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जीवको [जडं ] जड़ [भणंति ] कहते हैं, [केऽपि ] कोई बौद्ध-दर्शनवाले जीवको [शून्यं
अपि ] शून्य भी [भणंति ] कहते हैं, [केऽपि ] कोई जिनधर्मी [जीवं ] जीवको [देहसमं ]
व्यवहारनयकर देहप्रमाण [भणंति ] कहते हैं, और निश्चयनयकर लोकप्रमाण कहते हैं
जानो, [आत्मानं देहप्रमाणं ] आत्माको देहके बराबर भी [मन्यस्व ] मानो, [आत्मानं शून्य ]
आत्माको शून्य भी [विजानीहि ] जानो
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anusAre tem mAnavAmAn) koI doSh nathI. evo bhAvArtha chhe. 51.
इति भावार्थः
है [तेन ] इसीलिये [हे जीव ] हे जीव, [सर्वगः ] सर्वगत [उच्यते ] कहा जाता है
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व्यवहारनयेन ज्ञानापेक्षया रूपविषये
vyavahAranayathI rUpanA viShayane dekhavAthI netra ‘padArthagat’ chhe, paN te padArthomAn jatun nathI tevI
rIte,) vyavahAranayathI gnAn-apekShAe AtmA ‘sarvagat’ chhe, paN pradeshanI apekShAe nahi.
abhAvathI nahi. (paN sarvagnapaNAno abhAv chhe mATe vyavahAr kahevAmAn Ave chhe em nathI.)
mahAn doSh Ave.
निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं
व्यवहारनयसे कहा, कुछ ज्ञानके अभावसे नहीं कहा
परके सुख, दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी हो, यह बड़ा दूषण है
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ज्ञानाभावरूप जड़ नहीं है, चैतन्यरूप ही है, अपेक्षासे जड़ कहा जाता है, यह अभिप्राय मनमें
रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं
प्राप्त होता है, [हे योगिन् ] हे योगी, [तेन ] उसी कारणसे [जीवं ] जीवको [जडमपि ] जड़
भी [विजानीहि ] जानो
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पुनः सर्वदैव नास्ति तेन कारणेन जडत्वमिति
hotun nathI, te kAraNe jIv ‘jaD’ chhe.
केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही है, इसलिये
इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है
भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं
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नैव, चरमशरीरप्रमाण एव तिष्ठतीत्यर्थः
vadhato-ghaTato nathI arthAt charamasharIrapramAN ja rahe chhe.
thavo joIe?
Avyo hato, te kAraNe tenA AvaraNano abhAv thatAn ja prakAshavistAr ghaTe chhe ja (sambhave chhe)
paN jIv anAdikALathI karmathI DhankAyelo hovAthI teno svAbhAvik vistAr nathI.
है, [तेन ] इसी कारण [जिनवराः ] जिनेन्द्रदेव [जीवं ] जीवको [चरमशरीरप्रमाणं ]
चरमशरीरप्रमाण [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
शरीरकी वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारता है, तब घट जाता है और मुक्त
अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण जो नामकर्म उसका अभाव होनेसे जीवके प्रदेश न तो
सिकुड़ते हैं, न फै लते हैं, किन्तु चरमशरीरसे कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं, इसलिये
शरीरप्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ
प्रकाश विस्तृत होकर फै ल जाता है, उसी प्रकार मुक्ति अवस्थामें आवरणका अभाव होनेसे
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abhAv thatAn jIvanA pradeshono sankoch-vistAr thato nathI, jIvanA pradesho ‘charamasharIrapramAN’ ja
rahe chhe.
