Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 65-66 (Adhikar 2),67 (Adhikar 2) Shuddhopayogani Mukhyata,68 (Adhikar 2),69 (Adhikar 2),70 (Adhikar 2),71 (Adhikar 2),72 (Adhikar 2),73 (Adhikar 2),74 (Adhikar 2),75 (Adhikar 2),76 (Adhikar 2).

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१९२) वंदणु णिदणु पडिकमणु णाणिहिँ एहु ण जुत्तु
एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु ।।६५।।
वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं ज्ञानिनां इदं न युक्त म्
एकमेव मुक्त्वा ज्ञानमयं शुद्धं भावं पवित्रम् ।।६५।।
वंदणु णिंदणु पडिकमणु वन्दननिन्दनप्रतिक्रमणत्रयम् णाणिहिँ एहु ण जुत्तु
ज्ञानिनामिदं न युक्त म् किं कृत्वा एक्कु जि मेल्लिवि एकमेव मुक्त्वा एकं कम् णाणमउ
सुद्धउ भाउ पवित्तु ज्ञानमयं शुद्धभावं पवित्रमिति तथाहि पञ्चेन्द्रियभोगाकांक्षाप्रभृति-
समस्तविभावरहितः शून्यः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूप-
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसहजानन्दपरमसमरसीभावलक्षणसुखामृतरसास्वादेन भरितामृतस्थो योऽसौ
ज्ञानमयो भावः तं भावं मुक्त्वाऽन्यद्वयव्यवहारप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानालोचनत्रयं तदनुकूलं वन्दन-
निन्दनादिशुभोपयोगविकल्पजालं च ज्ञानिनां युक्तं न भवतीति तात्पर्यम्
।।६५।।
adhikAr-2 dohA-65 ]paramAtmaprakAsha [ 327
गाथा६५
अन्वयार्थ :[वंदन निंदनं प्रतिक्रमणं ] वंदना, निंदा, और प्रतिक्रमण [इदं ] ये
तीनों [ज्ञानिनां ] पूर्ण ज्ञानियोंको [युक्त म् न ] ठीक नहीं हैं, [एकमेव ] एक [ज्ञानमयं ]
ज्ञानमय [शुद्धं पवित्रम् भावं ] पवित्र शुद्ध भावको [मुक्त्वा ] छोड़कर अर्थात् इसके सिवाय
ज्ञानीको कोई कार्य करना योग्य नहीं है
भावार्थ :पाँच इन्द्रियोंके भोगोंकी वाँछा आदि लेकर संपूर्ण विभावोंसे रहित जो
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप परमात्मतत्त्व उसके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निर्विकल्प
समाधिसे उत्पन्न जो परमानंद परमसमरसीभाव वही हुआ अमृत
- रस उसके आस्वादसे पूर्ण जो
ज्ञानमयीभाव उसे छोड़कर अन्य व्यवहारप्रतिक्रमण प्रत्याख्यान आलोचनाके अनुकूल वंदन
निंदनादि शुभोपयोग विकल्प
जाल हैं, वे पूर्ण ज्ञानीको करने योग्य नहीं हैं प्रथम अवस्थामें
ही हैं, आगे नहीं है ।।६५।।
bhAvArthapAnch indriyonA bhogonI AkAnkShA AdithI mAnDIne samasta vibhAvathI rahit
kevaLagnAnAdi anantaguNarUp paramAtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyag anuShThAnarUp
nirvikalpa samAdhithI utpanna sahaj paramAnandarUp param-samarasIbhAvasvarUp sukhAmRutarasanA
AsvAdathI paripUrNa je gnAnamay bhAv chhe te bhAv sivAy anya vyavahArapratikramaN,
vyavahArapratyAkhyAn, vyavahAraAlochanA e traNeyane anukUL vandanA, nindA Adi shubhopayoganI
vikalpajAL gnAnIone yogya nathI. 65.

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अथ
१९३) वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु
पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु ।।६६।।
वन्दतां निन्दतु प्रतिक्रामतु भावः अशुद्धो यस्य
परं तस्य संयमोऽस्ति नैव यस्मात् मनः शुद्धिर्न तस्य ।।६६।।
वंदउ इत्यादि वंदउ णिंदउ पडिकमउ वन्दननिन्दनप्रतिक्रमणं करोतु भाउ असुद्धउ
जासु भावः परिणामः न शुद्धो यस्य, पर परं नियमेन तसु तस्य पुरुषस्य संजमु अत्थि णवि
संयमोऽस्ति नैव
कस्मान्नास्ति जं यस्मात् कारणात् मण-सुद्धि ण तासु मनःशुद्धिर्न तस्येति
तद्यथा नित्यानन्दैकरूपस्वशुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षैर्विषयकषायाधीनैः ख्यातिपूजालाभादिमनोरथ-
शतसहस्रविकल्पजालमालाप्रपञ्चोत्पन्नैरपध्यानैर्यस्य चित्तं रञ्चितं वासितं तिष्ठति तस्य द्रव्यरूपं
328 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-66
आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं
गाथा६६
अन्वयार्थ :[वंदतु निंदतु प्रतिक्रामतु ] निःशंक वंदना करो, निंदा करो,
प्रतिक्रमणादि करो, लेकिन [यस्य ] जिसके [अशुद्धो भावः ] जब तक अशुद्ध परिणाम हैं,
[तस्य ] उसके [परं ] नियमसे [संयमः ] संयम [नैव अस्ति ] नहीं हो सकता, [यस्मात् ]
क्योंकि [तस्य ] उसके [मनःशुद्धिः न ] मनकी शुद्धता नहीं है
जिसका मन शुद्ध नहीं, उसके
संयम कहाँसे हो सकता है ?
भावार्थ :नित्यानंद एकरूप निज शुद्धात्माकी अनुभूतिके प्रतिपक्षी (उलटे) जो
विषय कषाय, उनके आधीन आर्त रौद्र खोटे ध्यानोंकर जिसका चित्त रँगा हुआ है, उसके
द्रव्यरूप व्यवहार
वंदना, निंदा प्रतिक्रमणादि क्या कर सकते हैं ? जो वह बाह्यक्रिया करता
है, तो भी उसके भावसंयम नहीं है सिद्धान्तमें उसे असंयमी कहते हैं कैसे हैं, वो आर्त
रौद्र स्वरूप खोटे ध्यान अपनी बड़ाई, प्रतिष्ठा और लाभादि सैंकड़ों मनोरथोंके विकल्पोंकी
मालाके (पंक्तिके) प्रपंच कर उत्पन्न हुए हैं
जब तक ये चित्तमें हैं, तब तक बाह्यक्रिया
have, e ja vAtane draDh kare chhe
bhAvArthanityAnand ja jenun ek rUp chhe evA shuddha AtmAnI anubhUtithI pratipakShI
viShayakaShAyane AdhIn, khyAti-pUjA-lAbhAdinA lAkho manorathanI vikalpajALanI mALAnA prapanchathI
utpanna evAn apadhyAn (mAThAn dhyAn)thI jenun chitta ranjit (rangAyelun) rahe chhe, vAsit rahe chhe

