Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 9-10 (Adhikar 1),11 Shree Guruno Trana Prakarna Aatmana Kathanana Upadeshrupe Uttar,12 (Adhikar 1),13 (Adhikar 1) Bahiratmana Lakshan,14 (Adhikar 1) Antratmanu Swaroopa,15 (Adhikar 1) Paramatmana Lakshan,16 (Adhikar 1),17 (Adhikar 1) Paramatmanu Swaroop,18 (Adhikar 1),19 (Adhikar 1),20 (Adhikar 1),21 (Adhikar 1).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 3 of 29

 

Page 27 of 565
PDF/HTML Page 41 of 579
single page version

भावेन प्रणम्य पञ्चगुरून् श्रीयोगीन्दुजिनः
भट्टप्रभाकरेण विज्ञापितः विमलं कृत्वा भावम् ।।८।।
भाविं पणविवि पंचगुरु भावेन भावशुद्धया प्रणम्य कान् पञ्चगुरून् पश्चात्किं
कृतम् सिरिजोइंदुजिणाउ भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ श्रीयोगीन्द्रदेवनामा
भगवान् प्रभाकरभट्टेन कर्तृभूतेन विज्ञापितः विमलं कृत्वा भावं परिणाममिति अत्र प्रभाकरभट्टः
शुद्धात्मतत्त्वपरिज्ञानार्थं श्रीयोगीन्द्रदेवं भक्ति प्रकर्षेण विज्ञापितवानित्यर्थः ।।८।।
तद्यथा
९) गउ संसारि वसंताहँ सामिय कालु अणंतु
पर मइँ किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ।।९।।
गतः संसारे वसतां स्वामिन् कालः अनन्तः
परं मया किमपि न प्राप्तं सुखं दुःखमेव प्राप्तं महत् ।।९।।
adhikAr-1 dohA-8-9 ]paramAtmaprakAsha [ 27
गाथा
अन्वयार्थ :[भावेन ] भावोंकी शुद्धताकर [पञ्चगुरून् ] पंचपरमेष्ठियोंको
[प्रणम्य ] नमस्कारकर [भट्टप्रभाकरेण ] प्रभाकरभट्ट [भावं विमलं कृत्वा ] अपने परिणामोंको
निर्मल करके [श्रीयोगीन्द्रजिन
: ] श्रीयोगीन्द्रदेवसे [विज्ञापित: ] शुद्धात्मतत्त्वके जाननेके लिये
महाभक्तिकर विनती करते हैं
।।८।।
वह विनती इस तरह है
गाथा
अन्वयार्थ :[हे स्वामिन् ] हे स्वामी, [संसारे वसतां ] इस संसारमें रहते हुए
हमारा [अनंत: काल: गत: ] अनंतकाल बीत गया, [परं ] लेकिन [मया ] मैने [किमपि
सुखं ] कुछ भी सुख [न प्राप्तं ] नहीं पाया, उल्टा [महत् दुखं एव प्राप्तं ] महान् दुःख ही
पाया है
bhAvArthaahIn prabhAkarabhaTTa shuddha Atmatattvane jANavA mATe shrIyogIndradevane visheSh
bhaktipUrvak vinantI kare chhe. 8.
te vinantI A pramANe chhe

Page 28 of 565
PDF/HTML Page 42 of 579
single page version

गउ संसारि वसंताहं सामिय कालु अणंतु गतः संसारे वसतां तिष्ठतां हे स्वामिन्
कोऽसौ कालः कियान् अनन्तः पर मइं किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु
परं किंतु मया किमपि न प्राप्तं सुखं दुःखमेव प्राप्तं महदिति इतो विस्तरः तथाहिस्वशुद्धात्म-
भावनासमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसीभावरूपसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखरूपेण क्षारनीरेण पूर्णे
अजरामरपदविपरीतजातिजरामरणरूपेण मकरादिजलचरसमूहेन संकीर्णे अनाकुलत्वलक्षण-
पारमार्थिकसुखविपरीतनानामानसादिदुःखरूपवडवानलशिखासंदीपिताभ्यन्तरे वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिविपरीतसंकल्पविकल्पजालरूपेण कल्लोलमालासमूहेन विराजिते संसारसागरे वसतां तिष्ठतां
हे स्वामिन्ननन्तकालो गतः
कस्मात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त-
मनुष्यत्वदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिर्व्याध्यायुष्कवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुख-
28 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-9
भावार्थ :निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनंद
समरसीभाव है, उस रूप जो आनंदामृत उससे विपरीत नरकादिदुःखरूप क्षार (खारो)
जलसे पूर्ण (भरा हुआ), अजर अमर पदसे उलटा जन्म जरा (बुढ़ापा) मरणरूपी
जलचरोंके समूहसे भरा हुआ, अनाकुलता स्वरूप निश्चय सुखसे विपरीत, अनेक प्रकार
आधि व्याधि दुःखरूपी बड़वानलकी शिखाकर प्रज्वलित, वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर
रहित, महान संकल्प विकल्पोंके जालरूपी कल्लोलोंकी मालाओंकर विराजमान, ऐसे
संसाररूपी समुद्रमें रहते हुए मुझे हे स्वामी, अनंतकाल बीत गया
इस संसारमें एकेन्द्रीसे
दोइन्द्री, तेइन्द्री, चौइन्द्री स्वरूप विकलत्रय पर्याय पाना दुर्लभ (कठिन) है, विकलत्रयसे
पंचेन्द्री, सैनी, छह पर्याप्तियोंकी संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अत्यंत
दुर्लभ, उसमें आर्यक्षेत्र दुर्लभ, उसमेंसे उत्तम कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण पाना कठिन
है, उसमें भी सुन्दर रूप, समस्त पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवीणता, दीर्घ आयु, बल, शरीर
bhAvArthasvashuddhAtma bhAvanAthI utpanna vItarAg paramAnandamay samarasIbhAvarUp
sukhAmRutathI viparIt nArakAdinA dukharUp kShArajaLathI (khArA jaLathI) pUrNa (bharapUr) ajar,
amar padathI viparIt janma, jarA, maraNarUp magarAdi jaLacharasamUhathI sankIrNa anAkulatva
jenun lakShaN chhe evA pAramArthik sukhathI viparIt anek prakAranA mAnasAdi dukharUp
vaDavAnaLashikhAthI andaramAn prajvalit, vItarAg nirvikalpa samAdhithI viparIt
sankalpavikalpajALarUp kallolonA panktisamUhathI virAjit evA sansArasAgaramAn vasatAn rahetAn
he svAmI! anantakAL gayo, kAraN ke ekendriy, vikalendriy, panchendriy, sangnI, paryApta,
manuShyatva, AryakShetra, uttamakuL, sundararUp, indriyapaTutA, nirvyAdhi AyuShya, uttamabuddhi,

