Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 53 (Adhikar 2) Nishyathi Punya-Papani Aekata,54 (Adhikar 2),55 (Adhikar 2),56 (Adhikar 2),57 (Adhikar 2),58 (Adhikar 2),59 (Adhikar 2),60 (Adhikar 2),61 (Adhikar 2),62 (Adhikar 2),63 (Adhikar 2),64 (Adhikar 2).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 17 of 29

 

Page 307 of 565
PDF/HTML Page 321 of 579
single page version

१८०) बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ
सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ।।५३।।
बन्धस्य मोक्षस्य हेतुः निजः यः नैव जानाति कश्चित्
स परं मोहेन करोति जीव पुण्यमपि पापमपि द्वे अपि ।।५३।।
बंधहं इत्यादि बंधहं बन्धस्य मोक्खहं मोक्षस्य हेउ हेतुः कारणम् कथंभूतम् णिउ
निजविभावस्वभावहेतुस्वरूपम् जो णवि जाणइ कोइ यो नैव जानाति कश्चित् सो पर
एव मोहिं मोहेन करइ करोति जिय हे जीव पुण्णु वि पाउ वि पुण्यमपि पापमपि
कतिसंख्योपेते अपि दो द्वे अपीति तथाहि निजशुद्धात्मानुभूतिरुचिविपरीतं मिथ्यादर्शनं
स्वशुद्धात्म-प्रतीतिविपरीतं मिथ्याज्ञानं निजशुद्धात्मद्रव्यनिश्चलस्थितिविपरीतं मिथ्याचारित्रमित्येतत्रयं
कारणं, तस्मात् त्रयाद्विपरीतं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपम् मोक्षस्य कारणमिति योऽसौ न जानाति
je koI nishchayanayathI vibhAvapariNAm bandhano hetu chhe ane svabhAvapariNAm mokShano
hetu chhe, em jANato nathI, te ja puNya ane pAp bannene kare chhe paN bIjo nahi. (paN
je koI nishchayanayathI vibhAvapariNAm bandhano hetu chhe ane svabhAvapariNAm mokShano hetu chhe,
em jANe chhe te puNya, pAp bannene karato nathI) em manamAn rAkhIne A sUtra kahe chhe
bhAvArthanijashuddhAtmAnI anubhUtirUp ruchithI viparIt mithyAdarshan, sva-shuddhAtmAnI
pratItithI viparIt mithyAgnAn ane nijashuddhAtmadravyamAn nishchal sthitithI viparIt mithyAchAritra
e traN bandhanun kAraN chhe ane traNeyathI viparIt evun bhedAbhed ratnatrayasvarUp mokShanun kAraN
chhe, em je koI jANato nathI te jajo ke puNya ane pAp banney nishchayanayathI hey chhe
adhikAr-2 dohA-53 ]paramAtmaprakAsha [ 307
गाथा५३
अन्वयार्थ :[यः कश्चित् ] जो कोई जीव [बंधस्य मोक्षस्य हेतुः ] बंध और
मोक्षका कारण [निजः ] अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद [नैव जानाति ]
नहीं जानता है, [स एव ] वही [पुण्यमपि पापमपि ] पुण्य और पाप [द्वे अपि ] दोनोंको ही
[मोहेन ] मोहसे [करोति ] करता है
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी अनुभूतिकी रुचिसे विपरीत जो मिथ्यादर्शन, निज
शुद्धात्माके ज्ञानसे विपरीत मिथ्याज्ञान, और निज शुद्धात्मद्रव्यमें निश्चल स्थिरतासे उल्टा जो
मिथ्याचारित्र इन तीनोंको बंधका कारण और इन तीनोंसे रहित भेदाभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षका

Page 308 of 565
PDF/HTML Page 322 of 579
single page version

स एव पुण्यपापद्वयं निश्चयनयेन हेयमपि मोहवशात्पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं करोतीति
भावार्थः
।।५३।।
अथ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतमात्मानं योऽसौ मुक्ति कारणं न जानाति स
पुण्यपापद्वयं करोतीति दर्शयति
१८१) दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ
मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ ।।५४।।
दर्शनज्ञानचारित्रमयं यः नैवात्मानं मनुते
मोक्षस्य कारणं भणित्वा जीव स परं ते करोति ।।५४।।
दंसणणाणचरित्त इत्यादि दंसण-णाण-चरित्तमउ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयं जो णवि
अप्पु मुणेइ यः कर्ता नैवात्मानं मनुते जानाति किं कृत्वा न जानाति मोक्खहं कारणु भणिवि
topaNmohanA vashe puNyane upAdey kare chhe ane pApane hey kare chhe, evo bhAvArtha chhe. 53.
have, samyagdarshan, samyaggnAn ane samyakchAritrarUpe pariNat AtmA muktinun kAraN chhe,
em je koI jANato nathI te puNya ane pAp bannene kare chhe, em darshAve chhe.
bhAvArthanijashuddhAtmabhAvanAthI utpanna vItarAg sahajAnand jenun ek rUp chhe evA sukh-
rasanA AsvAdanI ruchirUp samyagdarshan chhe, te ja svashuddhAtmAmAn ek (kevaL) vItarAg sahajAnand-
308 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-54
कारण ऐसा जो नहीं जानता है, वही मोहके वशसे पुण्य-पापका कर्ता होता है पुण्यको उपादेय
जानके करता है, पापको हेय समझता है ।।५३।।
आगे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणमता जो आत्मा वह ही मुक्तिका
कारण है, जो ऐसा भेद नहीं जानता है, वही पुण्य-पाप दोनोंका कर्ता है, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा५४
अन्वयार्थ :[यः ] जो [दर्शनज्ञानचारित्रमयं ] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी
[आत्मानं ] आत्माको [नैव मनुते ] नहीं जानता, [स एव ] वही [जीव ] हे जीव; [ते ] उन
पुण्य-पाप दोनोंको [मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [भणित्वा ] जानकर [करोति ] करता
है
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग सहजानंद एकरूप
सुखरसका आस्वाद उसकी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसी शुद्धात्मामें वीतराग नित्यानंद

Page 309 of 565
PDF/HTML Page 323 of 579
single page version

मोक्षस्य कारणं भणित्वा मत्वा जिय हे जीव सो पर ताइं करेइ स एव पुरुषस्ते पुण्यपापे
द्वे करोतीति
तथाहिनिजशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागसहजानन्दैकरूपं सुखरसास्वादरुचिरूपं
सम्यग्दर्शनं, तत्रैव स्वशुद्धात्मनि वीतरागसहजानन्दैकस्वसंवेदनपरिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, वीतराग-
सहजानन्दैकसमरसी भावेन तत्रैव निश्चलस्थिरत्वं सम्यक्चारित्रं, इत्येतैस्त्रिभिः परिणतमात्मानं
योऽसौ मोक्षकारणं न जानाति स एव पुण्यमुपादेयं करोति पापं हेयं च करोतीति
यस्तु
पूर्वोक्त रत्नत्रयपरिणतमात्मानमेव मोक्षमार्गं जानाति तस्य तु सम्यग्द्रष्टेर्यद्यपि संसारस्थिति-
च्छेदकारणेन सम्यक्त्वादिगुणेन परंपरया मुक्ति कारणं तीर्थंकरनामकर्मप्रकृत्यादिकमनीहितवृत्त्या
विशिष्टपुण्यमास्रवति तथाप्यसौ तदुपादेयं न करोतीति भावार्थः
।।५४।।
अथ योऽसौ निश्चयेन पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स मोहेन मोहितः सन् संसारं
परिभ्रमतीति कथयति
may svasamvedanarUp-parichchhittirUp-samyaggnAn chhe, ek (kevaL) vItarAg sahajAnandarUp paramasamarasI
bhAvathI temAn ja, (svashuddhAtmAmAn ja) nishchalasthiratArUp samyakchAritra chhe. e traN rUpe pariNat
AtmAne je mokShanun kAraN jANato nathI te ja puNyane upAdey kare chhe ane pApane hey kare chhe.
parantu pUrvokta ratnatrayarUpe pariNat AtmAne ja je mokShamArga jANe chhe te samyagdraShTine
to joke sansArasthitino nAsh karavAmAn kAraNabhUt evA samyaktva Adi guNathI paramparAe
muktinA kAraNarUp tIrthankaranAmakarmanI prakRiti Adik vishiShTa puNyano anIhitavRuttithI Asrav thAy
chhe topaN te samyagdraShTi tene upAdey karato nathI. evo bhAvArtha chhe. 54.
have, je koI nishchayanayathI puNya, pAp bannene samAn mAnato nathI te mohathI mohit
thato sansAramAn bhaTake chhe, em kahe chhe
adhikAr-2 dohA-54 ]paramAtmaprakAsha [ 309
स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान और वीतरागपरमानंद परम समरसीभावकर उसीमें निश्चय स्थिरतारूप
सम्यक्चारित्र
इन तीनों स्वरूप परिणत हुआ जो आत्मा उसको जो जीव मोक्षका कारण नहीं
जानता, वह ही पुण्यको आदरने योग्य जानता है, और पापको त्यागने योग्य जानता है तथा
जो सम्यग्दृष्टि जीव रत्नत्रयस्वरूप परिणत हुए आत्माको ही मोक्षका मार्ग जानता है, उसके
यद्यपि संसारकी स्थितिके छेदनका कारण, और सम्यक्त्वादि गुणसे परम्पराय मुक्तिका कारण
ऐसी तीर्थंकरनामप्रकृति आदि शुभ (पुण्य) प्रकृतियोंको (कर्मोंको) अवाँछितवृत्तिसे ग्रहण
करता है, तो भी उपादेय नहीं मानता है
कर्मप्रकृतियोंको त्यागने योग्य ही समझता है ।।५४।।
आगे जो निश्चयनयसे पुण्य-पाप दोनोंको समान नहीं मानता, वह मोहसे मोहित हुआ
संसारमें भटकता है, ऐसा कहते हैं

