Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 51-55 (Adhikar 1),56 (Adhikar 1) Dravya, Gun, Paryayanu Mukhyata Dwara Aatmanu Kathan,57 (Adhikar 1) Dravya, Paryaynu Swaroop,58 (Adhikar 1),59 (Adhikar 1) Jivno Karmana Sambandhama Vichar,60 (Adhikar 1).

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केऽपि भणन्ति जीवं सर्वगतं, जीवं केऽपि जडं भणन्ति, केऽपि भणन्ति जीवं देहसमं,
शून्यमपि केऽपि वदन्ति तथाहिकेचन सांख्यनैयायिकमीमांसकाः सर्वगतं जीवं वदन्ति
सांख्याः पुनर्जडमपि कथयन्ति जैनाः पुनर्देहप्रमाणं वदन्ति बौद्धाश्च शून्यं वदन्तीति एवं
प्रश्नचतुष्टयं कृतमिति भावार्थः ।।५०।।
अथ वक्ष्यमाणनयविभागेन प्रश्नचतुष्टयस्याप्यभ्युपगमं स्वीकारं करोति
५१) अप्पा जोइय सव्व-गउ अप्पा जडु वि वियाणि
अप्पा देह-पमाणु मुणि अप्पा सुण्णु वियाणि ।।५१।।
आत्मा योगिन् सर्वगतः आत्मा जडोऽपि विजानीहि
आत्मानं देहप्रमाणं मन्यस्व आत्मानं शून्यं विजानीहि ।।५१।।
जीवको [सर्वगतं ] सर्वव्यापक [भणंति ] कहते हैं, [केऽपि ] कोई सांख्य-दर्शनवाले [जीवं ]
जीवको [जडं ] जड़ [भणंति ] कहते हैं, [केऽपि ] कोई बौद्ध-दर्शनवाले जीवको [शून्यं
अपि ] शून्य भी [भणंति ] कहते हैं, [केऽपि ] कोई जिनधर्मी [जीवं ] जीवको [देहसमं ]
व्यवहारनयकर देहप्रमाण [भणंति ] कहते हैं, और निश्चयनयकर लोकप्रमाण कहते हैं
वह
आत्मा कैसा है ? और कैसा नहीं है ? ऐसे चार प्रश्न शिष्यने किये, ऐसा तात्पर्य है ।।५०।।
आगे नय-विभागकर आत्मा सब रूप है, एकान्तवादकर अन्यवादी मानते हैं, सो ठीक
नहीं है, इस प्रकार चारों प्रश्नोंको स्वीकार करके समाधान करते हैं
गाथा५१
अन्वयार्थ : [हे योगिन् ] हे प्रभाकरभट्ट, [आत्मा सर्वगतः ] आगे कहे जानेवाले
नयके भेदसे आत्मा सर्वगत भी है, [आत्मा ] आत्मा [जडोऽपि ] जड़ भी है ऐसा [विजानीहि ]
जानो, [आत्मानं देहप्रमाणं ] आत्माको देहके बराबर भी [मन्यस्व ] मानो, [आत्मानं शून्य ]
आत्माको शून्य भी [विजानीहि ] जानो
नय-विभागसे माननेमें कोई दोष नहीं है, ऐसा तात्पर्य
है ।।५१।।
bhAvArtha(AtmA kevo chhe te samajavA mATe) e pramANe shiShye chAr prashno upasthit
karyA chhe. e bhAvArtha chhe. 50.
have AgaL kahevAmAn AvatA nayavibhAgathI chAr prashnono abhyupagam-svIkAr kare
chhe
adhikAr-1 dohA-51 ]paramAtmaprakAsha [ 87

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bhAvArthahe prabhAkar bhaTTa! AgaL kahevAmAn AvatA vivakShit nay vibhAganI
apekShAe paramAtmA sarvagat paN chhe, jaD paN chhe, dehapramAN paN chhe, shUnya paN chhe, (nayavibhAg
anusAre tem mAnavAmAn) koI doSh nathI. evo bhAvArtha chhe. 51.
have karma rahit AtmA kevaLagnAn vaDe lokAlokane jANe chhe te kAraNe ‘sarvagat’ chhe, em
pratipAdan kare chhe
bhAvArthaA AtmA vyavahAranayathI kevaLagnAn vaDe lokAlokane jANe chhe, dehamAn
आत्मा हे योगिन् सर्वगतोऽपि भवति, आत्मानं जडमपि विजानीहि, आत्मानं देहप्रमाणं
मन्यस्व, आत्मानं शून्यमपि जानीहि तद्यथा हे प्रभाकरभट्ट वक्ष्यमाणविवक्षितनयविभागेन
परमात्मा सर्वगतो भवति, जडोऽपि भवति, देहप्रमाणोऽपि भवति, शून्योऽपि भवति नापि दोष
इति भावार्थः
।।५१।।
अथ कर्मरहितात्मा केवलज्ञानेन लोकालोकं जानाति तेन कारणेन सर्वगतो भवतीति
प्रतिपादयति
५२) अप्पा कम्म-विवज्जियउ केवल-णाणेँ जेण
लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।।५२।।
आत्मा कर्मविवर्जितः केवलज्ञानेन येन
लोकालोकमपि मनुते जीव सर्वगः उच्यते तेन ।।५२।।
आत्मा कर्मविवर्जितः सन् केवलज्ञानेन करणभूतेन येन कारणेन लोकालोकं मनुते
जानाति हे जीव सर्वगत उच्यते तेन कारणेन तथाहिअयमात्मा व्यवहारेण केवलज्ञानेन
आगे कर्मरहित आत्मा केवलज्ञानसे लोक और अलोक दोनोंको जानता है, इसलिये
सर्व व्यापक भी हो सकता है, ऐसा कहते हैं
गाथा५२
अन्वयार्थ :[आत्मा ] यह आत्मा [कर्मविवर्जितः ] कर्मरहित हुआ [केवलज्ञानेन ]
केवलज्ञानसे [येन ] जिस कारण [लोकालोकमपि ] लोक और अलोकको [मनुते ] जानता
है [तेन ] इसीलिये [हे जीव ] हे जीव, [सर्वगः ] सर्वगत [उच्यते ] कहा जाता है
भावार्थ :यह आत्मा व्यवहारनयसे केवलज्ञानकर लोक-अलोकको जानता है, और
शरीरमें रहनेपर भी निश्चयनयसे अपने स्वरूपको जानता है, इस कारण ज्ञानकी अपेक्षा तो
88 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-52

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लोकालोकं जानाति, देहमध्ये स्थितोऽपि निश्चयनयेन स्वात्मानं जानाति, तेन कारणेन
व्यवहारनयेन ज्ञानापेक्षया रूपविषये
द्रष्टिवत्सर्वगतो भवति न च प्रदेशापेक्षयेति कश्चिदाह यदि
व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं, न च निश्चयनयेनेति
परिहारमाहयथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति तेन
कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं
जानाति तर्हि परकीयसुखदुःखरागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुःखी रागी द्वेषी च स्यादिति महद्दूषणं
rahevA chhatAn paN, nishchayanayathI potAnA AtmAne jANe chhe te kAraNe netravat (jevI rIte
vyavahAranayathI rUpanA viShayane dekhavAthI netra ‘padArthagat’ chhe, paN te padArthomAn jatun nathI tevI
rIte,) vyavahAranayathI gnAn-apekShAe AtmA ‘sarvagat’ chhe, paN pradeshanI apekShAe nahi.
ahIn koI prashna kare chhe ke jo AtmA vyavahAranayathI lokAlokane jANe chhe to
vyavahAranayathI sarvagnapaNun Tharyun paN nishchayanayathI nahi?
teno parihArjevI rIte AtmA tanmay thaIne potAnA AtmAne jANe chhe tevI rIte
paradravyamAn tanmay thaIne temane jANato nathI te kAraNe vyavahAr kahevAmAn Ave chhe, paN gnAnanA
abhAvathI nahi. (paN sarvagnapaNAno abhAv chhe mATe vyavahAr kahevAmAn Ave chhe em nathI.)
vaLI jo AtmA nishchayanayathI, svadravyanI jem paradravyamAn tanmay thaIne temane jANe to
bIjAnAn sukh-dukh, rAg-dveSh jANavAmAn AvatAn, pote sukhI-dukhI ane rAgI-dveShI thAy evo
mahAn doSh Ave.