Page 29 of 565
PDF/HTML Page 43 of 579
single page version

saddharmanun shravaN, grahaN, dhAraN, shraddhAn, sanyam, viShayasukhathI vyAvartan, krodhAdi kaShAyathI
nivartan A sarva uttarottar ekabIjAthI durlabh chhe.
1.....
A badhAthI shuddhAtmabhAvanAsvarUp vItarAg nirvikalpa samAdhinI prApti atyant durlabh chhe;
vItarAg nirvikalpa samAdhirUp bodhithI pratipakShabhUt mithyAtva, viShay, kaShAy Adi
vibhAvapariNAmonI prabaLatA chhe tethI samyagdarshan, samyaggnAn ane samyakchAritranI prApti thatI
nathI. temanun pAmavun te bodhi chhe ane temanun ja nirvighnapaNe bhavAntaramAn dhArI rAkhavun te samAdhi
chhe. A pramANe bodhi ane samAdhinun lakShaN yathAsambhav sarvatra jANavun.
kahyun chhe ke
व्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्तनेषु परंपरया दुर्लभेषु कथंभूतेषु लब्धेष्वपि तपोभावनाधर्मेषु
शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदुर्लभत्वात् तदपि
कथम् वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबोधिप्रतिपक्षभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामानां
प्रबलत्वादिति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं
adhikAr-1 dohA-9 ]paramAtmaprakAsha [ 29
नीरोग, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है कभी इतनी वस्तुओंकी भी प्राप्ति हो
जावे, तो श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्मका ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय-सुखोंसे
निवृत्ति, क्रोधादि कषायोंका अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट
शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस
समाधिके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिका विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता
है
इसीलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है,
उस बोधिका जो निर्विषयपनेसे धारण वही समाधि है इस तरह बोधि समाधिका लक्षण
सब जगह जानना चाहिये इस बोधि समाधिका मुझमें अभाव है, इसीलिये संसार-समुद्रमें
भटकते हुए मैंने वीतराग परमानंद सुख नहीं पाया, किन्तु उस सुखसे विपरीत (उल्टा)
आकुलताके उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकारका शरीरका तथा मनका दुःख ही चारों गतियोंमें
भ्रमण करते हुए पाया
इस संसार-सागरमें भ्रमण करते मनुष्य-देह आदिका पाना बहुत
दुर्लभ है, परंतु उसको पाकर कभी (आलसी) नहीं होना चाहिये जो प्रमादी हो जाते
हैं, वे संसाररूपी वनमें अनंतकाल भटकते हैं ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें भी कहा है
1. शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीत=शुद्धात्मभावनालक्षणवीत
2. je sanskRit TIkAno artha samajANo nathI teno artha lakhyo nathI.

Page 30 of 565
PDF/HTML Page 44 of 579
single page version

‘‘इत्यातिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात्
संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’
arthaatidurlabh bodhi pAmIne jo jIv pramAdI thAy to te varAk (bichAro, rank)
puruSh sansArarUpI bhayankar araNyamAn ghaNA kAL sudhI bhramaN kare chhe.
paN bodhisamAdhinA abhAve pUrvokta sansAramAn bhramaN karatA men shuddha AtmasamAdhithI utpanna
vItarAg paramAnandarUp sukhAmRut jarAy paN prApta na karyun, paN tenAthI viparIt AkuLatAnA utpAdak
vividh shArIrik ane mAnasik chAr gatinA bhramaNamAn thatAn dukho ja prApta karyA.
atre je vItarAg paramAnandarUp sukhanI prApti na thatAn, A jIv anAdikALathI bhaTakyo
te ja sukh upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 9.
have je paramAtma svabhAvanI prApti na thatAn, jIv anAdikALathI bhaTakyo te
paramAtmasvabhAvanun vyAkhyAn shrIprabhAkarabhaTTa pUchhe chhe
समाधिरिति बोधिसमाधिलक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् तथा चोक्त म्‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां
बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ।।’’ परं किंतु
बोधिसमाध्यभावे पूर्वोक्त संसारे भ्रमतापि मया शुद्धात्मसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखामृतं
किमपि न प्राप्तं किंतु तद्विपरीतमाकुलत्वोत्पादकं विविधशारीरमानसरूपं चतुर्गतिभ्रमणसंभवं
दुःखमेव प्राप्तमिति
अत्र यस्य वीतरागपरमानन्दसुखस्यालाभे भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयमिति
भावार्थः ।।९।।
अथ यस्यैव परमात्मस्वभावस्यालाभेऽनादिकाले भ्रमितो जीवस्तमेव पृच्छति
१०) चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ।।१०।।
30 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-10
‘‘इत्यतिदुर्लभरूपां’’ इत्यादि इसका अभिप्राय ऐसा है, कि यह महान दुर्लभ जो
जैनशास्त्रका ज्ञान है, उसको पाके जो जीव प्रमादी हो जाता है, वह रंक पुरुष बहुत
कालतक संसाररूपी भयानक वनमें भटकता है
सारांश यह हुआ, कि वीतराग परमानंद
सुखके न मिलनेसे यह जीव संसाररूपी वनमें भटक रहा है, इसलिये वीतराग परमानंद
सुख ही आदर करने योग्य है
।।९।।
आगे जिस परमात्म-स्वभावके अलाभमें यह जीव अनादि कालसे भटक रहा था, उसी
परमात्मस्वभावका व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है

Page 31 of 565
PDF/HTML Page 45 of 579
single page version

bhAvArthachAr gatinAn dukhathI tapta jIvonI AhArasangnA, bhayasangnA, maithunasangnA,
ane parigrahasangnA AdirUp samasta vibhAv rahit tathA vItarAg nirvikalpa samAdhinA baLathI
param AtmAthI utpanna ek (kevaL) sahajAnandarUp sukhAmRutathI santuShTa jIvonAn chAragatinAn
dukhanA vinAshak, chidAnand jeno ek svabhAv chhe evA je koI paramAtmA chhe, te ja paramAtmAne
he bhagavAn! kRupA karIne kaho. ahIn je paramasamAdhimAn rat jIvonAn chAr gatinAn dukhano
vinAshak chhe te ja paramAtmasvabhAv sarva prakAre upAdey chhe. 10.
चतुर्गतिदुःखैः तप्तानां यः परमात्मा कश्चित्
चतुर्गतिदुःखविनाशकरः कथय प्रसादेन तमपि ।।१०।।
चउगइदुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ चतुर्गतिदुःखतप्तानां जीवानां यः
कश्चिच्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा पुनरपि कथंभूतः चउगइदुक्खविणासयरु आहारभय-
मैथुनपरिग्रहसंज्ञारूपादिसमस्तविभावरहितानां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन परमात्मोत्थ-
सहजानन्दैकसुखामृतसंतुष्टानां जीवानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः
कहहु पसाएं सो वि हे भगवन्
तमेव परमात्मानं महाप्रसादेन कथयति
अत्र योऽसौ परमसमाधिरतानां चतुर्गति-
दुःखविनाशकः स एव सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।१०।। एवं त्रिविधात्म
adhikAr-1 dohA-10 ]paramAtmaprakAsha [ 31
गाथा१०
अन्वयार्थ :[चतुर्गतिदु:खै: ] देवगति, मनुष्यगति, नरकगति, तिर्यंचगतियोंके
दुःखोंसे [तप्तानां ] तप्तायमान (दुःख) संसारी जीवोंके [चतुर्गतिदु:खविनाशकर: ] चार
गतियोंके दुःखोंका विनाश करनेवाला [य
: कश्चित् ] जो कोई [परमात्मा ] चिदानंद परमात्मा
है, [तमपि ] उसको [प्रसादेन ] कृपा करके [कथय ] हे श्रीगुरू, तुम कहो
भावार्थ :वह चिदानंद शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहके
भेदरूप संज्ञाओंको आदि लेके समस्त विभावों से रहित, तथा वीतराग निर्विकल्पसमाधिके
बलसे निज स्वभावकर उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृतकर संतुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे
निकट संसारी
जीवोंके चतुर्गतिका भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म-जरा-मरणरूप दुःखका
नाशक है, तथा वह परमात्मा निज स्वरूप परमसमाधिमें लीन महामुनियोंको निर्वाणका
देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्माका स्वरूप आपके
प्रसादसे सुनना चाहता हूँ
इसलिये कृपाकर आप कहो इस प्रकार प्रभाकर भट्टने श्री
योगींद्रदेवसे विनती की ।।१०।।