Page 310 of 565
PDF/HTML Page 324 of 579
single page version

१८२) जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ
सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ।।५५।।
यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वे
स चिरं दुःखं सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ।।५५।।
जो इत्यादि जो णवि मण्णइ यः कर्ता नैव मन्यते जीउ जीवः किं न मन्यते
समु समाने के पुण्णु वि पाउ वि दोइ पुण्यमपि पापमपि द्वे सो स जीवः चिरु दुक्खु
सहंतु चिरं बहुतरं कालं दुःखं सहमानः सन् जिय हे जीव मोहिं हिंडइ लोइ मोहेन मोहितः
सन् हिण्डते भ्रमति
क्व लोके संसारे इति तथा च यद्यप्यसद्भूतव्यवहारेण द्रव्यपुण्यपापे
परस्परभिन्ने भवतस्तथैवाशुद्धनिश्चयेन भावपुण्यपापे भिन्ने भवतस्तथापि शुद्धनिश्चयनयेन
bhAvArthajo, ke asadbhUt vyavahAranayathI dravyapuNya ane dravyapAp paraspar bhinna
chhe tem ja ashuddhanishchayanayathI bhAvapuNya ane bhAvapAp bhinna chhe topaN shuddhanishchayanayathI
puNyapAparahit shuddha AtmAthI vilakShaN teo, jem sonAnI ane loDhAnI beDI bandhananI apekShAe
samAn chhe tem, bandhanI apekShAe samAn ja chhe
e pramANe nayavibhAgathI je puNya-pAp bannene
samAn mAnato nathI te nirmoh shuddhAtmAthI viparIt mohathI mohit thato sansAramAn paribhramaN
kare chhe.
310 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-55
गाथा५५
अन्वयार्थ :[यः ] जो [जीवः ] जीव [पुण्यमपि पापमपि द्वे ] पुण्य और पाप
दोनोंको [समाने ] समान [नैव मन्यते ] नहीं मानता, [सः ] वह जीव [मोहेन ] मोहसे मोहित
हुआ [चिरं ] बहुत काल तक [दुःखं सहमानः ] दुःख सहता हुआ [लोके ] संसारमें [हिंडते ]
भटकता है
भावार्थ :यद्यपि असद्भूत (असत्य) व्यवहारनयसे द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप ये
दोनों एक दूसरेसे भिन्न हैं, और अशुद्धनिश्चयनयसे भावपुण्य और भावपाप ये दोनों भी आपसमें
भिन्न हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर पुण्य-पाप रहित शुद्धात्मासे दोनों ही भिन्न हुए बंधरूप
होनेसे दोनों समान ही हैं
जैसे सोनेकी बेड़ी और लोहेकी बेड़ी ये दोनों ही बंधका कारण
हैंइससे समान हैं इस तरह नयविभागसे जो पुण्य-पापको समान नहीं मानता, वह निर्मोही
शुद्धात्मासे विपरीत जो मोहकर्म उससे मोहित हुआ संसारमें भ्रमण करता है ऐसा कथन सुनकर

Page 311 of 565
PDF/HTML Page 325 of 579
single page version

पुण्यपापरहितशुद्धात्मनः सकाशाद्विलक्षणे सुवर्णलोहनिगलवद्बन्धं प्रति समाने एव भवतः एवं
नयविभागेन योऽसौ पुण्यपापद्वयं समानं न मन्यते स निर्मोहशुद्धात्मनो विपरीतेन मोहेन मोहितः
सन् संसारे परिभ्रमति इति
अत्राह प्रभाकरभट्टः तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा
तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं
त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिं लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव यदि पुनस्तथाविधाम-
वस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां
षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्
।।५५।।
अथ येन पापफलेन जीवो दुःखं प्राप्य दुःखविनाशार्थं धर्माभिमुखो भवति तत्पापमपि
समीचीनमिति दर्शयति
evun kathan sAmbhaLIne prabhAkarabhaTTa pUchhe chhe ke jo em chhe to je koI (paramatavAdI)
puNya-pAp bannene sarakhA mAnIne varte chhe temane Ap shA mATe dUShaN Apo chho? bhagavAn
yogIndradev kahe chhe ke jo shuddhAtmAnI anubhUtisvarUp traN guptithI gupta evI vItarAg
nirvikalpa param samAdhine pAmIne sthit thAy chhe tyAre to sammat ja chhe (tyAre to puNya
-pApane samAn mAnavA te to yathArtha ja chhe) paN jo tevI avasthAne prApta karyA sivAy
je gRuhasthaavasthAmAn dAn-pUjAdik chhoDe chhe ane muninI avasthAmAn chha Avashyak Adine
chhoDIne ubhayabhraShTa (banne bAjuthI bhraShTa) thato varte chhe tyAre to dUShaN ja chhe, (tyAre to
puNya-pAp bannene samAn mAnavAn te to dUShaN ja chhe) evun tAtparya chhe. 55.
have, je pApanA phaLathI jIv dukh pAmIne dukhane dUr karavA mATe dharmanI sanmukh thAy
chhe te pAp paN samIchIn (sArun) chhe, em darshAve chhe
adhikAr-2 dohA-55 ]paramAtmaprakAsha [ 311
प्रभाकरभट्ट बोले, यदि ऐसा ही है, तो कितने ही परमतवादी पुण्य-पापको समान मानकर
स्वच्छंद हुए रहते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो ? तब योगीन्द्रदेवने कहा
जब
शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप तीन गुप्तिसे गुप्त वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको पाकर ध्यानमें मग्न हुए पुण्य
-पापको समान जानते हैं, तब तो जानना योग्य है
परन्तु जो मूढ़ परमसमाधिको न पाकर
भी गृहस्थ - अवस्थामें दान, पूजा आदि शुभ क्रियाओंको छोड़ देते हैं, और मुनि पदमें छह
आवश्यककर्मोंको छोड़ते हैं, वे दोनों बातोंसे भ्रष्ट हैं न तो यती हैं, न श्रावक हैं वे निंदा
योग्य ही हैं तब उनको दोष ही है, ऐसा जानना ।।५५।।
आगे जिस पापके फलसे यह जीव नरकादिमें दुःख पाकर उस दुःखके दूर करनेके
लिये धर्मके सम्मुख होता है, वह पापका फल भी श्रेष्ठ (प्रशंसा योग्य) है, ऐसा दिखलाते
हैं

