Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 102,103,104,105,106,107 (Adhikar 2),108 (Adhikar 2) Pardravyana Sambadhano Tyag,109 (Adhikar 2),110 (Adhikar 2) Tyaganu Drashtant,111 (Adhikar 2) Mohano Tyag,111 (Adhikar 2)*2,111 (Adhikar 2)*3,111 (Adhikar 2)*4.

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adhikAr-2 dohA-102 ]paramAtmaprakAsha [ 387
अथ जीवानां निश्चयनयेन योऽसौ देहभेदेन भेदं करोति स जीवानां दर्शन-
ज्ञानचारित्रलक्षणं न जानातीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं कथयति
२२९) देहविभेयइँ जो कुणइ जीवइँ भेउ विचित्तु
सो णवि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरित्तु ।।१०२।।
देहविभेदेन यः करोति जीवानां भेदं विचित्रम्
स नैव लक्षणं मनुते तेषां दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।।१०२।।
देह इत्यादि देह-विभेयइँ देहममत्वमूलभूतानां ख्यातिपूजालाभस्वरूपादीनां अपध्यानानां
विपरीतस्य स्वशुद्धात्मध्यानस्याभावे यानि कृतानि कर्माणि तदुदयजनितेन देहभेदेन जो कुणइ
यः करोति
कम् जीवइं भेउ विचित्तु जीवानां भेदं विचित्रं नरनारकादिदेहरूपं सो णवि
have, nishchayanayathI je dehanA bhedathI jIvonA bhed kare chhe te jIvonun darshan
-gnAn-chAritralakShaN jANato nathI evo abhiprAy manamAn rAkhIne A gAthAsUtra kahe chhe
bhAvArthadehanA mamatvanun mUL kAraN je khyAti-pUjA-lAbhasvarUp Adi apadhyAno,
(ArtaraudrasvarUp mAThAn dhyAno) temanAthI viparIt, svashuddhAtmadhyAnanA abhAvamAn je karmo upArjit
karyAn hoy temanA udayathI utpanna dehanA bhedathI jIvonAn nar-nArakAdi deharUp anek prakAranA bhedane
je kare chhe te, jIvonun samyagdarshan, samyaggnAn ane samyakchAritra lakShaN chhe em jANato nathI.
आगे जीव ही को जानते हैं, परंतु उसके लक्षण नहीं जानते, वह अभिप्राय मनमें रखकर
व्याख्यान करते हैं
गाथा१०२
अन्वयार्थ :[यः ] जो [देहविभेदेन ] शरीरोंके भेदसे [जीवानां ] जीवोंका
[विचित्रम् ] नानारूप [भेदं ] भेद [करोति ] करता है, [स ] वह [तेषां ] उन जीवोंका [दर्शनं
ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [लक्षणं ] लक्षण [नैव मनुते ] नहीं जानता, अर्थात् उसको
गुणोंकी परीक्षा (पहचान) नहीं है
भावार्थ :देहके ममत्वके मूल कारण ख्याति (अपनी बड़ाई) पूजा और लाभरूप
जो आर्त रौद्रस्वरूप खोटे ध्यान उनसे निज शुद्धात्माका ध्यान उसके अभावसे इस जीवने
उपार्जन किये जो शुभ-अशुभ कर्म उनके उदयसे उत्पन्न जो शरीर है, उसके भेदसे भेद मानता
है, उसको दर्शनादि गुणोंकी गम्य नहीं है
यद्यपि पापके उदयसे नरकयोनि, पुण्यके उदयसे

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388 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-103
लक्खणु मुणइ तहं स नैव लक्षणं मनुते तेषां जीवानाम् किंलक्षणम् दंसणु णाणु चरित्तु
सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रमिति अत्र निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणानां जीवानां
ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यचाण्डालादिदेहभेदं द्रष्ट्वा रागद्वेषौ न कर्तव्याविति तात्पर्यम् ।।१०२।।
अथ शरीराणि बादरसूक्ष्माणि विधिवशेन भवन्ति न च जीवा इति दर्शयति
२३०) अंगइँ सुहुमइँ बादरइँ विहिवसिँ होंति जे बाल
जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सयकाल ।।१०३।।
अङ्गानि सूक्ष्माणि बादराणि विधिवशेन भवन्ति ये बालाः
जीवाः पुनः सकला अपि तावन्तः सर्वत्रापि सदाकाले ।।१०३।।
ahIn, nishchayanayathI samyagdarshan, samyaggnAn ane samyagcharitra jemanAn lakShaN chhe evA
jIvonA brAhmaN, kShatriy, vaishya, chAnDAlAdi dehanA bhed joIne rAg-dveSh na karavA, evun tAtparya
chhe. 102.
have, vidhinA vashe bAdar ane sUkShma sharIro thAy chhe paN jIvo thatA nathI, em darshAve
chhe
देवोंका शरीर और शुभाशुभ मिश्रसे नरदेह तथा मायाचारसे पशुका शरीर मिलता है, अर्थात्
इन शरीरोंके भेदसे जीवोंकी अनेक चेष्टायें देखी जाती हैं, परंतु दर्शन ज्ञान लक्षणसे सब तुल्य
हैं
उपयोग लक्षणके बिना कोई जीव नहीं है इसलिये ज्ञानीजन सबको समान जानते हैं
निश्चयनयसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र जीवोंके लक्षण हैं, ऐसा जानकर ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र
चांडालादि देहके भेद देखकर राग-द्वेष नहीं करना चाहिये
सब जीवोंके मैत्रीभाव करना, यही
तात्पर्य है ।।१०२।।
आगे सूक्ष्म बादर-शरीर जीवोंके कर्मके सम्बन्धसे होते हैं, सो सूक्ष्म, बादर, स्थावर,
जंगम ये सब शरीरके भेद हैं, जीव तो चिद्रूप है, सब भेदोंसे रहित है, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा१०३
अन्वयार्थ :[सूक्ष्माणि ] सूक्ष्म [बादराणि ] और बादर [अंगानि ] शरीर [ये ] तथा
जो [बालाः ] बाल, वृद्ध, तरुणादि अवस्थायें [विधिवशेन ] कर्मोंसे [भवंति ] होती हैं, [पुनः ]
और [जीवाः ] जीव तो [सकला अपि ] सभी [सर्वत्र ] सब जगह [सर्वकाले अपि ] और
सब कालमें [तावंतः ] उतने प्रमाण ही अर्थात् असंख्यातप्रदेशी ही है