व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है जैसे रूपवाले पदार्थोंको नेत्र देखते हैं, परंतु
उन पदार्थोंसे तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं यहाँ कोई प्रश्न करता है, कि जो
व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो व्यवहारसे सर्वज्ञपना हुआ,
निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं
जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता
है, उस तरह परद्रव्यको तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण
व्यवहारनयसे कहा, कुछ ज्ञानके अभावसे नहीं कहा
ज्ञानकर जानना तो निज और परका
समान है जैसे अपनेको सन्देह रहित जानता है, वैसा ही परको भी जानता है, इसमें सन्देह
नहीं समझना, लेकिन निज स्वरूपसे तो तन्मयी है, और परसे तन्मयी नहीं और जिस तरह
निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मय होकर जाने, तो
परके सुख, दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी हो, यह बड़ा दूषण है
सो इस प्रकार कभी नहीं हो सकता यहाँ जिस ज्ञानसे सर्वव्यापक कहा, वही ज्ञान उपादेय
अतीन्द्रियसुखसे अभिन्न है, सुखरूप है, ज्ञान और आनन्दमें भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय
adhikAr-1 dohA-52 ]paramAtmaprakAsha [ 89

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प्राप्नोतीति अत्र येनैव ज्ञानेन व्यापको भण्यते तदेवोपादेयस्यानन्तसुखस्याभिन्नत्वादुपादेय-
मित्यभिप्रायः ।।५२।।
अथ येन कारणेन निजबोधं लब्ध्वात्मन इन्द्रियज्ञानं नास्ति तेन कारणेन जडो
भवतीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति
५३) जे णिय-बोह-परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु
इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु ।।५३।।
येन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुटयति ज्ञानम्
इन्द्रियजनितं योगिन् तेन जीवं जडमपि विजानीहि ।।५३।।
येन कारणेन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुटयति विनश्यति किं कर्तृ ज्ञानम्
ahIn je gnAnathI vyApak kahevAmAn Ave chhe te gnAn ja upAdeyabhUt anant sukhathI
abhinna hovAthI upAdey chhe evo abhiprAy chhe. 52.
have je kAraNe nijabodh pAmIne AtmAone indriyagnAn hotun nathI te kAraNe AtmA
‘jaD’ chhe, evo abhiprAy manamAn rAkhIne A sUtra kahe chhe.
है, यह अभिप्राय जानना इस दोहामें जीवको ज्ञानकी अपेक्षा सर्वगत कहा है ।।५२।।
आगे आत्म-ज्ञानको पाकर इन्द्रिय-ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, परमसमाधिमें
आत्मस्वरूपमें लीन है, परवस्तुकी गम्य नहीं है, इसलिये नयप्रमाणकर जड़ भी है, परन्तु
ज्ञानाभावरूप जड़ नहीं है, चैतन्यरूप ही है, अपेक्षासे जड़ कहा जाता है, यह अभिप्राय मनमें
रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं
गाथा५३
अन्वयार्थ :[येन ] जिस अपेक्षा [निजबोधप्रतिष्ठितानां ] आत्म-ज्ञानमें ठहरे हुए
[जीवानां ] जीवोंके [इन्द्रियजनितं ज्ञानम् ] इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान [त्रुटयति ] नाशको
प्राप्त होता है, [हे योगिन् ] हे योगी, [तेन ] उसी कारणसे [जीवं ] जीवको [जडमपि ] जड़
भी [विजानीहि ] जानो
भावार्थ :जिस अपेक्षा आत्म-ज्ञानमें ठहरे हुए जीवोंके इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान
1. pAThAntara नास्ति = नश्यति
90 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-53

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कथंभूतम् इन्द्रियजनितं हे योगिन् तेन कारणेन जीवं जडमपि विजानीहि तद्यथा छद्मस्थानां
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले स्वसंवेदनज्ञाने सत्यपीन्द्रियजनितं ज्ञानं नास्ति, केवलज्ञानिनां
पुनः सर्वदैव नास्ति तेन कारणेन जडत्वमिति
अत्र इन्द्रियज्ञानं हेयमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमिति
भावार्थः ।।५३।।
अथ शरीरनामकर्मकारणरहितो जीवो न वर्धते न च हीयते तेन कारणेन
मुक्त श्चरमशरीरप्रमाणो भवतीति निरूपयति
५४) कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिँ तेण ।।५४।।
कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्रुवन्ति तेन ।।५४।।
bhAvArthachhadmastha jIvone vItarAg nirvikalpa samAdhinA kALamAn svasamvedanagnAn hovA
chhatAn paN indriyajanit gnAn hotun nathI, vaLI kevaLagnAnIone (indriyajanit gnAn) koI vakhate
hotun nathI, te kAraNe jIv ‘jaD’ chhe.
ahIn indriyagnAn hey chhe, atIndriy gnAn upAdey chhe, evo bhAvArtha chhe. 53.
have (hAnivRuddhinA kAraNarUp) sharIranAmakarmanA kAraNathI rahit jIv vadhato nathI ane
ghaTato nathI, tethI mukta jIv ‘charamasharIrapramAN chhe’ em kahe chhe
नाशको प्राप्त होता है, हे योगी, उसी कारणसे जीवको जड़ भी जानो महामुनियोंके
वीतरागनिर्विकल्प-समाधिके समयमें स्वसंवेदनज्ञान होनेपर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं है, और
केवलज्ञानियोंके तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही है, इसलिये
इन्द्रिय-ज्ञानके अभावकी अपेक्षा आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है
यहाँपर बाह्य इन्द्रिय-
ज्ञान सब तरह हेय है और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ।।५३।।
आगे शरीरनामा नामकर्मरूप कारणसे रहित यह जीव न घटता है, और न बढ़ता है,
इस कारण मुक्त -अवस्थामें चरम-शरीरसे कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीरप्रमाण
भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं
गाथा५४
अन्वयार्थ :[येन ] जिस हेतु [कारणविरहितः ] हानि-वृद्धिका कारण शरीर
adhikAr-1 dohA-54 ]paramAtmaprakAsha [ 91

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कारणविरहितः शुद्धजीवो वर्धते क्षरति हीयते न येन कारणेन चरमशरीरप्रमाणं मुक्त जीवं
जिनवरा भणन्ति तेन कारणेनेति तथाहियद्यपि संसारावस्थायां हानिवृद्धिकारणभूतशरीर-
नामकर्मसहितत्वाद्धीयते वर्धते च तथापि मुक्तावस्थायां हानिवृद्धिकारणाभावाद्वर्धते हीयते च
नैव, चरमशरीरप्रमाण एव तिष्ठतीत्यर्थः
कश्चिदाहमुक्तावस्थायां प्रदीपवदावरणाभावे सति
लोकप्रमाणविस्तारेण भाव्यमिति तत्र परिहारमाहप्रदीपस्य योऽसौ प्रकाशविस्तारः स
स्वभावज एव न त्वपरजनितः पश्चाद्भाजनादिना साद्यावरणेन प्रच्छादितस्तेन कारणेन
bhAvArthajo ke sansArAvasthAmAn jIv hAnivRuddhinA kAraNarUp sharIranAm karma sahit
hovAthI ghaTe chhe ane vadhe chhe, topaN mukta-avasthAmAn hAnivRuddhinA kAraNano abhAv hovAthI
vadhato-ghaTato nathI arthAt charamasharIrapramAN ja rahe chhe.
ahIn koI prashna kare chhe ke jevI rIte AvaraNano abhAv thatAn dIvAnA prakAshano vistAr
thAy chhe, tevI rIte mukta-avasthAmAn AvaraNano abhAv thatAn jIvanA pradeshono lokapramANe vistAr
thavo joIe?
