Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১১৬ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪১১
ভাবার্থ: — হে যোগী! রাগাদি স্নেহথী প্রতিপক্ষভূত এবা বীতরাগ পরমাত্ম-পদার্থনা
ধ্যানমাং স্থিত থঈনে শুদ্ধ আত্মতত্ত্বথী বিপরীত এবা স্নেহনে তুং ছোড. শা মাটে? কারণ কে
স্নেহ সমীচীন নথী. তে স্নেহমাং আসক্ত সকল জগতনে নিঃস্নেহ এবা শুদ্ধ আত্মানী ভাবনাথী
রহিত শারীরিক অনে মানসিক অনেক প্রকারনাং ঘণাং দুঃখোনে সহন করতুং, তুং দেখ.
অহীং, ভেদাভেদরত্নত্রযাত্মক মোক্ষমার্গ ছোডীনে, তেনা প্রতিপক্ষভূত মিথ্যাত্ব, রাগাদিমাং
স্নেহ ন করবো এবুং তাত্পর্য ছে. কহ্যুং পণ ছে কে ‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित् ।
स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव पदे पदे ।।’’ (অর্থ: — জীব ত্যাং সুধী সুখী ছে কে জ্যাং সুধী জগতনা
কোঈপণ পদার্থ প্রত্যে স্নেহ করতো নথী. স্নেহথী বীংধাযেলুং (স্নেহযুক্ত) হৃদয ডগলে-ডগলে দুঃখ
জ পামে ছে. ১১৫.
হবে, স্নেহনা দোষনে দ্রষ্টাংত বডে দ্রঢ করে ছে : —
रागादिस्नेहप्रतिपक्षभूते वीतरागपरमात्मपदार्थध्याने स्थित्वा शुद्धात्मतत्त्वाद्विपरीतं हे
योगिन् स्नेहं परित्यज । कस्मात् । स्नेहो भद्रः समीचीनो न भवति । तेन स्नेहेनासक्तं सकलं
जगन्निःस्नेहशुद्धात्मभावनारहितं विविधशारीरमानसरूपं बहुदुःखं सहमानं पश्येति । अत्र
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गं मुक्त्वा तत्प्रतिपक्षभूते मिथ्यात्वरागादौ स्नेहो न कर्तव्य इति
तात्पर्यम् । उक्तं च — ‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित् । स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव
पदे पदे ।।’’ ।।११५।।
अथ स्नेहदोषं द्रष्टान्तेन द्रढयति —
२४६) जल-सिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु ।
णेहहँ लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ।।११६।।
जलसिञ्चन पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम् ।
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ।।११६।।
भावार्थ : — यहाँ भेदाभेदरत्नत्रयरूप मोक्षके मार्गसे विमुख होकर मिथ्यात्व रागादिमें
स्नेह नहीं करना, यह सारांश है । क्योंकि ऐसा कहा भी है, कि जब तक यह जीव जगत्से
स्नेह न करे, तब तक सुखी है, और जो स्नेह सहित हैं, जिनका मन स्नेहसे बँध रहा है, उनको
हर जगह दुःख ही है ।।११५।।
आगे स्नेहका दोष दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं —
गाथा – ११६
अन्वयार्थ : — [तिलनिकरं ] जैसे तिलोंका समूह [स्नेहं लगित्वा ] स्नेह (चिकनाई)