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वन्दननिन्दनप्रतिक्रमणादिकं कुर्वाणस्यापि भावसंयमो नास्ति इत्यभिप्रायः ।।६६।। एवं मोक्षमोक्ष-
फलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये निश्चयनयेन पुण्यपापद्वयं समानमित्यादि-
व्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्दशसूत्रस्थलं समाप्तम्
अथानन्तरं शुद्धोपयोगादिप्रतिपादनमुख्यत्वेनैका-
धिकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं करोति तत्रान्तरस्थलचतुष्टयं भवति तद्यथा प्रथमसूत्र-
पञ्चकेन शुद्धोपयोगव्याख्यानं करोति, तदनन्तरं पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदनज्ञान-
मुख्यत्वेन व्याख्यानम्, अत ऊर्ध्वं सूत्राष्टकपर्यन्तं परिग्रहत्यागमुख्यत्वेन व्याख्यानं, तदनन्तरं
त्रयोदशसूत्रपर्यन्तं केवलज्ञानादिगुणस्वरूपेण सर्वे जीवाः समाना इति मुख्यत्वेन व्याख्यानं
करोति
तद्यथा
रागादिविकल्पनिवृत्तिस्वरूपशुद्धोपयोगे संयमादयः सर्वे गुणास्तिष्ठन्तीति प्रति-
पादयति
adhikAr-2 dohA-66 ]paramAtmaprakAsha [ 329
क्या कर सकती है ? कुछ नहीं कर सकती ।।६६।।
इस तरह मोक्ष, मोक्षफल, मोक्षमार्गादिका कथन करनेवाले दूसरे महा अधिकारमें
निश्चयनयसे पुण्य, पाप दोनों समान हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे चौदह दोहे कहे आगे
शुद्धोपयोगके कथनकी मुख्यतासे इकतालीस दोहोंमें व्याख्यान करते हैं, और आठ दोहोंमें
परिग्रहत्यागके व्याख्यानकी मुख्यतासे कहते हैं, तथा तेरह दोहोंमें केवलज्ञानादि गुणस्वरूपकर
सब जीव समान हैं, ऐसा व्याख्यान है
अब प्रथम ही रागादि विकल्पकी निवृत्तिरूप शुद्धोपयोगमें संयमादि सब गुण रहते हैं,
ऐसा वर्णन करते हैं
tene dravyarUp vandanA, nindA ane pratikramaNAdi karavA chhatAn paN bhAvasanyam nathI. 66.
e pramANe mokSha, mokShaphaL ane mokShamArgAdinA pratipAdak bIjA mahAdhikAramAn nishchayanayathI
puNya, pAp banne samAn chhe ityAdi vyAkhyAnanI mukhyatAthI chaud sUtronun sthaL samApta thayun.
tyAr pachhI shuddhopayogAdinA pratipAdananI mukhyatAthI ekatAlIs sUtro sudhI vyAkhyAn kare
chhe. temAn chAr antarasthaL chhe te A pramANe(1) pratham pAnch gAthAsUtrathI shuddha-upayoganun
vyAkhyAn kare chhe, (2) tyAr pachhI pandar gAthAsUtra sudhI vItarAg-svasamvedanarUp gnAnanI mukhyatAthI
vyAkhyAn kare chhe, (3) tyAr pachhI ATh gAthAsUtra sudhI parigrahatyAganI mukhyatAthI vyAkhyAn kare
chhe, (4) tyAr pachhI ter gAthAsUtra sudhI ‘kevaLagnAnAdi guNasvarUpathI sarva jIvo samAn chhe’ em
mukhyapaNe vyAkhyAn kare chhe. te A pramANe
have, pratham ja rAgAdi vikalponI nivRuttirUp shuddhopayogamAn sanyamAdi sarva guNo rahe chhe,
em kahe chhe.

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१९४) सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु
सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ।।६७।।
शुद्धानां संयमः शीलं तपः शुद्धानां दर्शनं ज्ञानम्
शुद्धानां कर्मक्षयो भवति शुद्धो तेन प्रधानः ।।६७।।
सुद्धहं इत्यादि सुद्धहं शुद्धोपयोगिनां संजमु इन्द्रियसुखाभिलाषनिवृत्तिबलेन षड्जीव-
निकायहिंसानिवृत्तिबलेनात्मा आत्मनि संयमनं नियमनं संयमः स पूर्वोक्त : शुद्धोपयोगिनामेव
अथवोपेक्षासंयमापहृतसंयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवतः अथवा
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातभेदेन पञ्चधा संयमः सोऽपि लभ्यते
तेषामेव
सीलु स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिवृत्तिर्वर्तनं इति निश्चयव्रतं, व्रतस्य रागादिपरिहारेण
330 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-67
गाथा६७
अन्वयार्थ :[शुद्धानां ] शुद्धोपयोगियोंके ही [संयमः शील तपः ] पाँच इन्द्री छट्ठे
मनको रोकनेरूप संयम, शील और तप [भवति ] होते हैं, [शुद्धानां ] शुद्धोंके ही [दर्शनं ज्ञानम् ]
सम्यग्दर्शन और वीतरागस्वसंवेदनज्ञान और [शुद्धानां ] शुद्धोपयोगियोंके ही [कर्मक्षयः ] कर्मोंका
नाश होता है, [तेन ] इसलिये [शुद्धः ] शुद्धोपयोग ही [प्रधानः ] जगतमें मुख्य है
भावार्थ :शुद्धोपयोगियोंके पाँच इन्द्री छट्ठे मनका रोकना, विषयाभिलाषकी निवृत्ति,
और छह कायके जीवोंकी हिंसासे निवृत्ति, उसके बलसे आत्मामें निश्चल रहना, उसका नाम
संयम
है, वह होता है, अथवा उपेक्षासंयम अर्थात् तीन गुप्तिमें आरूढ़ और उपहृतसंयम अर्थात्
पाँच समितिका पालना, अथवा सरागसंयम अर्थात् शुभोपयोगरूप संयम और वीतरागसंयम
अर्थात् शुद्धोपयोगरूप परमसंयम वह उन शुद्ध चेतनोपयोगियोंके ही होता है
शील अर्थात्
bhAvArtha‘संजमु’ indriyasukhanI abhilAShAnI nivRuttinA baLathI tathA chha kAyanA
jIvonI hinsAnI nivRuttinA baLathI AtmAthI AtmAmAn sanyaman-niyaman-(nishchaL rahevun) te sanyam
chhe, te sanyam pUrvokta shuddha-upayogIone ja hoy chhe, athavA upekShA sanyam ane apahRut sanyam
ke jenun bIjun nAm (anukrame) vItarAg sanyam ane sarAg sanyam chhe te paN temane ja (te
shuddhopayogIone ja) hoy chhe. athavA sAmAyikasanyam, chhedopasthApanasanyam parihAravishuddhisanyam,
sUkShmasamparAyasanyam ane yathAkhyAtasanyam evA pAnch prakAranA sanyam chhe te paN temane ja prApta
hoy chhe.
‘सीलु’ potAnA AtmA vaDe potAnA AtmAmAn vRutti arthAt vartavun te nishchayavrat chhe.

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परिरक्षणं निश्चयशीलं तदपि तेषामेव तउ द्वादशविधतपश्चरणबलेन परद्रव्येच्छानिरोधं कृत्वा
शुद्धात्मनि प्रतपनं विजयनं तप इति तदपि तेषामेव सुद्धहं शुद्धोपयोगिनां दंसण
छद्मस्थावस्थायां स्वशुद्धात्मनि रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं केवलज्ञानोत्पत्तौ सत्यां तस्यैव फलभूतं
अनीहितविपरीताभिनिवेशरहित परिणामलक्षणं क्षायिकसम्यक्त्वं केवलदर्शनं वा तेषामेव
णाण
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं तस्यैव फलभूतं केवलज्ञानं वा सुद्धहं शुद्धोपयोगिनामेव कम्मक्खउ
परमात्मस्वरूपोपलब्धिलक्षणो द्रव्यभावकर्मक्षयः हवइ तेषामेव भवति सुद्धउ शुद्धोपयोग-
परिणामस्तदाधारपुरुषो वा तेण पहाणु येन कारणेन पूर्वोक्ताः संयमादयो गुणाः शुद्धोपयोगे
लभ्यन्ते तेन कारणेन स एव प्रधान उपादेयः इति तात्पर्यम्
तथा चोक्तं शुद्धोपयोगफलम्
adhikAr-2 dohA-67 ]paramAtmaprakAsha [ 331
अपनेसे अपने आत्मामें प्रवृत्ति करना यह निश्चयशील, रागादिके त्यागनेसे शुद्ध भावकी रक्षा
करना वह भी निश्चयशील है, और देवांगना, मनुष्यनी, तिर्यंचनी तथा काठ पत्थर चित्रामादिकी
अचेतन स्त्री
ऐसे चार प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग
करना, वह व्यवहारशील है, ये दोनों शील शुद्ध चित्तवालोंके ही होते हैं तप अर्थात् बारह
तरहका तप उसके बलसे भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरूप सब वस्तुओंमें इच्छा छोड़कर
शुद्धात्मामें मग्न रहना, काम क्रोधादि शत्रुओंके वशमें न होना, प्रतापरूप विजयरूप जितेंद्री
रहना
यह तप शुद्ध चित्तवालोंके ही होता है दर्शन अर्थात् साधक अवस्थामें तो शुद्धात्मामें
रुचिरूप सम्यग्दर्शन और केवली अवस्थामें उस सम्यग्दर्शनका फलरूप संशय, विमोह, विभ्रम
रहित निज परिणामरूप क्षायिकसम्यक्त्व केवलदर्शन यह भी शुद्धोंके ही होता है
ज्ञान अर्थात्
rAgAdino parihAr karIne vratanun sarvaprakAre tyAg vaDe rakShaN karavun te nishchayashIl chhe, te paN temane
ja hoy chhe.
‘तउ’ bAr prakAranA tapashcharaNanA baLathI paradravyanI ichchhAno nirodh karIne shuddha
AtmAmAn pratapan-vijayan-te tap chhe, te paN temane ja hoy chhe.
‘दंसणु’ chhadmastha-avasthAmAn potAnA shuddha AtmAnI ruchirUp samyagdarshan athavA
kevaLagnAnanI utpatti thatAn tenA ja phaLarUp, viparIt abhinivesh rahit anIhit pariNAmarUp
kShAyikasamyaktva ke kevaLadarshan paN temane ja hoy chhe.
‘णाणु’ vItarAg svasamvedanarUp gnAn athavA tenA ja phaLarUp kevaLagnAn paN shuddha
upayogIone ja hoy chhe.
‘कम्मक्खउ’ paramAtmasvarUpanI prAptirUp dravyabhAvakarmano nAsh temane ja hoy chhe.
‘सुद्धउ तेण पहाणु’ shuddhopayogarUp pariNAm athavA te pariNAmanA dhAraN karanAr
puruSh te ja pradhAn chhe-upAdey chhe kAraN ke pUrvokta sanyamAdi guNo shuddhopayogamAn ja prApta hoy

