Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (simplified iso15919 transliteration). Gatha: 196-197 (Adhikar 2),198 (Adhikar 2) Paramatmaprakash Shabdno Artha,199 (Adhikar 2),200 (Adhikar 2),201 (Adhikar 2) Siddhaswaroopanu Katha,202 (Adhikar 2),203 (Adhikar 2),204 (Adhikar 2) Paramatmaprakashnu Phal,205 (Adhikar 2),206 (Adhikar 2),207 (Adhikar 2) Paramatmaprakash Mate Yogya Purush,208 (Adhikar 2),209 (Adhikar 2),210 (Adhikar 2),211 (Adhikar 2).

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adhikār-2ḥ dohā-196 ]paramātmaprakāshaḥ [ 527
घातिकर्मचतुष्के विलयं गते सति किं कुर्वन् सन् पूर्वम् सिव-पय-मग्गि वसंतु शिवशब्द-
वाच्यं यन्मोक्षपदं तस्य योऽसौ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयैकलक्षणो मार्गस्तस्मिन् वसन् सन्
केषां सताम् सयल-वियप्पहं तुट्टाहं समस्तविकल्पानां नष्टानां समस्तरागादिविकल्प-
विनाशादनन्तरं भवतीति भावार्थः ।।१९५।।
अथ
३२७) केवलणाणिं अणवरउ लोयालोउ मुणंतु
णियमेँ परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहंतु ।।१९६।।
केवलज्ञानेनानवरतं लोकालोकं मन्यमानः
नियमेन परमानन्दमयः आत्मा भवति अर्हन् ।।१९६।।
हुइ भवति कोऽसौ अप्पा आत्मा कथंभूतो भवति अरहंतु पूर्वोक्त लक्षणो
अर्हन् किं कुर्वन् लोयालोउ मुणंतु क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन कालत्रयविषयं लोकालोकं
vilay thatān arhant thāy chhe. ari arthāt mohanīy karma teno nāsh thavāthī, rajasī arthāt
gnānāvaraṇ, darshanāvaraṇ banneyano nāsh thavāthī ane rahasya shabdathī antarāy samajavo.
antarāyakarmano nāsh thavāthī devendrādi rachit, atishayavān (sātishay) pūjāne yogya chhe te
arhant chhe, e bhāvārtha chhe. 195.
vaḷī (have kevaḷagnānano mahimā kahe chhe)ḥ
bhāvārthaḥlokālokaprakāshak sakaḷ vimaḷ kevaḷagnānathī kram, karaṇ, vyavadhān
केवलज्ञानीका नाम अर्हंत है, चाहे उसे जीवन्मुक्त कहो जब अरहंत हुआ, तब भावमोक्ष हुआ,
पीछे चार अघातियाकर्मोंको नाशकर सिद्ध हो जाता है सिद्धको विदेहमोक्ष कहते हैं यही
मोक्ष होनेका उपाय है ।।१९५।।
अब केवलज्ञानकी ही महिमा कहते हैं
गाथा१९६
अन्वयार्थ :[केवलज्ञानेन ] केवलज्ञानसे [लोकालोकं ] लोक-अलोकको
[अनवरतं ] निरन्तर [जानन् ] जानता हुआ [नियमेन ] निश्चयसे [परमानंदमयः ] परम
आनंदमयी [आत्मा ] यह आत्मा ही रत्नत्रयके प्रसादसे [अर्हन् ] अरहंत [भवति ] होता है
भावार्थ :समस्त लोकालोकको एक ही समयमें केवलज्ञानसे जानता हुआ अरहंत

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528 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-197
वस्तु वस्तुरूपेण युगपत् जानन् सन् केन केवल-णाणि लोकालोकप्रकाशकसकल-
विमलकेवलज्ञानेन कथम् अणवरउ निरन्तरम् किं विशिष्टो भवति भगवान्
परमाणंदमउ वीतरागपरमसमरसीभावलक्षणतात्त्विकपरमानन्दमयः केन णियमें निश्चयेन अत्र
संदेहो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ।।१९६।।
अथ
३२८) जो जिणु केवल-णाणमउ परमाणंदसहाउ
सो परमप्पउ परमपरु सो जिय अप्पसहाउ ।।१९७।।
यः जिनः केवलज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः
सः परमात्मा परमपरः स जीव आत्मस्वभावः ।।१९७।।
rahitapaṇe traṇ kāḷanā viṣhayone, lokālokanā padārthone vastusvarūpe nirantar yugapat jāṇato thako,
ātmā nishchayathī vītarāgaparamasamarasī bhāv svarūp tāttvik paramānandamay lakṣhaṇavāḷo arhant thāy
chhe emān sandeh na karavo joīe, e abhiprāy chhe. 196.
vaḷī (have em kahe chhe ke kevaḷagnān ja ātmāno nijasvabhāv chhe ane kevaḷīne ja
paramātmā kahe)ḥ
कहलाता है जिसका ज्ञान जाननेके क्रमसे रहित है एक ही समयमें समस्त लोकालोकको
प्रत्यक्ष जानता है, आगे पीछे नहीं जानता सब क्षेत्र, सब काल, सब भावको निरंतर प्रत्यक्ष
जानता है जो केवलीभगवान् परम आनंदमयी हैं वीतराग परमसमरसीभावरूप जो परम आनंद
अतीन्द्रिय अविनाशी सुख वही जिसका लक्षण है निश्चयसे ज्ञानानंदस्वरूप है, इसमें संदेह
नहीं है ।।१९६।।
आगे ऐसा कहते हैं, कि केवलज्ञान ही आत्माका निजस्वभाव है, और केवलीको ही
परमात्मा कहते हैं
गाथा१९७
अन्वयार्थ :[यः जिनः ] जो अनंत संसाररूपी वनके भ्रमणके कारण ज्ञानावरणादि
आठ कर्मरूपी बैरी उनका जीतनेवाला वह [केवलज्ञानमयः ] केवलज्ञानादि अनंत गुणमयी है
[परमानंदस्वभावः ] और इंद्रिय विषयसे रहित आत्मीक रागादि विकल्पोंसे रहित परमानंद ही
जिसका स्वभाव है, ऐसा जिनेश्वर केवलज्ञानमयी अरहंतदेव [सः ] वही [परमात्मा ] उत्कृष्ट

