Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 22-25 (Adhikar 1),26 (Adhikar 1) Shaktirupe Badha Jivona Sharirama Parmatma Virajaman Chhe,27 (Adhikar 1),28 (Adhikar 1),29 (Adhikar 1),30 (Adhikar 1) Jiv Ane Ajivama Lakshana Bhedathi Bhed,31 (Adhikar 1) Shuddhatmanu Mukhya Lakshan,32 (Adhikar 1) Shuddhatmana Dhyanthi Sansar Bhramanani Rookavat,33 (Adhikar 1),34 (Adhikar 1),35 (Adhikar 1).

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manDal, mudrAdik kahyAn chhe teno nirdoSh paramAtmAnI ArAdhanArUp dhyAnamAn niShedh kare
chhe
bhAvArthaatIndriy sukhanA AsvAdathI viparIt jihvendriyanA viShayane, nirmoh shuddha
AtmasvabhAvathI pratikUL mohane, vItarAg sahajAnandarUp paramasamarasIbhAvasvarUp sukharasanA
anubhavathI pratipakSha nav prakAranA abrahmacharyavratane (kushIlane) ane vItarAg nirvikalpa samAdhinA
यत्तन्निर्दोषपरमात्माराधनाध्याने निषेधयन्ति
२२) जाणु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ।।२२।।
यस्य न धारणा ध्येयं नापि यस्य न यन्त्रं न मन्त्रः
यस्य न मण्डलं मुद्रा नापि तं मन्यस्व देवमनन्तम् ।।२२।।
यस्य परमात्मनो नास्ति न विद्यते किं किम् कुम्भकरेचकपूरकसंज्ञावायुधारणादिकं
प्रतिमादिकं ध्येयमिति पुनरपि किं किं तस्य अक्षररचनाविन्यासरूपस्तम्भनमोहनादिविषयं
यन्त्रस्वरूपं विविधाक्षरोच्चारणरूपं मन्त्रस्वरूपं च अपमण्डलवायुमण्डलपृथ्वीमण्डलादिकं गारुड-
मुद्राज्ञानमुद्रादिकं च यस्य नास्ति तं परमात्मानं देवमाराध्यं द्रव्यार्थिकनयेनानन्तमविनश्वरमनन्त-
adhikAr-1 dohA-22 ]paramAtmaprakAsha [ 47
शास्त्रमें कहे गए हैं, उन सबका निर्दोष परमात्माकी आराधनारूप ध्यानमें निषेध किया है
गाथा२२
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस परमात्माके [धारणा न ] कुंभक, पूरक, रेचक
नामवाली वायुधारणादिक नहीं है, [ध्येयं नापि ] प्रतिमा आदि ध्यान करने योग्य पदार्थ भी
नहीं है, [यस्य ] जिसके [यन्त्रः न ] अक्षरोंकी रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक यंत्र नहीं
है, [मन्त्रः न ] अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप मंत्र नहीं है, [यस्य ] और जिसके [मण्डलं
न ] जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक पवनके भेद नहीं हैं, [मुद्रा न ]
गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्रा नहीं हैं, [तं ] उसे [अनन्तम् ] द्रव्यार्थिकनयसे अविनाशी तथा
अनंत ज्ञानादिगुणरूप [देवम् मन्यस्व ]
परमात्मदेव जानो
भावार्थ :अतीन्द्रिय आत्मीक-सुखके आस्वादसे विपरीत जिह्वाइंद्रीके विषय
(रस) को जीतके निर्मोह शुद्ध स्वभावसे विपरीत मोहभावको छोड़कर और वीतराग सहज
आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसके अनुभवका शत्रु जो नौ तरहका कुशील उसको

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ghAtak mananA sankalpavikalpanI jALane jItIne he prabhAkarabhaTTa! tun shuddha AtmAno anubhav kar
evo bhAvArtha chhe. kahyun paN chhe ke
1
अक खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च गुत्तीसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं
सिज्झंति ।।
arthaindriyomAn jIbh prabaL chhe, gnAnAvaraNAdi ATh karmomAn mohanIy baLavAn chhe,
tathA pAnchamahAvratomAn brahmacharyavrat prabaL chhe ane traN guptiomAn manogupti pALavI kaThaN chhe;
e chAre bhAvo mushkelIthI siddha thAy chhe. 22.
have ved, shAstra indriyAdi paradravyanA avalambanane agochar ane vItarAg nirvikalpa
samAdhine gochar paramAtmAnun svarUp kahe chhe
ज्ञानादिगुणस्वभावं च मन्यस्व जानीहि अतीन्द्रियसुखास्वादविपरीतस्य जिह्वेन्द्रियविषयस्य
निर्मोहशुद्धात्मस्वभावप्रतिकूलस्य मोहस्य वीतरागसहजानन्दपरमसमरसीभावसुखरसानुभवप्रतिपक्षस्य
नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातकस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं
कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः
तथा चोक्त म्‘‘अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी
तह वयाण बंभं च गुत्तिसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं सिज्झंति ।।’’ ।।२२।।
अथ वेदशास्त्रेन्द्रियादिपरद्रव्यालम्बनाविषयं च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिविषयं च
परमात्मानं प्रतिपादयन्ति
२३) वेयहिँ सत्थहिँ इंदियहिँ जो जिय मुणहु ण जाइ
णिम्मलझाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।।२३।।
48 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-22
1. anagAr dharmAmRut pRu. 262, hindI pRu. 403
तथा निर्विकल्पसमाधिके घातक मनके संकल्प विकल्पोंको त्यागकर हे प्रभाकर भट्ट, तू
शुद्धात्माका अनुभव कर
ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है‘‘अक्खाणेति’’ इसका आशय
इस तरह है, कि इन्द्रियोंमें जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंमें मोह कर्म बलवान
होता है, पाँच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमेंसे मनोगुप्ति पालना कठिन
है
ये चार बातें मुश्किलसे सिद्ध होती हैं ।।२२।।
आगे वेद, शास्त्र, इन्द्रियादि परद्रव्योंके अगोचर और वीतराग निर्विकल्प समाधिके
गोचर (प्रत्यक्ष) ऐसे परमात्माका स्वरूप कहते हैं

