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अनंत प्रदेश कहे जाते हैं
असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओंके मेलसे जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश,
बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदशामें साक्षात् उपादेय है, यह जानना
छोड़ता है, ऐसा दिखलाते हैं
te shuddha ātmā vītarāg nirvikalpa samādhinī pariṇatinā kāḷe sākṣhāt upādey chhe, evo
bhāvārtha chhe. 24.
प्रमाणेनासंख्येयाः प्रदेशा यस्य शुद्धात्मनः स शुद्धात्मा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपरिणतिकाले
साक्षादुपादेय इति भावार्थः
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हैं, लोकाकाश तो आधार है, और ये सब आधेय हैं, [एकत्वे मिलितानि ] ये द्रव्य एक क्षेत्र
में मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी [स्वगुणेषु ] निश्चयनयकर अपने अपने गुणों
में ही [निवसंति ] निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं
परद्रव्यसे मिलनेरूप संकर
koī vār kārakavyabhichār ane liṅgavyabhichār thāy chhe.)
shuddhadravyārthikanayathī saṅkar vyatikar doṣhonā parihār vaḍe potapotānā sāmānya visheṣh shuddha guṇone
chhoḍatān nathī.
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समा सकते हैं ? क्योंकि एक एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, और एक एक
जीवमें अनंतानंत पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणे
अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान
श्री गुरु करते हैं
जलका घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे
ane te ek ek jīvadravyamān karma-nokarmarūpe anant pudgalaparamāṇudravyo rahe chhe. te anant
pudgalaparamāṇudravyathī paṇ anantaguṇā bākīnā pudgal paramāṇudravyo rahe chhe, to te sarva dravyo
asaṅkhyapradeshavāḷā lokamān kevī rīte avakāsh pāme (rahī shake)? evo pūrvapakṣha chhe.
स्वकीयस्वकीयसामान्यविशेषशुद्धगुणान्न त्यजन्तीति
संख्येयप्रदेशान्यनन्तजीवद्रव्याणि, तत्र चैकैके जीवद्रव्ये कर्मनोकर्मरूपेणानन्तानि पुद्गलपरमाणु-
द्रव्याणि च तिष्ठन्ति तेभ्योऽप्यनन्तगुणानि शेषपुद्गलद्रव्याणि तिष्ठन्ति तानि सर्वाण्यसंख्येय-
प्रदेशलोके कथमवकाशं लभन्ते इति पूर्वपक्षः
भस्मघटे जलघटः सम्यगवकाशं लभन्ते, अथवा यथैकस्मिन् उष्ट्रीक्षीरघटे मधुघटः सम्यगवकाशं
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आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट
अवगाहनशक्तिके योगसे अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध
नहीं है, और जीवोंमें परस्पर अवगाहनशक्ति है
हैं, और निगोदियाका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीरमें अनंत जीव
समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जानेमें क्या अचंभा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाशमें
समा रहे हैं, उसकी ‘‘ओगाढ’’ इत्यादि गाथा है
प्रकारके भेदको धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं
jeṭalī rākhamān ghaḍā jeṭalun pāṇī pūratun shoṣhāī jāy chhe) athavā (4) jevī rīte ek ūṇṭaṇīnā
dūdhanā ghaḍāmān madhano ghaḍo samāī jāy chhe athavā (5) jevī rīte ek bhūmigharamān (bhonyarāmān)
ḍhol, jayajayakār ane ghaṇṭ vagerenā anek shabdo sārī rīte avakāsh pāme chhe tevī rīte ek
ja lokamān vishiṣhṭa avagāhanashaktine līdhe pūrvokta anant saṅkhyāvāḷā jīvo ane anantānant
pudgalo avakāsh pāme chhe, emān koī virodh nathī. paramāgamamān (shrī gommaṭasār jīvakāṇḍ gā.
195 mān) jīvonī avagāhanashaktinun svarūp paṇ kahyun chhe ke
gā. 64 mān) pudgalonī avagāhanashaktinun svarūp paṇ kahyun chhe ke
नास्ति विरोधः इति
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ane bākīnān dravyo potapotānun svarūp chhoḍatān nathī. 25.
शेषद्रव्याणि च स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्ति
स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं, पुद्गलद्रव्य अपने वर्णादि स्वरूपको नहीं छोड़ता, और धर्मादि अन्य
द्रव्य भी अपने अपने स्वरूपको नहीं छोड़ते हैं
जीवाः ] नरकादि चारों गतियोंके दुःखोंको सहते हुए जीव [संसारं ] संसारमें [भ्रमंति ]
भटकते हैं
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vyavahāranayathī gatimān sahakārī chhe tem ja adharmadravya sthitimān sahakārī chhe, te ja vyavahāranayathī
(upacharit asadbhūtavyavahāranayathī) ākāshadravya avakāshadān āpe chhe tem ja kāḷadravya
shubhāshubh pariṇāmomān sahakārī chhe.
