Page 167 of 565
PDF/HTML Page 181 of 579
single page version
है
[परं ] पर पदार्थोंको [प्रकाशयति ] प्रकाशता है, सो [योगिन् ] हे योगी [अत्र ] इसमें [भ्रान्तिं
मा कुरु ] भ्रम मत कर
समूहका नाश करके यह आत्मा मुनि अवस्थामें वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर अपनेको और परको
Page 168 of 565
PDF/HTML Page 182 of 579
single page version
कारणसमयसारे स्थित्वा मोहमेघपटले विनष्टे सति परमात्मा छद्मस्थावस्थायां
वीतरागभेदभावनाज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष पश्चादर्हदवस्थारूपकार्यसमयसाररूपेण
परिणम्य केवलज्ञानेन स्वं परं च प्रकाशयतीत्येष आत्मवस्तुस्वभावः संदेहो नास्तीति
केवलज्ञानसे निज और परको सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे प्रकाशता है
आत्मनि ] मिथ्यात्व रागादि विकल्पोंसे रहित स्वच्छ आत्मामें [लोकालोकं अपि ] समस्त
लोक-अलोक भासते हैं
vaḍe sva ane parane prakāshe chhe, pachhī arhant-avasthārūp kāryasamayasārarūpe pariṇamīne
kevaḷagnānathī sva ane parane prakāshe chhe. evo ātmavastuno svabhāv chhe emān sandeh nathī.
Page 169 of 565
PDF/HTML Page 183 of 579
single page version
tātparyārtha chhe. 102.
आत्माको [योगिन् ] हे योगी [त्वं ] तू [ज्ञानबलेन ] आत्मज्ञानके बलसे [जानीहि ] जान
Page 170 of 565
PDF/HTML Page 184 of 579
single page version
समुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादेन जानीहि तन्मयो भूत्वा सम्यगनुभवेति भावार्थः
तू उस आत्माको वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानकी भावनासे उत्पन्न परमानंद सुखरसके
आस्वादसे जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर
[मम ] मेरे [प्रकाशय ] प्रकाशित करो, [अन्येन बहुना ] और बहुत विकल्प-जालोंसे [किं ]
क्या फायदा ? कुछ भी नहीं
utpanna paramānandarūp sukharasanā āsvād vaḍe tun jāṇ-tanmay thaīne samyag anubhav e bhāvārtha
chhe. 103.
Page 171 of 565
PDF/HTML Page 185 of 579
single page version
कथय किमन्येन रागादिप्रवर्धकेन विकल्पजालेनेति
तात्पर्यार्थः
ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालोंसे कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक
विभावोंके बढ़ानेवाले हैं
है
chhe te ja gnānano upadesh karo, anya rāgādivardhak vikalpajāḷathī shun prayojan chhe?
Page 172 of 565
PDF/HTML Page 186 of 579
single page version
रूपावलोकनविषये
लोक-प्रमाण [ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ] ज्ञानसे व्यवहारनयकर आकाश-प्रमाण [जानाति ] जानता
है
अलोकको जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है,
ज्ञानकर ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चयसे प्रदेशोंकर लोक-प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी
व्यवहारनयकर अपने देह-प्रमाण है, ऐसे आत्माको जो पुरुष आहार, भय, मैथुन परिग्रहरूप
चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्पकी तरंगोंको छोड़कर जानता है, वही पुरुष ज्ञानसे
अभिन्न होनेसे ज्ञान कहा जाता है
(vyavahāranayathī) vyāpak kahevāy chhe tevī rīte, vyavahāranayathī gnānanī apekṣhāe lokālok vyāpak
chhe, nishchayathī lok jeṭalo asaṅkhyāt pradeshī chhe, vyavahārathī svadehapramāṇ chhe
te puruṣh ja gnānathī abhinna hovāthī gnān kahevāy chhe.
Page 173 of 565
PDF/HTML Page 187 of 579
single page version
आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर वह जीव निर्वाणको पाता है
हैं, [तान् ] उन [त्रीणि अपि ] धर्म, अर्थ, कामरूप तीनों भावोंको [परिहृत्य ] छोड़कर
[नियमेन ] निश्चयसे [आत्मानं ] आत्माको [त्वं ] तू [विजानीहि ] जान
gnānasāmānya ja ā paramārtha chhe-) ke jene pāmīne ātmā nirvāṇane prāpta thāy chhe.] 105.
have parabhāvano niṣhedh kare chhe.