Page 32 of 565
PDF/HTML Page 46 of 579
single page version

प्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये प्रभाकरभट्ट विज्ञप्तिकथनमुख्यत्वेन दोहकसूत्रत्रयं गतम्
अथ प्रभाकरभट्टविज्ञापनानन्तरं श्रीयोगीन्द्रदेवास्त्रिविधात्मानं कथयन्ति
११) पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावेँ चित्ति धरेवि
भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि (विँ?) ।।११।।
पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुरून् भावेन चित्ते धृत्वा
भट्टप्रभाकर निश्रृणु त्वम् आत्मानं त्रिविधं कथयामि ।।११।।
पुणु पुणु पणविवि पंचगुरु भावें चित्ति धरेवि पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुरूनहम् किं
कृत्वा भावेन भक्ति परिणामेन मनसि धृत्वा पश्चात् भट्टपहायर णिसुणि तुहुं अप्पा तिविहु
कहेवि हे प्रभाकरभट्ट ! निश्चयेन श्रृणु त्वं त्रिविधमात्मानं कथयाम्यहमिति बहिरात्मान्तरात्म-
परमात्मभेदेन त्रिविधात्मा भवति अयं त्रिविधात्मा यथा त्वया पृष्टो हे प्रभाकरभट्ट तथा
32 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-11
इस कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे हुए आगे प्रभाकरभट्टकी विनती सुनकर
श्रीयोगीन्द्रदेव तीन प्रकारकी आत्माका स्वरूप कहते हैं
गाथा११
अन्वयार्थ :[पुन: पुन: ] बारम्बार [पञ्चगुरुन् ] पंचपरमेष्ठियोंको [प्रणम्य ]
नमस्कारकर और [भावेन ] निर्मल भावोंकर [चित्ते ] मनमें [धृत्वा ] धारण करके [‘अहं’ ]
मैं [त्रिविधं ] तीन प्रकारके [आत्मानं ] आत्माको [कथयामि ] कहता हूँ, सो [हे प्रभाकर
भट्ट ] हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं ] तू [निशृणु ] निश्चयसे सुन
भावार्थ :बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माके भेदकर आत्मा तीन तरहका है, सो हे
प्रभाकरभट्ट’ जैसे तूने मुझसे पूछा है, उसी तरहसे भव्योंमें महाश्रेष्ठ भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती,
e pramANe traN prakAranA AtmAnA pratipAdak pratham mahAdhikAramAn shrI prabhAkarabhaTTanI
vinantInA kathananI mukhyatAthI traN dohak sUtro samApta thayAn.
have shrI prabhAkarabhaTTanI vinantI sAmbhaLIne shrI yogIndradev traN prakAranA AtmAnun svarUp
kahe chhe
bhAvArthabahirAtmA, antarAtmA, ane paramAtmAnA bhedathI traN prakAranA AtmA
chhe. to he prabhAkar bhaTTa! te jevI rIte A traN prakArano AtmA mane puchhyo tevI rIte
bhedAbhedaratnatrayanI bhAvanA jemane priy chhe evA, paramAtmAnI bhAvanAthI utpanna vItarAg

Page 33 of 565
PDF/HTML Page 47 of 579
single page version

भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियाः परमात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दसुधारसपिपासिता वीतराग-
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर-राम
-पाण्डव-श्रेणिकादयोऽपि वीतरागसर्वज्ञतीर्थंकरपरमदेवानां समवसरणे सपरिवारा भक्ति -
भरनमितोत्तमाङ्गाः सन्तः सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति
अत्र
त्रिविधात्मस्वरूपमध्ये शुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।११।।
paramAnandarUp sudhArasanA pipAsu, vItarAg nirvikalpa samAdhithI samutpanna sukhAmRutathI viparIt,
nArakAdi dukhathI bhayabhIt, bhavyomAn mahA shreShTha bharat, sagar, rAmachandra, pAnDav, shreNik, vagere
paN parivAr sahit, vItarAg sarvagna tIrthankar paramadevanA samavasaraNamAn atyant bhaktibhAvathI
mastak namAvatA sarva AgamonA prashno karyA pachhI, sarva prakAre upAdeyabhUt shuddha AtmAnun svarUp
ja pUchhatAn hatAn.
ahIn traN prakAranA AtmAnA svarUpamAnthI shuddha AtmAnun svarUp upAdey chhe evo bhAvArtha
chhe. 11.
adhikAr-1 dohA 11 ]paramAtmaprakAsha [ 33
रामचंद्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक आदि : बड़े बड़े राजा, जिनके भक्ति-भारकर नम्रीभूत
मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आके, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे
सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते
थे
उसके उत्तरमें भगवन्ने यही कहा, कि आत्म-ज्ञानके समान दूसरा कोई सार नहीं है
भरतादि बड़े बड़े श्रोताओंमेंसे भरतचक्रवर्तीने श्रीऋषभदेव भगवानसे पूछा, सगरचक्रवर्तीने श्री
अजितनाथसे, रामचंद्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे,
पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवान्से और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा
कैसे हैं ये श्रोता
जिनको निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयकी भावना प्रिय है, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न
वीतराग परमानंदरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो
सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं
जिस
तरह इन भव्य जीवोंने भगवंतसे पूछा, और भगवंतने तीन प्रकार आत्माका स्वरूप कहा, वैसे
ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूँ
सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्माके स्वरूपोंसे
शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य है जो मोक्षका मूलकारण रत्नत्रय
कहा है, वह मैंने निश्चयव्यवहार दोनों तरहसे कहा है, उसमें अपने स्वरूपका श्रद्धान, स्वरूपका
ज्ञान और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है,
और देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा, नवतत्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये
व्यवहाररत्नत्रय हैं, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है
इनमेंसे भेदरत्नत्रय तो साधन हैं और
अभेदरत्नत्रय साध्य हैं ।।११।।