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‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सुद्धो णमो
तस्स ।।’’ ।।६७।।
अथ निश्चयेन स्वकीयशुद्धभाव एव धर्म इति कथयति
१९५) भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु
चउ-गइ-दुक्खहँ जा धरइ जीउ पडंतउ एहु ।।६८।।
भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा गृह्णीथाः
चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ।।६८।।
332 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-68
वीतराग स्वसंवेदनज्ञान और उसका फल केवलज्ञान वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होता है, और
कर्मक्षय अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका नाश तथा परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति वह भी
शुद्धोपयोगियोंके ही होती है
इसलिये शुद्धोपयोगपरिणाम और उन परिणामोंका धारण
करनेवाला पुरुष ही जगत्में प्रधान है क्योंकि संयमादि सर्व गुण शुद्धोपयोगमें ही पाये जाते
हैं इसलिये शुद्धोपयोगके समान अन्य नहीं है, ऐसा तात्पर्य जानना ऐसा ही अन्य ग्रन्थोंमें
हरएक जगह ‘‘सुद्धस्स’’ इत्यादिसे कहा गया है उसका भावार्थ यह है, कि शुद्धोपयोगीके
ही मुनि - पद कहा है, और उसीके दर्शन ज्ञान कहे हैं उसीके निर्वाण है, और वही शुद्ध अर्थात्
रागादि रहित है उसीको हमारा नमस्कार है ।।६७।।
आगे यह कहते हैं कि निश्चयसे अपना शुद्ध भाव ही धर्म है
गाथा६८
अन्वयार्थ :[विशुद्धः भावः ] मिथ्यात्व रागादिसे रहित शुद्ध परिणाम है, वही
chhe, evun tAtparya chhe.
anyatra shuddhopayoganun phaL paN darshAvyun chhe ke
‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं
सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ।।
(shrI pravachanasAr 274) arthashuddhane (shuddhopayogIne) shrAmaNya kahyun chhe, shuddhane
darshan ane gnAn kahyun chhe, shuddhane nirvAN hoy chhe, te ja (shuddha ja) siddha hoy chhe; tene namaskAr
ho.) 67.
have, nishchayanayathI potAno shuddha bhAv ja dharma chhe, em kahe chhe

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भाउ इत्यादि भाउ भावः परिणामः कथंभूतः विसुद्धउ विशेषेण शुद्धो
मिथ्यात्वरागादिरहितः अप्पणउ आत्मीयः धम्मु भणेविणु लेहु धर्म भणित्वा मत्वा
प्रगृह्णीथाः
यो धर्मः किं करोति चउ-गइ-दुक्खहं जा धरइ चतुर्गतिदुःखेभ्यः सकाशात्
उद्धत्य यः कर्ता धरति कं धरति जीउ पडंतउ एहु जीवमिमं प्रत्यक्षीभूतं संसारे
पतन्तमिति तद्यथा धर्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियते संसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धृत्य नरेन्द्र
नागेन्द्रदेवेन्द्रवन्द्ये मोक्षपदे धरतीति धर्मं इति धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम
एव ग्राह्यः
तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते
तथा अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति सागारानगारलक्षणो
धर्मः सोऽपि तथैव उत्तमक्षमादिदशविधो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते
‘सद्रष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः’ इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव रागद्वेषमोहरहितः
adhikAr-2 dohA-68 ]paramAtmaprakAsha [ 333
bhAvArtha‘dharma’ shabdanI vyutpatti karavAmAn Ave chhe ke ‘sansAramAn paDatA prANIone
bachAvIne je narendra, nAgendra ane devendrathI vandya mokShapadamAn dhArI rAkhe chhe te dharma chhe. ‘dharma’
shabdathI ahIn nishchayathI jIvanA shuddha pariNAm ja samajavA ane temAn (te shuddha pariNAmamAn ja)
vItarAgasarvagnapraNIt nayavibhAgathI sarva dharmo antarbhUt thAy chhe. jem ke ahinsAsvarUp dharma, te
paN jIvanA shuddha bhAv vinA hoto nathI. yatishrAvakano dharma, sAgAr aNagAr dharma, te paN
tem ja uttamakShamAdi dashaprakArano dharma te paN jIvanA shuddha bhAvanI apekShA rAkhe chhe.
‘‘सद्रष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः’’
[आत्मीयः ] अपना है, और अशुद्ध परिणाम अपने नहीं हैं, सो शुद्ध भावको ही [धर्मं भणित्वा ]
धर्म समझकर [गृह्णीथाः ] अंगीकार करो
[यः ] जो आत्मधर्म [चतुर्गतिदुःखेभ्यः ] चारों
गतियोंके दुःखोंसे [पतंतम् ] संसारमें पड़े हुए [इमम् जीवं ] इस जीवको निकालकर [धरति ]
आनंद
स्थानमें रखता है
भावार्थ :धर्म शब्दका शब्दार्थ ऐसा है, कि संसारमें पड़ते हुए प्राणियोंको
निकालकर मोक्षपदमें रखे, वह धर्म है, वह मोक्षपद देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्रोंकर वंदने योग्य
है जो आत्माका निज स्वभाव है वही धर्म है, उसीमें जिनभाषित सब धर्म पाये जाते हैं
जो दयास्वरूप धर्म है, वह भी जीवके शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, यति श्रावकका धर्म भी
शुद्ध भावोंके बिना नहीं होता, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म भी शुद्ध भाव बिना नहीं हो सकता,
और रत्नत्रयधर्म भी शुद्ध भावोंके बिना नहीं हो सकता
ऐसा ही कथन जगह जगह ग्रंथोंमें
है, ‘‘सद्दृष्टि’’ इत्यादि श्लोकसेउसका अर्थ यह है, कि धर्मके ईश्वर भगवान्ने सम्यग्दर्शन,