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adhikār-2ḥ dohā-197 ]paramātmaprakāshaḥ [ 529
जो इत्यादि जाे यः जिणु अनेकभवगहनव्यसनप्रापणहेतून् कर्मारातीन् जयतीति
जिनः कथंभूतः केवल-णाणमउ केवलज्ञानाविनाभूतानन्तगुणमयः पुनरपि कथंभूतः
परमाणंद-सहाउ इन्द्रियविषयातीतः स्वात्मोत्थः रागादिविकल्परहितः परमानन्दस्वभावः सो
परमप्पउ स पूर्वोक्तोऽर्हन्नेव परमात्मा परम-परु प्रकृष्टानन्तज्ञानादिगुणरूपा मा लक्ष्मीर्यस्य
स भवति परमः संसारिभ्यः पर उत्कृष्टः इत्युच्यते परमश्चासौ परश्च परमपरः
साे स
पूर्वोक्तो वीतरागः सर्वज्ञः
जिय हे जीव अप्प-सहाउ आत्मस्वभाव इति
अत्र योऽसौ
पूर्वोक्त भणितो भगवान् स एव संसारावस्थायां निश्चयनयेन शक्ति रूपेण जिन इत्युच्यते
केवलज्ञानावस्थायां व्यक्ति रूपेण च तथैव च परमब्रह्मादिशब्दवाच्यः स एव तदग्रे स्वयमेव
कथयति निश्चयनयेन सर्वे जीवा जिनस्वरूपाः जिनोऽपि सर्वजीवस्वरूप इति भावार्थः
bhāvārthaḥje bhavavanamān anek duḥkhonī prāptinā hetubhūt karmarūpī shatrune jīte chhe
te jin chhe. te jin kevaḷagnānanī sāthe avinābhāvī anantaguṇamay chhe. indriyanā viṣhayothī
rahit, sva-ātmāthī utpanna, rāgādi vikalpa rahit, paramānand svabhāvī chhe, te pūrvokta
arhant ja paramātmā chhe, parameshvar chhe. param-utkr̥uṣhṭa anantagnānādi guṇarūp mā arthāt lakṣhmī
jene chhe te param chhe, sansārīothī par eṭale utkr̥uṣhṭa chhe. āvā je param par te param
chhe, te-pūrvokta vītarāg sarvagna chhe. he jīv! te ātmasvabhāv chhe.
ahīn, pūrvokta kathit bhagavān te ja sansār-avasthāmān nishchayanayathī shaktirūpe ‘jin’
kahevāy ane kevaḷagnān-avasthāmān vyaktirūpe ‘jin’ chhe. te ja pramāṇe param-brahmādi shabdathī vāchya
evā tene ja āgaḷ svayamev kathan karashe.
nishchayanayathī sarvajīvo jinasvarūp chhe, jineshvar sarvajīv
अनंत ज्ञानादि गुणरूप लक्ष्मीवाला आत्मा परमात्मा है उसीको वीतराग सर्वज्ञ कहते हैं,
[जीव ] हे जीव, वही [परमपरः ] संसारियोंसे उत्कृष्ट है, ऐसा जो भगवान् वह तो व्यक्तिरूप
है, और [स आत्मस्वभावः ] वह आत्माका ही स्वभाव है
भावार्थ :संसार अवस्थामें निश्चयनयकर शक्तिरूप विराजमान है, इसलिये
संसारीको शक्तिरूप जिन कहते हैं, और केवलीको व्यक्तिरूप कहते हैं द्रव्यार्थिकनयकर जैसे
भगवान् हैं, वैसे ही सब जीव हैं, इस तरह निश्चयनयकर जीवको परब्रह्म कहो, परमशिव कहो,
जितने भगवान्के नाम हैं, उतने ही निश्चयनयकर विचारो तो सब जीवोंके हैं, सभी जीव
जिनसमान हैं, और जिनराज भी जीवोंके समान हैं, ऐसा जानना
ऐसा दूसरी जगह भी कहा
है जो सम्यग्दृष्टि जीवोंको जिनवर जाने, और जिनेश्वरको जीव जाने, जो जीवोंकी जाति है,
वही जिनवरकी जाति है, और जो जिनवरकी जाति है, वही जीवोंकी जाति है, ऐसे महामुनि

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530 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-198
तथा चोक्त म्‘‘जीवा जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ सो समभावि परिट्ठयउ
लहु णिव्वाणु लहेइ ।।’’ ।।१९७।। एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये अर्हदवस्थाकथन-
मुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण द्वितीयमन्तरस्थलं गतम्
अत ऊर्ध्वं परमात्मप्रकाशशब्दस्यार्थकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति
तद्यथा
३२९) सयलहँ कम्महँ दोसहँ वि जो जिणु देउ विभिण्णु
सो परमप्प-पयासु तुहुँ जोइय णियमेँ मण्णु ।।१९८।।
सकलेभ्यः कर्मभ्यः दोषेभ्यः अपि यो जिनः देवः विभिन्नः
तं परमात्मप्रकाशं त्वं योगिन् नियमेन मन्यस्व ।।१९८।।
svarūp chhe, e bhāvārtha chhe. vaḷī kahyun paṇ chhe ke‘‘जीवा जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ सो
समभावि परिट्ठियउ लहु णिव्वाणु लहेइ ।।’’ (arthaje jīvone jinavar jāṇe chhe ane jinavarane jīv
jāṇe chhe te samabhāvamān sthit thaīne shīghra nirvāṇane pāme chhe.) 197.
e pramāṇe chovīs sūtronā mahāsthaḷamān arhant-avasthānā kathananī mukhyatāthī traṇ
gāthāsūtrothī bījun antarasthaḷ samāpta thayun.
ānā pachhī paramātmaprakāsh shabdanā arthanā kathananī mukhyatāthī traṇ dohāsūtra sudhī
vyākhyān kare chhe te ā pramāṇeḥ
द्रव्यार्थिकनयकर जीव और जिनवरमें जातिभेद नहीं मानते, वे मोक्ष पाते हैं ।।१९७।।
इसप्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें अरहंतदेवके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें
दूसरा अंतरस्थल कहा
आगे परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहा कहते हैं
गाथा१९८
अन्वयार्थ :[सकलेभ्यः कर्मभ्यः ] ज्ञानावरणादि अष्टकर्मोंसे [दोषेभ्यः अपि ] और
सब क्षुधादि अठारह दोषोंसे [विभिन्नः ] रहित [यः जिनदेवः ] जो जिनेश्वरदेव हैं, [तं ] उसको
[योगिन् त्वं ] हे योगी, तू [परमात्मप्रकाशं ] परमात्मप्रकाश [नियमेन ] निश्चयसे [मन्यस्व ]
मान
अर्थात् जो निर्दोष जिनेन्द्रदेव हैं, वही परमात्मप्रकाश हैं
1 juo ṣhaṭprābhr̥ut ṭīkā pr̥u. 342.

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adhikār-2ḥ dohā-199 ]paramātmaprakāshaḥ [ 531
साे तं परमप्प-पयासु परमात्मप्रकाशसंज्ञं तुहुं त्वं कर्ता मण्णु मन्यस्व जानीहि जोइय
हे योगिन् णियमें निश्चयेन स कः जो जिणु देउ यो जिनदेवः किंविशिष्टः विभिण्ण
विशेषेण भिन्नः केभ्यः सयलहं कम्महं रागादिरहितचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मनो यानि
भिन्नानि सर्वकर्माणि तेभ्यः न केवलं कर्मभ्यो भिन्नः दोसहं वि टङ्कोत्कीर्ण-
ज्ञायकैकस्वभावस्य परमात्मनो येऽनन्तज्ञानसुखादिगुणास्तत्प्रच्छादका ये दोषास्तेभ्योऽपि भिन्न
इत्यभिप्रायः
।।१९८।।
अथ
३३०) केवल-दंसणु णाणु सुहु वीरिउ जो जि अणंतु
सो जिणदेउ वि परममुणि परमपयासु मुणंतु ।।१९९।।
केवलदर्शनं ज्ञानं सुखं वीर्यं य एव अनन्तम्
स जिनदेवोऽपि परममुनिः परमप्रकाशं मन्यमानः ।।१९९।।
bhāvārthaḥrāgādi rahit chidānand jeno ek svabhāv chhe evā paramātmāthī bhinna
je sarva karmo chhe tenāthī ane ṭaṅkotkīrṇa gnāyak ja jeno ek svabhāv chhe evā paramātmānā je
anantagnānasukhādi guṇo chhe temane āchchhādan karanārā je doṣho chhe tenāthī paṇ bhinna je
jinadev chhe tene he yogī! tun nishchayathī paramātmaprakāsh jāṇ (paramātmaprakāsh sañgnāvāḷo
paramātmā jāṇ.) e abhiprāy chhe. 198.
pharīne paṇ ā kathanane draḍh kare chheḥ
भावार्थ :रागादि रहित चिदानंदस्वभाव परमात्मासे भिन्न जो सब कर्म वे ही
संसारके मूल हैं जगतके जीव तो कर्मोंकर सहित हैं, और भगवान् जिनराज इनसे मुक्त हैं,
और सब दोषोंसे रहित हैं वे दोष सब संसारीजीवोंके लग रहे हैं, ज्ञायकस्वभाव आत्माके
अनंतज्ञान सुखादि गुणोंके आच्छादक हैं उन दोषोंसे रहित जो सर्वज्ञ वही परमात्मप्रकाश हैं,
योगीश्वरोंके मनमें ऐसा ही निश्चय है श्रीगुरु शिष्यसे कहते हैं कि हे योगिन्, तू निश्चयसे
ऐसा ही मान वही सत्पुरुषोंका अभिप्राय है ।।१९८।।
फि र भी इसी कथनको दृढ़ करते हैं
गाथा१९९
अन्वयार्थ :[केवलदर्शनं ज्ञानं सुखं वीर्यं ] केवलदर्शन, केवलज्ञान, अनंतसुख,

