Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪০২ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১১১
जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् मोहु परिच्चयहि निर्मोहपरमात्मस्वरूपभावना-
प्रतिपक्षभूतं मोहं त्यज । कस्मात् । मोहु ण भल्लउ होइ मोहो भद्रः समीचीनो न भवति ।
तदपि कस्मात् । मोहासत्तउ सयलु जगु मोहासक्तं समस्तं जगत् निर्मोहशुद्धात्मभावनारहितं
दुक्खु सहंतउ जोइ अनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविलक्षणमाकुलत्वोपादकं दुःखं सहमानं
पश्येति । अत्रास्तां तावद् बहिरङ्गपुत्रकलत्रादौ पूर्वं परित्यक्ते पुनर्वासनावशेन स्मरणरूपो मोहो
न कर्तव्यः । शुद्धात्मभावनास्वरूपं तपश्चरणं तत्साधकभूतशरीरं तस्यापि स्थित्यर्थमशनपानादिकं
यद्गृह्यमाणं तत्रापि मोहो न कर्तव्य इति भावार्थः ।।१११।।
अथ स्थलसंख्याबहिर्भूतमाहारमोहविषयनिराकरणसमर्थनार्थं प्रक्षेपकत्रयमाह तद्यथा —
ভাবার্থ: — হে যোগী! তুং নির্মোহ এবা পরমাত্মস্বরূপনী ভাবনাথী প্রতিপক্ষভূত এবা
মোহনে তুং ছোড, কারণ কে মোহ সমীচীন নথী. শা মাটে? কারণ কে নির্মোহ এবা শুদ্ধ আত্মানী
ভাবনাথী রহিত মোহাসক্ত সমস্ত জগতনে, আকুলতা জেনুং লক্ষণ ছে এবা পারমার্থিক সুখথী
বিলক্ষণ অনে আকুলতানা উত্পাদক এবা দুঃখনে সহন করতুং, তুং দেখ.
অহীং, কহে ছে কে পূর্বে ছোডী দীধেল বহিরংগ স্ত্রী, পুত্রাদিমাং ফরীথী বাসনানা বশে
স্মরণরূপ মোহ তো ন করবো এ তো ঠীক, পরংতু শুদ্ধাত্মানী ভাবনাস্বরূপ জে তপশ্চরণ তেনা
সাধকভূত জে শরীর তেনী স্থিতি মাটে (তেনে টকাববা মাটে) পণ জে অন্ন, জলাদিক লেবামাং
আবে ছে তেমনী উপর পণ মোহ ন করবো, এবো ভাবার্থ ছে. ১১১.
হবে, আহারনা মোহনা ত্যাগনুং সমর্থন করবা মাটে স্থলসংখ্যাথী বহার ত্রণ প্রক্ষেপক
গাথাসূত্রো কহে ছে : —
क्योंकि [मोहः ] मोह [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं होता है, [मोहासक्तं ] मोहसे आसक्त
[सकलं जगत् ] सब जगत् जीवोंको [दुःखं सहमानं ] क्लेश भोगते हुए [पश्य ] देख ।
भावार्थ : — जो आकुलता रहित है, वह दुःखका मूल मोह है । मोही जीवोंको दुःख
सहित देखो । वह मोह परमात्मस्वरूपकी भावनाका प्रतिपक्षी दर्शनमोह चारित्रमोहरूप है ।
इसलिये तू उसको छोड़ । पुत्र, स्त्री आदिकमें तो मोहकी बात दूर रहे, यह तो प्रत्यक्षमें त्यागने
योग्य ही है, और विषय – वासनाके वश देह आदिक परवस्तुओंका रागरूप मोह - जाल है, वह भी
सर्वथा त्यागना चाहिये । अंतर बाह्य मोहका त्यागकर सम्यक् स्वभाव अंगीकार करना । शुद्धात्मा
की भावनारूप जो तपश्चरण उसका साधक जो शरीर उसकी स्थितिके लिये अन्न जलादिक लिये
जाते हैं, तो भी विशेष राग न करना, राग रहित नीरस आहार लेना चाहिये ।।१११।।
आगे स्थलसंख्याके सिवाय जो प्रक्षेपक दोहे हैं, उनके द्वारा आहारका मोह निवारण
करते हैं —