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सुखं ] वह सुख [भुवने अपि ] तीनलोकमें भी [अनन्तम् देवं मुक्त्वा ] परमात्म द्रव्यके
सिवाय [नैव अस्ति ] नहीं है
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शिवदर्शने परमसुखं निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमाह्लादरूपं लभसे
पुरुषः
सुखको देता है
या विष्णु नामका पुरुष देनेवाला नहीं है
traṇ bhuvanamān (kyāy paṇ) nathī.
āpe chhe; bījo koī ‘shiv’ nāmano puruṣh paramasukhane āpato nathī. 116.
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अपि ] इन्द्र भी [देवीनां कोटिं रम्यमाणः ] करोड़ देवियोंके साथ रमता हुआ [नैव ] नहीं
[लभते ] पाता
तिर्यञ्च, नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयोंका संबंध जिन्होंने
छोड़ दिया है, ऐसा साधु मुनि जगत्में सुखी हैं
vaḷī kahyun paṇ chhe ke
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वह सुख [विरागः जीवः ] वीतरागभावनाको परिणत हुआ मुनिराज [शिवं शांतं जानन् ] निज
शुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित शांत भावको जानता हुआ [लभते ] पाता है
तथा रागादि रहित शांत भावको जानता हुआ पाता है
समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं
chhe. 118.
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विकल्परुपघनानां विनाशे सति निर्मलचित्ताकाशे केवलज्ञानाद्यनन्तगुणकरकलितः
[धनरिहते निर्मले ] बादल रहित निर्मल [अंबरे ] आकाशमें [भानुः इव ] सूर्यके समान
[स्फु रन् ] भासमान (प्रकाशमान) है
अनुभूतिके शत्रु जो काम-क्रोधादि विकल्परूप मेघ हैं, उनके नाश होने पर निर्मल
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प्रकाश करता है
[बिंबं ] मुख नहीं भासता [एतत् ] यह बात हे प्रभाकर भट्ट, तू [निर्भ्रान्तम् ] संदेह रहित
[जानीहि ] जान
prakāsh kare chhe, e tātparyārtha chhe. 119.
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शक्ति रूपेण विद्यमानोऽपि निजशुद्धात्मा दिनकरो न
बीचमें शक्तिरूपसे विद्यमान निज शुद्धात्मस्वरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम-क्रोधादि राग
-द्वेष भावोंस्वरूप विकल्प-जालरूप मेघसे ढँका हुआ नहीं दिखता
अर्थात् उसके शुद्धात्माका विचार नहीं होता, ऐसा हे प्रभाकर भट्ट, तू अपने मनमें [विचारय ]
विचार कर
vidyamān hovā chhatān paṇ dekhāto nathī, e abhiprāy chhe. 120.
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खड्गौ असी
स्त्रीरूपावलोकनचिन्तादिसमुत्पन्नहावभावविभ्रमविलासविकल्पजालैर्मूर्च्छिते वासिते रञ्जिते परिणते
चित्ते त्वेकस्मिन् प्रतिहारे (?) खड्गद्वयवत्परमब्रह्मशब्दवाच्यनिजशुद्धात्मा कथमवकाशं लभते
न कथमपीति भावार्थः
स्त्रीरूपके देखनेकी अभिलाषादिसे उत्पन्न हुए हाव (सुख-विकार) भाव अर्थात् चित्तका
विकार, विभ्रम अर्थात् मुँहका टेढ़ा करना, विलास अर्थात् नेत्रोंके कटाक्ष इन स्वरूप
विकल्पजालोंकर, मूर्छित रंजित परिणाम चित्तमें ब्रह्मका (निज शुद्धात्माका) रहना कैसे
हो सकता है ? जैसे कि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? नहीं आ सकतीं
है
abhilāṣhāthī utpanna hāv, bhāv, vibhram, vilāsanā vikalpajāḷathī mūrchhit-vāsit-rañjit
-pariṇat-chittamān, ek myānamān be talavār na samāy tenī jem, ‘brahma’ shabdathī vāchya evo
nijashuddhātmā kevī rīte avakāsh meḷave? e bhāvārtha chhe. (arthāt na meḷave.)