Page 312 of 565
PDF/HTML Page 326 of 579
single page version

१८३) वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति
जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइँ जाइँ कुणंति ।।५६।।
वरं जीव पापानि सुन्दराणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति
जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु शिवमतिं यानि कुर्वन्ति ।।५६।।
वर जिय इत्यादि वर जिय वरं किंतु हे जीव पावइं सुंदरइं पापानि सुन्दराणि
समीचीनानि भणंति कथयन्ति के णाणिय ज्ञानिनः तत्त्ववेदिनः कानि ताइं तानि
पूर्वोक्तानि पापानि कथंभूतानि जीवहं दुक्खइं जणिवि लहु सिवमइं जाइं कुणंति जीवानां
दुःखानि जनित्वा लघु शीघ्रं शीवमतिं मुक्ति योग्यमतिं यानि कुर्वन्ति अयमत्राभिप्रायः अत्र
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं श्रीधर्मं लभते जीवस्तत्पापजनितदुःखमपि श्रेष्ठमिति कस्मादिति चेत्
bhAvArthajyAn (pApanA phaLarUp dukhanA DarathI) jIv bhedAbhed-ratnatrayAtmak shrIdharmane
312 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-56
गाथा५६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यानि ] जो पापके उदय [जीवानां ] जीवोंको
[दुःखानि जनित्वा ] दुःख देकर [लघु ] शीघ्र ही [शिवमतिं ] मोक्षके जाने योग्य उपायोंमें
बुद्धि [कुर्वन्ति ] कर देवे, तो [तानि पापानि ] वे पाप भी [वरं सुंदराणि ] बहुत अच्छे हैं,
ऐसा [ज्ञानिनः ] ज्ञानी [भणंति ] कहते हैं
भावार्थ :कोई जीव पाप करके नरकमें गया, वहाँ पर महान दुःख भोगे, उससे
कोई समय किसी जीवके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है क्योंकि उस जगह सम्यक्त्वकी
प्राप्तिके तीन कारण हैं पहला तो यह है, कि तीसरे नरक तक देवता उसे संबोधनेको (चेतावने
को) जाते हैं, सो कभी कोई जीवके धर्म सुननेसे सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, दूसरा कारण
पूर्वभवका स्मरण और तीसरा नरककी पीड़ाकरि दुःखी हुआ, नरकको महान् दुःखका स्थान
जान नरकके कारण जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह और आरंभादिक हैं, उनको खराब
जानके पापसे उदास होवे
तीसरे नरक तक ये तीन कारण हैं आगेके चौथे, पाँचवें, छठें,
सातवें नरकमें देवोंका गमन न होनेसे धर्मश्रवण तो है नहीं, लेकिन जातिस्मरण है, तथा
वेदनाकर दुःखी होके पापसे भयभीत होनाये दो ही कारण हैं इन कारणोंको पाकर किसी
जीवके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है इस नयसे कोई भव्यजीव पापके उदयसे खोटी गतिमें
गया, और वहाँ जाकर यदि सुलट जावे, तथा सम्यक्त्व पावे, तो वह कुगति भी बहुत श्रेष्ठ
है
यही श्रीयोगिन्द्राचार्यने मूलमें कहा हैजो पाप जीवोंको दुःख प्राप्त कराके फि र शीघ्र ही

Page 313 of 565
PDF/HTML Page 327 of 579
single page version

‘आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति’ इति वचनात् ।।५६।।
अथ निदानबन्धोपार्जितानि पुण्यानि जीवस्य राज्यादिविभूतिं दत्त्वा नारकादिदुःखं
जनयन्तीति हेतोः समीचीनानि न भवन्तीति कथयति
१८४) मं पुणु पुण्णइं भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति
जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खहँ जाइँ जणंति ।।५७।।
मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति
जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु दुःखानि यानि जनयन्ति ।।५७।।
(satya dharmane) pAme chhe te pApajanit dukh paN shreShTha chhe kAraN ke ‘‘आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति’’
(arthaghaNun karIne dukhI manuShyo dharmasanmukh thAy chhe evun Agamanun vachan chhe.) .56.
have, nidAnabandhathI upArjit puNyo jIvane rAjyAdinI vibhUti ApIne narakAdinAn dukh
upajAve chhe te kAraNe teo samIchIn nathI, em kahe chhe
adhikAr-2 dohA-57 ]paramAtmaprakAsha [ 313
मोक्षमार्गमें बुद्धिको लगावे, तो वे अशुभ भी अच्छे हैं तथा जो अज्ञानी जीव किसी समय
अज्ञान तपसे देव भी हुआ और देवसे मरके एकेंद्री हुआ तो वह देवपर्याय पाना किस
कामका अज्ञानीके देवपद पाना भी वृथा है जो कभी ज्ञानके प्रसादसे उत्कृष्ट देव होके
बहुत काल तक सुख भोगके देवसे मनुष्य होकर मुनिव्रत धारण करके मोक्षको पावे, तो उसके
समान दूसरा क्या होगा
जो नरकसे भी निकलकर कोई भव्यजीव मनुष्य होके महाव्रत धारण
करके मुक्ति पावे, तो वह भी अच्छा है ज्ञानी पुरुष उन पापियोंको भी श्रेष्ठ कहते हैं, जो
पापके प्रभावसे दुःख भोगकर उस दुःखसे डरके दुःखके मूलकारण पापको जानके उस पापसे
उदास होवें, वे प्रशंसा करने योग्य हैं, और पापी जीव प्रशंसाके योग्य नहीं हैं, क्योंकि पाप
क्रिया हमेशा निंदनीय है भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप श्रीवीतरागदेवके धर्मको जो धारण करते हैं
वे श्रेष्ठ हैं यदि सुखी धारण करे तो भी ठीक, और दुःखी धारण करे तब भी ठीक क्योंकि
शास्त्रका वचन है, कि कोई महाभाग दुःखी हुए ही धर्ममें लवलीन होते हैं ।।५६।।
आगे निदानबंधसे उपार्जन किये हुए पुण्यकर्म जीवको राज्यादि विभूति देकर नरकादि
दुःख उत्पन्न कराते हैं, इसलिये अच्छे नहीं हैं
गाथा५७
अन्वयार्थ :[पुनः ] फि र [तानि पुण्यानि ] वे पुण्य भी [मा भद्राणि ] अच्छे नहीं

Page 314 of 565
PDF/HTML Page 328 of 579
single page version

मं पुणु इत्यादि मं पुणु मा पुनः न पुनः पुण्णइं भल्लाइं पुण्यानि भद्राणि
भवन्तीति णाणिय ताइं भणंति ज्ञानिनः पुरुषास्तानि पुण्यानि कर्मतापन्नानि भणन्ति यानि
किं कुर्वन्ति जीवहं रज्जइं देवि लहु दुक्खइं जाइं जणंति यानि पुण्यकर्माणि जीवस्य
राज्यानि दत्त्वा लघु शीघ्रं दुःखानि जनयन्ति तद्यथा निजशुद्धात्मभावनोत्थवीतराग-
परमानन्दैकरूपसुखानुभवविपरीतेन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपूर्वकज्ञानतपदानादिना
यान्युपार्जितानि पुण्यकर्माणि तानि हेयानि कस्मादिति चेत् निदानबन्धोपार्जितपुण्येन
भवान्तरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं
लभते
रावणादिवत् तेन कारणेन पुण्यानि हेयानीति ये पुनर्निदानरहितपुण्यसहिताः
पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा चोर्ध्वगतिगामिनो
bhAvArthanijashuddhAtmAnI bhAvanAthI utpanna vItarAg paramAnand jenun ek rUp
chhe evA sukhanA anubhavathI viparIt dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI
AkAnkShArUp nidAnabandhapUrvak gnAn, tap ane dAnAdithI upArjit karelAn je puNyakarmo chhe te
hey chhe; shA mATe? kAraN ke nidAnabandhathI upArjit puNyathI bIjA bhavamAn rAjyAdinI
vibhUti prApta thatAn to jIv bhogone chhoDI shakato nathI, tethI rAvaNAdinI mAphak te puNyathI
narakAdinA dukh pAme chhe mATe tevA puNyo hey chhe. vaLI nidAn rahit evA puNya sahit
je puruSho chhe te bIjA bhavamAn rAjyAdinA bhog prApta thatAn paN bhogone chhoDIne,
314 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-57
हैं, [यानि ] जो [जीवस्य ] जीवको [राज्यानि दत्त्वा ] राज देकर [लघु ] शीघ्र ही [दुःखानि ]
नरकादि दुःखोंको [जनयंति ] उपजाते हैं, [ज्ञानिनः ] ऐसा ज्ञानीपुरुष [भणंति ] कहते हैं
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परमानंद अतींद्रियसुखका
अनुभव उससे विपरीत जो देखे, सुने, भोगे इन्द्रियोंके भोग उनकी वाँछारूप निदानबंधपूर्वक
दान तप आदिकसे उपार्जन किये जो पुण्यकर्म हैं, वे हेय हैं
क्योंकि वे निदानबंधसे उपार्जन
किये पुण्यकर्म जीवको दूसरे भवमें राजसम्पदा देते हैं उस राज्यविभूतिको अज्ञानी जीव पाकर
विषय भोगोंको छोड़ नहीं सकता, उससे नरकादिकके दुःख पाता है, रावणकी तरह, इसलिये
अज्ञानियोंके पुण्य
कर्म भी होता है, और जो निदानबंध रहित ज्ञानी पुरुष हैं, वे दूसरे भवमें
राज्यादि भोगोंको पाते हैं, तो भी भोगोंको छोड़कर जिनराजकी दीक्षा धारण करते हैं धर्मको
सेवनकर ऊ र्ध्वगतिगामी बलदेव आदिककी तरह होते हैं ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि
भवान्तरमें निदानबंध नहीं करते हुए जो महामुनि हैं, वे महान् तपकर स्वर्गलोक जाते हैं वहाँसे
चयकर बलभद्र होते हैं वे देवोंसे अधिक सुख भोगकर राज्यका त्याग करके मुनिव्रतको