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वेदैः शास्त्रैरिन्द्रियैः यो जीव मन्तुं न याति
निर्मलध्यानस्य यो विषयः स परमात्मा अनादिः ।।२३।।
वेदशास्त्रेन्द्रियैः कृत्वा योऽसौ मन्तुं ज्ञातुं न याति पुनश्च कथंभूतो यः
मिथ्याविरतिप्रमादकषाययोगाभिधानपञ्चप्रत्ययरहितस्य निर्मलस्य स्वशुद्धात्मसंवित्ति-
संजातनित्यानन्दैकसुखामृतास्वादपरिणतस्य ध्यानस्य विषयः
पुनरपि कथंभूतो यः अनादिः
स परमात्मा भवतीति हे जीव जानीहि तथा चोक्त म्‘‘अन्यथा वेदपाण्डित्यं
शास्त्रपाण्डित्यमन्यथा अन्यथा परमं तत्त्वं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा ।।’’ अत्रार्थभूत एवं
kahyun paN chhe ke1‘‘अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रपाण्डित्यमन्यथा अन्यथा परमं तत्त्वं लोकाः
क्लिश्यन्ति चान्यथा ।।’’
athrvedapAnDitya anya prakAre chhe, shAstrapAnDitya anya prakAre chhe loko anya prakAre
kalesh (kaShTa) kare chhe ane paramAtmA koI anya prakAre chhe.
adhikAr-1 dohA-23 ]paramAtmaprakAsha [ 49
गाथा२३
अन्वयार्थ :[वेदैः ] केवलीकी दिव्यवाणीसे [शास्त्रैः ] महामुनियोंके वचनोंसे तथा
[इन्द्रियैः ] इंद्रिय और मनसे भी [यः ] जो शुद्धात्मा [मन्तुं ] जाना [न याति ] नहीं जाता
है, अर्थात् वेद, शास्त्र, ये दोनों शब्द अर्थस्वरूप हैं, आत्मा शब्दातीत है, तथा इन्द्रिय, मन
विकल्परूप हैं, और मूर्तीक पदार्थको जानते हैं, वह आत्मा निर्विकल्प है, अमूर्तीक है, इसलिए
इन तीनोंसे नहीं जान सकते
[यः ] जो आत्मा [निर्मलध्यानस्य ] निर्मल ध्यानके [विषयः ]
गम्य है, [स ] वही [अनादिः ] आदि अंत रहित [परमात्मा ] परमात्मा है
भावार्थ :मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगइन पाँच तरह आस्रवोंसे रहित
निर्मल निज शुद्धात्माके ज्ञानकर उत्पन्न हुए नित्यानंद सुखामृतका आस्वाद उस स्वरूप परिणत
निर्विकल्प अपने स्वरूपके ध्यानकर स्वरूपकी प्राप्ति है
आत्मा ध्यानगम्य ही है, शास्त्रगम्य
नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुननेसे ध्यानकी सिद्धि हो जाए, वे ही आत्माका अनुभव कर
सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यानसे ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यानका उपाय है,
ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूपमें अपना परिणमन लगाओ
दूसरी जगह भी ‘अन्यथा’
इत्यादि कहा है उसका यह भावार्थ है, कि वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही हैं, नय प्रमाणरूप
हैं, तथा ज्ञानकी पंडिताई कुछ और ही है, वह आत्मा निर्विकल्प है, नय प्रमाण निक्षेपसे रहित
है, वह परमतत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्गमें लगे हुए हैं, सो वृथा
1. juo yashastilak 5-251. pAThAntaraएवएवं

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शुद्धात्मोपादेयो अन्यद्धेयमिति भावार्थः ।।२३।।
अथ योऽसौ वेदादिविषयो न भवति परमात्मा समाधिविषयो भवति पुनरपि तस्यैव
स्वरूपं व्यक्तं करोति
२४) केवलदंसणणाणमउ केवलसुक्खसहाउ
केवलवीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ ।।२४।।
केवलदर्शनज्ञानमयः केवलसुखस्वभावः
केवलवीर्यस्तं मन्यस्व य एव परापरो भावः ।।२४।।
केवलोऽसहायः ज्ञानदर्शनाभ्यां निर्वृत्तः केवलदर्शनज्ञानमयः केवलानन्तसुखस्वभावः
केवलानन्तवीर्यस्वभाव इति यस्तमात्मानं मन्यस्व जानीहि पुनश्च कथंभूतः य एव यः
ahIn arthabhUt shuddha AtmA ja upAdey chhe, anya sarva hey chhe evo bhAvArtha
chhe. 23.
have je paramAtmA vedAdino viShay nathI, samAdhino viShay chhe tenun ja pharI svarUp
pragaT kare chhe
have ‘tribhuvanavandit’ (traN lokathI vandit) ityAdi lakShaNothI yukta je shuddhAtmA
kahevAmAn Avyo te lokAgre rahe chhe tem kahe chhe
50 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-24
क्लेश कर रहे हैं इस जगह अर्थरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं,
यह सारांश समझना ।।२३।।
आगे कहते हैं कि जो परमात्मा वेदशास्त्रगम्य तथा इन्द्रियगम्य नहीं, केवल
परमसमाधिरूप निर्विकल्पध्यानकर ही गम्य है, इसिलिए उसीका स्वरूप फि र कहते हैं
गाथा२४
अन्वयार्थ :[यः ] जो [केवलदर्शन ज्ञानमयः ] केवलज्ञान केवलदर्शनमयी है,
अर्थात् जिसके परवस्तुका आश्रय (सहायता) नहीं, आप ही सब बातोंमें परिपूर्ण ऐसे ज्ञान
दर्शनवाला है, [केवलसुखस्वभावः ] जिसका केवलसुख स्वभाव है, और जो [केवलवीर्यः ]
अनंतवीर्यवाला है, [स एव ] वही [परापरभावः ] उत्कृष्ट अर्हंतपरमेष्ठीसे भी अधिक
स्वभाववाला सिद्धरूप शुद्धात्मा है [मन्यस्व ] ऐसा मानो
भावार्थ :परमात्माके दो भेद हैं, पहला सकलपरमात्मा दूसरा निष्कलपरमात्मा

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परापरः परेभ्योऽर्हत्परमेष्ठिभ्यः पर उत्कृष्टो मुक्तिगतः शुद्धात्मा भावः पदार्थः स एव
सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः
।।२४।।
अथ त्रिभुवनवन्दित इत्यादिलक्षणैर्युक्तो योऽसौ शुद्धात्मा भणितः स लोकाग्रे तिष्ठतीति
कथयति
२५) एयहिँ जुत्तउ लक्खणहिँ जो परु णिक्कलु देउ
सो तहिँ णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ झेउ ।।२५।।
एतैर्युक्तो लक्षणैः यः परो निष्कलो देवः
स तत्र निवसति परमपदे यः त्रैलोक्यस्य ध्येयः ।।२५।।
एतैस्त्रिभुवनवन्दितादिलक्षणैः पूर्वोक्तैर्युक्तो यः पुनश्च कथंभूतो यः परः
परमात्मस्वभावः पुनरपि किंविशिष्टः निष्कलः पञ्चविधशरीररहितः पुनरपि किंविशिष्टः
ahIn mukta jIv jevun potAnun shuddha AtmasvarUp chhe te ja upAdey chhe evo bhAvArtha
chhe. 25.
adhikAr-1 dohA-25 ]paramAtmaprakAsha [ 51
उनमेंसे कल अर्थात् शरीर सहित जो अरहंत भगवान् हैं, वे साकार हैं, और जिनके शरीर नहीं,
ऐसे निष्कल परमात्मा निराकारस्वरूप सिद्धपरमेष्ठी हैं, वे सकल परमात्मासे भी उत्तम हैं, वही
सिद्धरूप शुद्धात्मा ध्यान करने योग्य है
।।२४।।
आगे तीन लोककर वंदना करने योग्य पूर्व कहे हुए लक्षणों सहित जो शुद्धात्मा कहा
गया है, वही लोकके अग्रमें रहता है, यही कहते हैं
गाथा२५
अन्वयार्थ :[एतैः लक्षणैः ] ‘तीन भुवनकर वंदनीक’ इत्यादि जो लक्षण कहे थे,
उन लक्षणोंकर [युक्तः ] सहित [परः ] सबसे उत्कृष्ट [निष्कलः ] औदारिक, वैक्रियिक,
आहारक, तैजस, कार्माण ये पाँच शरीर जिसके नहीं है, अर्थात् निराकार है, [देवः ] तीन
लोककर आराधित जगतका देव है, [यः ] ऐसा जो परमात्मा सिद्ध है, [सः ] वही [तत्र
परमपदे ] उस लोकके शिखर पर [निवसति ] विराजमान है, [यः] जो कि [त्रैलोक्यस्य ]
तीन लोकका [ध्येयः ] ध्येय (ध्यान करने योग्य) है
भावार्थ :यहाँ पर जो सिद्धपरमेष्ठीका व्याख्यान किया है, उसीके समान अपना भी
स्वरूप है, वही उपादेय (ध्यान करने योग्य) है, जो सिद्धालय है, वह देहालय है, अर्थात्

