Parmatma Prakash (Gujarati Hindi). Gatha: 7 (Adhikar 2).

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प्राणसहितस्याशुद्धजीवस्याभावेन न पुनः शुद्धजीवस्येति भावार्थः ।।६।।
अथोत्तमं सुखं न ददाति यदि मोक्षस्तर्हि सिद्धाः कथं निरन्तरं सेवन्ते तमिति
कथयति
१३३) उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ
तो किं सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहिँ सोइ ।।७।।
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमः मोक्षो न भवति
ततः किं सकलमपि कालं जीव सिद्धा अपि सेवन्ते तमेव ।।७।।
इंद्रियजनितज्ञान जो कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय हैं, उनका अभाव माना है, और
अतीन्द्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तुका स्वभाव है, उसका अभाव आत्मामें नहीं हो
सकता
स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन पाँच इंद्रिय विषयोंकर उत्पन्न हुए सुखका तो अभाव
ही है, लेकिन अतीन्द्रिय सुख जो निराकुल परमानंद है, उसका अभाव नहीं है, कर्मजनित जो
इंद्रियादि दस प्राण अर्थात् पाँच इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस
प्राणोंका भी अभाव है, ज्ञानादि निज प्राणोंका अभाव नहीं है
जीवकी अशुद्धताका अभाव
है, शुद्धपनेका अभाव नहीं, यह निश्चयसे जानना ।।६।।
आगे कहते हैं कि जो मोक्ष उत्तम सुख नहीं दे, तो सिद्ध उसे निरंतर क्यों सेवन
करें ?
गाथा
अन्वयार्थ :[यदि ] जो [उत्तमं सुखं ] उत्तम अविनाशी सुखको [न ददाति ] नहीं
देवे, तो [मोक्षः उत्तमः ] मोक्ष उत्तम भी [न भवति ] नहीं हो सकता, उत्तम सुख देता है,
इसीलिये मोक्ष सबसे उत्तम है
जो मोक्षमें परमानंद नहीं होता [ततः ] तो [जीव ] हे जीव,
[सिद्धा अपि ] सिद्धपरमेष्ठी भी [सकलमपि कालं ] सदा काल [तमेव ] उसी मोक्षको [किं
सेवंते ] क्यों सेवन करते ? कभी भी न सेवते
સહિત અશુદ્ધ જીવનો અભાવ થતાં, કાંઈ શુદ્ધ જીવનો અભાવ થતો નથી; એવો ભાવાર્થ
છે. ૬.
હવે, જો મોક્ષ ઉત્તમ સુખને ન આપતો હોય તો સિદ્ધો તેમનું શા માટે નિરંતર સેવન
કરે, એમ કહે છેઃ
૨૧૦ ]
યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૨ઃ દોહા-૭