Page 315 of 565
PDF/HTML Page 329 of 579
single page version

भवन्ति बलदेवादिवदिति भावार्थः तथा चोक्त म्‘ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युर्निर्निदाना
भवान्तरे ’ इत्यादिवचनात् ।।५७।।
अथ निर्मलसम्यक्त्वाभिमुखानां मरणमपि भद्रं, तेन विना पुण्यमपि समीचीन न
भवतीति प्रतिपादयति
१८५) वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ।।५८।।
वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व
मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ।।५८।।
वर इत्यादि वर णिय-दंसण-अहिमुहउ वरं किंतु निजदर्शनाभिमुखः सन् मरणु वि
jinadIkShA laIne baLadevanI mAphak UrdhvagatigAmI thAy chhe, evo bhAvArtha chhe. kahyun chhe ke
‘‘ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युर्निर्निदाना भवान्तरे’’ (arthapUrvabhavamAn jeNe nidAnabandh karyo nathI
evA baLadevo UrdhvagAmI thAy chhe.) 57.
have, nirmaL samyaktvanI sanmukh thayelA jIvonun maraN paN bhadra chhe, samyaktva vinAnun
puNya paN samIchIn nathI, em kahe chhe
bhAvArthapotAnA nirdoSh paramAtmAnI anubhUtinI ruchirUp traN guptithI gupta
adhikAr-2 dohA-58 ]paramAtmaprakAsha [ 315
धारणकर या तो केवलज्ञान पाके मोक्षको ही पधारते हैं, या बड़ी ऋद्धिके धारी देव होते हैं,
फि र मनुष्य होकर मोक्षको पाते हैं
।।५७।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल सम्यक्त्वधारी जीवोंका मरण भी सुखकारी है, उनका
मरना अच्छा है, और सम्यक्त्वके बिना पुण्यका उदय भी अच्छा नहीं है
गाथा५८
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [निजदर्शनाभिमुखः ] जो अपने सम्यग्दर्शनके
सन्मुख होकर [मरणमपि ] मरणको भी [लभस्व वरं ] पावे, तो अच्छा है, परन्तु [जीव ] हे
जीव, [निजदर्शनविमुखः ] अपने सम्यग्दर्शनसे विमुख हुआ [पुण्यमपि ] पुण्य भी
[करिष्यसि ] करे [मा वरं ] तो अच्छा नहीं
भावार्थ :निर्दोष निज परमात्माकी अनुभूतिकी रुचिरूप तीन गुप्तिमयी जो

Page 316 of 565
PDF/HTML Page 330 of 579
single page version

जीव लहेसि मरणमपि हे जीव लभस्व भज मा णिय-दंसण-विम्मुहउ मा पुनर्निजदर्शन-
विमुखः सन् पुण्णु वि जीव करेसि पुण्यमपि हे जीव करिष्यसि तथा च स्वकीयनिर्दोषि-
परमात्मानुभूतिरुचिरूपं त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणनिश्चयचारित्राविनाभूतं वीतरागसंज्ञं निश्चयसम्यक्त्वं
भण्यते तदभिमुखः सन् हे जीव मरणमपि लभस्व दोषो नास्ति तेन विना पुण्यं मा
कार्षीरिति
अत्र सम्यक्त्वरहिता जीवाः पुण्यसहिता अपि पापजीवा भण्यन्ते सम्यक्त्व-
सहिताः पुनः पूर्वभवान्तरोपार्जितपापफलं भुञ्जाना अपि पुण्यजीवा भण्यन्ते येन कारणेन,
तेन कारणेन सम्यक्त्वसहितानां मरणमपि भद्रम्
सम्यक्त्वरहितानां च पुण्यमपि भद्रं न
भवति कस्मात् तेन निदानबद्धपुण्येन भवान्तरे भोगान् लब्ध्वा पश्चान्नरकादिकं गच्छन्तीति
lakShaNavALun je nishchayachAritra tenI sAthe avinAbhUt vItarAg nAmanun nishchayasamyaktva kahevAy chhe
te nishchayasamyaktvanI sanmukh thato he jIv! jo tun maraN paN pAme to doSh nathI paN samyaktva
vinAnun puNya na kar.
ahIn, samyaktva rahit jIvo puNyasahit hovA chhatAn paN, pApI jIv kahevAy chhe ane
samyaktva sahit jIvo, pUrvabhavAntaramAn upArjit karelA pApaphaLane bhogavatA chhatAn paN, puNyajIvo
kahevAy chhe. te kAraNe samyaktva sahit jIvonun maraN paN bhadra chhe ane samyaktva rahit jIvonun
puNya paN bhadra nathI, kAraN ke nidAnathI bAndhelA te puNyathI jIvo bhavAntaramAn bhogone pAmIne
316 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-58
निश्चयचारित्र उससे अविनाभावी (तन्मयी) जो वीतरागनिश्चयसम्यक्त्व उसके सन्मुख
हुआ
हे जीव, जो तू मरण भी पावे, तो; दोष नहीं, और उस सम्यक्त्वके बिना मिथ्यात्व
अवस्थामें पुण्य भी करे तो अच्छा नहीं है जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि जीव पुण्य
सहित हैं, तो भी पापी ही कहे हैं तथा जो सम्यक्त्व सहित हैं, वे पहले भवमें उपार्जन
किये हुए पापके फलसे दुःख-दारिद्र भोगते हैं, तो भी पुण्याधिकारी ही कहे हैं इसलिये
जो सम्यक्त्व सहित हैं, उनका मरना भी अच्छा मरकर ऊ परको जावेंगे और सम्यक्त्व
रहित हैं, उनका पुण्यकर्म भी प्रशंसा योग्य नहीं है वे पुण्यके उदयसे क्षुद्र (नीच) देव
तथा क्षुद्र मनुष्य होके संसारवनमें भटकेंगे यदि पूर्वके पुण्यको यहाँ भोगते हैं, तो तुच्छ
फल भोगके नरकनिगोदमें पड़ेंगे इसलिए मिथ्यादृष्टियोंका पुण्य भी भला नहीं है
निदानबंध पुण्यसे भवान्तरमें भोगोंको पाकर पीछे नरकमें जावेंगे सम्यग्दृष्टि प्रथम मिथ्यात्व
अवस्थामें किये हुए पापोंके फलसे दुःख भोगते हैं, लेकिन अब सम्यक्त्व मिला है,
इसलिये सदा सुखी ही होवेंगे
आयुके अंतमें नरकसे निकलके मनुष्य होकर ऊ र्ध्वगति ही
पावेंगे, और मिथ्यादृष्टि जो पुण्यके उदयसे देव भी हुए हैं, तो भी देवलोकसे आकर एकेंद्री