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देवस्त्रिभुवनाराध्यः स एव परमपदे मोक्षे निवसति यत्पदं कथंभूतम् त्रैलोक्यस्यावसानमिति
अत्र तदेव मुक्तजीवसद्रशं स्वशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।२५।। एवं
त्रिविधात्मकथनप्रथममहाधिकारमध्ये मुक्तिगतसिद्धजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन दोहकसूत्रदशकं गतम्
अत ऊर्ध्वं प्रक्षेपपञ्चक मन्तर्भूतचतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं याद्रशो व्यक्तिरूपः परमात्मा
मुक्तौ तिष्ठति ताद्रशः शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण देहेपि तिष्ठतीति कथयन्ति तद्यथा
२६) जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिँ णिवसइ देउ
तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ मं करि भेउ ।।२६।।
याद्रशो निर्मलो ज्ञानमयः सिद्धौ निवसति देवः
ताद्रशो निवसति ब्रह्मा परः देहे मा कुरु भेदम् ।।२६।।
A pramANe jemAn traN prakAranA AtmAnun kathan chhe evA pratham mahAdhikAramAn muktigat
siddha jIvanA vyAkhyAnanI mukhyatAthI dash dohakasUtro samApta thayAn.
tyAr pachhI pAnch prakShepak sahit chovIs sUtro sudhI jevo vyaktirUp paramAtmA
muktimAn chhe tevo ja shuddha nishchayanayathI shaktirUpe dehamAn paN chhe em kahe chhe. te A
pramANe
52 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-26
जैसा सिद्धलोकमें विराज रहा है, वैसा ही हंस (आत्मा) इस घट (देह) में विराजमान है ।।२५।।
इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें मुक्तिको
प्राप्त हुए सिद्धपरमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर चौथे स्थलमें दश दोहा-सूत्र कहे आगे पाँच
क्षेपक मिले हुए चौबीस दोहोंमें जैसा प्रगटरूप परमात्मा मुक्तिमें है, वैसा ही शुद्धनिश्चयनयकर
देहमें भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं
गाथा२६
अन्वयार्थ :[यादृशः ] जैसा केवलज्ञानादि प्रगटस्वरूप कार्यसमयसार [निर्मलः ]
उपाधि रहित भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप मलसे रहित [ज्ञानमयः ] केवलज्ञानादि अनंत
गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी [देवः ] देवाधिदेव परम आराध्य [सिद्धौ ] मुक्तिमें [निवसति ] रहता है,
[ता
द्रशः ] वैसा ही सब लक्षणों सहित [परः ब्रह्मा ] परब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, स्वभाव परमात्मा,
pAThAntaraमन्तर्भूत-मन्तर्भाव

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याद्रशः केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपः कार्यसमयसारः, निर्मलो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्म-
मलरहितः, ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निर्वृत्तः केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणपरिणतः सिद्धो मुक्तो
मुक्तौ निवसति तिष्ठति देवः परमाराध्यः ता
द्रशः पूर्वोक्तलक्षणसद्रशः निवसति तिष्ठति ब्रह्मा
शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा पर उत्कृष्टः क्व निवसति देहे केन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन
कथंभूतेन शक्तिरूपेण हे प्रभाकरभट्ट भेदं मा कार्षीस्त्वमिति तथा चोक्तं श्रीकुन्द-
कुन्दाचार्यदेवैः मोक्षप्राभृते‘‘णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं थुव्वंतेहिं
थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह ।। अत्र स एव परमात्मोपादेय इति भावार्थः ।।२६।।
bhAvArthabhAvakarma, dravyakarma, nokarma evA maLathI rahit gnAnamay-kevaLagnAnathI
rachAyel-kevaLagnAnamAn antarbhUt anantaguNarUpe pariNat, siddha-mukta, kevaLagnAnAdinI vyaktirUp
kAryasamayasArarUp param ArAdhya evA dev muktimAn rahe chhe tevo ja pUrvokta lakShaNavALo
parabrahma shuddha buddha jeno ek svabhAv chhe evo utkRuShTa brahmA-paramAtmA-
shuddhadravyArthikanayathI shaktirUpe dehamAn rahe chhe. tethI he prabhAkarabhaTTa! tun siddhabhagavAn ane
potAmAn bhed na kar. mokShaprAbhRut (gAthA 103)mAn shrI kundakundAchAryadeve kahyun
paN chhe ke
‘‘णमिएहिं जं णमिज्जइ झाइएहिं अणवरयं थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं
मुणइ ।।’’
arthabIjAo vaDe jemane namaskAr karavAmAn Ave chhe evA mahApuruShothI paN
jemane namaskAr karavAmAn Ave chhe, bIjAo vaDe jemane dhyAvavAmAn Ave chhe evA
AchAryaparameShThI AdithI paN jemane dhyAvavAmAn Ave chhe ane bIjAo vaDe jemane
stavavAmAn Ave chhe evA satpuruShothI paN jemane stavavAmAn Ave chhe evo je koI
(jIvapadArtha) dehamAn rahel chhe te paramAtmAne tun jAN.
atre te ja paramAtmA upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 26.
adhikAr-1 dohA-26 ]paramAtmaprakAsha [ 53
उत्कृष्ट शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिरूप परमात्मा [देहे ] शरीरमें [निवसति ] तिष्ठता है,
इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, तूँ [भेदम् ] सिद्ध भगवान्में और अपनेमें भेद [मा कुरु ] मत कर
ऐसा ही मोक्षपाहुड़में श्री कुन्दकुन्दाचार्यने भी कहा है ‘‘णमिएहिं’’ इत्यादिइसका यह
अभिप्राय है कि जो नमस्कार योग्य महापुरुषोंसे भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य
सत्पुरुषोंसे स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्यपरमेष्ठी वगैरहसे भी ध्यान करने
योग्य ऐसा जीवनामा पदार्थ इस देहमें बसता है, उसको तूँ परमात्मा जान
भावार्थ :वही परमात्मा उपादेय है ।।२६।।