teno parihAr karavAmAn Ave chhe ke dIvAnA prakAshano je vistAr chhe te svabhAvajanya chhe,
paN parajanit nathI, bhAjan AdinA sAdi AvaraNathI teno prakAshavistAr AchchhAdit karavAmAn
Avyo hato, te kAraNe tenA AvaraNano abhAv thatAn ja prakAshavistAr ghaTe chhe ja (sambhave chhe)
paN jIv anAdikALathI karmathI DhankAyelo hovAthI teno svAbhAvik vistAr nathI.
sankochavistAr kyA kAraNe chhe? sankochavistAr sharIranAmakarmajanit chhe te kAraNe (jevI
rIte mATInun vAsaN pANIthI bhInun rahe chhe tyAn sudhI pANInA sambandhathI temAn vadh-ghaT thAy chhe,
नामकर्मसे रहित हुआ [शुद्धजीवः ] शुद्धजीव [न वर्धते क्षरति ] न तो बढ़ता है, और न घटता
है, [तेन ] इसी कारण [जिनवराः ] जिनेन्द्रदेव [जीवं ] जीवको [चरमशरीरप्रमाणं ]
चरमशरीरप्रमाण [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
भावार्थ :यद्यपि संसार अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण शरीरनामा नामकर्म है,
उसके संबंधसे जीव घटता है, और बढ़ता है; जब महामच्छका शरीर पाता है, तब तो
शरीरकी वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारता है, तब घट जाता है और मुक्त
अवस्थामें हानि-वृद्धिका कारण जो नामकर्म उसका अभाव होनेसे जीवके प्रदेश न तो
सिकुड़ते हैं, न फै लते हैं, किन्तु चरमशरीरसे कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं, इसलिये
शरीरप्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ
यहाँ कोई प्रश्न करे, कि जब तक दीपकके आवरण
है, तब तक तो प्रकाश नहीं हो सकता, और जब उसके रोकनेवालेका अभाव हुआ, तब
प्रकाश विस्तृत होकर फै ल जाता है, उसी प्रकार मुक्ति अवस्थामें आवरणका अभाव होनेसे
92 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-54

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तस्यावरणाभावेऽपि प्रकाशविस्तारो घटते एव जीवस्य पुनरनादिकर्मप्रच्छादितत्वात्पूर्वं स्वभावेन
विस्तारो नास्ति किंरूपसंहारविस्तारौ शरीरनामकर्मजनितौ तेन कारणेन शुष्कमृत्तिका-
भाजनवत् कारणाभावादुपसंहारविस्तारौ न भवतः चरमशरीरप्रमाणेन तिष्ठतीति अत्र य एव
मुक्तौ शुद्धबुद्धस्वभावः परमात्मा तिष्ठति तत्सद्रशो रागादिरहितकाले स्वशुद्धात्मोपादेय इति
भावार्थः ।।५४।।
paN jaLano abhAv thavAthI) shuShka mATInA vAsaNamAn vadh-ghaT thatI nathI tevI rIte kAraNano
abhAv thatAn jIvanA pradeshono sankoch-vistAr thato nathI, jIvanA pradesho ‘charamasharIrapramAN’ ja
rahe chhe.
ahIn muktimAn shuddha, buddha ek jeno svabhAv chhe evo paramAtmA birAje chhe tenA jevo
ja rAgAdirahit samaye svashuddha AtmA ja upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 54.
आत्माके प्रदेश लोक-प्रमाण फै लने चाहिये, शरीर-प्रमाण ही क्यों रह गये ? उसका
समाधान यह है, कि दीपकके प्रकाशका जो विस्तार है, वह स्वभावसे होता है, परसे नहीं
उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन आदिसे अथवा दूसरे आवरणसे आच्छादन किया गया, तब वह
प्रकाश संकोचको प्राप्त हो जाता है, जब आवरणका अभाव होता है, तब प्रकाश विस्ताररूप
हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीवका प्रकाश अनादिकालसे कर्मोंसे ढका हुआ है,
पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ
शरीर-प्रमाण ही संकोचरूप और विस्ताररूप हुआ,
इसलिये जीवके प्रदेशोंका प्रकाश संकोच विस्ताररूप शरीरनामकर्मसे उत्पन्न हुआ है, इस
कारण सूखी मिट्टीके बर्तनकी तरह कारणके अभावसे संकोच-विस्ताररूप नहीं होता, शरीर
-प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जबतक मिट्टीका बर्तन जलसे गीला रहता है, तबतक जलके
सम्बन्धसे वह घट बढ़ जाता है, और जब जलका अभाव हुआ, तब बर्तन सूख जानेसे
घटता बढ़ता नहीं है
जैसेका तैसा रहता है उसी तरह इस जीवके जबतक नामकर्मका
संबंध है, तबतक संसार-अवस्थामें शरीरकी हानि-वृद्धि होती है, उसकी हानि-वृद्धिसे प्रदेश
सिकुड़ते हैं और फै लते हैं
तथा सिद्ध-अवस्थामें नामकर्मका अभाव हो जाता है, इस
कारण शरीरके न होनेसे प्रदेशोंका संकोच विस्तार नहीं होता, सदा एकसे ही रहते हैं जिस
शरीरसे मुक्त हुआ, उसी प्रमाण कुछ कम रहता है दीपकका प्रकाश तो स्वभावसे उत्पन्न
है, इससे आवरणसे आच्छादित हो जाता है जब आवरण दूर हो जाता है, तब प्रकाश
सहज ही विस्तरता है यहाँ तात्पर्य है, कि जो शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव परमात्मा मुक्तिमें
तिष्ठ रहा है, वैसा ही शरीरमें भी विराज रहा है जब रागका अभाव होता है, उस कालमें
यह आत्मा परमात्माके समान है, वही उपादेय है ।।५४।।
adhikAr-1 dohA-54 ]paramAtmaprakAsha [ 93

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अथाष्टकर्माष्टादशदोषरहितत्वापेक्षया शून्यो भवतीति न च केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
चेति दर्शयति
५५) अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण
सुद्धहँ एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण ।।५५।।
अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन
शुद्धानां एकोऽपि अस्ति नैव शून्योऽपि उच्यते तेन ।।५५।।
अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन कारणेन शुद्धात्मनां तन्मध्ये
चैकोऽप्यस्ति नैव शून्योऽपि भण्यते तेन कारणेनैवेति तद्यथा शुद्धनिश्चयनयेन
have AtmA ATh karma ane aDhAr doShathI rahit hovAnI apekShAe ‘shUnya’ chhe, paN
kevaLagnAnAdi guNonI apekShAe shUnya nathI em darshAve chhe
bhAvArthashuddhanishchayanayathI kShudhAdi doShonAn kAraNabhUt gnAnAvaraNAdi ATh
dravyakarmo, kAryabhUt kShudhAtRuShAdi aDhAr doSho nathI, ‘api’ shabdathI sattA, chaitanya, bodh Adi
shuddhaprANarUpathI shuddha jIvatva hovA chhatAn paN dash prANarUp ashuddha jIvatva nathI, te kAraNe
sansArI jIvo nishchayanayathI shaktirUpe rAgAdi vibhAvathI shUnya paN chhe ane mukta AtmAo
ne to rAgAdi vibhAvathI pragaTapaNe shUnyapaNun chhe, paN bauddhAdinI mAnyatAnI jem AtmAne
आगे आठ कर्म और अठारह दोषोंसे रहित हुआ विभाव-भावोंकर रहित होनेसे शून्य
कहा जाता है, लेकिन केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा शून्य नहीं है, सदा पूर्ण ही है, ऐसा
दिखलाते हैं
गाथा५५
अन्वयार्थ :[येन ] जिस कारण [अष्टौ अपि ] आठों ही [बहुविधानि कर्माणि ]
अनेक भेदोंवाले कर्म [नवनव दोषा अपि ] अठारह ही दोष इनमेंसे [एकः अपि ] एक भी
[शुद्धानां ] शुद्धात्माओंके [नैव अस्ति ] नहीं है, [तेन ] इसलिये [शून्योऽपि ] शून्य भी
[भण्यते ] कहा जाता है
भावार्थ :इस आत्माके शुद्धनिश्चयनयकर ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्म नहीं है,
क्षुधादि दोषोंके कारणभूत कर्मोंके नाश हो जानेसे क्षुधा-तृषादि अठारह दोष कार्यरूप नहीं
हैं, और अपि शब्दसे सत्ता चैतन्य ज्ञान आनंदादि शुद्ध प्राण होनेपर भी इन्द्रियादि दश
94 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-55

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ज्ञानावरणाद्यष्टद्रव्यकर्माणि क्षुधादिदोषकारणभूतानि क्षुधातृषादिरूपाष्टादशदोषा अपि कार्यभूताः,
अपिशब्दात्सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणरूपेण शुद्धजीवत्वे सत्यपि दशप्राणरूपमशुद्धजीवत्वं च नास्ति
तेन कारणेन संसारिणां निश्चयनयेन शक्ति रूपेण रागादिविभावशून्यं च भवति
मुक्तात्मनां तु
व्यक्ति रूपेणापि न चात्मानन्तज्ञानादिगुणशून्यत्वमेकान्तेन बौद्धादिमतवदिति तथा चोक्तं
पञ्चास्तिकाये‘‘जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा
वचिगोयरमदीदा’’ अत्र य एव मिथ्यात्वरागादिभावेन शून्यश्चिदानन्दैकस्वभावेन भरितावस्थः
प्रतिपादितः परमात्मा स एवोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।५५।। एवं त्रिविधात्मप्रतिपादक-
प्रथममहाधिकारमध्ये य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापको भणितः स एव
परमात्मा निश्चयनयेनासंख्यातप्रदेशोऽपि स्वदेहमध्ये तिष्ठतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्कं
गतम्
।।५५।।
anant gnAnAdi guNathI shUnyapaNun ekAnte nathI. panchAstikAy (gAthA-35)mAn paN kahyun
chhe ke
‘जेसिं जीव सहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स ते होंति भिण्णदेहा
सिद्धा वचिगोयरमदीदा’ arthajemane jIvasvabhAv (prANadhAraNarUp jIvatva) nathI ane
sarvathA teno abhAv paN nathI, te deharahit vachanagocharAtIt siddho chhe. (siddha
bhagavanto chhe.)