समाधान यह है, कि दीपकके प्रकाशका जो विस्तार है, वह स्वभावसे होता है, परसे नहीं
उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन आदिसे अथवा दूसरे आवरणसे आच्छादन किया गया, तब वह
प्रकाश संकोचको प्राप्त हो जाता है, जब आवरणका अभाव होता है, तब प्रकाश विस्ताररूप
हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीवका प्रकाश अनादिकालसे कर्मोंसे ढका हुआ है,
पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ
कारण सूखी मिट्टीके बर्तनकी तरह कारणके अभावसे संकोच-विस्ताररूप नहीं होता, शरीर
-प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जबतक मिट्टीका बर्तन जलसे गीला रहता है, तबतक जलके
सम्बन्धसे वह घट बढ़ जाता है, और जब जलका अभाव हुआ, तब बर्तन सूख जानेसे
घटता बढ़ता नहीं है
सिकुड़ते हैं और फै लते हैं
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shuddhaprANarUpathI shuddha jIvatva hovA chhatAn paN dash prANarUp ashuddha jIvatva nathI, te kAraNe
sansArI jIvo nishchayanayathI shaktirUpe rAgAdi vibhAvathI shUnya paN chhe ane mukta AtmAo
ne to rAgAdi vibhAvathI pragaTapaNe shUnyapaNun chhe, paN bauddhAdinI mAnyatAnI jem AtmAne
दिखलाते हैं
[शुद्धानां ] शुद्धात्माओंके [नैव अस्ति ] नहीं है, [तेन ] इसलिये [शून्योऽपि ] शून्य भी
[भण्यते ] कहा जाता है
हैं, और अपि शब्दसे सत्ता चैतन्य ज्ञान आनंदादि शुद्ध प्राण होनेपर भी इन्द्रियादि दश
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अपिशब्दात्सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणरूपेण शुद्धजीवत्वे सत्यपि दशप्राणरूपमशुद्धजीवत्वं च नास्ति
तेन कारणेन संसारिणां निश्चयनयेन शक्ति रूपेण रागादिविभावशून्यं च भवति
परमात्मा निश्चयनयेनासंख्यातप्रदेशोऽपि स्वदेहमध्ये तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्कं
गतम्
chhe ke
bhagavanto chhe.)
है, लेकिन रागादि विभाव-भावोंकी शून्यता ही है
अपेक्षासे आत्माको शून्य भी कहते हैं
सकता
सर्वथा अभाव नहीं है, वे सिद्धभगवान् देहसे रहित हैं, और वचनके विषयसे रहित हैं,
अर्थात् जिनका स्वभाव वचनोंसे नहीं कह सकते
स्वभावसे पूर्ण कहा गया है, वही उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ
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nishchayanayathI asankhya pradeshI hovA chhatAn paN potAnA dehamAn rahe chhe, evI vyAkhyAnanI mukhyatAthI
chha sUtro samApta thayAn.
है, तो भी अपनी देहके प्रमाण रहता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये
[द्रव्यस्वभावेन ] द्रव्यस्वभावकर [नित्यं मन्यस्व ] नित्य जानो, [पर्यायः विनश्यति भवति ]
पर्यायभावसे विनाशीक है
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कर्माणि जनयति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शक्ति रूपेण कर्मकर्तृभूतेन नरनारकादिपर्यायेण न
जन्यते स्वयं च कर्मनोकर्मादिकं न जनयतीति
पर्यायार्थिकनयेनोत्पद्यते विनश्यति चेति
thato nathI ane pote karma-nokarmAdikane utpanna karato nathI. vaLI AtmA pote kevaL shuddha
nishchayanayathI nahi, parantu vyavahArathI paN utpanna thato nathI ane utpanna karato nathI te kAraNe
dravyArthikanayathI AtmA nitya chhe, paryAyArthikanayathI AtmA Upaje chhe ne nAsh pAme chhe.
शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मोंसे उत्पन्न हुई नर-नारकादि पर्यायरूप नहीं होता,
और आप भी कर्म-नोकर्मादिकको नहीं उपजाता और व्यवहारसे भी न जन्मता है, न किसीसे
विनाशको प्राप्त होता है, न किसीको उपजाता है, कारणकार्यसे रहित है अर्थात् कारण
उपजानेवालेको कहते हैं
प्राप्त होता है
है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर
ही हैं
परिणतिरूप अर्थपर्याय है, वह समय-समयमें आविर्भावतिरोभावरूप होती है
५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंतगुणवृद्धि
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gnAn pariName chhe te apekShAe athavA (3) siddha thayA tyAre sansAraparyAyano nAsh thayo, siddha
paryAyano utpAd thayo ane shuddha jIvadravyanI apekShAe dhrauvya rahyun te apekShAe, siddhone
utpAdavyay jANavA.
have dravya guN paryAyanun svarUp kahe chhe
परिणतिकी अपेक्षा उत्पाद-व्यय जानना
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भणिता इति
pramANe
पाये जावें, नित्यरूप हों, वे तो [तेषां गुणाः ] उन द्रव्योंके गुण हैं, [क्रमभुवः ] और जो
द्रव्यकी अनेकरूप परिणति क्रमसे हों अर्थात् अनित्यपनेरूप समय-समय उपजे, विनशे,
नानास्वरूप हों वह [पर्यायाः ] पर्याय [उक्ताः ] कही जाती हैं
हमेशा एकरूप नित्यरूप पाये जाते हैं, और पर्याय नानारूप होती हैं, जो परिणति पहले
समयमें थी, वह दूसरे समयमें नहीं होती, समय-समयमें उत्पाद व्ययरूप होता है, इसलिये
पर्याय क्रमवर्ती कहा जाता है
वर्ण, इत्यादि अनंतगुण हैं, सो ये गुण तो द्रव्यमें सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं, कभी
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सर्वद्रव्यसाधारणाः
matignAnAdi vibhAvaguNo ane naranArakAdi vibhAvaparyAyo chhe.