Page 174 of 565
PDF/HTML Page 188 of 579
single page version
तत्र हे प्रभाकरभट्ट त्रीण्यपि परिहृत्य
जानीहीति भावार्थः
वीतरागस्वसंवेदनस्वरूप शुद्धात्मानुरूपज्ञानमें रहकर आत्माको जान
हे प्रभाकर भट्ट तू [त्रीणि अपि मुक्तवा ] धर्म, अर्थ, काम इन तीनों ही भावोंको छोड़कर
[ज्ञानेन ] ज्ञानसे [आत्मानं ] निज आत्माको [जानीहि ] जान
shuddhātmānī anubhūtirūp gnānamān sthit thaīne ātmāne jāṇ, e bhāvārtha chhe. 106.
Page 175 of 565
PDF/HTML Page 189 of 579
single page version
कुर्वाणाअपि बहवोऽपि न लभन्ते यतः कारणात्
निःपरिग्रहो भण्यते स एवात्मानं जानातीति भावार्थः
स्वरूप परमात्माको वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानके बिना दुर्धर तपके करनेवाले भी बहुतसे
प्राणी नहीं पाते
जो महान दुर्धर तप करो तो भी नहीं मिलता
तृप्त हुआ सिद्धांतमें परिग्रह रहित कहा जाता है, और निर्ग्रंथ कहा जाता है, और वही अपने
आत्माको जानता है
vītarāg nirvikalpa svasamvedanarūp gnānaguṇ vinā durdhar anuṣhṭhān karavā chhatān paṇ ghaṇā puruṣho
pāmatā nathī. shrī samayasār (gāthā 205)mān kahyun paṇ chhe ke
to ā niyat evā āne (gnānane) grahaṇ kar.]
bhāvārtha chhe. (shrī samayasār gāthā 210mān) kahyun paṇ chhe ke
Page 176 of 565
PDF/HTML Page 190 of 579
single page version
चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा
कहाँसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है, जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं
है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका
जाननेवाला ही होता है
[जानासि ] जानता, [तावद् ] तब तक [अज्ञानेन ] अज्ञानी होनेसे [ज्ञानमयं ] ज्ञानमय [परं
ब्रह्म ] अपने स्वरूपको [किं लभसे ] क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता
ja chhe.] 107.
Page 177 of 565
PDF/HTML Page 191 of 579
single page version
स्थितं समस्तरागादिविकल्पजालं मुक्त्वा न जानासि तावत्कालं परमब्रह्मशब्दवाच्यं
निर्दोषिपरमात्मानं किं लभसे नैवेति भावार्थः
नहीं पा सकता
हैं
jāṇato nathī; tyān sudhī ‘parabrahma’ shabdathī vāchya evā nirdoṣh paramātmāne shun pāmī shake?
na pāmī shake, e bhāvārtha chhe. 108.
Page 178 of 565
PDF/HTML Page 192 of 579
single page version
ज्ञात्वा पश्चात् गम्मिज्जइ परलोइ तेनैव पूर्वोक्ते न ब्रह्मस्वरूपपरिज्ञानपुरुषेण तेनैव कारणेन वा
गम्यते
पृथग्रूपेण तिष्ठति स एव परमब्रह्मा स एव परमविष्णुः स एव परमशिवः इति, व्यक्ति रूपेण
पुनर्भगवानर्हन्नैव मुक्ति गतसिद्धात्मा वा परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वा भण्यते
जाना जाता है, [येन ] जो पुरुष जिस कारण [ब्रह्म मत्वा ] अपना स्वरूप जानकर [परलोके
लघु गम्यते ] परमात्मतत्त्वमें शीघ्र ही प्राप्त होता है
है, तब सिद्ध कहलाता है
param viṣhṇu chhe ane te ja paramashiv chhe, ane vyaktirūpe bhagavān arhant ja athavā muktigat
siddhātmā ja paramabrahmā chhe, viṣhṇu chhe, shiv chhe, tenāthī bījo koī kalpit jagadvyāpī tem
ja ek parabrahma, viṣhṇu, shiv nathī.
Page 179 of 565
PDF/HTML Page 193 of 579
single page version
कोऽपीति भावार्थः
विष्णु, शिव ये सब सिद्धपरमेष्ठीके नाम हैं
अपि परतरः ] उत्कृष्टसे भी उत्कृष्ट [ज्ञानमयः ] ज्ञानमयी [परलोकः ] परलोक [उच्यते ]
कहा जाता है
Page 180 of 565
PDF/HTML Page 194 of 579
single page version
स्वसंवेदन
chhe-jaṇāy chhe te lok chhe param lok (paramātmā) paralok chhe, ane vyavahāranayathī svargamokṣhane
paralok kahyo chhe.