ahIn mithyAtva, rAgAdi bhAvathI shUnya ek (kevaL) chidAnandarUp svabhAvathI
paripUrNa je paramAtmA kahevAmAn Avyo chhe te upAdey chhe, evo tAtparyArtha chhe. 55.
अशुद्धरूप प्राण नहीं हैं, इसलिये संसारी-जीवोंके भी शुद्धनिश्चयनयसे शक्तिरूपसे शुद्धपना
है, लेकिन रागादि विभाव-भावोंकी शून्यता ही है
तथा सिद्ध जीवोंके तो सब तरहसे
प्रगटरूप रागादिसे रहितपना है, इसलिये विभावोंसे रहितपनेकी अपेक्षा शून्यभाव है, इसी
अपेक्षासे आत्माको शून्य भी कहते हैं
ज्ञानादिक शुद्ध भावकी अपेक्षा सदा पूर्ण ही है,
और जिस तरह बौद्धमती सर्वथा शून्य मानते हैं, वैसा अनंतज्ञानादि गुणोंसे कभी नहीं हो
सकता
ऐसा कथन श्रीपंचास्तिकायमें भी किया है‘‘जेसिं जीवसहावो’’ इत्यादि
इसका अभिप्राय यह है, कि जिन सिद्धोंके जीवका स्वभाव निश्चल है, जिस स्वभावका
सर्वथा अभाव नहीं है, वे सिद्धभगवान् देहसे रहित हैं, और वचनके विषयसे रहित हैं,
अर्थात् जिनका स्वभाव वचनोंसे नहीं कह सकते
यहाँ मिथ्यात्व रागादिभावकर शून्य
तथा एक चिदानंदस्वभावसे पूर्ण जो परमात्मा कहा गया है, अर्थात् विभावसे शून्य
स्वभावसे पूर्ण कहा गया है, वही उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ
।।५५।।
adhikAr-1 dohA-55 ]paramAtmaprakAsha [ 95

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तदनन्तरं द्रव्यगुणपर्यायनिरूपणमुख्यत्वेन सूत्रत्रयं कथयति तद्यथा
५६) अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पेँ जणिउ ण कोइ
दव्व-सहावेँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ ।।५६।।
आत्मा जनितः केन नापि आत्मना जनितं न किमपि
द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व पर्यायः विनश्यति भवति ।।५६।।
आत्मा न जनितः केनापि आत्मना कर्तृभूतेन जनितं न किमपि, द्रव्यस्वभावेन
नित्यमात्मानं मन्यस्व जानीहि पर्यायो विनश्यति भवति चेति तथाहि संसारिजीवः
e pramANe traN prakAranA AtmAnA pratipAdak pratham mahAdhikAramAn je paramAtmA
vyavahAranayathI gnAnanI apekShAe lokAlokavyApak kahevAmAn Avyo chhe, te ja paramAtmA
nishchayanayathI asankhya pradeshI hovA chhatAn paN potAnA dehamAn rahe chhe, evI vyAkhyAnanI mukhyatAthI
chha sUtro samApta thayAn.
tyAr pachhI dravya-guN-paryAyanA kathananI mukhyatAthI traN sUtro kahe chhe te A
pramANe
bhAvArthasansArI jIv shuddhaAtmAnI samvittinA abhAvathI upArjan karelA karmathI
jo ke vyavahArathI utpanna thAy chhe ane pote shuddhaAtmAnI samvittithI chyut thaI karmone utpanna
ऐसे जिसमें तीन प्रकारकी आत्माका कथन है, ऐसे पहले महाधिकारमें जो ज्ञानकी
अपेक्षा व्यवहानयसे लोकलोकव्यापक कहा गया, वही परमात्मा निश्चयनयसे असंख्यातप्रदेशी
है, तो भी अपनी देहके प्रमाण रहता है, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये
आगे द्रव्य, गुण, पर्यायके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे कहते हैं
गाथा५६
अन्वयार्थ :[आत्मा ] यह आत्मा [केन अपि ] किसीसे भी [न जनितं ] उत्पन्न
नहीं हुआ, [आत्मना ] और इस आत्मासे [किमपि ] कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ,
[द्रव्यस्वभावेन ] द्रव्यस्वभावकर [नित्यं मन्यस्व ] नित्य जानो, [पर्यायः विनश्यति भवति ]
पर्यायभावसे विनाशीक है
भावार्थ :यह संसारी-जीव यद्यपि व्यवहारनयकर शुद्धात्मज्ञानके अभावसे उपार्जन
किये ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मोंके निमित्तसे नर-नारकादि पर्यायोंसे उत्पन्न होता है, और
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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-1 dohA-56

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शुद्धात्मसंवित्त्यभावेनोपार्जितेन कर्मणा यद्यपि व्यवहारेण जन्यते स्वयं च शुद्धात्मसंवित्तिच्युतः सन्
कर्माणि जनयति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शक्ति रूपेण कर्मकर्तृभूतेन नरनारकादिपर्यायेण न
जन्यते स्वयं च कर्मनोकर्मादिकं न जनयतीति
आत्मा पुनर्न केवलं शुद्धनिश्चयनयेन
व्यवहारेणापि न च जन्यते न च जनयति तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन नित्यो भवति,
पर्यायार्थिकनयेनोत्पद्यते विनश्यति चेति
अत्राह शिष्यः मुक्तात्मनः कथमुत्पादव्ययाविति
kare chhe, topaN shuddha nishchayanayathI shaktirUpe karmarUp kartA vaDe naranArakAdi paryAy rUpe utpanna
thato nathI ane pote karma-nokarmAdikane utpanna karato nathI. vaLI AtmA pote kevaL shuddha
nishchayanayathI nahi, parantu vyavahArathI paN utpanna thato nathI ane utpanna karato nathI te kAraNe
dravyArthikanayathI AtmA nitya chhe, paryAyArthikanayathI AtmA Upaje chhe ne nAsh pAme chhe.
ahIn shiShya prashna kare chhe kemuktaAtmAne utpAdavyay kaI rIte ghaTI shake?