varNAdi svabhAvaguNo chhe, dvyaNukAdi skandharUp vibhAvaparyAyo chhe, te dvyaNukAdiskandhomAn varNAdi
पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्ध पर्याय है
पाया जाता है, दूसरोंके नहीं
होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणुमें जो तीन इत्यादि अनेक परमाणु
मिलकर स्कंधरूप होना, ये विभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं
गंध होना, यह विभाव-पर्याय हैं
हैं, इनको आदिसे अस्तित्वादि अनंतगुण हैं, वे स्वभाव-गुण कहे जाते हैं, और परमाणुका जो
आकार वह स्वभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभावगुण
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svabhAvaparyAyo chhe ane te yogya samaye kahevAmAn Avashe. ane (AkAshane) vibhAvaparyAyo
upachArathI chhe, jem ke ghaTAkAsh, (maThAkAsh) vagere.
have jIvanA dravya, guN, paryAyanun visheShapaNe kathan kare chhe
हानि-वृद्धिरूप स्वभाव-पर्याय सभीके हैं
चार गतियोंके भाव तथा शरीरको [कर्मविनिर्मितान् ] कर्मजनित [पर्यायान् ] विभाव-पर्याय
[जानीहि ] समझ
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chhe, kevaLagnAn sakal, akhanD, shuddha chhe, bAkInA sAt khanD gnAn ashuddha chhe. te sAtamAn mati,
shrut, avadhi ane manaparyay e chAr gnAn samyaggnAn chhe. kumati, kushrut, kuavadhi e traN gnAn
mithyAgnAn chhe.
जानपना उसको ज्ञान समझ
मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान तो सम्यक्ज्ञान और कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान,
ये केवल की अपेक्षा सातों ही खंडित हैं, अखंड, और सर्वथा शुद्ध नहीं है, अशुद्धता सहित
हैं, इसलिये परमात्मामें एक केवलज्ञान ही है
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paN vijAtimAn (vijAtiy dravyonI apekShAe) asAdhAraN chhe. amUrtatva, pudgaladravya, prati
(pudgaladravyanI apekShAe) asAdhAraN chhe, AkAshAdi prati sAdhAraN chhe. vaLI pradeshapaNun kALadravya
prati ane pudgalaparamANudravya prati asAdhAraN chhe, bAkInA dravyo prati sAdhAraN chhe.
e pramANe bAkInA dravyonun kathan paN yathAsambhav samajI levun evo bhAvArtha chhe. 58.
have jemAn traN prakAranA AtmAnun kathan chhe evA pahelA mahAdhikAramAn dravya-guNaparyAyanA
हैं
स्वभाव-विभाव दोनों हैं
व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं
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jIvathI karma utpanna thayun nathI tem ja jIv paN svashuddhAtmasamvedananA abhAvathI upajelA karmathI
है, उसमें प्रथम ही जीव और कर्मका अनादिकालका सम्बन्ध है, ऐसा कहते हैं
जीवने [कर्म ] कर्म [न जनितं ] नहीं उत्पन्न किये, [कर्मणा अपि ] ज्ञानावरणादि कर्मोंने भी
[जीवः ] यह जीव [नैव जनितः ] नहीं उपजाया, [येन ] क्योंकि [द्वयोःअपि ] जीव कर्म इन
दोनोंका ही [आदिः न ] आदि नहीं है, दोनों ही अनादिके हैं
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hoy to pachhI bandh kaI rIte thAy? ane jo bandhan ane mukti na hoy to ‘mUkAyo’ kahevun
nirarthak hoy. 59.
शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन जीवेन न तु जनितं कर्म तथाविधजीवोऽपि
स्वशुद्धात्मसंवित्त्यभावोपार्जितेन कर्मणा नरनारकादिरूपेण न जनितः कर्मात्मेति च
द्वयोरनादित्वादिति
तो बीजसे वृक्ष हुआ
कहना किस तरह ठीक हो सकता
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परिणमता है
किये शुभ-अशुभ कर्मोंके कारणको पाकर पुण्यी तथा पापी होता है
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थोंमें इच्छाके रोकनेरूप तप, ये चार निश्चयआराधना
shubhAshubh karmarUp kAraNane pAmIne puNyarUp ane pAparUp thAy chhe.