Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration). Gatha-87 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৬২ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-৮৭
स्वसंवेदनज्ञानमुख्यत्वेन द्वितीयमन्तरस्थलं समाप्तम् तदनन्तरं तत्रैव महास्थलमध्ये सूत्राष्टकपर्यन्तं
परिग्रहत्यागव्याख्यानमुख्यत्वेन तृतीयमन्तरस्थलं प्रारभ्यते
तद्यथा
२१४) लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु
बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहिँ वि एहु विसेसु ।।८७।।
लातुं इच्छति मूढः परं भुवनमपि एतद् अशेषम्
बहुविधधर्ममिषेण जीव द्वयोः अपि एष विशेषः ।।८७।।
लातुं ग्रहीतुं इच्छति कोऽसौ मूढो बहिरात्मा परं कोऽर्थः, नियमेन किम्
भुवनमप्येतत्तु अशेषं समस्तम् केन कृत्वा बहुविधधर्ममिषेण व्याजेन हे जीव द्वयोरप्येष
विशेषः पूर्वोक्त सूत्रकथितज्ञानिजीवस्यात्र पूर्वोक्त पुनरज्ञानिजीवस्य च तथाहि वीतराग-
মুখ্যতাথী বীজুং অন্তরস্থল সমাপ্ত থযুং.
তেনা পছী তে জ মহাস্থলমাং আঠ গাথাসূত্রো সুধী পরিগ্রহত্যাগনা কথননী মুখ্যতাথী
ত্রীজুং অংতরস্থল শরূ করে ছে.
তে আ প্রমাণে :
ভাবার্থ:এক (কেবল) বীতরাগ সহজানংদরূপ সুখনা আস্বাদরূপ স্বশুদ্ধাত্মা জ
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानकी मुख्यतासे दूसरा अंतरस्थल समाप्त हुआ
अब परिग्रहत्यागके व्याख्यानको आठ दोहोंमें कहते हैं
गाथा८७
अन्वयार्थ :[द्वयोः अपिः ] ज्ञानी और अज्ञानी इन दोनोंमें [एष विशेषः ] इतना
ही भेद है, कि [मूढोः ] अज्ञानीजन [बहुविधधर्ममिषेण ] अनेक तरहके धर्मके बहानेसे [एतद्
अशेषम् ] इस समस्त [भुवनम् अपि ] जगत्को ही [परं ] नियमसे [लातुं इच्छति ] लेनेकी
इच्छा करता है, अर्थात् सब संसारके भोगोंकी इच्छा करता है, तपश्चरणादि कायक्लेशसे
स्वर्गादिके सुखोंको चाहता है, और ज्ञानीजन कर्मोंके क्षयके लिये तपश्चरणादि करता है,
भोगोंका अभिलाषी नहीं है
।।
भावार्थ :वीतराग सहजानंद अखंडसुखका आस्वादरूप जो शुद्धात्मा वही आराधने