Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 1,2,3,4,5,6,7 (Adhikar 1),8 (Adhikar 1) Shri Yoginadragurune Bhatt Prabhakarna Prashno.

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karavAmAn Avyun chhe, evI samudAyapAtanikA chhe. (1) tyAn AdimAn ‘‘जे जाया’’ ityAdi
pachchIs sUtro sudhI traN prakAranA AtmAnA kathananun pIThikAvyAkhyAn chhe, (2) tyArapachhI
‘‘जेहउ णिम्मलु’’ ityAdi chovIs sUtro sudhI sAmAnya vivaraN chhe, (3) tyArapachhI ‘‘अप्पा
जोइय सव्वगउ’’ ityAdi tetAlIs sUtro sudhI visheSh vivaraN chhe, (4) tyArapachhI ‘‘अप्पा
संजमु’’ ityAdi ekatrIs sUtro sudhI chUlikA vyAkhyAn chhe. e rIte (antar adhikAro
sahit) pratham mahAdhikAr samApta thayo.
tyAr pachhI prakShepak sUtrone chhoDIne mokSha, mokShaphaL ane mokShamArganA svarUpanA
kathananI mukhyatAthI baso chaud sUtro sudhI bIjo mahAdhikAr kahevAmAn Avyo chhe. evI
samudAyapAtanikA chhe. (1) tyAn AdimAn
‘‘सिरि गुरु’’ ityAdi trIs sUtro sudhI pIThikA
vyAkhyAn chhe. (2) tyArapachhI ‘‘जो भत्तउ’’ ityAdi chhatrIs sUtro sudhI sAmAnya varNan chhe.
(3) tyArapachhI ‘‘सुद्धहं संजमु’’ ityAdi ekatAlIsh sUtro sudhI visheSh varNan chhe.
(4) tyArapachhI prakShepak sUtrone chhoDIne ekaso sAt sUtro sudhI abhedaratnatrayanI mukhyatAthI
शतसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियत इति समुदायपातनिका तत्रादौ ‘जे जाया’ इत्यादि
पञ्चविंशतिसूत्रपर्यन्तं त्रिधात्मपीठिकाव्याख्यानम्, अथानन्तरं ‘जेहउ णिम्मलु’ इत्यादि
चतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं सामान्यविवरणम्, अत ऊर्ध्वं
‘अप्पा जोइय सव्वगउ’ इत्यादि
त्रिचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणम्, अत ऊर्ध्वं
‘अप्पा संजमु’ इत्याद्येकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं
चूलिकाव्याख्यानमिति प्रथममहाधिकारः समाप्तः
अथानन्तरं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्ग-
स्वरूपकथनमुख्यत्वेन प्रक्षेपकान् विहाय चतुर्दशाधिकशतद्वयसूत्रपर्यन्तं द्वितीयमहाधिकारः प्रारभ्यत
इति समुदायपातनिका
तत्रादौ ‘सिरिगुरु’ इत्यादित्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं पीठिकाव्याख्यानं, तदनन्तरं
‘जो भत्तउ’ इत्यादिषट्त्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं सामान्यविवरणम्, अथानन्तरं ‘सुद्धहं संजमु’
इत्याद्येकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणं, तदनन्तरं प्रक्षेपकान् विहाय सप्तोत्तरशत-
pAtanikA ]paramAtmaprakAsha [ 7
और परमात्माके कथनकी मुख्यताकर क्षेपकोंको छोड़कर एकसौ तेईस दोहे कहे हैं उनमेंसे
‘जे जाया’ इत्यादि पच्चीस दोहा पर्यंन्त तीन प्रकार आत्माके कथनका पीठिका व्याख्यान,
‘जेहउ णिम्मलु’ इत्यादि चौबीस दोहा पर्यन्त सामान्य वर्णन, ‘अप्पा जोइय सव्वगउ]’ इत्यादि
तेतालीस दोहा पर्यन्त विशेष वर्णन और ‘अप्पा संजमु’ इत्यादि इकतीस दोहा पर्यन्त चूलिका
व्याख्यान है
इस तरह अंतर अधिकारों सहित पहला महाधिकार कहा इसके बाद मोक्ष,
मोक्षफल और मोक्षमार्गके स्वरूपके कथनकी मुख्यताकर क्षेपकोंके सिवाय दोसौ चौदह दोहा
पर्यंत दूसरा महाधिकार है
उसमें ‘सिरि गुरु’ इत्यादि तीस दोहा पर्यन्त पीठिकाव्याख्यान, ‘जो
भत्तउ’ इत्यादि छत्तीस दोहा पर्यन्त सामान्यवर्णन और ‘सुद्धह संजमु’ इत्यादि इकतालीस दोहा

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chUlikAvyAkhyAn chhe. A rIte bIjI pAtanikA jANavI.
(1)
pratham mahAdhikAr
have pratham pAtanikAnA abhiprAy pramANe vyAkhyAn karavAmAn AvatAn, granthakAr
shrIyogIndrAchArya granthanI AdimAn mangaL arthe iShTadevatAne (shrI siddhaparamAtmAne) namaskAr karatA
thakA ek dohakasUtra kahe chhe
पर्यन्तमभेदरत्नत्रयमुख्यतयाचूलिकाव्याख्यानं, इति द्वितीयपातनिका ज्ञातव्या ।।
इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण व्याख्याने क्रियमाणे ग्रन्थकारो ग्रन्थस्यादौ
मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणः सन् दोहकसूत्रमेकं प्रतिपादयति
१) जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि ।।१।।
ये जाता ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कान् दग्ध्वा
नित्यनिरञ्जनज्ञानमयास्तान् परमात्मनः नत्वा ।।१।।
8 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-1
पर्यंत विशेषवर्णन है, उसके बाद ‘उक्तं च’ काछोड़कर एक सौ सात दोहा पर्यंत
अभेदरत्नत्रयकी मुख्यताकर चूलिका व्याख्यान है
इस तरह दूसरी पातनिका जाननी चाहिये
अब, प्रथम पातनिकाके अभिप्रायसे व्याख्यान किया जाता है, उसमें ग्रंथकर्ता
श्री योगीन्द्राचार्यदेव ग्रंथके आरंभमें मंगलके लिए इष्टदेवता श्री भगवानको नमस्कार करते
हुए एक दोहा छंद कहते है
प्रथम महाधिकार
गाथा
अन्वयार्थ :[ये ] जो भगवान् [ध्यानाग्निना ] ध्यानरूपी अग्निसे [कर्म-
कलङ्कान् ] पहले कर्मरूपी मैलोंको [दग्ध्वा ] भस्म क रके [नित्यनिरंजनज्ञानमयाः जाताः ]
नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, [तान् ] उन [परमात्मनः ] सिद्धोंको
[नत्वा ] नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ
यह संक्षेप व्याख्यान
किया
* pAThAntaraप्रतिपादयति = प्रतिपादयति । तद्यथा--