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532 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-200
सो जिण-देउ वि स जिनदेवोऽपि एवं भवति न केवलं जिनदेवो भवति परम-मुणि
परम उत्कृष्टो मुनिः प्रत्यक्षज्ञानी किं कुर्वन् सन् मुणंतु मन्यमानो जानन् सन् कम्
परम-पयासु परममुत्कृष्टं लोकालोकप्रकाशकं केवलज्ञानं यस्य स भवति परमप्रकाशस्तं
परमप्रकाशम्
स कः केवल-दंसणु णाणु सुहु वीरिउ जो जि केवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपं
य एव कथंभूतं तत् केवलज्ञानादिचतुष्टयम् अणंतु युगपदनन्तद्रव्यक्षेत्रकालभाव-
परिच्छेदकत्वादविनश्वरत्वाच्चानन्तमिति भावार्थः ।।१९९।।
अथ
३३१) जो परमप्पउ परमपउ हरि हरु बंभु वि बुद्धु
परम पयासु भणंति मुणि सो जिणदेउ विसुद्धु ।।२००।।
यः परमात्मा परमपदः हरिः हरः ब्रह्मापि बुद्धः
परमप्रकाशः भणन्ति मुनयः स जिनदेवो विशुद्धः ।।२००।।
bhāvārthaḥutkr̥uṣhṭa lokālokaprakāshak kevaḷagnān jene chhe te param prakāshak chhe. te
paramaprakāshane jāṇato thako yugapat anant dravya, kṣhetra, kāḷ ane bhāvanā parichchhedak hovāthī tem
ja avinashvar hovāthī anant chhe evā kevaḷagnān, kevaḷadarshan, sukh ane vīryasvarūp je chhe te
ja jinadev chhe, tem ja utkr̥uṣhṭa muni
pratyakṣha gnānīchhe, e bhāvārtha chhe. 199.
vaḷī, have jinadevanān anek nām chhe, em nakkī kare chheḥ
अनंतवीर्य [यदेव अनंतम् ] ये अनंतचतुष्टय जिसके हों [स जिनदेवः ] वही जिनदेव है,
[परममुनिः ] वही परममुनि अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञानी है
क्या करता संता [परमप्रकाशं जानन् ]
उत्कृष्ट लोकालोकका प्रकाशक जो केवलज्ञान वही जिसके परमप्रकाश है, उससे सकल द्रव्य,
क्षेत्र, काल, भव, भावको जाना हुआ परमप्रकाशक है
ये केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टय एक
ही समयमें अनंतद्रव्य, अनंतक्षेत्र, अनंतकाल और अनंतभावोंको जानते हैं, इसलिये अनंत हैं,
अविनश्वर हैं, इनका अंत नहीं है, ऐसा जानना
।।१९९।।
आगे जिनदेवके ही अनेक नाम हैं, ऐसा निश्चय करते हैं
गाथा२००
अन्वयार्थ :[यः ] जिस [परमात्मा ] परमात्माको [मुनयः ] मुनि [परमपदः ]
परमपद [हरिः हरः ब्रह्मा अपि ] हरि महादेव ब्रह्मा [बुद्धः परमप्रकाशः भणंति ] बुद्ध और

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adhikār-2ḥ dohā-200 ]paramātmaprakāshaḥ [ 533
भणंति कथयन्ति के ते मुणि मुनयः प्रत्यक्षज्ञानिनः कथंभूतं भणन्ति परमपयास
परमप्रकाशः यः कथंभूतः जो परमप्पउ यः परमात्मा पुनरपि कथंभूतः परम-पउ
परमानन्तज्ञानादिगुणाधारत्वेन परमपदस्वभावः किंविशिष्टः हरि हरिसंज्ञः हरु महेश्वराभिधानः
बंभु वि परमब्रह्माभिधानोऽपि बुद्धु बुद्धः सुगतसंज्ञः सो जिण-देउ स एव पूर्वोक्त : परमात्मा
जिनदेवः
किंविशिष्टः विसुद्धु समस्तरागादिदोषपरिहारेण शुद्ध इति अत्र य एव परमात्मसंज्ञो
निर्दोषिपरमात्मा व्याख्यातः स एव परमात्मा, स एव परमपदः, स एव विष्णुसंज्ञः, स
एवेश्वराभिधानः, स एव ब्रह्मशब्दवाच्यः, स एव सुगतशब्दाभिधेयः, स एव जिनेश्वरः, स एव
विशुद्ध इत्याद्यष्टाधिकसहस्रनामाभिधेयो भवति
नानारुचीनां जनानां तु कस्यापि केनापि
विवक्षितेन नाम्नाराध्यः स्यादिति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘नामाष्टकसहस्रेण युक्तं
vistār:je paramaprakāsh nāmano paramātmā chhe te ja paramātmā, gnānādi anant
guṇonā ādhār hovāthī paramapadasvabhāv hari, maheshvar nāmano har, paramabrahma nāmano brahmā,
sugat nāmano buddha, samasta rāgādi doṣhanā tyāg vaḍe shuddha jinadev chhe em munio
pratyakṣha
gnānīokahe chhe.
bhāvārthaḥahīn paramātmaprakāsh nāmanā je nirdoṣh paramātmānun vyākhyān karyun chhe, te
ja paramātmā chhe, te ja paramapad chhe, tenun nām ja viṣhṇu chhe, tenun nām ja maheshvar chhe, te ja
‘brahma’ shabdathī vāchya chhe, te ja ‘sugat’ shabdathī abhidhey chhe, te ja jineshvar chhe, te ja vishuddha
chhe ityādi ek hajār āṭh nāmavāḷā chhe em pratyakṣha gnānīo kahe chhe.
judī judī ruchivāḷā jīvone te koī ek vivakṣhit nāmathī ārādhya chhe, evo bhāvārtha
chhe. kahyun paṇ chhe ke ‘‘नामाष्टकसहस्रेण युक्तं मोक्षपुरेश्वरम्’’ इत्यादि (arthaek hajār āṭh
परमप्रकाश नामसे कहते हैं, [सः ] वह [विशुद्धः जिनदेवः ] रागादि रहित शुद्ध जिनदेव ही
है, उसीके ये सब नाम हैं
।।
भावार्थ :प्रत्यक्षज्ञानी उसे परमानंद ज्ञानादि गुणोंका आधार होनेसे परमपद कहते
हैं वही विष्णु है, वही महादेव है, उसीका नाम परब्रह्म है, सबका ज्ञायक होनेसे बुद्ध है,
सबमें व्यापक ऐसा जिनदेव देवाधिदेव परमात्मा अनेक नामोंसे गाया जाता है समस्त रागादिक
दोषके न होनेसे निर्मल है, ऐसा जो अरहंतदेव वही परमात्म परमपद, वही विष्णु, वही ईश्वर,
वही ब्रह्म, वही शिव, वही सुगत, वही जिनेश्वर, और वही विशुद्ध
इत्यादि एक हजार आठ
नामोंसे गाया जाता है नाना रुचिके धारक ये संसारी जीव वे नाना प्रकारके नामोंसे जिनराजको
आराधते हैं ये नाम जिनराजके सिवाय दूसरेके नहीं हैं ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें भी कहा है

