Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 44-46 (Adhikar 2),46 (Adhikar 2)*1,47 (Adhikar 2),48 (Adhikar 2),49 (Adhikar 2),50 (Adhikar 2),51 (Adhikar 2),52 (Adhikar 2).

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adhikAr-2 dohA-43 ]paramAtmaprakAsha [ 287
तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे
ते परं सुखिनः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ।।४३।।
तत्तातत्तु इत्यादि तत्तातत्तु मुणेवि अन्तस्तत्त्वं बहिस्तत्त्वं मत्वा क्व मणि मनसि
जे ये केचन वीतरागस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानिनः थक्का स्थिता क्व सम-भावि परमोशमपरिणामे
ते पर त एव सुहिया सुखिनः इत्थु जगि अत्र जगति के ते जहं रइ येषां रतिः
क्व अप्प-सहावि स्वकीयशुद्धात्मस्वभावे इति तथाहि यद्यपि व्यवहारेणानादिबन्धनबद्धं
तिष्ठति तथापि शुद्धनिश्चयेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धरहितं, यद्यप्यशुद्धनिश्चयेन स्वकृत-
शुभाशुभकर्मफलभोक्ता तथापि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन निजशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैक-
सुखामृतभोक्ता, यद्यपि व्यवहारेण कर्मक्षयानन्तरं मोक्षभाजनं भवति तथापि शुद्धपारिणामिक-
परमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सदा मुक्त मेव, यद्यपि व्यवहारेणेन्द्रियजनितज्ञानदर्शनसहितं
bhAvArthajoke A shuddhAtmadravya vyavahAranayathI anAdikALathI bandhanathI bandhAyelo chhe
topaN shuddha nishchayanayathI prakRiti, sthiti, anubhAg, pradesh e chAr prakAranA bandhathI rahit chhe,
tathA ashuddhanishchayanayathI svaprakRut (pote upArjan karelA) shubh-ashubh karmanA phaLano bhoktA
chhe topaN shuddhadravyArthikanayathI nijashuddhAtmatattvanI bhAvanAthI utpanna ek (kevaL) vItarAg
paramAnandarUp sukhAmRutano bhoktA chhe, temaj vyavahAranayathI karmanA kShay TANe ja mokShanun bhAjan
thAy chhe topaN shuddha pAriNAmik paramabhAvagrAhak shuddhadravyArthikanayathI sadA mukta ja chhe, jo-
गाथा४३
अन्वयार्थ :[ये ] जो कोई वीतराग स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानी जीव [तत्त्वातत्त्वं ]
आराधने योग्य निज पदार्थ और त्यागने योग्य रागादि सकल विभावोंको [मनसि ] मनमें
[मत्वा ] जानकर [समभावे स्थिताः ] शांतभावमें तिष्ठते हैं, और [येषां रतिः ] जिनकी लगन
[आत्मस्वभावे ] निज शुद्धात्म स्वभावमें हुई है, [ते परं ] वे ही जीव [अत्र जगति ] इस
संसारमें [सुखिनः ] सुखी हैं
भावार्थ :यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिकालसे कर्मबंधनकर बँधा है, तो
भी शुद्धनिश्चयनयकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशइन चार तरहके बंधनोंसे रहित है,
यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयसे अपने उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मोंके फलका भोक्ता है, तो भी
शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे निज शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखरूप
अमृतका ही भोगनेवाला है, यद्यपि व्यवहारनयसे कर्मोंके क्षय होनेके बाद मोक्षका पात्र है,
तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सदा मुक्त ही है, यद्यपि

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288 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-43
तथापि निश्चयेन सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावं, यद्यपि व्यवहारेण स्वोपात्तदेहमात्रं तथापि
निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशं, यद्यपि व्यवहारेणोपसंहारविस्तारसहितं तथापि
मुक्तावस्थायामुपसंहारविस्ताररहितं चरमशरीरप्रमाणप्रदेशं, यद्यपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्यय-
ध्रौव्ययुक्तं तथापि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निजशुद्धात्मद्रव्यं पूर्वं ज्ञात्वा
तद्विलक्षणं परद्रव्यं च निश्चित्य पश्चात् समस्तमिथ्यात्वरागादिविकल्पत्यागेन वीतराग-
चिदानन्दैकस्वभावे स्वशुद्धात्मतत्त्वे ये रतास्त एव धन्या इति भावार्थः
तथा चोक्तं परमात्म-
तत्त्वलक्षणे श्रीपूज्यपादस्वामिभिःनाभावो सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तै :
ke vyavahAranayathI indriyajanit gnAnadarshan sahit chhe topaN nishchayanayathI sakaL-vimaL
kevaLagnAn-kevaLadarshanasvabhAvavALo chhe, tathA vyavahAranayathI potAnA upArjelA deh jevaDo ja chhe
topaN nishchayanayathI lokAkAshapramAN asankhyAtapradeshI chhe, vyavahAranayathI pradeshonA sankoch
-vistAr sahit chhe topaN mukta-avasthAmAn sankoch-vistAr rahit charamasharIrapramAN pradeshavALo
chhe, joke paryAyArthikanayathI utpAdavyayadhrauvyayukta chhe topaN dravyArthikanayathI nitya TankotkIrNa
gnAyak ja jeno ek svabhAv chhe. evA nijashuddhAtmadravyane pratham jANIne ane nijashuddhAtma
dravyathI vilakShaN paradravyano nishchay karIne pachhI samasta mithyAtvarAgAdi vikalpano tyAg karIne
vItarAg chidAnand ja jeno ek svabhAv chhe, evA svashuddhAtmatattvamAn jeo rat thayA teo
ja dhanya chhe, shrI pUjyapAdasvAmIe paramAtmatattvanA lakShaNamAn paN kahyun chhe ke
‘‘नाभावो सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तै :
अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभाजी ।।
व्यवहारनयकर इंद्रियजनित मति आदि क्षयोपशमिकज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन सहित है तो भी
निश्चयनयसे सकल विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाववाला है, यद्यपि व्यवहारनयकर
यह जीव नामकर्मसे प्राप्त देहप्रमाण है, तो भी निश्चयनयसे लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी
है, यद्यपि व्यवहारनयसे प्रदेशोंके संकोच विस्तार सहित है, तो भी सिद्ध
अवस्थामें संकोच
विस्तारसे चरमशरीरप्रमाण प्रदेशवाला है, और यद्यपि पर्यायार्थिकनयसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यकर
सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनयकर टंकोत्कीर्ण ज्ञानके अखंड स्वभावसे ध्रुव ही है
इस तरह
पहिले निज शुद्धात्मद्रव्यको अच्छी तरह जानकर और आत्मस्वरूपसे विपरीत पुद्गलादि
परद्रव्योंको भी अच्छी तरह निश्चय करके अर्थात् आप परका निश्चय करके बादमें समस्त
मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंको छोड़कर वीतराग चिदानंद स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वमें जो लीन हुए
हैं, वे ही धन्य हैं
ऐसा ही कथन परमात्मतत्त्वके लक्षणमें श्रीपूज्यपादस्वामीने कहा है,
‘‘नाभाव’’ इत्यादि अर्थात् यह आत्मा व्यवहारनयकर अनादिका बँधा हुआ है, और अपने
यह श्लोक अपूर्ण है, भाषामें ‘नाभाव’ आदि लिखा है