विनसता है, और आप भी शुद्धात्मज्ञानसे रहित हुआ कर्मोंको उपजाता (बाँधता) है, तो भी
शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मोंसे उत्पन्न हुई नर-नारकादि पर्यायरूप नहीं होता,
और आप भी कर्म-नोकर्मादिकको नहीं उपजाता और व्यवहारसे भी न जन्मता है, न किसीसे
विनाशको प्राप्त होता है, न किसीको उपजाता है, कारणकार्यसे रहित है अर्थात् कारण
उपजानेवालेको कहते हैं
कार्य उपजनेवालेको कहते हैं सो ये दोनों भाव वस्तुमें नहीं हैं,
इससे द्रव्यार्थिकनयकर जीव नित्य है, और पर्यायार्थिकनयकर उत्पन्न होता है, तथा विनाशको
प्राप्त होता है
यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है, कि संसारी जीवोंके तो नर-नारकी आदि पर्यायोंकी
अपेक्षा उत्पत्ति और मरण प्रत्यक्ष दिखता है, परन्तु सिद्धोंके उत्पाद, व्यय, किस तरह हो सकता
है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर
ही हैं
इसका समाधान यह हैकि जैसा उत्पन्न होना, मरना, चारों गतियोंमें संसारी जीवोंके
है, वैसा तो उन सिद्धोंके नहीं है, वे अविनाशी हैं, परन्तु शास्त्रोंमें प्रसिद्ध अगुरुलघु गुणकी
परिणतिरूप अर्थपर्याय है, वह समय-समयमें आविर्भावतिरोभावरूप होती है
अर्थात् समयमें
पूर्वपरिणतिका व्यय होता है और आगेकी पर्यायका आविर्भाव (उत्पाद) होता है इस
अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय जानना, अन्य संसारी-जीवोंकी तरह नहीं है सिद्धोंके एक
तो अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय कहा है अर्थपर्यायमें षट्गुणी हानि और वृद्धि होती है
१ अनंतभागवृद्धि , २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि,
५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंतगुणवृद्धि
१ अनंतभागहानि, २ असंख्यातभागहानि,
३ संख्यातभागहानि, ४ असंख्यातगुणहानि, ५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनंतगुणहानि ये षट्गुणी
हानि-वृद्धिके नाम कहे हैं इनका स्वरूप तो केवलीके गम्य है, सो इस षट्गुणी हानि
adhikAr-1 dohA-56 ]paramAtmaprakAsha [ 97

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परिहारमाह आगमप्रसिद्धयागुरुलघुकगुणहानिवृद्ध्यपेक्षया, अथवा येनोत्पादादिरूपेण ज्ञेयं वस्तु
परिणमति तेन परिच्छित्त्याकारेण ज्ञानपरिणत्यपेक्षया अथवा मुक्तौ संसारपर्यायविनाशः
सिद्धपर्यायोत्पादः शुद्धजीवद्रव्यापेक्षया धौव्यश्च सिद्धानामुत्पादव्ययौ ज्ञातव्याविति अत्र तदेव
सिद्धस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।५६।।
अथ द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं प्रतिपादयति
५७) तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु
सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु ।।५७।।
तं परिजानाहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्त म्
सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ।।५७।।
teno parihAr :(1) Agam prasiddha agurulaghuguNanI hAni-vRuddhinI apekShAe
athavA (2) je utpAdAdirUpe gney vastu pariName chhe tenI parichchhittinA (jANavAnA) AkAre
gnAn pariName chhe te apekShAe athavA (3) siddha thayA tyAre sansAraparyAyano nAsh thayo, siddha
paryAyano utpAd thayo ane shuddha jIvadravyanI apekShAe dhrauvya rahyun te apekShAe, siddhone
utpAdavyay jANavA.
ahIn te siddha svarUp upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 56.
have dravya guN paryAyanun svarUp kahe chhe
-वृद्धिकी अपेक्षा सिद्धोंके उत्पाद-व्यय कहा जाता है अथवा समस्त ज्ञेयपदार्थ उत्पाद-व्यय
-ध्रौव्यरूप परिणमते हैं, सो सब पदार्थ सिद्धोंके ज्ञान-गोचर हैं ज्ञेयाकार ज्ञानकी परिणति है,
सो जब ज्ञेय-पदार्थमें उत्पाद-व्यय हुआ, तब ज्ञानमें सब प्रतिभासित हुआ, इसलिये ज्ञानकी
परिणतिकी अपेक्षा उत्पाद-व्यय जानना
अथवा जब सिद्ध हुए, तब संसार-पर्यायका विनाश
हुआ, सिद्धपर्यायका उत्पाद हुआ, तथा द्रव्य स्वभावसे सदा ध्रुव ही हैं सिद्धोंके जन्म, जरा,
मरण नहीं हैं, सदा अविनाशी हैं सिद्धका स्वरूप सब उपाधियोंसे रहित है, वही उपादेय है,
यह भावार्थ जानना ।।५६।।
आगे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप कहते हैं
गाथा५७
अन्वयार्थ :[यत् ] जो [गुणपर्याययुक्तं ] गुण और पर्यायोंकर सहित है, [तत् ]
1. pAThAntaraआगमप्रसिद्धया = आगमप्रसिद्धा.
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yogIndudevavirachita
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तं परियाणहि दव्वु तुहुं जं गुणपज्जयजुत्तु तत्परि समन्ताज्जानीहि द्रव्यं त्वम्
तत्किम् यद्गुणपर्याययुक्तं , गुणपर्यायस्य स्वरूपं कथयति सहभुव जाणहि ताहं गुण
कमभुव पज्जउ वुत्तु सहभुवो जानीहि तेषां द्रव्याणां गुणाः, क्रमभुवः पर्याया उक्ता
भणिता इति
तद्यथा गुणपर्ययवद् द्रव्यं ज्ञातव्यम् इदानीं तस्य द्रव्यस्य गुणपर्यायाः
कथ्यन्ते सहभुवो गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः, इदमेकं तावत्सामान्यलक्षणम् अन्वयिनो
गुणाः व्यतिरेकिणः पर्यायाः, इति द्वितीयं च यथा जीवस्य ज्ञानादयः पुद्गलस्य
वर्णादयश्चेति ते च प्रत्येकं द्विविधाः स्वभावविभावभेदेनेति तथाहि जीवस्य
bhAvArtha‘गुणपर्ययवद् द्रव्यं’ jANavun (guNaparyAyavALun te dravya jANavun) have te dravyanA
guNaparyAy kahevAmAn Ave chheसहभुवो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः (sahabhAvI guNo chhe, kramabhAvI
paryAyo chhe.) A ek pahelun sAmAnya lakShaN chhe. अन्वयिनः गुणाः व्यतिरेकिणः पर्यायाः (anvayI
te guNo chhe, vyatirekI te paryAyo chhe), e bIjun lakShaN chhe. jem kejIvanA gnAnAdi ane
pudgalanA varNAdi guNo ane te darek svabhAv ane vibhAvanA bhedathI be prakAre chhe te A
pramANe
pratham jIvanA guNaparyAyo kahevAmAn Ave chhe. siddhatvAdi jIvanA asAdhAraN svabhAv-
paryAyo chhe ane kevaLagnAnAdi jIvanA asAdhAraN svabhAvaguNo chhe. agurulaghu te sarvadravyanA
उसको [त्वं ] हे प्रभाकरभट्ट, तू [द्रव्यं ] द्रव्य [परिजानिहि ] जान, [सहभुवः ] जो सदाकाल
पाये जावें, नित्यरूप हों, वे तो [तेषां गुणाः ] उन द्रव्योंके गुण हैं, [क्रमभुवः ] और जो
द्रव्यकी अनेकरूप परिणति क्रमसे हों अर्थात् अनित्यपनेरूप समय-समय उपजे, विनशे,
नानास्वरूप हों वह [पर्यायाः ] पर्याय [उक्ताः ] कही जाती हैं
।।
भावार्थ :जो द्रव्य होता है, वह गुणपर्यायकर सहित होता है यही कथन
तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है ‘‘गुणपर्यायवद्द्रव्यं’’ अब गुणपर्यायका स्वरूप कहते हैं‘‘सहभुवो
गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः’’ यह नयचक्र ग्रंथका वचन है, अथवा ‘‘अन्वयिनो गुणा
व्यतिरेकिणः पर्यायाः’’ इनका अर्थ ऐसा है, कि गुण तो सदा द्रव्यसे सहभावी हैं, द्रव्यमें
हमेशा एकरूप नित्यरूप पाये जाते हैं, और पर्याय नानारूप होती हैं, जो परिणति पहले
समयमें थी, वह दूसरे समयमें नहीं होती, समय-समयमें उत्पाद व्ययरूप होता है, इसलिये
पर्याय क्रमवर्ती कहा जाता है
अब इसका विस्तार कहते हैंजीव द्रव्यके ज्ञान आदि
अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आदि अनंत गुण हैं, और पुद्गल-द्रव्यके स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण, इत्यादि अनंतगुण हैं, सो ये गुण तो द्रव्यमें सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं, कभी
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तावत्कथ्यन्ते सिद्धत्वादयः स्वभावपर्यायाः केवलज्ञानादयः स्वभावगुणा असाधारणा इति
अगुरुलघुकाः स्वभावगुणास्तेषामेव गुणानां षड्हानिवृद्धिरूपस्वभावपर्यायाश्च
सर्वद्रव्यसाधारणाः
तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा नरनारकादिविभावपर्यायाश्च इति
इदानीं पुद्गलस्य कथ्यन्ते केवलपरमाणुरूपेणावस्थानं स्वभावपर्यायः वर्णान्तरादिरूपेण
परिणमनं वा तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति,
द्वयणुकादिरूपस्कन्धरूपविभावपर्यायास्तेष्वेव द्वयणुकादिस्कन्धेषु वर्णादयो विभावगुणा इति
sAdhAraN svabhAv guNo chhe, te ja guNonI ShaTguNahAnivRuddhirUp svabhAv paryAyo chhe. te jIvane
matignAnAdi vibhAvaguNo ane naranArakAdi vibhAvaparyAyo chhe.
