Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৯০ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১০৪
लक्षणापेक्षया निश्चयनयेन भेदो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ।।१०३।।
अथ जीवानां शत्रुमित्रादिभेदं यः न करोति स निश्चयनयेन जीवलक्षणं जानातीति
प्रतिपादयति —
२३१) सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ ।
एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ ।।१०४।।
शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते ।
एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ।।१०४।।
सत्तु वि इत्यादि । सत्तु वि शत्रुरपि मित्तु वि मित्रमपि अप्पु परु आत्मा परोऽपि जीव
असेसु वि जीवा अशेषा अपि एइ एते प्रत्यक्षीभूताः एक्कु करेविणु जो मुणइ एकत्वं कृत्वा
অহীং, ব্যবহারনযথী জীবোনা বাদর সূক্ষ্মাদিক কর্মকৃত ভেদ জোঈনে নিশ্চযনযথী
বিশুদ্ধজ্ঞানলক্ষণনী অপেক্ষাএ জীবোনা ভেদ ন করবা, এবো অভিপ্রায ছে. ১০৩.
হবে, জে জীবোনা শত্রু, মিত্র আদি ভেদ করতো নথী তে নিশ্চযনযথী জীবনুং লক্ষণ জাণে
ছে, এম কহে ছে : —
ভাবার্থ: — শত্রু-মিত্র, জীবিত-মরণ, লাভ-অলাভাদি সমতাভাবরূপ বীতরাগ
दर्शनकी अपेक्षा सब ही जीव समान हैं, कोई भी जीव दर्शन, ज्ञान रहित नहीं है, ऐसा
जानना ।।१०३।।
आगे जो जीवोंके शत्रु-मित्रादि भेद नहीं करता है, वह निश्चयकर जीवका लक्षण
जानता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – १०४
अन्वयार्थ : — [एते अशेषा अपि ] ये सभी [जीवाः ] जीव हैं, उनमेंसे [शत्रुरपि ]
कोई एक किसीका शत्रु भी है, [मित्रम् अपि ] मित्र भी है, [आत्मा ] अपना है, और [परः ]
दूसरा है । ऐसा व्यवहारसे जानकर [यः ] जो ज्ञानी [एकत्वं कृत्वा ] निश्चयसे एकपना करके
अर्थात् सबमें समदृष्टि रखकर [मनुते ] समान मानता है, [सः ] वही [आत्मानं ] आत्माके
स्वरूपको [जानाति ] जानता है ।
भावार्थ : — इन संसारी जीवोंमें शत्रु आदि अनेक भेद दिखते हैं, परंतु जो ज्ञानी सबको
एक दृष्टिसे देखता है — समान जानता है । शत्रु, मित्र, जीवित, मरण, लाभ, अलाभ आदि