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adhikAr-2 dohA-103 ]paramAtmaprakAsha [ 389
अंगइं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते अंगइं सुहुमइं बादरइं अङ्गानि
सूक्ष्मबादराणि जीवानां विहि-वसिं होंति विधिवशाद्भवन्ति अङ्गोद्भवपञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षा-
मूलभूतानि
द्रष्टश्रुतानुभूतभोगवाञ्छारूपनिदानबन्धादीनि यान्यपध्यानानि, तद्विलक्षणा यासौ
स्वशुद्धात्मभावना तद्रहितेन जीवेन यदुपार्जितं विधिसंज्ञं कर्म तद्वशेन भवन्त्येव न केवलमङ्गानि
भवन्ति जे बाल ये बालवृद्धादिपर्यायाः तेऽपि विधिवशेनैव अथवा संबोधनं हे बाल अज्ञान
जिय पुणु सयल वि तित्तडा जीवाः पुनः सर्वेऽपि तत्प्रमाणा द्रव्यप्रमाणं प्रत्यनन्ताः,
क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेकैकोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाश-
प्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः
क्व सव्वत्थ वि सर्वत्र लोके न केवलं लोके सय-काल सर्वत्र
कालत्रये तु अत्र जीवानां बादरसूक्ष्मादिकं व्यवहारेण कर्मकृतभेदं द्रष्ट्वा विशुद्धदर्शनज्ञान-
bhAvArthasharIramAn utpanna pAnch indriyonA viShayonI AkAnkShAnun mUL kAraN evA,
dekhelA, sAmbhaLelA, ane anubhavelA bhogonI vAnchhArUp nidAnabandh Adi je apadhyAno (durdhyAno,
mAThAn dhyAno) chhe tenAthI vilakShaN je svashuddhAtmAnI bhAvanA chhe tenAthI rahit jIvathI je
vidhisangnAvALun karma upArjit karavAmAn Avyun chhe. tenA vashathI jIvonA sUkShma, bAdar sharIro thAy chhe.
mAtra sharIro ja thAy chhe eTalun ja nahi paN je bAlavRuddhAdi paryAyo chhe te paN vidhinA vishe ja thAy
chhe. athavA sambodhan kare chhe ke, he bAl! he agnAn! sarva jIvo sarvatra-lokamAn-mAtra lokamAn ja
nahi, parantu traN kALamAn paN teTalA ja pramANavALA chhe; arthAt dravyapramANathI anantA chhe ane
kShetranI apekShAe paN ek ek jIv paN joke vyavahAranayathI potAnA deh jeTalo chhe topaN
nishchayanayathI lokAkAshapramAN asankhyAt pradesh jeTalo chhe.
भावार्थ :जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मोंके उदयसे होती हैं अर्थात्
अंगोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेंद्रियोंके विषय उनकी वाँछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे, सुने,
भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना
उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और
बाल-वृद्धादि अवस्थायें होती हैं
ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवको नहीं हैं हे अज्ञानी जीव,
यह बात तू निःसंदेह जान ये सभी जीव द्रव्यप्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्रकी अपेक्षा एक एक
जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं
सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना
बादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर) जीवोंमें भेद मत जानो विशुद्ध ज्ञान-
1 pAThAntaraहे बाल अज्ञान = बाल हे अज्ञान

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390 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-104
लक्षणापेक्षया निश्चयनयेन भेदो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ।।१०३।।
अथ जीवानां शत्रुमित्रादिभेदं यः न करोति स निश्चयनयेन जीवलक्षणं जानातीति
प्रतिपादयति
२३१) सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ
एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ ।।१०४।।
शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते
एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ।।१०४।।
सत्तु वि इत्यादि सत्तु वि शत्रुरपि मित्तु वि मित्रमपि अप्पु परु आत्मा परोऽपि जीव
असेसु वि जीवा अशेषा अपि एइ एते प्रत्यक्षीभूताः एक्कु करेविणु जो मुणइ एकत्वं कृत्वा
ahIn, vyavahAranayathI jIvonA bAdar sUkShmAdik karmakRut bhed joIne nishchayanayathI
vishuddhagnAnalakShaNanI apekShAe jIvonA bhed na karavA, evo abhiprAy chhe. 103.
have, je jIvonA shatru, mitra Adi bhed karato nathI te nishchayanayathI jIvanun lakShaN jANe
chhe, em kahe chhe
bhAvArthashatru-mitra, jIvit-maraN, lAbh-alAbhAdi samatAbhAvarUp vItarAg
दर्शनकी अपेक्षा सब ही जीव समान हैं, कोई भी जीव दर्शन, ज्ञान रहित नहीं है, ऐसा
जानना
।।१०३।।
आगे जो जीवोंके शत्रु-मित्रादि भेद नहीं करता है, वह निश्चयकर जीवका लक्षण
जानता है, ऐसा कहते हैं
गाथा१०४
अन्वयार्थ :[एते अशेषा अपि ] ये सभी [जीवाः ] जीव हैं, उनमेंसे [शत्रुरपि ]
कोई एक किसीका शत्रु भी है, [मित्रम् अपि ] मित्र भी है, [आत्मा ] अपना है, और [परः ]
दूसरा है
ऐसा व्यवहारसे जानकर [यः ] जो ज्ञानी [एकत्वं कृत्वा ] निश्चयसे एकपना करके
अर्थात् सबमें समदृष्टि रखकर [मनुते ] समान मानता है, [सः ] वही [आत्मानं ] आत्माके
स्वरूपको [जानाति ] जानता है
भावार्थ :इन संसारी जीवोंमें शत्रु आदि अनेक भेद दिखते हैं, परंतु जो ज्ञानी सबको
एक दृष्टिसे देखता हैसमान जानता है शत्रु, मित्र, जीवित, मरण, लाभ, अलाभ आदि

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adhikAr-2 dohA-105 ]paramAtmaprakAsha [ 391
यो मनुते शत्रुमित्रजीवितमरणलाभादिसमताभावनारूपवीतरागपरमसामायिकं कृत्वा योऽसौ
जीवानां शुद्धसंग्रहनयेनैकत्वं मन्यते
सो अप्पा जाणेइ स वीतरागसहजानन्दैकस्वभावं
शत्रुमित्रादिविकल्पकल्लोलमालारहितमात्मानं जानातीति भावार्थः
।।१०४।।
अथ योऽसौ सर्वजीवान् समानान्न मन्यते तस्य समभावो नास्तीत्यावेदयति
२३२) जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव ।।१०५।।
यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान्
तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौः ।।१०५।।
जो णवि इत्यादि जो णवि मण्णइ यो नैव मन्यते कान् जीव जीवान् जिय हे
-paramasAmAyik karIne je shuddhasangrahanayathI sarva jIvone ekarUpe jANe chhe te vItarAg sahajAnand
jeno ek svabhAv chhe evA, shatru, mitra Adi vikalponI kallolamALAthI rahit AtmAne jANe
chhe. 104.
have, je sarva jIvone samAn jANato nathI tene samabhAv hoto nathI, em kahe chhe.
bhAvArthaje, samasta jIvone vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne nishchay-
सबोंमें समभावरूप जो वीतराग परमसामायिकचारित्र उसके प्रभावसे जो जीवोंको शुद्ध
संग्रहनयकर जानता है, सबको समान मानता है, वही अपने निज स्वरूपको जानता है
जो
निजस्वरूप, वीतराग सहजानंद एक स्वभाव तथा शत्रु-मित्र आदि विकल्प - जालसे रहित है,
ऐसे निजस्वरूपको समताभावके बिना नहीं जान सकता ।।१०४।।
आगे जो सब जीवोंको समान नहीं मानता, उसके समभाव नहीं हो सकता, ऐसा कहते
हैं
गाथा१०५
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यः ] जो [सकलानपि ] सभी [जीवान् ] जीवोंको
[एकस्वभावान् ] एक स्वभाववाले [नैव मन्यते ] नहीं जानता, [तस्य ] उस अज्ञानीके [समः
भावः ] समभाव [न तिष्ठति ] नहीं रहता, [यः ] जो समभाव [भवसागरे ] संसार
- समुद्रके
तैरनेको [नौः ] नावके समान है
भावार्थ :जो अज्ञानी सब जीवों को समान नहीं मानता, अर्थात् वीतराग