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adhikAr-2 dohA-44 ]paramAtmaprakAsha [ 289
अस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतजफलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभाजी ज्ञाताद्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहार-
विस्तारधर्मा ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः’’ ।।४३।।
अथ योऽसावेवोपशमभावं करोति तस्य निन्दाद्वारेण स्तुतिं त्रिकलेन कथयति
१७०) बिण्णि वि दोस हवंति तसु जो समभाउ करेइ
बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ ।।४४।।
द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति
बन्धं एव निहन्ति आत्मीयं अन्यत् जगद् ग्रहिलं करोति ।।४४।।
ज्ञाताद्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तार धर्मा
ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः ।।’’
(siddhabhakti-2)
(arthakoI potAno ke potAnA guNano abhAv karavA mATe tapashcharyAdi vidhinI pravRutti
kare ja nahi.
AtmA anAdithI karmo vaDe bandhAyelo, pote upArjelA shubhAshubh karmano bhoktA tenA
kShayathI mokShano bhoktA, gnAtA-draShTA, sansAr-avasthAmAn svadeh pramANarUp, sankoch-
vistAranA svabhAvavALo, utpAd vyayadhrauvyasvarUp ane potAnA guNathI yukta chhe, AvA
svarUpe AtmAne jANavAthI sAdhyanI siddhi chhe, anya prakAre jANavAthI sAdhyanI siddhi thatI
nathI. 43.
किये हुए कर्मोंके फलका भोक्ता है, उन कर्मोंके क्षयसे मोक्षपदका भोक्ता है, ज्ञाता है,
देखनेवाला है, अपनी देहके प्रमाण हैं, संसार
अवस्थामें प्रदेशोंके संकोच विस्तारको धारण
करता हैं, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सहित है, और अपने गुण पर्याय सहित है इसप्रकार आत्माके
जाननेसे ही साध्यकी सिद्धि है, दूसरी तरह नहीं है ।।४३।।
आगे जो संयमी परम शांतभावका ही कर्ता है, उसकी निंदा द्वारा स्तुति तीन गाथाओंमें
करते हैं
गाथा४४
अन्वयार्थ :[यः ] जो साधु [समभावं ] राग-द्वेषके त्यागरूप समभावको
[करोति ] करता है, [तस्य ] उस तपोधनके [द्वौ अपि दोषौ ] दो दोष [भवतः ] होते हैं

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290 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-44
बिण्णि वि इत्यादि बिण्णि वि द्वावपि द्वौ कौ दोस दोषौ हवंति भवतः
तसु यस्य तपोधनस्य जो सम-भाउ करेइ यः समभावं करोति रागद्वेषत्यागं करोति
कौ तौ द्वौ दोषौ बंधु जि णिहणइ बन्धमेव निहन्ति कथंभूतं बन्धम् अप्पणउ
आत्मीयं अणु पुनः जगु जगत् प्राणिगणं गहिलु करेइ ग्रहिलं पिशाचसमानं विकलं
करोति
अयमत्र भावार्थः समशब्देनात्राभेदनयेन रागादिरहित आत्मा भण्यते, तेन
कारणेन योऽसौ समं करोति वीतरागचिदानन्दैक स्वभावं निजात्मानं परिणमति तस्य दोषद्वयं
भवति
कथमिति चेत् प्राकृतभाषया बन्धुशब्देन ज्ञानावरणादिबन्धा भण्यन्ते गोत्रं च
येन कारणेनोपशमस्वभावेन परमात्मस्वरूपेण परिणतः सन् ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं निहन्ति
तेन कारणेन स्तवनं भवति, अथवा येन कारणेन बन्धुशब्देन गोत्रमपि भण्यते तेन
have, je sanyamI upashamabhAvane kare chhe tenI nindA dvArA stuti traN gAthAsUtro dvArA kahe
chhe
bhAvArthaahIn abhedanayathI ‘sam’ shabdathI rAgAdi rahit AtmA samajavo;
tethI je koI samatA kare chhevItarAg chidAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA nij
AtmArUpe pariName chhetene be doSh Upaje chhe. kevI rIte? prAkRit bhAShAmAn ‘bandhu’ shabdathI
gnAnAvaraNAdi karmano bandh kahevAy chhe ane bhAI paN kahevAy chhe. je kAraNe upasham
(shAnt) svabhAvathI paramAtmasvarUpe pariNamyo thako gnAnAvaraNAdi karmabandhane haNe chhe te kAraNe
stuti thAy chhe; je kAraNe ‘bandhu’ shabdano artha bhAI paN levAy chhe te ‘bandhughAtI’ e
arthathI lokavyavahArabhAShAthI nindA paN thAy chhe (A doSh nathI paN guN chhe, A nindA
dvArA stuti chhe.)
[आत्मीयं बंधं एव निहंति ] एक तो अपने बंधको नष्ट करता है, [पुनः ] दूसरे [जगद् ग्रहिलं
करोति ] जगत्के प्राणियोंको बावला
पागल बना देता है
भावार्थ :यह निंदा द्वारा स्तुति है प्राकृत भाषामें बंधु शब्दसे ज्ञानावरणादि कर्मबंध
भी लिया जाता है, तथा भाईको भी कहते हैं यहाँ पर बंधुहत्या निंद्य है, इससे एक तो
बंधुहत्याका दोष आया तथा दूसरा दोष यह है, कि जो कोई इनका उपदेश सुनता है, वह
वस्त्र आभूषणका त्यागकर नग्न दिगंबर हो जाता है कपड़े उतारकर नंगा हो जाना उसे लोग
गहलापागल कहते हैं ये दोनों लोकव्यवहारमें दोष हैं, इन शब्दोंके ऐसे अर्थ ऊ परसे निकाले
हैं परंतु दूसरे अर्थमें कोई दोष नहीं है, स्तुति ही है क्योंकि कर्मबंध नाश करने ही योग्य
है, तथा जो समभावका धारक है, वह आप नग्न दिगम्बर हो जाता है, और अन्यको दिगम्बर

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adhikAr-2 dohA-45 ]paramAtmaprakAsha [ 291
कारणेन बन्धुघाती लोकव्यवहारभाषया निन्दापि भवतीति तथा चोक्त म् लोकव्यवहारे
ज्ञानिनां लोकः पिशाचो भवति लोकस्याज्ञानिजनस्य ज्ञानि पिशाच इति ।।४४।।
अथ
१७१) अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ
सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहँ णिलीणु हवेइ ।।४५।।
अन्यः अपि दोषो भवति तस्य यः समभावं करोति
शत्रुमपि मुक्त्वा आत्मीयं परस्य निलीनः भवति ।।४५।।
अण्णु वि इत्यादि अण्णु वि न केवलं पूर्वोक्त अन्योऽपि दोसु दोषः हवेइ
भवति तसु तस्य तपोधनस्य यः किं करोति जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं
vaLI, kahyun paN chhe ke‘‘लोकव्यवहारे ज्ञानिनां लोकः पिशाचः भवति लोकस्याज्ञानिजनस्य
ज्ञानी पिशाच इति ।।’’ (arthalokavyavahAramAn gnAnIone jagatanA loko pishAch (pAgal)
lAge chhe, jyAre lokanA mUDh agnAnI janone gnAnI pishAch lAge chhe.) 44.
have, samatAnA dhArak muninI pharI nindA-stuti kare chhe
bhAvArthaje rAgAdirahit samabhAvasvarUp nijaparamAtmAnI bhAvanA kare chhe te puruSh
‘shatru’ shabdathI vAchya evA gnAnAvaraNAdi karmarUp nishchayashatrune chhoDe chhe ane ‘par’ shabdathI vAchya
कर देता है, सो मूढ़ लोग निंदा करते हैं यह दोष नहीं है गुण ही है मूढ़ लोगोंके जाननेमें
ज्ञानीजन बावले हैं, और ज्ञानियोंके जाननेमें जगतके जन बावले हैं क्योंकि ज्ञानी जगतसे
विमुख हैं, तथा जगत् ज्ञानियोंसे विमुख है ।।४४।।
आगे समभावके धारक मुनिकी फि र भी निंदास्तुति करते हैं
गाथा४५
अन्वयार्थ :[यः ] जो [समभावं ] समभावको [करोति ] करता है, [तस्य ] उस
तपोधनके [अन्यः अपि दोषः ] दूसरा भी दोष [भवति ] है क्योंकि [परस्य निलीनः ] परके
आधीन [भवति ] होता है, और [आत्मीयं अपि ] अपने आधीन भी [शत्रुम् ] शत्रुको [मुंचति ]
छोड़ देता है
भावार्थ :जो तपोधन धन धान्यादिका राग त्यागकर परम शांतभावको आदरता है,
राजा-रंकको समान जानता है, उसके दोष कभी नहीं हो सकता सदा स्तुतिके योग्य है, तो