गतिसहकारित्वं करोति, तथैवाधर्मद्रव्यं स्थितिसहकारित्वं करोति, तेनैव व्यवहारनयेन
आकाशद्रव्यमवकाशदानं ददाति, तथैव कालद्रव्यं च शुभाशुभपरिणामसहकारित्वं करोति
भावार्थः
मन, श्वासोश्वास, इन चारोंको उत्पत्ति करता है, अर्थात् मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, रागद्वेषादि
विभावपरिणाम हैं, इन विभाव परिणामोंके योगसे जीवके पुद्गलका सम्बन्ध हैं, और पुद्गलके
संबन्धसे ये हैं, धर्मद्रव्य उपचरितासद्भूत व्यवहारनयकर गतिसहायी है
-अशुभ परिणामोंका सहायी है
हुए संसारमें भटकते हैं, यह तात्पर्य हुआ
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लगकर [लघु ] शीघ्र ही [परलोकः गम्यते ] उत्कृष्ट लोकरूप मोक्षमें जाना चाहिये
उत्पन्न जो अतिन्द्रिय सुख उससे विपरीत आकुलताके उपजानेवाले हैं, ऐसा जानकर हे जीव,
chheḥ
bhedābhedaratnatrayasvarūp mārgamān sthit thaīne par arthāt paramātmā tenā avalokanarūp-
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परिणमनरूप मोक्ष उसमें गमन कर
हैं
[ज्ञानं चारित्रं ] ज्ञान और चारित्रको [शृणु ] सुन, [येन ] जिसके धारण करनेसे [परमेष्ठिनम्
प्राप्नोषि ] सिद्धपरमेष्ठिके पदको पावेगा
chheḥ
गम्यत इति भावार्थः
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व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुर्भिः प्राणैर्जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः
kaī rīte ghaṭe chhe, te kahe chhe.)
sadbhāv nahīn hovāthī, mukhyapaṇe to apariṇāmī chhe.
लेकिन जीव पुद्गलकी तरह विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे विभावपरिणमन नहीं है, इसलिये
मुख्यतासे परिणामी दो द्रव्य ही कहे हैं, शुद्धनिश्चयनयकर शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव जो शुद्ध
चैतन्यप्राण उनसे जीता है, जीवेगा, पहले जी आया, और व्यवहारनयकर इंद्री, बल, आयु,
श्वासोश्वासरूप द्रव्यप्राणोंकर जीता है, जीवेगा, पहले जी चुका, इसलिये जीवको ही जीव कहा
गया है, अन्य पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं, स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति सहित मूर्तीक
एक पुद्गलद्रव्य ही है, अन्य पाँच अमूर्तीक हैं
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पुनर्बहुप्रदेशलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम्
dravyabhāvarūp chār prāṇothī je jīve chhe, jīvashe ane pūrve jīvato hato te jīv chhe, ane pudgalādi
pāñch dravyo ajīvarūp chhe.
vyavahāranayathī mūrta chhe topaṇ shuddhanishchayanayathī amūrta chhe, ane dharma, adharma, ākāsh ane kāḷ
e chār dravyo amūrta chhe.
kāyatvano abhāv hovāthī apradesh chhe.
असंख्यातप्रदेशी जीवद्रव्यको आदि लेकर पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय हैं, वे सप्रदेशी हैं, और
कालद्रव्य बहुप्रदेश स्वभावकायपना न होनेसे अप्रदेशी है, धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य
एक एक हैं, और जीव, पुद्गल, काल ये तीनों अनेक हैं
क्षेत्र कहा गया है, बाकी पाँच द्रव्य अक्षेत्री हैं, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गमन करना, वह चलन
हलनवती क्रिया कही गई है, यह क्रिया जीव पुद्गल दोनोंके ही है, और धर्म, अधर्म, आकाश,
काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं, जीवोंमें भी संसारी जीव हलन
तो सभी द्रव्य नित्य हैं, अर्थपर्याय जो षट्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वभावपर्याय है, उसकी अपेक्षा
सब ही अनित्य हैं, तो भी विभावव्यंजनपर्याय जीव और पुद्गल इन दोनोंकी है, इसलिये इन
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पुनर्निष्क्रियाणि
द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्ये तथाप्यगुरुलघुपरिणति
ane kāḷ e chār dravyo to niṣhkriy chhe.
nitya chhe jyāre jīvapudgaladravya to-joke dravyārthikanayanī apekṣhāe nitya chhe topaṇ aguru-
laghupariṇatirūp svabhāvaparyāyanī apekṣhāe ane vibhāvavyañjanaparyāyanī apekṣhāe anitya chhe.