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392 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-106
जीव कतिसंख्योपेतान् सयल वि समस्तानपि कथंभूतान्न मन्यते एक्क-सहाव वीतराग-
निविकल्पसमाधौ स्थित्वा सकलविमलकेवलज्ञानादिगुणैर्निश्चयेनैकस्वभावान् तासु ण थक्कइ भाउ
समु तस्य न तिष्ठति समभावः कथंभूतः भव-सायरि जो णाव संसारसमुद्रे यो
नावस्तरणोपायभूता नौरिति अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा रागद्वेषमोहान् मुक्त्वा च परमोपशमभावरूपे
शुद्धात्मनि स्थातव्यमित्यभिप्रायः ।।१०५।।
अथ जीवानां योऽसौ भेदः स कर्मकृत इति प्रकाशयति
२३३) जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ ।।१०६।।
जीवानां भेद एव कर्मकृतः कर्म अपि जीवो न भवति
येन विभिन्नः भवति तेभ्यः कालं लब्ध्वा कमपि ।।१०६।।
nayathI sakaL vimaL kevaLagnAnAdi guNo vaDe ekasvabhAvI nathI mAnato tene sansArasamudrane taravAnA
upAyabhUt evo samabhAv hoto nathI ke je samabhAv sansArasamudrane taravAnA sAdhanarUp nAv chhe.
ahIn, A vyAkhyAn jANIne ane rAg-dveSh-mohane chhoDIne paramopashamabhAvarUp shuddha
AtmAmAn sthit thavun, evo abhiprAy chhe. 105.
have, jIvonA je kAI bhed chhe te karmakRut chhe, em pragaT kare chhe
निर्विकल्पसमाधिमें स्थित होकर सबको समान दृष्टिसे नहीं देखता, सकल ज्ञायक परम निर्मल
केवलज्ञानादि गुणोंकर निश्चयनयसे सब जीव एकसे हैं, ऐसी जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके
समभाव नहीं उत्पन्न हो सकता
ऐसा निस्संदेह जानो कैसा है समभाव, जो संसार समुद्रसे
तारनेके लिये जहाजके समान है यहाँ ऐसा व्याख्यान जानकर राग-द्वेष-मोहको तजकर
परमशांतभावरूप शुद्धात्मामें लीन होना योग्य है ।।१०५।।
आगे जीवोंमें जो भेद हैं, वह सब कर्मजनित हैं, ऐसा प्रगट करते हैं
गाथा१०६
अन्वयार्थ :[जीवानां ] जीवोंमें [भेदः ] नर-नारकादि भेद [कर्मकृत एव ] कर्मोंसे
ही किया गया है, और [कर्म अपि ] कर्म भी [जीवः ] जीव [न भवति ] नहीं हो सकता
[येन ] क्योंकि वह जीव [कमपि ] किसी [कालं ] समयको [लब्ध्वा ] पाकर [तेभ्यः ] उन
कर्मोंसे [विभिन्नः ] जुदा [भवति ] हो जाता है

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adhikAr-2 dohA-107 ]paramAtmaprakAsha [ 393
जीवहं इत्यादि जीवहं जीवानां भेउ जि भेद एव कम्म-किउ निर्भेदशुद्धात्मविलक्षणेन
कर्मणा कृतः, कम्मु वि जीउ ण होइ ज्ञानावरणादिकर्मैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं जीवस्वरूपं
न भवति
कस्मान्न भवतीति चेत् जेण विभिण्णउ होइ तहं येन कारणेन विभिन्नो भवति
तेभ्यः कर्मभ्यः किं कृत्वा कालु लहेविणु कोइ वीतरागपरमात्मानुभूतिसहकारिकारणभूतं
कमपि कालं लब्ध्वेति अयमत्र भावार्थः टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकशुद्धजीवस्वभावाद्विलक्षणं
मनोज्ञामनोज्ञस्त्रीपुरुषादिजीवभेदं द्रष्ट्वा रागाद्यपध्यानं न कर्तव्यमिति ।।१०६।।
अतः कारणात् शुद्धसंग्रहेण भेदं मा कार्षीरिति निरूपयति
२३४) एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्णविसेसु
इक्कइँ देवइँ जेँ वसह तिहुयणु एहु असेसु ।।१०७।।
एकं कु रु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम्
एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतद् अशेषम् ।।१०७।।
bhAvArthamAtra (kevaL) TankotkIrNa gnAyak shuddha jIvasvabhAvathI vilakShaN manogna,
amanogna strI puruSh AdirUp jIvanA bhed joIne rAgAdirUp apadhyAn na karavun. 106.
tethI, shuddhasangrahanayathI tun jIvomAn bhed na kar, em kahe chhe
भावार्थ :कर्म शुद्धात्मासे जुदे हैं, शुद्धात्मा भेदकल्पनासे रहित है ये
शुभाशुभकर्म जीवका स्वरूप नहीं हैं, जीवका स्वरूप तो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव है
अनादिकालसे यह जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये रागादि अशुद्धोपयोगसे कर्मको
बाँधता है
सो कर्मका बंध अनादिकालका है इस कर्मबंधसे कोई एक जीव वीतराग
परमात्माकी अनुभूतिके सहकारी कारणरूप जो सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका समय उसको पाकर उन
कर्मोंसे जुदा हो जाता है
कर्मोंसे छूटनेका यही उपाय है, जो जीवके भवस्थिति समीप (थोड़ी)
रही हो, तभी सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, तभी कर्मकलंकसे
छूट जाता है तात्पर्य यह है कि जो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव उससे विलक्षण
जो स्त्री, पुरुषादि शरीरके भेद उनको देखकर रागादि खोटे ध्यान नहीं करने चाहिये ।।१०६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि तू शुद्ध संग्रहनयकर जीवोंमें भेद मत कर
गाथा१०७
अन्वयार्थ :[एकं कुरु ] हे आत्मन्, तू जातिकी अपेक्षा सब जीवोंको एक जान,

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394 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-107
एक्कु करे इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते एक्कु करे सेनावनादि-
वज्जीवजात्यपेक्षया सर्वमेकं कुरु मण बिण्णि करि मा द्वौ कार्षीः मं करि वण्ण-विसेस
मनुष्यजात्यपेक्षया ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रादि वर्णभेदं मा कार्षीः, यतः कारणात् इक्कइं देवइ
एकेन देवेन अभेदनयापेक्षया शुद्धैकजीवद्रव्येण
े येन कारणेन वसह वसति
किं कर्तृं
तिहुयणु त्रिभुवनं त्रिभुवनस्थो जीवराशिःएहु एषः प्रत्यक्षीभूतः कतिसंख्योपेतः असेसु अशेषं
समस्तं इति त्रिभुवनग्रहणेन इह त्रिभुवनस्थो जीवराशिर्गृह्यते इति तात्पर्यम् तथाहि
लोकस्तावदयं सूक्ष्मजीवैर्निरन्तरं भृतस्तिष्ठति बादरैश्चाधारवशेन क्वचित् क्वचिदेव त्रसैः
bhAvArthapratham to A lok sUkShma jIvothI nirantar (badhI jagAe) bharyo paDyo
chhe. (sUkShma pRithvIkAy, sUkShma jaLakAy, sUkShma agnikAy, sUkShma vAyukAy, sUkShma nityanigod,
sUkShma itaranigodi
A chha prakAranA sUkShma jIvothI samasta lok nirantar bharelo rahe chhe)
ane te AdhAravashe (rahelA) bAdar jIvothI lokamAn kyAnk, kyAnk bharelo chhe, tras jIvothI
paN kyAnk, kyAnk bharelo chhe. (bAdar pRithvIkAy, bAdar jaLakAy, bAdar agnikAy, bAdar
vAyukAy, bAdar nityanigod, bAdar itaranigod ane pratyek vanaspati jyAn AdhAr chhe tyAn
chhe, tethI kyAnk hoy chhe kyAnk nathI hotA chhatAn te ghaNA sthaLomAn chhe. A rIte sthAvar
jIvo to traN lokamAn chhe, ane dvIndriy, trIndriy, chaturindriy, panchendriy, tiryanch, e
madhyalokamAn ja chhe, adholok ane UrdhvalokamAn nathI. temAnthI dvIndriy, trIndriy, chaturindriy
jIv karmabhUmimAn ja chhe, bhogabhUmimAn nathI. temAnthI bhogabhUmimAn garbhaj panchendriy sangnI
[मा द्वौ कार्षीः ] इसलिये राग और द्वेष मत कर, [वर्णविशेषम् ] मनुष्य जातिकी अपेक्षा
ब्राह्मणादि वर्ण
- भेदको भी [मा कार्षीः ] मत कर, [येन ] क्योंकि [एकेन देवेन ] अभेदनयसे
शुद्ध आत्माके समान [एतद् अशेषम् ] ये सब [त्रिभुवनं ] तीनलोकमें रहनेवाली जीव - राशि
[वसति ] ठहरी हुई है, अर्थात् जीवपनेसे सब एक हैं
भावार्थ :सब जीवोंकी एक जाति है जैसे सेना और वन एक है, वैसे जातिकी
अपेक्षा सब जीव एक हैं नर-नारकादि भेद और ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्ण - भेद सब
कर्मजनित हैं, अभेदनयसे सब ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रादि वर्णभेद सब कर्मजनित हैं,
अभेदनयसे सब जीवोंको एक जानो अनंत जीवोंकर वह लोक भरा हुआ है उस जीव
राशिमें भेद ऐसे हैंजो पृथ्वीकायसूक्ष्म, जलकायसूक्ष्म, अग्निकायसूक्ष्म, वायुकायसूक्ष्म,
नित्यनिगोदसूक्ष्म, इतरनिगोदसूक्ष्मइन छह तरहके सूक्ष्म जीवोंकर तो यह लोक निरन्तर भरा
हुआ है, सब जगह इस लोकमें सूक्ष्म जीव हैं और पृथ्वीकायबादर, जलकायबादर,
अग्निकायबादर, वायुकायबादर, नित्यनिगोदबादर, इतरनिगोदबादर और प्रत्येकवनस्पतिये

