‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सुद्धो णमो
तस्स ।।’’ ।।६७।।
अथ निश्चयेन स्वकीयशुद्धभाव एव धर्म इति कथयति —
१९५) भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु ।
चउ-गइ-दुक्खहँ जा धरइ जीउ पडंतउ एहु ।।६८।।
भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा गृह्णीथाः ।
चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ।।६८।।
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યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૨ઃ દોહા-૬૮
वीतराग स्वसंवेदनज्ञान और उसका फल केवलज्ञान वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होता है, और
कर्मक्षय अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका नाश तथा परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति वह भी
शुद्धोपयोगियोंके ही होती है । इसलिये शुद्धोपयोग – परिणाम और उन परिणामोंका धारण
करनेवाला पुरुष ही जगत्में प्रधान है । क्योंकि संयमादि सर्व गुण शुद्धोपयोगमें ही पाये जाते
हैं । इसलिये शुद्धोपयोगके समान अन्य नहीं है, ऐसा तात्पर्य जानना । ऐसा ही अन्य ग्रन्थोंमें
हरएक जगह ‘‘सुद्धस्स’’ इत्यादिसे कहा गया है । उसका भावार्थ यह है, कि शुद्धोपयोगीके
ही मुनि - पद कहा है, और उसीके दर्शन ज्ञान कहे हैं । उसीके निर्वाण है, और वही शुद्ध अर्थात्
रागादि रहित है । उसीको हमारा नमस्कार है ।।६७।।
आगे यह कहते हैं कि निश्चयसे अपना शुद्ध भाव ही धर्म है —
गाथा – ६८
अन्वयार्थ : — [विशुद्धः भावः ] मिथ्यात्व रागादिसे रहित शुद्ध परिणाम है, वही
છે, એવું તાત્પર્ય છે.
અન્યત્ર શુદ્ધોપયોગનું ફળ પણ દર્શાવ્યું છે કે —
‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं ।
सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ।।
(શ્રી પ્રવચનસાર ૨૭૪) અર્થઃ — શુદ્ધને (શુદ્ધોપયોગીને) શ્રામણ્ય કહ્યું છે, શુદ્ધને
દર્શન અને જ્ઞાન કહ્યું છે, શુદ્ધને નિર્વાણ હોય છે, તે જ (શુદ્ધ જ) સિદ્ધ હોય છે; તેને નમસ્કાર
હો.) ૬૭.
હવે, નિશ્ચયનયથી પોતાનો શુદ્ધ ભાવ જ ધર્મ છે, એમ કહે છેઃ —