निश्चयसे जानना कि चार नित्य हैं, दो अनित्य हैं, तथा द्रव्यकर सब ही नित्य हैं, कोई भी
द्रव्य विनश्वर नहीं है, जीवको पाँचों ही द्रव्य कारणरूप हैं, पुद्गल तो शरीरादिकका कारण
है, धर्म-अधर्मद्रव्य गति स्थितिके कारण हैं, आकाशद्रव्य अवकाश देनेका कारण है, और काल
वर्तनाका सहायी है
द्रव्योंको अकारण है, और ये पाँचों कारण हैं, शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक
शुद्धद्रव्यार्थिकनयकर यह जीव यद्यपि बंध, मोक्ष, पुण्य, पापका कर्ता नहीं है, तो भी
अशुद्धनिश्चयनयकर शुभ-अशुभ उपयोगसे परिणत हुआ पुण्य-पापके बंधका कर्ता होता है, और
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करोतीत्यकारणम्
परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
शुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन
chhe topaṇ
ashuddhanishchayanayathī shubhāshubh upayogarūpe pariṇamato thako puṇya-pāpabandhano kartā ane tenān phaḷano
bhoktā chhe. ane vishuddhagnān-vishuddhadarshan jeno svabhāv chhe evā nijashuddhātmadravyanā
samyakshraddhān, samyaggnān, samyag anuṣhṭhānarūp shuddhopayog vaḍe te-rūpe pariṇamato thako mokṣhano
paṇ kartā chhe ane tenā phaḷano bhoktā chhe. shubh, ashubh, shuddhapariṇāmorūpe pariṇamavun te ja
kartāpaṇun sarvatra jāṇavun ane pudgalādi pāñchadravyone potapotānā pariṇāmarūp pariṇamavun te ja
kartāpaṇun chhe ane vastudraṣhṭithī to puṇya-pāp ādirūpe kartāpaṇun nathī ja.
आचरणरूप शुद्धोपयोगकर परिणत हुआ मोक्षका भी कर्ता होता है, और अनंतसुखका भोक्ता
होता है
जो परिणमन वही कर्तापना है, पुण्य पापादिका कर्तापना नहीं है, सर्वगतपना लोकालोक
व्यापकताकी अपेक्षा आकाश ही में है, धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्य ये दोनों लोकाकाशव्यापी हैं,
अलोकमें नहीं है, और जीवद्रव्यमें एक जीवकी अपेक्षा केवलसमुद्घातमें लोकपूरण अवस्थामें
लोकमें सर्वगतपना है, तथा नाना जीवकी अपेक्षा सर्वगतपना नहीं है, पुद्गलद्रव्य लोकप्रमाण
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जीवापेक्षया सर्वगतमेव भवतीति
चेतनादिस्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति
jīvanī apekṣhāe, sarvagat ja chhe. vaḷī pudgaladravya lokarūp mahāskandhanī apekṣhāe sarvagat
chhe, bākīnā pudgalanī apekṣhāe sarvagat nathī, vaḷī kāḷadravya ek ek kāḷāṇudravyanī apekṣhāe
sarvagat nathī, lokanā pradesho jeṭalā anek kāḷāṇunī vivakṣhāthī lokamān sarvagat chhe.
pañchāstikāy gāthā 7mān) kahyun paṇ chhe ke
svabhāvane chhoḍatān nathī.)
कालाणुकी अपेक्षा तो एकप्रदेशगत है, सर्वगत नहीं है, और नाना कालाणुकी अपेक्षा
लोकाकाशके सब प्रदेशोंमें कालाणु है, इसलिये सब कालाणुओंकी अपेक्षा सर्वगत कह सकते
हैं
व्यापक है, इसलिये सर्वगत कहा
है, सभी द्रव्य निज निज स्वरूपमें हैं, पररूप नहीं हैं
अन्यको अन्य अवकाश देता है, तो भी अपना अपना अवकाश आपमें ही है, परमें नहीं है,
यद्यपि ये द्रव्य हमेशासे मिल रहे हैं, तो भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते
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कायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयम्
nijashuddhātmadravya ja upādey chhe. 28.
viṣhay chhe) evā vyavahār samyaktvanān vyākhyānanī mukhyatāthī samāpta thayun.
वह शुभ, अशुभ, मन, वचन, कायके व्यापारसे रहित हुआ ध्यावने योग्य है
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भङ्गयात्मकं वा तत् तथा जानाति य आत्मसंबन्धी स्वपरिच्छेदको भावः परिणामस्तत् सम्यग्-
ज्ञानं भवति
je ātmāno sva-paraparichchhedak bhāv-pariṇām-jāṇe chhe, te samyaggnān chhe.
kāḷe, joke bahir upayog anīhit chhe kharo topaṇ ihāpūrvak vikalpano abhāv hovāne līdhe
tenun gauṇapaṇun hovāthī svasamvedanagnānane ja gnān kahevāmān āve chhe. 29.
