અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૩૦ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૪૩૩
મિથ્યાતીર્થસમૂહ, નિર્દોષ પરમાત્માએ ઉપદેશેલા એવા વેદશબ્દથી વાચ્ય સિદ્ધાંતો પણ અને
પરકલ્પિત વેદો, શુદ્ધ જીવાદિ પદાર્થોનું ગદ્ય-પદ્યાકારે વર્ણન કરનારું કાવ્ય અને લોકપ્રસિદ્ધ
વિચિત્ર કથાકાવ્ય, પરમાત્મભાવનાથી રહિત જીવે જે વનસ્પતિનામકર્મ ઉપાર્જ્યું છે તેના ઉદયથી
થયેલાં વૃક્ષો કે જે ફૂલોવાળું દેખાય છે એ બધુંય કાળરૂપી અગ્નિનું ઇન્ધન થઈ જશે – નાશ
પામશે.
અહી, (સર્વ સંસાર ક્ષણભંગુર છે એમ જાણીને) પ્રથમ તો પાંચ ઇન્દ્રિયોના વિષયોમાં
મોહ ન કરવો. પ્રાથમિકોને ધર્મતીર્થાદિ પ્રવર્તનના નિમિત્તો જે દેવાલય અને દેવપ્રતિમાદિ છે
परमात्मभावनारहितेन जीवेन यदुपार्जितं वनस्पतिनामकर्म तदुदयजनितंवृक्षकदम्बकं जो दीसइ
कुसुमियउ यद् द्रश्यते कुसुमितं पुष्पितं इंधणु होसइ सव्वु तत्सर्वं कालाग्नेरिन्धनं भविष्यति
विनाशं यास्तीत्यर्थः । अत्र तथा तावत् पञ्चेन्द्रियविषये मोहो न कर्तव्यः प्राथमिकानां यानि
समान जिनके वचनरूपी किरणोंसे मोहांधकार दूर हो गया है, ऐसे महामुनि गुरु हैं, वे भी
विनश्वर हैं, और उसके आचरणसे विपरीत जो अज्ञान तापस मिथ्यागुरु वे भी क्षणभंगुर हैं ।
संसार - समुद्रके तरनेका कारण जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसकी भावनारूप जो निश्चयतीर्थ उसमें
लीन परमतपोधनका निवासस्थान, सम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थ वे भी विनश्वर हैं, और
जिनतीर्थके सिवाय जो पर यतियोंका निवास वे परतीर्थ वे भी विनाशीक हैं । निर्दोष परमात्मा
जो सर्वज्ञ वीतरागदेव उनकर उपदेश किया गया जो द्वादशांग सिद्धांत वह वेद है, वह यद्यपि
सदा सनातन है, तो भी क्षेत्रकी अपेक्षा विनश्वर है, किसी समय है, किसी क्षेत्रमें पाया जाता
है, किसी समय नहीं पाया जाता, भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्रमें कभी प्रगट हो जाता है, कभी विलय
हो जाता है, और महाविदेहक्षेत्रमें यद्यपि प्रवाहकर सदा शाश्वता है, तो भी वक्ता
श्रोताव्याख्यानकी अपेक्षा विनश्वर है, वे ही वक्ता-श्रोता हमेशा नहीं पाये जाते, इसलिए
विनश्वर है, और पर मतियोंकर कहा गया जो हिंसारूप वेद वह भी विनश्वर है । शुद्ध जीवादि
पदार्थोंका वर्णन करनेवाली संस्कृत प्राकृत छटारूप गद्य व छंदबंधरूप पद्य उस स्वरूप और
जिसमें विचित्र कथायें हैं, ऐसे सुन्दर काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर हैं । इत्यादि जो –
जो वस्तु सुन्दर और खोटे कवियोंकर प्रकाशित खोटे काव्य भी विनश्वर हैं । इत्यादि जो –
जो वस्तु सुन्दर और असुन्दर दिखती हैं, वे सब कालरूपी अग्निका ईंधन हो जावेंगी । तात्पर्य
यह है, कि सब भस्म हो जावेंगी, और परमात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन
किया जो वनस्पतिनामकर्म उसके उदयसे वृक्ष हुआ, सो वृक्षोंके समूह जो फू ले – फाले दिखते
हैं, वे सब ईंधन हो जावेंगे । संसारका सब ठाठ क्षणभंगुर है, ऐसा जानकर पंचेंद्रियोंके विषयोंमें
मोह नहीं करना, विषय का राग सर्वथा त्यागना योग्य है । प्रथम अवस्थामें यद्यपि धर्मतीर्थकी