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bhAvArthajevI rIte meghapaTalamAnthI nIkaLelA sUryanAn kiraNonI prabhA pragaT thaI
chhe tevI rIte jeo karmapaTalanA vilay TANe (karmarUpI meghapaTalano vilay thatAn) sakal
vimal kevaLagnAnAdi anantachatuShTayanI vyaktirUp, lokAlokane prakAshavAne samartha, sarvaprakAre
upAdeyabhUt kAryasamayasArarUp pariNamyA chhe. kayA nayanI vivakShAthI (teo kAryasamayasArarUp
siddhaparamAtmA) thayA chhe? jevI rIte dhAtupAShAN suvarNaparyAyarUp pariNatinI pragaTatArUpe thayo
chhe tevI rIte teo siddhaparyAyarUp pariNatinI pragaTatArUpe thayA chhe, shrI panchAstikAy
(gAthA-20)mAn kahyun chhe ke
paryAyArthikanayathI ‘‘अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो’’ (jIv abhUtapUrva siddha thAy chhe),
dravyArthikanayathI to jevI rIte dhAtupAShANamAn suvarNa shaktirUpe rahel chhe tevI rIte, shakti-
apekShAe jIv prathamathI ja shuddha, buddha ek svabhAvavALo chhe. dravyasangrah (gAthA-133)mAn
जे जाया ये केचन कर्तारो महात्मानो जाता उत्पन्नाः केन कारणभूतेन झाणग्गियए
ध्यानाग्निना किं कृत्वा पूर्वम् कम्मकलंक डहेविकर्मकलङ्कमलान् दग्ध्वा भस्मीकृत्वा
कथंभूताः जाताः णिच्चणिरंजणणाणमय नित्यनिरञ्जनज्ञानमयाः ते परमप्प णवेवि
तान्परमात्मनः कर्मतापन्नान्नत्वा प्रणम्येतितात्पर्यार्थव्याख्यानं समुदायकथनं संपिण्डितार्थ-
निरूपणमुपोद्धातः संग्रहवाक्यं वार्तिकमिति यावत्
इतो विशेषः तद्यथाये जाता उत्पन्ना
मेघपटलविनिर्गतदिनकरकिरणप्रभावात्कर्मपटलविघटनसमये सकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टय-
व्यक्ति रूपेण लोकालोकप्रकाशनसमर्थेन सर्वप्रकारोपादेयभूतेन कार्यसमयसाररूप परिणताः
कया
नयविवक्षया जाताः सिद्धपर्यायपरिणतिव्यक्त रूपतया धातुपाषाणे सुवर्णपर्यायपरिणतिव्यक्ति वत्
तथा चोक्तं पञ्चास्तिकायेपर्यायार्थिकनयेन ‘‘अभूदपुव्वो हवदि सिद्धाे’’, द्रव्यार्थिकनयेन पुनः
adhikAr-1 dohA-1 ]paramAtmaprakAsha [ 9
भावाथर् :जैसे मेघ-पटलसे बाहर निकली हुई सूर्यकी किरणोंकी प्रभा प्रबल होती
है, उसी तरह कर्मरूप मेघसमूहके विलय होनेपर अत्यंत निर्मल केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयकी
प्रगटतास्वरूप परमात्मा परिणत हुए हैं
अनंतचतुष्टय अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख,
अनंतवीर्य, ये अनंतचतुष्टय सब प्रकार अंगीकार करने योग्य हैं, तथा लोकालोकके प्रकाशनको
समर्थ हैं
जब सिद्धपरमेष्ठी अनंतचतुष्टयरूप परिणमे, तब कार्य-समयसार हुए अंतरात्म
अवस्थामें कारण-समयसार थे जब कार्यसमयसार हुए तब सिद्धपर्याय परिणतिकी प्रगटता
रूपकर शुद्ध परमात्मा हुए जैसे सोना अन्य धातुके मिलापसे रहित हुआ, अपने सोलहवानरूप
प्रगट होता है, उसी तरह कर्म-कलंक रहित सिद्धपर्यायरूप परिणमे तथा पंचास्तिकाय ग्रंथमें
भी कहा हैजो पर्यायार्थिकनयकर ‘अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो’ अर्थात् जो पहले सिद्धपर्याय

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kahyun chhe ke ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ shuddha dravyArthikanayathI (shuddhanayathI) sarva sansArI jIvo
shuddha buddha ekasvabhAvavALA chhe.
shA kAraNathI (teo kAryasamayasArarUp siddha paramAtmA thayA chhe)? karaNarUp dhyAnAgni
vaDe (teo kAryasamayasArarUp siddha paramAtmA thayA chhe ). ‘dhyAn’ shabdathI AgamanI apekShAe
vItarAg nirvikalpa shukladhyAn ane adhyAtmanI apekShAe vItarAg nirvikalpa rUpAtItadhyAn
samajavun. kahyun chhe ke (bRuhat dravyasangrah gAthA 48nI TIkA)
‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिंण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ (arthamantravAkyomAn sthit te ‘padastha’
dhyAn chhe, nij AtmAnun chintan te ‘pinDastha’ dhyAn chhe; sarvachidrUpanun chintan te ‘rUpastha’ dhyAn
chhe ane niranjananun dhyAn te rUpAtIt dhyAn chhe.) ane te dhyAn vastuvRuttithI shuddha AtmAnAn
samyakshraddhAn, samyaggnAn, samyakanuShThAnarUp abhed ratnatrayAtmak nirvikalpa samAdhithI samutpanna
शक्त्यप्रेक्षया पूर्वमेव शुद्धबुद्धैकस्वभावस्तिष्ठति धातुपाषाणे सुवर्णशक्ति वत् तथा चोक्तं
द्रव्यसंग्रहेशुद्धद्रव्यार्थिकनयेन ‘‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’’ सर्वे जीवाः शुद्धबुद्धैकस्वभावाः केन
जाताः ध्यानाग्निना करणभूतेन ध्यानशब्देन आगमापेक्षया वीतरागनिर्विकल्पशुक्लध्यानम्,
अध्यात्मापेक्षया वीतरागनिर्विकल्परूपातीतध्यानम् तथा चोक्त म्‘‘पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं
स्वात्मचिन्तनम् रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।’’ तच्च ध्यानं वस्तुवृत्त्या
शुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसी-
10 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-1
कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंकके विनाशसे पाई यह पर्यायार्थिकनयकी मुख्यतासे कथन
है और द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता
है
जैसे धातु पाषाणके मेलमें भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्णमें
सदा ही रहती है, जब परवस्तुका संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है सारांश
यह है कि शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्धपर्याय पाने से हुआ शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें कहा है, ‘‘सव्वे सुद्धाहु
सुद्धणया’ अर्थात् शुद्ध नयकर सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायर्थिकनयसे व्यक्तिकर
शुद्ध हुए
किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्निकर कर्मरूपी कलंकोंको भस्म
किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग
निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्मकी अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है तथा
दूसरी जगह भी कहा है‘‘पदस्थं’’ इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदिका
जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका
bRuhat dravyasangrah gAthA 48nI TIkA

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vItarAg paramAnandamay samarasIbhAvasukharasanA AsvAdarUp chhe em jANavun.
shun karIne (teo kAryasamayasArarUp siddha paramAtmA) thayA chhe? karmamaLarUp kalankone dagdha
karIne (teo kAryasamayasArarUp siddha paramAtmA thayA chhe.) ahIn ‘karmamaL’ shabdathI dravyakarmo ane
bhAvakarmo samajavAn. pudgalapinDarUp gnAnAvaraNAdi ATh dravyakarmo chhe ane rAgAdisankalpavikalparUp
bhAvakarmo chhe. dravyakarmonun dahan anupacharit asadbhUt vyavahAranayathI chhe ane bhAvakarmonun dahan
ashuddha nishchayanayathI chhe, shuddha nishchayanayathI to bandhamokSha nathI.
AvA karmamaLarUpI kalankone dagdha karIne teo kevA thayA chhe? AvA karmamaLarUpI kalankone
dagdha karIne teo nitya niranjan gnAnamay thayA chhe (1) kShaNik ekAntavAdI saugat (bauddha) matane
anusaranAr shiShya prati dravyArthikanayathI nitya TankotkIrNa gnAyak ek jeno svabhAv chhe evA
paramAtmadravya chhe em sthApavA mATe ‘‘nitya’’ visheShaN ApavAmAn Avyun chhe, (2) so kalpakAL
भावसुखरसास्वादरूपमिति ज्ञातव्यम् किं कृत्वा जाताः कर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वा कर्ममलशब्देन
द्रव्यकर्मभावकर्माणि गृह्यन्ते पुद्गलपिण्डरूपाणि ज्ञानावरणादीन्यष्टौ द्रव्यकर्माणि,
रागादिसंकल्पविकल्परूपाणि पुनर्भावकर्माणि द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन,
भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन शुद्धनिश्चयेन बन्धमोक्षौ न स्तः इत्थंभूतकर्ममलकलङ्कान् दग्ध्वा
कथंभूता जाताः नित्यनिरञ्जनज्ञानमयाः क्षणिकैकान्तवादिसौगत-मतानुसारिशिष्यं प्रति
द्रव्यार्थिकनयेन नित्यटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावपरमात्मद्रव्यव्यवस्थापनार्थं नित्यविशेषणं कृतम्
अथ कल्पशते गते जगत् शून्यं भवति पश्चात्सदाशिवे जगत्करणविषये चिन्ता भवति तदनन्तरं
मुक्ति गतानां जीवानां कर्माञ्जनसंयोगं कृत्वा संसारे पतनं करोतीति नैयायिका वदन्ति,
adhikAr-1 dohA-1 ]paramAtmaprakAsha [ 11
चिंतवन वह पिंडस्थ है, सर्व चिद्रूप (सकल परमात्मा) जो अरहंतदेव उनका ध्यान वह रूपस्थ
है, और निरंजन (सिद्धभगवान्) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है
वस्तुके स्वभावसे विचारा
जावे, तो शुद्ध आत्माका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई जो
निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरसका आस्वाद
वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यानका लक्षण जानना चाहिये
इसी ध्यानके प्रभावसे कर्मरूपी
मैल वही हुआ कलंक, उनको भस्मकर सिद्ध हुए कर्म-कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म
इनमेंसे जो पुद्गलपिंडरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म वे द्रव्यकर्म हैं, और रागादिक संकल्प
-विकल्प परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं
यहाँ भावकर्मका दहन अशुद्ध निश्चयनयकर हुआ,
तथा द्रव्यकर्मका दहन असद्भुत अनुपचरितव्यवहारनयकर हुआ और शुद्ध निश्चयकर तो जीवके
बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है
इस प्रकार कर्मरूपमलोंको भस्मकर जो भगवान हुए, वे कैसे