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334 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-68
ज्ञान, चारित्र इन तीनोंको धर्म कहा है जिस धर्मके ये ऊ पर कहे गये लक्षण हैं, वह राग,
द्वेष, मोह रहित परिणामधर्म है, वह जीवका स्वभाव ही है, क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही धर्म
है ऐसा दूसरी जगह भी ‘‘धम्मो’’ इत्यादि गाथासे कहा है, कि जो आत्मवस्तुका स्वभाव
है, वह धर्म है, उत्तम क्षमादि भावरूप दस प्रकारका धर्म है, रत्नत्रय धर्म है, और जीवोंकी
रक्षा यह धर्म है
यह जिनभाषित धर्म चतुर्गतिके दुःखोंमें पड़ते हुए जीवोंको उद्धारता है यहाँ
शिष्यने प्रश्न किया, कि जो पहले दोहेमें तो तुमने शुद्धोपयोगमें संयमादि सब गुण कहे, और
यहाँ आत्माका शुद्ध परिणाम ही धर्म कहा है, उसमें धर्म पाये जाते हैं, तो पहले दोहेमें और
इसमें क्या भेद है ? उसका समाधान
पहले दोहेमें तो शुद्धोपयोग मुख्य कहा था, और इस
दोहेमें धर्म मुख्य कहा है शुद्धोपयोगका ही नाम धर्म है, तथा धर्मका नाम ही शुद्धोपयोग
है शब्दका भेद है, अर्थका भेद नहीं है दोनोंका तात्पर्य एक है इसलिए सब तरह शुद्ध
परिणामो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव वस्तुस्वभावो धर्मः सोऽपि तथैव तथा
चोक्त म्‘‘धम्मो वत्थुसहावो’’ इत्यादि एवंगुणविशिष्टो धर्मश्चतुर्गतिदुःखेषु पतन्तं जीवं
धरतीति धर्मः अत्राह शिष्यः पूर्वसूत्रे भणितं शुद्धोपयोगमध्ये संयमादयः सर्वे गुणा
लभ्यन्ते अत्र तु भणितमात्मनः शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते
को विशेषः परिहारमाह तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान्
विशेषः तात्पर्यं तदेव तेन कारणेन सर्वप्रकारेण शुद्धपरिणाम एव कर्तव्य इति
भावार्थः ।।६८।।
(ratnakaranD shrAvakAchAr gAthA 3) arthajinendradev samyagdarshan, samyaggnAn ane
samyagchAritrane dharma kahe chhe e rIte je dharmanun svarUp kahevAmAn Avyun te paN te pramANe
(jIvano shuddha bhAv) rAgadveShamoharahit pariNAm dharma chhe te paN jIvano shuddha svabhAv ja
chhe. vastuno svabhAv te dharma chhe te paN te pramANe (jIvano shuddha bhAv) chhe. kahyun paN chhe.
‘‘धम्मो वत्थुसहावो’’ ityAdi (kArtikeyAnuprekShA 476) vastuno svabhAv te dharma
chhe vagere AvA guNothI vishiShTa evo je dharma chAragatinA dukhomAn paDatA jIvone dhArI rAkhe
chhe, te dharma chhe.
ahIn, shiShya prashna kare chhe ke Ape pUrvasUtramAn em kahyun ke shuddhopayoganI andar
sanyamAdi badhA guNo AvI jAy chhe ane ahIn Ape em kahyun ke AtmAno shuddha
pariNAm ja dharma chhe ane temAn sarva dharmo AvI jAy chhe to bannemAn shI visheShatA chhe?
tenun samAdhAAn kahe chhetyAn shuddhopayogasangnA mukhya chhe ane ahIn dharmasangnA
mukhya chhe, eTalI ja visheShatA chhe. bannenun tAtparya te ja chhe (bannenun tAtparya ek sarakhun

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adhikAr-2 dohA-69 ]paramAtmaprakAsha [ 335
परिणाम ही कर्तव्य है, वही धर्म है ।।६८।।
आगे शुद्ध भाव ही मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा६९
अन्वयार्थ :[सिद्धेः संबंधी ] मुक्तिका [पंथाः ] मार्ग [एकः विशुद्धः भावः ] एक
शुद्ध भाव ही है [यः मुनिः ] जो मुनि [तस्मात् भावात् ] उस शुद्ध भावसे [चलति ]
चलायमान हो जावे, तो [सः ] वह [कथं ] कैसे [विमुक्तः ] मुक्त [भवति ] हो सकता है ?
किसी प्रकार नहीं हो सकता
भावार्थ :जो समस्त शुभाशुभ संकल्प-विकल्पोंसे रहित जीवका शुद्ध भाव है, वही
निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मोक्षका मार्ग है जो मुनि शुद्धात्म परिणामसे च्युत हो जावे, वह किस
तरह मोक्षको पा सकता है ? नहीं पा सकता मोक्षका मार्ग एक शुद्ध भाव ही है, इसलिये
अथ विशुद्धभाव एव मोक्षमार्ग इति दर्शयति
१९६) सिद्धिहिँ केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु
जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ।।६९।।
सिद्वेः संबन्धो पन्थाः भावो विशुद्ध एकः
यः तस्माद्भावात् मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्त : ।।६९।।
सिद्धिहिं इत्यादि सिद्धिहिं केरा सिद्धेर्मुक्तेः संबन्धी पंथडा पन्था मार्गः कोऽसौ
भाउ भावः परिणामः कथंभूतः विसुद्धउ विशुद्धः एक्कु एक एवाद्वितीयः जो तसु भावहं
मुणि चलइ यस्तस्माद्भावान्मुनिश्चलति सो किम् होइ विमुक्कु स मुनिः कथं मुक्तो भवति
न कथमपीति तद्यथा योऽसौ समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्परहितो जीवस्य शुद्धभावः स एव
निश्चयरत्नत्रयात्मको मोक्षमार्गः यस्तस्मात् शुद्धात्मपरिणामान्मुनिश्च्युतो भवति स कथं मोक्षं
ja chhe) tethI sarva prakAre shuddha pariNAm ja kartavya chhe. evo bhAvArtha chhe. 68.
have, vishuddha bhAv ja mokShamArga chhe, em darshAve chhe
bhAvArthajIvano je samasta shubhAshubh sankalpavikalparahit shuddhabhAv chhe te ja
nishchayaratnatrayAtmak mokShamArga chhe. tethI shuddhaAtmapariNAmathI je muni chyut thAy chhe te kevI rIte
mokSha pAme? arthAt na ja pAme.

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336 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-70
मोक्षके इच्छुकको वही भाव हमेशा करना चाहिये ।।६९।।
आगे यह प्रकट करते हैं, कि किसी देशमें जावो, चाहे जो तप करो, तो भी चित्तकी
शुद्धिके बिना मोक्ष नहीं है
गाथा७०
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यत्र ] जहाँ [भाति ] तेरी इच्छा ही [तत्र ] उसी
देशमें [याहि ] जा, और [यत् ] जो [भाति ] अच्छा लगे, [तदेव ] वही [कुरु ] कर, [परं ]
लेकिन [यदेव ] जब तक [चित्तस्य शुद्धिः न ] मनकी शुद्धि नहीं है, तब तक [कथमपि ]
किसी तरह [मोक्षो नास्ति ] मोक्ष नहीं हो सकता
भावार्थ :बड़ाई, प्रतिष्ठा, परवस्तुका लाभ, और देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी
वाँछारूप खोटे ध्यान, (जो कि शुद्धात्मज्ञानके शत्रु हैं) इनसे जब तक यह चित्त रँगा हुआ
ahIn, je kAraNathI nijashuddhAtmAnA anubhUtirUp pariNAm ja mokShamArga chhe te kAraNathI
mokShArthIe te ja bhAv nirantar karavA yogya chhe, evo tAtparyArtha chhe. 69.
have, koI paN deshamAn jAo, koI paN anuShThAn karo, topaN chittashuddhi vinA mokSha
nathI, em pragaT kare chhe
bhAvArthashuddhAtmAnI anubhUtithI pratipakShabhUt ane khyAti, pUjA, lAbhanI ane
dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI AkAnkShArUp durdhyAnathI jyAn sudhI chitta ranjit
लभते किंतु नैव अत्र येन कारणेन निजशुद्धात्मानुभूतिपरिणाम एव मोक्षमार्गस्तेन कारणेन
मोक्षार्थिना स एव निरन्तरं कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।६९।।
अथ क्वापि देशे गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि चित्तशुद्धिं विना मोक्षो नास्तीति
प्रकटयति
१९७) जहिँ भावइ तहिँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि
केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि ।।७०।।
अत्र भाति तत्र याहि जीव यद् भाति कुरु तदेव
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ।।७०।।
जहिं भावइ इत्यादि जहिं भावइ तहिं यत्र देशे प्रतिभाति तत्र जाहि गच्छ जिय
हे जीव जं भावइ करि तं जि यदनुष्ठानं प्रतिभाति कुरु तदेव केम्वइ मोक्खु ण अत्थि

