Parmatma Prakash (Gujarati Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 97 of 565
PDF/HTML Page 111 of 579

 

background image
शुद्धात्मसंवित्त्यभावेनोपार्जितेन कर्मणा यद्यपि व्यवहारेण जन्यते स्वयं च शुद्धात्मसंवित्तिच्युतः सन्
कर्माणि जनयति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शक्ति रूपेण कर्मकर्तृभूतेन नरनारकादिपर्यायेण न
जन्यते स्वयं च कर्मनोकर्मादिकं न जनयतीति
आत्मा पुनर्न केवलं शुद्धनिश्चयनयेन
व्यवहारेणापि न च जन्यते न च जनयति तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन नित्यो भवति,
पर्यायार्थिकनयेनोत्पद्यते विनश्यति चेति
अत्राह शिष्यः मुक्तात्मनः कथमुत्पादव्ययाविति
કરે છે, તોપણ શુદ્ધ નિશ્ચયનયથી શક્તિરૂપે કર્મરૂપ કર્તા વડે નરનારકાદિ પર્યાય રૂપે ઉત્પન્ન
થતો નથી અને પોતે કર્મ-નોકર્માદિકને ઉત્પન્ન કરતો નથી. વળી આત્મા પોતે કેવળ શુદ્ધ
નિશ્ચયનયથી નહિ, પરંતુ વ્યવહારથી પણ ઉત્પન્ન થતો નથી અને ઉત્પન્ન કરતો નથી તે કારણે
દ્રવ્યાર્થિકનયથી આત્મા નિત્ય છે, પર્યાયાર્થિકનયથી આત્મા ઊપજે છે ને નાશ પામે છે.
અહીં શિષ્ય પ્રશ્ન કરે છે કેઃમુક્તઆત્માને ઉત્પાદવ્યય કઈ રીતે ઘટી શકે?
विनसता है, और आप भी शुद्धात्मज्ञानसे रहित हुआ कर्मोंको उपजाता (बाँधता) है, तो भी
शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मोंसे उत्पन्न हुई नर-नारकादि पर्यायरूप नहीं होता,
और आप भी कर्म-नोकर्मादिकको नहीं उपजाता और व्यवहारसे भी न जन्मता है, न किसीसे
विनाशको प्राप्त होता है, न किसीको उपजाता है, कारणकार्यसे रहित है अर्थात् कारण
उपजानेवालेको कहते हैं
कार्य उपजनेवालेको कहते हैं सो ये दोनों भाव वस्तुमें नहीं हैं,
इससे द्रव्यार्थिकनयकर जीव नित्य है, और पर्यायार्थिकनयकर उत्पन्न होता है, तथा विनाशको
प्राप्त होता है
यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है, कि संसारी जीवोंके तो नर-नारकी आदि पर्यायोंकी
अपेक्षा उत्पत्ति और मरण प्रत्यक्ष दिखता है, परन्तु सिद्धोंके उत्पाद, व्यय, किस तरह हो सकता
है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर
ही हैं
इसका समाधान यह हैकि जैसा उत्पन्न होना, मरना, चारों गतियोंमें संसारी जीवोंके
है, वैसा तो उन सिद्धोंके नहीं है, वे अविनाशी हैं, परन्तु शास्त्रोंमें प्रसिद्ध अगुरुलघु गुणकी
परिणतिरूप अर्थपर्याय है, वह समय-समयमें आविर्भावतिरोभावरूप होती है
अर्थात् समयमें
पूर्वपरिणतिका व्यय होता है और आगेकी पर्यायका आविर्भाव (उत्पाद) होता है इस
अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय जानना, अन्य संसारी-जीवोंकी तरह नहीं है सिद्धोंके एक
तो अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय कहा है अर्थपर्यायमें षट्गुणी हानि और वृद्धि होती है
१ अनंतभागवृद्धि , २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि,
५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंतगुणवृद्धि
१ अनंतभागहानि, २ असंख्यातभागहानि,
३ संख्यातभागहानि, ४ असंख्यातगुणहानि, ५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनंतगुणहानि ये षट्गुणी
हानि-वृद्धिके नाम कहे हैं इनका स्वरूप तो केवलीके गम्य है, सो इस षट्गुणी हानि
અધિકાર-૧ઃ દોહા-૫૬ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૯૭