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कर्म हेतुं लब्ध्वा पुण्यरूपः पापरूपश्च भवति
निश्चयचतुर्विधाराधना तस्या भावनाकाले साक्षादुपादेयभूतवीतरागपरमानन्दैकरूपो
मोक्षसुखाभिन्नत्वात् शुद्धजीव उपादेय इति तात्पर्यार्थः
अभिन्न आनंदमयी ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं
आच्छादित (ढँके हुए) [जीवाः ] ये जीवकर [आत्मस्वभावं ] अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप
स्वभावको [नैव लभन्ते ] नहीं पाते
samaye sAkShAt upAdeyabhUt vItarAg paramAnand jenun ek rUp chhe evo shuddha jIv mokShasukhathI
abhinna hovAthI upAdey chhe, evo tAtparyArtha chhe. 60.
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केवलदर्शनं भण्यते
(1) shuddha AtmAdi padArthomAn viparIt abhinivesh rahit pariNAm te kShAyik samyakatva kahevAy chhe.
(2) traN lok ane traN kALavartI padArthonI yugapat visheShaparichchhittirUp kevaLagnAn kahevAy
(5) atIndriyagnAnano viShay sUkShmatva kahevAy chhe.
(6) ek jIvanA avagAhapradeshomAn anant jIvone avagAh devAnun je sAmarthya te avagAhanatva
क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं, तीन लोक तीन कालके पदार्थोंको एक ही समयमें विशेषरूप
सबको जानें, वह केवलज्ञान है, सब पदार्थोंको केवलदृष्टिसे एक ही समयमें देखे, वह
केवलदर्शन है
वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीवके अवगाह क्षेत्रमें (जगहमें) अनंते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश
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वीर्यान्तरायेण प्रच्छादितं, सूक्ष्मत्वमायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम्
भवतीत्यर्थः
(8) vedanIy karmanA udayajanit samasta bAdhAthI rahit hovAthI avyAbAdh guN kahevAy chhe.
sUkShmatva AyukarmathI AchchhAdit chhe shAthI? ke vivakShit AyukarmanA udayathI bIjo bhav
prApta thatAn, atIndriyagnAnanA viShayarUp sUkShmatvane chhoDIne pAnch indriyagnAnanA viShayarUp thAy
chhe evo artha chhe. avagAhanatva sharIranAmakarmanA udayathI AchchhAdit chhe. siddhaavasthAne
yogya vishiShTa agurulaghutvanAmakarmanA udayathI AchchhAdit chhe, ‘gurutva’ shabdathI
uchchagotrajanit mahatva (uchchapaNun) kahevAmAn Ave chhe. ‘laghutva’ shabdathI nIchagotrajanit
लघु
केवलदर्शनावरणसे केवलदर्शन ढका है, वीर्यान्तरायकर्मसे अनंतवीर्य ढका है, आयुःकर्मसे
सूक्ष्मत्वगुण ढका है, क्योंकि आयुकर्म उदयसे जब जीव परभवको जाता है, वहाँ इन्द्रियज्ञानका
धारक होता है, अतीन्द्रियज्ञानका अभाव होता है, इस कारण कुछ एक स्थूल वस्तुओंको तो
जानता है, सूक्ष्मको नहीं जानता, शरीरनामकर्मके उदयसे अवगाहनगुण आच्छादित है,
सिद्धावस्थाके योग्य विशेषरूप अगुरुलघुगुण नामकर्मके उदयसे अथवा गोत्रकर्मके उदयसे ढक
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इति
कथिताः
AchchhAdit chhe. avyAbAdhaguNapaNun vedanIyakarmanA udayathI AchchhAdit chhe. e pramANe sankShepathI
karmothI ATh guNonun AchchhAdan jANavun. te ATh guNo mukta-avasthAmAn potapotAnA karmanA
AchchhAdananA abhAvamAn vyakta thAy chhe.
vaLI visheShamAn amUrtapaNun, nAmarahitapaNun gotrarahitapaNun Adi sAdhAraN-asAdhAraNarUp
have viShayakaShAyamAn Asakta jIvone je karmaparamANuo bandhAy chhe te karma chhe em kahe
कहलाया, और उच्च गोत्रमें बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया और वेदनीयकर्मके उदयसे अव्याबाध
गुण ढक गया, क्योंकि उसके उदय साता-असातारूप सांसारिक सुख-दुःखका भोक्ता हुआ
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बँधते हैं, [तान् ] उन परमाणुओंके स्कंधों (समूहों) को [जिनाः ] जिनेन्द्रदेव [कर्म ] कर्म
[भणंति ] कहते हैं
संसारी जीवोंके कर्मवर्गणा योग्य जो पुद्गलस्कंध हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्मरूप
होकर परिणमते हैं
होके परिणमती हैं
jevI rIte telathI lepAyel sharIramAn dhUL lAgIne melaparyAyarUp pariName chhe tevI rIte, aShTavidh
gnAnAvaraNAdi karmarUpe pariName chhe evo artha chhe.