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[यथा ] जैसे [सरोवरे ] मानस सरोवरमें [लीनः हंसः ] लीन हुआ हंस बसता है
शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान स्वाभाविक ज्ञान उससे वीतराग परमसुखरूप अमृतरस उस
स्वरूप निर्मल नीरसे भरे हुए ज्ञानियोंके मानससरोवरमें परमात्मादेवरूपी हंस निरंतर रहता है
nijashuddhātmadravyanī samyakshraddhāthī sahaj utpanna vītarāg paramasukhasudhārasasvarūp nirmaḷ
nīrathī pūrṇa, vītarāg svasamvedanajanit mānasasarovaramān paramātmā līn rahe chhe. te paramātmā
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निजशुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानसहजसमुत्पन्नवीतरागपरमसुखसुधारसस्वरूपेण निर्मलनीरेण पूर्णे
वीतरागस्वसंवेदनजनितमानससरोवरे परमात्मा लीनस्तिष्ठति
चित्रामकी मूर्तिमें भी नहीं है
आ गया
[समचित्ते संस्थितः ] समभावमें तिष्ठ रहा है, अर्थात् समभावको परिणत हुए साधुओंके मनमें
mānasarovar chhe tem brahmanun nivāsasthān nirmaḷ chitta chhe, evo shrī bhagavān yogīndradevano
abhiprāy chhe. 122.
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चित्ति नैव चित्रप्रतिमायाम्
सुखदुःखजीवितमरणादिसमतारूपे वीतरागसहजानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभूति-
रूपाभेदरत्नत्रयात्मकसमचित्ते शिवशब्दवाच्यः परमात्मा तिष्ठतीति भावार्थः
-दुःख जीवित-मरण जिसके समान हैं, तथा वीतराग सहजानंदस्वरूप परमात्मतत्त्वके सम्यक्
श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमें लीन ऐसे ज्ञानियोंके सम चित्तमें परमात्मा तिष्ठता है
समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन-मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभावका
ādimān samatārūp chhe ane je vītarāg sahajānand ja jenun ek rūp chhe evā paramātmatattvanān
samyakshraddhān, samyaggnān, samyaganubhūtirūp abhed ratnatrayātmak samachittamān ‘shiv’ shabdathī
vāchya evo paramātmā rahe chhe. samachittamān pariṇat shramaṇanun svarūp (shrī pravachanasāranā trījā
adhikāranī 241 gāthāmān) kahyun chhe ke
ane maraṇ pratye jene samatā chhe, te shramaṇ chhe.) 123.
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[कस्य ] किसकी अब मैं [पूजां समारोपयामि ] पूजा करूँ
(chūlikā nām antanun chhe, te pahelā sthaḷano ant ahīn sudhī thayo.)
have, sthaḷasaṅkhyāthī bāhya evā be prakṣhepako kahe chheḥ
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निर्विकल्पसमाधिरतानां तत्काले बहिरङ्गव्यापाराभावात् स्वयमेव नास्तीति
अभिषेक, दान आदिका व्यवहार है, तो भी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लीन हुए योगीश्वरोंको
उस समयमें बाह्य व्यापारका अभाव होनेसे स्वयं ही द्रव्य-पूजाका प्रसंग नहीं आता, भाव-
पूजामें ही तन्मय हैं
ये ही [मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण हैं, [अन्यः ] दूसरा कोई भी [तन्त्रं न ] तंत्र नहीं हैं,
[मन्त्रः न ] और न मंत्र है
nathī. 123*2.
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लभते नान्यो मन्त्रतन्त्रादिबलिष्ठोऽपीति भावार्थः
शुद्धात्मद्रव्यमें स्थापन करता है, वही मोक्षको पाता है, दूसरा कोई मंत्र-तंत्रादि चतुर होने पर
भी मोक्ष नहीं पाता
vāḷīne) nijashuddhātmadravyamān sthāpe chhe te ja mokṣha pāme chhe. bījo mantra, tantra ādimān baliṣhṭha
hovā chhatān paṇ mokṣha pāmato nathī. 123*3.
