Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১০৭ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৩৯৫
क्वचिदपि । तथा ते जीवाः शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शक्त्यपेक्षया
केवलज्ञानादिगुण-रूपास्तेन कारणेन स एव जीवराशिः यद्यपि व्यवहारेण कर्मकृतस्तिष्ठति तथापि
निश्चयनयेन शक्ति रूपेण परमब्रह्मस्वरूपमिति भण्यते, परमविष्णुरिति भण्यते, परमशिव इति च ।
तेनैव कारणेन स एव जीवराशिः केचन परब्रह्ममयं जगद्वदन्ति, केचन परमविष्णुमयं वदन्ति,
केचन पुनः परमशिवमयमिति च । अत्राह शिष्यः । यद्येवंभूतं जगत्संमतं भवतां तर्हि परेषां
किमिति दूषणं दीयते भवद्भिः । परिहारमाह । यदि पूर्वोक्त नयविभागेन केवलज्ञानादिगुणापेक्षया
থলচর অনে নভচর এ বন্নে জাতিনা তির্যংচ ছে. তথা মনুষ্য মধ্যলোকনা অঢী দ্বীপমাং
জ ছে, বীজী জগ্যাএ নথী. দেবলোকমাং স্বর্গবাসী দেবদেবী ছে, অন্য পংচেন্দ্রিয নথী.
পাতাললোকমাং উপরনা ভাগমাং ভবনবাসীদেব তথা ব্যংতরদেব অনে নীচেনা ভাগমাং সাত
নরকোনা নারকী পংচেন্দ্রিয ছে, অন্য কোঈ নথী অনে মধ্যলোকমাং ভবনবাসী, ব্যংতরদেব তথা
জ্যোতিষীদেব এ ত্রণ জাতিনা দেব অনে তির্যংচ ছে, আ রীতে ত্রস জীব লোকমাং কোঈ জগ্যাএ
ছে কোঈ জগ্যাএ নথী. আ রীতে আ লোক জীবোথী ভরেলো ছে. সূক্ষ্মস্থাবর বগরনো তো
লোকনো কোঈ ভাগ খালী নথী, বধী জগ্যাএ সূক্ষ্মস্থাবর ভর্যা পড্যা ছে.)
বলী, তে জীবো শুদ্ধপারিণামিক পরমভাবগ্রাহক শুদ্ধ দ্রব্যার্থিকনযথী শক্তি-অপেক্ষাএ
কেবলজ্ঞানাদিগুণরূপ ছে, তে কারণে তে জীবরাশি – জোকে ব্যবহারনযথী কর্মকৃত ছে তোপণ
নিশ্চযনযথী শক্তিরূপে ‘পরম ব্রহ্মস্বরূপ’ কহেবায ছে, ‘পরমবিষ্ণু’ কহেবায ছে অনে ‘পরমশিব’
কহেবায ছে, তে কারণে জ তে জীবরাশিনে জ কেটলাক ‘পরমব্রহ্মময জগত’ কহে ছে, কেটলাক
जहाँ आधार है वहाँ हैं । सो कहीं पाये जाते हैं, कही नहीं पाये जाते, परंतु ये भी बहुत जगह
हैं । इसप्रकार स्थावर तो तीनों लोकोंमें पाये जाते हैं, और दोइंद्री, तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री तिर्यंच
ये मध्यलोकमें ही पाये जाते हैं, अधोलोक-ऊ र्ध्वलोकमें नहीं । उसमेंसे दोइंद्री, तेइंद्री, चौइन्द्री
जीव कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं, भोगभूमिमें नहीं । भोगभूमिमें गर्भज पंचेंद्री सैनी थलचर या
नभचर ये दोनों जाति – तिर्यंच हैं । मनुष्य मध्यलोकमें ढाई द्वीप में पाये जाते हैं, अन्य जगह
नहीं, देवलोकमें स्वर्गवासी देव-देवी पाये जाते हैं, अन्य पंचेंद्री नहीं, पाताललोकमें ऊ परके
भागमें भवनवासीदेव तथा व्यंतरदेव और नीचेके भागमें सात नरकोंके नारकी पंचेंद्री हैं, अन्य
कोई नहीं और मध्यलोकमें भवनवासी व्यंतरदेव तथा ज्योतिषीदेव ये तीन जातिके देव और
तिर्यंच पाये जाते हैं । इसप्रकार त्रसजीव किसी जगह हैं, किसी जगह नहीं हैं । इस तरह यह
लोक जीवोंसे भरा हुआ है । सूक्ष्मस्थावरके बिना तो लोकका कोई भाग खाली नहीं है, सब
जगह सूक्ष्मस्थावर भरे हुए हैं । ये सभी जीव शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध
द्रव्यार्थिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा केवलज्ञानादि गुणरूप हैं । इसलिये यद्यपि यह जीव - राशि
व्यवहारनयकर कर्माधीन है, तो भी निश्चयनयकर शक्तिरूप परब्रह्मस्वरूप है । इन जीवोंको