Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪২২ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১২৫
হবে, জীবহিংসানো দোষ দর্শাবে ছে : —
ভাবার্থ: — রাগাদি বিকল্প রহিত স্বস্বভাবস্বরূপ শুদ্ধ চৈতন্যপ্রাণনী নিশ্চযথী
অভ্যংতরমাং হিংসা করীনে অনে বহারমাং হিংসা-বিকল্পথী অনেক লাখো জীবোনী হিংসা করীনে, স্ত্রী,
পুত্রনা মমত্বনা নিমিত্তথী উত্পন্ন, দেখেলা, সাংভলেলা অনে অনুভবেলা ভোগোনী আকাংক্ষাস্বরূপ
তীক্ষ্ণ শস্ত্রথী হে জীব! জে তুং পাপ করীশ তে পাপনুং ফল নরকাদি গতিমাং তারে একলানে জ
ভোগববুং পডশে.
অহীং, রাগাদিনা অভাবনে নিশ্চযথী অহিংসা কহী ছে. শা মাটে? (কারণ কে)
নিশ্চয শুদ্ধ চৈতন্য প্রাণনা রক্ষণনুং কারণ ছে. রাগাদিনী উত্পত্তি নিশ্চযহিংসা ছে তে পণ
अथ जीवहिंसादोषं दर्शयति —
२५५) मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि ।
पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि ।।१२५।।
मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यत् जीव पापं करिष्यसि ।
पुत्रकलत्राणां कारणेन तत् त्वं एकः सहिष्यसे ।।१२५।।
मारिवि इत्यादि । मारिवि जीवहं लक्खडा रागादिविकल्परहितस्य स्वस्वभावनालक्षणस्य
शुद्धचैतन्यप्राणस्य निश्चयेनाभ्यन्तरं वधं कृत्वा बहिर्भागे चानेकजीवलक्षाणाम् । केन
हिंसोपकरणेन । पुत्तकलत्तहं कारणइं पुत्रकलत्रममत्वनिमित्तोत्पन्नद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूप-
तीक्ष्णशस्त्रेण । जं जिय पाउ करीसि हे जीव यत्पापं करिष्यति तं तुहुँ एक्कु सहीसि तत्पापफ लं
आगे जीवहिंसाका दोष दिखलाते हैं —
गाथा – १२५
अन्वयार्थ : — [जीवानां लक्षाणि ] लाखों जीवोंको [मारयित्वा ] मारकर [जीव ] हे
जीव, [यत् ] जो तू [पापं करिष्यसि ] पाप करता है, [पुत्रकलत्राणां ] पुत्र, स्त्री वगैरहके
[कारणेन ] कारण [तत् त्वं ] उसके फ लको तू [एक ] अकेला [सहिष्यसे ] सहेगा ।
भावार्थ : — हे जीव, तू पुत्रादि कुटुम्बके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील,
परिग्रहादि अनेक प्रकारके पाप करता है, तथा अंतरंगमें रागादि विकल्प रहित ज्ञानादि
शुद्धचैतन्य प्राणोंका घात करता है, अपने प्राण रागादिक मैलसे मैले करता है, और
बाह्यमें अनेक जीवोंकी हिंसा करके अशुभ कर्मोंको उपार्जन करता है, उनका फ ल तू