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534 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-201
मोक्षपुरेश्वरम्’’ इत्यादि ।।२००।। एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमात्माप्रकाश-
शब्दार्थकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण तृतीयमन्तरस्थलं गतम्
तदनन्तरं सिद्धस्वरूपकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति तद्यथा
३३२) झाणेँ कम्मक्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु
जिणवरदेवइँ सो जि जिय पभणिउ सिद्ध महंतु ।।२०१।।
ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मुक्तो भवति अनन्तः
जिनवरदेवेन स एव जीव प्रभणितः सिद्धो महान् ।।२०१।।
पभणिउ प्रभणितः कथितः केन कर्तृभूतेन जिणवरदेवइं जिनवरदेवेन कोऽसौ
nāmothī yukta mokṣhapuranā īshvar (svāmī) chhe (te jinadevane sarva ārādhe chhe) 200.
e pramāṇe chovīsh sūtronā mahāsthaḷamān paramātmaprakāsh shabdanā arthanī mukhyatāthī traṇ
gāthāsūtrathī trījun antarasthaḷ samāpta thayun.
tenā pachhī siddhasvarūpanā kathananī mukhyatāthī traṇ gāthāsūtra sudhī vyākhyān kare chhe. te
ā pramāṇeḥ
bhāvārthaḥrāgādivikalpa rahit svasamvedanagnānasvarūp dhyānathī vishuddhagnān, vishuddha-
एक हजार आठ नामों सहित वह मोक्षपुरका स्वामी उसकी आराधना सब करते हैं उसके
अनंत नाम और अनंतरूप हैं वास्तवमें नामसे रहित रूपसे रहित ऐसे भगवान् देवको हे
प्राणियो, तुम आराधो ।।२००।।
इसप्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थकी मुख्यतासे तीन
दोहोंमें तीसरा अन्तरस्थल कहा
आगे सिद्धस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं
गाथा२०१
अन्वयार्थ :[ध्यानेन ] शुक्लध्यानसे [कर्मक्षयं ] कर्मोंका क्षय [कृत्वा ] करके
[मुक्तः भवति ] जो मुक्त होता है, [अनंतः ] और अविनाशी है, [जीव ] हे जीव, [स एव ]
उसे ही [जिनवरदेवेन ] जिनवरदेवने [महान् सिद्धः प्रभणितः ] सबसे महान् सिद्ध भगवान्
कहा है
।।

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adhikār-2ḥ dohā-201 ]paramātmaprakāshaḥ [ 535
भणितः सिद्ध सिद्धः कथंभूतः महंतु महापुरुषाराधितत्वात् केवलज्ञानादिमहा-
गुणाधारत्वाच्च महान् क एव सो जि स एव स कः योऽसौ मुक्कउ होइ
ज्ञानावरणादिभिः कर्मभिर्मुक्तो रहितः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणसहितश्च जिय हे जीव कथंभूतः
अणंतु न विद्यतेऽन्तो विनाशो यस्य स भवत्यनन्तः किं कृत्वा पूर्वं मुक्तो भवति
कम्मक्खउ करिवि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावादात्मद्रव्याद्विलक्षणं यदार्तरौद्रध्यानद्वयं तेनोपार्जितं
यत्कर्म तस्य क्षयः कर्मक्षयस्तं कृत्वा
केन झाणें रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानलक्षणेन
ध्यानेनेति तात्पर्यम् ।।२०१।।
अथ
३३३) अण्णु वि बंधु वि तिहुयणहँ सासयसुक्खसहाउ
तित्थु जि सयलु वि कालु जिय णिवसइ लद्ध-सहाउ ।।२०२।।
भावार्थ :अरहंतपरमेष्ठी सकल सिद्धान्तोंके प्रकाशक हैं, वे सिद्ध परमात्माको
सिद्धपरमेष्ठी कहते हैं, जिसे सब संत पुरुष आराधते हैं केवलज्ञानादि महान् अनंतगुणोंके
धारण करनेसे वह महान् अर्थात् सबमें बड़े हैं जो सिद्धभगवान् ज्ञानावरणादि आठों ही
कर्मोंसे रहित हैं, और सम्यक्त्वादि आठ गुण सहित हैं ज्ञायकसम्यक्त्व, केवलज्ञान,
केवलदर्शन, अनंतवीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाधइन आठ गुणोंसे मंडित
हैं, और जिसका अन्त नहीं ऐसा निरंजनदेव विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे
विपरीत जो आर्त रौद्र खोटे ध्यान उनसे उत्पन्न हुए जो शुभ-अशुभ कर्म उनका
स्वसंवेदनज्ञानरूप शुक्लध्यानसे क्षय करके अक्षय पद पा लिया है
कैसा है शुक्लध्यान ?
रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित परम निराकुलतारूप है यही ध्यान मोक्षका मूल है, इसीसे
अनन्त सिद्ध हुए और होंगे ।।२०१।।
आगे फि र भी सिद्धोंकी महिमा कहते हैं
darshanasvabhāvavāḷā ātmadravyathī vilakṣhaṇ je ārta ane raudrarūp be dhyān chhe tenāthī upārjit
je karma chhe teno kṣhay karīne je gnānāvaraṇādi karmathī rahit ane samyaktvādi āṭh guṇ sahit
thāy chhe ane je avināshī chhe tene ja jinavaradeve siddha kahyā chhe
ke je siddha bhagavān
mahāpuruṣhothī ārādhit hovāthī ane kevaḷagnānādi mahāguṇonā ādhār hovāthī mahān chhe, e
tātparya chhe. 201.
have, pharī paṇ siddhono mahimā kahe chheḥ

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536 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-202
अन्यदपि बन्धुरपि त्रिभुवनस्य शाश्वतसौख्यस्वभावः
तत्रैव सकलमपि कालं जीव निवसति लब्धस्वभावः ।।२०२।।
अण्णु वि इत्यादि अण्णु वि अन्यदपि पुनरपि स पूर्वोक्त : सिद्धः कथंभूतः बंध
वि बन्धुरेव कस्य तिहुयणहं त्रिभुवनस्थभव्यजनस्य पुनरपि किं विशिष्टः सासय-सुक्ख-
सहाउ रागादिरहिताव्याबाधशाश्वतसुखस्वभावः एवंगुणविशिष्टः सन् किं करोति स भगवान्
तित्थजि तत्रैव मोक्षपदे णिवसइ निवसति कथंभूतः सन् लद्ध-सहाउ लब्धशुद्धात्मस्वभावः
कियत्कालं निवसति सयलु वि कालु समस्तमप्यनन्तानन्तकालपर्यन्तंिजय हे जीव इति
अत्रानेन समस्तकालग्रहणेन विमुक्तं भवति ये केचन वदन्ति मुक्तानां पुनरपि संसारे पतनं
भवति तन्मतं निरस्तमिति भावार्थः ।।२०२।।
अथ
गाथा२०२
अन्वयार्थ :[अन्यदपि ] फि र वे सिद्धभगवान् [त्रिभुवनस्य ] तीन लोकके
प्राणियोंका [बंधुरपि ] हित करनेवाले हैं, [शाश्वतसुखस्वभावः ] और जिनका स्वभाव
अविनाशी सुख है, और [तत्रैव ] उसी शुद्ध क्षेत्रमें [लब्धस्वभावः ] निजस्वभावको पाकर
[जीव ] हे जीव, [सकलमपि कालं ] सदा काल [निवसति ] निवास करते हैं, फि र चतुर्गतिमें
नहीं आवेंगे
भावार्थ :सिद्धपरमेष्ठी तीनलोकके नाथ हैं, और जिनका भव्यजीव ध्यान करके
भवसागरसे पार होते हैं, इसलिये भव्योंके बंधु हैं, हितकारी हैं जिनका रागादि रहित अव्याबाध
अविनाशी सुख स्वभाव है ऐसे अनन्त गुणरूप वे भगवान् उस मोक्ष पदमें सदा काल विराजते
हैं जिन्होंने शुद्ध आत्मस्वभाव पा लिया है अनन्तकाल बीत गये, और अनन्तकाल आवेंगे,
परंतु वे प्रभु सदाकाल सिद्धक्षेत्रमें बस रहे हैं समस्त काल रहते हैं, इसके कहनेका प्रयोजन
यह है, कि जो कोई ऐसा कहते हैं, कि मुक्तजीवोंका भी संसारमें पतन होता है, सो उनका
कहना खंडित किया गया ।।२०२।।
bhāvārthaḥvaḷī te pūrvokta siddha bhagavān traṇ lokamān rahelā bhavya janane bandhu ja
chhe. rāgādi rahit avyābādh shāshvat sukhasvabhāv jeno chhe evā guṇavishiṣhṭa te bhagavān shuddha
ātmasvabhāvane pāmīne mokṣhapadamān samasta kāḷ sudhī-anantānant kāḷ sudhī vase chhe.
ahīn ‘samasta kāḷ vimukta rahe chhe’ e kathanathī je koī kahe chhe ke mukta jīvonun
pharīthī sansāramān patan thāy chhe’ tenā matanun khaṇḍan karyun chhe, evo bhāvārtha chhe. 202.