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adhikAr-2 dohA-70 ]paramAtmaprakAsha [ 337
है, अर्थात् विषयकषायोंसे तन्मयी है, तब तक हे जीव; किसी देशमें जा, तीर्थादिकोंमें
भ्रमण कर, अथवा चाहे जैसा आचरण कर, किसी प्रकार मोक्ष नहीं है सारांश यह है,
कि कामक्रोधादि खोटे ध्यानसे यह जीव भोगोंके सेवनके बिना भी शुद्धात्मभावनासे च्युत
हुआ, अशुद्ध भावोंसे कर्मोंको बाँधता है इसलिये हमेशा चित्तकी शुद्धता रखनी चाहिये
ऐसा ही कथन दूसरी जगह भी ‘‘कंखिद’’ इत्यादि गाथासे कहा है, इस लोक और
परलोकके भोगोंका अभिलाषी और कषायोंसे कालिमारूप हुआ अवर्तमान विषयोंका वाँछक
और वर्तमान विषयोंमें अत्यन्त आसक्त हुआ अति मोहित होनेसे भोगोंको नहीं भोगता हुआ
भी अशुद्ध भावोंसे कर्मोंको बाँधता है
।।७०।।
आगे शुभ, अशुभ और शुद्ध इन तीन उपयोगोंको कहते हैं
कथमपि केनापि प्रकारेण मोक्षो नास्ति पर परं नियमेन कस्मात् चित्तहं सुद्धि ण चित्तस्य
शुद्धिर्न जं जि यस्मादेव कारणात् इति तथाहि ख्यातिपूजालाभद्रष्टश्रुतानुभूत-
भोगाकांक्षारूपदुर्ध्यानैः शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतैर्यावत्कालं चित्तं रञ्जितं मूर्च्छितं तन्मयं तिष्ठति
तावत्कालं हे जीव क्वापि देशान्तरं गच्छ किमप्यनुष्ठानं कुरु तथापि मोक्षो नास्तीति
अत्र
कामक्रोधादिभिरपध्यानैर्जीवो भोगानुभवं विनापि शुद्धात्मभावनाच्युतः सन् भावेन कर्माणि
बध्नाति तेन कारणेन निरन्तरं चित्तशुद्धिः कर्तव्येति भावार्थः
।। तथा चोक्त म्
‘‘कंखिदकलुसिदभूदो हु कामभोगेहिं मुच्छिदो जीवो णवि भुञ्जंतो भोगे बंधदि भावेण
कम्माणि ।।’’ ।।७०।।
अथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयं कथयति
-mUrchhit-tanmay-rahe chhe tyAn sudhI he jIv! koI paN deshAntaramAn jAo, koI paN anuShThAn
karo topaN mokSha nathI.
ahIn, kAmakrodhAdi apadhyAnathI jIv bhogone bhogavyA vinA paN shuddhaAtmabhAvanAthI
chyut thayo thako, (ashuddha) bhAvathI karmo bAndhe chhe, tethI nirantar chittashuddhi karavA yogya chhe, evo
bhAvArtha chhe. kahyun paN chhe ke
‘‘कंखिदकलुसिदभूदो हु कर्मभोगेहिं मुच्छिदो जीवो णवि भुंजंतो भोगे
बंधदि भावेण कम्माणि ।।’’ (arthabhogonI AkAnkShAvALo ane kaShAyothI kaluShit thayo thako
kAmabhogothI mUrchchhit jIv bhogone na bhogavato hovA chhatAn paN mAtra ashuddhabhAvathI ja karmo
bAndhe chhe.) 70.
have, shubh, ashubh ane shuddha evA traN upayoganun kathan kare chhe

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338 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-71
१९८) सुह-परिणामेँ धम्मु पर असुहेँ होइ अहम्मु
दोहिँ वि एहिँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु ।।७१।।
शुभपरिणामेन धर्मः परं अशुभेन भवति अधर्मः
द्वाभ्यामपि एताभ्यां विवर्जितः शुद्धो न बध्नाति कर्म ।।७१।।
सुह इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते सुह-परिणामें धम्मु पर शुभपरिणामेन
धर्मः परिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या असुहें होइ अहम्मु अशुभपरिणामेन भवत्यधर्मः
पापम् दोहिं वि एहिं विवज्जियउ द्वाभ्यां एताभ्यां शुभाशुभपरिणामाभ्यां विवर्जितः कोऽसौ सुद्धु
शुद्धो मिथ्यात्वरागादिरहितपरिणामस्तत्परिणतपुरुषो वा किं करोति ण बंधइ न बध्नाति
किम् कम्मु ज्ञानावरणादिकर्मेति तद्यथा कृष्णोपाधिपीतोपाधिस्फ टिकवदयमात्मा क्रमेण
शुभाशुभ-शुद्धोपयोगरूपेण परिणामत्रयं परिणमति तेन तु मिथ्यात्वविषयकषायाद्यवलम्बनेन पापं
bhAvArthajevI rIte sphaTikamaNi kALA ranganI upAdhinA sadbhAvamAn kALo, pILA ranganI
upAdhinA sadbhAvamAn pILo (ane upAdhi rahit hotAn shuddha ujjvaL) jaNAy chhe tevI rIte A
AtmA kramathI shubh, ashubh ane shuddha upayogarUp traN pariNAmarUpe pariName chhe. mithyAtva,
viShay, kaShAyAdinA avalambanathI to AtmA pAp bAndhe chhe. arhant, siddha, AchArya, upAdhyAy
गाथा७१
अन्वयार्थ :[शुभपरिणामेन ] दान पूजादि शुभ परिणामोंसे [धर्मः ] पुण्यरूप
व्यवहारधर्म [परं ] मुख्यतासे [भवति ] होता है, [अशुभेन ] विषय कषायादि अशुभ परिणामोंसे
[अधर्मः ] पाप होता है, [अपि ] और [एताभ्यां ] इन [द्वाभ्याम् ] दोनोंसे [विवर्जितः ] रहित
[शुद्धः ] मिथ्यात्व रागादि रहित शुद्ध परिणाम अथवा परिणामधारी पुरुष [कर्म ] ज्ञानावरणादि
कर्मको [न ] नहीं [बध्नाति ] बाँधता
भावार्थ :जैसे स्फ टिकमणि शुद्ध उज्ज्वल है, उसके जो काला डंक लगावें, तो
काला मालूम होता है, और पीला डंक लगावें तो पीला भासता है, और यदि कुछ भी
न लगावें, तो शुद्ध स्फ टिक ही है, उसी तरह यह आत्मा क्रमसे अशुभ, शुभ, शुद्ध इन
परिणामोंसे परिणत होता है
उनमेंसे मिथ्यात्व और विषय कषायादि अशुभके अवलम्बन
(सहायता) से तो पापको ही बाँधता है, उसके फलसे नरक निगोदादिके दुःखोंको भोगता
है और अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँच परमेष्ठियोंके गुणस्मरण और

