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भवति ] देहरूप नहीं होता, [तमेव ] उसीको तू [परमात्मानं ] परमात्मा [स्फु टं ] निश्चयसे
[मन्यस्व ] जान
ही है, किसी कालमें भी यह जीव जड़ तो न हुआ, न होगा, उसे हे प्रभाकरभट्ट, परमात्मा
deharUp thato nathI, te paramAtmAne ja he prabhAkarabhaTTa! tun jAN, vItarAg-svasamvedanagnAnathI
bhAv evo artha chhe.
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भावयेत्यर्थः
मूढ़ोंको नहीं
रत्नत्रयकी भावनासे विमुख मूढ़ [सकलं ] शरीरस्वरूप ही [स्फु टं ] प्रगटपनेसे [भणन्ति ]
मानते हैं, सो हे प्रभाकरभट्ट, [तमेव ] उसीको [परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] जान,
अर्थात् वीतराग सदानंद निर्विकल्पसमाधिमें रहके अनुभव कर
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परमात्मानं मन्यस्व जानीहीति, वीतरागसदानन्दैकसमाधौ स्थित्वानुभवेत्यर्थः
इति तात्पर्यार्थः
परवस्तुका ही ग्रहण है
[बिम्बितं ] प्रतिबिंबित हुए [विभाति ] दर्पणमें मुखकी तरह भासता है, [सः ] वह [परमात्मा
अनादिः ] परमात्मा अनादि है
hey chhe. e tAtparyArtha chhe. 37.
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विकल्परहितानामुपादेयो भवतीति भावार्थः
परमात्मा देवः ] वह परमात्मदेव [ध्येयः ] आराधने योग्य है, दूसरा कोई नहीं
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कहते हैं
है, अर्थात् कर्मके निमित्तसे त्रस स्थावररूप अनेक जन्म धरता है [लिङ्गत्रयपरिमण्डितः ]
स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुसकलिंग इन तीन चिन्होंकर सहित हुआ [सः ] वही [परमात्मा ]
शुद्धनिश्चयकर परमात्मा [भवति ] है
chhe. 39.
paramAtmA nathI em kahe chhe
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नन्दैकसुखास्वादमलभमानो व्यवहारनयेन त्रसो भवति, स्थावरो भवति, स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गो
भवति, तेन कारणेन जगत्कर्ता भण्यते, नान्यः कोऽपि परकल्पितपरमात्मेति
यदा विनाशयति तदोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकत्वादुपादेय इतिभावार्थः
हर्त्ता है
स्वादको न पानेसे व्यवहारनयकर त्रस और स्थावररूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंगादि सहित होता
है, इसलिये जगत्कर्त्ता कहा जाता है अन्य कोई भी दूसरोंकर कल्पित परमात्मा नहीं है
जालोंको निर्विकल्पसमाधिसे जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष-सुखका
कारण होनेसे उपादेय हो जाता है
karmabandhathI DhankAyelo hovAthI vItarAganirvikalpa sahajAnandarUp ek (kevaL) sukhAsvAdane nahi
pAmato, vyavahAranayathI tras thAy chhe, sthAvar thAy chhe, tathA strI-puruSh ke napunsakalingarUp thAy
chhe, te kAraNe tene jagatano kartA kahevAmAn Ave chhe, e sivAy parakalpit (bIjAoe kalpel)
bIjo koI paramAtmA jagatakartA nathI.
upAdeyabhUt mokShasukhano sAdhak hovAthI upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 40.
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मन्यस्व जानीहि
और जगत्में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है
जगत्की वस्तुसे तन्मय (उस स्वरूप) नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थको नेत्र देखते हैं,
तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, [तमेव ] उसीको
[परमात्मानं ] परमात्मा [मन्यस्व ] हे प्रभाकरभट्ट, तू जान
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तदनन्तरं स्वर्गं गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिर्वासुदेवो भवति
सरीखे चतुर पुरुष [अद्य अपि ] अबतक भी [न जानन्ति ] नहीं जानते हैं
आस्वादरूप परमसमाधिभूत महातपके बिना नहीं जानते, [तं ] उसको [परमात्मानं ] परमात्मा
[भणन्ति ] कहते हैं
निदानबंध करनेके बाद स्वर्गमें उत्पन्न होता है, पीछे आकर मनुष्य होता है, वही तीन खंडका
स्वामी वासुदेव (हरि) कहलाता है, और कोई जीव इसी भवमें जिनदीक्षा लेकर समाधिके
nirvikalpa samAdhirUp, tap vinA hari-har jevA paN haju sudhI jANatA nathI, tene vItarAgasarvagna
devo paramAtmA kahe chhe.