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adhikār-2ḥ dohā-203 ]paramātmaprakāshaḥ [ 537
३३४) जम्मण-मरण-विवज्जियउ चउ-गइ-दुक्ख विमुक्कु
केवल-दंसण-णाणमउ णंदइ तित्थु जि मुक्कु ।।२०३।।
जन्ममरणविवर्जितः चतुर्गतिदुःखविमुक्त :
केवलदर्शनज्ञानमयः नन्दति तत्रैव मुक्त : ।।२०३।।
पुनरपि कथंभूतः स भगवान् जम्मण-मरण-विवज्जियउ जन्ममरणविवर्जितः पुनरपि
किंविशिष्टः चउ-गइ-दुक्ख विमुक्कु सहजशुद्धपरमानन्दैकस्वभावं यदात्मसुखं तस्माद्विपरीतं
यच्चतुर्गतिदुःखं तेन विमुक्तो रहितः पुनरपि किंस्वरूपः केवल-दंसण-णाणमउ क्रमकरणव्यवधान-
रहितत्वेन जगत्रयकालत्रयवर्तिपदार्थानां प्रकाशककेवलदर्शनज्ञानाभ्यां निर्वृत्तः केवलदर्शनज्ञानमयः
एवंगुणविशिष्टः सन् किं करोति णंदइ स्वकीयस्वाभाविकानन्तज्ञानादिगुणैः सह नन्दति वृद्धिं
आगे फि र भी सिद्धोंका ही वर्णन करते हैं
गाथा२०३
अन्वयार्थ :[जन्ममरणविवर्जितः ] वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी जन्म और मरणकर
रहित हैं, [चतुर्गतिदुःखविमुक्तः ] चारों गतियोंके दुःखोंसे रहित हैं, [केवलदर्शनज्ञानमयः ]
और केवलदर्शन केवलज्ञानमयी हैं, ऐसे [मुक्तः ] कर्म रहित हुए [तत्रैव ] अनंतकाल तक
उसी सिद्धक्षेत्रमें [नंदति ] अपने स्वभावमें आनंदरूप विराजते हैं
भावार्थ :सहज शुद्ध परमानंद एक अखंड स्वभावरूप जो आत्मसुख उससे विपरीत
जो चतुर्गतिके दुःख उनसे रहित हैं, जन्ममरणरूपरोगोंसे रहित हैं, अविनश्वरपुरमें सदा काल
रहते हैं जिनका ज्ञान संसारी जीवोंकी तरह विचाररूप नहीं है, कि किसीको पहले जानें,
किसीको पीछे जानें, उनका केवलज्ञान और केवलदर्शन एक ही समयमें सब द्रव्य, सब क्षेत्र,
सब काल, और सब भावोंको जानता है
लोकालोक प्रकाशी आत्मा निज भाव अनंतज्ञान,
have, pharī siddhonun ja varṇan kare chheḥ
bhāvārthaḥvaḷī te siddha bhagavān kevā chhe? te siddhabhagavān janma-maraṇathī rahit
chhe, sahaj shuddha paramānand ja jeno ek svabhāv chhe evun je ātmasukh tenāthī viparīt je chār
gatinān duḥkh tenāthī rahit chhe, kevaḷadarshanagnānamay chhe, kramakaraṇavyavadhānarahitapaṇe traṇ jagatanā
traṇakāḷavartī padārthonā prakāshak kevaḷadarshan ane kevaḷagnānathī rachāyel chhe. āvā guṇavāḷā siddha
bhagavān shun kare chhe? āvā guṇavishiṣhṭa siddha bhagavān gnānāvaraṇādi āṭh karmathī rahit ane

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538 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-204
गच्छति क्व तित्थु जि तत्रैव मोक्षपदे पुनरपि किंविशिष्टः सन् मुक्कु ज्ञानावरणाद्यष्ट-
कर्मनिर्मुक्तो रहितः अव्याबाधाद्यनन्तगुणैः सहितश्चेति भावार्थः ।।२०३।। एवं चतुर्विंशतिसूत्र-
प्रमितमहास्थलमध्ये सिद्धपरमेष्ठिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण चतुर्थमन्तरस्थलं गतम्
अथानन्तरं परमात्मप्रकाशभावनारतपुरुषाणां फलं दर्शयन् सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं
करोति तथाहि
३३५) जे परमप्प-पयासु मुणि भाविं भावहिँ सत्थु
मोहु जिणेविणु सयलु जिय ते बुज्झहिँ परमत्थु ।।२०४।।
ये परमात्मप्रकाशं मुनयः भावेन भावयन्ति शास्त्रम्
मोहं जित्वा सकलं जीव ते बुध्यन्ति परमार्थम् ।।२०४।।
अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्यमयी है ऐसे अनेक गुणोंके सागर भगवान् सिद्धपरमेष्ठी
स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावरूप चतुष्टयमें निवास करते हुए सदा आनंदरूप लोकके
शिखर पर विराज रहे हैं, जिसका कभी अंत नहीं, उसी सिद्धपदमें सदा काल विराजते हैं,
केवलज्ञान दर्शन कर घट
घटमें व्यापक हैं सकल कर्मोपाधि रहित महा निरुपाधि
निराबाधपना आदि अनंतगुणों सहित मोक्षमें आनंद विलास करते हैं ।।२०३।।
इस तरह चौबीस दोहोंवाले महास्थलमें सिद्धपरमेष्ठीके व्याख्यानकी मुख्यताकर तीन
दोहोंमें चौथा अंतरस्थल कहा
आगे तीन दोहोंमें परमात्मप्रकाशकी भावनामें लीन पुरुषोंके फलको दिखाते हुए
व्याख्यान करते हैं
गाथा२०४
अन्वयार्थ :[ये मुनयः ] जो मुनि [भावेन ] भावोंसे [परमात्मप्रकाशं शास्त्रम् ]
avyābādhādi anantaguṇothī sahit thayā thakā, potānā svābhāvik anantagnānādi guṇo sāthe
vr̥uddhine pāme chhe, e bhāvārtha chhe. 203.
e pramāṇe chovīs sūtronā mahāsthaḷamān siddhaparameṣhṭhīnā vyākhyānanī mukhyatāthī traṇ
gāthāsūtrothī chothun antarasthaḷ samāpta thayun.
tyār pachhī traṇ sūtro sudhī paramātmaprakāshanī bhāvanāmān rat puruṣhone je phaḷ thāy chhe
te darshāvatun, vyākhyān kare chhe. te ā pramāṇeḥ