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gayA pachhI jagat shUnya thAy chhe tyAre sadAshivane jagat rachavAnI chintA thAy chhe. tyAr pachhI
te muktiprApta jIvone karmarUp anjanano sanyog karIne sansAramAn nAkhe chhe em naiyAyiko kahe
chhe. tenA matane anusaranAr shiShya prati bhAvakarma, dravyakarma ane nokarmarUp anjananA niShedh arthe
mukta jIvone ‘niranjan’ visheShaN ApavAmAn Avyun chhe, (3) jevI rIte supta avasthAmAn puruShane
bAhya gneyaviShayanun gnAn hotun nathI tevI rIte mukta AtmAone bAhya gneyaviShayanun gnAn hotun
nathI em sAnkhyo kahe chhe. tenA matane anusaranAr shiShya prati traNe jagatanA, traNe kALavartI sarva
तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्माञ्जननिषेधार्थं मुक्त जीवानां निरञ्जनविशेषणं
कृतम्
मुक्तात्मनां सुप्तावस्थाबद्बहिर्ज्ञेयविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति,
तन्मतानुसारिशिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञान-
स्थापनार्थं ज्ञानमय-विशेषणं कृतमिति
तानित्थंभूतान् परमात्मनो नत्वा प्रणम्य नमस्कृत्येति
क्रियाकारक संबन्धः अत्र नत्वेति शब्दरूपो वाचनिको द्रव्यनमस्कारो ग्राह्योऽसद्भूतव्यवहार-
12 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-1
हैं ? वे भगवान सिद्ध परमेष्ठी नित्य निरंजन ज्ञानमई हैं यहाँपर नित्य जो विशेषण किया है,
वह एकान्तवादी बौद्ध जो कि आत्माको नित्य नहीं मानता, क्षणिक मानता है, उसको
समझानेके लिये है
द्रव्यार्थिकनयकर आत्माको नित्य कहा है, टंकोत्कीर्ण अर्थात् टाँकीकासा
घडया सुघट ज्ञायक एकस्वभाव परम द्रव्य है ऐसा निश्चय करानेके लिये नित्यपनेका निरूपण
किया है इसके बाद निरंजनपनेका कथन करते हैं जो नैयायिकमती हैं वे ऐसा कहते हैं
‘‘सौ कल्पकाल चले जानेपर जगत् शून्य हो जाता है और सब जीव उस समय मुक्त हो जाते
हैं तब सदाशिवको जगत्के करनेकी चिन्ता होती है
उसके बाद जो मुक्त हुए थे, उन सबके
कर्मरूप अंजनका संयोग करके संसारमें पुनः डाल देता है’’, ऐसी नैयायिकोंके श्रद्धा है
उनके सम्बोधनेके लिये निरंजनपनेका वर्णन किया कि भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप अंजनका
संसर्ग सिद्धोंके कभी नहीं होता
इसी लिये सिद्धोंको निरंजन ऐसा विशेषण कहा है अब
सांख्यमती कहते हैं‘जैसे सोनेकी अवस्थामें सोते हुए पुरुषको बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं
होता, वैसे ही मुक्तजीवोंको बाह्य पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता है ’’ ऐसे जो सिद्धदशामें ज्ञानका
अभाव मानते है, उनको प्रतिबोध करानेके लिये तीन जगत् तीनकालवर्ती सब पदार्थोंका एक
समयमें ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोकके जाननेकी शक्ति है, ऐसे
ज्ञायकतारूप केवलज्ञानके स्थापन करनेके लिये सिद्धोंका ज्ञानमय विशेषण किया
वे भगवान
नित्य हैं, निरंजन हैं, और ज्ञानमय हैं, ऐसे सिद्धपरमात्माओंको नमस्कार करके ग्रंथका व्याख्यान
करता हूँ
यह नमस्कार शब्दरूप वचन द्रव्यनमस्कार है और केवलज्ञानादि अनंत

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padArthanA yugapat parichchhittirUp kevaLagnAn chhe em sthApavA mATe ‘gnAnamay’ visheShaN ApavAmAn
Avyun chhe. evA te paramAtmAone namIne-praNamIne-namaskAr karIne, evo kriyAkArak sambandh chhe.
ahIn
‘नत्वा’ evun shabdarUp vAchik dravyanamaskAr asadbhUt vyavahAranayathI jANavo ane
kevaLagnAnAdi anantaguNanA smaraNarUp bhAvanamaskAr ashuddha nishchayanayathI jANavo, shuddha
nishchayanayathI vandyavandakabhAv nathI.
A pramANe padakhanDanArUpe shabdArtha kahyo, nayavibhAganA kathanarUpe nayArtha kahyo, bauddhAdinA
matonA svarUpanA kathananA avasar par matArtha paN kahyo.
AvA guNavishiShTa siddho mukta chhe evo AgamArtha prasiddha chhe.
ahIn nitya, niranjan ane gnAnamayarUp paramAtmadravya upAdey chhe evo bhAvArtha chhe.
A rIte shabda, nay, mat, Agam ane bhAvArtha vyAkhyAnakALe yathAsambhav sarvatra jANavA.1.
have sansArasamudrane taravAnA upAyabhUt je vItarAg nirvikalpa samAdhirUp nAv chhe tenA
par chaDhIne jeo AgAmI kALamAn shivamay (kalyANamay), nirupam, gnAnamay thashe temane hun
नयेन ज्ञातव्यः, केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारः पुनरशुद्धनिश्चयनयेनेति,
शुद्धनिश्चयनयेन वन्द्यवन्दकभावो नास्तीति
एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः,
नयविभागकथनरूपेण नयार्थोऽपि भणितः, बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः,
एवंगुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः
अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपं
परमात्मद्रव्यमुपादेयमिति भावार्थः अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले
यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्य इति ।।१।।
अथ संसारसमुद्रोत्तरणोपायभूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपोतं समारुह्य ये शिवमय-
adhikAr-1 dohA-1 ]paramAtmaprakAsha [ 13
गुणस्मरणरूप भावनमस्कार कहा जाता है यह द्रव्य-भावरूप नमस्कार व्यवहारनयकर
साधक-दशामें कहा है, शुद्धनिश्चयनयकर वंद्य-वंदक भाव नहीं है ऐसे पदखंडनारूप शब्दार्थ
कहा और नयविभागरूप कथनकर नयार्थ भी कहा, तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मतके
कथन करनेसे मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्धपरमेष्ठी संसारसे मुक्त हुए हैं, यह
सिद्धांतका अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमई परमात्माद्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है,
यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, मत, आगम, भावार्थ व्याख्यानके अवसर पर सब जान
लेना
।।१।।
अब संसार-समुद्रके तरनेका उपाय जो वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप जहाज है, उसपर