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भूत्वा रुद्रो भवति
एवोपादेयो भवतीति भावार्थः
(हर) कहलाता है
वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुआ, सरागरत्नत्रय हुआ है, इसीका नाम व्यवहाररत्नत्रय है
धारक उसी भवसे मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते
स्वरूपके जाननेसे साक्षात् मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते
हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चिंतवन करने योग्य है
thaIne traN khanDano adhipati evo vAsudev thAy chhe; bIjo koI jIv jinadIkShA grahIne paN
te ja bhavamAn vishiShTa samAdhinA baLathI puNyabandh karIne, pachhI pUrvakRut chAritramohanA udayathI
viShayAsakta thaIne rudra thAy chhe; to pachhI teo paramAtmasvarUpane nathI jANatA
mokSha thAy tevA prakAre teo paramAtmasvarUpane jANatA nathI.
chhe. 42.
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तीर्थंकरदेवोंने देहमें भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं :
(‘‘रहितः’’) रहित है, तथा [जिनवरैः ] वीतरागनिर्विकल्प आनंदरूपसे समाधिकर तद्भव
मोक्षके साधक जिनवरदेवने [देहे अपि ] देहमें भी [
chhe em kahe chhe
sAdhak evI ArAdhanAmAn samartha evI ek (kevaL) vItarAg, nirvikalpa, sadAnandarUp samAdhi
vaDe jinavaroe dehamAn paN jene dekhyo chhe, te paramAtmAne ja tun jAN arthAt vItarAg param
samAdhinA baLathI anubhav.
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भवति ] उजड़ निश्चयसे हो जाता है [स परमात्मा ] वह परमात्मा [भवति ] है
chhe. 43.
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स्वकीयविषये प्रवर्तत इत्यर्थः
श्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा भवतीति
अतीन्द्रियसुखका साधक होनेसे सब तरह उपादेय है
sparshanAdi indriyagAm vase chhe, arthAt svasamvedananA abhAvamAn te indriyo (sparshanAdi)
potapotAnA viShayamAn pravarte chhe ane je bhavAntaramAn jatAn te indriyagAm ujjaD thAy chhe arthAt
te potapotAnA viShayanA vyApArathI rahit thAy chhe, te nishchayathI chidAnand jeno ek svabhAv
chhe evo paramAtmA chhe.
evo bhAvArtha chhe. 44.
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स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थत्वात्पञ्चेन्द्रियैः कृत्वा पञ्चविषयान् जानाति, इन्द्रियज्ञानेन
परिणमतीत्यर्थः
रसास्वादपरिणतेन समाधिना ज्ञायते स एवात्मोपादानसिद्धमित्यादिविशेषणविशिष्ट-
इन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करके इन्द्रियोंसे रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शको जानता है, और आप
[पञ्चभिः ] पाँच इन्द्रियोंकर तथा [पञ्चभिरपि ] पाँचों विषयोंसे सो [मतो न ] नहीं जाना
जाता, अगोचर है, [स परमात्मा ] ऐसे लक्षण जिसके हैं, वही परमात्मा [भवति ] है
वही परमात्मा है, वह ज्ञानगम्य है, इन्द्रियोंसे अगम्य है, और उपादेयरूप अतीन्द्रिय सुखका
साधन अपना स्वभावरूप वही परमात्मा आराधने योग्य है
indriyamay sharIr grahIne, svayam arthone jANavAne asamartha hovAthI pAnch indriyo dvArA pAnch
viShayone jANe chhe arthAt indriy gnAnarUpe pariName chhe, ane je pAnch indriyo ane pAnch sparshAdi
viShayothI jaNAto nathI arthAt vItarAg nirvikalpa svasamvedanagnAnano viShay hovA chhatAn pAnch
indriyothI (ane pAnch viShayothI) jaNAto nathI, te paramAtmA chhe.
‘‘
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पाँच प्रकार परिवर्तन (भ्रमण) स्वरूप संसार [नैव ] नहीं है, [बन्धोनापि ] और संसारके कारण
जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकारका बंध भी नहीं है
तू [मनसि व्यवहारम् मुक्त्वा ] मनमेंसे सब लौकिक-व्यवहारको छोड़कर तथा
वीतरागसमाधिमें ठहरकर [जानीहि ] जान, अर्थात् चिन्तवन कर
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भूतप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नकेवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्ति रूपमोक्षपदार्थाद्विलक्षणो
बन्धोऽपि नास्ति, सो परमप्पउ जाणि तुहुं मणि मिल्लिवि ववहारु तमेवेत्थंभूतलक्षणं परमात्मानं
मनसि व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि, वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः
प्रकारोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकत्वादुपादेय इति तात्पर्यार्थः
prakRiti, sthiti, anubhAg, ane pradeshanA bhedathI bhinna evA kevaLagnAnAdi anantachatuShTayanI
vyaktirUp mokShapadArthathI vilakShaN evo bandh paN jene nathI, te paramAtmAne manamAnthI vyavahAr
chhoDIne jAN arthAt vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne bhAv.
chhe evo tAtparyArtha chhe. 46.