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adhikār-2ḥ dohā-205 ]paramātmaprakāshaḥ [ 539
भावाहिं भावयन्ति ध्यायन्ति के मुणि मुनयः जे ये केचन किं भावयन्ति सत्थ
शास्त्रम् परमप्प-पयासु परमात्मस्वभावप्रकाशत्वात्परमात्मप्रकाशसंज्ञम् केन भावयन्ति भाविं
समस्तरागाद्यपध्यानरहितशुद्धभावेन किं कृत्वा पूर्वम् जिणेविणु जित्वा कम् मोह
निर्मोहपरमात्मतत्त्वाद्विलक्षणं मोहम् कतिसंख्योपेतम् सयलु समस्तं निरवशेषं जिय हे जीवेति
ते त एवंगुणविशिष्टास्तपोधनाः बुज्झहिं बुध्यन्ति कम् परमत्थु परमार्थशब्दवाच्यं चिदानन्दैक-
स्वभावं परमात्मानमिति भावार्थः ।।२०४।।
अथ
३३६) अण्णु वि भत्तिए जे मुणहिँ इहु परमप्प-पयासु
लोयालोयपयासयरु पावहिँ ते वि पयासु ।।२०५।।
अन्यदपि भक्त्या ये मन्यन्ते इमं परमात्मप्रकाशम्
लोकालोकप्रकाशकरं प्राप्नुवन्ति तेऽपि प्रकाशम् ।।२०५।।
इस परमात्मप्रकाशनामा शास्त्रका [भावयंति ] चिंतवन करते हैं, सदैव इसीका अभ्यास करते
हैं, [जीव ] हे जीव, [ते ] वे [सकलं मोहं ] समस्त मोहको [जित्वा ] जीतकर [परमार्थम्
बुध्यंति ] परमतत्त्वको जानते हैं
।।
भावार्थ :जो कोई सब परिग्रहके त्यागी साधु परमात्मस्वभावके प्रकाशक इस
परमात्मप्रकाशकनामा ग्रंथको समस्त रागादि खोटे ध्यानरहित जो शुद्धभाव उससे निरंतर विचारते
हैं, वे निर्मोह परमात्मतत्त्वसे विपरीत जो मोहनामा कर्म उसकी समस्त प्रकृतियोंको मूलसे
उखाड़ देते हैं, मिथ्यात्व रागादिकोंको जीतकर निर्मोह निराकुल चिदानंद स्वभाव जो परमात्मा
उसको अच्छी तरह जानते हैं
।।२०४।।
आगे फि र भी परमात्मप्रकाशके अभ्यासका फल कहते हैं
गाथा२०५
अन्वयार्थ :[अन्यदपि ] और भी कहते हैं, [ये ] जो कोई भव्यजीव [भक्त्या ]
bhāvārthaḥje koī munio nirmoh paramātmatattvathī vilakṣhaṇ mohane jītīne samasta
rāgādi apadhyān rahit shuddha bhāvathī paramātmasvabhāvano prakāshak hovāthī je paramātmaprakāsh chhe
evā paramātmaprakāsh nāmanā shāstrane dhyāve chhe te tapodhano paramārthashabdathī vāchya, chidānand jeno
ek svabhāv chhe evā paramātmāne jāṇe chhe, e bhāvārtha chhe. 204.
have, pharī paramātmaprakāshanā abhyāsanun phaḷ kahe chheḥ

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540 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-206
अण्णु वि इत्यादि अण्णु वि अन्यदपि विशेषफलं कथ्यते भत्तिए जे मुणहिं भक्त्या
ये मन्यन्ते जानन्ति कम् इहु परमप्पपयासु इमं प्रत्यक्षीभूतं परमात्मप्रकाशग्रन्थमर्थतस्तु
परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यं परमात्मतत्त्वं पावहिं प्राप्नुवन्ति ते वि तेऽपि कम् पयास
प्रकाशशब्दवाच्यं केवलज्ञानं तदाधारपरमात्मानं वा कथंभूतं परमात्मप्रकाशम् लोयालोय-
पयासयरु अनन्तगुणपर्यायसहितत्रिकालविषयलोकालोकप्रकाशकमिति तात्पर्यम् ।।२०५।।
अथ
३३७) जे परमप्पपयासयहं अणुदिणु णाउ लयंति
तुट्टइ मोहु तडत्ति तहँ तिहुयण-णाह हवंति ।।२०६।।
ये परमात्मप्रकाशस्य अनुदिनं नामं गृह्णन्ति
त्रुटयति मोहः झटिति तेषां त्रिभुवननाथा भवन्ति ।।२०६।।
भक्तिसे [इमं परमात्मप्रकाशम् ] इस परमात्मप्रकाश शास्त्रको [जानन्ति ] पढ़ें, सुनें, इसका
अर्थ जानें, [तेऽपि ] वे भी [लोकालोकप्रकाशकरं ] लोकालोकको प्रकाशनेवाले [प्रकाशम् ]
केवलज्ञान तथा उसके आधारभूत परमात्मतत्त्वको शीघ्र ही पा सकेंगे
अर्थात् परमात्मप्रकाश
नाम परमात्मतत्त्वका भी है, और इस ग्रंथका भी है, सो परमात्मप्रकाश ग्रंथके पढ़नेवाले दोनों
ही को पावेंगे
प्रकाश ऐसा केवलज्ञानका नाम है, उसका आधार जो शुद्ध परमात्मा अनंत
गुण पर्याय सहित तीनकालका जाननेवाला लोकालोकका प्रकाशक ऐसा आत्मद्रव्य उसे तुरंत
ही पावेंगे
।।२०५।।
आगे फि र भी परमात्मप्रकाशके पढ़नेका फल कहते हैं
गाथा२०६
अन्वयार्थ :[ये ] जो कोई भव्यजीव [परमात्मप्रकाशकस्य ] व्यवहारनयसे
परमात्माके प्रकाश करनेवाले इस ग्रंथका तथा निश्चयनयसे केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित
bhāvārthaḥvaḷī bījun visheṣh phaḷ kahe chhe ke jeo ā pratyakṣha paramātmaprakāsh granthane
arthathī paṇ paramātmashabdathī vāchya evā paramātmatattvane bhaktithī jāṇe chhe teo anant-
guṇaparyāyasahit traṇakāḷanā lokālokanā prakāshak, prakāsh shabdathī vāchya evā kevaḷagnān tathā
temanā ādhārabhūt paramātmaprakāshane
paramātmatattvane pāme chhe, e tātparya chhe. 205.
vaḷī (have pharī paramātmaprakāshanā abhyāsanun phaḷ kahe chhe)ḥ

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adhikār-2ḥ dohā-206 ]paramātmaprakāshaḥ [ 541
लयंति गृह्णन्ति जे ये विवेकिनः णाउ नाम कस्य परमप्प-पयासयहं व्यवहारेण
परमात्मप्रकाशाभिधानग्रन्थस्य निश्चयेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य केवलज्ञानाद्य-
नन्तगुणस्वरूपस्य परमात्मपदार्थस्य
कथम् अणुदिणु अनवरतम् तेषां कि फलं भवति तुट्टइ
नश्यति कोऽसौ मोहु निर्मोहात्मद्रव्याद्विलक्षणो मोहः तडत्ति झटिति तहं तेषाम् न केवलं
मोहो नश्यति तिहुयण-णाह हवंति तेन पूर्वोक्ते न निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वभावनाफलेन पूर्वं
देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिविभूतिविशेषं लब्ध्वा पश्चाज्जिनदीक्षां गृहीत्वा च केवलज्ञानमुत्पाद्य त्रिभुवननाथा
भवन्तीति भावार्थः
।।२०६।। एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमात्मप्रकाशभावनाफल-
कथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण पञ्चमं स्थलं गतम्
अथ परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मा तदाराधकपुरुषलक्षणज्ञापनार्थं सूत्रत्रयेण
व्याख्यानं करोति तद्यथा
परमात्मपदार्थका [अनुदिनं ] सदैव [नामं गृह्णन्ति ] नाम लेते हैं, सदा उसीका स्मरण करते
हैं, [तेषां ] उनका [मोहः ] निर्मोह आत्मद्रव्यसे विलक्षण जो मोहनामा कर्म [झटिति
त्रुटयति ] शीघ्र ही टूट जाता है, और वे [त्रिभुवननाथा भवंति ] शुद्धात्मतत्त्वकी भावनाके
फलसे पूर्व देवेंद्र चक्रवर्त्यादिकी महान् विभूति पाकर चक्रवर्तीपदको छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण
करके केवलज्ञानको उत्पन्न कराके तीन भुवनके नाथ होते हैं, यह सारांश हैं
।।२०६।।
इसप्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमात्मप्रकाशकी भावनाके फलके कथनकी
मुख्यतासे तीन दोहोंमें पाँचवाँ अंतरस्थल कहा
आगे परमात्मप्रकाश शब्दसे कहा गया जो प्रकाशरूप शुद्ध परमात्मा उसकी आराधनाके
करनेवाले महापुरुषोंके लक्षण जाननेके लिये तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं
bhāvārthaḥje koī vivekī jīvo vyavahārathī paramātmaprakāsh nāmanā granthanun ane
nishchayathī paramātma shabdathī vāchya evā kevaḷagnānādi anantaguṇasvarūp paramātmapadārthanun satat
nām le chhe temano nirmoh
ātmadravyathī vilakṣhaṇ moh shīghra nāsh pāme chhe. kevaḷ moh ja nāsh
pāme chhe eṭalun ja nahi paṇ te pūrvokta nirmohshuddha ātmatattvanī bhāvanānā phaḷathī pahelān
devendra, chakravartī ādi vibhūtivisheṣhane pāmīne ane pachhī jinadīkṣhā grahīne kevaḷagnān utpanna
karīne traṇ bhuvananā nāth thāy chhe, e bhāvārtha chhe. 206.
e pramāṇe chovīsh sūtronā mahāsthaḷamān paramātmaprakāshanī bhāvanānā phaḷanā kathananī
mukhyatāthī traṇ gāthāsūtrothī pāñchamun sthaḷ samāpta thayun.
have, paramātmaprakāsh shabdathī vāchya evo je paramātmā, tenā ārādhak puruṣhonān lakṣhaṇ
jāṇavā māṭe gāthāsūtrathī vyākhyān kare chhe. te ā pramāṇeḥ