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adhikAr-2 dohA-107 ]paramAtmaprakAsha [ 395
क्वचिदपि तथा ते जीवाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्त्यपेक्षया
केवलज्ञानादिगुण-रूपास्तेन कारणेन स एव जीवराशिः यद्यपि व्यवहारेण कर्मकृतस्तिष्ठति तथापि
निश्चयनयेन शक्ति रूपेण परमब्रह्मस्वरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भण्यते, परमशिव इति च
तेनैव कारणेन स एव जीवराशिः केचन परब्रह्ममयं जगद्वदन्ति, केचन परमविष्णुमयं वदन्ति,
केचन पुनः परमशिवमयमिति च
अत्राह शिष्यः यद्येवंभूतं जगत्संमतं भवतां तर्हि परेषां
किमिति दूषणं दीयते भवद्भिः परिहारमाह यदि पूर्वोक्त नयविभागेन केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
thaLachar ane nabhachar e banne jAtinA tiryanch chhe. tathA manuShya madhyalokanA aDhI dvIpamAn
ja chhe, bIjI jagyAe nathI. devalokamAn svargavAsI devadevI chhe, anya panchendriy nathI.
pAtALalokamAn uparanA bhAgamAn bhavanavAsIdev tathA vyantaradev ane nIchenA bhAgamAn sAt
narakonA nArakI panchendriy chhe, anya koI nathI ane madhyalokamAn bhavanavAsI, vyantaradev tathA
jyotiShIdev e traN jAtinA dev ane tiryanch chhe, A rIte tras jIv lokamAn koI jagyAe
chhe koI jagyAe nathI. A rIte A lok jIvothI bharelo chhe. sUkShmasthAvar vagarano to
lokano koI bhAg khAlI nathI, badhI jagyAe sUkShmasthAvar bharyA paDyA chhe.)
vaLI, te jIvo shuddhapAriNAmik paramabhAvagrAhak shuddha dravyArthikanayathI shakti-apekShAe
kevaLagnAnAdiguNarUp chhe, te kAraNe te jIvarAshijoke vyavahAranayathI karmakRut chhe topaN
nishchayanayathI shaktirUpe ‘param brahmasvarUp’ kahevAy chhe, ‘paramaviShNu’ kahevAy chhe ane ‘paramashiv’
kahevAy chhe, te kAraNe ja te jIvarAshine ja keTalAk ‘paramabrahmamay jagat’ kahe chhe, keTalAk
जहाँ आधार है वहाँ हैं सो कहीं पाये जाते हैं, कही नहीं पाये जाते, परंतु ये भी बहुत जगह
हैं इसप्रकार स्थावर तो तीनों लोकोंमें पाये जाते हैं, और दोइंद्री, तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री तिर्यंच
ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक-ऊ र्ध्वलोकमें नहीं उसमेंसे दोइंद्री, तेइंद्री, चौइन्द्री
जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें नहीं भोगभूमिमें गर्भज पंचेंद्री सैनी थलचर या
नभचर ये दोनों जातितिर्यंच हैं मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीप में पाये जाते हैं, अन्य जगह
नहीं, देवलोकमें स्वर्गवासी देव-देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेंद्री नहीं, पाताललोकमें ऊ परके
भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्री हैं, अन्य
कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और
तिर्यंच पाये जाते हैं
इसप्रकार त्रसजीव किसी जगह हैं, किसी जगह नहीं हैं इस तरह यह
लोक जीवोंसे भरा हुआ है सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोकका कोई भाग खाली नहीं है, सब
जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं ये सभी जीव शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं इसलिये यद्यपि यह जीव - राशि
व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है इन जीवोंको

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396 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-107
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण मन्यन्ते तदा तेषां दूषणं नास्ति, यदि पुनरेकः पुरुषविशेषो व्यापी
जगत्कर्ता ब्रह्मादिना-मास्तीति मन्यन्ते तदा तेषां दूषणम्
कस्माद् दूषणमिति चेत् प्रत्यक्षादि-
प्रमाणबाधितत्वात् साधकप्रमाणप्रमेयचिन्ता तर्के विचारिता तिष्ठत्यत्र तु नोच्यते अध्यात्म-
शास्त्रत्वादित्यभिप्रायः
।।१०७।। इति षोडशवर्णिकासुवर्णद्रष्टान्तेन केवलज्ञानादिलक्षणेन सर्वे
‘paramaviShNumay’ kahe chhe, vaLI keTalAk ‘paramashivamay’ kahe chhe.
ahIn, shiShya prashna kare chhe kejo tame paN A pramANe jagatane ‘paramabrahmamay’,
‘paramaviShNumay’, ‘paramashivamay’ mAno chho to pachhI tame anyamatavALAone shA mATe dUShaN
Apo chho?
teno parihAr kahe chhejo pUrvokta nayavibhAgathI kevaLagnAnAdi guNonI apekShAe
vItarAgasarvagnapraNIt mArgAnusAr mAne to temane dUShaN nathI, paN jo koI ek
puruShavisheShane jagatvyApI, jagatkartA tarIke brahmAdinA nAm vaDe mAne chhe to temane dUShaN
chhe, kAraN ke te pratyakSha Adi pramANothI bAdhit chhe. (jo koI ek shuddha, buddha nitya
mukta chhe te shuddha-buddhane kartApaNun, hartApaNun sambhavI shakatun nathI, kAraN ke bhagavAn mohathI
rahit chhe mATe tene kartA-hartApaNAnI ichchhA sambhavI shake nahi. te to nirdoSh chhe mATe kartA
-hartA bhagavAnane mAnavAmAn pratyakSha virodh Ave chhe) tenA sAdhak pramAN prameyanI vichAraNA
nyAyashAstromAn karavAmAn AvI chhe. ahIn adhyAtmashAstra hovAthI tenun vivechan kahevAmAn Avatun
nathI, evo abhiprAy chhe. 107.
ही परमविष्णु कहना, परमशिव कहना चाहिये यही अभिप्राय लेकर कोई एक ब्रह्ममयी जगत्
कहते हैं, कोई एक विष्णुमयी कहते हैं, कोई एक शिवमयी कहते हैं यहाँ पर शिष्यने प्रश्न
किया, कि तुम भी जीवोंको परब्रह्म मानते हो, तथा परमविष्णु, परमशिव मानते हो, तो
अन्यमतवालोंको क्यों दूषण देते हो ? उसका समाधान
हम तो पूर्वोक्त नयविभागकर
केवलज्ञानादि गुणकी अपेक्षा वीतराग सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे जीवोंको ऐसा मानते हैं, तो दूषण नहीं
है
इस तरह वे नहीं मानते हैं वे एक कोई पुरुष जगत्का कर्त्ता-हर्त्ता मानते हैं इसलिये
उनको दूषण दिया जाता है, क्योंकि जो कोई एक शुद्ध-बुद्ध नित्य मुक्त है, उस शुद्ध-बुद्धको
कर्त्ता-हर्त्तापना हो ही नहीं सकता, और अच्छा है वह मोहकी प्रकृति है
भगवान् मोहसे रहित
हैं, इसलिये कर्त्ता-हर्त्ता नहीं हो सकते कर्त्ता-हर्त्ता मानना प्रत्यक्ष विरोध है हम तो जीव
राशिको परमब्रह्म मानते हैं, उसी जीवराशिसे लोक भरा हुआ है अन्यमती ऐसा मानते हैं, कि
एक ही ब्रह्म अनंतरूप हो रहा है जो वही एक सबरूप हो रहा होवे, तो नरक निगोद स्थानको
कौन भोगे ? इसलिये जीव अनंत हैं इन जीवोंको ही परमब्रह्म, परमशिव कहते हैं, ऐसा तू
निश्चयसे जान ।।१०७।।