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292 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-46
करोति पुनरपि किं करोति सत्तु वि मिल्लिवि शत्रुमपि मुञ्चति कथंभूतं शत्रुम्
अप्पणउ आत्मीयम् पुनश्च किं करोति परहं णिलीणु हवेइ परस्यापि लीनः अधीनो
भवति इति अयमत्र भावार्थः यो रागादिरहितस्य समभावलक्षणस्य निजपरमात्मनो भावनां
करोति स पुरुषः शत्रुशब्दवाच्यं ज्ञानावरणादिकर्मरूपं निश्चयशत्रु मुञ्चति परशब्दवाच्यं
परमात्मानमाश्रयति च तेन कारणेन तस्य स्तुतिर्भवति
अथवा यथा लोकव्यवहारेण
बन्धनबद्धं निजशत्रुं मुक्त्वा कोऽपि केनापि कारणेन तस्यैव परशब्दवाच्यस्य शत्रोरधीनो
भवति तेन कारणेन स निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन तपोधनोऽपीति
।।४५।।
अथ
१७२) अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ
वियलु हवेविणु इक्कलउ उप्परि जगहँ चडेइ ।।४६।।
अन्यः अपि दोषः भवति तस्य यः समभावं करोति
विकलः भूत्वा एकाकी उपरि जगतः आरोहति ।।४६।।
evA paramAtmAno Ashray kare chhe, te kAraNe tenI stuti thAy chhe athavA jevI rIte lokavyavahAramAn
bandhanathI bandhAyel nijashatrune chhoDIne koI paN kAraNe pote ja ‘par’ shabdathI vAchya evA
shatrune AdhIn thAy chhe tethI nindA pAme chhe, tevI rIte tapodhan paN shabdanA chhaLathI nindA pAme
chhe. 45.
भी शब्दकी योजनासे निंदा द्वारा स्तुति की गई है, वह इस तरहसे है कि शत्रु शब्दसे कहे गये
जो ज्ञानावरणादि कर्म
शत्रु उनको छोड़कर पर शब्दसे कहे गये परमात्माका आश्रय करता है
इसमें निंदा क्या हुआ, बल्कि स्तुति ही हुई परंतु लोकव्यवहारमें अपने आधीन शत्रुको छोड़कर
किसी कारणसे पर शब्दसे कहे गये शत्रुके आधीन आप होता है, इसलिये लौकिकनिंदा हुई;
यह शब्दके निंदास्तुति की गई वह शब्दसे श्लेष होनेसे रूपअलंकार कहा गया है ।।४५।।
आगे समदृष्टिकी फि र भी निंदास्तुति करते हैं
गाथा४६
अन्वयार्थ :[यः ] जो तपस्वी महामुनि [समभावं ] समभावको [करोति ] करता
1 pAThAntaraमुञ्चति = मुक्त्वा

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adhikAr-2 dohA-46 ]paramAtmaprakAsha [ 293
अण्णु वि इत्यादि अण्णु वि न केवलं पूर्वोक्त ऽन्योऽपि दोसु दोषः हवेइ भवति
तसु तस्य तपस्विनः यः किं करोति जो सम-भाउ करेइ यः कर्ता समभावं करोति
पुनरपि किं करोति वियलु हवेविणु विकलः कलरहितः शरीररहितो भूत्वा इक्कलउ एकाकी
पश्चात् उप्परि जगहं चडेइ उपरितनभागे जगतो लोकस्यारोहणं करोतीति
अयमत्राभिप्रायः यः तपस्वी रागादिविकल्परहितस्य परमोपशमरूपस्य निजशुद्धात्मनो भावनां
करोति स सकलशब्दवाच्यं शरीरं मुक्त्वा लोकस्योपरि तिष्ठति तेन कारणेन स्तुतिं लभते
अथवा यथा कोऽपि लोकमध्ये चित्तविकलो भूतः सन् निन्दां लभते तथा शब्दच्छलेन
तपोधनोऽपीति
।।४६।।
अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति
१७३) जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ
जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ४६
have, samabhAvane dhArak muninI pharI paN nindA-stuti kare chhe
bhAvArthaje tapasvI rAgAdi vikalpa rahit param-upashamarUp nijashuddhAtmAnI
bhAvanA kare chhe te ‘kaL’ shabdathI vAchya evA sharIrane chhoDIne lokAgre sthit thAy chhe te kAraNe
stuti pAme chhe athavA jevI rIte koI lokamAn dhanathI rahit thayo thako nindAne pAme chhe, tevI
rIte tapodhan paN shabdanA chhaLathI nindA pAme chhe. 46.
have, sthaLasankhyAthI bAhya kShepak dohAnun kathan kare chhe
है, [तस्य ] उसके [अन्यः अपि ] दूसरा भी [दोषः ] दोष [भवति ] होता है, जोकि [विकलः
भूत्वा ] शरीर रहित होके अथवा बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर [एकाकी ] अकेला [जगतः
उपरि ] लोकके शिखर पर अथवा सबके ऊ पर [आरोहति ] चढ़ता है
भावार्थ :जो तपस्वी रागादि रहित परम उपशमभावरूप निज शुद्धात्माकी भावना
करता है, उसकी शब्दके छलसे तो निंदा है, कि विकल अर्थात् बुद्धि वगैरह से भ्रष्ट होकर
लोक अर्थात् लोकोंके ऊ पर चढ़ता है
यह लोकनिंदा हुई लेकिन असलमें ऐसा अर्थ है,
कि विकल अर्थात् शरीर से रहित होकर तीन लोकके शिखर (मोक्ष) पर विराजमान हो जाता
है
यह स्तुति ही है क्योंकि जो अनंत सिद्ध हुए, तथा होंगे, वे शरीर रहित निराकार होके
जगत् के शिखर पर विराजे हैं ।।४६।।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय क्षेपक दोहा कहते हैं

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294 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-46
1
या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागर्ति
यत्र पुनः जागर्ति सकलं जगत् तां निशां मत्वा स्वपिति ।।४६।।
जा णिसि इत्यादि जा णिसि या वीतरागपरमानन्दैकसहजशुद्धात्मावस्था
मिथ्यात्वरागाद्यन्धकारावगुण्ठिता सती रात्रिः प्रतिभाति केषाम् सयलहं देहियहं सकलानां
स्वशुद्धात्मसंवित्तिरहितानां देहिनाम् जोग्गिउ तहिं जग्गेइ परमयोगी वीतरागनिर्विकल्प-
स्वसंवेदनज्ञानरत्नप्रदीपप्रकाशेन मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालान्धकारमपसार्य स तस्यां तु
शुद्धात्मना जागर्ति
जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु यत्र पुनः शुभाशुभमनोवाक्काय-
परिणामव्यापारे परमात्मतत्त्वभावनापराङ्मुखः सन् जगज्जागर्ति स्वशुद्धात्मपरिज्ञानरहितः
bhAvArthasvashuddhAtmAnA samvedanathI rahit sarva sansArI jIvone, je vItarAg
paramAnandarUp ek sahaj shuddhAtmAnI avasthA mithyAtva, rAgAdi andhakArathI chhavAyelI rAt lAge
chhe te shuddhAtmAnI avasthAmAn to te paramayogI, vItarAganirvikalpa svasamvedanagnAnarUpI
ratnadIpakanA prakAshathI mithyAtva, rAgAdi vikalpajALarUp andhakArane chhoDIne shuddhasvarUp vaDe jAge
chhe.
vaLI, svashuddhAtmAnA parignAnathI rahit sakaL agnAnIjan paramAtmatattvanI bhAvanAthI
parAnmukh thato je shubhAshubh man-vachan-kAyAnA pariNAmanA vyApAramAn jAge chhe, tene rAtri mAnIne
गाथा४६
अन्वयार्थ :[या ] जो [सकलानां देहिनां ] सब संसारी जीवोंकी [निशा ] रात है,
[तस्यां ] उस रात में [योगी ] परम तपस्वी [जागर्ति ] जागता है, [पुनः ] और [यत्र ] जिसमें
[सकलं जगत् ] सब संसारी जीव [जागर्ति ] जाग रहे हैं, [तां ] उस दशाको [निशां मत्वा ]
योगी रात मानकर [स्वपिति ] योग निद्रामें सोता है
भावार्थ :जो जीव वीतराग परमानंदरूप सहज शुद्धात्माकी अवस्थासे रहित हैं,
मिथ्यात्व रागादि अंधकार से मंडित हैं, इसलिये इन सबोंको वह परमानंद अवस्था रात्रिके समान
मालूम होती है
कैसे ये जगतके जीव हैं, कि आत्मज्ञानसे रहित हैं, अज्ञानी हैं, और अपने
स्वरूपसे विमुख हैं, जिनके जाग्रतदशा नहीं हैं, अचेत सो रहे हैं, ऐसी रात्रि में वह परमयोगी
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूपी रत्नदीपके प्रकाशसे मिथ्यात्व रागादि विकल्पजालरूप
अंधकारको दूरकर अपने स्वरूपमें सावधान होनेसे सदा जागता है तथा शुद्धात्माके ज्ञानसे
रहित शुभ, अशुभ मन, वचन, कायके परिणमनरूप व्यापारवाले स्थावर जंगम सकल अज्ञानी
जीव परमात्मतत्त्वकी भावनासे परान्मुख हुए विषय
कषायरूप अविद्यामें सदा सावधान हैं, जाग

