Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (simplified iso15919 transliteration). Gatha: 6-10 (Adhikar 2),11 (Adhikar 2) Mokshanu Phala,12 (Adhikar 2) Mokshmarganu Vyakhyan,13 (Adhikar 2),14 (Adhikar 2),15 (Adhikar 2).

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उत्तमु इत्यादि उत्तमु उत्तमं सुक्खु सुखं ण देइ जइ न ददाति यदि चेत् उत्तमु
मुक्खु ण होइ उत्तमो मोक्षो न भवति तो तस्मात्कारणात् किं किमर्थं इच्छहिँ इच्छन्ति
बंधणहिँ बन्धनैः बद्धा निबद्धाः
पसुय वि पशवोऽपि किमिच्छन्ति सोइ तमेव मोक्षमिति
अयमत्र भावार्थः येन कारणेन सुखकारणत्वाद्धेतोः बन्धनबद्धाः पशवोऽपि मोक्षमिच्छन्ति तेन
कारणेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाविनाभूतस्योपादेयरूपस्यानन्तसुखस्य कारणत्वादिति ज्ञानिनो
विशेषेण मोक्षमिच्छन्ति
।।५।।
अथ यदि तस्य मोक्षस्याधिकगुणगणो न भवति तर्हि लोको निजमस्तकस्योपरि तं
किमर्थं धरतीति निरूपयति
१३२) अणु जइ जगहँ वि अहिययरु गुण-गणु तासु ण होइ
तो तइलोउ वि किं धरइ णिय-सिर-उप्परि सोइ ।।६।।
न देवे तो [उत्तमः ] उत्तम [न भवति ] नहीं होवे और जो मोक्ष उत्तम ही न होवे [ततः ]
तो [बंधनैः बद्धाः ] बंधनोंसे बंधे [पशवोऽपि ] पशु भी [तमेव ] उस मोक्ष की ही [किं
इच्छंति ] क्यों इच्छा करें ?
भावार्थ :बँधने के समान कोई दुःख नहीं है, और छूटने के समान कोई सुख नहीं
है, बंधनसे बँधे जानवर भी छूटना चाहते हैं, और जब वे छूटते हैं, तब सुखी होते हैं इस
सामान्य बंधनके अभावसे ही पशु सुखी होते हैं, तो कर्मबंधनके अभावसे ज्ञानीजन परमसुखी
होवें, इसमें अचम्भा क्या है इसलिये केवलज्ञानादि अनंत गुणसे तन्मयी अनन्त सुखका कारण
मोक्ष ही आदरने योग्य है, इस कारण ज्ञानी पुरुष विशेषतासे मोक्षको ही इच्छते हैं ।।५।।
आगे बतलाते हैंजो मोक्षमें अधिक गुणोंका समूह नहीं होता, तो मोक्षको तीन लोक
अपने मस्तक पर क्यों रखता ?
bhāvārthamokṣha te sukhanun kāraṇ chhe evā hetuthī bandhanathī bandhāyel pashuo paṇ mokṣhane
(chhūṭakārāne) ichchhe chhe, tethī (em samajāy chhe ke) mokṣha kevaḷagnānādi anantaguṇonī sāthe
avinābhāvī evā, upādeyarūp anantasukhanun kāraṇ chhe; māṭe gnānīo visheṣhapaṇe mokṣhane ichchhe
chhe. 5.
have, te mokṣhamān adhik guṇono samūh na hot to traṇ lok tene potānā mastak upar
shā māṭe rākhe, em kahe chheḥ
adhikār-2ḥ dohā-6 ]paramātmaprakāshaḥ [ 207

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अन्यद् यदि जगतोऽपि अधिकतरः गुणगणः तस्य न भवति
ततः त्रिलोकऽपि किं धरति निजशिर उपरि तमेव ।।६।।
अणु इत्यादि अणु पुनः जइ यदि चेत् जगहँ वि जगतोऽपि सकाशात् अहिययरु
अतिशयेनाधिकः अधिकतरः कोऽसौ गुण-गुणु गुणगणः तासु तस्य मोक्षस्य ण होइ
भवति तो ततः कारणात् तइलोउ वि त्रिलोकोऽपि कर्ता किं धरइ किमर्थं धरति
कस्मिन् णिय-सिर-उप्परि निजशिरसि उपरि किं धरइ किं धरति सोइ तमेव मोक्षमिति
तद्यथा यदि तस्य मोक्षस्य पूर्वोक्त : सम्यक्त्वादिगुणगणो न भवति तर्हि लोकः कर्ता
निजमस्तकस्योपरि तत्किं धरतीति अत्रानेन गुणगणस्थापनेन किं कृतं भवति, बुद्धिसुख-
गाथा
अन्वयार्थ :[अन्यद् ] फि र [यदि ] जो [जगतः अपि ] सब लोकसे भी
[अधिकतरः ] बहुत ज्यादः [गुणगणः ] गुणोंका समूह [तस्य ] उस मोक्षमें [न भवति ] नहीं
होता, [ततः ] तो [त्रिलोकः अपि ] तीनों ही लोक [निजशिरसि ] अपने मस्तकके [उपरि ]
ऊ पर [तमेव ] उसी मोक्षको [किं धरति ] क्यों रखते ?
भावार्थ :मोक्ष लोकके शिखर (अग्रभाग) पर है, सो सब लोकोंसे मोक्षमें बहुत
ज्यादा गुण हैं, इसीलिये उसको लोक अपने सिर पर रखता है कोई किसीको अपने सिरपर
रखता है, वह अपनेसे अधिक गुणवाला जानकर ही रखता है यदि क्षायिकसम्यक्त्व
केवलदर्शनादि अनंत गुण मोक्षमें न होते, तो मोक्ष सबके सिर पर न होता, मोक्षके ऊ पर अन्य
कोई स्थान नहीं हैं, सबके ऊ पर मोक्ष ही है, और मोक्षके आगे अनंत अलोक है, वह शून्य
है, वहाँ कोई स्थान नहीं है
वह अनंत अलोक भी सिद्धोंके ज्ञानमें भास रहा है यहाँ पर
मोक्षमें अनंत गुणोंके स्थापन करनेसे मिथ्यादृष्टियोंका खंडन किया कोई मिथ्यादृष्टि
वैशेषिकादि ऐसा कहते हैं, कि जो बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार
bhāvārthajo te mokṣhamān pūrvokta samyaktvādi guṇo na hot to lok tene potānā
mastak upar shā māṭe rākhe?
ahīn, ā guṇagaṇanī sthāpanāthī shun karavāmān āvyun chhe? (ahīn, mokṣhamān anant guṇonun
sthāpan karavāthī mithyādraṣhṭionun khaṇḍan karavāmān āvyun chhe te shī rīte) te kahe chheḥ
(1)buddhi, sukh, duḥkh, ichchhā, dveṣh, prayatna, dharma, adharma, sanskār nāmanā nav guṇonā
abhāvane mokṣha vaisheṣhiko māne chhe; teno niṣhedh karyo chhe.
208 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-6