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adhikAr-2 dohA-108 ]paramAtmaprakAsha [ 397
जीवाः समाना भवन्तीति व्याख्यानमुख्यतया त्रयोदशसूत्रैरन्तरस्थलं गतम् एवं
मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीयमहाधिकारमध्ये चतुर्भिरन्तरस्थलैः शुद्धोपयोगवीतराग-
स्वसंवेदनज्ञानपरिग्रहत्यागसर्वजीवसमानताप्रतिपादनमुख्यत्वेनैकचत्वारिंशत्सूत्रैर्महास्थलं समाप्तम्
अत ऊर्ध्वं ‘परु जाणंतु वि’ इत्यादि सप्ताधिकशतसूत्रपर्यन्ते स्थलसंख्याबहिर्भूतान्
प्रक्षेपकान् विहाय चूलिकाव्याख्यानं करोति इति
२३५) परु जाणंतु वि परममुणि परसंसग्गु चयंति
परसंगइँ परमप्पयहँ लक्खहँ जेण चलंति ।।१०८।।
परं जानन्तोऽपि परममुनयः परसंसर्गं त्यजन्ति
परसंगेन परमात्मनः लक्ष्यस्य येन चलन्ति ।।१०८।।
A pramANe soLavalA suvarNanA draShTAnt vaDe kevaLagnAnAdi lakShaNathI sarva jIvo samAn chhe
evA vyAkhyAnanI mukhyatAthI ter dohAsUtronun antarasthaL samApta thayun.
e pramANe mokShamArga, mokShaphaL, ane mokSha AdinA pratipAdak bIjA mahAdhikAramAn
chAr antarasthaLothI shuddhopayog, vItarAg svasamvedanarUpagnAn, parigrahatyAg ane sarva jIvonI
samAnatAnA pratipAdananI mukhyatAthI ekatAlIs sUtronun mahAsthaL samApta thayun.
AnA pachhI ‘परू जाणंतु वि’ ityAdi ekaso sAt gAthAsUtrothI, sthaLasankhyAthI bahirbhUt
prakShepakone chhoDIne chUlikAnun vyAkhyAn kare chhe, te A pramANe
इसप्रकार सोलहवानीके सोनेके दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञानादि लक्षणसे सब जीव समान
हैं, इस व्याख्यानकी मुख्यतासे तेरह दोहासूत्र कहे इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्षफल और मोक्ष
इन तीनोंको कहनेवाले दूसरे महाधिकारमें चार अन्तरस्थलोंका इकतालीस दोहोंका महास्थल
समाप्त हुआ
इसमें शुद्धोपयोग, वीतरागस्वसंवेदनज्ञान, परिग्रहत्याग और सब जीव समान हैं,
ये कथन किया
आगे ‘पर जाणंतु वि’ इत्यादि एकसौ सात दोहा पर्यंत तीसरा महाधिकार कहते हैं,
उसीमें ग्रंथको समाप्त करते हैं
गाथा१०८
अन्वयार्थ :[परममुनयः ] परममुनि [परं जानंतोऽपि ] उत्कृष्ट आत्मद्रव्यको
जानते हुए भी [परसंसर्गं ] परद्रव्य जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म उसके सम्बन्धको

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398 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-108
परु जाणंतु वि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते परु जाणंतु वि परद्रव्यं
जानन्तोऽपि के ते परम-मुणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरताः परममुनयः किं कुर्वन्ति पर-
संसग्गु चयंति परसंसर्गं त्यजन्ति निश्चयेनाभ्यन्तरे रागादिभावकर्मज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मशरीरादि-
नोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते
तत्संसर्गं परिहरन्ति
यतः कारणात् पर-संगइँ [?] पूर्वोक्त बाह्याभ्यन्तर परद्रव्यसंसर्गेण परमप्पयहं वीतराग-
नित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य
कथंभूतस्य लक्खहं लक्ष्यस्य
ध्येयभूतस्य धनुर्विद्याभ्यासप्रस्तावे लक्ष्यरूपस्यैव जेण चलंति येन कारणेन चलन्ति त्रिगुप्तिसमाधेः
सकाशात् च्युता भवन्तीति
अत्र परमध्यानाविघातकत्वान्मिथ्यात्वरागादिपरिणामस्तत्परिणतः
पुरुषरूपो वा परसंसर्गस्त्यजनीय इति भावार्थः ।।१०८।।
bhAvArthavItarAg svasamvedanagnAnamAn rat paramamunio paradravyane jANatA thakA
parasansargane chhoDe chhenishchayathI abhyantaramAn rAgAdi bhAvakarma, gnAnAvaraNAdi dravyakarma ane sharIrAdi
nokarma tathA bahAramAn mithyAtva, rAgAdirUpe pariNat asamvRutajan (asanyamI jIv) e badhun paradravya
kahevAy chhe, teno sang chhoDe chhe; kAraN ke jevI rIte dhanurvidyAnA abhyAs samaye bIje lakSha jatAn,
dhanurdhArI lakShyarUpathI chalit thAy chhe tevI rIte munio pUrvokta bAhya, abhyantar paradravyanA sansargathI
dhyeyabhUt, vItarAganityAnand ja jeno ek svabhAv chhe evA paramasamarasI bhAvarUpe pariNat
paramAtmatattvathI chalit thAy chhe
traN guptiyukta samAdhithI chyut thAy chhe.
ahIn, paramadhyAnanA vighAtak hovAthI mithyAtva, rAgAdi pariNAmarUp athavA
mithyAtva rAgAdi pariNAmomAn pariNat puruSharUp evo parasansarga chhoDavA yogya chhe, evo bhAvArtha
chhe. 108.
[त्यजंति ] छोड़ देते हैं [येन ] क्योंकि [परसंगेन ] परद्रव्यके सम्बन्धसे [लक्ष्यस्य ] ध्यान
करने योग्य जो [परमात्मनः ] परमपद उससे [चलंति ] चलायमान हो जाते हैं
भावार्थ :शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हुए परद्रव्योंके साथ
सम्बन्ध छोड़ देते हैं अंदरके विकार रागादि भावकर्म और बाहरके शरीरादि ये सब परद्रव्य
कहे जाते हैं वे मुनिराज एक आत्मभावके सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग (सम्बन्ध) छोड़
देते हैं तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका सम्बन्ध छोड़ देते हैं इनके संसर्गसे
परमपद जो वीतरागनित्यानंद अमूर्तस्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य
है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते हैं
यहाँ
पर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागी-द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग
सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह सारांश है
।।१०८।।