have pudgalanA guNaparyAy kahevAmAn Ave chhekevaL paramANurUpe rahevun te athavA
varNAntarAdirUpe (ek varNathI bIjA varNarUpe) pariNamavun te svabhAvaparyAy chhe. te paramANumAn
varNAdi svabhAvaguNo chhe, dvyaNukAdi skandharUp vibhAvaparyAyo chhe, te dvyaNukAdiskandhomAn varNAdi
द्रव्यसे तन्मयपना नहीं छोड़ते तथा पर्यायके दो भेद हैंएक तो स्वभाव दूसरी विभाव
जीवके सिद्धत्वादि स्वभाव-पर्याय हैं, और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुण हैं ये तो जीवमें ही
पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यमें नहीं पाये जाते तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, ये
स्वभावगुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं अगुरुलघु गुणका परिणमन षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप है
यह स्वभावपर्याय सभी द्रव्योंमें हैं, कोई द्रव्य षट्गुणी हानि-वृद्धि बिना नहीं है, यही अर्थ-
पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्ध पर्याय है
यह शुद्ध पर्याय संसारीजीवोंके सब अजीव-
पदार्थोंके तथा सिद्धोंके पायी जाती है, और सिद्धपर्याय तथा केवलज्ञानादि गुण सिद्धोंके ही
पाया जाता है, दूसरोंके नहीं
संसारी-जीवोंके मतिज्ञानादि विभावगुण और नर-नारकी आदि
विभावपर्याय ये संसारी-जीवोंके पायी जाती हैं ये तो जीव-द्रव्यके गुण-पर्याय कहे और
पुद्गलके परमाणुरूप तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभावगुण और एक वर्णसे दूसरे वर्णरूप
होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणुमें जो तीन इत्यादि अनेक परमाणु
मिलकर स्कंधरूप होना, ये विभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं
द्वयणुकादि स्कंधमें जो वर्ण आदि
हैं, वे विभावगुण कहे जाते हैं, और वर्णसे वर्णान्तर होना, रससे रसान्तर होना, गंधसे अन्य
गंध होना, यह विभाव-पर्याय हैं
परमाणु शुद्ध द्रव्यमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और
शीत उष्णमेंसे एक तथा रूखे-चिकनेमेंसे एक, ऐसे दो स्पर्श, इस तरह पाँच गुण तो मुख्य
हैं, इनको आदिसे अस्तित्वादि अनंतगुण हैं, वे स्वभाव-गुण कहे जाते हैं, और परमाणुका जो
आकार वह स्वभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभावगुण
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yogIndudevavirachita
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भावार्थः धर्माधर्माकाशकालानां स्वभावगुणपर्यायास्ते च यथावसरं कथ्यन्ते
विभावपर्यायास्तूपचारेण यथा घटाकाशमित्यादि अत्र शुद्धगुणपर्यायसहितः शुद्धजीव
एवोपादेय इति भावार्थः ।।५७।।
अथ जीवस्य विशेषेण द्रव्यगुणपर्यायान् कथयति
५८) अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुँ गुण पुणु दंसणु णाणु
पज्जय चउ-गइ-भाव तणु कम्म-विणिम्मिय जाणु ।।५८।।
आत्मानं बुध्यस्व द्रव्यं त्वं गुणौ पुनः दर्शनं ज्ञानम्
पर्यायान् चतुर्गतिभावान् तनुं कर्मविनिर्मितान् जानीहि ।।५४।।
vibhAvaguNo chhe evo bhAvArtha chhe. dharma, adharma, AkAsh ane kALadravyane svabhAvaguN ane
svabhAvaparyAyo chhe ane te yogya samaye kahevAmAn Avashe. ane (AkAshane) vibhAvaparyAyo
upachArathI chhe, jem ke ghaTAkAsh, (maThAkAsh) vagere.
ahIn shuddha guNaparyAy sahit shuddha jIv ja upAdey chhe evo bhAvArtha chhe. 57.
have jIvanA dravya, guN, paryAyanun visheShapaNe kathan kare chhe
व्यंजन-पर्याय है जीव और पुद्गल इन दोनोंमें तो स्वभाव और विभाव दोनों हैं, तथा धर्म,
अधर्म, आकाश, काल, इन चारोंमें अस्तित्वादि स्वभाव-गुण ही हैं, और अर्थपर्याय षट्गुणी
हानि-वृद्धिरूप स्वभाव-पर्याय सभीके हैं
धर्मादिके चार पदार्थोंके विभावगुण-पर्याय नहीं
हैं आकाशके घटाकाश मठाकाश इत्यादिकी जो कहावत है, वह उपचारमात्र है ये
षट्द्रव्योंके गुण-पर्याय कहे गये हैं इन षट् द्रव्योंमें जो शुद्ध गुण, शुद्ध पर्याय सहित जो शुद्ध
जीव द्रव्य है, वही उपादेय हैआराधने योग्य है ।।५७।।
आगे जीवके विशेषपनेकर द्रव्य-गुणपर्याय कहते हैं
गाथा५८
अन्वयार्थ :हे शिष्य, [त्वं ] तू [आत्मानं ] आत्माको तो [द्रव्यं ] द्रव्य [बुध्यस्व ]
जान, [पुनः ] और [दर्शनं ज्ञानम् ] दर्शन ज्ञानको [गुणौ ] गुण जान, [चतुर्गतिभावान् तनुं ]
चार गतियोंके भाव तथा शरीरको [कर्मविनिर्मितान् ] कर्मजनित [पर्यायान् ] विभाव-पर्याय
[जानीहि ] समझ
adhikAr-1 dohA-58 ]paramAtmaprakAsha [ 101

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अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुं आत्मानं द्रव्यं बुध्यस्व जानीहि त्वम् गुण पुणु दंसणु णाण
गुणौ पुनर्दर्शनं ज्ञानं च पज्जय चउगइभाव तणु कम्मविणिम्मिय जाणु तस्यैव जीवस्य
पर्यायांश्चतुर्गतिभावान् परिणामान् तनुं शरीरं च कथंभूतान् तान् कर्मविनिर्मितान् जानीहीति
इतो विशेषः शुद्धनिश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानं द्रव्यं जानीहि तस्यैवात्मनः सविकल्पं ज्ञानं
निर्विकल्पं दर्शनं गुण इति तत्र ज्ञानमष्टविधं केवलज्ञानं सकलमखण्डं शुद्धमिति शेषं सप्तकं
खण्डज्ञानमशुद्धमिति तत्र सप्तकमध्ये मत्यादिचतुष्टयं सम्यग्ज्ञानं कुमत्यादित्रयं मिथ्याज्ञानमिति
दर्शनचतुष्टयमध्ये केवलदर्शनं सकलमखण्डं शुद्धमिति चक्षुरादित्रयं विकलमशुद्धमिति किं च
गुणास्त्रिविधा भवन्ति केचन साधारणाः, केचनासाधारणाः, केचन साधारणासाधारणा इति
जीवस्य तावदुच्यन्ते अस्तित्वं वस्तुत्वं प्रमेयत्वागुरुलघुत्वादयः साधारणाः, ज्ञानसुखादयः स्व-
bhAvArthashuddha nishchayanayathI shuddha, buddha jeno ek svabhAv chhe evA AtmAne tun dravya
jAN. savikalpa gnAn, nirvikalpa darshanane tun te AtmAnA guNo jAN, tyAn gnAn ATh prakAranun
chhe, kevaLagnAn sakal, akhanD, shuddha chhe, bAkInA sAt khanD gnAn ashuddha chhe. te sAtamAn mati,
shrut, avadhi ane manaparyay e chAr gnAn samyaggnAn chhe. kumati, kushrut, kuavadhi e traN gnAn
mithyAgnAn chhe.