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दुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराभिधानानां नवानां गुणानामभावं मोक्षं मन्यन्ते ये
वृद्धवैशेषिकास्ते निषिद्धाः
ये च प्रदीपनिर्वाणवज्जीवाभावं मोक्षं मन्यते सोगतास्ते च निरस्ताः
यच्चोक्त सांख्यैः सुप्तावस्थावत् सुखज्ञानरहितो मोक्षस्तदपि निरस्तम् लोकाग्रे तिष्ठतीति वचनेन
तु मण्डिकसंज्ञा नैयायिकमतान्तर्गता यत्रैव मुक्त स्तत्रैव तिष्ठतीति वदन्ति तेऽपि निरस्ता इति
जैनमते पुनरिन्द्रियजनितज्ञानसुखस्याभावे न चातीन्द्रियज्ञानसुखस्येति कर्मजनितेन्द्रियादिदश-
इन नव गुणोंके अभावरूप मोक्ष है, उनका निषेध किया, क्योंकि इंद्रियजनित बुद्धिका तो
अभाव है, परंतु केवल बुद्धि अर्थात् केवलज्ञानका अभाव नहीं है, इंद्रियोंसे उत्पन्न सुखका
अभाव है, लेकिन अतीन्द्रिय सुखकी पूर्णता है, दुःख, इच्छा, द्वेष, यत्न इन विभावरूप गुणोंका
तो अभाव ही है, केवलरूप परिणमन है, व्यवहार
धर्मका अभाव ही है, और वस्तुका
स्वभावरूप धर्म वह ही है, अधर्मका तो अभाव ठीक ही है, और परद्रव्यरूपसंस्कार सर्वथा
नहीं है, स्वभावसंस्कार ही है जो मूढ़ इन गुणोंका अभाव मानते हैं, वे वृथा बकते हैं, मोक्ष
तो अनंत गुणरूप है इस तरह निर्गुणवादियोंका निषेध किया तथा बौद्धमती जीवके
अभावको मोक्ष कहते हैं वे मोक्ष ऐसा मानते हैं कि जैसे दीपकका निर्वाण (बुझना) उसी
तरह जीवका अभाव वही मोक्ष है ऐसी बौद्धकी श्रद्धाका भी तिरस्कार किया क्योंकि जो
जीवका ही अभाव हो गया, तो मोक्ष किसको हुआ ? जीवका शुद्ध होना वह मोक्ष है, अभाव
कहना वृथा है
सांख्यदर्शनवाले ऐसा कहते हैं कि जो एकदम सोनेकी अवस्था है, वही मोक्ष
है, जिस जगह न सुख है, न ज्ञान है, ऐसी प्रतीतिका निवारण किया नैयायिक ऐसा कहते
हैं कि जहाँसे मुक्त हुआ वहीं पर ही तिष्ठता है, ऊ परको गमन नहीं करता ऐसे नैयायिकके
कथनका लोकशिखर पर तिष्ठता है, इस वचनसे निषेध किया जहाँ बंधनसे छूटता है, वहाँ
वह नहीं रहता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है, जैसे कैदी कैदसे जब छूटता है, तब बंदीगृहसे
छूटकर अपने घरकी तरफ गमन करता है, वह निजघर निर्वाण ही है
जैनमार्गमें तो
(2)jem dīvānun bujhāvun te nirvāṇ chhe tem jīvano abhāv te mokṣha chhe tem bauddho māne
chhe, tenun khaṇḍan karavāmān āvyun chhe.
(3)sāṅkhyadarshanavāḷā em kahe chhe ke supta-avasthānī samān sukh gnānathī rahit te mokṣha
chhe, tenun paṇ khaṇḍan karyun chhe.
(4)‘lokāgre rahe chhe’ e vachan vaḍe ‘jīv jyān mukta thāy chhe tyān ja rahe chhe’ em maṇḍik
nāmanā naiyāyiko kahe chhe, temanun paṇ khaṇḍan thayun.
vaḷī, jainamatamān to (mokṣhamān) indriyajanit gnān ane sukhano abhāv thatān kāī
atīndriyagnān ane atīndriyasukhano abhāv thato nathī, ane karmajanit indriyādi dash prāṇ-
adhikār-2ḥ dohā-6 ]paramātmaprakāshaḥ [ 209

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प्राणसहितस्याशुद्धजीवस्याभावेन न पुनः शुद्धजीवस्येति भावार्थः ।।६।।
अथोत्तमं सुखं न ददाति यदि मोक्षस्तर्हि सिद्धाः कथं निरन्तरं सेवन्ते तमिति
कथयति
१३३) उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ
तो किं सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहिँ सोइ ।।७।।
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमः मोक्षो न भवति
ततः किं सकलमपि कालं जीव सिद्धा अपि सेवन्ते तमेव ।।७।।
इंद्रियजनितज्ञान जो कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय हैं, उनका अभाव माना है, और
अतीन्द्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तुका स्वभाव है, उसका अभाव आत्मामें नहीं हो
सकता
स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन पाँच इंद्रिय विषयोंकर उत्पन्न हुए सुखका तो अभाव
ही है, लेकिन अतीन्द्रिय सुख जो निराकुल परमानंद है, उसका अभाव नहीं है, कर्मजनित जो
इंद्रियादि दस प्राण अर्थात् पाँच इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस
प्राणोंका भी अभाव है, ज्ञानादि निज प्राणोंका अभाव नहीं है
जीवकी अशुद्धताका अभाव
है, शुद्धपनेका अभाव नहीं, यह निश्चयसे जानना ।।६।।
आगे कहते हैं कि जो मोक्ष उत्तम सुख नहीं दे, तो सिद्ध उसे निरंतर क्यों सेवन
करें ?
गाथा
अन्वयार्थ :[यदि ] जो [उत्तमं सुखं ] उत्तम अविनाशी सुखको [न ददाति ] नहीं
देवे, तो [मोक्षः उत्तमः ] मोक्ष उत्तम भी [न भवति ] नहीं हो सकता, उत्तम सुख देता है,
इसीलिये मोक्ष सबसे उत्तम है
जो मोक्षमें परमानंद नहीं होता [ततः ] तो [जीव ] हे जीव,
[सिद्धा अपि ] सिद्धपरमेष्ठी भी [सकलमपि कालं ] सदा काल [तमेव ] उसी मोक्षको [किं
सेवंते ] क्यों सेवन करते ? कभी भी न सेवते
sahit ashuddha jīvano abhāv thatān, kāī shuddha jīvano abhāv thato nathī; evo bhāvārtha
chhe. 6.
have, jo mokṣha uttam sukhane na āpato hoy to siddho temanun shā māṭe nirantar sevan
kare, em kahe chheḥ
210 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-7

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उत्तमु इत्यादि उत्तमु सुक्खु उत्तमं सुखं ण देइ न ददाति जइ यदि चेत् उत्तमु
उत्तमो मुक्खु मोक्षः ण होइ न भवति तो ततः कारणात्, किं किमर्थं, सयलु वि कालु
सकलमपि कालम् जिय हे जीव सिद्ध वि सिद्धा अपि सेवहिं सेवन्ते सोइ तमेव मोक्षमिति
तथाहि यद्यतीन्द्रियपरमाह्लादरूपमविनश्वरं सुखं न ददाति मोक्षस्तर्हि कथमुत्तमो भवति
उत्तमत्वाभावे च केवलज्ञानादिगुणसहिताः सिद्धा भगवन्तः किमर्थं निरन्तरं सेवन्ते च चेत्
तस्मादेव ज्ञायते तत्सुखमुत्तमं ददातीति उक्तं च सिद्धसुखम्‘‘आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशय-
वद्वीतबाधं विशालं, वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम् अन्यद्रव्यानपेक्षं निरूपम-
ममितं शाश्वतं सर्वकालमुत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ।।’’ अत्रेदमेव
भावार्थ :वह मोक्ष अखंड सुख देता है, इसीलिये उसे सिद्ध महाराज सेवते हैं, मोक्ष
परम आह्लादरूप है, अविनश्वर है, मन और इंद्रियोंसे रहित है, इसीलिये उसे सदाकाल सिद्ध
सेवते हैं, केवलज्ञानादि गुण सहित सिद्धभगवान् निरंतर निर्वाणमें ही निवास करते हैं, ऐसा
निश्चित है
सिद्धोंका सुख दूसरी जगह भी ऐसा कहा है ‘‘आत्मोपादान’’ इत्यादि इसका
अभिप्राय यह है कि इस अध्यात्मज्ञानके सिद्धोंके जो परमसुख हुआ है, वह कैसा है कि
अपनी अपनी जो उपादानशक्ति उसीसे उत्पन्न हुआ है, परकी सहायतासे नहीं है, स्वयं (आप
ही) अतिशयरूप है, सब बाधाओंसे रहित है, निराबाध है, विस्तीर्ण है, घटतीबढ़तीसे रहित
है, विषयविकारसे रहित है, भेदभावसे रहित है, निर्द्वन्द्व है, जहाँ पर वस्तुकी अपेक्षा ही नहीं
है, अनुपम है, अनंत है, अपार है, जिसका प्रमाण नहीं सदा काल शाश्वत है, महा उत्कृष्ट
है, अनंत सारता लिये हुए है
ऐसा परमसुख सिद्धोंके है, अन्यके नहीं है यहाँ तात्पर्य यह
bhāvārthajo mokṣha atīndriy param āhlādarūp, avināshī sukhane na āpe to te
kevī rīte uttam hoy? ane uttamapaṇānā abhāvamān kevaḷagnānādi guṇasahit siddha bhagavanto shā
māṭe mokṣhane nirantar seve? (paṇ siddha bhagavanto nirantar mokṣhane seve chhe) tethī jaṇāy chhe ke
te (mokṣha) uttam sukhane āpe chhe. siddhanā sukhanun svarūp (shrī pūjyapādakr̥ut siddhabhakti gāthā
7mān) paṇ kahyun chhe keḥ
‘‘आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं,
वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम्
अन्यद्रव्यानपेक्षं निरूपमममितं शाश्वतं सर्वकाल-
मुत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम्
।।’’
[arthaḥātmānā upādānathī pragaṭelun (potānā ātmāmān ja utpanna thayel), svayam
adhikār-2ḥ dohā-7 ]paramātmaprakāshaḥ [ 211