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अथ येन शुद्धात्मना स्वसंवेदनज्ञानचक्षुषावलोकितेन पूर्वकृतकर्माणि नश्यन्ति तं किं न
जानासि त्वं हे योगिन्निति कथयन्ति
२७) जेँ दिट्ठेँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ
सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ।।२७।।
येन द्रष्टेन त्रुटयन्ति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि
तं परं जानासि योगिन् देहे वसन्तं न किम् ।।२७।।
जें दिट्ठें तुट्टंति लहु कम्मइं पुव्वकियाइं येन परमात्मना द्रष्टेन सदानन्दैकरूपवीतराग-
निर्विकल्पसमाधिलक्षणनिर्मललोचनेनावलोकितेन त्रुटयन्ति शतचूर्णानि भवन्ति लघु शीघ्रम्
अन्तर्मुहूर्तेन
कानि परमात्मनः प्रतिबन्धकानि स्वसंवेद्याभावोपार्जितानि पूर्वकृतकर्माणि सो परु
have svasamvedan rUp gnAnachakShu vaDe je shuddhAtmAne avalokavAthI pUrvakRut karmo nAsh pAme
chhe tene he yogI! tun kem jANato nathI? em kahe chhe
bhAvArthasadAnand jenun ek rUp chhe evA nirvikalpa samAdhisvarUp nirmaL netrathI
je paramAtmAne avalokavAthI paramAtmAnAn pratibandhak, svasamvedan (gnAn)nA abhAvathI (agnAn
bhAvathI) upArjit karelAn pUrvakRut karmonA shIghra-antarmuhUrtamAn senkaDo chUrechUrA thaI jAy chhe te
54 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-27
आगे जिस शुद्धात्माको सम्यग्ज्ञान-नेत्रसे देखनेसे पहले उपार्जन किए हुए कर्म नाश
हो जाते हैं, उसे हे योगिन्, तू क्यों नहीं पहचानता, ऐसा कहते हैं
गाथा२७
अन्वयार्थ :[येन ] जिस परमात्माको [द्रष्टेन ] सदा आनंदरूप वीतराग निर्विकल्प
समाधिस्वरूप निर्मल नेत्रोंकर देखनेसे [लघु ] शीघ्र ही [पूर्वकृतानि ] निर्वाणके रोकनेवाले पूर्व
उपार्जित [कर्माणि ] कर्म [त्रुटयन्ति ] चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभावसे
(अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते
हैं, [तं परं ] उस सदानंदरूप परमात्माको [देहं वसन्तं ] देहमें बसते हुए भी [हे योगिन् ]
हे योगी [किं न जानासि ] तू क्यों नहीं जानता ?
भावार्थ :जिसके जाननेसे कर्म-कलंक दूर हो जाते हैं वह आत्मा शरीरमें निवास
करता हुआ भी देहरूप नहीं होता, उसको तूँ अच्छी तरह पहचान और दूसरे अनेक प्रपंचों

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जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइं तं नित्यानन्दैकस्वभावं स्वात्मानं परमोत्कृष्टं किं न जानासि
हे योगिन्
कथंभूतमपि स्वदेहे वसन्तमपीति अत्र स एवोपादेय इति भावार्थः ।।२७।।
अथ ऊर्ध्वं प्रक्षेपपञ्चकं कथयन्ति तद्यथा
२८) जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ।।२८।।
यत्र नेन्द्रियसुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः
तं आत्मानं मन्यस्व जीव त्वं अन्यत्परमपहर ।।२८।।
जित्थु ण इंदियसुहदुहइं जित्थु ण मणवावारु यत्र शुद्धात्मस्वरूपे न सन्ति न
utkRuShTa, nitya Anand ja jeno ek svabhAv chhe evo nij AtmA svadehamAn rahelo hovA chhatAn
paN he yogI! tene tun kem jANato nathI?
ahIn te ja AtmA upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 27.
tyAr pachhI pAnch prakShepakone kahe chhe. te A pramANe
bhAvArthaje shuddhAtmasvarUpamAn anAkuLatA jenun lakShaN chhe evA pAramArthik sukhathI
adhikAr-1 dohA-28 ]paramAtmaprakAsha [ 55
(झगड़ों) को तो जानता है; अपने स्वरूपकी तरफ क्यों नहीं देखता ? वह निज स्वरूप ही
उपादेय है, अन्य कोई नहीं है
।।२७।।
इससे आगे पाँच प्रक्षेपकों द्वारा आत्मा ही का कथन करते हैं
गाथा२८
अन्वयार्थ :[यत्र ] जिस शुद्ध आत्मस्वभावमें [इन्द्रियसुखदुःखानि ] आकुलता
रहित अतीन्द्रियसुखसे विपरीत जो आकुलताके उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियजनित सुख दुःख [न ]
नहीं हैं, [यत्र ] जिसमें [मनोव्यापारः ] संकल्प-विकल्परूप मनका व्यापार भी [न ] नहीं है,
अर्थात् विकल्प रहित परमात्मासे व्यापार जुदे हैं, [तं ] उस पूर्वोक्त लक्षणावालेको [हे जीव
त्वं ] हे जीव, तू [आत्मानं ] आत्माराम [मन्यस्व ] मान, [अन्यत्परम् ] अन्य सब विभावोंको
[अपहर ] छोड़
भावार्थ :ज्ञानानन्दस्वरूप निज शुद्धात्माको निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर होकर जान,

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विद्यन्ते कानि अनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसौख्यविपरीतान्याकुलत्वोत्पादकानीन्द्रियसुख-
दुःखानि यत्र च निर्विकल्पपरमात्मनो विलक्षणः संकल्पविकल्परूपो मनोव्यापारो नास्ति
सो अप्पा मुणि जीव तुहुं अण्णु परिं अवहारु तं पूर्वोक्तलक्षणं स्वशुद्धात्मानं मन्यस्व
नित्यानन्दैकरूपं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा जानीहि हे जीव, त्वम् अन्य-
त्परमात्मस्वभावाद्विपरीतं पञ्चेन्द्रियविषयस्वरूपादिविभावसमूहं परस्मिन् दूरे सर्वप्रकारेणापहर
त्यजेति तात्पर्यार्थः
निर्विकल्पसमाधौ सर्वत्र वीतरागविशेषणं किमर्थं कृततं इति पूर्वपक्षः
परिहारमाह यत एव हेतोः वीतरागस्तत एव निर्विकल्प इति हेतुहेतुमद्भावज्ञापनार्थम्, अथवा
ये सरागिणोऽपि सन्तो वयं निर्विकल्पसमाधिस्था इति वदन्ति तन्निषेधार्थम्, अथवा
viparIt, AkuLatAne utpanna karanAr, indriyajanit sukhadukh nathI ane je shuddhAtmasvarUpamAn
nirvikalpa paramAtmAthI vilakShaN, sankalpavikalparUp manovyApAr nathI te nij shuddhAtmAne he
jIv! tun jAN
nityAnand jenun ek rUp chhe evI vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne
jAN, paramAtmasvabhAvathI viparIt, pAnch indriyonA viShayasvarUp Adi anya vibhAvasamUhane
dUrathI ja sarva prakAre chhoD. e tAtpayArtha chhe.
pUrvapakSha :nirvikalpa samAdhimAn sarvatra ‘vItarAg’ visheShaN shA mATe lagADavAmAn
Avyun chhe?
tenun samAdhAAn :vItarAg hovAnA kAraNe ja te nirvikalpa chhe em kAraN ne
kAryapaNun jaNAvavA mATe (kAraN ke te vItarAg chhe tethI ja te nirvikalpa chhe em 1hetu
hetumAnano bhAv jaNAvavA mATe.); athavA pote sarAgI hovA chhatAn paN ame nirvikalpa
samAdhimAn rahIe chhIe em jeo kahe chhe temanA niShedh arthe; athavA shvetashankhanI jem
A svarUpavisheShaN chhe em samajavA mATe, (jem shankh chhe te shvet ja hoy chhe tem je
nirvikalpa samAdhi hoy chhe te vItarAg rUp ja hoy chhe, e rIte svarUp pragaT karavA mATe)
56 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-28
अन्य परमात्मस्वभावसे विपरीत पाँच इन्द्रियोंके विषय आदि सब विकार परिणामोंको दूरसे ही
त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर
यहाँ पर किसी शिष्यने प्रश्न किया कि निर्विकल्पसमाधिमें
सब जगह वीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते हैंजहाँ पर वीतरागता है,
वहीं निर्विकल्पसमाधिपना है, इस रहस्यको समझानेके लिये अथवा जो रागी हुए कहते हैं कि
हम निर्विकल्पसमाधिमें स्थित हैं, उनके निषेधके लिये वीतरागता सहित निर्विकल्पसमाधिका
कथन किया गया है, अथवा सफे द शंखकी तरह स्वरूप प्रगट करनेके लिये कहा गया है,
1. vItarAgapaNun hetu chhe, nirvikalpapaNun hetumAn (kArya) chhe.