Page 317 of 565
PDF/HTML Page 331 of 579
single page version

भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन हि संयुतः न तु सम्यक्त्वहीनस्य
निवासो दिवि राजते ।।’’ ।।५८।।
अथ तमेवार्थ पुनरपि द्रढयति
१८६) जे णिय - दंसण - अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति
तिं विणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति ।।५९।।
ये निजदर्शनाभिमुखाः सौख्यमनन्तं लभन्ते
तेन विना पुण्यं कुर्वाणा अपि दुःखमनन्तं सहन्ते ।।५९।।
जे णिय इत्यादि जे ये केचन णिय-दंसण-अहिमुहा निजदर्शनाभिमुखास्ते पुरुषाः
सोक्खु अणंतु लहंति सौख्यमनन्तं लभन्ते अपरे केचन तिं विणु पुण्णु करंता वि तेन
सम्यक्त्वेन विना पुण्यं कुर्वाणा अपि दुक्खु अणंतु सहंति दुःखमनन्तं सहन्त इति
तथाहि निजशुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वाभिमुखा ये ते केचनास्मिन्नेव भवे
pachhI narakAdimAn jAy chhe, evo bhAvArtha chhe. kahyun paN chhe ke‘‘वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन
हि संयुतः न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ।।’’ (samyaktva sahit narakavAs paN sAro
chhe paN samyaktva vagaranA jIvane svargano nivAs paN shobhato nathI.) 58.
have, te ja arthane pharIthI draDh kare chhe
bhAvArthanijashuddhAtmatattvanI prAptinI ruchirUp nishchayasamyaktvanI sanmukh jeo chhe,
adhikAr-2 dohA-59 ]paramAtmaprakAsha [ 317
होवेंगे ऐसा दूसरी जगह भी ‘‘वरं’’ इत्यादि श्लोकसे कहा है, कि सम्यक्त्व सहित
नरकमें रहना भी अच्छा, और सम्यक्त्व रहितका स्वर्गमें निवास भी शोभा नहीं देता ।।५८।।
अब इसी बातको फि र भी दृढ़ करते हैं
गाथा५९
अन्वयार्थ :[ये ] जो [निजदर्शनाभिमुखाः ] सम्यग्दर्शनके सन्मुख हैं, वे [अनन्तं
सुखं ] अनन्त सुखको [लभन्ते ] पाते हैं, [तेन विना ] और जो जीव सम्यक्त्व रहित हैं, वे
[पुण्यं कुर्वाणा अपि ] पुण्य भी करते हैं, तो भी पुण्यके फलसे अल्प सुख पाके संसारमें
[अनंतं दुःखम् ] अनन्त दुःख [सहंते ] भोगते हैं
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप निश्चयसम्यक्त्वके सन्मुख हुए जो सत्पुरुष हैं,

Page 318 of 565
PDF/HTML Page 332 of 579
single page version

धर्मपुत्रभीमार्जुनादिवदक्षयसुखं लभन्ते, ये केचन पुनर्नकुलसहदेवादिवत् स्वर्गसुखं लभन्ते ये
तु सम्यक्त्वरहितास्ते पुण्यं कुर्वाणा अपि दुःखमनन्तमनुभवन्तीति तात्पर्यम् ।।५९।।
अथ निश्चयेन पुण्यं निराकरोति
१८७) पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो
मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ।।६०।।
पुण्येन भवति विभवो विभवेन मदो मदेन मतिमोहः
मतिमोहेन च पापं तस्मात् पुण्यं अस्माकं मा भवतु ।।६०।।
पुण्णेण इत्यादि पुण्णेण होइ विहवो पुण्येन विभवो विभूतिर्भवति, विहवेण मआ
विभवेन मदोऽहंकारो गर्वो भवति, मएण मइ-मोहाे विज्ञानाद्यष्टविधमदेन मतिमोहो मतिभ्रंशो
temAnA keTalAk to A bhavamAn ja yudhiShThir, bhIm, arjunAdinI mAphak akShay sukh pAme chhe
ane keTalAk nakul, sahadevAdinI mAphak svargasukh pAme chhe, paN jeo samyaktva rahit chhe teo
puNya karavA chhatAn paN anant dukh ja anubhave chhe. 59.
have, nishchayanayathI puNyane niShedhe chhe.
bhAvArthabhedAbhedaratnatrayanI ArAdhanA rahit, dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA
bhogonI AkAnkShArUp nidAnabandhanA pariNAm sahit je jIv chhe te jIvathI pUrvabhavamAn je A
318 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-60
वे इसी भवमें युधिष्ठिर, भीम, अर्जुनकी तरह अविनाशी सुखको पाते हैं, और कितने ही नकुल,
सहदेवकी तरह अहमिंद्र
पदके सुख पाते हैं तथा जो सम्यक्त्वसे रहित मिथ्यादृष्टिजीव पुण्य
भी करते हैं, तो भी मोक्षके अधिकारी नहीं हैं, संसारीजीव ही हैं, यह तात्पर्य जानना ।।५९।।
आगे निश्चयसे मिथ्यादृष्टियोंके पुण्यका निषेध करते हैं
गाथा६०
अन्वयार्थ :[पुण्येन ] पुण्यसे घरमें [विभवः ] धन [भवति ] होता है, और
[विभवेन ] धनसे [मदः ] अभिमान, [मदेन ] मानसे [मतिमोहः ] बुद्धिभ्रम होता है,
[मतिमोहेन ] बुद्धिके भ्रम होनेसे (अविवेकसे) [पापं ] पाप होता है, [तस्मात् ] इसलिये
[पुण्यं ] ऐसा पुण्य [अस्माकं ] हमारे [मा भवतु ] न होवे
भावार्थ :भेदाभेदरत्नत्रयकी आराधनासे रहित, देखे, सुने, अनुभव किये भोगोंकी
वाँछारूप निदानबंधके परिणामों सहित जो मिथ्यादृष्टि संसारी अज्ञानी जीव हैं, उसने पहले

Page 319 of 565
PDF/HTML Page 333 of 579
single page version

विवेकमूढत्वं भवति मइ-मोहेण य पावं मतिमूढत्वेन पापं भवति, ता पुण्णं अम्ह मा होउ
तस्मादित्थंभूतं पुण्यं अस्माकं मा भूदिति तथा च इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रया-
राधनारहितेन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे
तदेव मदमहंकारं जनयति बुद्धिविनाशं च करोति न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरत-
सगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् यदि पुनः सर्वेषां मदं जनयति तर्हि ते कथं पुण्यभाजनाः
सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः इति भावार्थः तथा चोक्तं चिरन्तनानां
निरहंकारत्वम्‘‘सत्यं वाचि मतौ श्रुतं हृदि दया शौर्यं भुजे विक्रमे लक्ष्मीर्दान-
मनूनमर्थिनिचये मार्गे गतिर्निवृत्तेः येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहंकाराः श्रुतेर्गोचराश्चित्रं संप्रति
adhikAr-2 dohA-60 ]paramAtmaprakAsha [ 319
उपार्जन किये भोगोंकी वाँछारूप पुण्य उसके फलसे प्राप्त हुई घरमें सम्पदा होनेसे अभिमान
(घमंड) होता है, अभिमानसे बुद्धि भ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्टकर पाप कमाता है, और पापसे
भव भवमें अनंत दुःख पाता है
इसलिये मिथ्यादृष्टियोंका पुण्य-पापका ही कारण है जो
सम्यक्त्वादि गुण सहित भरत, सगर, राम पांडवादिक विवेकी जीव हैं, उनको पुण्यबंध
अभिमान नहीं उत्पन्न करता, परम्पराय मोक्षका कारण है
जैसे अज्ञानीयोंके पुण्यका फल
विभूति गर्वका कारण है, वैसे सम्यग्दृष्टियोंके नहीं है वे सम्यग्दृष्टि पुण्यके पात्र हुए चक्रवर्ती
आदिकी विभूति पाकर मद अहंकारादि विकल्पोंको छोड़कर मोक्षको गये अर्थात् सम्यग्दृष्टिजीव
चक्रवर्ती बलभद्र
पदमें भी निरहंकार रहे ऐसा ही कथन आत्मानुशासन ग्रंथमें
श्रीगुणभद्राचार्यने किया है, कि पहले समयमें ऐसे सत्पुरुष हो गये हैं, कि जिनके वचनमें सत्य,
बुद्धिमें शास्त्र, मनमें दया, पराक्रमरूप भुजाओंमें शूरवीरता, याचकोंमें पूर्ण लक्ष्मीका दान, और
मोक्षमार्गमें गमन है, वे निरभिमानी हुए, जिनके किसी गुणका अहंकार नहीं हुआ
उनके नाम
शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हैं, परंतु अब बड़ा अचंभा है, कि इस पंचमकालमें लेशमात्र भी गुण नहीं
pUrvokta puNya upArjyun chhe te ja puNya ahankAr utpanna kare chhe ane buddhino vinAsh kare chhe,
paN bharat, sagar, rAm, pAnDavAdinA puNyabandhanI mAphak samyaktvAdi guN sahit puNyabandh mad
utpanna karato nathI. vaLI jo puNya sarvane mad utpanna kare to teo kevI rIte puNyanA bhAjan
thatAn madaahankArAdi vikalpane chhoDIne mokShe gayA? evo bhAvArtha chhe.
pahelAnnA samayamAn thaI gayelA satpuruShone nirahankArapaNun paN A pramANe kahyun chhe
ke‘‘सत्यं वाचि मतौ श्रुतं हृदि दया शौर्यं भुजे विक्रमे लक्ष्मीर्दानमनूनमर्थिनिचये मार्गे
गतिर्निवृत्तेः येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहंकाराः श्रुतेर्गोचराश्चित्रं संप्रति लेशतोऽपि न गुणास्तेषां
तथाप्युद्धताः ।।’’ (AtmAnushAsan 218) (arthapahelAnA samayamAn evA satpuruSho thaI
gayA chhe ke vANImAn satya, buddhimAn Agam, hRudayamAn dayA, shaurya, bhujAomAn parAkram