Page 34 of 565
PDF/HTML Page 48 of 579
single page version

have traN prakAranA AtmAne jANIne bahirAtmAne chhoDIne svasamvedanagnAn vaDe tun param
paramAtmAne bhAv em kahe chhe
bhAvArthaahIn svasamvedanagnAn vaDe je A paramAtmA jaNAyo te ja upAdey chhe te
bhAvArtha chhe.
अथ त्रिविधात्मानं ज्ञात्वा बहिरात्मानं विहाय स्वसंवेदनज्ञानेन परं परमात्मानं भावय
त्वमिति प्रतिपादयति
१२) अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ
मुणि सण्णाणेँ णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ।।१२।।
आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु मूढं मुञ्च भावम्
मन्यस्व स्वज्ञानेन ज्ञानमयं यः परमात्मस्वभावः ।।१२।।
अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ हे प्रभाकरभट्ट आत्मानं त्रिविधं मत्वा
लघु शीघ्रं मूढं बहिरात्मस्वरूपं भावं परिणामं मुञ्च मुणि सण्णाणें णाणमउ जो परमप्पसहाउ
पश्चात् त्रिविधात्मपरिज्ञानानन्तरं मन्यस्व जानीहि केन करणभूतेन अन्तरात्मलक्षण-
34 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-12
आगे तीन प्रकार आत्माको जानकर बहिरात्मपना छोड़ स्वसंवेदन ज्ञानकर तू
परमात्माका ध्यान कर, इसे कहते हैं
गाथा१२
अन्वयार्थ :[आत्मानं त्रिविधं मत्वा ] हे प्रभाकरभट्ट, तू आत्माको तीन प्रकारका
जानकर [मूढं भावम् ] बहिरात्म स्वरूप भावको [लघु ] शीघ्र ही [मुञ्च ] छोड़, और [यः ]
जो [परमात्मस्वभावः ] परमात्माका स्वभाव है, उसे [स्वज्ञानेन ] स्वसंवेदनज्ञानसे अंतरात्मा
होता हुआ [मन्यस्व ] जान
वह स्वभाव [ज्ञाननयः ] केवलज्ञानकर परिपूर्ण है
भावार्थ :जो वीतराग स्वसंवेदनकर परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है
यहाँ शिष्यने प्रश्न किया था, जो स्वसंवेदन अर्थात् अपनेकर अपनेको अनुभवना इसमें वीतराग
विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्वसंवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही
इसका
समाधान श्रीगुरुने कियाकि विषयोंके आस्वादनसे भी उन वस्तुओंके स्वरूपका जानपना होता
है, परंतु रागभावकर दूषित है, इसलिये निजरस आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशामें स्वरूपका
यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है
तथा स्वसंवेदनज्ञान प्रथम अवस्थामें चौथे पाँचवें
गुणस्थानवाले गृहस्थके भी होता है, वहाँ पर सराग देखनेमें आता है, इसलिये रागसहित

Page 35 of 565
PDF/HTML Page 49 of 579
single page version

वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन कं जानीहि यं परात्मस्वभावम् किंविशिष्टम् ज्ञानमयं
केवलज्ञानेन निर्वृत्तमिति अत्र योऽसौ स्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मा ज्ञातः स एवोपादेय इति
भावार्थः स्वसंवेदनज्ञाने वीतरागविशेषणं किमर्थमिति पूर्वपक्षः, परिहारमाहविषयानुभव-
adhikAr-1 dohA-12 ]paramAtmaprakAsha [ 35
अवस्थाके निषेधके लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है रागभाव है, वह कषायरूप
है, इस कारण जबतक मिथ्यादृष्टिके अनंतानुबंधीकषाय है, तबतक तो बहिरात्मा है, उसके तो
स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दृष्टिके
मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीके अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषायकी तीन चौकड़ी
बाकी रहनेसे द्वितीयाके चंद्रमाके समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावकके पाँचवें
गुणस्थानमें दो चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया,
इस कारण स्वसंवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ीके रहनेसे मुनिके समान प्रकाश नहीं
हुआ
मुनिके तीन चौकड़ीका अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल हो गया, तथा वीतरागभाव
प्रबल हुआ, वहाँपर स्वसंवेदनज्ञानका अधिक प्रकाश हुआ, परंतु चौथी चौकड़ी बाकी है,
इसलिये छट्ठे गुणस्थानवाले मुनिराज सरागसंयमी हैं
वीतरागसंयमीके जैसा प्रकाश नहीं है
सातवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ी मंद हो जाती है, वहाँपर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यानमें
आरूढ़ रहते हैं, सातवेंसे छठे गुणस्थानमें आवें, तब वहाँपर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार
छट्ठा सातवाँ करते रहते हैं, वहाँपर अंतर्मुहूर्तकाल है
आठवें गुणस्थानमें चौथी चौकड़ी अत्यंत
मंद होजाती है, वहाँ रागभावकी अत्यंत क्षीणता होती है, वीतरागभाव पुष्ट होता है,
स्वसंवेदनज्ञानका विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी माँडनेसे शुक्लध्यान उत्पन्न होता है
श्रेणीके दो
भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम, क्षपकश्रेणीवाले तो उसी भवसे केवलज्ञान पाकर मुक्त हो
जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवेंसे ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ
एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवेंसे नवमें गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहाँ
कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलनलोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होनेसे
वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानका बहुत ज्यादा प्रकाश होता है,
परंतु एक संज्वलनलोभ बाकी रहनेसे वहाँ सरागचरित्र ही कहा जाता है
दशवें गुणस्थानमें
सूक्ष्मलोभ भी नहीं रहता, तब मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके नष्ट हो जानेसे वीतरागचारित्र की
सिद्धि हो जाती है
दशवेंसे बारहवेंमें जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, वहाँ निर्मोह
pUrvapakSha :::::svasamvedanagnAnane ‘vItarAg’ visheShaN shA mATe lagADyun chhe?
tenun samAdhAAn :viShayonA anubhavarUp svasamvedanagnAn sarAg paN jovAmAn Ave chhe
tethI tenA niShedh arthe ‘vItarAg’ evun visheShaN gnAnane lagADyun chhe evo abhiprAy chhe. 12.

Page 36 of 565
PDF/HTML Page 50 of 579
single page version

रूपस्वसंवेदनज्ञानं सरागमपि द्रश्यते तन्निषेधार्थमित्यभिप्रायः ।।१२।।
अथ त्रिविधात्मसंज्ञां बहिरात्मलक्षणं च कथयति
१३) मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ ।।१३।।
मूढो विचक्षणो ब्रह्म परः आत्मा त्रिविधो भवति
देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो मूढो भवति ।।१३।।
मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ मूढो मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा,
36 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-13
वीतरागीके शुक्लध्यानका दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यातचारित्र हो जाता है
बारहवेंके अंतमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीनोंका विनाश कर डाला, मोहका नाश
पहले ही हो चुका था, तब चारों घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान प्रगट
होता है, वहाँपर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञानका पूर्ण प्रकाश हो जाता है,
निःकषाय है
वह चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो अंतरात्मा है, उसके
गुणस्थान प्रति चढ़ती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्माके है, यह सारांश समझना ।।१२।।
तीन प्रकारके आत्माके भेद हैं, उनमेंसे प्रथम बहिरात्माका लक्षण कहते हैं
गाथा१३
अन्वयार्थ :[मूढः ] मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा, [विचक्षणः ]
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप परिणमन करता हुआ अंतरात्मा [ब्रह्मा परः ] और शुद्ध
-बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित, अनंत ज्ञानादि सहित, भावद्रव्य कर्म नोकर्म रहित
आत्मा इसप्रकार [आत्मा ] आत्मा [त्रिविधो भवति ] तीन तरहका है, अर्थात् बहिरात्मा, अंतरात्मा,
परमात्मा, ये तीन भेद हैं
इनमेंसे [यः ] जो [देहमेव ] देहको ही [आत्मानं ] आत्मा [मनुते ]
मानता है, [स जनः ] वह प्राणी [मूढः ] बहिरात्मा [भवति ] है, अर्थात् बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि है
भावार्थ :जो देहको आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न
have traN prakAranA AtmAnI sangnA ane bahirAtmAnun lakShaN kahe chhe.
bhAvArthamUDh mithyAtva rAgAdirUpe pariNamato bahirAtmA chhe, vichakShaN vItarAg

