Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
সাথে অবিনাভাবী নির্দোষ পরমাত্মানাং সম্যক্শ্রদ্ধান, সম্যগ্জ্ঞান, অনে সম্যক্আচরণরূপ
অভেদরত্নত্রযাত্মক নির্বিকল্প সমাধিরূপ অগ্নিমাং কর্মরূপী ইন্ধননী আহুতি দ্বারা হোম করতা
তেও বিরাজে ছে. অহীং উপাদেযভূত শুদ্ধ আত্মদ্রব্যনী প্রাপ্তিনা উপাযরূপ হোবাথী নির্বিকল্প
সমাধি জ উপাদেয ছে এবো ভাবার্থ ছে. ৩.
হবে জেও পূর্বকালে শুদ্ধ আত্মস্বরূপ পামীনে স্বসংবেদনজ্ঞাননা বলথী কর্মোনো ক্ষয
করীনে সিদ্ধ থঈনে নির্বাণমাং বসে ছে তেমনে হুং নমস্কার করুং ছুং : —
कुर्वन्तस्तिष्ठन्ति । वीतरागपरमसामायिकभावनाविनाभूतनिर्दोषपरमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरण-
रूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिवैश्वानरे कर्मेन्धनाहुतिभिः कृत्वा होमं कुर्वन्त इति ।
अत्र शुद्धात्मद्रव्यस्योपादेयभूतस्य प्राप्त्युपायभूतत्वान्निर्विकल्पसमाधिरेवोपादेय इति भावार्थः ।।३।।
अथ पूर्वकाले शुद्धात्मस्वरूपं प्राप्य स्वसंवेदनज्ञानबलेन कर्मक्षयं कृत्वा ये सिद्धा भूत्वा
निर्वाणे वसन्ति तानहं वन्दे —
४) ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति ।
णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि ण पडंति ।।४।।
तान् पुनः वन्दे सिद्धगणान् ये निर्वाणे वसन्ति ।
ज्ञानेन त्रिभुवने गुरूका अपि भवसागरे न पतन्ति ।।४।।
অধিকার-১ : দোহা-৪ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ১৭
भावनाकर संयुक्त जो निर्दोष परमात्माका यथार्थ श्रद्धान – ज्ञान – आचरणरूप अभेद रत्नत्रय उस
मई निर्विकल्पसमाधिरूपी अग्निमें कर्मरूप ईंधनको होम करते हुए तिष्ठ रहे हैं । इस कथनमें
शुद्धात्मद्रव्यकी प्राप्तिका उपायभूत निर्विकल्प समाधि उपादेय (आदरने योग्य) है, यह भावार्थ
हुआ ।।३।।
आगे जो महामुनि होकर शुद्धात्मस्वरूपको पाके सम्यग्ज्ञानके बलसे कर्मोंका क्षयकर
सिद्ध हुए निर्वाणमें बस रहे हैं, उनको मैं वन्दता हूँ –
गाथा – ४
अन्वयार्थ : — [पुन: ] फि र [‘अहं’ ] मैं [तान् ] उन [सिद्धगणान् ] सिद्धोंको
[वन्दे ] बन्दता हूँ, [ये ] जो [निर्वाणे ] मोक्षमें [वसन्ति ] तिष्ठ रहे हैं । कैसे हैं, वे [ज्ञानेन ]
ज्ञानसे [त्रिभुवने गुरुका अपि ] तीनलोकमें गुरु हैं, तो भी [भवसागरे ] संसार-समुद्रमें [न