અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૭૪ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૪૯૯
श्लोकार्थकथितद्रष्टान्तेन ध्यातव्यः । इदमत्र तात्पर्यम् । अयमात्मा येन येन स्वरूपेण चिन्त्यते
तेन तेन परिणमतीति ज्ञात्वा शुद्धात्मपदप्राप्त्यर्थिभिः समस्तरागादिविकल्पसमूहं त्यक्त्वा
शुद्धरूपेणैव ध्यातव्य इति ।।१७३।।
अथ चतुष्पादिकां कथयति —
३०५) एहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसेँ जायउ जप्पा ।
जामइँ जाणइ अप्पें अप्पा तामइँ सो जि देउ परमप्पा ।।१७४।।
एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः ।
यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा ।।१७४।।
એ શ્લોકાર્થમાં કહેલા દ્રષ્ટાંતથી (આત્મા) ધ્યાવવા યોગ્ય છે (ચિંતવવા યોગ્ય છે).
અહીં, તાત્પર્ય એમ છે કે આ આત્મા જે જે સ્વરૂપે ચિંતવવામાં આવે છે તે તે સ્વરૂપે
પરિણમે છે એમ જાણીને શુદ્ધઆત્મપદની પ્રાપ્તિના અર્થીએ સમસ્ત રાગાદિ વિકલ્પના સમૂહને
છોડીને (આત્માને) શુદ્ધરૂપે જ ધ્યાવવો જોઈએ. ૧૭૩.
હવે, ચતુષ્પદોનું કથન કરે છેઃ — (હવે ચાર સૂત્રો કહે છે)ઃ —
भासता है, जिससे कि सर्प डर जाता है । ऐसा ही कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है, कि जिस
जिस रूपसे आत्मा परिणमता है, उस उस रूपसे आत्मा तन्मयी हो जाता है, जैसे स्फ टिकमणि
उज्ज्वल है, उसके नीचे जैसा डंक लगाओ, वैसा ही भासता है । ऐसा जानकर आत्माका स्वरूप
जानना चाहिये । जो शुद्धात्मपदकी प्राप्तिके चाहनेवाले हैं, उनको यही योग्य है, कि समस्त
रागादिक विकल्पोंके समूहको छोड़कर आत्माके शुद्ध रूपको ध्यावें और विकारों पर दृष्टि न
रक्खें ।।१७३।।
आगे चतुष्पदछंदमें आत्माके शुद्ध स्वरूपको कहते हैं —
गाथा – १७४
अन्वयार्थ : — [एष यः आत्मा ] यह प्रत्यक्षीभूत स्वसंवेदनज्ञानकर प्रत्यक्ष जो आत्मा
[स परमात्मा ] वही शुद्धनिश्चयनयकर अनंत चतुष्टयस्वरूप क्षुधादि अठारह दोष रहित निर्दोष
परमात्मा है, वह व्यवहारनयकर [कर्मविशेषेण ] अनादि कर्मबंधके विशेषसे [जाप्यः जातः ]
पराधीन हुआ दूसरेका जाप करता है; परंतु [यदा ] जिस समय [आत्मना ] वीतराग निर्विकल्प
स्वसंवेदनज्ञानकर [आत्मानं ] अपनेको [जानाति ] जानता है, [तदा ] उस समय [स एव ]