Page 37 of 565
PDF/HTML Page 51 of 579
single page version

nirvikalpa svasamvedanagnAnarUpe pariNamato antarAtmA chhe, param bhAvakarma, dravyakarma, nokarmarahit
-brahma-shuddhabuddha-ek svabhAvI paramAtmA chhe. shuddha, buddha svabhAvanun svarUp kahevAmAn Ave chhe.
shuddha arthAt rAgAdithI rahit, buddha arthAt anantagnAnAdi chatuShTay sahit, e pramANe shuddha,
buddha, svabhAvanun svarUp sarvatra jANavun. e rIte AtmA traN prakAre chhe.
vItarAganirvikalpasamAdhithI utpanna, ek (kevaL) sadAnandarUp, sukhAmRut svabhAvane nahi
prApta karato, je dehane ja AtmA mAne chhe te mUDhAtmA chhe.
ahIn (A traN prakAranA AtmAmAnthI) bahirAtmA hey chhe, tenI apekShAe jo ke
antarAtmA upAdey chhe to paN sarva prakAre upAdeyabhUt paramAtmAnI apekShAe te hey chhe. evo
tAtparyArtha chhe. 13.
have paramasamAdhimAn sthit thayelo je dehathI bhinna gnAnamay paramAtmAne jANe chhe te
antarAtmA chhe em kahe chhe
विचक्षणो वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतोऽन्तरात्मा, ब्रह्म शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा
शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं कथ्यतेशुद्धो रागादिरहितो बुद्धोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित इति
शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम् स च कथंभूतः ब्रह्म परमो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म-
रहितः एवमात्मा त्रिविधो भवति देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसदानन्दैकसुखामृतस्वभावमलभमानः सन् देहमेवात्मानं यो मनुते
जानाति स जनो लोको मूढात्मा भवति इति
अत्र बहिरात्मा हेयस्तदपेक्षया
यद्यप्यन्तरात्मोपादेयस्तथापि सर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मापेक्षया स हेय इति तात्पर्यार्थः ।।१३।।
अथ परमसमाधिस्थितः सन् देहविभिन्नं ज्ञानमयं परमात्मानं योऽसौ जानाति
सोऽन्तरात्मा भवतीति निरूपयति
१४) देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।।
adhikAr-1 dohA-13 ]paramAtmaprakAsha [ 37
हुए परमानंद सुखामृतको नहीं पाता हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है इन तीन प्रकारके आत्माओंमेंसे
बहिरात्मा तो त्याज्य ही हैआदर योग्य नहीं है इसकी अपेक्षा यद्यपि अंतरात्मा अर्थात्
सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरहसे उपादेय (ग्रहण करने योग्य) जो परमात्मा उसकी
अपेक्षा वह अंतरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना
।।१३।।
आगे परमसमाधिमें स्थित, देहसे भिन्न ज्ञानमयी (उपयोगमयी) आत्माको जो जानता
है, वह अन्तरात्मा है, ऐसा कहते हैं

Page 38 of 565
PDF/HTML Page 52 of 579
single page version

bhAvArthaje koI vItarAg nirvikalpa sahaj AnandarUp ek (kevaL) shuddhAtmAnubhUti
jenun lakShaN chhe evI paramasamAdhimAn sthit thayo thako, anupacharit asadbhUt vyavahAranayathI
dehathI abhinna ane nishchayanayathI dehathI bhinna, gnAnamay kevaLagnAnathI rachAyel paramAtmAne jANe
chhe, te ja panDit-vivekI antarAtmA chhe
1‘‘कः पण्डितो विवेकी’’ ‘‘इति वचनात्’’ (artha‘‘panDit
koN? to ke je vivekI chhe,’’) evun Agamanun vachan chhe.
e pramANe antarAtmA heyarUp chhe, je paramAtmA chhe te ja sAkShAt upAdey chhe evo
bhAvArtha chhe. 14.
have samasta paradravyane chhoDIne jeNe kevaLagnAnamay, karmarahit shuddha AtmAne prApta karyo
देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति
परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ।।१४।।
देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं
निश्चयनयेन भिन्नं ज्ञानमयं केवलज्ञानेन निर्वृत्तं परमात्मानं योऽसौ जानाति परमसमाहिपरिट्ठियउ
पंडिउ सो जि हवेइ वीतरागनिर्विकल्पसहजानन्दैकशुद्धात्मानुभूतिलक्षणपरमसमाधिस्थितः सन्
पण्डितोऽन्तरात्मा विवेकी स एव भवति
‘‘कः पण्डितो विवेकी’’ इति वचनात्, इति
अन्तरात्मा हेयरूपो, योऽसौ परमात्मा भणितः स एव साक्षादुपादेय इति भावार्थः ।।१४।।
अथ समस्तपरद्रव्यं मुक्त्वा केवलज्ञानमयकर्मरहितशुद्धात्मा येन लब्धः स
38 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-14
1. amodh varSha, prashnottaramAlA 5
गाथा१४
अन्यवयार्थ [यः ] जो पुरुष [परमात्मानं ] परमात्माको [देहविभिन्नं ] शरीरसे जुदा
[ज्ञानमयं ] केवलज्ञानकर पूर्ण [पश्यति ] जानता है, [स एव ] वही [परमसमाधिपरिस्थितः ]
परमसमाधिमें तिष्ठता हुआ [पण्डितः ] अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी [भवति ] है
भावार्थ :यद्यपि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयसे अर्थात् इस जीवके परवस्तुका
संबंध अनादिकालका मिथ्यारूप होनेसे व्यवहारनयकर देहमयी है, तो भी निश्चयनयकर सर्वथा
देहादिकसे भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निज शुद्धात्माको वीतरागनिर्विकल्प सहजानंद
शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप परमसमाधिमें स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा
कहलाता है
वह परमात्मा ही सर्वथा आराधने योग्य है, ऐसा जानना ।।१४।।
आगे सब पररव्योंको छोड़कर कर्मरहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा

Page 39 of 565
PDF/HTML Page 53 of 579
single page version

chhe te paramAtmA chhe em kahe chhe
bhAvArthajeNe deh, rAgAdik samasta paradravyane chhoDIne gnAnAvaraNAdi dravyakarma,
bhAvakarma rahit vartatA thakA kevaLagnAnathI rachAyel, AtmAne prApta karyo chhe teneevA AtmAne
-paramAtmAne he prabhAkarabhaTTa! tun mAyA, mithyAtva, nidAn, e traN shalyanA svarUpathI mAnDIne
samastavibhAvapariNAm rahit man vaDe jAN. ahIn uktalakShaNayukta paramAtmA upAdey chhe, ane
परमात्मा भवतीति कथयति
१५) अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्मविमुक्केँ जेण
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण ।।१५।।
आत्मा लब्धो ज्ञानमयः कर्मविमुक्ते न येन
मुक्त्वा सकलमपि द्रव्यं परं तं परं मन्यस्व मनसा ।।१५।।
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्मविमुक्कें जेण आत्मा लब्धः प्राप्तः किंविशिष्टः ज्ञानमयः
केवलज्ञानेन निर्वृत्तः कथंभूतेन सता ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभावकर्मरहितेन येन किं कृत्वात्मा
लब्धः मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण मुक्त्वा परित्यज्य किम् परं
द्रव्यं देहरागादिकम् सकलं कतिसंख्योपेतं समस्तमपि तमित्थंभूतमात्मानं परं परमात्मानमिति
मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट केन कृत्वा मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयस्वरूपादिसमस्तविभाव-
परिणामरहितेन मनसेति अत्रोक्त लक्षणपरमात्मा उपादेयो ज्ञानावरणादिसमस्तविभावरूपं परद्रव्यं
adhikAr-1 dohA-15 ]paramAtmaprakAsha [ 39
लिया है, वही परमात्मा है, ऐसा कहते हैं
गाथा१५
अन्वयार्थ :[येन ] जिसने [कर्मविमुक्तेन ] ज्ञानावरणादि कर्मोंका नाश करके
[सकलमपि परं द्रव्यं ] और सब देहादिक परद्रव्योंको [मुक्त्वा ] छोड़ करके [ज्ञानमयः ]
केवलज्ञानमयी [आत्मा ] आत्मा [लब्धः ] पाया है, [तं ] उसको [मनसा ] शुद्ध मनसे [परं ]
परमात्मा [मन्यस्व ] जानो
भावार्थ :जिसने देहादिक समस्त परद्रव्यको छोड़कर ज्ञानावरणादि, द्रव्यकर्म,
रागादिक भावकर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीनोंसे रहित केवलज्ञानमयी अपने आत्माका लाभ कर
लिया है, ऐसे आत्माको हे प्रभाकरभट्ट, तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव
(विकार) परिणामोंसे रहित निर्मल चित्तसे परमात्मा जान, तथा केवलज्ञानादि गुणोंवाला