निजस्वरूप [ज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा [मन्यस्व ] तू मान
जो आत्माका भाव (परिणाम) वह सम्यग्ज्ञान है
निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प समाधिसमय पदार्थोंका जानपना मुख्य नहीं लिया, केवल
स्वसंवेदनज्ञान ही निश्चयसम्यग्ज्ञान है
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हवेइ ज्ञानिनां पुरुषाणां चरणं भवतीति
ane shaṅkādi doṣh rahit evā samyaktva pariṇāmathī shraddhīne, māyā, mithyātva ane
nidān e traṇ shalyathī māṇḍīne samasta chintājāḷanā tyāg vaḍe, paramānandarūp
हैं
[त्यजति ] छोड़ता है [सः ] वह [निजः शुद्धः भावः ] आत्माका निज शुद्ध भाव [ज्ञानिनां ]
ज्ञानी पुरुषोंके [चरणं ] चारित्र [भवति ] होता है
इन तीनोंसे रहित है
लेकर समस्त चिंता
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परिणामेन श्रद्धाय च यः कर्ता मायामिथ्यानिदानशल्यप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालत्यागेन निजशुद्धात्म-
स्वरूपे परमानन्दसुखरसास्वादतृप्तो भूत्वा तिष्ठति स पुरुष एवाभेदेन निश्चयचारित्रं भवतीति
भावार्थः
सम्यग्ज्ञानचारित्रमुख्यत्वेन सूत्रद्वयमिति समुदायेनैकोनविंशतिसूत्रस्थलं समाप्तम्
nishchayachāritra chhe. 30.
vyavahārasamyaktvanā vyākhyānanī mukhyatāthī chaud gāthāsūtro samyaggnān ane samyakchāritranī
mukhyatāthī be sūtro e pramāṇe samudāyarūpe ogaṇīs sūtronun sthaḷ samāpta thayun.
दोहोंमें छह द्रव्यकी श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्वका व्याख्यान किया, तथा दो दोहोंमें
सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका मुख्यतासे वर्णन किया
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भवतीति
वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य
bhedaratnatrayano ane nishchayanayathī vītarāg sadā-ānand jenun ek rūp chhe evā sukhasudhārasanā
āsvādathī pariṇat nijashuddhātmatattvanān samyakshraddhān, samyaggnān ane samyaganucharaṇarūp
abhedaratnatrayano je bhakta chhe tenun ā lakṣhaṇ jāṇo. ā kyun? joke vyavahāranayathī savikalpa
avasthāmān chittane sthir karavā māṭe devendra chakravartī ādi vibhūtinun visheṣh kāraṇ, paramparāe
shuddha ātmānī prāptinā hetubhūt evān, pañchaparameṣhṭhīnā rūpanun stavan, vastustavan, guṇastavanādik
हैं
है, अन्य नहीं
करने योग्य हैं, व्रत, शीलादि पालने योग्य हैं, ये लक्षण व्यवहाररत्नत्रयके हैं, सो व्यवहारका
नाम भेद हैं, वह भेदरत्नत्रय आराधने योग्य है, उसके प्रभावसे निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति है
हुआ उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रय है, उसका जो भक्त (आराधक)
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परमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तवगुणस्तवादिकं वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं
प्राथमिकानां ध्येयं भवति, तथापि पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाद्यनन्तगुण-
परिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति
pūrvokta nishchayaratnatrayanī pariṇatinā kāḷe kevaḷagnānādi anantaguṇapariṇat svashuddhātmā ja dhyāvavā
yogya chhe.
देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूतिका कारण है, और परम्पराय शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका कारण
है, सो प्रथम अवस्थामें भव्यजीवोंको पंचपरमेष्ठी ध्यावने योग्य हैं, उनके आत्माका स्तवन,
गुणोंकी स्तुति, वचनसे उनकी अनेक तरहकी स्तुति करनी, और मनसे उनके नामके अक्षर तथा
उनका रूपादिक ध्यावने योग्य हैं, तो भी पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्तिके समय केवलज्ञानादि
अनंतगुणरूप परिणत जो निज शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, अन्य नहीं
पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना योग्य है, और निर्विकल्पदशामें निजस्वरूप ही ध्यावने योग्य है,
निजरूप ही उपादेय हैं
करते हैं
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पुरुषाः आराधका भवन्ति
chhe, mokṣhapadanā ārādhako nij ātmāne dhyāve chhe.
teo ‘shiv’ shabdathī vāchya evā mokṣhapadanā ārādhako chhe.
आराधक हैं, और वे ही [निजात्मानं ] मोक्षपदके आराधक हुए अपने आत्माको [ध्यायंति ]
ध्यावते हैं