परिणमन्तीत्यर्थः
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हैं, यह अभिप्राय मनमें रखकर दोहा-सूत्र कहते हैं
[चतुर्गतितापाः अपि ] तथा चारों गतियोंके दुःख भी [अन्यत् ] अन्य हैं, [जीव ] हे जीव,
ये सब [जीवानां ] जीवोंके [कर्मणा ] कर्मकर [जनिताः ] उपजे हैं, जीवसे भिन्न हैं, ऐसा
जान
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और शुद्धात्मतत्त्वकी अनुभूतिसे भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मासे
जुदे हैं, तथा वीतराग परमानन्दसुखरूप अमृतसे पराङ्मुख जो समस्त चतुर्गतिके महान
दुःखदायी दुःख वे सब जीवपदार्थसे भिन्न हैं
अभिलाषाको आदि लेकर सब विकल्प-जालोंसे रहित अपना शुद्धात्मतत्त्व वही परमसमाधिके
समय साक्षात् उपादेय है
anubhUtithI vilakShaN je samasta vibhAvaparyAyo ane je vItarAg paramAnandarUp sukhAmRutathI pratikUL
chAragatinA samasta santApo
samAdhinA samaye sAkShAt upAdey chhe, evo bhAvArtha chhe. 63.
विपरीतमनेकसंकल्पविकल्पजालरूपं मनः, ये च शुद्धात्मतत्त्वानुभूतेर्विलक्षणाः समस्तविभाव-
पर्यायाः, वीतरागपरमानन्दसुखामृतप्रतिकूलाः समस्तचतुर्गतिसंतापाः दुःखदाहाश्चेति सर्वेऽप्येते
अशुद्धनिश्चयनयेन स्वसंवेद्याभावोपार्जितेन कर्मणा निर्मिता जीवानामिति
विषयाभिलाषादिसमस्तविकल्परहितं परमसमाधिकाले साक्षादुपादेयमिति भावार्थः
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[निश्चयः ] निश्चयनय [भणति ] कहता है, अर्थात् निश्चयनयसे भगवान्ने ऐसा कहा है
जीवने उपजाये नहीं हैं, इसलिये जीवके नहीं हैं, कर्म-संयोगकर उत्पन्न हुए हैं और आत्मा तो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें स्थिर हुआ वस्तुको वस्तुके स्वरूप देखता है, जानता है,
रागादिकरूप नहीं होता, उपयोगरूप है, ज्ञाता द्रष्टा है, परम आनंदरूप है
chhe, ane AtmA vItarAg nirvikalpa samAdhistha thayelo, vastune vastusvarUpe dekhe-jANe chhe paN
rAgAdi karato nathI.
तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति
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[किमपि ] कुछ भी [नैव करोति ] नहीं करता, [निश्चयः ] निश्चयनय [एवं ] ऐसा [भणति ]
कहता है, अर्थात् निश्चयनयसे भगवान्ने ऐसा कहा है
दोनों नयोंसे द्रव्यकर्म भावकर्मकी मुक्तिको यद्यपि जीव करता है, तो भी शुद्धपारिणामिक
shuddha pAriNAmik paramabhAvagrAhak shuddhanishchayanayathI karato ja nathI, em nishchayanay kahe chhe.
किमपि न करोति बन्धमोक्षस्वरूपं निश्चय एवं भणति
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भगवानने कहा है
लाख योनियोंमें होकर [जिनवचनं न लभमानः ] जिन-वचनको नहीं प्राप्त करता हुआ
[जीवः ] यह जीव [न भ्रमितः ] नहीं भटका
मध्ये भूत्वा जिनवचनमलभमानो यत्र न भ्रमितो जीव इति
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किया, जन्म-मरण किये
अपि मध्ये ] तीनों लोकमें इस जीवको [विधिः ] कर्म ही [नयति ] ले जाता है, [विधिः ]
कर्म ही [आनयति ] ले आता है
bhamyo hoy.
भ्रमितः सोऽत्र कोऽपि प्रदेशो नास्ति इति
तात्पर्यार्थः
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भावनासे विमुख जो मन, वचन, काय इन तीनोंसे उपार्जे कर्मोंकर उत्पन्न हुए पुण्य-पापरूप
बँधनोंकर अच्छी तरह बँधा हुआ पंगुके समान आप ही न कहीं जाता है, न कहीं आता है
आता है, आप तो पंगुके समान है
जाता है
pratibandhak man, vachan, kAy e traNathI upArjit karelA karmathI rachAyel puNya
paramAtmAnI prAptinI pratipakShabhUt vidhithI, shabdathI kahevAtA karmathI traN lokamAn laI javAy chhe
ane lAvavAmAn Ave chhe.