Page 40 of 565
PDF/HTML Page 54 of 579
single page version

gnAnAvaraNAdi samasta vibhAvarUp paradravya hey chhe evo bhAvArtha chhe. 15.
e prakAre traN prakAranA AtmAnA pratipAdak mahAdhikAramAn sankShepathI traN prakAranA
AtmAnA sUchananI mukhyatAthI pAnch sUtro samApta thayAn.
tyArapachhI muktigat kevaLagnAnAdinI vyaktirUp siddhajIvanA vyAkhyAnanI mukhyatAthI dash
dohak sUtrono prArambh karavAmAn Ave chhe te A pramANe
lakShane (manane, chittane) alakShyarUpe(paramAtmArUpe) rAkhIne hariharAdi vishiShTa puruSho jenun
dhyAn kare chhe, te paramAtmAne jAN em kahe chhe
तु हेयमिति भावार्थः ।।१५।। एवंत्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये संक्षेपेण
त्रिविधात्मसूचनमुख्यतया सूत्रपञ्चकं गतम् तदनन्तरं मुक्ति गतकेवलज्ञानादिव्यक्ति रूप-
सिद्धजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन दोहकसूत्रदशकं प्रारभ्यते तद्यथा
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा हरिहरादिविशिष्टपुरुषा यं ध्यायन्ति तं परमात्मानं जानीहीति
प्रतिपादयति
१६) तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिँ जो जि
लक्खु अलक्खेँ धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ।।१६।।
त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरा ध्यायन्ति यमेव
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।१६।।
40 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-16
परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है और ज्ञानावरणादिरूप सब परवस्तु त्यागने योग्य है, ऐसा
समझना चाहिए
।।१५।।
इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें त्रिविध
आत्माके कथनकी मुख्यतासे तीसरे स्थलमें पाँच दोहा-सूत्र कहे अब मुक्तिको प्राप्त हुए
केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर दश दोहासूत्र कहते हैं
इसमें पाँच दोहोंमें जो हरिहरादिक बड़े पुरुष अपना मन स्थिरकर जिस परमात्माका
ध्यान करते हैं, उसीका तू भी ध्यान कर, यह कहते हैं
गाथा१६
अन्वयार्थ :[हरिहराः ] इन्द्र, नारायण, और रुद्र वगैरेः बडे़ बड़े पुरुष
[त्रिभुवनवंदितं ] तीनलोककर वंदनीक (त्रैलोक्यनाथ) [सिद्धिगतं ] और केवलज्ञानादि
व्यक्तिरूप सिद्धपनेको प्राप्त [यं एव ] जिस परमात्माको ही [ध्यायन्ति ] ध्यावते हैं, [लक्ष्यं ]

Page 41 of 565
PDF/HTML Page 55 of 579
single page version

bhAvArthahari, har, hiraNyagarbha vagere sankalparUp chittane vItarAg nirvikalpa
nityAnand jeno ek svabhAv chhe evA paramAtmArUpe rAkhIne, pariShah, upasargathI akShubhit rAkhIne
traN lokathI vandit ane kevaLagnAnAdi vyaktirUp siddhapaNAne prApta je paramAtmAne dhyAve chhe te
paramAtmAne he prabhAkarabhaTTa! tun paramAtmA jAN arthAt bhAv.
ahIn kevaLagnAnAdi vyaktirUp muktigat paramAtmA jevo rAgAdithI rahit svashuddha AtmA
sAkShAt upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 16.
sankalpavikalpanun svarUp kahevAmAn Ave chhe. te A pramANeputra, strI, Adi chetan ane
(sonun, chAndI Adi) achetan bAhya dravyo ‘A mArAn chhe’ evA svarUpavALo (evA mamatvarUp
pariNAm te) sankalpa chhe, ‘hun sukhI, hun dukhI,’ ityAdi chittagat harShaviShAd Adi pariNAm te
vikalpa chhe. e pramANe sankalpavikalpanun svarUp sarvatra jANavun.
तिहुयणवंदिउ सिद्धिगउ हरिहर झायहिं जो जि त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं यं
केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपं परमात्मानं हरिहरहिरण्यगर्भादयो ध्यायन्ति किं कृत्वा पूर्वम् लक्खु
अलक्खें धरिवि थिरु लक्ष्यं संकल्परूपं चित्तम् अलक्ष्येण वीतरागनिर्विकल्पनित्यानन्दैक-
स्वभावपरमात्मरूपेण धृत्वा कथंभूतम् स्थिरं परीषहोपसर्गैरक्षुभितं मुणि परमप्पउ सो जि
तमित्थंभूतं परमात्मानं हे प्रभाकरभट्ट मन्यस्व जानीहि भावयेत्यर्थः अत्र केवलज्ञानादि-
व्यक्ति रूपमुक्ति गतपरमात्मसद्रशो रागादिरहितः स्वशुद्धात्मा साक्षादुपादेय इति भावार्थः ।।१६।।
संकल्पविकल्पस्वरूपं कथयते तद्यथाबहिर्द्रव्यविषये पुत्रकलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति
स्वरूपः संकल्पः, अहं सुखी दुःखीत्यादिचित्तगतो हर्ष- विषादादिपरिणामो विकल्प इति एवं
संक ल्पविकल्पलक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम्
adhikAr-1 dohA-16 ]paramAtmaprakAsha [ 41
अपने मनको [अलक्ष्ये ] वीतराग निर्विकल्प नित्यानंद स्वभाव परमात्मामें [स्थिरं धृत्वा ] स्थिर
करके [तमेव ] उसीको हे प्रभाकरभट्ट, तू [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान कर
चिंतवन कर
भावार्थ :केवलज्ञानादिरूप उस परमात्माके समान रागादि रहित अपने शुद्धात्माको
पहचान, वही साक्षात् उपादेय है, अन्य सब संकल्प विकल्प त्यागने योग्य हैं अब संकल्प
विकल्पका स्वरूप कहते हैं, कि जो बाह्यवस्तु पुत्र, स्त्री, कुटुंब, बांधव, आदि सचेतन पदार्थ,
तथा चांदी, सोना, रत्न, मणिके आभूषण आदि अचेतन पदार्थ हैं, इन सबको अपने समझे, कि
ये मेरे हैं, ऐसे ममत्व परिणामको संकल्प जानना
तथा मैं सुखी, मैं दुःखी, इत्यादि हर्ष-विषादरूप
परिणाम होना वह विकल्प है इस प्रकार संकल्प-विकल्पका स्वरूप जानना चाहिए ।।१६।।