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निरन्तरमभिलषणीयमिति भावार्थः ।।७।।
अथ सर्वेषां परमपुरुषाणां मोक्ष एव ध्येय इति प्रतिपादयति
१३४) हरि-हर-बंभु वि जिणवर वि मुणि-वर-विंद वि भव्व
परम-णिरंजणि मणु धरिवि मुक्खु जि झायहिँ सव्व ।।८।।
हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः
परमनिरञ्जने मनः धृत्वा मोक्षं एव ध्यायन्ति सर्वे ।।८।।
हरिहर इत्यादि हरि-हर-बंभु वि हरिहरब्रह्माणोऽपि जिणवर वि जिनवरा अपि मुणि-
वर-विंद वि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्व शेषभव्या अपि एते सर्वे किं कुर्वन्ति परम-णिरंजणि
है कि हमेशा मोक्षका ही सुख अभिलाषा करने योग्य है, और संसारपर्याय सब हेय है ।।७।।
आगे सभी महान पुरुषोंके मोक्ष ही ध्यावने योग्य है ऐसा कहते हैं
गाथा
अन्वयार्थ :[हरिहरब्रह्माणोऽपि ] नारायण वा इन्द्र, रुद्र अन्य ज्ञानी पुरुष
[जिनवरा अपि ] श्रीतीर्थंकर परमदेव [मुनिवरवृंदान्यपि ] मुनीश्वरोंके समूह तथा [भव्याः ]
अन्य भी भव्य जीव [परमनिरंजने ] परम निरंजनमें [मनः धृत्वा ] मन रखकर [सर्वे ] सब
ही [मोक्षं ] मोक्षको [एव ] ही [ध्यायंति ] ध्यावते हैं
यह मन विषयकषायोंमें जो जाता है,
उसको पीछे लौटाकर अपने स्वरूपमें स्थिर अर्थात् निर्वाणका साधनेवाला करते हैं
भावार्थ :श्री तीर्थंकरदेव तथा चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव महादेव
इत्यादि सब प्रसिद्ध पुरुष अपने शुद्ध ज्ञान, अखंड स्वभाव जो निज आत्मद्रव्य उसका सम्यक्
atishayavāḷun, bādhārahit, vishāḷ, vr̥uddhi-hāni rahit, viṣhayothī rahit, nirdvandva (dvandvabhāvathī
rahit), anya dravyanī apekṣhā vagaranun, nirupam, amit, shāshvat, sadākāḷ, utkr̥uṣhṭa ane anant
sāravāḷun evun paramasukh have siddhabhagavānane utpanna thayun.]
ahīn, ānī ja (mokṣhanī ja) nirantar abhilāṣhā karavā yogya chhe evo bhāvārtha chhe. 7.
have, sarva paramapuruṣhoe mokṣha ja dhyāvavā yogya chhe, em kahe chheḥ
bhāvārthahari, har ādi badhāy prasiddha puruṣho khyāti, pūjā, lābh ādi samasta
vikalpa jāḷathī shūnya evā, shuddha, buddha ek svabhāvavāḷā nijaātmadravyanān samyakshraddhān,
212 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-8

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परमनिरञ्जनाभिधाने निजपरमात्मस्वरूपे मणु मनः धरिवि विषयकषायेषु गच्छत् सद्
व्यावृत्त्य धृत्वा पश्चात् मुक्खु जि मोक्षमेव झायहिं ध्यायन्ति सव्व सर्वेऽपि इति तद्यथा
हरिहरादयः सर्वेऽपि प्रसिद्धपुरुषाः ख्यातिपूजालाभादिसमस्तविकल्पजालेन शून्ये, शुद्धबुद्धैक-
स्वभावनिजात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतराग-
सहजानन्दैकसुखरसानुभवेन पूर्णकलशवत् भरितावस्थे निरञ्जनशब्दाभिधेयपरमात्मध्याने स्थित्वा
मोक्षमेव ध्यायन्ति
अयमत्र भावार्थः यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां वीतराग-
सर्वज्ञस्वरूपं तत्प्रतिबिम्बानि तन्मन्त्राक्षराणि तदाराधकपुरुषाश्च ध्येया भवन्ति तथापि वीतराग-
निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिकाले निजशुद्धात्मैव ध्येय इति
।।८।।
अथ भुवनत्रयेऽपि मोक्षं मुक्त्वा अन्यत्परमसुखकारणं नास्तीति निश्चिनोति
श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो अभेदरत्नत्रयमय समाधिकर उत्पन्न वीतराग सहजानंद
अतीन्द्रियसुखरस उसके अनुभवसे पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए निरंतर निराकार निजस्वरूप
परमात्माके ध्यानमें स्थिर होकर मुक्त होते हैं
कैसा वह ध्यान है, कि ख्याति (प्रसिद्धि) पूजा
(अपनी महिमा) और धनादिकका लाभ इत्यादि समस्त विकल्पजालोंसे रहित है यहाँ
केवल आत्मध्यान ही को मोक्षमार्ग बतलाया है, और अपना स्वरूप ही ध्यावने योग्य है
तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारनयकर प्रथम अवस्थामें वीतरागसर्वज्ञका स्वरूप अथवा
वीतरागके नाममंत्रके अक्षर अथवा वीतरागके सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग
निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधिके समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य
कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्थामें ध्यावने योग्य नहीं है
।।८।।
अब तीन लोकमें मोक्षके सिवाय अन्य कोई भी परमसुखका कारण नहीं है, ऐसा
निश्चय करते हैं
samyaggnān ane samyagchāritrarūp abhed ratnatrayātmak nirvikalpa samādhithī utpanna mātra
vītarāg sahajānandarūp sukharasanā anubhavathī pūrṇakalashanī jem paripūrṇa evā nirañjan shabdathī
kahevā yogya paramātmānā dhyānamān sthit thaīne ek mokṣhane ja dhyāve chhe.
ahīn, ā bhāvārtha chhe ke jo ke vyavahāranayathī savikalpa avasthāmān vītarāg sarvagnanun
svarūp, vītarāganī pratimā, tenā mantrākṣharo ane tenā ārādhak puruṣho dhyāvavā yogya chhe to paṇ
vītarāg nirvikalpa trigupti vaḍe gupta paramasamādhikāḷamān shuddha ātmā ja dhyāvavā yogya chhe. 8.
have, traṇ lokamān mokṣha sivāy bījun koī paṇ (bījī koī paṇ vastu) paramasukhanun
kāraṇ nathī, em nakkī kare chheḥ
adhikār-2ḥ dohā-8 ]paramātmaprakāshaḥ [ 213