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श्वेतशङ्खवत्स्वरूपविशेषणमिदम् इति परिहारत्रयं निर्दोषिपरमात्मशब्दादिपूर्वपक्षेऽपि
योजनीयम्
।।२८।।
अथ यः परमात्मा व्यवहारेण देहे तिष्ठति निश्चयेन स्वस्वरूपे तमाह
२९) देहादेहहिँ जो वसइ भेयाभेय-णएण
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णेँ बहुएण ।।२९।।
देहादेहयोः यो वसति भेदाभेदनयेन
तमात्मानं मन्यस्व जीव त्वं किमन्येन बहुना ।।२९।।
देहादेहयोरधिकरणभूतयोर्यो वसति केन भेदाभेदनयेन तथाहिअनुप-
‘vItarAg ’ evun visheShaN mUkavAno hetu chhe.
e rIte traN parihArane nirdoSh paramAtmA vagere shabdanA pUrvapakShamAn paN yojavA
joIe. 28.
have je paramAtmA vyavahArathI dehamAn rahe chhe ane nishchayathI svasvarUpamAn rahe chhe
tene (evA AtmAne) kahe chhe
अर्थात् जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा, उसी प्रकार जो निर्विकल्पसमाधि होगी, वह
वीतरागतारूप ही होगी
।।२८।।
आगे यह परमात्मा व्यवहारनयसे तो इस देहमें ठहर रहा है, लेकिन निश्चयनयकर अपने
स्वरूपमें ही तिष्ठता है, ऐसी आत्माको कहते हैं
गाथा२९
अन्वयार्थ :[यः ] जो [भेदाभेदनयेन देहादेहयोः वसति ]
अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयकर अपनेसे भिन्न जड़रुप देहमें तिष्ठ रहा है, और शुद्ध
निश्चयनयकर अपने आत्मस्वभावमें ठहरा हुआ है, अर्थात् व्यवहारनयकर तो देहसे अभेदरूप
(तन्मय) है, और निश्चयसे सदा कालसे अत्यन्त जुदा है, अपने स्वभावमें स्थित है, [तं ] उसे
[हे जीव त्वं ] हे जीव, तूँ [आत्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान
अर्थात् नित्यानंद वीतराग
निर्विकल्पसमाधिमें ठहरके अपने आत्माका ध्यान कर [अन्येन ] अपनेसे भिन्न [बहुना ] देह
रागादिकोंसे [किम् ] तुझे क्या प्रयोजन है ?
adhikAr-1 dohA-29 ]paramAtmaprakAsha [ 57

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चरितासद्भूतव्यवहारेणाभेदनयेन स्वपरमात्मनोऽभिन्ने स्वदेहे वसति शुद्धनिश्चयनयेन तु भेदनयेन
स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति यः तमात्मानं मन्यस्व जानीहि हे जीव
नित्यानन्दैकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः
किमन्येन शुद्धात्मनो भिन्नेन
देहरागादिना बहुना अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि निश्चयेन देहरूपो न भवति स एव
स्वशुद्धात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।२९।।
अथ जीवाजीवयोरेकत्वं मा कार्षीर्लक्षणभेदेन भेदोऽस्तीति निरूपयति
३०) जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएँ भेउ
जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ।।३०।।
जीवाजीवौ मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः
यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ।।३०।।
bhAvArthaje anupacharit asadbhUt vyavahAranayathI-abhedanayathI-svaparamAtmAthI
abhinna svadehamAn rahe chhe ane shuddha nishchayanayathI-bhedanayathI svadehathI bhinna svAtmAmAn rahe chhe,
tene he jIv! tun AtmA jAN
nityAnand jenun ek rUp chhe evI vItarAg nirvikalpa samAdhimAn
sthit thaIne bhAv. shuddhAtmAthI bhinna evA deh rAgAdi anek padArthothI tAre shun prayojan chhe?
ahIn je dehamAn rahevA chhatAn paN nishchayathI deharUp thato nathI te ja svashuddhAtmA upAdey
chhe evo tAtparyArtha chhe. 29.
have jIv ane ajIvanun ekatva na kar, kAraN ke lakShaNanA bhedathI te bannemAn bhed chhe
em kahe chhe
58 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-30
भावार्थ :देहमें रहता हुआ भी निश्चयसे देहस्वरूप जो नहीं होता, वही निज
शुद्धात्मा उपादेय है ।।२९।।
आगे जीव ओर अजीवमें लक्षणके भेदसे भेद है, तू दोनोंको एक मत जान, ऐसा कहते
हैं हे प्रभाकरभट्ट,
गाथा३०
अन्वयार्थ :[जीवाजीवौ ] जीव और अजीवको [एकौ ] एक [मा कार्षीः ] मत
कर क्योंकि इन दोनोंमें [लक्षणभेदेन ] लक्षणके भेदसे [भेदः ] भेद है [यत्परं ] जो परके
सम्बन्धसे उत्पन्न हुए रागादि विभाव (विकार) हैं, [तत्परं ] उनको पर (अन्य) [मन्यस्व ]