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adhikAr-2 dohA-71 ]paramAtmaprakAsha [ 339
बध्नाति अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुगुणस्मरणदानपूजादिना संसारस्थितिच्छेदपूर्वकं
तीर्थंकरनामकर्मादि-विशिष्टगुणपुण्यमनीहितवृत्त्या बध्नाति शुद्धात्मावलम्बनेन शुद्धोपयोगेन तु
केवलज्ञानाद्य-नन्तगुणरूपं मोक्षं च लभते इति अत्रोपयोगत्रयमध्ये मुख्यवृत्त्या शुद्धोपयोग
एवोपादेय इत्याभिप्रायः ।।७१।। एवमेकचत्वारिंशत्सूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये सूत्रपञ्चकेन शुद्धोपयोग-
व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमान्तरस्थलं गतम् ।।
अत ऊर्ध्वं तस्मिन्नेव महास्थलमध्ये पञ्चदशसूत्रपर्यन्तं वीतरागस्वसंवेदन ज्ञानीमुख्यत्वेन
व्याख्यानं क्रियते तद्यथा
१९९) दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण
जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण ।।७२।।
ane sAdhunA guNasmaraN ane dAnapUjAdithI sansAranI sthitinA chhedapUrvak tIrthankaranAmakarmAdithI
mAnDIne vishiShTa guNarUp puNyaprakRitione anIhitavRuttithI bAndhe chhe ane shuddha AtmAnA
avalambanarUp shuddha-upayogathI to kevaLagnAnAdi anantaguNarUp mokShane pAme chhe.
ahIn, traN prakAranA upayogamAnthI mukhyapaNe shuddha-upayog ja upAdey chhe, evo abhiprAy
chhe. 71.
e pramANe ekatAlIs sUtronA mahAsthaLamAn pAnch gAthAsUtrathI shuddhopayoganA vyAkhyAnanI
mukhyatAthI pratham antarasthaL samApta thayun.
AnI pachhI te ja mahAsthaLamAn pandar sUtra sudhI vItarAgasvasamvedanarUp gnAnanI mukhyatAthI
vyAkhyAn kare chhe, te A pramANe
दानपूजादि शुभ क्रियाओंसे संसारकी स्थितिका छेदनेवाला जो तीर्थंकरनामकर्म उसको आदि
ले विशिष्ट गुणरूप पुण्यप्रकृतियोंको अवाँछीक वृत्तिसे बाँधता है
तथा केवल शुद्धात्माके
अवलम्बनरूप शुद्धोपयोगसे उसी भवमें केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्षको पाता है इन
तीन प्रकारके उपयोगोंमेंसे सर्वथा उपादेय तो शुद्धोपयोग ही है, अन्य नहीं है और शुभ,
अशुभ इन दोनोंमेंसे अशुभ तो सब प्रकारसे निषिद्ध है, नरक निगोदका कारण है, किसी
तरह उपादेय नहीं है
हेय है, तथा शुभोपयोग प्रथम अवस्थामें उपादेय है, और परम
अवस्थामें उपादेय नहीं है, हेय है ।।७१।।
इसप्रकार इकतालीस दोहोंके महास्थलमें पाँच दोहोंमें शुद्धोपयोगका व्याख्यान किया
आगे पन्द्रह दोहोंमें वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं

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340 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-72
दानेन लभ्यते भोगः परं इन्द्रत्वमपि तपसा
जन्ममरणविवर्जितं पदं लभ्यते ज्ञानेन ।।७२।।
दाणिं इत्यादि दाणिं लब्भइ भोउ पर दानेन लभ्यते पञ्चेन्द्रियभोगः परं नियमेन
इंदत्तणु वि तवेण इन्द्रत्वमपि तपसा लभ्यते जम्मण-मरण-विवज्जियउ जन्ममरणविवर्जितं पउ
पदं स्थानं लब्भइ लभ्यते प्राप्यते केन णाणेण वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेनेति तथाहि
आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानेन सम्यक्त्वरहितेन भोगो लभ्यते सम्यक्त्वसहितेन तु यद्यपि
परंपरया निर्वाणं लभ्यते तथापि विविधाभ्युदयरूपः पञ्चेन्द्रियभोग एव सम्यक्त्वसहितेन
तपसा तु यद्यपि निर्वाणं लभ्यते तथापि देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिपूर्वकेणैव वीतरागस्वसंवेदन-
सम्यग्ज्ञानेन सविकल्पेन यद्यपि देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषो भवति तथापि निर्विकल्पेन मोक्ष
bhAvArthasamyaktvarahitanA AhAradAn, abhayadAn auShadhadAn ane shAstradAnathI
bhog maLe chhe. ane samyaktvasahitanA e chAr dAnathIjoke paramparAe nirvAN maLe chhe topaN
vividh abhyudayarUp panchendriyanA bhog ja maLe chhe.
ane samyaktva sahitanA tapathI joke nirvAN maLe chhe topaN devendra, chakravartI Adi
vibhUtipUrvak ja mokSha maLe chhe.
vItarAg svasamvedanasamyaggnAnathI joke savikalpane kAraNe devendra, chakravartI Adi
vibhUtivisheShanI prApti thAy chhe topaN nirvikalpane kAraNe mokShanI ja prApti thAy chhe.
गाथा७२
अन्वयार्थ :[दानेन ] दानसे [परं ] नियम करके [भोगः ] पाँच इंद्रियोंके भोग
[लभ्यते ] प्राप्त होते हैं, [अपि ] और [तपसा ] तपसे [इंद्रत्वम् ] इंद्रपद मिलता है, तथा
[ज्ञानेन ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे [जन्ममरणविवर्जितं ] जन्म-जरा-मरणसे रहित [पदं ] जो
मोक्ष
पद वह [लभ्यते ] मिलता है
भावार्थ :आहार, अभय, औषध और शास्त्र इन चार तरहके दानोंको यदि सम्यक्त्व
रहित करे, तो भोगभूमिके सुख पाता है, तथा सम्यक्त्व सहित दान करे, तो परम्पराय मोक्ष
पाता है
यद्यपि प्रथम अवस्थामें देवेन्द्र चक्रवर्ती आदिकी विभूति भी पाता है, तो भी
निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकर मोक्ष ही है यहाँ प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे भगवन्, जो
ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष होता है, तो सांख्यादिक भी ऐसा ही कहते हैं, कि ज्ञानसे ही मोक्ष है, उनको
क्यों दूषण देते हो ? तब श्रीगुरुने कहा
इस जिनशासनमें वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन

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adhikAr-2 dohA-72 ]paramAtmaprakAsha [ 341
एवेति अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवान् यदि विज्ञानमात्रेण मोक्षो भवति तर्हि सांख्यादयो
वदन्ति ज्ञानमात्रादेव मोक्षः तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति भगवानाह अत्र
वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन वीतरागविशेषणेन चारित्रं
लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति
तेषां मते
तु वीतरागविशेषणं नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव तेन दूषणं भवतीति
भावार्थः ।।७२।।
अथ तमेवार्थं विपक्षदूषणद्वारेण द्रढयति
२००) देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति
णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ।।७३।।
ahIn, prabhAkar bhaTTa pUchhe chhe ke he bhagavAn! jo gnAnamAtrathI mokSha thAy chhe to pachhI
sAnkhyAdi paN kahe chhe kegnAnamAtrathI ja mokSha thAy chhe. ‘temane’ Ap shA mATe dUShaN Apo
chho?
bhagavAn shrIyogIndradev kahe chhe keahIn ‘vItarAg nirvikalpa svasamvedanarUp
samyaggnAn’ em kahel chhe; tethI tyAn ‘vItarAg’ visheShaNathI chAritra paN AvI jAy chhe,
‘samyag’ visheShaNathI samyaktva AvI jAy chhe. jevI rIte ek pAnakamAn (pINAmAn) anek
padArtho AvI jAy chhe tevI rIte (vItarAg nirvikalpa svasamvedanarUp gnAn kahevAthI) ekanI
andar traNey AvI jAy chhe. paN temanA matamAn ‘vItarAg’ visheShaN nathI ane samyak
visheShaN nathI’ ‘gnAnamAtra’ ja chhe (‘gnAnamAtra’ ja eTalun ja kahe chhe) tethI temAn dUShaN
Ave chhe, evo bhAvArtha chhe. 72.
have, vipakShIne dUShaN ApIne te ja arthane draDh kare chhe
सम्यग्ज्ञान कहा गया है, सो वीतराग कहनेसे वीतरागचारित्र भी आ जाता है, और सम्यक् पदके
कहनेसे सम्यक्त्व भी आ जाता है
जैसे एक चूर्णमें अथवा पाकमें अनेक औषधियाँ आ जाती
हैं, परन्तु वस्तु एक ही कहलाती है, उसी तरह वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके कहनेसे
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों आ जाते हैं
सांख्यादिकके मतमें वीतराग विशेषण नहीं है,
और सम्यक् विशेषण नहीं है, केवल ज्ञानमात्र ही कहते हैं, सो वह मिथ्याज्ञान है, इसलिये
दूषण देते हैं, यह जानना
।।७२।।
आगे इसी अर्थको, विपक्षीको दूषण देकर दृढ़ करते हैं