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१३५) तिहुयणि जीवहँ जत्थि णवि सोक्खहँ कारणु कोइ
मुक्सु मुएविणु एक्कु पर तेणवि चिंतहि सोइ ।।९।।
त्रिभुवने जीवानां अस्ति नैव सुखस्य कारणं किमपि
मोक्षं मुक्त्वा एकं परं तेनैव चिन्तय तमेव ।।९।।
तिहुयणि इत्यादि तिहुयणि त्रिभुवने जीवहं जीवानां जत्थि णवि अस्ति नैव किं
नास्ति सोक्खहं कारणु सुखस्य कारणम् कोइ किमपि वस्तु किं कृत्वा मुक्सु मुएविणु
एक्कु मोक्षं मुक्त्वेकं पर नियमेन तेणवि तेनैव कारणेन चिंतहि चिंतय सोइ तमेव मोक्षमिति
तथाहि त्रिभुवनेऽपि मोक्षं मुक्त्वा निरन्तरातिशयसुखकारणमन्यत्पञ्चेन्द्रियविषयानुभवरूपं
किमपि नास्ति तेन कारणेन हे प्रभाकरभट्ट वीतरागनिर्विकल्पपरमसामायिके स्थित्वा
गाथा
अन्वयार्थ :[त्रिभुवने ] तीन लोकमें [जीवानां ] जीवोंको [मोक्षं मुक्त्वा ] मोक्षके
सिवाय [किमपि ] कोई भी वस्तु [सुखस्य कारणं ] सुखका कारण [नैव ] नहीं [अस्ति ] है,
एक सुखका कारण मोक्ष ही है [तेन ] इस कारण तू [परं एकं तम् एव ] नियमसे एक
मोक्षका ही [विचिंतय ] चिंतवन कर जिसे कि महामुनि भी चिंतवन करते हैं
भावार्थ :श्रीयोगींद्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं कि वत्स; मोक्षके सिवाय अन्य
सुखका कारण नहीं है, और आत्मध्यानके सिवाय अन्य मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये तू
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर निज शुद्धात्म स्वभावको ही ध्या यह श्रीगुरुने आज्ञा की
तब प्रभाकरभट्टने बिनती की, हे भगवन्; तुमने निरंतर अतींद्रीय मोक्षसुखका वर्णन किया है,
सो ये जगतके प्राणी अतींद्रिय सुखको जानते ही नहीं हैं, इंद्रिय सुखको ही सुख मानते हैं
तब गुरुने कहा कि हे प्रभाकरभट्ट; कोई एक पुरुष जिसका चित्त व्याकुलता रहित है, पंचेन्द्रियके
bhāvārthashrī yogīndrāchārya prabhākar bhaṭṭane kahe chhe ke he shiṣhya! traṇ lokamān paṇ
mokṣha sivāy pañchendriyanā viṣhayanā anubhavarūp bījun koī paṇ nirantar atishay sukhanun kāraṇ
nathī, tethī he prabhākarabhaṭṭa! tun vītarāg nirvikalpa param sāmāyikamān sthit thaīne nij
shuddhātmasvabhāvane dhyāv.
ahīn, prabhākarabhaṭṭa pūchhe chhe ke he bhagavān! āp atīndriy mokṣhasukhanun nirantar varṇan
karo chho, parantu te sukhane jagatanā jīvo jāṇatā nathī. (to te sukhanī anya jīvone pratīti
shī rīte thāy?)
214 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-9

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निजशुद्धात्मस्वभावं ध्याय त्वमिति अत्राह प्रभाकरभट्टः हे भगवन्नतींन्द्रियमोक्षसुखं निरन्तरं
वर्ण्यते भवद्भिस्तच्च न ज्ञायते जनैः भगवानाह हे प्रभाकरभट्ट कोऽपि पुरुषो निर्व्याकुलचित्तः
प्रस्तावे पञ्चेन्द्रियभोगसेवारहितस्तिष्ठति स केनापि देवदत्तेन पृष्टः सुखेन स्थितो भवान् तेनोक्तं
सुखमस्तीति तत्सुखमात्मोत्थम् कस्मादिति चेत् तत्काले स्त्रीसेवादिस्पर्शविषयो नास्ति
भोजनादिजिह्वेन्द्रियविषयो नास्ति विशिष्टरूपगन्धमाल्यादिघ्राणेन्द्रियविषयो नास्ति दिव्यस्त्री-
रूपावलोकनादिलोचनविषयो नास्ति श्रवणरमणीयगीतवाद्यादिशब्दविषयोऽपि नास्तीति तस्मात्
ज्ञायते तत्सुखमात्मोत्थमिति
किं च एकदेशविषयव्यापाररहितानां तदेकदेशेनात्मोत्थसुख-
मुपलभ्यते वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानरतानां पुनर्निरवशेषपञ्चेन्द्रियविषयमानसविकल्पजाल-
निरोधे सति विशेषेणोपलभ्यते
इदं तावत् स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्यं सिद्धात्मनां च सुखं
पुनरनुमानगम्यम् तथाहि मुक्तात्मनां शरीरेन्द्रियविषयव्यापाराभावेऽपि सुखमस्तीति साध्यम्
कस्माद्धेतोः इदानीं पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां पञ्चेन्द्रियविषय-
भोगोंसे रहित अकेला स्थित है, उस समय किसी पुरुषने पूछा कि तुम सुखी हो तब उसने
कहा कि सुखसे तिष्ट रहे हैं, उस समय पर विषयसेवनादि सुख तो है ही नहीं, उसने यह
क्यों कहा कि हम सुखी हैं इसलिए यह मालूम होता है, सुख नाम व्याकुलता रहितका है,
सुखका मूल निर्व्याकुलपना है, वह निर्व्याकुल अवस्था आत्मामें ही है, विषयसेवनमें नहीं
भोजनादि जिह्वा इंद्रियका विषय भी उस समय नहीं है, स्त्रीसेवनादि स्पर्शका विषय नहीं है,
और गंधमाल्यादिक नाकका विषय भी नहीं है, दिव्य स्त्रियोंका रूप अवलोकनादि नेत्रका विषय
भी नहीं, और कानोंका मनोज्ञ गीत वादित्रादि शब्द विषय भी नहीं हैं, इसलिये जानते हैं कि
सुख आत्मामें ही है
ऐसा तू निश्चय कर, जो एकादेश विषयव्यापारसे रहित हैं, उनके एकोदेश
थिरताका सुख है, तो वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानियोंके समस्त पंच इंद्रियोंके विषय और
tyāre bhagavān shrīguru kahe chhe kehe prabhākarabhaṭṭa! koī paṇ puruṣh nirvyākuḷ chittavāḷo
thaīne pañchendriy bhoganā sevanathī rahit ekalo ārāmamān beṭho chhe, te vakhate koī devadatta nāmanā
puruṣhe tene pūchhyun ke ‘tame ānandamān chho ne? tyāre teṇe kahyun ke ‘ānand varte chhe’ te sukh ātmāthī
utpanna thayun chhe. jo tame kaho ke shā māṭe? to teno uttar e chhe ke te samaye strīsevanādi
sparshano viṣhay nathī, bhojanādi jihvā-indriyano viṣhay nathī, vishiṣhṭarūp gandhamāḷādi ghrāṇendriyano
viṣhay nathī, divya strī-puruṣhanān avalokanādi netrano viṣhay nathī, karṇane priy gīt vādyādi
shabdano viṣhay nathī, tethī em jaṇāy chhe ke te sukh ātmāthī utpanna thayun chhe.
have, visheṣh kahevāmān āve chhe ekadeshaviṣhayavyāpār rahit jīvone te ekadesh ātmāthī
utpanna sukh prāpta thāy chhe ane vītarāg nirvikalpa svasamvedanarūp gnānamān rat jīvone samasta
adhikār-2ḥ dohā-9 ]paramātmaprakāshaḥ [ 215

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व्यापाराभावेऽपि स्वात्मोत्थवीतराग परमानन्दसुखोपलब्धिरिति अत्रेत्थंभूतं सुखमेवोपादेयमिति
भावार्थः तथागमे चोक्त मात्मोत्थमतीन्द्रियसुखम्‘‘अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं
अणोवममणंतं अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ।।’’ ।।९।।
मनके विकल्पजालोंकी रुकावट होने पर विशेषतासे निर्व्याकुल सुख उपजता है इसलिये
ये दो बातें प्रत्यक्ष ही दृष्टि पड़ती हैं जो पुरुष निरोग और चिंता रहित हैं, उनके विषयसामग्रीके
बिना ही सुख भासता है, और जो महामुनि शुद्धोपयोग अवस्थामें ध्यानारूढ़ हैं, उनके
निर्व्याकुलता प्रगट ही दिख रही है, वे इंद्रादिक देवोंसे भी अधिक सुखी हैं
इस कारण जब
संसार अवस्थामें ही सुखका मूल निर्व्याकुलता दीखती है, तो सिद्धोंके सुखकी बात ही क्या
है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धोंके
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म नहीं, तथा विषयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प
जाल नहीं
है, केवल अतींद्रिय आत्मीकसुख ही है, वही सुख उपादेय है, अन्य सुख सब दुःस्वरूप
ही हैं जो चारों गतियोंकी पर्यायें हैं, उनमें कदापि सुख नहीं है सुख तो सिद्धोंके है, या
महामुनीश्वरोंके सुखका लेशमात्र देखा जाता है, दूसरेके जगतकी विषयवासनाओंमें सुख नहीं
है ऐसा ही कथन श्रीप्रवचनसारमें किया है ‘‘अइसय’’ इत्यादि सारांश यह है, कि जो
शुद्धोपयोगकर प्रसिद्ध ऐसे श्रीसिद्धपरमेष्ठी हैं, उनके अतींद्रिय सुख है, वह सर्वोत्कृष्ट है, और
आत्मजनित है, तथा विषय
वासनासे रहित है, अनुपम है, जिसके समान सुख तीन लोकमें
भी नहीं है, जिसका पार नहीं ऐसा बाधारहित सुख सिद्धोंके है ।।९।।
pañchendriyaviṣhay ane mananā vikalpajāḷano nirodh thatān, visheṣhapaṇe ātmāthī utpanna sukh prāpta
thāy chhe. ā sukh to svasamvedanapratyakṣhathī gamya chhe ane siddhonun sukh to anumānathī paṇ
jaṇāy chhe. te ā pramāṇeḥ
mukta ātmāne sharīr ane indriyanā viṣhayanā vyāpārano
abhāv hovā chhatān, sukh chhe e sādhya chhe. teno hetu e chhe ke ahīn vītarāg nirvikalpa
samādhistha paramayogīone, pañchendriviṣhay vyāpārano abhāv hovā chhatān paṇ, potānā ātmāthī
utpanna vītarāg paramānandarūp sukhanī upalabdhi hoy chhe.
ahīn, āvun sukh ja upādey chhe evo bhāvārtha chhe. vaḷī āgam (shrī pravachanasār-1-
13)mān ātmāthī utpanna atīndriy sukhanun svarūp paṇ kahyun chhe keḥ
‘‘अइसयमादसमुत्थं विषयातीदं अणोवममणंतं
अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धुवओगप्पसिद्धाणं ।।’’
(arthaḥshuddhopayogathī niṣhpanna thayelā ātmāonun (kevaḷī bhagavantonun ane siddha
bhagavantonun) sukh atishay, ātmotpanna, viṣhayātīt (atīndriy), anupam (upamā vinānun)
216 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-9

