Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১০৩ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৩৮৯
अंगइं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । अंगइं सुहुमइं बादरइं अङ्गानि
सूक्ष्मबादराणि जीवानां विहि-वसिं होंति विधिवशाद्भवन्ति अङ्गोद्भवपञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षा-
मूलभूतानि द्रष्टश्रुतानुभूतभोगवाञ्छारूपनिदानबन्धादीनि यान्यपध्यानानि, तद्विलक्षणा यासौ
स्वशुद्धात्मभावना तद्रहितेन जीवेन यदुपार्जितं विधिसंज्ञं कर्म तद्वशेन भवन्त्येव । न केवलमङ्गानि
भवन्ति जे बाल ये बालवृद्धादिपर्यायाः तेऽपि विधिवशेनैव । अथवा संबोधनं १हे बाल अज्ञान ।
जिय पुणु सयल वि तित्तडा जीवाः पुनः सर्वेऽपि तत्प्रमाणा द्रव्यप्रमाणं प्रत्यनन्ताः,
क्षेत्रापेक्षयापि पुनरेकैकोऽपि जीवो यद्यपि व्यवहारेण स्वदेहमात्रस्तथापि निश्चयेन लोकाकाश-
प्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः । क्व । सव्वत्थ वि सर्वत्र लोके । न केवलं लोके सय-काल सर्वत्र
कालत्रये तु । अत्र जीवानां बादरसूक्ष्मादिकं व्यवहारेण कर्मकृतभेदं द्रष्ट्वा विशुद्धदर्शनज्ञान-
ভাবার্থ: — শরীরমাং উত্পন্ন পাংচ ইন্দ্রিযোনা বিষযোনী আকাংক্ষানুং মূল কারণ এবা,
দেখেলা, সাংভলেলা, অনে অনুভবেলা ভোগোনী বাংছারূপ নিদানবংধ আদি জে অপধ্যানো (দুর্ধ্যানো,
মাঠাং ধ্যানো) ছে তেনাথী বিলক্ষণ জে স্বশুদ্ধাত্মানী ভাবনা ছে তেনাথী রহিত জীবথী জে
বিধিসংজ্ঞাবালুং কর্ম উপার্জিত করবামাং আব্যুং ছে. তেনা বশথী জীবোনা সূক্ষ্ম, বাদর শরীরো থায ছে.
মাত্র শরীরো জ থায ছে এটলুং জ নহি পণ জে বালবৃদ্ধাদি পর্যাযো ছে তে পণ বিধিনা বিশে জ থায
ছে. অথবা সংবোধন করে ছে কে, হে বাল! হে অজ্ঞান! সর্ব জীবো সর্বত্র-লোকমাং-মাত্র লোকমাং জ
নহি, পরংতু ত্রণ কালমাং পণ তেটলা জ প্রমাণবালা ছে; অর্থাত্ দ্রব্যপ্রমাণথী অনংতা ছে অনে
ক্ষেত্রনী অপেক্ষাএ পণ এক এক জীব পণ জোকে ব্যবহারনযথী পোতানা দেহ জেটলো ছে তোপণ
নিশ্চযনযথী লোকাকাশপ্রমাণ অসংখ্যাত প্রদেশ জেটলো ছে.
भावार्थ : — जीवोंके शरीर व बाल वृद्धादि अवस्थायें कर्मोंके उदयसे होती हैं । अर्थात्
अंगोंसे उत्पन्न हुए जो पंचेंद्रियोंके विषय उनकी वाँछा जिनका मूल कारण है, ऐसे देखे, सुने,
भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप निदान बंधादि खोटे ध्यान उनसे विमुख जो शुद्धात्माकी भावना
उससे रहित इस जीवने उपार्जन किये शुभाशुभ कर्मोंके योगसे ये चतुर्गतिके शरीर होते हैं, और
बाल-वृद्धादि अवस्थायें होती हैं । ये अवस्थायें कर्मजनित हैं, जीवको नहीं हैं । हे अज्ञानी जीव,
यह बात तू निःसंदेह जान । ये सभी जीव द्रव्य – प्रमाणसे अनन्त हैं, क्षेत्रकी अपेक्षा एक एक
जीव यद्यपि व्यवहारनयकर अपने मिले हुए देहके प्रमाण हैं, तो भी निश्चयनयकर
लोकाकाशप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं । सब लोकमें सब कालमें जीवोंका यही स्वरूप जानना ।
बादर सूक्ष्मादि भेद कर्मजनित होना समझकर (देखकर) जीवोंमें भेद मत जानो । विशुद्ध ज्ञान-
১ পাঠান্তর : — हे बाल अज्ञान = बाल हे अज्ञान