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हे प्रभाकरभट्ट जीवाजीवावेकौ मा कार्षीः कस्मात् लक्षणभेदेन भेदोऽस्ति तद्यथा
रसादिरहितं शुद्धचैतन्यं जीवलक्षणम् तथा चोक्तं प्राभृते‘‘अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं
चेदणागुणमसद्दं जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।’’ इत्थंभूतशुद्धात्मनो
भिन्नमजीवलक्षणम् तच्च द्विविधम् जीवसंबन्धमजीवसंबन्धं च देहरागादिरूपं जीवसंबन्धं,
bhAvArthahe prabhAkar bhaTTa! tun jIv ane ajIvane ek na kar kAraN ke te bannemAn
lakShaNabhedathI bhed chhe. te A pramANe
rasAdi rahit shuddha chaitanya te jIvanun lakShaN chhe. prAbhRutamAn (shrI kundakundAchAryakRut badhA
shAstromAn) kahyun chhe ke
अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणा गुणमसद्दं
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।
artha :he bhavya! tun jIvane rasarahit, rUparahit, gandharahit, avyakta arthAt
indriyone gochar nathI evo, chetanA jeno guN chhe evo, shabdarahit, koI chihnathI jenun grahaN
nathI evo ane jeno koI AkAr kahevAto nathI evo jAN.
AvA shuddha AtmAthI ajIvanun lakShaN bhinna chhe ane te be prakAranun chhejIv
sAthe sambandhavALun ane jIv sAthe sambandh vinAnun; deharAgAdirUp te jIv sAthe sambandhavALun chhe,
pudgalAdi pAnch dravyarUp te jIv sAthe sambandh vinAnun chhe ke je ajIvanun lakShaN chhe, kAraN
ke jIvathI ajIvanun lakShaN bhinna chhe, te kAraNe je par evA rAgAdik chhe tene par jANo-
je bhedya ane abhedya chhe. (arthAt je jIv sAthe sambandh vinAnA chhe ane jIv sAthe
sambandhavALA chhe.)
समझ [च ] और [आत्मनः ] आत्माका [आत्मना अभेदः ] अपनेसे अभेद जान [भणामि ]
ऐसा मैं कहता हूँ
भावार्थ :जीव अजीवके लक्षणोंमेंसे जीवका लक्षण शुद्ध चैतन्य है, वह स्पर्श, रस,
गंधरूप शब्दादिकसे रहित है ऐसा ही श्री समयसारमें कहा है‘‘अरसं’’ इत्यादि इसका
सारांश यह है, कि जो आत्मद्रव्य है, वह मिष्ट आदि पाँच प्रकारके रस रहित है, श्वेत आदिक
पाँच तरहके वर्ण रहित है, सुगन्ध, दुर्गंध इन दो तरहके गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर)
नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्दसे रहित है, पुल्लिंग आदि करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात्
लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दिखता, अर्थात् निराकार वस्तु है
आकार छह प्रकारके
हैंसमचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सातिक, कुब्जक, वामन, हुंडक इन छह प्रकारके
adhikAr-1 dohA-30 ]paramAtmaprakAsha [ 59

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पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपमजीवसंबन्धमजीवलक्षणम् अत एव भिन्नं जीवादजीवलक्षणम् ततः
कारणात् यत्परं रागादिकं तत्परं जानीहि कथंभूतम् भेद्यमभेद्यमित्यर्थः अत्र योऽसौ
शुद्धलक्षणसंयुक्तः शुद्धात्मा स एवोपादेय इति भावार्थः ।।३०।।
अथ तस्य शुद्धात्मनो ज्ञानमयादिलक्षणं विशेषेण कथयति
३१) अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु
अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।।३१।।
अमनाः अनिन्द्रियो ज्ञानमयः मूर्तिविरहितश्चिन्मात्रः
आत्मा इन्द्रियविषयो नैव लक्षणमेतन्निरुक्तम् ।।३१।।
आकारोंसे रहित है, ऐसा जो चिद्रूप निज वस्तु है, उसे तूँ पहचान आत्मासे भिन्न जो अजीव
पदार्थ है, उसके लक्षण दो तरहसे हैं, एक जीव सम्बन्धी, दूसरा अजीव संबंधी जो द्रव्यकर्म
भावकर्म नोकर्मरूप है, वह तो जीवसंबंधी है, और पुद्गलादि पाँच द्रव्यरूप अजीव जीव-
संबंधी नहीं हैं, अजीवसंबंधी ही हैं, इसलिये अजीव हैं, जीवसे भिन्न हैं
इस कारण जीवसे
भिन्न अजीवरूप जो पदार्थ हैं, उनको अपने मत समझो यद्यपि रागादिक विभाव परिणाम
जीवमें ही उपजते हैं, इससे जीवके कहे जाते हैं, परंतु वे कर्मजनित हैं, परपदार्थ (कर्म) के
संबंधसे हैं, इसलिये पर ही समझो
यहाँपर जीव-अजीव दो पदार्थ कहे गये हैं, उनमेंसे शुद्ध
चेतना लक्षणका धारण करनेवाला शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य है, यह सारांश हुआ ।।३०।।
आगे शुद्धात्माके ज्ञानादिक लक्षणोंसे विशेषपनेसे कहते हैं
गाथा३१
अन्वयार्थ :[आत्मा ] यह शुद्ध आत्मा [अमनाः ] परमात्मासे विपरीत
विकल्पजालमयी मनसे रहित है [अनिन्द्रियः ] शुद्धात्मासे भिन्न इन्द्रिय-समूहसे रहित है
[ज्ञानमयः ] लोक और अलोकके प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, [मूर्तिविरहितः ]
अमूर्तीक आत्मासे विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्तिरहित है, [चिन्मात्रः ] अन्य द्रव्योंमें
नहीं पाई जावे, ऐसी शुद्धचेतनास्वरूप ही है, और [इन्द्रियविषयः नैव ] इन्द्रियोंके गोचर नहीं
है, वीतराग स्वसंवेदनसे ही ग्रहण किया जाता है
[एतत् लक्षणं ] ये लक्षण जिसके
[निरुक्त म् ] प्रगट कहे गये हैं उसको ही तू निःसंदेह आत्मा जान इस जगह जिसके ये लक्षण
ahIn je shuddhalakShaNayukta shuddha AtmA chhe te ja upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 30.
have te shuddhAtmAnA gnAnAdi lakShaNone visheShapaNe kahe chhe
60 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-31

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परमात्मविपरीतमानसविकल्पजालरहितत्वादमनस्कः, अतीन्द्रियशुद्धात्मविपरीतेनेन्द्रिय-
ग्रामेण रहितत्वादतीन्द्रियः, लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञानेन निर्वृत्तत्वात् ज्ञानमयः, अमूर्तात्म-
विपरीतलक्षणया स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या वर्जितत्वान्मूर्तिविरहितः, अन्यद्रव्यासाधारणया-
शुद्धचेतनया निष्पन्नत्वाच्चिन्मात्रः
कोऽसौ आत्मा पुनश्च किंविशिष्टः वीतराग-
स्वसंवेदनज्ञानेन ग्राह्योऽपीन्द्रियाणामविषयश्च लक्षणमिदं निरुक्तं निश्चितमिति अत्रोक्त-
लक्षणपरमात्मोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।३१।।
अथ संसारशरीरभोगनिर्विण्णो भूत्वा यः शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य संसारवल्ली
नश्यतीति कथयति
३२) भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ।।३२।।
भवतनुभोगविरक्तमना य आत्मानं ध्यायति
तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुटयति ।।३२।।
कहे गये हैं, वही आत्मा है,वही उपादेय है, आराधने योग्य है, यह तात्पर्य निकला ।।३१।।
आगे जो कोई संसार, शरीर, भोगोंसे विरक्त होके शुद्धात्माका ध्यान करता है उसीके
संसाररूपी बेल नाशको प्राप्त हो जाती है, इसे कहते हैं
गाथा३२
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [भवतनुभोगविरक्तमनाः ] संसार, शरीर और भोगोंमें
bhAvArthaAtmA paramAtmAthI viparIt evA mAnasik vikalpajALathI rahit
hovAthI manathI rahit chhe, atIndriy shuddha AtmAthI viparIt indriyasamUhathI rahit hovAthI
atIndriy chhe, lokAlokanA prakAshak kevaLagnAnathI rachAyelo hovAthI gnAnamay chhe, amUrta
AtmAthI viparIt lakShaNavALI sparsha, ras, gandh, varNarUp mUrtithI rahit hovAthI mUrti rahit
chhe. anya dravyonI sAthe asAdhAraN evI shuddha chetanAthI niShpanna hovAthI chinmAtra chhe ane
vItarAg svasamvedanarUp gnAnathI grAhya hovA chhatAn indriyone agochar chhe. Avun lakShaN (shuddha
AtmAnun) nishchitapaNe kahevAmAn Avyun chhe.
ahIn ukta lakShaNavALo paramAtmA ja upAdey chhe evo tAtparyArtha chhe. 31.
have je sansAr, sharIr, ane bhogothI virakta thaIne shuddha AtmAnun dhyAn kare chhe tenI
sansAravallI nAsh pAme chhe em kahe chhe
adhikAr-1 dohA-32 ]paramAtmaprakAsha [ 61