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namaskAr karun chhun evo abhiprAy manamAn dhArIne granthakAr sUtra kahe chheAj kramathI pAtanikAnun
svarUp sarvatra jANavun.
bhAvArthajeo kevaLagnAnAdi mokShalakShmIthI sahit thashe ane samyaktvAdi ATh
guNarUpI vibhUtithI sahit thashe evA te anant siddhagaNone hun namaskAr karun chhun. shun karIne
siddha thashe? ke jeo vItarAg sarvagnapraNIt mArgathI durlabhabodhi prApta karIne AgAmI kALamAn
shivamay, nirupam ane gnAnamay siddha thashe, jem ke shreNik Adi. ahIn ‘shiv’ shabdathI nij
निरुपमज्ञानमया भविष्यन्त्यग्रे तानहं नमस्करोमीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा ग्रन्थकारः सूत्रमाह,
इत्यनेन क्रमेण पातनिकास्वरूपं सर्वत्र ज्ञातव्यम्
२) ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत
सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत ।।२।।
तान् वन्दे श्रीसिद्धगणान् भविष्यन्ति येऽपि अनन्ताः
शिवमयनिरूपमज्ञानमयाः परमसमाधिं भजन्तः ।।२।।
ते वंदउं तान् वन्दे तान् कान् सिरिसिद्धगण श्रीसिद्धगणान् ये किं करिष्यन्ति
होसहिं जे वि अणंत भविष्यन्त्यग्रे येऽप्यनन्ताः कथंभूता भविष्यन्ति सिवमयणिरुवमणाणमय
शिवमयनिरुपमज्ञानमयाः, किं भजन्तः सन्तः इत्थंभूता भविष्यन्ति परमसमाहि भजंत
रागादिविकल्परहितपरमसमाधिं भजन्तः सेवमानाः इतो विशेषः तथाहितान् सिद्धगणान्
14 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-2
चढ़के उस पर आगामी कालमें कल्याणमय अनुपम ज्ञानमई होंगे, उनको मैं नमस्कार करता
हूँ
गाथा
अन्वयार्थ :[‘अहं’ ] मैं [तान् ] उन [सिद्धगणान् ] सिद्ध समूहोंको [वन्दे ]
नमस्कार करता हूँ , [येऽपि ] जो [अनन्ताः ] आगामीकालमें अनंत [भविष्यन्ति ] होंगे कैसे
होंगे ? [शिवमयनिरूपमज्ञानमया ] परमकल्याणमय, अनुपम और ज्ञानमय होंगे क्या करते
हुए ? [परमसमाधिं ] रागादि विक ल्प रहित परमसमाधि उसको [भजन्तः ] सेवते हुए
भावार्थ :जो सिद्ध होंगे, उनको मैं वन्दता हूँ कै से होंगे, आगामी कालमें सिद्ध,
केवलज्ञानादि मोक्षलक्ष्मी सहित और सम्यक्त्वादि आठ गुणों सहित अनंत होंगे क्या करके
सिद्ध होंगे ? वीतराग सर्वज्ञदेवकर प्ररूपित मार्गकर दुर्लभ ज्ञानको पाके राजा श्रेणिक आदिकके

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shuddhAtmAnI bhAvanAthI utpanna vItarAg paramAnandamay sukh samajavun , ‘nirupam’ shabdathI samasta
upamA rahit samajavun ane ‘gnAn’ shabdathI kevaLagnAn samajavun.
shun karatA thakA AvA thashe? vishuddhagnAnadarshanasvabhAvavALA shuddha AtmatattvanAn samyak
shraddhAn, samyaggnAn ane samyak-AcharaNarUp amUlya ratnatrayanA bhArathI pUrNa, mithyAtva, viShay
ane kaShAyAdirUp samasta vibhAvajaLanA pravesh rahit shuddha AtmAnI bhAvanAthI utpanna sahajAnand
jenun ek rUp chhe evA sukhAmRutathI viparIt narakAdidukharUp kShArajaLathI pUrNa sansArasamudrane
taravAnA upAyabhUt samAdhirUpI nAvane bhajatA, sevatA thakA arthAt tenA AdhAre chAlatA anant
siddha thashe.
ahIn shivamay, nirupam, gnAnamay shuddha AtmasvarUp upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 2.
कर्मतापन्नान् अहं वन्दे कथंभूतान् केवलज्ञानादिमोक्षलक्ष्मीसहितान्
सम्यक्त्वाद्यष्टगुणविभूतिसहितान् अनन्तान् किं करिष्यन्ति ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण
दुर्लभबोधिं लब्ध्वा भविष्यन्त्यग्रे श्रेणिकादयः किंविशिष्टा भविष्यन्ति
शिवमयनिरुपमज्ञानमयाः अत्र शिवशब्देन स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखं ग्राह्यं,
निरुपमशब्देन समस्तोपमानरहितं ग्राह्यं, ज्ञानशब्देन केवलज्ञानं ग्राह्यम् किं कुर्वाणाः सन्त
इत्थंभूताः भविष्यन्ति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपामूल्य-
रत्नत्रयभारपूर्णं मिथ्यात्वविषयकषायादिरूपसमस्तविभावजलप्रवेशरहितं शुद्धात्मभावनोत्थसहजा-
नन्दैकरूपसुखामृतविपरीतनरकादिदुःखरूपेण क्षारजलेन पूर्णस्य संसारसमुद्रस्य तरणोपायभूतं
समाधिपोतं भजन्तः सेवमानास्तदाधारेण गच्छन्त इत्यर्थः
अत्र शिवमयनिरुपम-
ज्ञानमयशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।२।।
adhikAr-1 dohA-2 ]paramAtmaprakAsha [ 15
जीव सिद्ध होंगे पुनः कैसे होंगे ? शिव अर्थात् निज शुद्धात्माकी भावना, उसकर उपजा जो
वीतराग परमानंद सुख, उस स्वरूप होंगे, समस्त उपमा रहित अनुपम होंगे, और केवलज्ञानमई
होंगे
क्या करते हुए ऐसे होंगे ? निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव जो शुद्धात्मा है, उसके यथार्थ
श्रद्धान - ज्ञान-आचरणरूप अमोलिक रत्नत्रयकर पूर्ण और मिथ्यात्व विषय कषायादिरूप समस्त
विभावरूप जलके प्रवेशसे रहित शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो सहजानंदरूप सुखामृत,
उससे विपरीत जो नारकादि दुःख वे ही हुए क्षारजल, उनकर पूर्ण इस संसाररूपी समुद्रके
तरनेका उपाय जो परमसमाधिरूप जहाज उसको सेवते हुए, उसके आधारसे चलते हुए, अनंत
सिद्ध होंगे
इस व्याख्यानका यह भावार्थ हुआ, कि जो शिवमय अनुपम ज्ञानमय शुद्धात्मस्वरूप
है वही उपादेय है ।।२।।