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adhikAr-2 dohA-47 ]paramAtmaprakAsha [ 295
सकलोऽज्ञानी जनः सा णिसि मणिवि सुवेइ तां रात्रिं मत्वा त्रिगुप्तिगुप्तः सन् वीतराग-
निर्विकल्पपरमसमाधियोगनिद्रायां स्वपिति निद्रां करोतीति
अत्र बहिर्विषये शयनमेवोपशमो
भण्यत इति तात्पर्यार्थः ।।४६।।
अथ ज्ञानी पुरुषः परमवीतरागरूपं समभावं मुक्त्वा बहिर्विषये रागं न गच्छतीति
दर्शयति
१७४) णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ
जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्पसहाउ ।।४७।।
ज्ञानी मुक्त्वा भावं शमं क्वापि याति न रागम्
येन लभिष्यति ज्ञानमयं तेन एव आत्मस्वभावम् ।।४७।।
yogI traN guptithI gupta thayo thako vItarAganirvikalpa paramasamAdhirUp yoganidrAmAn sUve chhe.
ahIn, bAhya viShayamAn shayanane ja upasham kahevAmAn Avel chhe, evo tAtparyArtha
chhe. 461.
have, gnAnI puruSh param vItarAgarUp samabhAvane chhoDIne bAhya viShayamAn rAg karatA nathI,
em darshAve chhe
रहे हैं, उस अवस्थामें विभावपर्यायके स्मरण करनेवाले महामुनि सावधान (जागते) नहीं रहते
इसलिये संसारकी दशासे सोते हुए मालूम पड़ते हैं जिनको आत्मस्वभावके सिवाय विषय
कषायरूप प्रपंच मालूम भी नहीं है उस प्रपंचको रात्रिके समान जानकर उसमें याद नहीं रखते,
मन, वचन, कायकी तीन गुप्तिमें अचल हुए वीतराग निर्विकल्प परम समाधिरूप योगनिद्रामें
मगन हो रहे हैं सारांश यह है, कि ध्यानी मुनियोंको आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य
नहीं है, और जगतके प्रपंची मिथ्यादृष्टि जीव, उनको आत्मस्वरूपकी गम्य (खबर) नहीं है,
अनेक प्रपंचोंमें (झगड़ोंमें) लगे हुए हैं
प्रपंचकी सावधानी रखनेको भूल जाना वही परमार्थ
है, तथा बाह्य विषयोंमें जाग्रत होना ही भूल है ।।४६।।
आगे जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे परमवीतरागरूप समभावको छोड़कर शरीरादि परद्रव्यमें राग
नहीं करते, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा४७
अन्वयार्थ :[ज्ञानी ] निजपरके भेदका जाननेवाला ज्ञानी मुनि [शमं भावं ]
समभावको [मुक्त्वा ] छोड़कर [क्वापि ] किसी पदार्थ में [रागम् न याति ] राग नहीं करता,

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296 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-47
णाणि इत्यादि णाणि परमात्मरागाद्यास्रवयोर्भेदज्ञानी मुएप्पिणु मुक्त्वा कम् भाउ
भावम् कथंभूतं भावम् समु उपशमं पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरहितं वीतराग-
परमाह्लादसहितम् कित्थु वि जाइ ण राउ तं पूर्वोक्तं समभावं मुक्त्वा क्वापि बहिर्विषये
रागं न याति न गच्छति कस्मादिति चेत् जेण लहेसइ येन कारणेन लभिष्यति
भाविकाले प्राप्स्यति कम् णाणमउ ज्ञानमयं केवलज्ञाननिर्वृत्तं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणं
तेण जि तेनैव सम्भावेन अप्प-सहाउ निर्दोषिपरमात्मस्वभावमिति इदमत्र तात्पर्यम् ज्ञानी
पुरुषः शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं समभावं विहाय बहिर्भावे रागं न गच्छति येन कारणेन
समभावेन विना शुद्धात्मलाभो न भवतीति
।।४७।।
अथ ज्ञानी कमप्यन्यं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न निन्दतीति प्रतिपादयति
bhAvArthaparamAtmA ane rAgAdi Ashravano bhedagnAnI panchendriyaviShayanI abhilAShA
rahit ane vItarAg param AhlAd sahit upashamabhAvane chhoDIne-te pUrvokta samabhAvane chhoDIne
koI paN bAhya viShayamAn rAgane pAmato nathIrAgane karato nathI, jethI te samabhAvathI ja
gnAnamayje kevaLagnAnamAn anantaguNo antarbhUt chheevA kevaLagnAnathI rachAyel-nirdoSh
paramAtma-svabhAvane bhaviShyamAn pAmashe.
gnAnI puruSh shuddhAtmAnI anubhUtisvarUp samabhAvane chhoDIne bahirbhAvamAn rAgI thato nathI,
kAraN ke samabhAv vinA shuddhAtmAnI prApti thatI nathI. 47.
have, gnAnI puruSh anya pAsethI kaIpaN bhaNato nathI ane anyane prerato nathI (bhaNAvato
nathI) koInI stuti ke nindA karato nathI, em kahe chhe
[येन ] इसी कारण [ज्ञानमयं ] ज्ञानमयी निर्वाणपद [प्राप्स्यति ] पावेगा, [तेनैव ] और उसी
समभावसे [आत्मस्वभावम् ] केवलज्ञान पूर्ण आत्मस्वभावको आगे पावेगा
भावार्थ :जो अनंत सिद्ध हुए वे समभावके प्रसाद से हुए हैं, और जो होवेंगे, इसी
भाव से होंगे इसलिये ज्ञानी समभावके सिवाय अन्य भावों में राग नहीं करते इस समभावके
बिना अन्य उपायसे शुद्धात्माका लाभ नहीं है एक समभाव ही भवसागरसे पार होनेका उपाय
है समभाव उसे कहते हैं, जो पचेन्द्रिके विषयोंकी अभिलाषासे रहित वीतराग परमानंदसहित
निर्विकल्प निजभाव हो ।।४७।।
आगे कहते हैं, कि ज्ञानीजन समभावका स्वरूप जानता हुआ न किसीसे पढ़ता है, न
किसीको पढ़ाता है, न किसीको प्रेरणा करता है, न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा
करता है
1 pAThAntaraलभिष्यति = लप्स्यते