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भवतनुभोगेषु रञ्जितं मूर्छितं वासितमासक्तं चित्तं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नवीतराग-
परमानन्दसुखरसास्वादेन व्यावृत्त्य स्वशुद्धात्मसुखे रतत्वात्संसारशरीरभोगविरक्तमनाः सन् यः
शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य गुरुक्की महती संसारवल्ली त्रुटयति नश्यति शतचूर्णा भवतीति
अत्र
येन परमात्मध्यानेन संसारवल्ली विनश्यति स एव परमात्मोपादेयो भावनीयश्चेति
तात्पर्यार्थः
।।३२।। इति चतुर्विंशतिसूत्रमध्ये प्रक्षेपकपञ्चकं गतम्
तदनन्तरं देहदेवगृहे योऽसौ वसति स एव शुद्धनिश्चयेन परमात्मा तन्निरूपयति
३३) देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु
केवल-णाण-फु रंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ।।३३।।
विरक्त मन हुआ [आत्मानं ] शुद्धात्माका [ध्यायति ] चिंतवन करता है, [तस्य ] उसकी
[गुर्वी ] मोटी [सांसारिकी वल्ली ] संसाररूपी बेल [त्रुटयति ] नाशको प्राप्त हो जाती है
भावार्थ :संसार, शरीर, भोगोंमें अत्यंत आसक्त (लगा हुआ) चित्त है, उसको
आत्मज्ञानसे उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखामृतके आस्वादसे राग-द्वेषसे हटाकर अपने
शुद्धात्म-सुखमें अनुरागी कर शरीरादिकमें वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्माको विचारता है, उसका
संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्माके ध्यानसे संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही
ध्यान करने योग्य (उपादेय) है
।।३२।।
आगे जो देहरूपी देवालयमें रहता है, वही शुद्धनिश्चयनयसे परमात्मा है, यह कहते
हैं
bhAvArthasansAr, sharIr ane bhogomAn ranjit-mUrchchhit-vAsit-Asakta chittane
svasamvittithI utpanna vItarAg paramAnandarUp sukhanA rasAsvAd vaDe (sansAr, sharIr ane bhogothI)
vyAvRutta karIne (pAchhun vALIne) nij shuddhAtmasukhamAn rat thavAthI sansAr, sharIr ane bhogothI
virakta manavALo thayo thako je shuddha AtmAne dhyAve chhe tenI sansArarUpI moTI velanA senkaDo kaTakA
thaI jAy chhe
chUrechUrA thaI jAy chhenAsh pAmI jAy chhe.
ahIn je paramAtmAnA dhyAnathI sansAravallI nAsh pAme chhe te ja paramAtmA upAdey chhe,
ane bhAvavA yogya chhe evo tAtparyArtha chhe. 32.
e pramANe chovIsh sUtromAn pAnch prakShepak sUtro samApta thayAn.
tyAr pachhI, deharUpI devAlayamAn je rahe chhe te ja shuddhanishchayanayathI paramAtmA chhe em
kahe chhe
62 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-33

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देहदेवालये यः वसति देवः अनाद्यनन्तः
केवलज्ञानस्फु रत्तनुः स परमात्मा निर्भ्रान्तः ।।३३।।
व्यवहारेण देहदेवकुले वसन्नपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वाद्देहवन्मूर्तः सर्वाशुचिमयो न भवति
यद्यपि देहो नाराध्यस्तथापि स्वयं परमात्माराध्यो देवः पूज्यः, यद्यपि देह आद्यन्तस्तथापि स्वयं
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनानाद्यनन्तः, यद्यपि देहो जडस्तथापि स्वयं लोकालोकप्रकाशकत्वात्केवलज्ञान-
स्फु रिततनुः, केवलज्ञानप्रकाशरूपशरीर इत्यर्थंः
स पूर्वोक्तलक्षणयुक्तः परमात्मा भवतीति
कथंभूतः निर्भ्रान्तः निस्सन्देह इति अत्र योऽसौ देहे वसन्नपि सर्वाशुच्यादिदेहधर्मं न स्पृशति
स एव शुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।३३।।
गाथा३३
अन्वयार्थ :[यः ] जो व्यवहारनयकर [देहदेवालये ] देहरूपी देवालयमें
[वसति ] बसता है, निश्चयनयकर देहसे भिन्न है, देहकी तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं
है, महा पवित्र है, [देवः ] आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है,
[अनाद्यनन्तः ] जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर अनादि अनंत है, तथा यह देह आदि
अंतकर सहित है, [केवलज्ञानस्फु रत्तनुः ] जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको
प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़
है, [सः परमात्मा ] वही परमात्मा [निर्भ्रान्तः ] निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं
समझना
।।३३।।
भावार्थ :जो देहमें रहता है, तो भी देहसे जुदा है, सर्वाशुचिमयी देहको वह देव
छूता नहीं है, वहीं आत्मदेव उपादेय है ।।३३।।
bhAvArthaje vyavahAranayathI dehadevAlayamAn rahevA chhatAn paN nishchayanayathI dehathI
bhinna hovAthI dehanI jem mUrta, sarvAshuchimay nathI, jo ke deh ArAdhya nathI topaN pote
paramAtmA-dev-ArAdhya-pUjya
chhe, jo ke deh Adi-antavALo chhe topaN pote shuddha dravyArthikanayathI
anAdi-anant chhe, jo ke deh jaD chhe to paN pote lokAlokano prakAshak hovAthI
kevalagnAnaprakAsharUp sharIravALo chhe te nisandeh paramAtmA chhe.
ahIn je dehamAn rahevA chhatAn paN sarvAshuchimay Adi dehadharmane sparshato nathI te ja shuddha
AtmA upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 33.
adhikAr-1 dohA-33 ]paramAtmaprakAsha [ 63

