Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৩০ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৩১
শব্দথী বাচ্য এবো দেহ তেনী সাথে জতো নথী. হে জীব! আ দ্রষ্টাংতনে তুং দেখ(জাণ).
অহীং, আ বধুং অধ্রুব জাণীনে দেহনা মমত্বথী মাংডীনে সর্ব বিভাব রহিত নিজ-শুদ্ধ
-আত্মপদার্থনী ভাবনা করবী জোইএ, এবো অভিপ্রায ছে. ১২৯.
হবে, মুনিরাজ প্রতি অধ্রুব অনুপ্রেক্ষানে কহে ছে : —
मिथ्यात्वविषयकषायासक्ते न यान्युपार्जितानि कर्माणि तत्कर्मसहितेन जीवेन भवान्तरं प्रति
गच्छतापि कुडिशब्दवाच्यो देहः सहैव न गत इति हे जीव इहु पडिछंदा जोइ इमं द्रष्टान्तं
पश्येति । अत्रेदमध्रुवं ज्ञात्वा देहममत्वप्रभृतिविभावरहितनिजशुद्धात्मपदार्थभावना कर्तव्या
इत्यभिप्रायः ।।१२९।।
अथ तपोधनं प्रत्यध्रुवानुप्रेक्षां प्रतिपादयति —
२६०) देउलु देउ वि सत्थु गुरु तित्थु वि वेउ वि कव्वु ।
वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु ।।१३०।।
देवकुलं देवोऽपि शास्त्रं गुरुः तीर्थमपि वेदोऽपि काव्यम् ।
वृक्षः यद् द्रश्यते कुसुमितं इन्धनं भविष्यति सर्वम् ।।१३०।।
आसक्त होके जीवने जो कर्म उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता
है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता । इसलिये इस लोकमें इन देहादिक सबको विनश्वर जानकर
देहादिकी ममता छोड़ना चाहिये, और सकल विभाव रहित निज शुद्धात्म पदार्थकी भावना
करनी चाहिये ।।१२९।।
आगे मुनिराजोंको देवल आदि सभी सामग्री अनित्य दिखलाते हुए अध्रुवानुप्रेक्षाको
कहते हैं —
गाथा – १३०
अन्वयार्थ : — [देवकुलं ] अरहंतदेवकी प्रतिमाका स्थान जिनालय [देवोऽपि ]
श्रीजिनेंद्रदेव [शास्त्रं ] जैनशास्त्र [गुरुः ] दीक्षा देनेवाले गुरु [तीर्थमपि ] संसार – सागरसे तैरनेके
कारण परमतपस्वियोंके स्थान सम्मेदशिखर आदि [वेदोऽपि ] द्वादशांगरूप सिद्धांत [काव्यम् ]
गद्य – पद्यरूप रचना इत्यादि [यद् द्रश्यते कुसुमितं ] जो वस्तु अच्छी या बुरी दिखनेमें आती
हैं, वे [सर्वम् ] सब [इंधनं ] कालरूपी अग्निका ईंधन [भविष्यति ] हो जावेगी ।।