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adhikAr-2 dohA-109 ]paramAtmaprakAsha [ 399
अथ तमेव परद्रव्यसंसर्गं त्यागं कथयति
२३६) जो समभावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु
चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ।।१०९।।
यः समभावाद् बाह्यः तेन सह मा कुरु संगम्
चिंतासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ।।१०९।।
यो इत्यादि जो यः कोऽपि सम-भावहं बाहिरउ जीवितमरणलाभालाभादि
समभावानुकूलविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावज्ञानपरमात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञाननुष्ठानरूपसमभावबाह्यः
तिं सहुं मं करि संगु तेन सह संसर्गं मा कुरु हे आत्मन् यतः किम् चिंता-सायरि पडहि
रागद्वेषादिकल्लोलरूपे चिन्तासमुद्रे पतसि पर परं नियमेन अण्णु वि अन्यदपि दूषणं
भवति किम् डज्झइ दह्यते व्याकुलं भवति किं दह्यते अंगु शरीरं इति अयमत्र
have, te ja paradravyanA sansargane chhoDavAnun kahe chhe
bhAvArthaje koI jIvit-maraN, lAbh-alAbh AdimAn samabhAvane anukUL
vishuddhagnAn ane vishuddhadarshan jeno svabhAv chhe evA paramAtmadravyanAn samyakshraddhAn, samyaggnAn
ane samyag-anuShThAnarUp samabhAvathI bAhya (rahit) chhe tenI sAthe he AtmA! tun sansarga na kar;
kAraN ke tenI sAthe sansarga karavAthI tun rAgadveShAdinA kallolarUp chintAsamudramAn paDIsh. vaLI, bIjun
dUShaN e Avashe ke sharIr paN niyamathI baLashe-vyAkuL thashe.
आगे उन्हीं परद्रव्योंके संबंधको फि र छुड़ानेका कथन करते हैं
गाथा१०९
अन्वयार्थ :[यः ] जो कोई [समभावात् ] समभाव अर्थात् निजभावसे [बाह्य ]
बाह्य पदार्थ हैं, [तेन सह ] उनके साथ [संगम् ] संग [मा कुरु ] मत कर क्योंकि उनके
साथ संग करनेसे [चिंतासागरे ] चिंतारूपी समुद्रमें [पतसि ] पड़ेगा, [परं ] केवल
[अन्यदपि ] और भी [अंगः ] शरीर [दह्यते ] दाहको प्राप्त होगा, अर्थात् अंदरसे जलता रहेगा
भावार्थ :जो कोई जीवित, मरण, लाभ, अलाभादिमें तुल्यभाव उसके संमुख जो
निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्म द्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निजभाव
उसरूप समभावसे जो जुदे पदार्थ हैं, उनका संग छोड़ दे
क्योंकि उनके संगसे चिंतारूपी
समुद्रमें गिर पड़ेगा जो समुद्र राग-द्वेषरूपी कल्लोलोंसे व्याकुल है उनके संगसे मनमें चिंता

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400 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-110
भावार्थः वीतरागनिर्विकल्पसमाधिभावनाप्रतिपक्षभूतरागादिस्वकीयपरिणाम एव निश्चयेन पर
इत्युच्यते व्यवहारेण तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषः सोऽपि कथंचित्, नियमो नास्तीति ।।
१०९ ।।
अथैतदेव परसंसर्गदूषणं द्रष्टान्तेन समर्थयति
२३७) भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं
वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं ।।११०।।
भद्राणामपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसर्गः खलैः
वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते घनैः ।।११०।।
भल्लाहं वि इत्यादि भल्लाहं वि भद्राणामपि स्वस्वभावसहितानामपि णासन्ति गुण
नश्यन्ति परमात्मोपलब्धिलक्षणगुणाः येषां किम् जहँ संसग्ग येषां संसर्गः कै सह खलेहिं
ahIn, A bhAvArtha chhe ke vItarAg nirvikalpa samAdhinI bhAvanAthI pratipakShabhUt rAgAdirUp
svakIy pariNAm ja nishchayathI ‘par’ (‘paradravya’) kahevAy chhe ane vyavahArathI mithyAtva, rAgAdirUpe
pariNat puruSh te paN kathanchit, (par kahevAy chhe,) niyam nathI. 109.
have, paradravyano sansarga dUShaN chhe e ja kathanane draShTAnt vaDe draDh kare chhe
bhAvArthasvasvabhAvasahit bhadra jIvonA paramAtmAnI prAptisvarUp guNo,
उत्पन्न होगी, और शरीरमें दाह होगा यहाँ तात्पर्य यह है, कि वीतराग निर्विकल्प परमसमाधिकी
भावनासे विपरीत जो रागादि अशुद्ध परिणाम वे ही परद्रव्य कहे जाते हैं, और व्यवहारनयकर
मिथ्यात्वी रागी
द्वेषी पुरुष पर कहे गये हैं इन सबकी संगति सर्वदा दुःख देनेवाली है, किसी
प्रकार सुखदायी नहीं है, ऐसा निश्चय है ।।१०९।।
आगे परद्रव्यका प्रसंग महान् दुःखरूप हैं, यह कथन दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं
गाथा११०
अन्वयार्थ :[खलैः सह ] दुष्टोंके साथ [येषां ] जिनका [संसर्गः ] संबंध है, वह
[भद्राणाम् अपि ] उन विवेकी जीवोंके भी [गुणाः ] सत्य शीलादि गुण [नश्यन्ति ] नष्ट हो
जाते हैं, जैसे [वैश्वानरः ] आग [लोहेन ] लोहेसे [मिलितः ] मिल जाती है, [तेन ] तभी
[घनैः ] घनोंसे [पिट्टयते ] पीटी
कूटी जाती है
भावार्थ :विवेकी जीवोंके शीलादि गुण मिथ्यादृष्टि रागी द्वैषी अविवेकी जीवोंकी

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adhikAr-2 dohA-111 ]paramAtmaprakAsha [ 401
परमात्मपदार्थप्रतिपक्षभूतैर्निश्चयनयेन स्वकीयबुद्धिदोषरूपैः रागद्वेषादिपरिणामैः खलैर्दुष्टैर्व्यवहारेण
तु मिथ्यात्वरागादिपरिणतपुरुषैः
अस्मिन्नर्थे द्रष्टान्तमाह वइसाणरु लोहहं मिलिउ वैश्वानरो
लोहमिलितः तें तेन कारणेन पिट्टियइघणेहिं पिट्टनक्रियां लभते कैः घनैरिति
अत्रानाकुलत्वसौख्यविघातको येन द्रष्टश्रुतानुभूतभोगकांक्षारूपनिदानबन्धाद्यपध्यानपरिणाम एव
परसंसर्गस्त्याज्यः व्यवहारेण तु परपरिणतपुरुष इत्याभिप्रायः ।।११०।।
अथ मोहपरित्यागं दर्शयति
२३८) जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।१११।।
योगिन् मोहं परित्यज मोहो न भद्रो भवति
मोहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।१११।।
paramAtmapadArthanA pratipakShabhUt ane nishchayanayathI svakIyabuddhidoSharUp duShTa rAgadveSh Adi pariNAmo
ane vyavahAranayathI mithyAtva, rAgAdirUpe pariNat duShTa puruSho sAthenA sansargathI, nAsh pAme chhe.
Anun samarthan karavA mATe draShTAnt kahe chhe. agni loDhAno sang pAme chhe tethI ghaN vaDe TipAyA
kare chhe.
ahIn, anAkuLatArUp sukhanA vighAtak, dekhelA, sAmbhaLelA ane anubhavelA bhogonI
vAnchhArUp nidAnabandh Adi apadhyAnarUp pariNAmarUp ja parasansarga tyAjya chhe ane vyavahArathI
parapariNat puruSh tyAjya chhe, evo abhiprAy chhe. 110.
have, mohano tyAg karavAnun darshAve chhe
संगतिसे नाश हो जाते हैं अथवा आत्माके निजगुण मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध भावोंके संबंधसे
मलिन हो जाते हैं जैसे अग्नि लोहेके संगमें पीटीकूटी जाती है यद्यपि आगको घन कूट
नहीं सकता, परंतु लोहेकी संगतिसे अग्नि भी कूटनेमें आती है, उसी तरह दोषोंके संगसे गुण
भी मलिन हो जाते हैं
यह कथन जानकर आकुलता रहित सुखके घातक जो देखे, सुने, अनुभव
किये भोगोंकी वाँछारूप निदानबंध आदि खोटे परिणामरूपी दुष्टोंकी संगति नहीं करना, अथवा
अनेक दोषोंकर सहित रागी-द्वेषी जीवोंकी भी संगति कभी नहीं करना, यह तात्पर्य है
।।११०।।
आगे मोहका त्याग करना दिखलाते हैं
गाथा१११
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, तू [मोहं ] मोहको [परित्यज ] बिलकुल छोड़ दे,