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tyAr pachhI paramasamAdhirUp agni vaDe karmarUpI indhanano hom karatA vartamAn
vartatA siddhone hun namaskAr karun chhun
bhAvArthate siddhone hun namaskAr karun chhun. vItarAg nirvikalpa svasamvedanagnAnarUp
pAramArthik siddha bhaktithI hun namaskAr karun chhun ke jeo hAl panchamahAvidehakShetramAn birAje
chhe, jem ke shrI sImandhar Adi, shun karatA teo birAje chhe? vItarAg paramasAmAyik bhAvanAnI
अथानन्तरं परमसमाध्यग्निना कर्मेन्धनहोमं कुर्वाणान् वर्तमानान् सिद्धानहं
नमस्करोमि
३) ते हउँ वंदउँ सिद्ध-गण अच्छहिँ जे वि हवंत
परम-समाहि-महग्गिएँ कम्मिंधणइँ हुणंत ।।३।।
तान् अहं वन्दे सिद्धगणान् तिष्ठन्ति येऽपि भवन्तः
परमसमाधिमहाग्निना कर्मेन्धनानि जुह्वन्तः ।।३।।
ते हउं वंदउं सिद्धगण तानहं सिद्धगणान् वन्दे ये कथंभूताः अत्थ(च्छ) हिं जे
वि हवंत इदानीं तिष्ठन्ति ये भवन्तः सन्तः किं कुर्वाणास्तिष्ठन्ति परमसमाहिमहग्गिएँइँ
कम्मिंधणइँ हुणंत परमसमाध्यग्निना कर्मेन्धनानि होमयन्तः अतो विशेषः तद्यथातान्
सिद्धसमूहानहं वन्दे वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानलक्षणपारमार्थिकसिद्धभक्त्या नमस्करोमि ये
किंविशिष्टः इदानीं पञ्चमहाविदेहेषु भवन्तस्तिष्ठन्ति श्रीसीमन्धरस्वामिप्रभृतयः किं
16 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-3
आगे परमसमाधिरूप अग्निसे कर्मरूप ईंधनका होम करते हुए वर्तमानकालमें
महाविदेहक्षेत्रमें सीमंधरस्वामी आदि तिष्ठते हैं, उनको नमस्कार करता हूँ
गाथा
अन्वयार्थ :[अहं ] मैं [तान् ] उन [सिद्धगणान् ] सिद्ध समूहोंको [वन्दे ]
नमस्कार करता हूँ [येऽपि ] जो [भवन्त: तिष्ठन्ति ] वर्तमान समयमें विराज रहे हैं, क्या करते
हुए ? [परमसमाधिमहाग्निना ] परमसमाधिरूप महा अग्निकर [कर्मेन्धनानि ] कर्मरूप
ईंधनको [जुह्वन्तः ] भस्म करते हुए
भावार्थ :उन सिद्धोंको मैं वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानरूप परमार्थ
सिद्धभक्तिकर नमस्कार करता हूँ कैसे हैं वे ? अब वर्तमान समयमें पंच महाविदेहक्षेत्रोंमें
श्रीसीमंधरस्वामी आदि विराजमान हैं क्या करते हुए ? वीतराग परमसामायिकचारित्रकी

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sAthe avinAbhAvI nirdoSh paramAtmAnAn samyakshraddhAn, samyaggnAn, ane samyakAcharaNarUp
abhedaratnatrayAtmak nirvikalpa samAdhirUp agnimAn karmarUpI indhananI Ahuti dvArA hom karatA
teo birAje chhe. ahIn upAdeyabhUt shuddha AtmadravyanI prAptinA upAyarUp hovAthI nirvikalpa
samAdhi ja upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 3.
have jeo pUrvakALe shuddha AtmasvarUp pAmIne svasamvedanagnAnanA baLathI karmono kShay
karIne siddha thaIne nirvANamAn vase chhe temane hun namaskAr karun chhun
कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति वीतरागपरमसामायिकभावनाविनाभूतनिर्दोषपरमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरण-
रूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिवैश्वानरे कर्मेन्धनाहुतिभिः कृत्वा होमं कुर्वन्त इति
अत्र शुद्धात्मद्रव्यस्योपादेयभूतस्य प्राप्त्युपायभूतत्वान्निर्विकल्पसमाधिरेवोपादेय इति भावार्थः ।।३।।
अथ पूर्वकाले शुद्धात्मस्वरूपं प्राप्य स्वसंवेदनज्ञानबलेन कर्मक्षयं कृत्वा ये सिद्धा भूत्वा
निर्वाणे वसन्ति तानहं वन्दे
४) ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति
णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि ण पडंति ।।४।।
तान् पुनः वन्दे सिद्धगणान् ये निर्वाणे वसन्ति
ज्ञानेन त्रिभुवने गुरूका अपि भवसागरे न पतन्ति ।।४।।
adhikAr-1 dohA-4 ]paramAtmaprakAsha [ 17
भावनाकर संयुक्त जो निर्दोष परमात्माका यथार्थ श्रद्धानज्ञानआचरणरूप अभेद रत्नत्रय उस
मई निर्विकल्पसमाधिरूपी अग्निमें कर्मरूप ईंधनको होम करते हुए तिष्ठ रहे हैं इस कथनमें
शुद्धात्मद्रव्यकी प्राप्तिका उपायभूत निर्विकल्प समाधि उपादेय (आदरने योग्य) है, यह भावार्थ
हुआ
।।३।।
आगे जो महामुनि होकर शुद्धात्मस्वरूपको पाके सम्यग्ज्ञानके बलसे कर्मोंका क्षयकर
सिद्ध हुए निर्वाणमें बस रहे हैं, उनको मैं वन्दता हूँ
गाथा
अन्वयार्थ :[पुन: ] फि र [‘अहं’ ] मैं [तान् ] उन [सिद्धगणान् ] सिद्धोंको
[वन्दे ] बन्दता हूँ, [ये ] जो [निर्वाणे ] मोक्षमें [वसन्ति ] तिष्ठ रहे हैं कैसे हैं, वे [ज्ञानेन ]
ज्ञानसे [त्रिभुवने गुरुका अपि ] तीनलोकमें गुरु हैं, तो भी [भवसागरे ] संसार-समुद्रमें [न

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bhAvArthahave lokAlokanA prakAshak kevaLagnAnarUp svasamvedan vaDe traN lokanA
guru chhe te siddhone hun pharI namaskAr karun chhun, ke je tIrthankar paramadevo, bharat, rAmachandra,
pAnDavo Adi pUrvakALe vItarAg nirvikalpa svasamvedanagnAnanA baLathI nij shuddha AtmasvarUpane
pAmIne karmano kShay karI hAl nirvANamAn sadA kALane mATe birAjI rahyA chhe, emAn kAI
shankA nathI.
tyAr pachhI jo ke shuddha AtmAo siddha bhagavanto-vyavahAranayathI muktishilA upar
ते पुणु वंदउं सिद्धगण तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् किंविशिष्टान् जे णिव्वाणि वसंति
ये निर्वाणे मोक्षपदे वसन्ति तिष्ठन्ति पुनरपि कथंभूता ये णाणिं तिहुयणि गरुया वि
भवसायरि ण पडंति ज्ञानेन त्रिभुवनगुरुका अपि भवसागरे न पतन्ति अत ऊर्ध्वं विशेषः
तथाहितान् पुनर्वन्देऽहं सिद्धगणान् ये तीर्थंकरपरमदेवभरतराधवपाण्डवादयः पूर्वकाले
वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानबलेन स्वशुद्धात्मस्वरूपं प्राप्य कर्मक्षयं कृत्वेदानीं निर्वाणे तिष्ठन्ति
सदापि न संशयः
तानपि कथंभूतान् लोकालोकप्रकाशकेवलज्ञानस्वसंवेदनत्रिभुवनगुरून्
त्रैलोक्यालोकनपरमात्मस्वरूपनिश्चयव्यवहारपदपदार्थव्यवहारनयकेवलज्ञानप्रकाशेन समाहितस्व-
स्वरूपभूते निर्वाणपदे तिष्ठन्ति यतः ततस्तन्निर्वाणपदमुपादेयमिति तात्पर्यार्थः
।।४।।
अतः ऊर्ध्वं यद्यपि व्यवहारनयेन मुक्ति शिलायां तिष्ठन्ति शुद्धात्मनः हि सिद्धास्तथापि
18 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-4
पतन्ति ] नहिं पडते हैं
भावार्थ :जो भारी होता है, वह गुरुतर होता है, और जलमें डूब जाता है, वे
भगवान त्रैलोक्यमें गुरु हैं, परंतु भव-सागरमें नहीं पड़ते हैं उन सिद्धोंको मैं वंदता हूँ, जो
तीर्थंकरपरमदेव, तथा भरत, सगर, राघव, पांडवादिक पूर्वकालमें वीतरागनिर्विकल्प
स्वसंवेदनज्ञानके बलसे निजशुद्धात्मस्वरूप पाके, कर्मोंका क्षयकर, परमसमाधानरूप निर्वाण
-पदमें विराज रहे हैं उनको मेरा नमस्कार होवे यह सारांश हुआ
।।४।।
आगे यद्यपि वे सिद्ध परमात्मा व्यवहारनयकर लोकालोकको देखते हुए मोक्षमें तिष्ठ
1. pAThAntaraगुरून् त्रैलोक्या लोकनपरमात्मस्वरूपनिश्चयव्यवहारपदार्थव्यवहारनयकेवलज्ञानप्रकाशनगुरुकान्
लोकालोकनं परमात्मस्वरूपावलोकनं निश्चयेन पुद्गलादिपदार्थावलोकनं व्यवहारनयेन केवलज्ञानप्रकाशेन
te siddho kevA chhe? lokAlok prakAshe chhe te kevaLagnAn prApta siddho chhe. vyavahAranayathI traN lok prakAshak
paramAtmA nishchayathI svasvarUpamAn rahelA siddho nirvANapadamAn sthit chhe. AthI ahIn nirvANapad upAdey chhe. evo
tAtparyArtha chhe. 4.