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adhikAr-2 dohA-48 ]paramAtmaprakAsha [ 297
१७५) भणइ भणावह णवि थुणइ णिदह णाणि ण कोइ
सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ ।।४८।।
भणति भाणयति नैव स्तौति निन्दति ज्ञानी न कमपि
सिद्धेः कारणं भावं समं जानन् परं तमेव ।।४८।।
भणइ इत्यादि भणइ भणति नैव भणावह नैवान्यं भाणयति न भणन्ते प्रेरयति णवि
थुणइ नैव स्तौति णिदह णाणि ण कोइ निन्दति ज्ञानी न कमपि किं कुर्वन् सन् सिद्धिहिं
कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ जानन् कम् परं भावं परिणामम् कथंभूतम् समु
समं रागद्वेषरहितम् पुनरपि कथंभूतं कारणम् कस्याः सिद्धेः परं नियमेन सोइ तमेव
सिद्धिकारणं परिणाममिति इदमत्र तात्पर्यम् परमोपेक्षासंयमभावनारूपं विशुद्धज्ञानदर्शननिज-
शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूतिलक्षणं साक्षात्सिद्धिकारणं कारणसमयसारं जानन् त्रिगुप्ताव-
स्थायां अनुभवन् सन् भेदज्ञानी पुरुषः परं प्राणिनं न भणति न प्रेरयति न स्तौति न च
निन्दतीति
।।४८।।
bhAvArthaparam upekShAsanyamanI bhAvanArUp vishuddhagnAnadarshanavALA nijashuddhAtma-
tattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyaganubhUti jenun svarUp chhe evA sAkShAt mokShanA
kAraNarUp kAraNasamayasArane jANato thako, traN guptithI gupta avasthAmAn anubhavato bhedagnAnI
puruSh bIjA prANI pAsethI bhaNato nathI ane bIjA prANIne prerato nathI (arthAt bhaNAvato nathI),
koInI stuti karato nathI ke koInI nindA karato nathI. 48.
गाथा४८
अन्वयार्थ :[ज्ञानी ] निर्विकल्प ध्यानी पुरुष [कमपि न ] न किसीका [भणति ]
शिष्य होकर पढ़ता है, न गुरु होकर किसीको [भाणयति ] पढ़ाता है, [नैव स्तौति निंदति ]
न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा करता है, [सिद्धेः कारणं ] मोक्षका कारण [समं
भावं ] एक समभावको [परं ] निश्चयसे [जानन् ] जानता हुआ [तमेव ] केवल
आत्मस्वरूपमें अचल हो रहा है, अन्य कुछ भी शुभ-अशुभ कार्य नहीं करता
भावार्थ :परमोपेक्षा संयम अर्थात् तीन गुप्तिमें स्थिर परम समाधि उसमें आरूढ जो
परमसंयम उसकी भावनारूप निर्मल यथार्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र वही जिसका
लक्षण है, ऐसा मोक्षका कारण जो समयसार उसे जानता हुआ, अनुभवता हुआ, अनुभवी पुरुष
न किसी प्राणीको सिखाता है, न किसीसे सीखता है, न स्तुति करता है, न निंदा करता है
जिसके शत्रु, मित्र, सुख, दुःख, सब एक समान हैं ।।४८।।

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298 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-49
अथ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेच्छापञ्चेन्द्रियविषयभोगाकांक्षादेहमूर्च्छाव्रतादिसंकल्पविकल्परहितेन
निजशुद्धात्मध्यानेन योऽसौ निजशुद्धात्मानं जानाति स परिग्रहविषयदेहव्रताव्रतेषु रागद्वेषौ न
करोतीति चतुःकलं प्रकटयति
१७६) गंथहँ उप्परि परम - मुणि देसु वि करइ ण राउ
गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।।४९।।
ग्रन्थस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम्
ग्रन्थाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।।४९।।
गंथहं इत्यादि गंथहँ उप्परि ग्रन्थस्य बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्योपरि अथवा ग्रन्थ
रचनारूपशास्त्रस्योपरि परम-मुणि परमतपस्वी देसु वि करइ ण द्वेषमपि न करोति न राउ
have, bAhya-abhyantar parigrahanI ichchhA, pAnch indriyonA viShayone bhogavavAnI AkAnkShA,
dehanI mUrchchhA ane vratAdinA sankalpa-vikalpathI rahit evA nij shuddhAtmAnA dhyAn vaDe je koI
nij shuddhAtmAne jANe chhe te parigrah, viShayo, deh ane vrat-avratamAn rAg-dveSh karato nathI, em
chAr sUtrothI pragaT kare chhe
bhAvArthamithyAtva, strIAdine vedavAnI AkAnkShArUp traNaved, hAsya, arati, rati,
shok, bhay, jugupsArUp chha nokaShAy ane krodh, mAn, mAyA, lobharUp chAr kaShAy e chaud
आगे बाह्य अंतरंग परिग्रहकी इच्छासे पाँच इंद्रियोंके विषयभोगोंकी वांछासे रहित हुआ
देहमें ममता नहीं करता, तथा मिथ्यात्व अव्रत आदि समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित जो निज
शुद्धात्मा उसे जानता है, वह परिग्रहमें तथा विषय देहसंबंधी व्रत-अव्रतमें राग-द्वेष नहीं करता,
ऐसा चार
सूत्रोंसे प्रगट करते हैं
गाथा४९
अन्वयार्थ :[ग्रंथस्य उपरि ] अंतरङ्ग बाह्य परिग्रहके ऊ पर अथवा शास्त्रके ऊ पर
जो [परममुनिः ] परम तपस्वी [रागम् द्वेषमपि न करोति ] राग और द्वेष नहीं करता है [येन ]
जिस मुनिने [आत्मस्वभावः ] आत्माका स्वभाव [ग्रंथात् ] ग्रंथसे [भिन्नः विज्ञातः ] जुदा जान
लिया है
भावार्थ :मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा,
क्रोध, मान, माया, लोभये चौदह अंतरङ्ग परिग्रह और क्षेत्र, वास्तु (घर), हिरण्य,

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adhikAr-2 dohA-49 ]paramAtmaprakAsha [ 299
रागमपि येन तपोधनेन किं कृतम् गंथहं जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ
ग्रन्थात्सकाशाद्येन विज्ञातो भिन्न आत्मस्वभाव इति तद्यथा मिथ्यात्वं, स्त्र्यादिवेदकांक्षारूप-
वेदत्रयं हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सारूपं नोकषायषट्कं, क्रोधमानमायालोभरूपं कषायचतुष्टयं
चेति चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाः, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डरूपा बाह्यपरि-
ग्रहाः इत्थंभूतान् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहान् जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः
कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा शुद्धात्मोपलम्भलक्षणे वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च यो
बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहाद्भिन्नमात्मानं जानाति स परिग्रहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति
अत्रेदं
व्याख्यानं एवं गुणविशिष्टनिर्ग्रन्थस्यैव शोभते न च सपरिग्रहस्येति तात्पर्यार्थः ।।४९।।
अथ
१७७) विसयहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ
विसयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।।५०।।
abhyantar parigraho ane kShetra, vAstu, chAndI, suvarNa, dhan, dhAnya, dAs, dAsI, kupya, bhAnDarUp
dash bAhya parigraho
e pramANe chovIs bAhya abhyantar parigrahone traN lok ane traN kALamAn
man, vachan, kAyAthI, karavun, karAvavun, anumodanathI chhoDIne ane shuddhAtmAnI prApti jenun lakShaN
chhe evI vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne je bAhya abhyantar parigrahathI bhinna
AtmAne jANe chhe, te parigrah upar rAg-dveSh karato nathI.
ahIn, AvA guNavishiShTa nirgranthane ja (nirgranth munine ja) A kathan shobhe chhe paN
parigrahadhArIne shobhatun nathI, evo tAtparyArtha chhe. 49.
vaLI (have, param muni viShayo upar rAg-dveSh karato nathI, em kahe chhe)
सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य, भांडरूप दस बाह्य परिग्रहइसप्रकार चौबीस
तरहके बाह्य अभ्यंतर परिग्रहोंको तीन जगतमें, तीनों कालोंमें, मन, वचन, काय, कृत
कारित अनुमोदनासे छोड़ और शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर
परवस्तुसे अपनेको भिन्न जानता है, वो ही परिग्रहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता है
यहाँ
पर ऐसा व्याख्यान निर्ग्रंथ मुनिको ही शोभा देता है, परिग्रहधारीको नहीं शोभा देता है,
ऐसा तात्पर्य जानना
।।४९।।
आगे विषयोंके ऊ पर वीतरागता दिखलाते हैं