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ज्ञेय (पदार्थ) हैं, वहाँतक फै ल जाता है, [ज्ञेयाभावे ] और ज्ञेयका अवलम्बन न मिलनेसे
[बलेपि ? ] जाननेकी शक्ति होनेपर भी [तिष्ठति ] ठहर जाता है, अर्थात् कोई पदार्थ जाननेसे
बाकी नहीं रहता, सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सब भावोंको ज्ञान जानता है, ऐसे तीनलोक
सरीखे अनंते लोकालोक होवें, तो भी एकसमयमें ही जान लेवे, [यस्य ] जिस भगवान्
परमात्माके [पदे ] केवलज्ञानमें [परमस्वभावं ] अपना उत्कृष्ट स्वभाव सबके जाननेरूप
[बिम्बितं ] प्रतिभासित हो रहा है, अर्थात् ज्ञान सबका अंतर्यामि है, सर्वाकार ज्ञानकी परिणति
है, ऐसा [भणित्वा ] जानकर ज्ञानका आराधन करो
अभाव नहीं कह सकते, इसी तरह सर्वव्यापक ज्ञान केवलीका है, जिसके ज्ञानमें सर्व पदार्थ
झलक ते हैं, वही ज्ञान आत्माका परमस्वभाव है, ऐसा जिसका ज्ञान है, वही शुद्धात्मा उपादेय
है
gnAtRutvashaktinA abhAvathI nahi evo artha chhe. je bhagavAnanA paramAtmasvarUpamAn gnAn bimbit
thaI rahyun chhe, tadAkAre pariNamI rahyun chhe; shA kAraNe? paramasvabhAvane jANIne e artha chhe.
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हैं
[यस्य ] जिस आत्माका [किमपि ] कुछ भी अर्थात् अनंतज्ञानादिस्वरूप [न जनितः ] न तो
नया पैदा किया और [नैव हृतः ] न विनाश किया, और न दूसरी तरहका किया, [तं ] उस
[परमात्मानं ] परमात्माको [भावय ] तू चिंतवन कर
दर्शनको आच्छादन करता है, वेदनीय साता-असाता उत्पन्न करके अतीन्द्रियसुखको घातता
है, मोहनीय सम्यक्त्व तथा चारित्रको रोकता है, आयुकर्म स्थितिके प्रमाण शरीरमें राखता
है, अविनाशी भावको प्रगट नहीं होने देता, नामकर्म नाना प्रकार गति जाति शरीरादिकको
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विनाशितं न चाभिनवं जनितमुत्पादितं किमपि यस्यात्मनस्तं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ
स्थित्वा भावयेत्यर्थः
प्रगट नहीं होने देता
आत्मा तो जैसा है वैसा ही है
है
परमात्माका तू ध्यान कर, ऐसा कहते हैं
jarA paN vinAsh pAmatun nathI ke navun utpanna thatun nathI, te paramAtmAne vItarAg nirvikalpa
samAdhimAn sthit thaIne bhAv evo artha chhe.
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भवति
होता, [कर्म अपि ] और कर्म भी [यः ] जिस परमात्मरूप [कदाचिदपि स्फु टं ] कभी भी
निश्चयकर [न ] नहीं होते, [तं ] उस पूर्वोक्त लक्षणोंवाले [परमात्मानं ] परमात्माको तू
[भावय ] चिंतवन कर
नहीं है, अर्थात् केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूपको छोड़कर कर्मरूप नहीं परिणमता,
और ये ज्ञानावरणादि द्रव्य
और अजीव है, वह जीव नहीं होता
chhatAn paN shuddha nishchayanayathI karmarUp thato nathI, arthAt kevaLagnAnAdi anant guNasvarUp chhoDIne
karmarUp pariNamato nathI, ane karma paN nishchayathI kadI paN je-rUp thatun nathI, te A pramANe
karmapudgalasvarUp chhoDIne paramAtmArUpe pariNamatun nathI, te paramAtmAne tun bhAv.
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सर्वप्रकारोपादेयभूतं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमात्मानं भावयेति भावार्थः
तिष्ठति, तथाभूतः शुद्धनिश्चयेन शक्ति रूपेण देहेऽपि तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन
चतुर्विंशतिसूत्राणि गतानि
बहिरात्मपनेको छोड़कर शुद्धात्मपरिणतिकी भावनारूप अन्तरात्मामें स्थिर होकर चिन्तवन करो,
उसीका अनुभव करो, ऐसा तात्पर्य हुआ
देहमें तिष्ठ रहा है, ऐसे कथनकी मुख्यतासे चौबीस दोहा-सूत्र कहे गये
shaktirUpe dehamAn paN birAje chhe, evA vyAkhyAnanI mukhyatAthI chovIs sUtro samApta thayAn.