANe
ke ‘‘mArun svarUp anya chhe, deh-rAgAdi par chhe’’ tethI AtmAne jANatAn, sarva jaNAyun. (3) athavA
kartArUp AtmA karaNabhUt shrutagnAnarUp vyAptignAnathI sarva lokAlokane jANe chhe tethI AtmAne
jANatAn sarva jaNAyun. (4) athavA kevaLagnAnanI utpattinA bIjarUp vItarAg, nirvikalpa
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वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्वं ज्ञातं भवतीति
सर्वं ज्ञातं भवतीति
सर्वं ज्ञातं भवतीति अत्रेदं व्याख्यानचतुष्टयं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागं कृत्वा सर्वतात्पर्येण
निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति तात्पर्यम्
जुदा है, और देह रागादिक मेरेसे दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्माके (अपने) जाननेसे
सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपनेको जान लिया, उसने अपनेसे भिन्न सब पदार्थ जाने
जाना गया
भासते हैं
तरहसे अपने शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये
देखता है, ऐसा जिनसूत्रमें कहा है
thAy chhe tevI rIte sarvalokanun svarUp jaNAy chhe. e kAraNe AtmAne jANatAn, sarva jaNAyun.
paN kahyun chhe ke
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इत्यादि सब भेदोंसे रहित है
आत्मस्वभावमें उनको [अशेषः लोकालोकः ] समस्त लोकालोक [लघु ] शीघ्र ही
[दृश्यते ] दिख जाता है
have, A ja arthane draShTAnt drArShTAntathI draDh kare chhe