Page 320 of 565
PDF/HTML Page 334 of 579
single page version

लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ।।’’ ।।६०।।
अथ देवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यं भवति न च मोक्ष इति प्रतिपादयति
१८८) देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ
कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ ।।६१।।
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां भक्त्या पुण्यं भवति
कर्मक्षयः पुनः भवति नैव आर्यः शान्ति भणति ।।६१।।
देवहं इत्यादि देवहं सत्थहं मुणिवरहं भत्तिए पुण्णु हवेइ देवशास्त्रमुनीनां भक्त्या पुण्यं
भवति कम्म-क्खउ पुणु, होइ णवि कर्मक्षयः पुनर्मुख्यवृत्त्या नैव भवति एवं कोऽसौ भणति
320 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-61
हैं, तो भी उनके उद्धतपना है, यानी गुण तो रंचमात्र भी नहीं, और अभिमानमें बुद्धि रहती
है
।।६०।।
आगे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिसे मुख्यतासे तो पुण्यबंध होता है, उससे परम्पराय मोक्ष
होता है, साक्षात् मोक्ष नहीं, ऐसा कहते हैं
गाथा६१
अन्वयार्थ :[देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां ] श्रीवीतरागदेव, द्वादशांग शास्त्र और
दिगम्बर साधुओंकी [भक्त्या ] भक्ति करनेसे [पुण्यं भवति ] मुख्यतासे पुण्य होता है, [पुनः ]
लेकिन [कर्मक्षयः ] तत्काल कर्मोंका क्षय [नैव भवति ] नहीं होता, ऐसा [आर्यः शांतिः ]
शांति नाम आर्य अथवा कपट रहित संत पुरुष [भणति ] कहते हैं
भावार्थ :सम्यक्त्वपूर्वक जो देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति करता है, उसके मुख्य तो
yAchakone lakShmInun pUrNadAn ane nivRuttinA nirvANamArgamAn gaman, AvA guNo jenAmAn rahyA
hatA chhatAn paN teo abhimAnathI rahit hatA, em AgamathI jANavA maLe chhe paN
Ashcharya chhe ke hAlamAn-panchamakALamAn-lesh paN guNo na hoy topaN manuShyo uddhat chhe
abhimAnI chhe.) 60.
have, dev-guru-shAstranI bhaktithI mukhyapaNe puNya thAy chhe paN mokSha thato nathI, em kahe
chhe
bhAvArthasamyaktvapUrvak devagurushAstranI bhaktithI mukhyapaNe puNya ja thAy chhe
paN mokSha nahi.

Page 321 of 565
PDF/HTML Page 335 of 579
single page version

अज्जउ आर्यः किं नामा सन्ति शान्तिः भणेइ भणति कथयति इति तथाहि
सम्यक्त्वपूर्वकदेवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यमेव भवति न च मोक्षः अत्राह प्रभाकरभट्टः
यदि पुण्यं मुख्यवृत्त्या मोक्षकारणं न भवत्युपादेयं च न भवति तर्हि भरतसगररामपाण्डवादयोऽपि
निरन्तरं पञ्चपरमेष्ठिगुणस्मरणदानपूजादिना निर्भरभक्ताः सन्तः किमर्थं पुण्योपार्जनं कुर्युरिति
भगवानाह यथा कोऽपि रामदेवादिपुरुषविशेषो देशान्तरस्थितसीतादिस्त्रीसमीपागतानां पुरुषाणां
तदर्थं संभाषणदानसन्मानादिकं करोति तथा तेऽपि महापुरुषाः वीतरागपरमानन्दैकरूप-
adhikAr-2 dohA-61 ]paramAtmaprakAsha [ 321
पुण्य ही होता है, और परम्पराय मोक्ष होता है जो सम्यक्त्व रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनके भाव
-भक्ति तो नहीं है, लौकिक बाह्य भक्ति होती है, उससे पुण्यका ही बंध है, कर्मका क्षय नहीं
है
ऐसा कथन सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेवसे प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया हे प्रभो, जो पुण्य मुख्यतासे
मोक्षका कारण नहीं है, तो त्यागने योग्य ही है, ग्रहण योग्य नहीं है जो ग्रहण योग्य नहीं
है, तो भरत, सगर, राम, पांडवादिक महान् पुरुषोंने निरंतर पंचपरमेष्ठीके गुणस्मरण क्यों किये ?
और दान-पूजादि शुभ क्रियाओंसे पूर्ण होकर क्यों पुण्यका उपार्जन किया ? तब श्रीगुरुने उत्तर
दिया
कि जैसे परदेशमें स्थित कोई रामादिक पुरुष अपनी प्यारी सीता आदि स्त्रीके पाससे
आये हुए किसी मनुष्यसे बातें करता हैउसका सम्मान करता है, और दान करता है, ये
सब कारण अपनी प्रियाके हैं, कुछ उसके प्रसादके कारण नहीं है उसी तरह वे भरत, सगर,
राम, पांडवादि महान् पुरुष वीतराग परमानंदरूप मोक्षसे लक्ष्मीके सुख अमृतरसके प्यासे हुए
संसारकी स्थितिके छेदनके लिये विषय कषायकर उत्पन्न हुए आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंके नाशका
कारण श्रीपंचपरमेष्ठीके गुणोंका स्मरण करते हैं, और दान पूजादिक करते हैं, परंतु उनकी दृष्टि
केवल निज परिणतिपर है, पर वस्तुपर नहीं है
पंचपरमेष्ठीकी भक्ति आदि शुभ क्रियाको
परिणत हुए तो भरत आदिक हैं, उनके बिना चाहे पुण्यप्रकृतिका आस्रव होता है जैसे
evun kathan sAmbhaLIne prabhAkarabhaTTa pUchhe chhe ke jo puNya mukhyapaNe mokShanun kAraN nathI
ane upAdey nathI to pachhI bharat, sagar, rAm, pAnDavAdi paN nirantar panchaparameShThInAn guN,
smaraN, dAn, pUjAdithI nirbhar (atyant) bhakta thaIne shA mATe puNya upArjan karatA hatA?
bhagavAn shrIyogIndradev kahe chhe kejevI rIte koI rAmadevAdi puruShavisheSh
deshAntaramAn rahel sItAdistrInI pAsethI Avel puruShonAn sItAdi arthe sambhAShaN, dAn,
sanmAnAdik kare chhe tevI rIte te mahApuruSho paN vItarAg paramAnand ja jenun ek rUp
chhe evA mokShalakShmInA sukhasudhArasanA pipAsu thaIne sansArasthitine chhedavAne kAraNabhUt ane
viShayakaShAyathI utpanna durdhyAnanA vinAshanA hetubhUt evA, parameShThInA guNasmaraN, dAn,
pUjAdik karatA hatA.