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402 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-111
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् मोहु परिच्चयहि निर्मोहपरमात्मस्वरूपभावना-
प्रतिपक्षभूतं मोहं त्यज कस्मात् मोहु ण भल्लउ होइ मोहो भद्रः समीचीनो न भवति
तदपि कस्मात् मोहासत्तउ सयलु जगु मोहासक्तं समस्तं जगत् निर्मोहशुद्धात्मभावनारहितं
दुक्खु सहंतउ जोइ अनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविलक्षणमाकुलत्वोपादकं दुःखं सहमानं
पश्येति
अत्रास्तां तावद् बहिरङ्गपुत्रकलत्रादौ पूर्वं परित्यक्ते पुनर्वासनावशेन स्मरणरूपो मोहो
न कर्तव्यः शुद्धात्मभावनास्वरूपं तपश्चरणं तत्साधकभूतशरीरं तस्यापि स्थित्यर्थमशनपानादिकं
यद्गृह्यमाणं तत्रापि मोहो न कर्तव्य इति भावार्थः ।।१११।।
अथ स्थलसंख्याबहिर्भूतमाहारमोहविषयनिराकरणसमर्थनार्थं प्रक्षेपकत्रयमाह तद्यथा
bhAvArthahe yogI! tun nirmoh evA paramAtmasvarUpanI bhAvanAthI pratipakShabhUt evA
mohane tun chhoD, kAraN ke moh samIchIn nathI. shA mATe? kAraN ke nirmoh evA shuddha AtmAnI
bhAvanAthI rahit mohAsakta samasta jagatane, AkuLatA jenun lakShaN chhe evA pAramArthik sukhathI
vilakShaN ane AkuLatAnA utpAdak evA dukhane sahan karatun, tun dekh.
ahIn, kahe chhe ke pUrve chhoDI dIdhel bahirang strI, putrAdimAn pharIthI vAsanAnA vashe
smaraNarUp moh to na karavo e to ThIk, parantu shuddhAtmAnI bhAvanAsvarUp je tapashcharaN tenA
sAdhakabhUt je sharIr tenI sthiti mATe (tene TakAvavA mATe) paN je anna, jaLAdik levAmAn
Ave chhe temanI upar paN moh na karavo, evo bhAvArtha chhe. 111.
have, AhAranA mohanA tyAganun samarthan karavA mATe sthaLasankhyAthI bahAr traN prakShepak
gAthAsUtro kahe chhe
क्योंकि [मोहः ] मोह [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं होता है, [मोहासक्तं ] मोहसे आसक्त
[सकलं जगत् ] सब जगत् जीवोंको [दुःखं सहमानं ] क्लेश भोगते हुए [पश्य ] देख
भावार्थ :जो आकुलता रहित है, वह दुःखका मूल मोह है मोही जीवोंको दुःख
सहित देखो वह मोह परमात्मस्वरूपकी भावनाका प्रतिपक्षी दर्शनमोह चारित्रमोहरूप है
इसलिये तू उसको छोड़ पुत्र, स्त्री आदिकमें तो मोहकी बात दूर रहे, यह तो प्रत्यक्षमें त्यागने
योग्य ही है, और विषयवासनाके वश देह आदिक परवस्तुओंका रागरूप मोह - जाल है, वह भी
सर्वथा त्यागना चाहिये अंतर बाह्य मोहका त्यागकर सम्यक् स्वभाव अंगीकार करना शुद्धात्मा
की भावनारूप जो तपश्चरण उसका साधक जो शरीर उसकी स्थितिके लिये अन्न जलादिक लिये
जाते हैं, तो भी विशेष राग न करना, राग रहित नीरस आहार लेना चाहिये
।।१११।।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय जो प्रक्षेपक दोहे हैं, उनके द्वारा आहारका मोह निवारण
करते हैं

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adhikAr-2 dohA-1112 ]paramAtmaprakAsha [ 403
२३९) काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं
अहिलससि किं ण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं ।।१११।।
कृत्वा नग्नरूपं बीभत्सं दग्धमृतकसद्रशम्
अभिलषसि किं न लज्जसे भिक्षायां भोजनं मिष्टम् ।।१११।।
काऊण इत्यादि काऊण कृत्वा किम् णग्गरूवं नग्नरूपं निर्ग्रन्थं जिनरूपम्
कथंभूतम् बीभस्सं (च्छं ?) भयानकम् पुनरपि कथंभूतम् दड्ढ-मडय-सारिच्छं दग्धमृतक-
द्रशम् एवंविधिं रूपं धृत्वा हे तपोधन अहिलससि अभिलाषं करोषि किं ण लज्जसि लज्जां
किं न करोषि किं कुर्वाणः सन् भिक्खाए भोयणं मिट्ठं भिक्षायां भोजनं मिष्टं इति मन्यमानः
सन्निति श्रावकेण तावदाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानं तात्पर्येण दातव्यम् आहारदानं येन दत्तं तेन
bhAvArthashrAvake to tAtparyapUrvak AhAr, abhay, bhaiShajya ane shAstra e chAr
prakAranun dAn Apavun joIe. jeNe AhAradAn Apyun teNe shuddha AtmAnI anubhUtinun sAdhak bAhya
abhyantar bhedathI bhedavALun bAr prakAranun tapashcharaNanun dAn Apyun chhe. teNe shuddha AtmAnI
bhAvanAsvarUp sanyamanA sAdhak evA dehanI sthiti paN karI chhe ane teNe shuddhAtmopalambhanI
prAptirUp mokShagati paN ApI chhe.
joke A pramANenA guNathI vishiShTa chAr prakAranA dAn shrAvako Ape chhe topaN nishchay
गाथा१११
अन्वयार्थ :[बीभत्सं ] भयानक देहके मैलसे युक्त [दग्धमृतकसदृशम् ] जले हुए
मुरदेके समान रूपरहित ऐसे [नग्नरूपं ] वस्त्र रहित नग्नरूपको [कृत्वा ] धारण करके हे साधु,
तू [भिक्षायां ] परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें [मिष्टम् ] स्वादयुक्त [भोजनं ]
आहारकी [अभिलषसि ] इच्छा करता है, तो तू [किं न लज्जस ] क्यों नहीं शरमाता ? यह
बड़ा आश्चर्य है
भावार्थ :पराये घर भिक्षाको जाते मिष्ट आहारकी इच्छा धारण करता है, सो तुझे
लाज नहीं आती ? इसलिये आहारका राग छोड़ अल्प और नीरस, आहार उत्तम कुली श्रावकके
घर साधुको लेना योग्य है
मुनिको रागभाव रहित आहार लेना चाहिये स्वादिष्ट सुंदर
आहारका राग करना योग्य नहीं है और श्रावकको भी यही उचित है, कि भक्तिभावसे
मुनिको निर्दोष आहार देवे, जिसमें शुभका दोष न लगे और आहारके समय ही आहारमें मिली
हुई निर्दोष औषधि दे, शास्त्रदान करे, मुनियोंका भय दूर करे, उपसर्ग निवारण करे यही