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निश्चयनयेन शुद्धात्मस्वरूपे तिष्ठन्तीति कथयति
५) ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत
लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत ।।५।।
तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् ये आत्मनि वसन्तः
लोकालोकमपि सकलं इह तिष्ठन्ति विमलं पश्यन्तः ।।५।।
ते पुणु वंदउं सिद्धगण तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् जे अप्पाणि वसंत लोयालोउ वि
सयलु इहु अत्थ (च्छ) हिं विमलु णियंत ये आत्मनि वसन्तो लोकालोकं सततस्वरूपपदार्थं
निश्चयन्त इति
इदानीं विशेषः तद्यथातान् पुनरहं वन्दे सिद्धगणान् सिद्धसमूहान् वन्दे
कर्मक्षयनिमित्तम् पुनरपि कथंभूतं सिद्धस्वरूपम् चैतन्यानन्दस्वभावं लोकालोकव्यापि-
adhikAr-1 dohA-5 ]paramAtmaprakAsha [ 19
रहे हैं, लोकके शिखर ऊ पर विराजते हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें ही स्थित
हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ
गाथा
अन्वयार्थ :[‘अहं ] मैं [पुन: ] फि र [तान् ] उन [सिद्धगणान् ] सिद्धोंके
समूहको [वन्दे ] वंदता हूँ [ये ] जो [आत्मनि वसन्त: ] निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें तिष्ठते
हुए व्यवहारनयकर [सकलं ] समस्त [लोकालोकं ] लोक अलोकको [विमलं ] संशय रहित
[पश्यन्त
: ] प्रत्यक्ष देखते हुए [तिष्ठन्ति ] ठहर रहे हैं
भावार्थ :मैं क र्मोंके क्षयके निमित्त फि र उन सिद्धोंको नमस्कार करता हूँ, जो
निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें स्थित हैं, और व्यवहारनयकर सब लोकालोकको निःसंदेहपनेसे
प्रत्यक्ष देखते हैं, परंतु पदार्थोंमें तन्मयी नहीं हैं, अपने स्वरूपमें तन्मयी हैं
जो परपदार्थोंमें
1. ahIn sanskRitaTIkA ashuddha chhe tethI hindInA AdhAre bhAvArtha lakhyo chhe.
birAje chhe. to paN nishchayanayathI potAnA shuddha AtmasvarUpamAn ja sthit chhe em kahe
chhe
1bhAvArthahun karmanA kShay arthe pharIne te siddhone namaskAr karun chhun ke jeo
nishchayanayathI potAnA svarUpamAn sthit chhe ane vyavahAranayathI sarva lokAlokane nisandehapaNe pratyakSha
dekhe chhe parantu par padArthomAn tanmay nathI, potAnA svarUpamAn tanmay chhe. jo nishchayanayathI

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parapadArthamAn tanmay thaIne temane jANe to paranA sukh-dukhanun gnAn thatAn potAne sukh-dukhano
anubhav thAy ane parakIy rAg-dveSh jANavAmAn AvatAn, potAne rAgadveShamayapaNun prApta thAy evo
mahAn doSh Ave.
ahIn je nishchayathI svasvarUpamAn avasthAn kahyun chhe te ja upAdey chhe evo bhAvArtha
chhe. 5.
have nikalAtmA (asharIrI evA) siddha parameShThIne namaskAr karIne hAl te siddha svarUpanA
ane tenI prAptinA upAyanA kahenAr sakalAtmAne (shrI arihant bhagavAnane) hun namaskAr karun
chhun
सूक्ष्मपर्यायशुद्धस्वरूपं ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणम् निश्चय एकीभूतव्यवहाराभावे स्वात्मनि अपि च
सुखदुःखभावाभावयोरेकीकृत्य स्वसंवेद्यस्वरूपे स्वयत्ने तिष्ठन्ति उपचरितासद्भूतव्यवहारे
लोकालोकावलोकनं स्वसंवेद्यं प्रतिभाति, आत्मस्वरूपकैवल्यज्ञानोपशमं यथा पुरुषार्थपदार्थद्रष्टोः
भवति तेषां बाह्यवृत्तिनिमित्तमुत्पत्तिस्थूलसूक्ष्मपरपदार्थव्यवहारात्मानमेव जानन्ति यदि निश्चयेन
तिष्ठन्ति तर्हि परकीयसुखदुःखपरिज्ञाने सुखदुःखानुभवं प्राप्नोति, परकीयरागद्वेषहेतुपरिज्ञाने च
रागद्वेषमयत्वं च प्राप्नोतीति महद्दूषणम्
अत्र यत् निश्चयेन स्वस्वरूपेऽवस्थानं भणितं
तदेवोपादेयमिति भावार्थः ।।५।।
अथ निष्कलात्मानं सिद्धपरमेष्ठिनं नत्वेदानीं तस्य सिद्धस्वरूपस्य तत्प्राप्त्युपायस्य च
प्रतिपाद्कं सकलात्मानं नमस्करोमि
20 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-5
तन्मयी हो, तो परके सुख-दुःखसे आप सुखी-दुःखी होवे, ऐसा उनमें कदाचित् नहीं है
व्यवहारनयकर स्थूलसूक्ष्म सबको केवलज्ञानकर प्रत्यक्ष निःसंदेह जानते हैं , किसी पदार्थसे
राग-द्वेष नहीं है
यदि रागके हेतुसे किसीको जाने, तो वे राग द्वेषमयी होवें, यह बड़ा दूषण
है, इसलिये यह निश्चय हुआ कि निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें निवास करते हैं परमें नहीं,
और अपनी ज्ञायकशक्तिकर सबको प्रत्यक्ष देखते हैं जानते हैं
जो निश्चयकर अपने
स्वरूपमें निवास कहा, इसलिये वह अपना स्वरूप ही आराधने योग्य है, यह भावार्थ
हुआ
।।५।।
आगे निरंजन, निराकार, निःशरीर सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार करता हूँ
1 pAThAntaraनिश्चयन्त=निश्चयन्तस्तिष्ठति