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542 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-207
३३८) जे भवदुक्खहँ बीहिया पउ इच्छहिँ णिव्वाणु
इह परमप्प-पयासयहँ ते पर जोग्ग वियाणु ।।२०७।।
ये भवदुःखेभ्यः भीताः पदं इच्छन्ति निर्वाणम्
इह परमात्मप्रकाशकस्य ते परं योग्या विजानीहि ।।२०७।।
ते पर त एव जोग्ग वियाणु योग्या भवन्तीति विजानीहि कस्य इह परमप्प-पयासयह
व्यवहारेणास्य परमात्मप्रकाशाभिधानग्रन्थस्य, परमार्थेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य निर्दोषि-
परमात्मनः
ते के जे बीहिया ये भीताः केषाम् भव-दुक्खहं रागादिविकल्परहितपरमाह्लाद-
रूपशुद्धात्मभावनोत्थपारमार्थिकसुखविलक्षणानां नारकादिभवदुःखानाम् पुनरपि किं कुर्वन्ति जे
इच्छहिं ये इच्छन्ति किम् पउ पदं स्थानम् णिव्वाणु निर्वृतिगतपरमात्माधारभूतं
निर्वाणशब्दवाच्यं मुक्ति स्थानमित्यभिप्रायः ।।२०७।।
गाथा२०७
अन्वयार्थ :[ते परं ] वे ही महापुरुष [अस्य परमात्मप्रकाशकस्य ] इस
परमात्मप्रकाश ग्रंथके अभ्यास करनेके [योग्याः विजानीहि ] योग्य जानो, [ये ] जो
[भवदुःखेभ्यः ] चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंसे [भीताः ] डर गये हैं, और [निर्वाणम् पदं ]
मोक्षपदको [इच्छंति ] चाहते हैं
भावार्थ :व्यवहारनयकर परमात्मप्रकाशनामा ग्रंथकी और निश्चयनयकर निर्दोष
परमात्मतत्त्वकी भावनाके योग्य वे ही हैं, जो रागादि विकल्प रहित परम आनंदरूप
शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अविनश्वर सुखसे विपरीत जो नरकादि संसारके
दुःख उनसे डर गये हैं, जिनको चतुर्गतिके भ्रमणका डर है, और जो सिद्धपरमेष्ठीके निवास
मोक्षपदको चाहते हैं
।।२०७।।
bhāvārthaḥteo ja vyavahārathī ā paramātmaprakāsh nāmanā granthane ane paramārthathī
paramātmaprakāsh shabdathī vāchya evā nirdoṣh paramātmāne yogya chhe, em jāṇoke jeo
rāgādi vikalpothī rahit param āhlādarūp shuddha ātmānī bhāvanāthī utpanna pāramārthik
sukhathī vilakṣhaṇ nārakādi bhavaduḥkhothī bhayabhīt chhe ane jeo nirvr̥utigat (mokṣhaprāpta)
paramātmānā ādhārabhūt ‘nirvāṇ’ shabdathī vāchya evā muktisthānane ichchhe chhe, e abhiprāy
chhe. 207.

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adhikār-2ḥ dohā-208 ]paramātmaprakāshaḥ [ 543
अथ
३३९) जे परमप्पहँ भत्तियर विसय ण जे वि रमंति
ते परमप्प-पयासयहँ मुणिवर जोग्ग हवंति ।।२०८।।
ये परमात्मनो भक्ति पराः विषयान् न येऽपि रमन्ते
ते परमात्मप्रकाशकस्य मुनिवरा योग्या भवन्ति ।।२०८।।
हवंति भवन्ति जोग्ग योग्याः के ते मुणिवर मुनिप्रधानाः के ते ते पूर्वोक्ताः
कस्य योग्या भवन्ति परमप्प-पयासयहं व्यवहारेण परमात्मप्रकाशसंज्ञग्रन्थस्य परमार्थेन तु
परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य शुद्धात्मस्वभावस्य कथंभूतो ये जे परमप्पहं भत्तियर ये परमात्मनो
भक्ति पराः पुनरपि किं कुर्वन्ति ये िवसय ण जे वि रमंति निर्विषयपरमात्मतत्त्वानुभूति-
समुत्पन्नातीन्द्रियपरमानन्दसुखरसास्वादतृप्ताः सन्तः सुलभान्मनोहरानपि विषयान्न रमन्त
इत्यभिप्रायः
।।२०८।।
आगे फि र भी उन्हीं पुरुषोंकी महिमा कहते हैं
गाथा२०८
अन्वयार्थ :[ये ] जो [परमात्मनः भक्तिपराः ] परमात्माकी भक्ति करनेवाले
[ये ] जो मुनि [विषयान् न अपि रमंते ] विषयकषायोंमें नहीं रमते हैं, [ते मुनिवराः ] वे
ही मुनीश्वर [परमात्मप्रकाशस्य योग्याः ] परमात्मप्रकाशके अभ्यासके योग्य [भवंति ] हैं
भावार्थ :व्यवहारनयकर परमात्मप्रकाश नामका ग्रंथ जो निश्चयनयकर
निजशुद्धात्मस्वरूप परमात्मा उसकी भक्तिमें जो तत्पर हैं, वे विषय रहित जो परमात्मतत्त्वकी
अनुभूति उससे उपार्जन किया जो अतीन्द्रिय परमानंदसुख उसके रसके आस्वादसे तृप्त हुए विषयोंमें
नहीं रमते हैं
जिनको मनोहर विषय आकर प्राप्त हुए हैं, तो भी वे उनमें नहीं रमते ।।२०८।।
vaḷī, pharī te puruṣhono mahimā kahe chheḥ
bhāvārthaḥte pūrvokta munivaro vyavahārathī paramātmaprakāsh nāmanā granthane ane
paramātmaprakāsh shabdathī vāchya shuddha ātmasvabhāvane yogya chheke jeo paramātmānī bhaktimān
parāyaṇ hoy ane nirviṣhay paramātmatattvanī anubhūtithī utpanna atīndriy paramānandamay
sukharasanā āsvādathī tr̥upta thaīne sulabh ane manohar evā viṣhayomān paṇ ramatā na hoy,
e abhiprāy chhe. 208.