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300 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-50
विषयाणां उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम्
विषयेभ्यः येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।।५०।।
विसयहं इत्यादि विसयहं उप्परि विषयाणामुपरि परम-मुणि परममुनिः देसु वि करइ
ण राउ द्वेषमपि नापि करोति न च रागमपि येन किं कृतम् विसयहं जेण वियाणियउ
विषयेभ्यो येन विज्ञातः कोऽसौ विज्ञातः भिण्णउ अप्प-सहाउ आत्मस्वभावः कथंभूतो भिन्न
इति तथा च द्रव्येन्द्रियाणि भावेन्द्रियाणि द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियग्राह्यान् विषयांश्च द्रष्ट-
श्रुतानुभूतान् जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा निजशुद्धात्म-
भावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखामृतरसास्वादेन तृप्तो भूत्वा यो विषयेभ्यो भिन्नं
शुद्धात्मानमनुभवति स मुनिपञ्चेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषौ न करोति
अत्र यः
पञ्चेन्द्रियविषयसुखान्निवर्त्य स्वशुद्धात्मसुखे तृप्तो भवति तस्यैवेदं व्याख्यानं शोभते न च
bhAvArthadravyendriy ane bhAvendriyane ane dravyendriy tathA bhAvendriyathI grAhya evA
dekhelA, sAmbhaLelA, anubhavelA viShayone traN lok ane traN kALamAn man-vachan-kAyAthI kRut,
kArit, anumodanathI chhoDIne nijashuddhAtmAnI bhAvanAthI utpanna vItarAg paramAnand jenun ek rUp
chhe evA sukhAmRutanA rasAsvAdathI tRupta thaIne je viShayothI bhinna shuddha AtmAne anubhave chhe
te muni pAnch indriyonA viShayamAn rAg-dveSh karato nathI.
ahIn, je pAnch indriyanA viShayasukhane nivartIne svashuddha AtmasukhamAn tRupta rahe chhe tene
गाथा५०
अन्वयार्थ :[परममुनिः ] महामुनि [विषयाणां उपरि ] पाँच इन्द्रियोंके स्पर्शादि
विषयों पर [रागमपि द्वेषं ] राग और द्वेष [न करोति ] नहीं करता, अर्थात् मनोज्ञ विषयों पर
राग नहीं करता और अनिष्ट विषयों पर द्वेष नहीं करता; क्योंकि [येन ] जिनसे [आत्मस्वभावः ]
अपना स्वभाव [विषयेभ्यः ] विषयोंसे [भिन्नः विज्ञातः ] जुदा समझ लिया है
इसलिये
वीतराग दशा धारण कर ली है
भावार्थ :द्रव्येन्द्री, भावेन्द्री और इन दोनोंसे ग्रहण करने योग्य देखे सुने
अनुभव किये जो रूपादि विषय हैं, उनको मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे
छोड़कर और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अतींद्रियसुखके रसके
आस्वादनेसे तृप्त होकर विषयोंसे भिन्न अपने आत्माको जो मुनि अनुभवता है, वो ही
विषयोंमें राग-द्वेष नहीं करता
यहाँ पर तात्पर्य यह है, कि जो पंचेन्द्रियोंके विषयसुखसे
निवृत्त होकर निज शुद्ध आत्मसुखमें तृप्त होता है, उसीको यह व्याख्यान शोभा देता

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विषयासक्त स्येति भावार्थः ।।५०।।
अथ
१७८) देहहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ
देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।।५१।।
देहस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम्
देहाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।।५१।।
देहहं इत्यादि देहहं उप्परि देहस्योपरि परम-मुणि परममुनिः देसु वि करइ ण राउ
द्वेषमपि न करोति न रागमपि येन किं कृतम् देहहं जेण वियाणियउ देहात्सकाशाद्येन
विज्ञातः कोऽसौ भिण्णउ अप्प-सहाउ आत्मस्वभावः कथंभूतो विज्ञातः तस्माद्देहाद्भिन्न
इति तथाहि‘‘सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं जं इंदिएहिं लद्धं तं सुक्खं
ja A vyAkhyAn shobhe chhe paN jeo viShayamAn Asakta chhe temane A kathan shobhatun nathI, evo
bhAvArtha chhe. 50.
vaLI (have, param muni deh upar paN rAg-dveSh karato nathI, em kahe chhe.)
bhAvArthakahyun paN chhe keसपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं विसमं ज इंदिएहिं लद्धं तं सुक्खं
दुक्खमेव तहा ।। (shrI pravachanasAr 76) arthaje indriyothI prApta thAy chhe, te sukh paranA
sambandhavALun, bAdhAsahit, vichchhinna, bandhanun kAraN ane viSham chhe; (e rIte te dukh ja chhe.)
adhikAr-2 dohA-51 ]paramAtmaprakAsha [ 301
है, और विषयाभिलाषीको नहीं शोभता ।।५०।।
आगे साधु देहके ऊ पर भी राग-द्वेष नहीं करता
गाथा५१
अन्वयार्थ :[परममुनिः ] महामुनि [देहस्य उपरि ] मनुष्यादि शरीरके ऊ पर भी
[रागमपि द्वेषम् ] राग और द्वेषको [न करोति ] नहीं करता अर्थात् शुभ शरीरसे राग नहीं
करता, अशुभ शरीरसे द्वेष नहीं करता, [येन ] जिसने [आत्मस्वभावः ] निजस्वभाव [देहात् ]
देहसे [भिन्नः विज्ञातः ] भिन्न जान लिया है
देह तो जड़ है, आत्मा चैतन्य है, जड़ चैतन्यका
क्या संबंध ?
भावार्थ :इन इंद्रियोंसे जो सुख उत्पन्न हुआ है, वह दुःखरूप ही है ऐसा कथन
श्रीप्रवचनसारमें कहा है ‘सपरम’ इत्यादि इसका तात्पर्य ऐसा है, कि जो इन्द्रियोंसे सुख प्राप्त

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दुक्खमेव तहा ।।’’ इति गाथाकथितलक्षणं द्रष्टश्रुतानुभूतं यद्देहजनितसुखं तज्जगत्रये कालत्रयेऽपि
मनवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन पारमार्थिकानाकुलत्व-
लक्षणसुखपरिणते निजपरमात्मनि स्थित्वा च य एव देहाद्भिन्नं स्वशुद्धात्मानं जानाति स एव
देहस्योपरि रागद्वेषौ न करोति
अत्र य एव सर्वप्रकारेण देहममत्वं त्यक्त्वा देहसुखं नानुभवति
तस्यैवेदं व्याख्यानं शोभते नापरस्येति तात्पर्यार्थः ।।५१।।
अथ
१७९) वित्ति-णिवित्तिहिँ परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ
बंधहँ हेउ वियाणियउ एयहँ जेण सहाउ ।।५२।।
e pramANe A gAthAmAn kahelA lakShaNavALun, dekhelun, sAmbhaLelun ane anubhavelun je dehajanit sukh
chhe tene traN lokamAn traN kALamAn man-vachan-kAyathI kRut, kArit, anumodanathI chhoDIne ane
vItarAganirvikalpa samAdhinA baLathI anAkuLatA jenun lakShaN chhe evA pAramArthik sukharUpe pariNat
nij paramAtmAmAn sthit thaIne je mahAmuni dehathI bhinna svashuddhAtmAne jANe chhe te ja dehanI
upar rAg-dveSh karato nathI.
ahIn, sarva prakAre dehanun mamatva chhoDIne dehasukhane je anubhavato nathI tene A vyAkhyAn
shobhe chhe paN bIjAne nahi. (paN je dehabuddhivALA chhe temane A vyAkhyAn shobhatun nathI), evo
tAtparyArtha chhe. 51.
vaLI (have, pravRutti ane nivRuttimAn paN mahAmuni rAg-dveSh karato nathI. em kahe chhe)
302 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-51
होता है, वह सुख दुःखरूप ही है, क्योंकि वह सुख परवस्तु है, निजवस्तु नहीं है, बाधा सहित
है, निराबाध नहीं है, नाशके लिए हुए है, जिसका नाश हो जाता है, बन्धका कारण है, और
विषम है
इसलिए इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है, ऐसा इस गाथामें जिसका लक्षण कहा गया
है, ऐसे देहजनित सुखको मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे छोड़े
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिके बलसे आकुलता रहित परमसुख निज परमात्मामें स्थित होकर जो
महामुनि देहसे भिन्न अपने शुद्धात्माको जानता है, वही देहके ऊ पर राग-द्वेष नहीं करता
जो
सब तरह देहसे निर्ममत्व होकर देहसे सुखको नहीं अनुभवता, उसीके लिए यह व्याख्यान शोभा
देता है, और देहबुद्धिवालोंको नहीं शोभता, ऐसा अभिप्राय जानना
।।५१।।
आगे प्रवृत्ति और निवृत्तिमें भी महामुनि राग-द्वेष नहीं करता, ऐसा कहते हैं