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अथ यस्मिन् मोक्षे पूर्वोक्त मतीन्द्रियसुखमस्ति तस्य मोक्षस्य स्वरूपं कथयति
१३६) जीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु
कम्म-कलंक-विमुक्काहँ णाणिय बोल्लहिँ साहू ।।१०।।
जीवानां तं परं मोक्षं मन्यस्व यः परमात्मलाभः
कर्मकलङ्कविमुक्तानां ज्ञानिनः ब्रुवन्ति साधवः ।।१०।।
जीवहं इत्यादि जीवहं जीवानां सो तं पर नियमेन मोक्खु मोक्षं मुणि मन्यस्व जानीहि
हे प्रभाकरभट्ट तं कम् जो परमप्पय-लाहु यः परमात्मलाभः इत्थंभूतो मोक्षः केषां भवति
कम्म-कलंक-विमुक्काहं ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मकलङ्कविमुक्तानाम् इत्थंभूतं मोक्षं के ब्रुवन्ति
णाणिय बोल्लहिं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानिनो ब्रुवन्ति ते के साहू साधवः इति तथाहि
आगे जिस मोक्षमें ऐसा अतींद्रियसुख है, उस मोक्षका स्वरूप कहते हैं
गाथा१०
अन्वयार्थ :हे प्रभाकरभट्ट; जो [कर्मकलंकविमुक्तानां जीवानां ] कर्मरूपी
कलंकसे रहित जीवोंको [यः परमात्मलाभः ] जो परमात्मकी प्राप्ति है [तं परं ] उसीको
नियमसे तू [मोक्षं मन्यस्व ] मोक्ष जान, ऐसा [ज्ञानिनः साधवः ] ज्ञानवान् मुनिराज [ब्रुवंति ]
कहते हैं, रत्नत्रयके योगसे मोक्षका साधन करते हैं, इससे उनका नाम साधु है
भावार्थ :केवलज्ञानादि अनंतगुण प्रगटरूप जो कार्यसमयसार अर्थात् शुद्ध
परमात्माका लाभ वह मोक्ष है, यह मोक्ष भव्यजीवोंके ही होता है भव्य कैसे हैं कि पुत्र
कलत्रादि परवस्तुओंके ममत्वको आदि लेकर सब विकल्पोंसे रहित जो आत्मध्यान उससे
anant ane avichchhinna (atūṭak chhe.) 9.
have, je mokṣhamān pūrvokta atīndriy sukh chhe te mokṣhanun svarūp kahe chheḥ
bhāvārthaputra, kalatrādi paravastuonā mamatvathī māṇḍīne samasta vikalpothī rahit
dhyānathī jeo bhāvakarma dravyakarmarūpī karmakalaṅkathī rahit thayā chhe evā bhavya jīvone kevaḷagnānādi
anantaguṇanī vyaktirūp kāryasamayasārabhūt paramātmānī prāpti te kharekhar mokṣha chhe, em
sādhugnānīo kahe chhe.
1 pāṭhāntaraḥसाधवः इति = रत्नत्रयवेष्टमेन
मोक्षसाधका = साधव इति ।
adhikār-2ḥ dohā-10 ]paramātmaprakāshaḥ [ 217

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केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्ति रूपस्य कार्यसमयसारभूतस्य हि परमात्मलाभो मोक्षो भवतीति स च
केषाम् पुत्रकलत्रममत्वस्वरूपप्रभृतिसमस्तविकल्परहितध्यानेन भावकर्मद्रव्यकर्मकलङ्करहितानां
भव्यानां भवतीति ज्ञानिनः कथयन्ति अत्रायमेव मोक्षः पूर्वोक्त स्यानन्तसुखस्योपादेयभूतस्य
कारणत्वादुपादेय इति भावार्थः ।।१०।। एवं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गादिप्रतिपादकद्वितीय-
महाधिकारमध्ये सूत्रदशकेन मोक्षस्वरूपनिरूपणस्थलं समाप्तम्
अथ तस्यैव मोक्षस्यानन्तचतुष्टयस्वरूपं फलं दर्शयति
१३७) दंसणु णाणु अणंतसुहु समउ ण तुट्टइ जासु
सो पर सासउ मोक्खफलु बिज्जउ अत्थि ण तासु ।।११।।
दर्शनं ज्ञानं अनन्तसुखं समयं न त्रुटयति यस्य
तत् परं शाश्वतं मोक्षफलं द्वितीयं अस्ति न तस्य ।।११।।
जिन्होंने भावकर्म और द्रव्यकर्मरूपी कलंक क्षय किये हैं, ऐसे जीवोंके निर्वाण होता है, ऐसा
ज्ञानीजन कहते हैं
यहाँ पर अनंत सुखका कारण होनेसे मोक्ष ही उपादेय है ।।१०।।
इसप्रकार मोक्षका फल और मोक्ष - मार्गका जिसमें कथन है, ऐसे दूसरे महाधिकारके
दस दोहोंमें मोक्षका स्वरूप दिखलाया
आगे मोक्षका फल अनंतचतुष्टय है, यह दिखलाते हैं
गाथा११
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिस मोक्षपर्यायके धारक शुद्धात्माके [दर्शनं ज्ञानं
अनंतसुखं ] केवलदर्शन, केवलज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन अनंतचतुष्टयोंको आदि
देकर अनंत गुणोंका समूह [समयं न त्रुटयति ] एक समयमात्र भी नाश नहीं होता, अर्थात्
हमेशा अनंत गुण पाये जाते हैं
[तस्य ] उस शुद्धात्माके [तत् ] वही [परं ] निश्चयसे
[शाश्वतं फलं ] हमेशा रहनेवाला मोक्षका फल [अस्ति ] है, [द्वितीयं न ] इसके सिवाय
ahīn ā ja mokṣha, pūrvokta upādeyabhūt anant sukhanun kāraṇ hovāthī upādey chhe, evo
bhāvārtha chhe. 10.
e pramāṇe mokṣha, mokṣhaphaḷ ane mokṣhamārganā pratipādak dvitīy mahādhikāramān das dohak
sūtrothī mokṣhasvarūpanā nirūpaṇanun sthaḷ samāpta thayun.
have, te mokṣhanun phaḷ anantachatuṣhṭasvarūp chhe, em darshāve chheḥ
218 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-11

