Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৮৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১০১
जि लक्षणं जानाति य एव देह-विभेएं भेउ तहं देहविभेदेन भेदं तेषां जीवानां,
देहोद्भवविषयसुखरसास्वादविलक्षणशुद्धात्मभावनारहितेन जीवेन यान्युपार्जितानि कर्माणि
१
तदुदयेनोत्पन्नेन देहभेदेन जीवानां भेदं णाणि किं मण्णइ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी किं मन्यते । नैव ।
कम् । सो जि तमेव पूर्वोक्तं देहभेदमिति । अत्र ये केचन ब्रह्माद्वैतवादिनो नानाजीवान्न मन्यन्ते
तन्मतेन विवक्षितैकजीवस्य जीवितमरणसुखदुःखादिके जाते सर्वजीवानां तस्मिन्नेव क्षणे
जीवितमरणसुखदुःखादिकं प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् । एकजीवत्वादिति । न च तथा द्रश्यते इति
भावार्थः ।।१०१।।
ব্যবধানরহিতপণে দেখবা-জাণবামাং সমর্থ এবাং বিশুদ্ধদর্শন অনে বিশুদ্ধজ্ঞান জীবোনুং লক্ষণ
ছে, এম জে জাণে ছে তে বীতরাগ স্বসংবেদনবালা জ্ঞানী শুং দেহথী উদ্ভবতা বিষযসুখরসনা
আস্বাদথী বিলক্ষণ শুদ্ধাত্মানী ভাবনাথী রহিত জীবে জে কর্মো উপার্জিত কর্যাং ছে তেনা উদযথী
উত্পন্ন দেহভেদথী জীবোনা ভেদ মানে? (কদী পণ ন মানে.)
অহীং, জে কোঈ ব্রহ্মাদ্বৈতবাদীও (বেদান্তীও) অনেক জীবোনে মানতা নথী (অনে এক
জ জীব মানে ছে) তেমনী এ বাত অপ্রমাণ ছে, কারণ কে তেমনা মতানুসার ‘এক জ
জীবনে’ মানবামাং বহু ভারে দোষ আবে ছে. তেনা মত অনুসারে বিবক্ষিত এক জীবনে
জীবিত-মরণ সুখ-দুঃখাদি থতাং, সর্ব জীবোনে তে জ ক্ষণে জীবিত-মরণ সুখ-দুঃখাদি থবাং
জোঈএ; শা মাটে? কারণ কে তেমনা মতমাং ‘এক জ জীব ছে’ এবী মান্যতা ছে. পণ এবুং
(অহীং) জোবামাং আবতুং নথী, (এক জ জীবনে জীবিত-মরণাদি থতাং বধানে জীবিত-মরণ
থতাং জোবামাং আবতাং নথী) এবো ভাবার্থ ছে. ১০১.
समयमें जाननेमें समर्थ जो केवलदर्शन केवलज्ञान है, उसे निज लक्षणोंसे जो कोई जानता है,
वही सिद्ध - पद पाता है । जो ज्ञानी अच्छी तरह इन निज लक्षणोंको जान लेवे वह देहके भेदसे
जीवोंका भेद नहीं मान सकता । अर्थात् देहसे उत्पन्न जो विषय – सुख उनके रसके आस्वादसे
विमुख शुद्धात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किये जो ज्ञानावरणादिकर्म, उनके
उदयसे उत्पन्न हुए देहादिक के भेदसे जीवोंका भेद, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी कदापि नहीं मान
सकता । देहमें भेद हुआ तो क्या, गुणसे सब समान हैं, और जीव – जातिकर एक हैं । यहाँ
पर जो कोई ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती नाना जीवोंको नहीं मानते हैं, और वे एक ही जीव मानते
हैं, उनकी यह बात अप्रमाण है । उनके मतमें एक ही जीवके माननेसे बड़ा भारी दोष होता
है । वह इस तरह है, कि एक जीवके जीने-मरने, सुख-दुःखादिके होने पर सब जीवोंके उसी
समय जीना, मरना, सुख, दुःखादि होना चाहिये, क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक है । परन्तु ऐसा
देखनेमें नहीं आता । इसलिये उनका वस्तु एक मानना वृथा है, ऐसा जानो ।।१०१।।
১ পাঠান্তর : — तदुयेनोत्पन्नेन = तदुयोत्पन्नेन