Page 42 of 565
PDF/HTML Page 56 of 579
single page version

have nitya, niranjan, gnAnamay, paramAnand svabhAvarUp shAnt shivasvarUpane darshAvatAn kahe
chhe
bhAvArthadravyArthikanayathI avinashvar, rAgAdikarmamaLarUp anjanathI rahit hovAthI
niranjan, kevaLagnAnathI rachAyel hovAthI gnAnamay, shuddha AtmabhAvanAthI utpanna vItarAg
AnandarUpe pariNamelA hovAthI paramAnandasvabhAvI
evA je chhe te shAnt ane shiv chhe. he
prabhAkarabhaTTa! je vItarAg hovAthI shAnt chhe ane paramAnandarUp sukhamay hovAthI shivasvarUp
chhe. tevA ek (kevaL) shuddhabuddha svabhAvane tun jAN arthAt shuddhabuddha svabhAvane jAN e
abhiprAy chhe. 17.
अथ नित्यनिरञ्जनज्ञानमयपरमानन्दस्वभावशान्तशिवस्वरूपं दर्शयन्नाह
१७) णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंदसहाउ
जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ।।१७।।
नित्यो निरञ्जनो ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः
य ईद्रशः स शान्तः शिवः तस्य मन्यस्व भावम् ।।१७।।
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंदसहाउ द्रव्यार्थिकनयेन नित्योऽविनश्वरः, रागादिकर्म-
मलरूपाञ्जनरहितत्वान्निरञ्जनः, केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः, शुद्धात्मभावनोत्थ-
वीतरागानन्दपरिणतत्वात्परमानन्दस्वभावः
जो एहउ सो संतु सिउ य इत्थंभूतः स शान्तः शिवो
भवति हे प्रभाकरभट्ट तासु मुणिज्जहि भाउ तस्य वीतरागत्वात् शान्तस्य परमानन्दसुखमयत्वात्
शिवस्वरूपस्य त्वं जानीहि भावय
कं भावय शुद्धबुद्धैकस्वभावमित्यभिप्रायः ।।१७।।
42 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-17
आगे नित्य निरंजन ज्ञानमयी परमानंदस्वभाव शांत और शिवस्वरूपका वर्णन करते हैं
गाथा१७
अन्वयार्थ :[नित्यः ] द्रव्यार्थिकनयकर अविनाशी [निरञ्जनः ] रागादिक उपाधिसे
रहित अथवा कर्ममलरूपी अंजनसे रहित [ज्ञानमयः ] केवलज्ञानसे परिपूर्ण और
[परमानंदस्वभावः ] शुद्धात्म भावना कर उत्पन्न हुए वीतराग परमानंदकर परिणत है, [यः
द्रशः ] जो ऐसा है, [सः ] वही [शान्तः शिवः ] शांतरूप और शिवस्वरूप है, [तस्य ] उसी
परमात्माका [भावं ] शुद्ध बुद्ध स्वभाव [जानीहि ] हे प्रभाकरभट्ट, तू जान अर्थात् ध्यान
कर
।।१७।।

Page 43 of 565
PDF/HTML Page 57 of 579
single page version

have pharI te paramAtmAnun kathan kare chhe
bhAvArthaje anant gnAnAdi nijasvabhAvane chhoDato nathI ane kAmakrodhAdirUp
parabhAvane nijasvapaNe grahaN karato nathI, traNe jagatanA, traNe kALanA samasta vastusvabhAvane jANe
chhe, mAtra jANe chhe eTalun ja nahi paN dravyArthikanayathI nitya ja athavA nitya sarvakALane ja
niyamathI jANe chhe te shiv chhe ane shAnt chhe.
vaLI A ja jIv mukta-avasthAmAn vyaktirUp shAnt ane shivasangnA pAme chhe ane
sansAr-avasthAmAn shuddha dravyArthikanayathI shaktirUpe shAnt ane shivasangnA pAme chhe. kahyun paN chhe
पुनश्च किंविशिष्टो भवति
१८) जो णियभाउ ण परिहरइ जो परभाउ ण लेइ
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ।।१८।।
यो निजभावं न परिहरति यः परभावं न लाति
जानाति सकलमपि नित्यं परं स शिवः शान्तो भवति ।।१८।।
यः कर्ता निजभावमनन्तज्ञानादिस्वभावं न परिहरति यश्च परभावं
कामक्रोधादिरूपमात्मरूपतया न गृह्नाति पुनरपि कथंभूतः जानाति सर्वमपि
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिवस्तुस्वभावं न केवलं जानाति द्रव्यार्थिकनयेन नित्य एव अथवा नित्यं
सर्वकालमेव जानाति परं नियमेन
स इत्थंभूतः शिवो भवति शान्तश्च भवतीति किं च
अयमेव जीवः मुक्तावस्थायां व्यक्ति रूपेण शान्तः शिवसंज्ञां लभते संसारावस्थायां तु
adhikAr-1 dohA-18 ]paramAtmaprakAsha [ 43
आगे फि र उसी परमात्माका कथन करते हैं
गाथा१८
अन्वयार्थ :[यः ] जो [निज भावं ] अनंतज्ञानादिरूप अपने भावोंको [न
परिहरति ] कभी नहीं छोड़ता [यः ] और जो [परभावं ] कामक्रोधादिरूप परभावोंको [न
लाति ] कभी ग्रहण नहीं करता है, [सकलमपि ] तीन लोक तीन कालकी सब चीजोंको
[परं ] केवल [नित्यं ] हमेशा [जानाति ] जानता है, [सः ] वही [शिवः ] शिवस्वरूप तथा
[शांतः ] शांतस्वरूप [भवति ] है
भावार्थ :संसार अवस्थामें शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर सभी जीव शक्तिरूपसे परमात्मा

Page 44 of 565
PDF/HTML Page 58 of 579
single page version

ke ‘‘परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु ’’ (arthaparamArthanayathI sadA shivane namaskAr ho.)
vaLI kahyun paN chhe ke‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः
परिकीर्तितः ।।’’ (arthaje shivarUp, paramakalyANarUp, nirvANarUp, shAnt, akShay chhe ane jeNe
muktipad prApta karyun chhe te shiv chhe.) ‘‘ek jagatkartA, sarvavyApI, sadA mukta, shAnt, shiv
chhe’’ em anya koIpaN mAne chhe, paN em nathI.
ahIn A ja shAnt shivasangnAvALo shuddha AtmA ja upAdey chhe evo bhAvArtha
chhe. 18.
have pUrvokta niranjanasvarUpane traN sUtrothI pragaT kare chhe
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्ति रूपेणेति तथा चोक्त म्‘‘परमार्थनयाय सदा शिवाय नमोऽस्तु’’
पुनश्चोक्त म्‘‘शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् प्राप्तं मुक्ति पदं येन स शिवः
परिकीर्तितः ।।’’ अन्यः कोऽप्येको जगत्कर्ता व्यापी सदा मुक्त : शान्तः शिवोऽस्तीत्येवं न
अत्रायमेव शान्तशिवसंज्ञः शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।१८।।
अथ पूर्वोक्तं निरञ्जनस्वरूपं सूत्रत्रयेण व्यक्तीकरोति
१९) जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दु ण फासु
जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ।।१९।।
२०) जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु
जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ।।२०।।
२१) अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ
अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ।।२१।। तियलं
44 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-19-21
हैं, व्यक्तिरूपसे नहीं है ऐसा कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है‘शिवमित्यादि’ अर्थात्
परमकल्याणरूप, निर्वाणरूप, महाशांत अविनश्वर ऐसे मुक्ति-पदको जिसने पा लिया है, वही
शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत नैयायिकोंका तथा वैशेषिक
आदिका माना हुआ नहीं है
यह शुद्धात्मा ही शांत है, शिव है, उपादेय है ।।१८।।
आगे पहले कहे हुए निरंजनस्वरूपको तीन दोहा-सूत्रोंसे प्रगट करते हैं

