Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration). Gatha-119 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪১৪ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১১৮
ভাবার্থ:জিনবরদেবে অনেকপ্রকারনা সাত অংগবালা রাজ্যবৈভবনে ছোডীনে ভেদা-
ভেদরত্নত্রযনী ভাবনানা বলথী সমস্তকর্মমলরূপ কলংকনো জেমাং সংপূর্ণপণে নাশ থযো ছে অনে
আত্মানী অত্যংত স্বাভাবিক-জ্ঞানাদি গুণোনা স্থানভূত জে অবস্থান্তর (সংসার-অবস্থাথী ভিন্ন
অবস্থা) মোক্ষ তে সাধ্যো ছে, এম জাণীনে ভিক্ষাথী ভোজন করনার হে জীব! তুং আত্মীয কার্য
কেম করতো নথী?
অহীং, আ ব্যাখ্যান জাণীনে বাহ্য অনে অভ্যংতর পরিগ্রহনে ত্যাগীনে অনে বীতরাগ
নির্বিকল্প সমাধিমাং স্থিত থঈনে বিশিষ্ট তপশ্চরণ করবুং, এবো অভিপ্রায ছে. ১১৮.
হবে, জিনভট্টারকনী জেম হে জীব! তুং পণ আঠ কর্মনো নাশ করীনে মোক্ষে চাল্যো জা,
এম সংবোধন করে ছে :
साधितः निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलङ्कस्यात्मनः आत्यन्तिकस्वाभाविकज्ञानादिगुणास्पदमवस्थान्तरं
मोक्षः स साधितः
कैः जिणवरहिं जिनवरैः किं कृत्वा छंडिवि त्यक्त्वा किम् बहु-विहु
रज्जु सप्ताङ्गंराज्यम् केन भेदाभेदरत्नत्रयभावनाबलेन एवं ज्ञात्वा भिक्ख-भरोडा जीव
भिक्षाभोजन हे जीव तुहुँ त्वं करहि ण अप्पउ कज्जु किं न करोषि आत्मीयं कार्यमिति अत्रेदं
व्याख्यानं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च विशिष्टतपश्चरणं
कर्तव्यमित्यभिप्रायः
।।११८।।
अथ हे जीव त्वमपि जिनभट्टारकवदष्टकर्मनिर्मूलनं कृत्वा मोक्षं गच्छेति संबोधयति
२४९) पावहि दुक्खु महंतु तुहँ जिय संसारि भमंतु
अट्ठ वि कम्मइँ णिद्दलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु ।।११९।।
गुणोंका स्थान तथा संसार - अवस्थासे अन्य अवस्थाका होना, वह मोक्ष कहा जाता है, उसी
मोक्षको वीतरागदेवने राज्यविभूति छोड़कर सिद्ध किया राज्यके सात अंग हैं, राजा, मंत्री, सेना
वगैरः ये जहाँ पूर्ण हों, वह उत्कृष्ट राज्य कहलाता है, वह राज्य तीर्थंकरदेवका है, उसको
छोड़नेमें वे तीर्थंकर देरी नहीं करते लेकिन तू निर्धन होकर आत्म - कल्याण नहीं करता तू
मायाजालको छोड़कर महान् पुरुषोंकी तरह आत्मकार्य कर उन महान् पुरुषोंने
भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाके बलसे निजस्वरूपको जानकर विनाशीक राज्य छोड़ा, अविनाशी
राज्यके लिये उद्यमी हुए
यहाँ पर ऐसा व्याख्यान समझकर बाह्याभ्यंतर परिग्रहका त्याग करना,
तथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर दुर्धर तप करना यह सारांश हुआ ।।११८।।
आगे हे जीव, तू भी श्रीजिनराजकी तरह आठ कर्मोंका नाशकर मोक्षको जा, ऐसा
समझाते हैं