स्वशुद्धात्मभावनाप्रतिबन्धकेन मनोवचनकायत्रयेणोपार्जितेन कर्मणा निर्मितेन पुण्यपाप-
निगलद्वयेन
भावार्थः
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एव ] और परद्रव्य भी [कदाचिदपि ] कभी [आत्मा नैव ] आत्मा नहीं होता, ऐसा [नियमेन ]
निश्चयकर [योगिनः ] योगीश्वर [प्रभणन्ति ] कहते हैं
क्रोधादिरूप हो गया है, तो भी परमभावके ग्राहक शुद्धनिश्चयनयकर अपने ज्ञानादि निजभावको
छोड़कर काम क्रोधादिरूप नहीं होता, अर्थात् निजभावरूप ही है
ek (kevaL) svabhAvane chhoDIne kAmakrodhAdirUp thato nathI, kAmakrodhAdi par koI paN samaye
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होता, ऐसा योगीश्वर कहते हैं
और [न बन्धं मोक्षं ] न बंध मोक्षको [करोति ] करता है, अर्थात् शुद्धनिश्चयनयसे बन्ध-
मोक्षसे रहित है, [एवं ] ऐसा [जिनवरः ] जिनेन्द्रदेव [भणति ] कहते हैं
तात्पर्यार्थः
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शुद्धात्मानुभूतिके प्रगट होने पर शुद्धोपयोगसे परिणत होकर मोक्षको करता है, तो भी शुद्ध
पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर न बंधका कर्ता है और न मोक्षका कर्ता
है
ही नहीं है, जब मोक्ष नहीं, तब मोक्षके लिये यत्न करना वृथा है
अभावरूप मोक्ष है, वह भी शुद्धनिश्चयनयकर नहीं है
anubhUtinA sadbhAvamAn shuddha upayogarUpe pariNamIne mokSha paN kare chhe topaN shuddha pAriNAmik
paramabhAvagrAhak shuddhadravyArthikanayathI janmamaraN ane bandhamokShane karato nathI.
shuddhanishchayanayathI bandh hoy to sarvadA bandh ja rahe. A viShayanA samarthanamAn draShTAnt kahe chhe
evo vyavahAr ghaTe chhe. bIjA puruShane (je pahelethI bandhAyo ja nathI tene) tame ‘chhUTyA’ em jo
kahevAmAn Ave to te krodh kare chhe, kAraN ke bandh nathI to pachhI mokShanun vachan kaI rIte ghaTe? tevI
शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन न करोति
शुद्धनिश्चयेन नास्ति
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जो ‘आप छूट गये’ ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बँधा था, सो यह मुझे
‘छूटा’ कहता है, बँधा होवे, वह छूटे, इसलिये बँधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बँधा
ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसीप्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बँधा हुआ
नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है
अशुद्धनयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये
उपादेय है, अन्य सब हेय हैं
भवत इति यदि भण्यते तदा कोपं करोति
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[वर्णाः ] वर्ण [एका संज्ञा अपि ] आहारादिक एक भी संज्ञा वा नाम नहीं है, ऐसा [त्वं ]
तू [नियमेन ] निश्चयकर [विजानीहि ] जान
विकार है, वे शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनयकर आत्मा केवलज्ञानादि
अनंत गुणाकर पूर्ण है, और अनादि-संतानसे प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री,
पुरुष, नपुंसकलिंग, सफे द काला वर्ण, वगैर आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबोंसे
भिन्न है
nathI, kAraN ke kevaLagnAnAdi anant guNe karIne nishchayanayathI anAdi santAnathI prApta janmAdithI
jIv bhinna chhe.
तात्पर्यार्थः
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ये सब देहके जानो, [देहस्य ] देहके [विचित्रः वर्णः ] अनेक तरहके सफे द, श्याम, हरे,पीले,
लालरूप पाँच वर्ण, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, ये चार वर्ण, [देहस्य ] देहके
[रोगान् ] वात, पित्त, कफ , आदि अनेक रोग [देहस्य ] देहके [विचित्रम् लिंङ्गं ] अनेक
प्रकारके स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुसकलिंगरूप चिन्हको अथवा यतिके लिंगको और द्रव्यमनको
[विजानीहि ] जान
सब यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके हैं, तो भी निश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, देहसम्बन्धी है ऐसा
जानना चाहिये
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शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय जानो
ब्रह्म ] परब्रह्म शुद्ध स्वभाव हैं, [तं ] उसको तूँ [आत्मानं ] आत्मा [मन्यस्व ] जान
कोई जरा-मरण रहित अखंड परब्रह्म है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है,
ज्ञातव्यम्
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प्राप्त होवे, तो भी तू भय मत कर, मनमें खेद मत ला, [निर्मलं आत्मानं ] अपने निर्मल
आत्माका ही [भावय ] ध्यान कर, अर्थात् वीतराग चिदानंद शुद्धस्वभाव तथा भावकर्म,
शुद्धात्मा