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342 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-73
देवः निरञ्जन एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः
ज्ञानविहीना जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ।।७३।।
देउ इत्यादि देउ देवः किंविशिष्टः णिरंजणु निरञ्जनः अनन्तज्ञानादिगुण-
सहितोऽष्टादशदोषरहितश्च इउं भणइ एवं भणति एवं किम् णाणिं मुक्खु वीतराग-
निर्विकल्पस्वसंवेदनरूपेण सम्यग्ज्ञानेन मोक्षो भवति ण भंति न भ्रांतिः संदेहो नास्ति
णाण-विहीणा जीवडा पूर्वोक्त स्वसंवेदनज्ञानेन विहीना जीवा चिरु संसारु भमंति चिरं बहुतरं
कालं संसारं परिभ्रमन्ति इति
अत्र वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमध्ये यद्यपि सम्यक्त्वादित्रयमस्ति
तथापि सम्यग्ज्ञानस्यैव मुख्यता विवक्षितो मुख्य इति वचनादिति भावार्थः ।।७३।।
अथ पुनरपि तमेवार्थं द्रष्टान्तदार्ष्टान्तिकाभ्यां निश्चिनोति
bhAvArthaanantagnAnAdi guN sahit ane aDhAr doSh rahit je sarvagnavItarAgadev
chhe teo em kahe chhe ke vItarAg nirvikalpa svasamvedanarUp samyaggnAnathI mokSha chhe, temAn sandeh
nathI ane pUrvokta svasamvedanarUp samyaggnAn vagaranA jIvo ghaNA ja kAL sudhI sansAramAn bhaTake
chhe.
ahIn, vItarAgasvasamvedanarUp samyaggnAnamAn joke samyaktvAdi traNey chhe, topaN
samyaggnAnanI ja mukhyatA chhe kemake ‘vivakShit te mukhya chhe, (jenun kathan karavAmAn Ave te mukhya
chhe) evun Agamanun vachan chhe. 73.
have, pharI vAr te ja arthane draShTAnt ane draShTAntik vaDe nakkI kare chhe
गाथा७३
अन्वयार्थ :[निरंजनः ] अनन्त ज्ञानादि गुण सहित, और अठारह दोष रहित, जो
[देवः ] सर्वज्ञ वीतरागदेव हैं, वे [एवं ] ऐसा [भणति ] कहते हैं, कि [ज्ञानेन ]
वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदनरूप सम्यग्ज्ञान से ही [मोक्षः ] मोक्ष है, [न भ्रांतिः ] इसमें संदेह
नहीं है
और [ज्ञानविहीनाः ] स्वसंवेदनज्ञानकर रहित जो [जीवाः ] जीव हैं, वे [चिरं ] बहुत
काल तक [संसारं ] संसारमें [भ्रमंति ] भटकते हैं
भावार्थ :यहाँ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमें यद्यपि सम्यक्त्वादि तीनों हैं, तो भी मुख्यता
सम्यग्ज्ञानकी ही है क्योंकि श्रीजिनवचनमें ऐसा कथन किया है, कि जिसका कथन किया
जावे, वह मुख्य होता है, अन्य गौण होता है, ऐसा जानना ।।७३।।
आगे फि र भी इसी कथनको दृष्टांत और दार्ष्टांतसे निश्चित करते हैं

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adhikAr-2 dohA-74 ]paramAtmaprakAsha [ 343
२०१) णाण-विहीणहँ मोक्ख-पउ जीव म कासु वि जोइ
बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ ।।७४।।
ज्ञानविहीनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि अद्राक्षीः
बहुना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ।।७४।।
णाण इत्यादि णाण-विहीणहं ख्यातिपूजालाभादिदुष्टभावपरिणतचित्तं मम कोऽपि न
जानातीति मत्वा वीतरागपरमानन्दैकसुखरसानुभवरूपं चित्तशुद्धिमकुर्वाणस्य बहिरङ्गबकवेषेण
लोकरञ्जनं मायास्थानं तदेव शल्यं तत्प्रभृतिसमस्तविकल्पकल्लोलमालात्यागेन निजशुद्धात्म-
संवित्तिनिश्चयेन संज्ञानेन सम्यग्ज्ञानेन विना
मोक्ख-पउ मोक्षपदं स्वरूपं जीव हे जीव म कासु
वि जोइ मा कस्याप्यद्राक्षीः
द्रष्टान्तमाह बहुएं सलिल विरोलियइं बहुनापि सलिलेन
bhAvArthajevI rIte pANIne khUb valovavAmAn Ave topaN hAth chIkaNo thato nathI tevI
rIte he jIv! khyAti, pUjA, lAbh Adi duShTa bhAvorUpe pariNat mArA chittane koI paN jANatun
nathI. em mAnIne ek (kevaL) vItarAg paramAnandarUp, sukharasanA anubhavarUp, chittashuddhine na
karanAr koIne paN, bahArathI bagalA jevA veShathI lokaranjan karavArUp, mAyAsthAnarUp, shalyathI
mAnDIne samasta vikalpanI tarangamALAnA tyAgarUp, nijashuddhAtma-samvittinI ekAgratArUp je sangnAn
chhe te samyaggnAn vinA mokShapad
mokShanun svarUpna dekh.
ahIn, jevI rIte pANIne khUb mathavA chhatAn paN hAth snigdha thato nathI tevI rIte
गाथा७४
अन्वयार्थ :[ज्ञानविहीनस्य ] जो सम्यग्ज्ञानकर रहित मलिन चित्त है, अर्थात्
अपनी बड़ाई, प्रतिष्ठा, लाभादि, दुष्ट भावोंसे जिसका चित्त परिणत हुआ है, और मनमें ऐसा
जानता है, कि हमारी दुष्टताको कोई नहीं जान सकता, ऐसा समझकर वीतराग परमानंद
सुखरसके अनुभवरूप चित्तकी शुद्धिको नहीं करता, तथा बाहरसे बगुलाकासा भेष मायाचाररूप
लोकरंजनके लिये धारण किया है, यही सत्य है, इसी भेषसे हमारा कल्याण होगा, इत्यादि
अनेक विकल्पोंकी कल्लोलोंसे अपवित्र है, ऐसे [कस्यापि ] किसी अज्ञानीके [मोक्षपदं ]
मोक्ष
पदवी [जीव ] हे जीव, [मा द्राक्षीः ] मत देख अर्थात् बिना सम्यग्ज्ञानके मोक्ष नहीं
होता उसका दृष्टांत कहते हैं [बहुना ] बहुत [सलिलविलोडितेन ] पानीके मथनेसे भी
[करः ] हाथ [चिक्कणो ] चीकना [न भवति ] नहीं होता क्योंकि जलमें चिकनापन है ही
नहीं जैसे जलमें चिकनाई नहीं है, वैसे बाहिरी भेषमें सम्यग्ज्ञान नहीं है सम्यग्ज्ञानके बिना