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वृत्तिनिवृत्त्योः परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम्
बन्धस्य हेतुः विज्ञातः एतयोः येन स्वभावः ।।५२।।
वित्तिणिवित्तिहिं इत्यादि वित्ति-णिवित्तिहिं वृत्तिनिवृत्तिविषये व्रताव्रतविषये परम-मुणि
परममुनिः देसु वि करइ ण राउ द्वेषमपि न करोति न च रागम् येन किं कृतम् बंधहं
हेउ वियाणियउ बन्धस्य हेतुर्विज्ञातः कोऽसौ एयहं जेण सहाउ एतयोर्व्रताव्रतयोः स्वभावो
येन विज्ञात इति अथवा पाठान्तरम् ‘‘भिण्णउ जेण वियाणियउ एयहं अप्पसहाउ’’ भिन्नो
येन विज्ञानः कोऽसौ आत्मस्वभावः काभ्याम् एताभ्यां व्रताव्रतविकल्पाभ्यां सकाशादिति
तथाहि येन व्रताव्रतविकल्पौ पुण्यपापबन्धकारणभूतौ विज्ञातौ स शुद्धात्मनि स्थितः सन्
व्रतविषये रागं न करोति तथा चाव्रतविषये द्वेषं न करोतीति अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन्
bhAvArthavrat-avratanA vikalpo (anukrame) puNyabandh ane pApabandhanA kAraN chhe, em
jeNe jANyun chhe te shuddha AtmAmAn sthit thayo thako vratanA viShayamAn rAg karato nathI ane avratanA
viShayamAn dveSh karato nathI.
evun kathan sAmbhaLIne ahIn prabhAkarabhaTTa prashna pUchhe chhe ke he bhagavAn! jo vrat upar
rAganun tAtparya (rAg karavAnun prayojan) nathI (jo vrat upar paN rAg karavA yogya nathI) to
vratano niShedh thayo?
bhagavAn yogIndrAchArya kahe chhe ke vratano artha sho? (sarva shubh-ashubh bhAvothI)
adhikAr-2 dohA-52 ]paramAtmaprakAsha [ 303
गाथा५२
अन्वयार्थ :[परममुनि ] महामुनि [वृत्तिनिवृत्त्योः ] प्रवृत्ति और निवृत्तिमें [रागम्
अपि द्वेषम् ] राग और द्वेषको [न करोति ] नहीं करता, [येन ] जिसने [एतयोः ] इन दोनोंका
[स्वभावः ] स्वभाव [बंधस्य हेतुः ] कर्मबंधका कारण [विज्ञातः ] जान लिया है
भावार्थ :व्रत-अव्रतमें परममुनि राग-द्वेष नहीं करता जिसने इन दोनोंका स्वभाव
बंधका कारण जान लिया है अथवा पाठांतर होनेसे ऐसा अर्थ होता है, कि जिसने आत्माका
स्वभाव भिन्न जान लिया है अपना स्वभाव प्रवृत्ति-निवृत्तिसे रहित है जहाँ व्रत-अव्रतका
विकल्प नहीं है ये व्रत, अव्रत, पुण्य, पापरूप बंधके कारण हैं ऐसा जिसने जान लिया,
वह आत्मामें तल्लीन हुआ व्रत-अव्रतमें राग-द्वेष नहीं करता ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने
पूछा, हे भगवन्, जो व्रत पर राग नहीं करे, तो व्रत क्यों धारण करे ? ऐसे कथनमें व्रतका निषेध
होता है
तब योगीन्द्राचार्य कहते हैं, कि व्रतका अर्थ यह है, कि सब शुभ-अशुभ भावोंसे निवृत्ति

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यदि व्रतस्योपरि रागतात्पर्यं नास्ति तर्हि व्रतं निषिद्धमिति भगवानाह व्रतं कोऽर्थः
सर्वनिवृत्तिपरिणामः तथा चोक्त म्‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्’’ अथवा
‘‘रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् तौ च बाह्यार्थसंबन्धौ तस्मात्तांस्तु परित्यजेत् ।।’’
प्रसिद्धं पुनरहिंसादिव्रतं एकदेशेन व्यवहारेणेति कथमेकदेशव्रतमिति चेत् तथाहि जीवघाते
निवृत्तिर्जीवदयाविषये प्रवृत्तिः, असत्यवचनविषये निवृत्तिः सत्यवचनविषये प्रवृत्तिः, अदत्तादान-
विषये निवृत्तिः दत्तादानविषये प्रवृत्तिरित्यादिरूपेणैकदेशं व्रतम्
रागद्वेषरूपसंकल्प-
विकल्पकल्लोलमालारहिते त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ पुनः शुभाशुभत्यागात्परिपूर्णं व्रतं भवतीति
nivRuttinA pariNAm thavA te vrat chhe. kahyun paN chhe ke ‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः विरतिर्व्रतम् ’’
(tattvArtha sUtra a. 7 sU. 1) (arthahinsA, jUTh, chorI, maithun ane parigrahathI nivRutta
thavun te vrat chhe) athavA ‘‘रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् तौ च बाह्यार्थसंबन्धौ तस्मात्तांस्तु
परित्यजेत् ।।’’ AtmAnushAsan 237) (artharAg-dveSh banne pravRutti chhe ane te banneno
abhAv te nivRutti chhe. vaLI A banne bAhya padArthanA sambandhathI thAy chhe tethI rAg ane
dveSh e bannene chhoDavA joIe.)
vaLI, ekadeshavyavahAranayanI apekShAe ahinsAdi vrato prasiddha chhe. ekadeshavrat kevI
rIte? A pramANe-jIvahinsAthI nivRutti ane jIvadayAmAn pravRutti, asatya vachanathI nivRutti
ane satya vachanamAn pravRutti adattAdAnathI nivRutti ane dattAdAnamAn pravRutti, ityAdi svarUpe
ekadeshavrat chhe. rAg-dveSharUp sankalpa-vikalpanI tarangamALAthI rahit traN guptithI gupta param
304 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-52
परिणाम होना ऐसा ही अन्य ग्रंथोंमें भी ‘‘रागद्वेषौ’’ इत्यादिसे कहा है अर्थ यह है कि राग
और द्वेष दोनों प्रवृत्तियाँ हैं, तथा इनका निषेध वह निवृत्ति है ये दोनों अपने नहीं हैं, अन्य
पदार्थके संबंधसे हैं इसलिये इन दोनोंको छोड़े अथवा ‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो
विरतिर्व्रतं’’ ऐसा कहा गया है इसका अर्थ यह है, कि प्राणियोंको पीड़ा देना, झूठ वचन
बोलना, परधन हरना, कुशीलका सेवन और परिग्रह इनसे जो विरक्त होना, वही व्रत है ये
अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध हैं, वे व्यवहारनयकर एकदेशरूप व्रत हैं यही दिखलाते हैंजीवघातमें
निवृत्ति, जीवदयामें प्रवृत्ति, असत्य वचनमें निवृत्ति, सत्य वचनमें प्रवृत्ति, अदत्तादान (चोरी)
से निवृत्ति, अचौर्यमें प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपसे एकदेशव्रत कहा जाता है, और राग-द्वेषरूप
संकल्प विकल्पोंकी कल्लोलोंसे रहित तीन गुप्तिसे गुप्त समाधिमें शुभाशुभके त्यागसे परिपूर्ण व्रत
होता है
अर्थात् अशुभकी निवृत्ति और शुभकी प्रवृत्तिरूप एकदेशव्रत और शुभ, अशुभ दोनोंका
ही त्याग होना वह पूर्ण व्रत है इसलिये प्रथम अवस्थामें व्रतका निषेध नहीं है एकदेश व्रत
है, और पूर्ण अवस्थामें सर्वदेश व्रत है यहाँ पर कोई यदि प्रश्न करे, कि व्रतसे क्या प्रयोजन ?