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६) केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाय
जिणवर वंदउँ भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव ।।६।।
केवलदर्शनज्ञानमयान् केवलसुखस्वभावान्
जिनवरान् वन्दे भक्त्या यैः प्रकाशिता भावाः ।।६।।
केवलदर्शनज्ञानमयाः केवलसुखस्वभावा ये तान् जिनवरानहं वन्दे कया भक्त्या यैः
किं कृतम् प्रकाशिता भावा जीवाजीवादिपदार्था इति इतो विशेषः केवल-
ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयस्वरूपपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकं सुखदुःख-
जीवितमरणलाभालाभशत्रुमित्रसमानभावनाविनाभूतवीतरागनिर्विकल्पसमाधिपूर्वं जिनोपदेशं लब्ध्वा
पश्चादनन्तचतुष्टयस्वरूपा जाता ये
पुनश्च किं कृतम् यैः अनुवादरूपेण जीवादिपदार्थाः
प्रकाशिताः विशेषेण तु कर्माभावे सति केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वरूपलाभात्मको मोक्षः,
adhikAr-1 dohA-6 ]paramAtmaprakAsha [ 21
गाथा
अन्वयार्थ :[केवलदर्शनज्ञानमया: ] जो केवलदर्शन और केवल ज्ञानमयी हैं,
[केवलसुखस्वभावा: ] तथा जिनका केवलसुख ही स्वभाव है और [यै: ] जिन्होंने [भावा: ]
जीवादिक सकल पदार्थ [प्रकाशिता
: ] प्रकाशित किये, उनको मैं [भक्त्या ] भक्तिसे [वन्दे ]
नमस्कार करता हूँ
भावार्थ :केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयस्वरूप जो परमात्मतत्त्व है, उसके यथार्थ
श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव, इन स्वरूप अभेदरत्नत्रय वह जिनका स्वभाव है, और सुख-दुःख,
जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, सबमें समान भाव होनेसे उत्पन्न हुई वीतरागनिर्विकल्प
परमसमाधि उसके कहनेवाले जिनराजके उपदेशको पाकर अनंतचतुष्टयरुप हुए, तथा जिन्होंने
यथार्थ जीवादि पदार्थोंका स्वरूप प्रकाशित किया तथा जो कर्मका अभाव है वह वही
bhAvArthakevaLagnAnAdi anantachatuShTayasvarUp paramAtmatattvanAn samyakshraddhAn,
samyaggnAn, ane samyakanubhUtirUp abhedaratnatrayAtmak evo, sukh-dukh, jIvit-maraN, lAbh-
alAbh, shatru-mitra badhA pratye samAn bhAvanA hovAnI sAthe avinAbhAvI vItarAg nirvikalpa
samAdhipUrvak jinopadesh pAmIne jeo anantachatuShTayasvarUp thayA chhe ane jeoe anuvAdarUpe
jIvAdi padArtho prakAshyA chhe ane visheShapaNe karmano abhAv thatAn kevaLagnAnAdi anantaguN
svarUpanI prAptirUp je mokSha chhe ane shuddha AtmAnAn samyakshraddhAn, samyaggnAn, ane

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samyakanuShThAnarUp abhed ratnatrayAtmak je mokShamArga chhe evA mokSha ane mokShamArgane jemaNe
prakAshyA chhe temane hun namaskAr karun chhun. ahIn arhataguNasvarUp je svashuddhAtmasvarUp chhe te ja
upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 6.
tyAr pachhI bhedAbhedaratnatrayanA ArAdhak AchArya upAdhyAy ane sAdhune hun namaskAr karun
chhun
शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मको मोक्षमार्गश्च, तानहं वन्दे
अत्रार्हद्गुणस्वरूपस्वशुद्धात्मस्वरूपमेवोपादेयमिति भावार्थः ।।६।।
अथानन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानाचार्योपाध्यायसाधून्नमस्करोमि
७) जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि ।।७।।
ये परमात्मानं पश्यन्ति मुनयः परमसमाधिं धृत्वा
परमानन्दस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ।।७।।
22 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-7
केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्ष और जो शुद्धात्माका यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप
अभेदरत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्गको भी प्रगट किया, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ
इस व्याख्यानमें अरहंतदेवके केवलज्ञानादि गुणस्वरूप जो शुद्धात्मस्वरूप
है, वही आराधने योग्य है, यह भावार्थ जानना ।।६।।
आगे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं
नमस्कार करता हूँ
गाथा
अन्वयार्थ :[ये मुनय: ] जो मुनि [परमसमाधिं ] परमसमाधिको [धृत्वा ] धारण
करके सम्यग्ज्ञानकर [परमात्मानं ] परमात्माको [पश्यन्ति ] देखते हैं किस लिए
[परमानंदस्य कारणेन ] रागादि विकल्प रहित परमसमाधिसे उत्पन्न हुए परमसुखके रसका
अनुभव करनेके लिए [तान् अपि ] उन [त्रीन् अपि ] तीनों आचार्य, उपाध्याय, साधुओंको
भी [नत्वा ] मैं नमस्कार करके परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूँ

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bhAvArtha(1) anupacharit asadbhUt vyavahArathI jeno sambandh chhe evAn dravyakarma
ane nokarmathI rahit tem ja ashuddha nishchayanayathI jeno sambandh chhe evA matignAnAdi vibhAvaguN
ane naranArakAdi vibhAvaparyAy rahit chidAnand ja jeno ek svabhAv chhe evun je shuddhAtmatattva
chhe te ja bhUtArtha chhe, paramArtharUp ‘samayasAr’ shabdathI vAchya chhe, sarva prakAre upAdeyabhUt chhe ane
tenAthI je anya chhe te hey chhe. evI chal, malin, avagADh rahitapaNe nishchayashraddhAnabuddhi te
samyaktva chhe, temAn AcharaN pariNaman te darshanAchAr chhe.
(2) temAn ja sanshay, viparyAs, anadhyavasAy rahitapaNe svasamvedanagnAnarUpe grAhakabuddhi
te samyakgnAn chhe, temAn AcharaNpariNamante gnAnAchAr chhe.
(3) temAn ja shubhAshubh sankalpavikalparahitapaNe nityAnandamay sukharasanA AsvAdarUp
sthir (nishchal) anubhav te samyakchAritra chhe, temAn AcharaN-pariNaman te chAritrAchAr chhe.
जे परमप्पु णियंति मुणि ये केचन परमात्मानं निर्गच्छन्ति स्वसंवेदनज्ञानेन जानन्ति
मुनयस्तपोधनाः किं कृत्वा पूर्वम् परमसमाहि धरेवि रागादिविकल्परहितं परमसमाधिं धृत्वा
केन कारणेन परमाणंदह कारणिण निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसदानन्दपरमसमरसीभावसुख-
रसास्वादनिमित्तेन तिण्णि वि ते वि णवेवि त्रीनप्याचार्योपाध्यायसाधून् नत्वा नमस्कृत्येत्यर्थः
अतो विशेषः अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं तथैवाशुद्धनिश्चयसंबन्धः
मतिज्ञानादिविभावगुणनरनारकादिविभावपर्यायरहितं च यच्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वं तदेव
भूतार्थं परमार्थरूपसमयसारशब्दवाच्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति
adhikAr-1 dohA-7 ]paramAtmaprakAsha [ 23
भावार्थ :अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसीसे अनादि संबंध है, परंतु
असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनयकर द्रव्यकर्म, नोकर्मका संबंध होता है, उससे रहित
और अशुद्ध निश्चयनयकर रागादिका संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुणके संबंधसे
रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायोंसे रहित ऐसा जो चिदानंदचिद्रूप एक
अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है
उसीको परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए वही
सब प्रकार आराधने योग्य है उससे जुदी जो परवस्तु है वह सब त्याज्य है ऐसी दृढ़ प्रतीति
चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण
अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह
दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निजस्वरूपमें संशय
-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहकबुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो
आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह
ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ-अशुभ समस्त
संकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरसका आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है,