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404 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-111
3
शुद्धात्मानुभूतिसाधकं बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं द्वादशविधं तपश्चरणं दत्तं भवति शुद्धात्मभावना-
लक्षणसंयमसाधकस्य देहस्यापि स्थितिः कृता भवति शुद्धात्मोपलंभप्राप्तिरूपा भवान्तरगतिरपि
दत्ता भवति यद्यप्येवमादिगुणविशिष्टं चतुर्विधदानं श्रावकाः प्रयच्छन्ति तथापि निश्चयव्यवहार-
रत्नत्रयाराधकतपोधनेन बहिरङ्गसाधनीभूतमाहारादिकं किमपि गृह्णतापि स्वस्वभावप्रतिपक्षभूतो
मोहो न कर्तव्य इति तात्पर्यम्
।।१११।।
अथ :
२४०) जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ।।१११।।
यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविघतपःफलं महद्विपुलम्
ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ।।१११।।
vyavahAraratnatrayanA ArAdhak evA tapodhane bahirang sAdhanabhUt koI paN AhArAdikane grahaN
karatAn chhatAn paN, svasvabhAvathI pratipakShabhUt moh na karavo, evun tAtparya chhe. 111
2.
have, pharI paN bhojananI lAlasAno tyAg karAve chhe
गृहस्थको योग्य है जिस गृहस्थने यतीको आहार दिया, उसने तपश्चरण दिया, क्योंकि
संयमका साधन शरीर है, और शरीरकी स्थिति अन्न जलसे है आहारके ग्रहण करनेसे तपस्याकी
बढ़वारी होती है इसलिये आहारका दान तपका दान है यह तपसंयम शुद्धात्माकी
भावनारूप है, और ये अंतर बाह्य बारह प्रकारका तप शुद्धात्माकी अनुभूतिका साधक है तप
संयमका साधन दिगम्बर का शरीर है इसलिये आहारके देनेवालेने यतीके देहकी रक्षा की,
और आहारके देनेवालेने शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष दी क्योंकि मोक्षका साधन मुनिव्रत है,
और मुनिव्रतका साधन शरीर है, तथा शरीरका साधन आहार है इसप्रकार अनेक गुणोंको उत्पन्न
करनेवाला आहारादि चार प्रकारका दान उसको श्रावक भक्तिसे देता है, तो भी निश्चय व्यवहार
रत्नत्रयके आराधक योगीश्वर महातपोधन आहारको ग्रहण करते हुए भी राग नहीं करते हैं
राग-द्वेष-मोहादि परिणाम निजभावके शत्रु हैं, यह सारांश हुआ ।।१११।।
आगे फि र भी भोजनकी लालसाको त्याग कराते हैं
गाथा१११
अन्वयार्थ :[भो साधो ] हे योगी, [यदि ] जो तू [द्वादशविधतपः फलं ] बारह
प्रकार तपका फल [महद्विफलं ] बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष [इच्छसि ] चाहता है, [ततः ] तो

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adhikAr-2 dohA-1114 ]paramAtmaprakAsha [ 405
जइ इच्छसि यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपःफलम् कथंभूतम् महद्विपुलं
स्वर्गापवर्गरूपं ततः कारणात् वीतरागनिजानन्दैकसुखरसास्वादानुभवेन तृप्तो भूत्वा
मनोवचनकायेषु भोजनगृद्धिं वर्जय इति तात्पर्यम्
।।१११।।
उक्तं च
२४१) जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति
ते मुणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।१११।।
ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति
ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ।।१११।।
जे इत्यादि जे सरसिं संतुट्ठमण ये केचन सरसेन सरसाहारेण संतुष्टमनसः विरसि
कसाउ वहंति विरसे विरसाहारे सति कषायं वहन्ति कुर्वन्ति े ते पूर्वोक्ताः मुणि
bhAvArthahe yogI! jo tun bAr prakAranA tapanun mahAn bhAre phaL evA svarga-mokShane
ichchhe chhe, to vItarAg nijAnand ek sukharasano AsvAdarUp anubhavathI tRupta thayo thako, man,
vachan ane kAyAthI bhojananI lolupatAno tyAg kar! e sArAnsh chhe. 111
3.
vaLI, kahyun chhe ke
bhAvArthagRuhasthono AhAradAnAdik ja param dharma chhe, samyaktva sahit tenAthI
(AhArAdikathI) ja teo paramparAe mokSha meLave chhe shA mATe gRuhasthono te ja param dharma chhe?
वीतराग निजानंद एक सुखरसका आस्वाद उसके अनुभवसे तृप्त हुआ [मनोवचनयोः ] मन,
वचन और [काये ] कायसे [भोजनगृद्धिं ] भोजनकी लोलुपता को [विवर्जयस्व ] त्याग कर
दे
यह सारांश है ।।१११।।
और भी कहा है
गाथा१११
अन्वयार्थ :[ये ] जो जोगी [सरसेन ] स्वादिष्ट आहारसे [संतुष्टमनसः ] हर्षित
होते हैं, और [विरसे ] नीरस आहारमें [कषायं ] क्रोधादि कषाय [वहंति ] करते हैं, [ते
मुनयः ] वे मुनि [भोजन गृध्राः ] भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीके समान हैं, ऐसा तू [गणय ]
समझ
वे [परमार्थं ] परमतत्त्वको [नैव मन्यंते ] नहीं समझते हैं
भावार्थ :जो कोई वीतरागके मार्गसे विमुख हुए योगी रस सहित स्वादिष्ट आहारसे
खुश होते हैं, कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्ष करें, आहारके देनेवालेसे

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-111
4
मुनयस्तपोधनाः भोयणधार गणि भोजनविषये गृध्रसद्रशान् गणय मन्यस्व जानीहि इत्थंभूताः
सन्तः णवि परमत्थु मुणंति नैव परमार्थं मन्यन्ते जानन्तीति अयमत्र भावार्थः
गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परंपरया मोक्षं लभन्ते कस्मात् स
एव परमो धर्म इति चेत्, निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रय-
लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति
शुद्धोपयोगपरमधर्मरतैस्तपोधनैस्त्वन्नपानादि-
विषये मानापमानसमतां कृत्वा यथालाभेन संतोषः कर्तव्य इति ।।१११।।
अथ शुद्धात्मोपलम्भाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयासक्त जीवानां विनाशं दर्शयति
(e kAraNe ke) nirantar viShayakaShAyane AdhIn hovAthI tevA Arta ane raudradhyAnamAn rat jIvone
nishchayaratnatrayasvarUpe shuddhopayogarUp paramadharmano to avakAsh nathI. (arthAt gRuhasthone
shubhopayoganI ja mukhyatA chhe.)
shuddhopayogarUp paramadharmamAn rat tapodhanoe to anna-pAnAdi bAbatamAn mAn-apamAnamAn
samatA dhArIne yathAlAbhathI (je maLe temAn) santoSh karI levo joIe(santoSh rAkhavo
joIe). 1114.
have, shuddhAtmAnI prAptino abhAv hotAn, pAnch indriyanA viShayamAn Asakta jIvono
vinAsh thAy chhe, em darshAve chhe
प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर रस रहित भोजन मिले तो कषाय करते हैं, उस गृहस्थको बुरा
समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी हैं
गृद्धपक्षीके समान हैं ऐसे लोलुपी यती देहमें
अनुरागी होते हैं, परमात्म - पदार्थको नहीं जानते गृहस्थोंके तो दानादिक ही बड़े धर्म हैं जो
सम्यक्त्व सहित दानादि करे, तो परम्परासे मोक्ष पावे क्योंकि श्रावकका दानादिक ही परमधर्म
है वह ऐसे हैं, कि ये गृहस्थलोग हमेशा विषय कषायके आधीन हैं, इससे इनके आर्त रौद्र ध्यान
उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही
नहीं है, अर्थात् गृहस्थोंके शुभोपयोगकी ही मुख्यता है
और शुद्धोपयोगी मुनि इनके घर आहार
लेवें, तो इसके समान अन्य क्या ? श्रावकका तो यही बड़ा धरम है, जो कि यती, अर्जिका,
श्रावक, श्राविका इन सबको विनयपूर्वक आहार दे
और यतीका यही धर्म है, अन्न जलादिमें राग
न करे, और मान-अपमानमें समताभाव रक्खे गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले
वैसा लेवे, चाहे चावल मिले, चाहे अन्य कुछ मिले जो मिले उसमें हर्ष विषाद न करे दूध,
दहीं, घी, मिष्टान्न, इनमें इच्छा न करे यही जिनमार्गमें यतीकी रीति हैं ।।१११।।
आगे शुद्धात्माकी प्राप्तिके अभावमें जो विषयी जीव पाँच इंद्रियोंके विषयोंमें आसक्त
हैं, उनका अकाज (विनाश) होता है, ऐसा दिखलाते हैं