chAr darshanomAn kevaLadarshan sakal, akhanD ane shuddha chhe, chakShu, achakShu ane avadhi e
traN darshan vikal ane ashuddha chhe.
vaLI guNo traN prakAranA chhe keTalAk sAdhAraN chhe, keTalAk asAdhAraN chhe, keTalA
sAdhAraNAsAdhAraN chhe.
temAn pratham jIvanA guNo kahevAmAn Ave chhe. astitva, vastutva, prameyatva, agurulaghutva vagere
भावार्थ :इसका विशेष व्याख्यान करते हैंशुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध, बुद्ध, अखंड,
स्वभाव, आत्माको तू द्रव्य जान, चेतनपनेके सामान्य स्वभावको दर्शन जान, और विशेषतासे
जानपना उसको ज्ञान समझ
ये दर्शन ज्ञान आत्माके निज गुण है, उनमेंसे ज्ञानके आठ भेद
हैं, उनमें केवलज्ञान तो पूर्ण है, अखंड है, शुद्ध है, तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान,
मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान तो सम्यक्ज्ञान और कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान,
ये केवल की अपेक्षा सातों ही खंडित हैं, अखंड, और सर्वथा शुद्ध नहीं है, अशुद्धता सहित
हैं, इसलिये परमात्मामें एक केवलज्ञान ही है
पुद्गलमें अमूर्तगुण नहीं पाये जाते, इस कारण
पाँचोंकी अपेक्षा साधारण, पुद्गलकी अपेक्षा असाधारण प्रदेशगुण कालके बिना पाँच द्रव्योंमें
पाया जाता है, इसलिये पाँचकी अपेक्षा यह प्रदेशगुण साधारण है, और कालमें न पानेसे
102 ]
yogIndudevavirachita
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जातौ साधारणा अपि विजातौ पुनरसाधारणाः अमूर्तित्वं पुद्गलद्रव्यं प्रत्यसाधारणमाकाशादिकं
प्रति साधारणं प्रदेशत्वं पुनः कालद्रव्यं प्रति पुद्गलपरमाणुद्रव्यं च प्रत्यसाधारणं शेषद्रव्यं प्रति
साधारणमिति संक्षेपव्याख्यानम् एवं शेषद्रव्याणामपि यथासंभवं ज्ञातव्यमिति भावार्थः ।।५८।।
अथानन्तसुखस्योपादेयभूतस्याभिन्नत्वात् शुद्धगुणपर्यायप्रतिपादनमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं
guNo sAdhAraN chhe. gnAn sukhAdi guNo svajAtimAn (arthAt jIvadravyonI apekShAe) sAdhAraN chhe
paN vijAtimAn (vijAtiy dravyonI apekShAe) asAdhAraN chhe. amUrtatva, pudgaladravya, prati
(pudgaladravyanI apekShAe) asAdhAraN chhe, AkAshAdi prati sAdhAraN chhe. vaLI pradeshapaNun kALadravya
prati ane pudgalaparamANudravya prati asAdhAraN chhe, bAkInA dravyo prati sAdhAraN chhe.
e pramANe sankShepamAn kathan karyun.
e pramANe bAkInA dravyonun kathan paN yathAsambhav samajI levun evo bhAvArtha chhe. 58.
have jemAn traN prakAranA AtmAnun kathan chhe evA pahelA mahAdhikAramAn dravya-guNaparyAyanA
vyAkhyAnanI mukhyatAthI sAtamA sthaLamAn traN dohAsUtra samApta thayAn.
have upAdeyabhUt anantasukhathI abhinna hovAthI shuddhaguNaparyAyanA kathananI mukhyatAthI
ATh sUtro kahevAmAn Ave chhe, te ATh gAthAsUtromAnthI pratham chAr sUtro karmashaktinA svarUpanI
कालकी अपेक्षा असाधारण है पुद्गलद्रव्यमें मूर्तीकगुण असाधारण है, इसीमें पाया जाता
है, अन्यमें नहीं और अस्तित्वादि गुण इसमें पाये जाते हैं, तथा अन्यमें भी, इसलिये साधारणगुण
हैं
चेतनपना पुद्गलमें सर्वथा नहीं पाया जाता पुद्गल-परमाणुको द्रव्य कहते हैं स्पर्श,
रस, गंध, वर्णस्वरूप जो मूर्ति वह पुद्गलका विशेषगुण है अन्य सब द्रव्योंमें जो उनका
स्वरूप है, वह द्रव्य है, और अस्तित्वादि गुण, तथा स्वभाव परिणति पर्याय है जीव और
पुद्गलके बिना अन्य चार द्रव्योंमें विभाव-गुण और विभाव-पर्याय नहीं है, तथा जीव पुद्गलमें
स्वभाव-विभाव दोनों हैं
उनमेंसे सिद्धोंमें तो स्वभाव ही है, और संसारीमें विभावकी मुख्यता
है पुद्गल परमाणुमें स्वभाव ही है, और स्कंध विभाव ही है इस तरह छहों द्रव्योंका संक्षेपसे
व्याख्यान जानना ।।५८।।
ऐसे तीन प्रकारकी आत्माका है कथन जिसमें ऐसे पहले महाधिकारमें द्रव्य-गुण
पर्यायके व्याख्यानकी मुख्यतासे सातवें स्थलमें तीन दोहा-सूत्र कहे आगे आदर करने योग्य
अतीन्द्रिय सुखसे तन्मयी जो निर्विकल्पभाव उसकी प्राप्तिके लिए शुद्ध गुण-पर्यायके
व्याख्यानकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं
इनमें पहले चार दोहोमें अनादि कर्मसम्बन्धका
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कथ्यते तत्राष्टकमध्ये प्रथमचतुष्टयं कर्मशक्ति स्वरूपमुख्यत्वेन द्वितीयचतुष्टयं कर्मफल-
मुख्यत्वेनेति तद्यथा
जीवकर्मणोरनादिसंबन्धं कथयति
५९) जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण
कम्मेँ जीउ वि जणिउ णवि दोहिँ वि आइ ण जेण ।।५९।।
जीवानां कर्माणि अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन
कर्मणा जीवोऽपि जनितः नैव द्वयोरपि आदिः न येन ।।५९।।
जीवहं कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण जीवानां कर्मणामनादिसंबन्धो भवति
हे जीव जनितं कर्म न तेन जीवेन कम्में जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण जेण
कर्मणा कर्तृभूतेन जीवोऽपि जनितो न द्वयोरप्यादिर्न येन कारणेनेति इतो विशेषः
mukhyatAthI ane bIjA chAr sUtro karmaphaLanI mukhyatAthI chhe. te A pramANe
temAn pratham ja jIv ane karmano anAdi kALano sambandh chhe em kahe chhe
bhAvArthajIv ane karmano anAdisambandh chhe arthAt paryAy santAnathI ja bIj ane
vRukShanI mAphak vyavahAranaye sambandh chhe to paN shuddhanishchayanayathI vishuddha gnAnadarshan svabhAvavALA
jIvathI karma utpanna thayun nathI tem ja jIv paN svashuddhAtmasamvedananA abhAvathI upajelA karmathI
व्याख्यान और पिछले चार दोहोंमें कर्मके फलका व्याख्यान इस प्रकार आठ दोहोंका रहस्य
है, उसमें प्रथम ही जीव और कर्मका अनादिकालका सम्बन्ध है, ऐसा कहते हैं
गाथा५९
अन्वयार्थ :[हे जीव ] हे आत्मा [जीवानां ] जीवोंके [कर्माणि ] कर्म
[अनादीनि ] अनादि कालसे हैं, अर्थात् जीव कर्मका अनादि कालका सम्बन्ध है, [तेन ] उस
जीवने [कर्म ] कर्म [न जनितं ] नहीं उत्पन्न किये, [कर्मणा अपि ] ज्ञानावरणादि कर्मोंने भी
[जीवः ] यह जीव [नैव जनितः ] नहीं उपजाया, [येन ] क्योंकि [द्वयोःअपि ] जीव कर्म इन
दोनोंका ही [आदिः न ] आदि नहीं है, दोनों ही अनादिके हैं
भावार्थ :यद्यपि जीव व्यवहारनयसे पर्यायोंके समूहकी अपेक्षा नये-नये कर्म समय
-समय बाँधता है, नये-नये उपार्जन करता है, जैसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीज होता है,
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yogIndudevavirachita
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naranArakAdirUpe utpanna thayo nathI, kAraN ke karma ane AtmA banne anAdinA chhe.
