Parmatma Prakash (Gujarati Hindi). Gatha: 158 (Adhikar 2).

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૪૭૪ ]
યોગીન્દુદેવવિરચિતઃ
[ અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૫૮
न योजितः किं कृत्वा मणु मारिवि मिथ्यात्वविषयकषायादिविकल्पसमूहपरिणतं मनो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिशस्त्रेण मारयित्वा सहस त्ति झटिति सो वढ जोएं किं करइ स पुरुषः
वत्स योगेन किं करोति
स कः जासु ण एही सत्ति यस्येद्रशी मनोमारणशक्ति र्नास्तीति
तात्पर्यम् ।।१५७।।
अथ
२८९) अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु जे झायहिँ झाणु
वढ अण्णाण-वियंभियहँ कउ तहँ केवल-णाणु ।।१५८।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यद् ये ध्यायन्ति ध्यानम्
वत्स अज्ञानविजृम्भितानां कुतः तेषां केवलज्ञानम् ।।१५८।।
विषय कषायादि विकल्पोंके समूहकर परिणत हुआ जो मन उसको वीतराग निर्विकल्प
समाधिरूप शस्त्रसे शीघ्र ही मारकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, वह योगी योगसे क्या
कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता
जिसमें मन मारनेकी शक्ति नहीं है, वह योगी
कैसा ? योगी तो उसे कहते हैं, कि जो बड़ाई पूजा (अपनी महिमा) और लाभ आदि सब
मनोरथरूप विकल्प
जालोंसे रहित निर्मल ज्ञान दर्शनमयी परमात्माको देखे, जाने, अनुभव करे
ऐसा मनके मारे बिना नहीं हो सकता, यह निश्चय जानना ।।१५७।।
आगे ज्ञानमयी आत्माको छोड़कर जो अन्य पदार्थका ध्यान करते हैं, वे अज्ञानी हैं,
उनको केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है ? ऐसा निरूपण करते हैं
गाथा१५८
अन्वयार्थ :[ज्ञानमयं ] जो महा निर्मल केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप [आत्मानं ]
आत्मद्रव्यको [मुक्त्वा ] छोड़कर [अन्यद् ] जड़ पदार्थ परद्रव्य उनका [ये ध्यानम् ध्यायंति ]
ध्यान लगाते हैं, [वत्स ] हे वत्स, वे अज्ञानी हैं, [तेषां अज्ञान विजृंभितानां ] उन शुद्धात्माके
ज्ञानसे विमुख, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिरूप अज्ञानसे परिणत हुए जीवोंको [केवलज्ञानम्
પૂજા, લાભ આદિ સમસ્ત મનોરથરૂપ વિકલ્પજાળથી રહિત, વિશુદ્ધજ્ઞાન, વિશુદ્ધદર્શન જેનો
સ્વભાવ છે એવા પરમાત્મામાં નથી જોડ્યો તે પુરુષ
કે જેને મનને મારવાની આવી શક્તિ નથી
તે પુરુષહે વત્સ! યોગથી શું કરશે? .૧૫૭.
વળી (હવે જ્ઞાનમય આત્માને છોડીને જેઓ અન્ય પદાર્થનું ધ્યાન કરે છે તેઓ અજ્ઞાની
છે, તેમને કેવળજ્ઞાન કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય? એમ નિરૂપણ કરે છે)ઃ