Page 322 of 565
PDF/HTML Page 336 of 579
single page version

मोक्षलक्ष्मीसुखसुधारसपिपासिताः सन्तः संसारस्थितिविच्छेदकारणं विषयकषायोत्पन्नदुर्ध्यानविनाश-
हेतुभूतं च परमेष्ठिसंबन्धिगुणस्मरणदानपूजादिकं कुर्युरिति
अयमत्र भावार्थः तेषां पञ्च-
परमेष्ठिभक्त्यादिपरिणतानां कुटुम्बिनां पलालवदनीहितं पुण्यमास्रवतीति ।।६१।।
अथ देवशास्त्रमुनीनां योऽसौ निन्दां करोति तस्य पापबन्धो भवतीति कथयति
१८९) देवहं सत्थहँ मुणिवरहँ जो विद्देसु करेइ
णियमेँ पाउ हवेइ तसु जेँ संसारु भमेइ ।।६२।।
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां यो विद्वेषं करोति
नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारं भ्रमति ।।६२।।
देवहं इत्यादि देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ देवशास्त्रमुनीनां
322 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-62
किसानकी दृष्टि अन्न पर है, तृण भूसादि पर नहीं है बिना चाहा पुण्यका बंध सहजमें ही हो
जाता है वह उनको संसारमें नहीं भटका सकता है वे तो शिवपुरीके ही पात्र हैं ।।६१।।
आगे देव-शास्त्र-गुरुकी जो निंदा करता है, उसके महान् पापका बंध होता है, वह
पापी पापके प्रभावसे नरक निगोदादि खोटी गतिमें अनंतकाल तक भटकता है
गाथा६२
अन्वयार्थ :[देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां ] वीतरागदेव, जिनसूत्र और
निर्ग्रंथमुनियोंसे [यः ] जो जीव [विद्वेषं ] द्वेष [करोति ] करता है, [तस्य ] उसके [नियमेन ]
निश्चयसे [पापं ] पाप [भवति ] होता है, [येन ] जिस पापके कारणसे वह जीव [संसारं ]
संसारमें [भ्रमति ] भ्रमण करता है
अर्थात् परम्पराय मोक्षके कारण और साक्षात् पुण्यबंधके
कारण जो देव-शास्त्र-गुरु हैं, इनकी जो निंदा करता है, उसके नियमसे पाप होता है, पापसे
दुर्गतिमें भटकता है
भावार्थ :निज परमात्मद्रव्यकी प्राप्तिकी रुचि वही निश्चयसम्यक्त्व, उसका कारण
ahIn, e bhAvArtha chhe ke jevI rIte kheDUtane tyAn dhAnyanI sAthe sAthe vagar prayAse
ghAs pAke chhe tevI rIte panchaparameShThInI bhakti AdimAn pariNat jIvone anIhit (ichchhA
vinAnA) puNyano Ashrav thAy chhe. 61.
have, dev, guru, shAstranI nindA kare chhe tene pApabandh thAy chhe, em kahe chhe
bhAvArthanij paramAtmapadArthanI prAptinI ruchirUp nishchayasamyaktvanA kAraNabhUt ane

Page 323 of 565
PDF/HTML Page 337 of 579
single page version

साक्षात्पुण्यबन्धहेतुभूतानां परंपरया मुक्ति कारणभूतानां च योऽसौ विद्वेषं करोति तस्य किं
भवति णियमें पाउ हवेइ तसु नियमेन पापं भवति तस्य येन पापबन्धेन किं भवति
जें संसारु भमेइ येन पापेन संसारं भ्रमतीति तद्यथा निजपरमात्मपदार्थोपलम्भरुचिरूपं
निश्चयसम्यक्त्वकारणस्य तत्त्वार्थश्रद्धानरूपव्यवहारसम्यक्त्वस्य विषयभूतानां देवशास्त्रयतीनां
योऽसौ निन्दां करोति स मिथ्या
द्रष्टिर्भवति मिथ्यात्वेन पापं बध्नाति, पापेन चतुर्गतिसंसारं
भ्रमतीति भावार्थः ।।६२।।
अथ पूर्वसूत्र द्वयोक्तं पुण्यपापफलं दर्शयति
१९०) पावेँ णारउ तिरिउ जिउ पुएणेँ अमरु वियाणु
मिस्सेँ माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु ।।६३।।
पापेन नारकः तिर्यग् जीवः पुण्येनामरो विजानीहि
मिश्रेण मनुष्यगतिं लभते द्वयोरपि क्षये निर्वाणम् ।।६३।।
पावें इत्यादि पावें पापेन णारउ तिरिउ नारको भवति तिर्यग्भवति कोऽसौ जिउ
adhikAr-2 dohA-63 ]paramAtmaprakAsha [ 323
तत्त्वार्थश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यक्त्व, उसके मूल अरहंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु, और दयामयी धर्म,
इन तीनोंकी जो निंदा करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है
वह मिथ्यात्वका महान् पाप बाँधता
है उस पापसे चतुर्गति संसारमें भ्रमता है ।।६२।।
आगे पहले दो सूत्रोंमें कहे गये पुण्य और पाप फल हैं, उनको दिखाते हैं
गाथा६३
अन्वयार्थ :[जीवः ] यह जीव [पापेन ] पापके उदयसे [नारकः तिर्यग् ]
नरकगति और तिर्यंचगति पाता है, [पुण्येन ] पुण्यसे [अमरः ] देव होता है, [मिश्रेण ] पुण्य
और पाप दोनोंके मेलसे [मनुष्यगतिं ] मनुष्यगतिको [लभते ] पाता है, और [द्वयोरपि क्षये ]
पुण्य-पाप दोनोंके ही नाश होनेसे [निर्वाणम् ] मोक्षको पाता है, ऐसा [विजानीहि ] जानो
भावार्थ :सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव जो परमात्मा है, उससे विपरीत जो पापकर्म
tattvArtha shraddhAnarUp vyavahArasamyaktvanA viShayabhUt dev, shAstra ane yatinI je nindA kare chhe te
mithyAdraShTi chhe. mithyAtvathI te pAp bAndhe chhe. pApathI te chAragatirUp sansAramAn bhame chhe. 62.
have, pUrvanA be sUtromAn kahelA puNya ane pApanun phaL darshAve chhe
bhAvArthasahaj shuddha gnAnAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA paramAtmAthI viparIt

Page 324 of 565
PDF/HTML Page 338 of 579
single page version

जीवः पुण्णें अमरु वियाणु पुण्येनामरो देवो भवतीति जानीहि मिस्सें माणुस-गइ लहइ मिश्रेण
पुण्यपापद्वयेन मनुष्यगतिं लभते दोहि वि खइ णिव्वाणु द्वयोरपि कर्मक्षयेऽपि निर्वाणमिति
तद्यथा सहजशुद्धज्ञानानन्दैकस्वभावात्परमात्मनः सकाशाद्विपरीतेन छेदनादिनारकतिर्यग्गति-
दुःखदानसमर्थेन पापकर्मोदयेन नारकतिर्यग्गतिभाजनो भवति जीवः तस्मादेव शुद्धात्मनो
विलक्षणेन पुण्योदयेन देवो भवति तस्मादेव शुद्धात्मनो विपरीतेन पुण्यपापद्वयेन मनुष्यो भवति
तस्यैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन
मुक्तो भवतीति तात्पर्यार्थः
तथा चोक्त म्‘‘पावेण णरयतिरियं गम्मइ धम्मेण देवलोयम्मि
मिस्सेण माणुसत्तं दोण्हं पि खएण णिव्वाणं ।।’’ ।।६३।।
अथ निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनस्वरूपे स्थित्वा व्यवहारप्रतिक्रमण प्रत्याख्याना-
324 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-63
उसके उदयसे नरक तिर्यंचगतिका पात्र होता है, आत्मस्वरूपसे विपरीत शुभ कर्मोंके उदयसे
देव होता है, दोनोंके मेलसे मनुष्य होता है, और शुद्धात्मस्वरूपसे विपरीत इन दोनों पुण्य
-पापोंके क्षयसे निर्वाण (मोक्ष) मिलता है
मोक्षका कारण एक शुद्धोपयोग है, वह शुद्धोपयोग
निज शुद्धात्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप है इसलिये इस शुद्धोपयोगके बिना
किसी तरह भी मुक्ति नहीं हो सकती, यह सारांश जानो ऐसा ही सिद्धान्तग्रन्थमें भी हरएक
जगह कहा गया है जैसेयह जीव पापसे नरक तिर्यंचगतिको जाता है, और धर्म (पुण्य)
से देवलोकमें जाता है, पुण्य-पाप दोनोंके मेलसे मनुष्यदेहको पाता है, और दोनोंके क्षयसे मोक्ष
पाता है
।।६३।।
आगे निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान और निश्चयआलोचनारूप जो शुद्धोपयोग
narakagati ane tiryanchagatinAn chhedan Adi dukh devAmAn samartha evA pApakarmanA udayathI jIv
nArakagatinun ane tiryanchagatinun bhAjan thAy chhe, te ja shuddha AtmAthI vilakShaN evA puNyodayathI
dev thAy chhe, te ja shuddha AtmAthI viparIt puNya-pAp dvayathI manuShya thAy chhe ane vishuddhagnAn,
vishuddhadarshan jeno svabhAv chhe evA te ja nij shuddha AtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane
samyag anuShThAnarUp shuddhopayogathI mukta thAy chhe. vaLI kahyun paN chhe ke
‘‘पावेण णरयतिरियं
गम्मइ धम्मेण देवलोयम्मि मिस्सेण माणुसत्तं दोण्हं पि खएण णिव्वाणं ।।’’ (arthaA jIv pApathI
narakagati ane tiryanchagatimAn jAy chhe. dharmathI arthAt puNyathI devalokamAn jAy chhe, puNya pAp
bannenA mishraNathI manuShyapaNun pAme chhe ane bannenA kShayathI nirvAN pAme chhe. 63.
have, gnAnI nishchay pratikramaN, nishchayapratyAkhyAn ane nishchay AlochanAsvarUpamAn sthit