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544 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-209
अथ
३४०) णाणवियक्खणु सुद्धमणु जो जणु एहउ कोइ
सो परमप्पपयासयहँ जोग्गु भणंति जि जोइ ।।२०९।।
ज्ञानविचक्षणः शुद्धमना यो जन ईद्रशः कश्चिदपि
तं परमात्मप्रकाशकस्य योग्यं भणन्ति ये योगिनः ।।२०९।।
भणंति कथयन्ति जि जोइ ये परमयोगिनः कं भणन्ति जोग्गु योग्यम् कस्य
परमप्प-पयासयहं व्यवहारनयेन परमात्मप्रकाशाभिधानशास्त्रस्य निश्चयेन तु परमात्मप्रकाश-
शब्दवाच्यस्य शुद्धात्मस्वरूपस्य
कं पुरुषं योग्यं भणन्ति सो तम् तं कम् जो जण
एहउ कोइ यो जनः इत्थंभूतः कश्चित् कथंभूतः णाण-वियक्खणु स्वसंवेदनज्ञान-
विचक्षणः पुनरपि कथंभूतः सुद्धमणुपरमात्मानुभूतिविलक्षणरागद्वेषमोहस्वरूपसमस्तविकल्प-
आगे फि र भी यही कथन करते हैं
गाथा२०९
अन्वयार्थ :[यः जनः ] जो प्राणी [ज्ञानविचक्षणः ] स्वसंवेदनज्ञानकर विचक्षण
(बुद्धिमान) हैं, और [शुद्धमनाः ] जिसका मन परमात्माकी अनुभूतिसे विपरीत जो राग द्वेष
मोहरूप समस्त विकल्प
जाल उनके त्यागसे शुद्ध है, [कश्चिदपि ईदृशः ] ऐसा कोई भी
सत्पुरुष हो, [तं ] उसे [ये योगिनः ] जो योगीश्वर हैं, वे [परमात्मप्रकाशकस्य योग्यं ]
परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य [भणंते ] कहते हैं
भावार्थ :व्यवहारनयकर यह परमात्मप्रकाशनामा द्रव्यसूत्र और निश्चयनयकर
शुद्धात्मस्वभावसूत्रके आराधनेको वे ही पुरुष योग्य हैं, जो कि आत्मज्ञानके प्रभावसे महा प्रवीण
हैं, और जिनके मिथ्यात्व राग द्वेषादि मलकर रहित शुद्ध भाव हैं, ऐसे पुरुषोंके सिवाय दूसरा
कोई भी परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य नहीं है
।।२०९।।
have, pharī paṇ e ja kathan kare chheḥ
bhāvārthaḥje yogīo chhe teo, svasamvedanagnānamān vichakṣhaṇ hoy ane paramātmānī
anubhūtithī vilakṣhaṇ evā rāgadveṣh-mohasvarūp samastavikalpajāḷonā tyāgathī shuddha ātmā hoy
āvo je koī jan hoy-tene vyavahāranayathī paramātmaprakāsh nāmanā shāstrane ane nishchayanayathī
paramātmaprakāsh shabdathī vāchya evā shuddhātmasvarūpane yogya kahe chhe, e abhiprāy chhe. 209.

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adhikār-2ḥ dohā-210 ]paramātmaprakāshaḥ [ 545
जालपरिहारेण शुद्धात्मा इत्यभिप्रायः ।।२०९।। एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये
परमाराधकपुरुषलक्षणकथनरूपेण सूत्रत्रयेण षष्ठमन्तरस्थलं गतम्
अथ शास्त्रफलकथनमुख्यत्वेन सूत्रमेकं तदनन्तरमौद्धत्यपरिहारेण च सूत्रद्वयपर्यन्तं
व्याख्यानं करोति तद्यथा
३४१) लक्खण-छंद-विवज्जियउ एहु परमप्प-पयासु
कुणइ सुहावइँ भावियउ चउ-गइ-दुक्ख-विणासु ।।२१०।।
लक्षणछन्दोविवर्जितः एष परमात्मप्रकाशः
करोति सुभावेन भावितः चतुर्गतिदुःखविनाशम् ।।२१०।।
लक्खण इत्यादि लक्खण-छंद-विवज्जियउ लक्षणछन्दोविवर्जितोऽयम् अयं कः एह
इसप्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें आराधक पुरुषके लक्षण तीन दोहोंमें कहके छट्ठा
अंतरस्थल समाप्त हुआ
आगे शास्त्रके फलके कथनकी मुख्यताकर एक दोहा और उद्धतपनेके त्यागकी
मुख्यताकर दो दोहे, इस तरह तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं
गाथा२१०
अन्वयार्थ :[एष परमात्मप्रकाशः ] यह परमात्मप्रकाश [सुभावेन भावितः ] शुद्ध
भावोंकर भाया हुआ [चतुर्गतिदुःखविनाशम् ] चारों गतिके दुखोंका विनाश [करोति ] करता
है
जो परमात्मप्रकाश [लक्षणछंदोविवर्जितः ] यद्यपि व्यवहारनयकर प्राकृतरूप दोहा छंदोकर
सहित है, और अनेक लक्षणोंकर सहित हैं, तो भी निश्चयनयकर परमात्मप्रकाश जो
शुद्धात्मस्वरूप वह लक्षण और छंदोकर रहित है
भावार्थ :शुभ लक्षण और प्रबंध ये दोनों परमात्मामें नहीं हैं परमात्मा शुभाशुभ
e pramāṇe chovīs sūtronā mahāsthaḷamān param ārādhak puruṣhanā lakṣhaṇanā kathanarūpe traṇ
sūtrothī chhaṭhṭhun antarasthaḷ samāpta thayun.
have, shāstranā phaḷakathananī mukhyatāthī ek gāthāsūtra ane tyār pachhī uddhatāīnā tyāganī
mukhyatāthī be gāthāsūtro sudhī vyākhyān kare chhe. te ā pramāṇeḥ
bhāvārthaḥjoke ā paramātmaprakāshagranth shāstrakramanā vyavahārathī dohāchhandathī ane

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546 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-211
परमप्पपयासु एष परमात्मप्रकाशः एवंगुणविशिष्टोऽयं किं करोति कुणइ करोति कम्
चउ-गइ-दुक्ख-विणासु चतुर्गतिदुःखविनाशम् कथंभूतः सन् भावियउ भावितः केन
सुहावइं शुद्धभावेनेति तथाहि यद्यप्ययं परमात्मप्रकाशग्रन्थः शास्त्रक्रमव्यवहारेण दोहकछन्दसा
प्राकृतलक्षणेन च युक्त :, तथापि निश्चयेन परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यशुद्धात्मस्वरूपापेक्षया लक्षण-
छन्दोविवर्जितः
एवंभूतः सन्नयं किं करोति शुद्धभावनया भावितः सन् शुद्धात्म-
संवित्तिसमुत्पन्नरागादिविकल्परहितपरमानन्दैकलक्षणसुखविपरीतानां चतुर्गतिदुःखानां विनाशं
करोतीति भावार्थः
।।२१०।।
अथ श्रीयोगीन्द्रदेव औद्धत्यं परिहरति
३४२) इत्थु ण लेवउ पंडियहिँ गुण-दोसु वि पुणरुत्तु
भट्ट-पभायर-कारणइँ मइँ पुणु पुणु वि पउत्तु ।।२११।।
अत्र न ग्राह्यः पण्डितैः गुणो दोषोऽपि पुनरुक्त :
भट्टप्रभाकरकारणेन मया पुनः पुनरपि प्रोक्त म् ।।२११।।
लक्षणोंकर रहित है, और जिसके कोई प्रबंध नहीं, अनंतरूप है, उपयोगलक्षणमय परमानंद
लक्षणस्वरूप है, सो भावोंसे उसको आराधो, वही चतुर्गतिके दुःखोंका नाश करनेवाला है
शुद्ध परमात्मा तो व्यवहार लक्षण और श्रुतरूप छंदोंसे रहित है, इनसे भिन्न निज लक्षणमयी
है, और यह परमात्मप्रकाशनामा अध्यात्म
ग्रंथ यद्यपि दोहेके छंदरूप है, और प्राकृत लक्षणरूप
है, परंतु इसमें स्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यता है, छंद अलंकारादिकी मुख्यता नहीं है ।।२१०।।
आगे श्रीयोगींद्रदेव उद्धतपनेका त्याग दिखलाते हैं
गाथा२११
अन्वयार्थ :[यत्र ] श्रीयोगींद्रदेव कहते हैं, अहो भव्यजीवो, इस ग्रंथमें
[पुनरुक्तः ] पुनरुक्तिका [गुणो दोषोऽपि ] दोष भी [पंडितैः ] आप पंडितजन [न ग्राह्यः ]
prākr̥italakṣhaṇathī yukta chhe topaṇ nishchayathī ‘paramātmaprakāsh’ shabdathī vāchya evā shuddhātmasvarūpanī
apekṣhāe lakṣhaṇ ane chhandathī rahit chhe evo ā paramātmaprakāsh shuddhabhāvanāthī bhāvavāmān āvato
thako, shuddhātmasamvittithī utpanna rāgādi vikalpa rahit paramānand jenun ek lakṣhaṇ chhe evā sukhathī
viparīt chār gatinān duḥkhono vināsh kare chhe, e bhāvārtha chhe. 210.
have, shrī yogīndradev uddhatapaṇāno parihār kare chheḥ