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कश्चिदाह व्रतेन किं प्रयोजनमात्मभावनया मोक्षो भविष्यति भरतेश्वरेण किं व्रतं कृतम्,
घटिकाद्वयेन मोक्षं गतः इति अथ परिहारमाह भरतेश्वरोऽपि पूर्वं जिनदीक्षाप्रस्तावे लोचानन्तरं
हिंसादिनिवृत्तिरूपं महाव्रतविकल्पं कृत्वान्तर्मुहूर्ते गते सति द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदान-
बन्धादिविकल्परहिते मनोवचनकायनिरोधलक्षणे निजशुद्धात्मध्याने स्थित्वा पश्चान्निर्विकल्पो जातः
परं किंतु तस्य स्तोककालत्वान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति अथेदं मतं वयमपि तथा कुर्मोऽवसानकाले
नैवं वक्त व्यम् यद्येकस्यान्धस्य कथंचिन्निधानलाभो जातस्तर्हि किं सर्वेषां भवतीति भावार्थः
तथा चोक्त म्‘‘पुव्वमभाविदजोगो मरणे आराहओ जदि वि कोई खन्नगनिधिदिट्ठंतं तं खु
samAdhimAn to shubhAshubh banneno tyAg hovAthI paripUrNa vrat chhe. (A rIte paripUrNa vratamAn
shubh pariNAmano paN tyAg hovAthI vrat upar paN rAg karavA yogya nathI.)
ahIn, koI prashna kare ke vratathI shun prayojan chhe? mAtra AtmabhAvanAthI mokSha thaI
jashe? bharateshvare kyAn vrat karyAn hatAn? chhatAn paN teo be ghaDImAn mokShe chAlyA gayA.
teno parihAr kare chhe, bharateshvare paN pahelAn jinadIkShA dhAraN karatI vakhate mAthAnun
keshalochan karyA pachhI hinsAdi pAponI nivRuttirUp mahAvratonA vikalpane karIne antarmuhUrta jatAn,
dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI AkAnkShArUp nidAnabandhAdinA vikalpothI rahit,
man-vachan-kAyanA nirodharUp nijashuddhAtmadhyAnamAn sthit thaIne pachhI nirvikalpa thayA. paN temane
alpakALanA mahAvrat hovAthI temanA mahAvratanI prasiddhi na thaI. ahIn koI agnAnI em
kahe ke ame paN maraNakALe tevI rIte karIshun, to em kahevun yogya nathI kAraN ke jo koI
ek AndhaLAne koI paN rIte khajAnAnI prApti thaI gaI to shun badhAne te rIte thAy? evo
bhAvArtha chhe. kahyun paN chhe ke
‘‘पुव्वमभाविदजोगो मरणे आराहओ जदि वि कोई । खन्नगनिधिदिट्ठंतं
adhikAr-2 dohA-52 ]paramAtmaprakAsha [ 305
आत्मभावनासे ही मोक्ष होता है भरतजी महाराजने क्या व्रत धारण किया था ? वे तो दो घड़ीमें
ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष गये इसका समाधान ऐसा है, कि भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण
की, शिरके केशलुञ्चन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्तिरूप पाँच महाव्रत आदरे फि र एक
अंतर्मुहूर्तमें समस्त विकल्प रहित मन, वचन, काय रोकनेरूप निज शुद्धात्मध्यान उसमें ठहरकर
निर्विकल्प हुए
वे शुद्धात्माका ध्यान, देखे, सुने और भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बन्धादि
विकल्पोंसे रहित ऐसे ध्यानमें तल्लीन होकर केवली हुए जब राज छोड़ा, और मुनि हुए तभी
केवली हुए, तब भरतेश्वरने अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया इसलिये महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं
हुई इस पर कोई मूर्ख ऐसा विचार लेवे, कि जैसा उनको हुआ वैसे हमको भी होवेगा ऐसा
विचार ठीक नहीं है यदि किसी एक अंधेको किसी तरहसे निधिका लाभ हुआ, तो क्या सभीको
ऐसा हो सकता है ? सबको नहीं होता भरत सरीखे भरत ही हुए इसलिये अन्य भव्यजीवोंको
यही योग्य है, कि तप संयमका साधन करना ही श्रेष्ठ है ऐसा ही ‘‘पुव्वं’’ इत्यादि गाथासे

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पमाणं ण सव्वत्थ ।।’’ ।।५२।।
एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गप्रतिपादकमहाधिकारमध्ये परमोपशमभावव्याख्यानोपल-
क्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रैः स्थलं समाप्तम् अथानन्तरं निश्चयनयेन पुण्यपापे द्वे समाने
इत्याद्युपलक्षणत्वेन चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियते तद्यथायोऽसौ विभाव-
स्वभावपरिणामौ निश्चयनयेन बन्धमोक्षहेतुभूतौ न जानाति स एव पुण्यपापद्वयं करोति न चान्य
इति मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ।।’’ (bhagavatI ArAdhanA 24) [arthajevI rIte koI puruSh
maraNanA avasar pahelAn yogano abhyAs na karyo hovA chhatAn maraN vakhate kadAch ArAdhak
thaI jAy chhe to te andhapuruShane kadAchit nidhinI prApti thAy chhe tenA jevun kahevAy. paN
Avun badhI jagyAe kharekhar thAy tevun pramAN nathI (paN Avun badhI jagyAe avashya thAy
ja em sambhavatun ja nathI.] 52.
e pramANe mokSha, mokShaphaL ane mokShamArganA pratipAdak mahAdhikAramAn chaud gAthAsUtro
vaDe param-upashAmabhAvanA vyAkhyAnarUp upalakShaNavALun sthaL samApta thayun.
tyAr pachhI chaud gAthAsUtro sudhI nishchayanayathI puNya ane pAp banne samAn chhe, ityAdi
upalakShaNavALun vyAkhyAn karavAmAn Ave chhe te A pramANe
306 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-52
दूसरी जगह भी कहा है अर्थ ऐसा है, कि जिसने पहले तो योगका अभ्यास नहीं किया, और
मरणके समय भी जो कभी आराधक हो जावे, तो यह बात ऐसी जानना, कि जैसे किसी अंधे
पुरुषको निधिका लाभ हुआ हो
ऐसी बात सब जगह प्रमाण नहीं हो सकती कभी कहीं पर
होवे तो होवे ।।५२।।
इस तरह मोक्ष, मोक्षका फल, और मोक्षके मार्गके कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें परम
उपशांतभावके व्याख्यानकी मुख्यतासे अंतरस्थलमें चौदह दोहे पूर्ण हुए
आगे निश्चयनयकर पुण्य-पाप दोनों ही समान हैं, ऐसा चौदह दोहोंमें कहते हैं जो
कोई स्वभावपरिणामको मोक्षका कारण और विभावपरिणामको बंधका कारण निश्चयसे ऐसा
भेद नहीं जानता है, वही पुण्य-पापका कर्ता होता है, अन्य नहीं, ऐसा मनमें धारणकर यह
गाथा
सूत्र कहते हैं
1 pAThAntaraस्थलं = पंचमं स्थलं