Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৫৪ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-৮২
बुज्झइ इत्यादि बुज्झइ बुध्यते कानि सत्थइँ शास्त्राणि न केवलं शास्त्राणि बुध्यते
तउ चरइ तपश्चरति पर परं किंतु परमत्थु ण वेइ परमार्थं न वेत्ति न जानाति कस्मान्न
वेत्ति यद्यपि व्यवहारेण परमात्मप्रतिपादकशास्त्रेण ज्ञायते तथापि निश्चयेन वीतरागस्वसंवेदन-
ज्ञानेन परिच्छिद्यते यद्यप्यनशनादिद्वादशविधतपश्चरणेन बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन साध्यते
तथापि निश्चयेन निर्विकल्पशुद्धात्माविश्रान्तिलक्षणवीतरागचारित्रसाध्यो योऽसौ परमार्थशब्दवाच्यो
निज-शुद्धात्मा तत्र निरन्तरानुष्ठानाभावात्
ताव ण मुंचइ तावन्तं कालं न मुच्यते
केन कर्मणा
जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ यावन्तं कालं नैवैनं पूर्वोक्त लक्षणं परमार्थं मनुते जानाति श्रद्धत्ते
सम्यगनुभवतीति
इदमत्र तात्पर्यम् यथा प्रदीपेन विवक्षितं वस्तु निरीक्ष्य गृहीत्वा च
ভাবার্থ:শাস্ত্রোনে জাণে ছে অনে তপ আচরে ছে পণ পরমার্থনে জাণতো নথী, কারণ
কে ‘পরমার্থ’ শব্দথী বাচ্য জে নিজশুদ্ধাত্মা জোকে ব্যবহারনযথী পরমাত্মানা প্রতিপাদক শাস্ত্রথী
জণায ছে তোপণ নিশ্চযনযথী বীতরাগস্বসংবেদনরূপ জ্ঞানথী জ জণায ছে. অনে ব্যবহারনযথী
জো কে বহিরংগ সহকারী কারণভূত অনশনাদি বার প্রকারনা তপথী সাধবামাং আবে ছে তোপণ
নিশ্চযনযথী নির্বিকল্প শুদ্ধ আত্মামাং বিশ্রাংতিস্বরূপ বীতরাগ চারিত্রথী জ সাধবামাং আবে ছে,
তে নিজশুদ্ধাত্মামাং নিরংতর অনুষ্ঠাননা অভাবথী আত্মা জ্যাং সুধী আ পূর্বোক্ত লক্ষণবালা
পরমার্থনে সম্যগ্ জাণতো নথী, সম্যগ্ শ্রদ্ধতো নথী অনে সম্যগ্ অনুভবতো নথী ত্যাং সুধী
কর্মথী ছূটতো নথী.
অহীং, আ ভাবার্থ ছে কে জেবী রীতে দীবা বডে বিবক্ষিত বস্তুনে জোঈনে অনে গ্রহণ করীনে
तपस्या करता है, [परं ] लेकिन [परमार्थं ] परमात्माको [न वेत्ति ] नहीं जानता है, [यावत् ]
और जबतक [एवं ] पूर्व कहे हुए [परमार्थं ] परमात्माको [नैव मनुते ] नहीं जानता, या अच्छी
तरह अनुभव नहीं करता है, [तावत् ] तबतक [न मुच्यते ] नहीं छूटता
भावार्थ :यद्यपि व्यवहारनयसे आत्मा अध्यात्मशास्त्रोंसे जाना जाता है, तो भी
निश्चयनय से वीतरागस्वसंवेदनज्ञानसे ही जानने योग्य है, यद्यपि बाह्य सहकारीकारण अनशनादि
बारह प्रकारके तपसे साधा जाता है, तो भी निश्चयनयसे निर्विकल्पवीतरागचारित्रसे ही आत्माकी
सिद्धि है
जिस वीतरागचारित्रका शुद्धात्मामें विश्राम होना ही लक्षण है सो वीतरागचारित्रके
बिना आगमज्ञानसे तथा बाह्य तपसे आत्मज्ञानकी सिद्धि नहीं है जबतक निज शुद्धात्मतत्त्वके
स्वरूपका आचरण नहीं है, तबतक कर्मोंसे नहीं छूट सकता यह निःसंदेह जानना, जबतक
परमतत्त्वको न जाने, न श्रद्धा करे, न अनुभवे, तबतक कर्मबंधसे नहीं छूटता इससे यह निश्चय
हुआ कि कर्मबंधसे छूटनेका कारण एक आत्मज्ञान ही है, और शास्त्रका ज्ञान भी आत्मज्ञानके
लिए ही किया जाता है, जैसे दीपकसे वस्तुको देखकर वस्तुको उठा लेते हैं, और दीपकको छोड़