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दंसणु इत्यादि दंसणु केवलदर्शनं णाणु केवलज्ञानं अणंत-सुहु अनन्तसुखम्
एतदुपलक्षणमनन्तवीर्याद्यनन्तगुणाः समउ ण तुट्टइ एतद्गुणकदम्बकमेकसमयमपि यावन्न त्रुटयति
न नश्यति
जासु यस्य मोक्षपर्यायस्याभेदेन तदाधारजीवस्य वा सो पर तदेव केवलज्ञानादिस्वरूपं
सासउ मोक्ख-फलु शाश्वतं मोक्षफलं भवति
बिज्जउ अत्थि ण तासु तस्यानन्तज्ञानादि-
मोक्षफलस्यान्यद् द्वितीयमधिकं किमपि नास्तीति अयमत्र भावार्थः अनन्तज्ञानादिमोक्षफलं
ज्ञात्वा समस्त रागादित्यागेन तदर्थमेव निरन्तरं शुद्धात्मभावना कर्तव्येति ।।११।। एवं द्वितीय-
महाधिकारे मोक्षफलकथनरूपेण स्वतन्त्रसूत्रमेकं गतम्
अथानन्तरमेकोनविंशतिसूत्रपर्यन्तं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गव्याख्यानस्थलं कथ्यते तद्यथा
१३८) जीवहँ मोक्खहँ हेउ वरु दंसणु णाणु चरित्तु
ते पुणु तिण्णि वि अप्पु मुणि णिच्छएँ एहउ वुत्तु ।।१२।।
जीवानां मोक्षस्य हेतुः वरं दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्
तानि पुनः त्रीण्यपि आत्मानं मन्यस्व निश्चयेन एवं उक्त म् ।।१२।।
दूसरा मोक्षफल नहीं है, और इससे अधिक दूसरी वस्तु कोई नहीं है
भावार्थ :मोक्षका फल अनंतज्ञानादि जानकर समस्त रागादिकका त्याग करके
उसीके लिये निरंतर शुद्धात्माकी भावना करनी चाहिये ।।११।।
इसप्रकार दूसरे महाधिकारमें मोक्षफलके कथनकी मुख्यताकर एक दोहासूत्र
कहा
आगे उन्नीस दोहापर्यंत निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गका व्याख्यान करते हैं
गाथा१२
अन्वयार्थ :[जीवानां ] जीवों के [मोक्षस्य हेतुः ] मोक्षके कारण [वरं ] उत्कृष्ट
bhāvārthamokṣhanun anantagnānādirūp phaḷ jāṇīne samasta rāgādinā tyāgathī tenā arthe
ja nirantar shuddhātmānī bhāvanā karavī joīe. 11.
e pramāṇe bījā mahādhikāramān mokṣhaphaḷanā kathanarūpe svatantra ek dohakasūtra samāpta thayun.
tyār pachhī ogaṇīs sūtro sudhī nishchayavyavahāramokṣhamārganā vyākhyānanun sthaḷ kahe
chheḥte ā pramāṇeḥ
adhikār-2ḥ dohā-12 ]paramātmaprakāshaḥ [ 219

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जीवहं इत्यादि जीवहं जीवानां अथवा एकवचनपक्षे ‘जीवहो’ जीवस्य मोक्खहं हेउ
मोक्षस्य हेतुः कारणं व्यवहारनयेन भवतीति क्रियाध्याहारः कथंभूतम् वरु वरमुत्कृष्टम् किं
तत् दंसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयम् ते पुणु तानि पुनः तिण्णि वि त्रीण्यपि
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि अप्पु आत्मानमभेदनयेन मुणि मन्यस्व जानीहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट
णिच्छएं निश्चयनयेन एहउ वुत्तु एवमुक्तं भणितं तिष्ठतीति
इदमत्र तात्पर्यम्
भेदरत्नत्रयात्मको व्यवहारमोक्षमार्गः साधको भवति अभेद रत्नत्रयात्मकः पुनर्निश्चयमोक्षमार्गः
साध्यो भवति, एवं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधकभावो ज्ञातव्यः सुवर्णसुवर्णपाषाणवत्
इति
तथा चोक्त म्‘‘सम्मद्दंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ववहारा णिच्छयदो
तत्तियमइओ णिओ अप्पा ।।’’ ।।१२।।
अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणतो निजशुद्धात्मैव मोक्षमार्गो भवतीति प्रतिपादयति
[दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन ज्ञान और चारित्र हैं [तानि पुनः ] फि र वे [त्रीण्यपि ] तीनों
ही [निश्चयेन ] निश्चयकर [आत्मानं ] आत्माको ही [मन्यस्व ] जाने [एवं ] ऐसा [उक्तम् ]
श्री वीतरागदेवने कहा है, ऐसा हे प्रभाक रभट्ट; तू जान
भावार्थ :भेदरत्नत्रयरूप व्यवहारमोक्षमार्ग साधक है, और अभेदरत्नत्रयरूप
निश्चयमोक्षमार्ग साधने योग्य है इसप्रकार निश्चय व्यवहारमोक्षमार्गका साध्य
साधकभाव, सुवर्ण सुवर्णपाषाणकी तरह जानना ऐसा ही कथन श्रीद्रव्यसंग्रहमें कहा है
‘‘सम्मद्दंसण’’ इत्यादि इसका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये
तीनों ही व्यवहारनयकर मोक्षके कारण जानने, और निश्चयसे उन तीनोंमयी एक आत्मा ही
मोक्षका कारण है
।।१२।।
आगे निश्चयरत्नत्रयरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्षका मार्ग है, ऐसा कहते हैं
bhāvārthabhedaratnatrayātmak vyavahāramokṣhamārga sādhak chhe ane abhedaratnatrayātmak
nishchayamokṣhamārga sādhya chhe. e pramāṇe nishchayavyavahāramokṣhamārgano sādhyasādhakabhāv 1suvarṇa ane
suvarṇapāṣhāṇanī māphak jāṇavo. (dravyasaṅgrahanī gāthā 39 mān kahyun paṇ chhe keḥ‘‘सम्मद्दं सणणाणं
चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे ववहार णिच्छयदो तत्तियमईओ णिओ अप्पा ।।’’ arthasamyagdarshan,
samyaggnān ane samyakchāritrane vyavahāranayathī mokṣhanun kāraṇ jāṇo. samyagdarshan, samyaggnān
ane samyakchāritramay nij ātmāne nishchayathī mokṣhanun kāraṇ jāṇo) 12.
have, nishchayaratnatrayarūpe pariṇamelo nijashuddhātmā ja mokṣhamārga chhe, em kahe chheḥ
1 juo gujarātī pañchāstikāy gāthā 159 thī 172 phūṭanoṭ sahit.
220 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-12

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१३९) पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि
दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि ।।१३।।
पश्यति जानाति अनुचरति आत्मना आत्मानं य एव
दर्शनं ज्ञानं चारित्रं जीवः मोक्षस्य कारणं स एव ।।१३।।
पेच्छइ इत्यादि पेच्छइ पश्यति जाणइ जानाति अणुचरइ अनुचरति केन कृत्वा अप्पिं
आत्मना कारणभूतेन कं कर्मतापन्नम् अप्पउ निजात्मानम् जो जि य एव कर्ता दंसणु णाणु
चरित्तु दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं भवतीति क्रियाध्याहारः कोऽसौ भवति जिउ जीवः य एवाभेदनयेन
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं भवतीति मोक्खहं कारणु निश्चयेन मोक्षस्य कारणं एक एव सो जि
स एव निश्चयरत्नत्रयपरिणतो जीव इति तथाहि यः कर्ता निजात्मानं मोक्षस्य कारणभूतेन
गाथा१३
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [आत्मना ] अपनेसे [आत्मानं ] आपको [पश्यति ]
देखता है, [जानाति ] जानता है, [अनुचरति ] आचरण करता है, [स एव ] वही विवेकी
[दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत हुआ [जीवः ] जीव [मोक्षस्य कारणं ]
मोक्षका कारण है
भावार्थ :जो सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्माको आपकर निर्विकल्परूप देखता है,
अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानकी अपेक्षा चंचलता और मलिनता तथा शिथिलता इनका त्यागकर
शुद्धात्मा ही उपादेय है, इसप्रकार रुचिरूप निश्चय करता है, वीतराग स्वसंवेदनलक्षण ज्ञानसे
जानता है, और सब रागादिक विकल्पोंके त्यागसे निज स्वरूपमें स्थिर होता है, सो
निश्चयरत्नत्रयको परिणत हुआ पुरुष ही मोक्षका मार्ग है
ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने
bhāvārthaḥje ātmāthī nij ātmāne mokṣhanā kāraṇarūpe dekhe chhe nirvikalpa svarūpe
avaloke chhe ane tattvārthashraddhānanī apekṣhāe chal, malin ane agāḍh doṣhone tajīne ‘ek shuddha
ātmā ja upādey chhe evī ruchirūpe nirṇay kare chhe, mātra nishchay kare chhe eṭalun ja nahi paṇ
vītarāgasvasamvedan jenun lakṣhaṇ chhe evā abhedagnānathī jāṇe chhe-parichchhedan kare chhe, mātra
parichchhedan kare chhe eṭalun ja nahi paṇ rāgādi samasta vikalpono tyāg karīne anuchare chhe
tyāñjnijasvarūpamān jasthir thāy chhe te nishchayaratnatrayapariṇat puruṣh ja nishchayamokṣhamārga chhe.
1 pāṭhāntaraḥभवतीति=भवति
adhikār-2ḥ dohā-13 ]paramātmaprakāshaḥ [ 221