ahIn jIv ane karmanA anAdisambandhanA vyAkhyAnathI AtmA sadA mukta chhe, sadA shiv
chhe em koI kahe chhe, tenun nirAkaraN karyun chhe evo bhAvArtha chhe. kahyun paN chhe ke‘मुक्त श्चेत्प्राग्भवे
बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा अबद्धो मोचनं नैव मुञ्चेरथो निरर्थकः अनादितो हि मुक्त श्चेत्पश्चाद्बंधः कथं
भवेत् बंधनं मोचनं नो चेन्मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ।।’’
arthajo jIv pahelA bandhAyo hoy to mukta thAy, na bandhAyo hoy to mUkAvun vRuthA
chhe. abaddhane mUkAvun thatun ja nathI, tethI ‘mUkAyo’ kahevun nirarthak thAy chhe. jo anAdithI ja mukta
hoy to pachhI bandh kaI rIte thAy? ane jo bandhan ane mukti na hoy to ‘mUkAyo’ kahevun
nirarthak hoy. 59.
जीवकर्मणामनादिसंबन्धः पर्यायसंतानेन बीजवृक्षवद्वयवहारनयेन संबन्धः कर्म तावत्तिष्ठति तथापि
शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावेन जीवेन न तु जनितं कर्म तथाविधजीवोऽपि
स्वशुद्धात्मसंवित्त्यभावोपार्जितेन कर्मणा नरनारकादिरूपेण न जनितः कर्मात्मेति च
द्वयोरनादित्वादिति
अत्रानादिजीवकर्मणोस्संबन्धव्याख्यानेन सदा मुक्त : सदा शिवः कोऽप्यस्तीति
निराकृतमिति भावार्थः ।। तथा चोक्त म्‘‘मुक्त श्वेत्प्राग्भवे बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा अबद्धो
मोचनं नैव मुञ्चेरर्थो निरर्थकः अनादितो हि मुक्त श्चेत्पश्चाद्बन्धः कथं भवेत् बन्धनं मोचनं
नो चेन्मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ।।’’ ।।५९।।
उसी तरह पहले बीजरूप कर्मोंसे देह धारता है, देहमें नये-नये कर्मोंको विस्तारता है, यह
तो बीजसे वृक्ष हुआ
इसी प्रकार जन्मसन्तान चली जाती है परन्तु शुद्धनिश्चयनयसे विचारा
जावे, तो जीव निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव ही है जीवने ये कर्म न तो उत्पन्न किये, और यह
जीव भी इन कर्मोंने नहीं पैदा किया जीव भी अनादिका है, ये पुद्गलस्कंध भी अनादिके
हैं, जीव और कर्म नये नहीं है, जीव अनादिका कर्मोंसे बँधा है और कर्मोंके क्षयसे मुक्त
होता है इस व्याख्यानसे जो कोई ऐसा कहते हैं, कि आत्मा सदा मुक्त है, कर्मोंसे रहित
है, उनका निराकरण (खंडन) किया ये वृथा कहते हैं, ऐसा तात्पर्य है ऐसा दूसरी जगह
भी कहा है‘‘मुक्तश्चेत्’’ इत्यादि इसका अर्थ यह है, कि जो यह जीव पहले बँधा हुआ
हो, तभी ‘मुक्त’ ऐसा कथन संभवता है, और पहले बँधा ही नहीं तो फि र ‘मुक्त’ ऐसा
कहना किस तरह ठीक हो सकता
मुक्त तो छूटे हुएका नाम है, सो जब बँधा ही नहीं,
तो फि र ‘छूटा’ किस तरह कहा जा सकता है जो अबंध है, उसको छूटा कहना ठीक
नहीं जो बिना बंध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है जो यह अनादिका मुक्त
ही हो, तो पीछे बंध कैसे सम्भव हो सकता है बंध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके
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अथ व्यवहारनयेन जीवः पुण्यपापरूपो भवतीति प्रतिपादयति
६०) एहु ववहारेँ जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु
बहुविह-भावेँ परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु ।।६०।।
एष व्यवहारेण जीवः हेतुं लब्ध्वा कर्म
बहुविधभावेन परिणमति तेन एव धर्मः अधर्मः ।।६०।।
एहु ववहारें जीवडउ हेउ लहेविणु कम्मु एष प्रत्यक्षीभूतो जीवो व्यवहारनयेन हेतुं
लब्ध्वा किम् कर्मेति बहुविहभावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु बहुविधभावेन
विकल्पज्ञानेन परिणमति तेनैव कारणेन धर्मोऽधर्मश्च भवतीति तद्यथा एष जीवः शुद्धनिश्चयेन
जो बंध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है ।।५९।।
आगे व्यवहारनयसे यह जीव पुण्य-पापरूप होता है, ऐसा कहते हैं
गाथा६०
अन्वयार्थ :[एष जीवः ] यह जीव [व्यवहारेण ] व्यवहारनयकर [कर्म हेतुं ]
कर्मरूप करणको [लब्ध्वा ] पाकरके [बहुविधभावेन ] अनेक विकल्परूप [परिणमित ]
परिणमता है
[तेन एव ] इसीसे [धर्मः अधर्मः ] पुण्य और पापरूप होता है
भावार्थ :यह जीव शुद्ध निश्चयनयकर वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी
व्यवहारनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके अभावसे रागादिरूप परिणमनेसे उपार्जन
किये शुभ-अशुभ कर्मोंके कारणको पाकर पुण्यी तथा पापी होता है
यद्यपि यह
व्यवहारनयकर पुण्य-पापरूप है, तो भी परमात्माकी अनुभूतिसे तन्मयी जो वीतराग
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थोंमें इच्छाके रोकनेरूप तप, ये चार निश्चयआराधना
have vyavahAranayathI jIv puNya-pAparUp thAy chhe, em kahe chhe
bhAvArthaA jIv shuddha nishchayanayathI vItarAg chidAnand jeno ek svabhAv chhe evo
hovA chhatAn paN vyavahAranayathI vItarAg nirvikalpa svasamvedananA abhAvathI upArjit evA
shubhAshubh karmarUp kAraNane pAmIne puNyarUp ane pAparUp thAy chhe.
ahIn jo ke vyavahAranayathI jIv puNyapAparUp thAy chhe, to paN paramAtmAnI
anubhUtinI sAthe avinAbhAvI vItarAgasamyagdarshanagnAnachAritra ane bAhya padArthomAn ichchhAno
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