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अथ शुद्धात्मविलक्षणे देहे वसन्नपि देहं न स्पृशति देहेन सोऽपि न स्पृश्यत इति
प्रतिपादयति
३४) देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमेँ देहु वि जो जि
देहेँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ।।३४।।
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एव
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।३४।।
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि, य एव देहेन न स्पृश्यते योऽपि मन्यस्व
जानीहि परमात्मा सोऽपि इतो विशेषःशुद्धात्मानुभूतिविपरीतेन क्रोधमानमायालोभ-
स्वरूपादिविभावपरिणामेनोपार्जितेन पूर्वकर्मणा निर्मिते देहे अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण वसन्नपि
निश्चयेन य एव देहं न स्पृशति, तथाविधदेहेन न स्पृश्यते योऽपि तं मन्यस्व जानीहि परमात्मानं
आगे शुद्धात्मासे भिन्न इस देहमें रहता हुआ भी देहको नहीं स्पर्श करता है और देह
भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं
गाथा३४
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [देहे वसन्नपि ] देहमें रहता हुआ भी [नियमेन ]
निश्चयनयकर [देहमपि ] शरीरको [नैव स्पृशति ] नहीं स्पर्श करता, [देहेन ] देहसे [यः
अपि ] वह भी [नैव स्पृश्यते ] नहीं छुआ जाता
अर्थात् न तो जीव देहको स्पर्श करता और
न देह जीवको स्पर्श करती, [तमेव ] उसीको [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] तूँ जान,
अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है
भावार्थ :जो शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव
परिणाम हैं, उनकर उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मोंकर बनाई हुई देहमें अनुपचरितअसद्भूत-
व्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी
have shuddhAtmAthI vilakShaN dehamAn rahevA chhatAn paN AtmA dehane sparshato nathI ane te
paN dehathI sparshAto nathI em kahe chhe
bhAvArthaje shuddha AtmAnI anubhUtithI viparIt krodh-mAn-mAyA-lobhasvarUp
Adi vibhAvapariNAmathI upArjit pUrvakarmathI rachAyel dehamAn anupacharit asadbhUt-
vyavahAranayathI rahevA chhatAn paN nishchayathI je dehane sparshato nathI, te paramAtmAne ja
64 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-34

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तमेवम् किं कृत्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वेति अत्र य एव शुद्धात्मानुभूतिरहितदेहे
वसन्नपि देहममत्वपरिणामेन सहितानां हेयः स एव शुद्धात्मा देहममत्वपरिणामरहितानामुपादेय
इति भावार्थः
।।३४।।
अथ यः समभावस्थितानां योगिनां परमानन्दं जनयन् कोऽपि शुद्धात्मा स्फु रति
तमाह
३५) जो सम-भाव-परिट्ठियहँ जोइहँ कोइ फु रेइ
परमाणंदु जणंतु फु डु सो परमप्पु हवेइ ।।३५।।
यः समभावप्रतिष्ठितानां योगिनां कश्चित् स्फु रति
परमानन्दं जनयन् स्फु टं स परमात्मा भवति ।।३५।।
यः कोऽपि परमात्मा जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रादिसमभावपरिणत-
स्वरूपको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठकर चिंतवन करो यह आत्मा जड़रूप देहमें
व्यवहारनयकर रहता है, सो देहात्मबुद्धिवालेको नहीं मालूम होती है, वही शुद्धात्मा देहके
ममत्वसे रहित (विवेकी) पुरुषोंके आराधने योग्य है
।।३४।।
आगे जो योगी समभावमें स्थित हैं, उनको परमानन्द उत्पन्न करता हुआ कोई शुद्धात्मा
स्फु रायमान है, उसका स्वरूप कहते हैं
गाथा३५
अन्वयार्थ :[समभावप्रतिष्ठितानां ] समभाव अर्थात् जीवित, मरण, लाभ,
अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र इत्यादि इन सबमें समभावको परिणत हुए [योगिनां ]
vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne tun jAN.
ahIn shuddhAtmAnubhUtithI rahit dehamAn rahevA chhatAn dehanA mamatvapariNAmavALAne
je hey chhe te ja shuddhAtmA, dehanA mamatvapariNAm vinAnA jIvone upAdey chhe evo bhAvArtha
chhe. 34.
have samabhAvamAn sthit yogIone paramAnand utpanna karato je koI shuddha AtmA
sphurAyamAn thAy chhe tenun svarUp kahe chhe
bhAvArthajIvit-maraN, lAbh-alAbh, sukh-dukh, shatru-mitrAdimAn samabhAve
adhikAr-1 dohA-35 ]paramAtmaprakAsha [ 65

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स्वशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ प्रतिष्ठितानां
परमयोगिनां कश्चित् स्फु रति संवित्तिमायाति
किं कुर्वन् वीतरागपरमानन्दजनयन् स्फु टं
निश्चितम् तथा चोक्त म्‘‘आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः जायते परमानन्दः
कश्चिद्योगेन योगिनः ।।’’ हे प्रभाकरभट्ट स एवंभूतः परमात्मा भवतीति अत्र वीतराग-
निर्विकल्पसमाधिरतानां स एवोपादेयः, तद्विपरीतानां हेय इति तात्पर्यार्थः ।।३५।।
परम योगीश्वरोंके अर्थात् जिनके शत्रु-मित्रादि सब समान है, और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठे हुए
हैं, उन योगीश्वरोंके हृदयमें [परमानन्दं जनयन् ] वीतराग परम आनन्दको उत्पन्न करता
हुआ [यः कश्चित् ] जो कोई [स्फु रति ] स्फु रायमान होता है, [स स्फु टं ] वही प्रकट
[परमात्मा ] परमात्मा [भवति ] है, ऐसा जानो
ऐसा ही दूसरी जगह भी ‘‘आत्मानुष्ठान’’
इत्यादिसे कहा है, अर्थात् जो योगी आत्माके अनुभवमें तल्लीन हैं, और व्यवहारसे रहित
शुद्ध निश्चयमें तिष्ठते हैं, उन योगियोंके ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है
इसलिए हे प्रभाकरभट्ट, जो आत्मस्वरूप योगीश्वरोंके हृदयमें स्फु रायमान है, वही उपादेय
है
जो योगी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लगे हुए हैं, संसारसे पराङ्मुख हैं, उन्हींके वह
आत्मा उपादेय है, और जो देहात्मबुद्धि विषयासक्त हैं, वे अपने स्वरूपको नहीं जानते
हैं, उनको आत्मरुचि नहीं हो सकती यह तात्पर्य हुआ
।।३५।।
pariNat ane nij shuddha AtmAnAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyaganuShThAnarUp
abhed-ratnatrayAtmak vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit paramayogIone vItarAg paramAnandane
utpanna karato je koI paramAtmA sphurAyamAn thAy chhe
je koI samvedanamAn Ave chhete he
prabhAkar bhaTTa! nishchayathI paramAtmA chhe. (iShTopadesh gAthA 47mAn) kahyun paN chhe ke
‘‘आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबहिःस्थितेः
जायते परमानंदः कश्चिद्योगेन योगिनः ।।’’
arthaAtmAnuShThAnamAn niShTha (AtmasvarUpamAn sthit thayelA) ane vyavahArathI
bahAr (dUr) rahelA yogIne yogathI (AtmadhyAnathI) koI anirvachanIy paramAnand utpanna
thAy chhe.
ahIn vItarAg nirvikalpa samAdhimAn rat thayelAone te ja paramAtmA upAdey chhe;
ane temanAthI viparIt chhe temane (vItarAg nirvikalpa samAdhimAn rat nathI temane) te hey
chhe evo tAtparyArtha chhe. 35.
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