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चलमलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारस्तत्रैव
संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं
परिणमनं ज्ञानाचारः, तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्परहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वादस्थिरानु-
भवनं च सम्यक्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः, तत्रैव परद्रव्येच्छानिरोधेन
सहजानन्दैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचारः, तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे
स्वशक्त्यनवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार इति निश्चयपञ्चाचाराः
निःशङ्काद्यष्टगुणभेदो
बाह्यदर्शनाचारः, कालविनयाद्यष्टभेदो बाह्यज्ञानाचारः, पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिनिर्ग्रन्थरूपो
बाह्यचारित्राचारः, अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः, बाह्यस्वशक्त्यनवगूहनरूपो
24 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-7
उसका जो आचरण, उसरूप परिणमन, वह चारित्राचार है, उसी परमानंद स्वरूपमें परद्रव्यकी
इच्छाका निरोधकर सहज आनंदरूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन वह तपश्चरणाचार है और उसी
शुद्धात्मस्वरूपमें अपनी शक्तिको प्रकटकर आचरण परिणमन वह वीर्याचार है यह निश्चय
पंचाचारका लक्षण कहा अब व्यवहारका लक्षण कहते हैंनिःशंकितको आदि लेकर अष्ट
अंगरूप बाह्यदर्शनाचार, शब्द शुद्ध, अर्थ शुद्ध आदि अष्ट प्रकार बाह्य ज्ञानाचार, पंच महाव्रत,
पंच समिति, तीन गुप्तिरुप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी
शक्ति प्रगटकर मुनिव्रतका आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है
यह व्यवहार पंचाचार परम्पराय
मोक्षका कारण है, और निर्मल ज्ञान-दर्शनस्वभाव जो शुद्धात्मतत्त्व उसका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान,
आचरण तथा परद्रव्यकी इच्छाका निरोध और निजशक्तिका प्रगट करना ऐसा यह निश्चय
(4) temAn ja paradravyanI ichchhAnA nirodh vaDe ek (kevaL) sahajAnandarUpe pratapan te
tapashcharaN chhe, temAn AcharaNpariNamante tapashcharaNAchAr chhe.
(5) temAn ja shuddhAtmasvarUpamAn ja svashaktine gopavyA sivAy AcharaNpariNamante
vIryAchAr chhe.
e pramANe nishchay panchAchAr chhe.
(1) nishankAdi angarUp ATh bhed te bAhya darshanAchAr chhe.
(2) kAL, vinayAdi ATh bhed te bAhya gnAnAchAr chhe.
(3) pAnch mahAvrat, pAnch samiti, traN gupti, nirgrantharUp bAhya chAritrAchAr chhe.
(4) anashanAdi bAr bhedarUp bAhya tapashcharaNAchAr chhe.
(5) bAhya svashaktine na gopavavArUp bAhya vIryAchAr chhe.
A vyavahAr panchAchAr paramparAe mokShanA sAdhak chhe. vishuddha gnAn, vishuddha darshan jeno
svabhAv chhe evA shuddha AtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn, samyakanuShThAn tathA bAhyadravyanI

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बाह्यवीर्याचार इति अयं तु व्यवहारपञ्चाचारः पारंपर्येण साधक इति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव-
शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानबहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिरूपं तपश्चरणं स्वशक्त्यनवगूहन-
वीर्यरूपाभेदपञ्चाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं
स्वयमाचरन्त्यन्यानाचारयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे
पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्व-
नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्धजीवद्रव्यशुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञं स्वशुद्धात्म-
भावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं कथयन्ति, शुद्धात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेद-
रत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षमार्गं च ये कथयन्ति ते भवन्त्युपाध्यायास्तानहं वन्दे
शुद्धबुद्धैक-
स्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणतपश्चरणरूपाभेदचतुर्विधनिश्चयाराधनात्मकवीतराग-
ichchhAnI nivRuttirUp tapashcharaN, svashaktine na gopavavArUp vIryae rUp abhed panchAchArAtmak
shuddhopayogabhAvanAmAn antarbhUt evI vItarAganirvikalpasamAdhine jeo svayam Achare chhe, ane
anyone acharAve chhe teo AchAryo chhe, temane hun namaskAr karun chhun.
panchAstikAy, chha dravya, sAtatattva, nav padArtho chhe, temAn shuddha jIvAstikAy, shuddha jIvadravya,
shuddha jIvatattva, shuddha jIvapadArtha evA sangnAdhArak svashuddhAtmabhAv (svashuddhAtmapadArtha) upAdey chhe,
tenAthI je anya chhe te hey chhe, evo upadesh jeo kare chhe ane shuddha AtmasvabhAvanAn samyak-
shraddhAn, samyaggnAn ane samyakAcharaNarUp abhed ratnatrayAtmak nishchay mokShamArgane jeo kahe
chhe teo upAdhyAyo chhe, temane hun vandan karun chhun.
shuddha, buddha jeno ek svabhAv chhe evA shuddha AtmatattvanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn,
ane samyakAcharaN, tapashcharaNarUp abhed chaturvidh nishchay-ArAdhanAtmak vItarAg-
adhikAr-1 dohA-7 ]paramAtmaprakAsha [ 25
पंचाचार साक्षात् मुक्तिका कारण है ऐसे निश्चय व्यवहाररूप पंचाचारोंको आप आचरें और
दूसरोंको आचरवावें ऐसे आचार्योंको मैं वंदता हूँ पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व, नवपदार्थ
हैं, उनमें निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निजशुद्ध जीवद्रव्य, निजशुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध
जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य
हैं, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्मस्वभावका सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद
रत्नत्रय है, वही निश्चयमोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्योंको देते हैं, ऐसे उपाध्यायोंको मैं नमस्कार
करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वकी आराधनारूप वीतराग
निर्विकल्प समाधिको
जो साधते हैं, उन साधुओंको मैं वंदता हूँ वीतराग निर्विकल्प समाधिको जो आचरते हैं, कहते
१. वे पाँचों परमेष्ठी भी जिस वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको आचरते हैं, कहते हैं और साधते हैं; तथा जो
उपादेयरूप निजशुद्धात्मतत्त्वकी साधनेवाली है, ऐसी निर्विकल्प समाधिको ही उपादेय जानो (यह
अर्थ संस्कृतके अनुसार किया गया है )

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निर्विकल्पसमाधिं ये साधयन्ति ते भवन्ति साधवस्तानहं वन्दे अत्रायमेव ते समाचरन्ति
कथयन्ति साधयन्ति च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिं तमेवोपादेयभूतस्य स्वशुद्धात्मतत्त्वस्य
साधकत्वादुपादेयं जानीहीति भावार्थः
।।७।। इति प्रभाकरभट्टस्य पञ्चपरमेष्ठि-
नमस्कारकरणमुख्यत्वेन प्रथममहाधिकारमध्ये दोहकसूत्रसप्तकं गतम्
अथ प्रभाकरभट्टः पूर्वोक्त प्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिनो नत्वा पुनरिदानीं श्रीयोगीन्द्रदेवान्
विज्ञापयति
८) भाविं पणविवि पंचगुरु सिरिजोइंदुजिणाउ
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ।।८।।
26 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-8
हैं, साधते हैं वे ही साधु हैं अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये ही पंचपरमेष्ठी वंदने
योग्य हैं, ऐसा भावार्थ है ।।७।।
ऐसे परमेष्ठीको नमस्कार करनेकी मुख्यतासे श्रीयोगीन्द्राचार्यने परमात्मप्रकाशके प्रथम
महाधिकारमें प्रथमस्थलमें सात दोहोंसे प्रभाकरभट्ट नामक अपने शिष्यको पंचपरमेष्ठीकी
भक्तिका उपदेश दिया
इति पीठिका
अब प्रभाकरभट्ट पूर्वरीतिसे पंचपरमेष्ठीको नमस्कारकर और श्रीयोगीन्द्रदेव गुरुको
नमस्कार कर श्रीगुरुसे विनती करता है
nirvikalpasamAdhine jeo sAdhe chhe teo sAdhu chhe. temane hun vandan karun chhun.
ahIn je vItarAganirvikalpasamAdhine teo (AchArya, upAdhyAy, ane sAdhu) Achare chhe,
kahe chhe ane sAdhe chhe te ja vItarAganirvikalpasamAdhi upAdeyabhUt svashuddhAtmatattvanI sAdhak hovAthI
upAdey jANo evo bhAvArtha chhe. 7.
A pramANe prabhAkarabhaTTanA panchaparameShThIne namaskArakaraNanI mukhyatAthI pratham mahAdhikAramAn
sAt dohak sUtro samApta thayAn.
iti pIThikA
have prabhAkarabhaTTa pUrvokta prakAre panchaparameShThIne namaskAr karIne pharI ahIn shrI yogIndradevane
vinantI kare chhe