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आत्मना कृत्वा पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोक यति अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानापेक्षया चलमलिनागाढ-
परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति न केवलं निश्चिनोति वीतरागस्वसंवेदन-
लक्षणाभेदज्ञानेन जानाति परिच्छिनत्ति
न केवलं परिच्छिनत्ति अनुचरति रागादिसमस्त-
विकल्पत्यागेन तत्रैव निजस्वरूपे स्थिरीभवतीति स निश्चयरत्नत्रयपरिणतः पुरुष एव
निश्चयमोक्षमार्गो भवतीति
अत्राह प्रभाकरभट्टः तत्त्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्गो
भवति नास्ति दोषः, पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तावलोकदर्शनं कथं
मोक्षमार्गो भवति यदि भवति चेत्तर्हि तत्सत्तावलोकदर्शनमभव्यानामपि विद्यते तेषामपि मोक्षो
भवति स चागमविरोधः इति परिहारमाह तेषां निर्विकल्पसत्तावलोकदर्शनं बहिर्विषये विद्यते
न चाभ्यन्तरशुद्धात्मतत्त्वविषये कस्मादिति चेत् तेषामभव्यानां मिथ्यात्वादिसप्त-
प्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षयाभावात् शुद्धात्मोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनमेव नास्ति
प्रश्न किया कि हे प्रभो; तत्त्वार्थश्रद्धान रुचिरूप सम्यग्दर्शन वह मोक्षका मार्ग है, इसमें तो दोष
नहीं और तुमने कहा कि जो देखे वह दर्शन, जानें वह ज्ञान, और आचरण करे वह चारित्र
है
सो यह देखनेरूप दर्शन कैसे मोक्षका मार्ग हो सकता है ? और जो कभी देखनेका नाम
दर्शन कहो तो देखना अभव्यको भी होता है, उसके मोक्षमार्ग तो नहीं माना है ? यदि
अभव्यके मोक्षमार्ग होवे, तो आगमसे विरोध आवे आगममें तो यह निश्चय है कि
अभव्यको मोक्ष नहीं होता उसका समाधान यह है कि अभव्योंके देखनेरूप जो दर्शन है,
वह बाह्यपदार्थोंका है, अंतरंग शुद्धात्मतत्त्वका दर्शन तो अभव्योंके नहीं होता, उसके मिथ्यात्व
आदि सात प्रकृतियोंका उपशम क्षयोपशम क्षय नहीं है, तथा शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी
evun kathan sāmbhaḷīne ahīn prabhākarabhaṭṭa pūchhe chhe ke-he prabhu! tattvārthashraddhānaruchirūp
samyagdarshan mokṣhamārga chhe, emān to doṣh nathī. (e to barābar chhe.) paṇ ‘dekhe chhe-nirvikalparūpe
avaloke chhe te darshan’ e pramāṇe āpe je kahyun te sattāvalokanarūp darshan kevī rīte mokṣhanun kāraṇ
thāy? jo āp kahesho ke tevun dekhavārūp darshan mokṣhanun kāraṇ thāy to te sattāvalokanadarshan
abhavyone paṇ varte chhe, to temano paṇ mokṣha thāy. paṇ abhavyano mokṣha thāy to āgamano
virodh āve chhe.
teno parihārabhavyone nirvikalpasattāvalokanadarshan bahāranā viṣhayamān varte chhe, paṇ
antaraṅg shuddhātmatattvanā viṣhayamān vartatun nathī, (abhavyone je dekhavārūp darshan chhe te bāhyapadārthonun
chhe, antaraṅg shuddhātmatattvanun darshan to abhavyone hotun nathī.) tame kahesho ke kem? to tenun
samādhāānte abhavyone mithyātvādi sāt prakr̥itino upasham, kṣhayopasham ane kṣhayano abhāv
1 pāṭhāntaraḥभवति=भवतु
222 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-13

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चारित्रमोहोदयात् पुनर्वीतरागचारित्ररूपं निर्विकल्पशुद्धात्म सत्तावलोकनमपि न संभवतीति
भावार्थः
निश्चयेनाभेदरत्नत्रयपरिणतो निजशुद्धात्मैव मोक्षमार्गो भवतीत्यस्मिन्नर्थे संवाद-
गाथामाह‘‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि तम्हा तत्तियमइओ होदि हु
मोक्खस्स कारणं आदा ।।’’ ।।१३।।
अथ भेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षमार्गं दर्शयति
१४०) जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु
तं परियाणहि जीव तुहुँ जेँ परु होहि पवित्तु ।।१४।।
यद् ब्रूते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्
तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ।।१४।।
रुचिरूप सम्यग्दर्शन भी उसके नहीं है, और चारित्रमोहके उदयसे वीतराग चारित्ररूप निर्विकल्प
शुद्धात्माका सत्तावलोकन भी उसके कभी नहीं है
तात्पर्य यह है, निश्चयकर अभेदरत्नत्रयको
परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्षका मार्ग है ऐसी ही द्रव्यसंग्रहमें साक्षीभूत गाथा कही
है ‘‘रयणत्तयं’’ इत्यादि उसका अर्थ ऐसा है कि रत्नत्रय आत्माको छोड़कर अन्य (दूसरी)
द्रव्योंमें नहीं रहता, इसलिये मोक्षका कारण उन तीनमयी निज आत्मा ही है ।।१३।।
आगे भेदरत्नत्रयस्वरूपव्यवहार वह परम्पराय मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं
गाथा१४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [व्यवहारनयः ] व्यवहारनय [यत् ] जो [दर्शनं ज्ञानं
hovāthī ‘ek shuddhātmā ja upādey chhe’ evun ruchirūp samyagdarshan ja hotun nathī, ane
chāritramohanā udayathī vītarāgachāritrarūp nirvikalpa shuddhātmasattāvalokan paṇ tene sambhavatun nathī,
evo bhāvārtha chhe.
nishchayanayathī abhedaratnatray pariṇat nijashuddhātmā ja mokṣhamārga chhe evā arthanā samvādanī
gāthā (dravyasaṅgrahanī gāthā 40) kahe chhe ke‘‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं भुइत्तु अण्णदवियम्हि तम्हा
तत्तियमइओ होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ।।’’ (artha :ātmā sivāy anya dravyamān ratnatray
rahetān nathī te kāraṇe ratnatrayamayī ātmā ja kharekhar mokṣhanun kāraṇ chhe.) 13.
have, bhedaratnatrayātmak vyavahāramokṣhamārgane darshāve chheḥ
adhikār-2ḥ dohā-14 ]paramātmaprakāshaḥ [ 223