Page 181 of 565
PDF/HTML Page 195 of 579
single page version
स्थिरीभवतीति
प्राप्नोति इति ज्ञात्वा सर्वरागादिविकल्पत्यागेन तत्रैव भावनां कर्तव्येति
ही [जीवस्य ] जीवकी [गतिः ] गति [नियमेन ] निश्चयनयकर [भवति ] होती है, ऐसा
जिनवरदेवने कहा है
नहीं है
जो निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परमात्मतत्त्वमें भावना करता है, तो वह मोक्ष पाता है
चाहिये
niyamathī paralok-utkr̥uṣhṭa jan-kahevāmān āve chhe. kāraṇ ke je svashuddhātmasvarūpamān jīvanī athavā
jīvonī mati hoy chhe tyān gati nishchayathī thāy chhe.
paramātmatattvamān bhāvanā kare chhe te nirvāṇ pāme chhe em jāṇīne sarva rāgādi vikalpajāḷano tyāg
karīne temān ja (paramātma-tattvamān ja) bhāvanā karavī joīe. 111.
Page 182 of 565
PDF/HTML Page 196 of 579
single page version
परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं वीतरागसदानन्दैक-
सुखामृतरसपरिणतं निजशुद्धात्मतत्त्वं मुक्त्वा मतिं चित्तं परद्रव्ये देहसंगादिषु मा कार्षीरिति
तात्पर्यार्थः
इसलिये तू [परब्रह्म ] परब्रह्मको [मुक्तवा ] छोड़कर [परद्रव्ये ] परद्रव्यमें [मतिं ] बुद्धिको
[मा कार्षीः ] मत कर
रसकर तृप्त ऐसे निज शुद्धात्मतत्त्वको छोड़कर द्रव्यकर्म- भावकर्म-नोकर्ममें या देहादि परिग्रहमें
मनको मत लगा
nijashuddhātmatattvane chhoḍīne paradravyamān
Page 183 of 565
PDF/HTML Page 197 of 579
single page version
जानीहीति
धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं ] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और पाँचवाँ कालद्रव्य
[जानीहि ] ये सब परद्रव्य जानो
हैं, उन सबको अपनेसे भिन्न जानो
chheḥ
Page 184 of 565
PDF/HTML Page 198 of 579
single page version
अपने मत मान
[अग्निकणिका ] अग्निकी कणी [काष्ठगिरिं ] काठके पहाड़को [दहति ] भस्म करती है,
उसी तरह [अशेषम् अपि पापम् ] सब ही पापोंको भस्म कर डाले
chhe. 113.
Page 185 of 565
PDF/HTML Page 199 of 579
single page version
शब्द-गौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालोंका त्यागरूप प्रचंड पवन उससे
प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्मतत्त्वके ध्यानरूप अग्निकी कणी है, जैसे
वह अग्निकी कणी काठके पर्वतको भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापोंको
भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्मके इकट्ठे किये हुए कर्मोंको आधे निमेषमें नष्ट
कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यानकी सामर्थ्य जानकर उसी ध्यानकी ही भावना सदा
करनी चाहिये
mad, shāstranī ṭīkā banāvavāno mad, shāstranun vyākhyān karavāno mad ā chār shabdagaurav
ātmatattvanā dhyānarūp agnikaṇikā, jevī rīte agninī nānī kaṇī indhananā pahāḍane bhasmibhūt
karī nākhe chhe, tevī rīte, dīrghakāḷathī sañchit karelā (anek bhavomān sañchit karelā) karmarāshine
antarmuhūrtamān bhasma karī nākhe chhe
Page 186 of 565
PDF/HTML Page 200 of 579
single page version
देवं परमाराध्यं निजशुद्धात्मानं ध्यायेति भावार्थः
परमपदमें [निवेशय ] धारण कर, और [निरंजनं देवं ] निरंजनदेवको [पश्य ] देख
कर
अपध्यान कहते हैं, जो द्वेषसे परके मारनेका बाँधनेका अथवा छेदनेका चिंतवन करे, और
ane bhāvakarma, dravyakarma, ane nokarmarūp añjan rahit param ārādhya evo dev je nij shuddhātmā
chhe tenun dhyān kar.