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344 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-75
मथितेन करु करो हस्तः चोप्पडउ ण होइ चिक्कनः स्निग्धो न भवतीति अत्र यथा
बहुतरमपि सलिले मथितेऽपि हस्तः स्निग्धो न भवति, तथा वीतरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणेन
ज्ञानेन विना बहुनापि तपसा मोक्षो न भवतीति तात्पर्यम्
।।७४।।
अथ निश्चयनयेन यन्निजात्मबोधज्ञानबाह्यं ज्ञानं तेन प्रयोजनं नास्तीत्यभिप्रायं मनसि
संप्रधार्य सूत्रमिदं प्रतिपादयति
२०२) जं णिय-बोहहँ बाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण
दुक्खहँ कारणु जेण तउ जीवहँ होइ खणेण ।।७५।।
यत् निजबोधाद्बाह्यं ज्ञानमपि कार्यं न तेन
दुःखस्य कारणं येन तपः जीवस्य भवति क्षणेन ।।७५।।
जं इत्यादि जं यत् णिय-बोहहं बाहिरउ दानपूजातपश्चरणादिकं कृत्वापि
vItarAg shuddha AtmAnI anubhUtirUp gnAn vinA bahu tap karavAthI paN mokSha thato nathI. e
tAtparya chhe. 74.
have, nishchayanayathI je AtmabodharUp gnAnathI bAhya (rahit) gnAn chhe tenAthI kAI paN
prayojan nathI, evo abhiprAy manamAn rAkhIne A sUtra kahe chhe
bhAvArthadAn, pUjA, tapashcharaNAdik karIne paN dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA
महान् तप करो, तो भी मोक्ष नहीं होता क्योंकि सम्यग्ज्ञानका लक्षण वीतराग शुद्धात्माकी
अनुभूति है, वही मोक्षका मूल है वह सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न नहीं है, तीनों एक
हैं ।।७४।।
आगे निश्चयकर आत्मज्ञानसे बहिर्मुख बाह्य पदार्थोंका ज्ञान है, उससे प्रयोजन नहीं
सधता, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर कहते हैं
गाथा७५
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [निजबोधात् ] आत्मज्ञानसे [बाह्यं ] बाहर (रहित)
[ज्ञानमपि ] शास्त्र वगैरका ज्ञान भी है, [तेन ] उस ज्ञानसे [कार्यं न ] कुछ काम नहीं, [येन ]
क्योंकि [तपः ] वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप [क्षणेन ] शीघ्र ही [जीवस्य ] जीवको
[दुःखस्य कारणं ] दुःखका कारण [भवति ] होता है
भावार्थ :निदानबंध आदि तीन शल्योंको आदि ले समस्त विषयाभिलाषरूप

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adhikAr-2 dohA-75 ]paramAtmaprakAsha [ 345
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षावासितचित्तेन रूपलावण्यसौभाग्यबलदेववासुदेवकामदेवेन्द्रादिपदप्राप्तिरूप-
भावि-भोगाशकरणं यन्निदानबन्धस्तदेव शल्यं तत्प्रभृतिसमस्तमनोरथविकल्पज्वालावलीरहितत्वेन
विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मावबोधो निजबोधः तस्मान्निजबोधाद्बाह्यम्
णाणु वि कज्जु ण
तेण शास्त्रादिजनितं ज्ञानमपि यत्तेन कार्यं नास्ति कस्मादिति चेत् दुक्खहं कारणु दुःखस्य
कारणं जेण येन कारणेन तउ वीतरागस्वसंवेदनरहितं तपः जीवहं जीवस्य होइ भवति खणेण
क्षणमात्रेण कालेनेति
अत्र यद्यपि शास्त्रजनितं ज्ञानं स्वशुद्धात्मपरिज्ञानरहितं तपश्चरणं च
मुख्यवृत्त्या पुण्यकारणं भवति तथापि मुक्ति कारणं न भवतीत्यभिप्रायः ।।७५।।
bhogonI AkAnkShAthI vAsit chittathI rUpalAvaNyasaubhAgyarUp baLadev, vAsudev, kAmadev ane
indrAdinA padanI prAptirUp bhAvI bhogonI je vAnchhA karavI te nidAnabandh chhe, te ja shalya chhe. te
shalya AdithI mAnDIne samasta manorathanA vikalpanI jvALAvalIthI rahitapaNe vishuddhagnAn,
vishuddhadarshan jeno svabhAv chhe evA nij AtmAno avabodh te nijabodh chhe. te nijabodhathI bAhya
shAstrAdijanit je gnAn chhe tenAthI kAI paN kArya nathI, kAraN ke vItarAgasvasamvedanarahit tap
jIvane kShaNamAtramAn ja
tatkAL jadukhanun kAraN thAy chhe.
ahIn, joke shAstrajanit gnAn ane potAnA shuddha AtmAnA gnAnathI rahit tapashcharaN
mukhyapaNe puNyanun kAraN chhe topaN muktinun kAraN nathI, evo abhiprAy chhe. 75.
मनोरथोंके विकल्पजालरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे रहित जो निज सम्यग्ज्ञान है, उससे रहित
बाह्य पदार्थोंका शास्त्र द्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं
कार्य तो एक निज आत्माके
जाननेसे है यहाँ शिष्यने प्रश्न किया, कि निदानबंध रहित आत्मज्ञान तुमने बतलाया, उसमें
निदानबंध किसे कहते हैं ? उसका समाधानजो देखे, सुने और भोगे हुए इन्द्रियोंके भोगोंसे
जिसका चित्त रंग रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूपलावण्य सौभाग्यका अभिलाषी वासुदेव
चक्रवर्तीपदके भोगोंकी वाँछा करे; दान, पूजा, तपश्चरणादिकर भोगोंकी अभिलाषा करे,
वह निदानबंध है, सो यह बड़ी शल्य (काँटा) है इस शल्यसे रहित जो आत्मज्ञान उसके
बिना शब्दशास्त्रादिका ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि वीतरागस्वसंवेदनज्ञान रहित तप
भी दुःखका कारण है ज्ञान रहित तपसे जो संसारकी सम्पदायें मिलती हैं, वे क्षणभंगुर हैं
इसलिए यह निश्चय हुआ, कि आत्मज्ञानसे रहित जो शास्त्रका ज्ञान और तपश्चरणादि हैं,
उनमें मुख्यताकर पुण्यका बंध होता है
उस पुण्यके प्रभावसे जगत्की विभूति पाता है, वह
क्षणभंगुर है इसलिए अज्ञानियोंका तप और श्रुत यद्यपि पुण्यका कारण है, तो भी मोक्षका
कारण नहीं है ।।७५।।

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-76
अथ येन मिथ्यात्वरागादिवृद्धिर्भवति तदात्मज्ञानं न भवतीति निरूपयति
२०३) तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ
दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ।।७६।।
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ।।७६।।
तं इत्यादि तं तत् णिय-णाणु जि होइ ण वि निजज्ञानमेव न भवति
वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वपरिज्ञानमेव न भवति येन ज्ञानेन किं भवति जेण
पवड्ढइ येन प्रवर्धते कोऽसौ राउ शुद्धात्मभावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दप्रतिबन्धक-
पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरागः अत्र द्रष्टान्तमाह दिणयर-किरणहं पुरउ जिय दिनकरकिरणानां
have, jenA vaDe mithyAtva, rAgAdinI vRuddhi thAy chhe te AtmagnAn nathI, em kahe chhe
bhAvArthaje gnAn vaDe shuddhAtmabhAvanAthI utpanna evA vItarAg paramAnandanA
pratibandhak pAnch indriyonA viShayonI abhilAShArUp rAganI vRuddhi thAy te nij gnAn nathI.
vItarAg nityAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA nij paramAtmatattvanun gnAn ja nathI. ahIn
draShTAnt kahe chhe. sUryanA kiraNonI sAme shun andhakArano phelAv shobhe chhe? nathI shobhato.
आगे जिससे मिथ्यात्व रागादिककी वृद्धि हो, वह आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा निरूपण
करते हैं
गाथा७६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [तत् ] वह [निजज्ञानम् एव ] वीतराग नित्यानंद
अखंडस्वभाव परमात्मतत्त्वका परिज्ञान ही [नापि ] नहीं [भवति ] है, [येन ] जिससे [रागः ]
परद्रव्यमें प्रीति [प्रवर्धते ] बढ़े, [दिनकरकिरणानां पुरतः ] सूर्यकी किरणोंके आगे
[तमोरागः ] अन्धकारका फै लाव [किं विलसति ] कैसे शोभायमान हो सकता है ? नहीं हो
सकता
भावार्थ :शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो वीतराग परम आनंद उसके शत्रु
पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषी जिसमें हो, वह निज (आत्म) ज्ञान नहीं है, अज्ञान ही है
जिस जगह वीतरागभाव है, वही सम्यग्ज्ञान है इसी बातको दृष्टांत देकर दृढ़ करते हैं, सो सुनो
हे जीव, जैसे सूर्यके प्रकाशके आगे अन्धेरा नहीं शोभा देता, वैसे ही आत्मज्ञानमें विषयोंकी