Page 325 of 565
PDF/HTML Page 339 of 579
single page version

लोचनां त्यजन्तीति त्रिकलेन कथयति
१९१) वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण
करइ करावइ अणमणइ एक्कु वि णाणिण तेण ।।६४।।
वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं पुण्यस्य कारणं येन
करोति कारयति अनुमन्यते एकमपि ज्ञानी न तेन ।।६४।।
वंदणु इत्यादि वंदणु णिंदणु पडिकमणु वन्दननिन्दनप्रतिक्रमणत्रयम् किं विशिष्टम्
पुण्णहं कारणु पुण्यस्य कारणं जेण येन कारणेन करइ करावइ अणुमणइ करोति कारयति
अनुमोदयति,
एक्कु वि एकमपि, णाणि ण तेण ज्ञानी पुरुषो न तेन कारणेनेति
तथाहि
adhikAr-2 dohA-64 ]paramAtmaprakAsha [ 325
उसमें ठहरकर व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान और व्यवहार आलोचनारूप शुभोपयोगको
छोड़े, ऐसा कहते हैं
गाथा६४
अन्वयार्थ :[वंदनं ] पंचपरमेष्ठीकी वंदना, [निंदनं ] अपने अशुभ कर्मकी निंदा,
और [प्रतिक्रमणं ] अपराधोंकी प्रायश्चित्तादि विधिसे निवृत्ति, ये सब [येन पुण्यस्य कारणं ]
जो पुण्यके कारण हैं, मोक्षके कारण नहीं हैं, [तेन ] इसीलिये पहली अवस्थामें पापके दूर
करनेके लिये ज्ञानी पुरुष इनको करता है, कराता है, और करते हुएको भला जानता है तो
भी निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्थामें [ज्ञानी ] ज्ञानी जीव [एकमपि ] इन तीनोंमेंसे एक भी
[न करोति ] न तो करता है, [कारयति ] न कराता है, और न [अनुमन्यते ] करते हुए को
भला जानता है
भावार्थ :केवल शुद्ध स्वरूपमें जिसका चित्त लगा हुआ है, ऐसा निर्विकल्प
परमात्मतत्त्वकी भावनाके बलसे देखे, सुने और अनुभव किये भोगोंकी वाँछारूप जो
भूतकालके रागादि दोष उनका दूर करना वह निश्चयप्रतिक्रमण; वीतराग चिदानन्द शुद्धात्माकी
thaIne vyavahArapratikramaN, vyavahArapratyAkhyAn ane vyavahAraAlochanAne chhoDe chhe, em traN gAthA
dvArA kahe chhe
bhAvArthashuddha nirvikalpa paramAtmatattvanI bhAvanAnA baLathI dekhelA, sAmbhaLelA ane
anubhavelA bhogonI AkAnkShAnA smaraNarUp atItakALanA rAgAdidoShonun nirAkaraN karavun te
nishchay pratikramaN chhe, ek (kevaL) vItarAg chidAnandanI anubhUtinI bhAvanAnA baLathI

Page 326 of 565
PDF/HTML Page 340 of 579
single page version

शुद्धनिर्विकल्पपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्मरणरूपाणामतीतरागादिदोषाणां
निराकरणं निश्चयप्रतिक्रमणं भवति, वीतरागचिदानन्दैकानुभूतिभावनाबलेन भाविभोगाकांक्षा-
रूपाणां रागादिनां त्यजनं निश्चयप्रत्याख्यानं भण्यते, निजशुद्धात्मोपलम्भबलेन वर्तमानोदयागत-
शुभाशुभनिमित्तानां हर्षविषादादिपरिणामानां निजशुद्धात्मद्रव्यात् पृथक्करणं निश्चयालोचनमिति
इत्थंभूते निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनत्रये स्थित्वा योऽसौ व्यवहारप्रतिक्रमणप्रत्याख्याना-
लोचनत्रयं तन्त्रयानुकूलं वन्दननिन्दनादिशुभोपयोगं च त्यजन् स ज्ञानी भण्यते न चान्य इति
भावार्थः
।।६४।।
अथ
326 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-64
अनुभूतिकी भावनाके बलसे होनेवाले भोगोंकी वाँछारूप रागादिकका त्याग वह
निश्चयप्रत्याख्यान,
और निज शुद्धात्माकी प्राप्तिके बलसे वर्तमान उदयमें आये जो शुभ-अशुभके
कारण हर्ष-विषादादि अशुद्ध परिणाम उनको निज शुद्धात्मद्रव्यसे जुदा करना वह
निश्चयआलोचन
; इस तरह निश्चयप्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचनामें ठहरकर जो कोई
व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान, व्यवहारआलोचना, इन तीनोंके अनुकूल वन्दना, निंदा
आदि शुभोपयोग है, उनको छोड़ता है वही ज्ञानी कहा जाता है, अन्य नहीं
सारांश यह है
कि ज्ञानी जीव पहले तो अशुभको त्यागकर शुभमें प्रवृत्त होता है, बाद शुभको भी छोड़के
शुद्धमें लग जाता है
पहले किये हुए अशुभ कर्मोंकी निवृत्ति वह व्यवहारप्रतिक्रमण,
अशुभपरिणाम होनेवाले हैं, उनका रोकना वह व्यवहारप्रत्याख्यान, और वर्तमानकालमें शुभकी
प्रवृत्ति अशुभकी निवृत्ति वह व्यवहारआलोचन है
व्यवहारमें तो अशुभका त्याग शुभका
अंगीकार होता है, और निश्चयमें शुभ-अशुभ दोनोंका ही त्याग होता है ।।६४।।
आगे इसी कथनको दृढ़ करते हैं
bhaviShyakALanA bhogonI AkAnkShArUp rAgAdino tyAg karavo te nishchayapratyAkhyAn chhe ane
nijashuddhAtmAnI prAptinA baLathI vartamAn udayamAn AvelAn shubhAshubh karmo jemanA nimitta hoy
chhe, evA harShaviShAd Adi pariNAmone nijashuddhaAtmadravyathI judA karavA te nishchay AlochanA
chhe.
AvA nishchayapratikramaN, nishchayapratyAkhyAn ane nishchayaAlochanA e traNemAn sthir thaIne
je vyavahArapratikramaN, vyavahArapratyAkhyAn ane vyavahAr AlochanA e traNey tathA e traNane
anukUL evA vandanA, nindA Adi shubhopayogane chhoDe chhe te gnAnI chhe, paN bIjo koI gnAnI
nathI, evo bhAvArtha chhe. 64.
have, A kathanane draDh kare chhe