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जं इत्यादि जं यत् बोल्लइ ब्रूते कोऽसौ कर्ता ववहारु-णउ व्यवहारनयः यत्
किं ब्रूते दंसणु णाणु चरित्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं तं पूर्वोक्तं भेदरत्नत्रयस्वरूपं परियाणहि
परि समन्तात् जानीहि जीव तुहुं हे जीव त्वं कर्ता जें येन भेदरत्नत्रयपरिज्ञानेन परु
होहि परः उत्कृष्टो भवसि त्वम् पुनरपि किंविशिष्टस्त्वम् पवित्तु पवित्रः सर्वजनपूज्य इति
तद्यथा हे जीव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपनिश्चयरत्नत्रयलक्षणनिश्चयमोक्षमार्गसाधकं व्यवहार-
मोक्षमार्गं जानीहि त्वं येन ज्ञातेन कथंभूतो भविष्यसि परंपरया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि
इति व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गस्वरूपं कथ्यते तद्यथा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादिसम्यक्-
श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानरूपो व्यवहारमोक्षमार्गः निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपो निश्चय-
चारित्रम् ] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों को [ब्रूते ] कहता है, [तत् ] उस व्यवहाररत्नत्रयको
[त्वं ] तू [परिजानीहि ] जान, [येन ] जिससे कि [परः पवित्रः ] उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र
[भवसि ] होवे
भावार्थ :हे जीव, तू तत्त्वार्थका श्रद्धान, शास्त्रका ज्ञान, और अशुभ क्रियाओंका
त्यागरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र व्यवहारमोक्षमार्गको जान, क्योंकि ये निश्चयरत्नत्रयरूप
निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं, इनके जाननेसे किसी समय परम पवित्र परमात्मा हो जायगा
पहले व्यवहाररत्नत्रयकी प्राप्ति हो जावे, तब ही निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति हो सकती है, इसमें
संदेह नहीं है
जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे वे पहले व्यवहाररत्नत्रयको पाकर
निश्चयरत्नत्रयरूप हुए व्यवहार साधन है, और निश्चय साध्य है व्यवहार और निश्चय
मोक्षमार्गका स्वरूप कहते हैंवीतराग सर्वज्ञदेवके कहे हुए छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ
पदार्थ, पंचास्तिकाय, इनका श्रद्धान, इनके स्वरूपका ज्ञान और शुभ क्रियाका आचरण, यह
व्यवहारमोक्ष
मार्ग है, और निज शुद्ध आत्माका सम्यक् श्रद्धान स्वरूपका ज्ञान, और
स्वरूपका आचरण यह निश्चयमोक्षमार्ग है साधनके बिना सिद्धि नहीं होती, इसलिये
bhāvārthahe jīv! tun samyagdarshanagnānachāritrarūp nishchayaratnatrayasvarūp nishchay-
mokṣhamārganā sādhak evā vyavahāramokṣhamārgane jāṇke jene jāṇavāthī tun paramparāe pavitra
paramātmā thaīsh.
vyavahāranishchayamokṣhamārganun svarūp kahe chhe. te ā pramāṇevītarāgasarvagnapraṇīt chha
dravyādinun samyakshraddhān, temanun samyaggnān ane vratādinun anuṣhṭhānarūp vyavahāramokṣhamārga chhe, nij
shuddha ātmānān samyakshraddhān, samyaggnān ane samyaganuṣhṭhānarūp nishchayamokṣhamārga chhe; athavā
vyavahāramokṣhamārga sādhak chhe; nishchayamokṣhamārga sādhya chhe.
224 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-14

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मार्गः अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः अत्राह शिष्यः निश्चय-
मोक्षमार्गो निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गो नास्ति कथं साधको भवतीति अत्र
परिहारमाह भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चय-
मोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्परूपसाधको भवति, निर्विकल्प-
समाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः
।। सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्गविषये संवाद-
व्यवहारके बिना निश्चयकी प्राप्ति नहीं होती यह कथन सुनकर शिष्यने प्रश्न किया कि हे
प्रभो; निश्चयमोक्षमार्ग जो निश्चयरत्नत्रय वह तो निर्विकल्प है, और व्यवहाररत्नत्रय विकल्प
सहित है, सो वह विकल्पदशा निर्विकल्पपनेकी साधन कैसे हो सकती है ? इस कारण
उसको साधक मत कहो अब इसका समाधान करते हैं जो अनादिकालका यह जीव विषय
कषायोंसे मलिन हो रहा है, सो व्यवहारसाधनके बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व
अव्रत कषायादिककी क्षीणतासे देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा करे, तत्त्वोंका जानपना होवे, अशुभ
क्रिया मिट जावे, तब गुरु वह अध्यात्मका अधिकारी हो सकता है
जैसे मलिन कपड़ा धोनेसे
रँगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता, इसलिये परम्पराय मोक्षका कारण
व्यवहाररत्नत्रय कहा है
मोक्षका मार्ग दो प्रकारका है, एक व्यवहार, दूसरा निश्चय, निश्चय
तो साक्षात् मोक्षमार्ग है, और व्यवहार परम्पराय है अथवा सविकल्प निर्विकल्पके भेदसे
निश्चयमोक्षमार्ग भी दो प्रकारका है जो मैं अनंतज्ञानरूप हूँ, शुद्ध हूँ, एक हूँ, ऐसा ‘सोऽहं’
का चिंतवन है, वह तो सविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग है, उसको साधक कहते हैं, और जहाँ
पर कुछ चिंतवन नहीं है, कुछ बोलना नहीं है, और कुछ चेष्टा नहीं है, वह निर्विकल्प-
समाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ
इसी कथनके बारेमें द्रव्यसंग्रहकी साक्षी देते हैं ‘‘मा
चिट्ठह’’ इत्यादि सारांश यह है, कि हे जीव, तू कुछ भी कायकी चेष्टा मत कर, कुछ बोल
भी मत, मौनसे रहे, और कुछ चिंतवन मत कर सब बातोंको छोड, आत्मामें आपको लीन
कर, यह ही परमध्यान है श्रीतत्त्वसारमें भी सविकल्प-निर्विकल्प निश्चयमोक्षमार्गके
ā kathan sāmbhaḷīne ahīn shiṣhye prashna karyo ke nishchayamokṣhamārga to nirvikalpa chhe, te
samaye (nirvikalpa nishchayamokṣhamārga vakhate to) savikalpa mokṣhamārga to hoto nathī. to pachhī
vyavahāramokṣhamārga kevī rīte sādhak chhe? ahīn prashnano parihār kare chheḥ
bhūtanaigamanayathī
paramparāe (sādhak) chhe. athavā nishchayamokṣhamārga savikalpa nirvikalpanā bhedathī be prakārano chhe.
tyān ‘hun anantagnānarūp chhun ityādi savikalparūp sādhak chhe ane nirvikalpa samādhirūp sādhya chhe,
evo bhāvārtha chhe.’
savikalpa, nirvikalpa nishchayamokṣhamārganā viṣhayamān ā ja arthanī sākṣhībhūt (meḷavāḷī)
adhikār-2ḥ dohā-14 ]paramātmaprakāshaḥ [ 225

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गाथामाह‘‘जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं सवियप्पं सासवयं णिरासवं
विगय संकप्पं ’’ ।।१४।। एवं पूर्वोक्तै कोनविंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये निश्चय-
व्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादनरूपेण सूत्रत्रयं गतम् इदानीं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्यवहारमोक्ष-
मार्गप्रथमावयवभूतव्यवहारसम्यक्त्वं मुख्यवृत्त्या प्रतिपादयति तद्यथा
१४१) दव्वइँ जाणइ जहठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि
अप्पहँ केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि ।।१५।।
द्रव्याणि जानाति यथास्थितानि तथा जगति मन्यते य एव
आत्मनः सम्बन्धी भावः अविचलः दर्शनं स एव ।।१५।।
कथनमें यह गाथा कही है कि ‘‘जं पुण सगयं’’ इत्यादि इसका सारांश यह है कि जो
आत्मतत्त्व है, वह भी सविकल्प-निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका है, जो विकल्प सहित है,
वह तो आस्रव सहित है, और जो निर्विकल्प है, वह आस्रव रहित है
।।१४।।
इस तरह पहले महास्थलमें अनेक अंतस्थलोंमेंसे उन्नीस दोहोंके स्थलमें तीन दोहोंसे
निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गका कथन किया
आगे चौदह दोहापर्यंत व्यवहारमोक्षमार्गका पहला अंग व्यवहारसम्यक्त्वको मुख्यतासे
कहते हैं
गाथा१५
अन्वयार्थ :[य एव ] जो [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [यथास्थितानि ] जैसा उनका
स्वरूप है, वैसा [जानाति ] जानें, [तथा ] और उसी तरह [जगति ] इस जगतमें [मन्यते ]
gāthā (shrī devasenakr̥ut shrī tattvasār gāthā 5)mān paṇ kahyun chhe ke ‘‘जं पुण सगयं तच्वं सवियप्पं
होइ तह य अवियप्पं सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगय संकप्पं ।।’’ (arthavaḷī je ātmatattva
chhe te paṇ savikalpa ane nirvikalpanā bhedathī be prakāranun chhe. temān je savikalpa chhe te to āsrav
sahit chhe ane je nirvikalpa chhe te āsrav rahit chhe.) 14.
e pramāṇe pūrvokta ogaṇīs sūtronā mahāsthaḷamān nishchayavyavahār mokṣhamārganā
pratipādanarūpe traṇ sūtro samāpta thayān.
have, chaud sūtro sudhī vyavahāramokṣhamārganā pratham aṅgabhūt vyavahārasamyaktvanī mukhyatāthī
kathan kare chhe, te ā pramāṇeḥ
226 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-15