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[आख्याहि ] कृपाकर कहो [येन ] जिससे कि मैं [परमार्थं ] परमार्थको [जानामि ] जानूँ
karavāmān āve chheḥ
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जिनेश्वरदेवके कहे प्रमाण [त्वं ] तू [निशृणु ] निश्चयकर सुन, [येन ] जिससे कि [भेदम् ]
भेद [विजानासि ] अच्छीतरह जान जावे
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वियाणहि भेउ विजानासि भेदं त्रयाणां सम्बन्धिनमिति
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च क्रमेण प्रतिपादयाम्यहं त्वं शृण्विति
व्यवहाररत्नत्रयरूप मोक्षका मार्ग, इन तीनोंको क्रमसे जिनआज्ञाप्रमाण तुझको कहूँगा
[ज्ञानिनः ] ज्ञानी पुरुष [प्रभणंति ] कहते हैं, [येन ] क्योंकि [अन्येन ] अन्य धर्म, अर्थ,
कामादि पदार्थोंमें [सौख्यम् ] परमसुख [न ] नहीं है
bhedābhedaratnatrayātmak mokṣhamārgane kramapūrvak (jin-āgnā pramāṇe) tane kahun chhun, tene tun (barābar)
sāmbhaḷ. 2.
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पभणहिं उत्तमं विशिष्टं प्रभणन्ति
वस्तुरूप भोग जानना
आकुलताके उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा वीतराग, परमानन्दसुखरूप अमृतरसके आस्वादसे
विपरीत हैं, इसलिये सुखके करनेवाले नहीं हैं, ऐसा जानना
māḷā ādino bhog samajavo. ā traṇ karatān mokṣha uttam chhe, em vītarāg nirvikalpa
svasamvedanavāḷā gnānīo kahe chhe. kāraṇ ke ākuḷatānā utpādak, vītarāg-paramānandarūp
sukhāmr̥utarasanā āsvādathī viparīt ane mokṣhathī anya evā dharma, artha ane kāmathī sukh thatun
nathī. 3.
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जिनाः कर्तारः वच्चहिं व्रजन्ति गच्छन्ति
श्रीजिनवरदेव [त्रीण्यपि ] धर्म, अर्थ, काम इन तीनोंको [परिहृत्य ] छोड़कर [परलोके ]
मोक्षमें [किं ] क्यों [व्रजंति ] जाते ? इसलिये जाते हैं कि मोक्ष सबसे उत्कृष्ट है
अनुभव वह परलोक कहा जाता है, अथवा परमात्माको परमशिव कहते हैं, उसका जो
अवलोकन वह शिवलोक है, अथवा परमात्माका ही नाम परमब्रह्म है, उसका लोक वह
paramātmānun lokan-avalokan-vītarāgaparamānandarūp samarasībhāvanun anubhavan te lok chhe. e
pramāṇe ‘paralok’ shabdano artha chhe. athavā ‘par’ shabdathī pūrvokta lakṣhaṇavāḷo paramātmā samajavo.
te brahmalok chhe. athavā ‘paramaviṣhṇu’ shabdathī vāchya evo muktātmā viṣhṇu samajavo, teno lok
te viṣhṇulok chhe. e pramāṇe ‘paralok’ shabdathī mokṣha kahyo chhe.
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शब्दस्यार्थः
है, ये सब मोक्षके नाम हैं, यानी जितने परमात्माके नाम हैं, उनके आगे लोक लगानेसे मोक्षके
नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिवलोक, ब्रह्मलोक या विष्णुलोक नहीं है
योग्य है, अन्य कोई नहीं
shabdano artha na samajavo.)
have, te ja mokṣha sukhano denār chhe em draṣhṭānta dvārā draḍh kare chheḥ