Page 45 of 565
PDF/HTML Page 59 of 579
single page version

यस्य न वर्णो न गन्धो रसः यस्य न शब्दो न स्पर्शः
यस्य न जन्म मरणं नापि नाम निरञ्जनस्तस्य ।।१९।।
यस्य न क्रोधो न मोहो मदः यस्य न माया न मानः
यस्य न स्थानं न ध्यानं जीव तमेव निरञ्जनं जानीहि ।।२०।।
अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य अस्ति न हर्षो विषादः
अस्ति न एकोऽपि दोषो यस्य स एव निरञ्जनो भावः ।।२१।। त्रिकलम्
adhikAr-1 dohA-19-21 ]paramAtmaprakAsha [ 45
गाथा१९-२१
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस भगवान्के [वर्णः ] सफे द, काला, लाल, पीला,
नीलास्वरूप पाँच प्रकार वर्ण [न ] नहीं है, [गंधः रसः ] सुगंध दुर्गन्धरूप दो प्रकारकी गंध
[न ] नहीं है, मधुर, आम्ल (खट्टा), तिक्त, कटु, कषाय (क्षार) रूप पाँच रस नहीं हैं
[यस्य ] जिसके [शब्दः न ] भाषा अभाषारूप शब्द नहीं है, अर्थात् सचित्त अचित्त मिश्ररूप
कोई शब्द नहीं है, सात स्वर नहीं हैं, [स्पर्शःन ] शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, मृदु,
कठिनरूप आठ तरहका स्पर्श नहीं है, [यस्य ] और जिसके [जन्म न ] जन्म, जरा नहीं है,
[मरणं नापि ] तथा मरण भी नहीं है [तस्य ] उसी चिदानंद शुद्धस्वभाव परमात्माकी
[निरंजनं नाम ] निरंजन संज्ञा है, अर्थात् ऐसे परमात्माको ही निरंजनदेव कहते हैं
फि र वह
निरंजनदेव कैसा है[यस्य ] जिस सिद्ध परमेष्ठीके [क्रोधः न ] गुस्सा नहीं है, [मोहः मदः
न ] मोह तथा कुल जाति आदि आठ तरहका अभिमान नहीं है, [यस्य माया न मानः न ]
जिसके माया व मान कषाय नहीं है, और [यस्य ] जिसके [स्थानं न ] ध्यानके स्थान
नाभि, हृदय, मस्तक, आदि नहीं है [ध्यानं न ] चित्तके रोकनेरूप ध्यान नहीं है, अर्थात् जब
चित्त ही नहीं है तो रोकना किसका हो, [स एव ] ऐसे निजशुद्धात्माको हे जीव, तू जान
सारांश यह हुआ, कि अपनी प्रतिसिद्धता (बड़ाई) महिमा, अपूर्व वस्तुका मिलना, और देखे
सुने भोग इनकी इच्छारूप सब विभाव परिणामोंको छोड़कर अपने शुद्धात्माकी
अनुभूतिस्वरूप निर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर उस शुद्धात्माका अनुभव कर
पुनः वह निरंजन
कैसा है[यस्य ] जिसके [पुण्यं न पापं न अस्ति ] द्रव्यभावरूप पुण्य नहीं, तथा पाप
नहीं है, [हर्षः विषादः न ] रागद्वेषरूप खुशी व रंज नहीं हैं, [यस्य ] और जिसके [एकः
अपि दोषः ] क्षुधा (भूख) आदि दोषोंमेंसे एक भी दोष नहीं है [स एव ] वही शुद्धात्मा
[निरंजनः ] निरंजन है, ऐसा तू [भावय ] जान

Page 46 of 565
PDF/HTML Page 60 of 579
single page version

bhAvArthatraN sUtromAn kahevAyelA AvA lakShaNavALo tene ja niranjan jANavo,
par kalpit (bIjAoe kalpelo) evo bIjo koI paN niranjan nathI.
ahIn traN sUtromAn vishuddhagnAnadarshanasvabhAvavALo je (shuddha AtmA) niranjan kahevAmAn
Avyo te ja upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 19-21.
have mantravAdashAstramAn vyavahAradhyAnanA viShayabhUt je dhAraNA, dhyey, yantra, tantra, mantra,
यस्य मुक्तात्मनः शुक्लकृष्णरक्त पीतनीलरूपपञ्चप्रकारवर्णो नास्ति, सुरभिदुरभिरूपो-
द्विप्रकारो गन्धो नास्ति, कटुकतीक्ष्णमधुराम्लकषायरूपः पञ्चप्रकारो रसो नास्ति,
भाषात्मकाभाषात्मकादिभेदभिन्नः शब्दो नास्ति, शीतोष्णस्निग्धरूक्षगुरुलघुमृदुकठिनरूपोऽष्ट-
प्रकारः स्पर्शो नास्ति, पुनश्च यस्य जन्म मरणमपि नैवास्ति तस्य चिदानन्दैकस्वभावपरमात्मनो
निरञ्जनसंज्ञां लभते
।। पुनश्च किंरूपः स निरञ्जनः यस्य न विद्यते किं किं न विद्यते
क्रोधो मोहो विज्ञानाद्यष्टविधमदभेदो यस्यैव मायामानकषायो यस्यैव नाभिहृदय-
ललाटादिध्यानस्थानानि चित्तनिरोधलक्षणध्यानमपि यस्य न तमित्थंभूतं स्वशुद्धात्मानं हे जीव
निरञ्जनं जानीहि
ख्यातिपूजालाभद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपसमस्तविभावपरिणामान् त्यक्त्वा
स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वानुभवेत्यर्थः ।। पुनरपि किंस्वभावः स निरञ्जनः
यस्यास्ति न किं किं नास्ति द्रव्यभावरूपं पुण्यं पापं च ।। पुनरपि किं नास्ति रागरूपो
हर्षो द्वेषरूपो विषादश्च पुनश्च नास्ति क्षुधाद्यष्टादशदोषेषु मध्ये चैकोऽपि दोषः स एव
शुद्धात्मा निरञ्जन इति हे प्रभाकरभट्ट त्वं जानीहि स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणवीतराग-
निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वानुभवेत्यर्थः किं च एवंभूतसूत्रत्रयव्याख्यातलक्षणो निरञ्जनो ज्ञातव्यो
न चान्यः कोऽपि निरञ्जनोऽस्ति परकल्पितः अत्र सूत्रत्रयेऽपि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो योऽसौ
निरञ्जनो व्याख्यातः स एवोपादेय इति भावार्थः ।।१९२१।।
अथ धारणाध्येययन्त्रमन्त्रमण्डलमुद्रादिकं व्यवहारध्यानविषयं मन्त्रवादशास्त्रकथितं
46 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-19-21
svashuddha AtmAne vItarAg nirvikalpasamAdhimAn sthir thaIne anubhav e artha chhe.
भावार्थ :ऐसे निज शुद्धात्माके परिज्ञानरूप वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर
तू अनुभव कर इस प्रकार तीन दोहोंमें जिसका स्वरूप कहा गया है, उसे ही निरंजन जानो,
अन्य कोई भी परिकल्पित निरंजन नहीं है इन तीनों दोहोंमें जो निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाववाला
निरंजन कहा गया है, वही उपादेय है ।।१९-२१।।
आगे धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा आदिक व्यवहारध्यानके विषय मंत्रवाद